Friday, December 31, 1999

नई सदी या दिमागी दिवालियापन

इंडियन एअर लाइंस के विमान के अपहरण के बाद उसमें सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने जिस तरह अपने गुस्से का इजहार किया वह अप्रत्याशित था। किसी हादसे के बाद सरकारी तंत्र की विफलता पर नागरिकों का गुस्सा हो जाना एक स्वभावित बात होती है। अक्सर ऐसा होता भी रहता है। लोग संबंधित अधिकारियों को कोसते हैं, राजनेताओं पर संवेदनशून्यता का आरोप लगाते हैं और खुद स्थिति से जूझने में जुट जाते हैं। इस बार जो नई बात थी वह ये कि जैसे ही इस वायुयान में सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों को पता चला कि आतंकवादी अपने साथियों को रिहा करवाने की मांग कर रहे हैं और सरकार उनसे बातचीत करके मामला निपटाना चाहती है, तो उनका क्रोध आपे के बाहर हो गया। उनका तर्क था कि पूर्व गृहमंत्रh श्री मुफ्ती मौहम्मद की बेटी कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा उठा ली गई थी तब तत्कालीन सरकार ने बिना हील-हुज्जत के आतंकवादियों की मांगों के आगे समपर्ण कर दिया था और गृहमंत्राी की बेटी को बचाने के लिए कई खूंखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया था। जबकि इस बार वायुयान में 150 से ज्यादा मुसाफिरों की जान अटकी है पर सरकार वैसी फुर्ती नहीं दिखा रही। मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने बार-बार जोर देकर कहा, ‘चूंकि इस वायुयान में कोई राजनेता या उसका परिवारजन सफर नहीं कर रहा इसलिए सरकार निर्णय लेने में इतना वक्त खराब कर रही है। जबकि वायुयान में सवार मुसाफिरों के प्राण जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं।’ इन लोगों में इस कदर गुस्सा था कि इनका एक झुंड शोर मचाते हुए सीधे वहां पहुंच गया जहां विदेश मंत्राी श्री जसवंत सिंह सम्मवाददाता सम्मेलन कर रहे थे। वहीं विदेश मंत्राी को पत्राकारों के सामने ही इन लोगों ने खूब खरी-खोटी सुनाई।

दूसरी तरफ मुसाफिरों के कुछ दूसरे नातेदारों का लगातार प्रधानमंत्राी पर दबाव बनाए रखना यह सिद्ध करता है कि हिंदुस्तानी जनता अब राजनेताओं को कटघरे में खड़ा करने लगी है। 27 दिसंबर को तो मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने दिल्ली के सेंट्योर होटल से प्रधानमंत्राी निवास तक पैदल मार्च किया और देर रात तक प्रधानमंत्राी आवास के बाहर खड़े रहे। इन लोगों के इस तर्क में निसंदेह बहुत दम है कि अगर कोई राजनेता या उसका परिवारजन इस वायुयान में होता तो निर्णय लेने में सरकार इतनी देर न लगाती। अपनी इस भावना का खुला प्रदर्शन इन रिश्तेदारों ने अलग-अलग टेलीविजन कंपनियों के सामने खुल कर किया। देश के बिगड़ते निजाम और सूचना क्रांति के चलते भारतीय लोकतंत्रा के पांचवें दशक में जनता में जिस तरह की जागरूकता आ रही है और जिस तरह की जवाबदेही की अपेक्षा वह राजनीतिज्ञों से करने लगी है वह एक स्वस्थ्य प्रवृत्ति है। इससे भारतीय लोकतंत्रा मजबूत ही होगा। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा क्यों हो गया है कि राजनेता किसी भी विचारधारा या दल के क्यों न हों जनता की निगाह में उनकी तस्वीर एक फिल्मी विलेन से ज्यादा नहीं बची है। आज खादी के सफेद कपड़े पहनने वाले को सरेआम दलाल कहा जाता है। सुरक्षा गार्डों को लेकर चलने वाले नेताओं पर नौजवान फब्ती कसते हैं, ‘देखो एक और चोर जा रहा है।’ एक जमाना था जब केंद्र और प्रांत की सरकार आमतौर पर एक ही दल चलाता था पर आज दो दर्जन दल देश की सरकार चलाने पर मजबूर है। क्योंकि जनता का विश्वास किसी भी दल या विचारधारा में नहीं रहा। उसने अब ये अच्छी तरह समझ लिया है कि विचारधाराओं के मुखौटे तो जनता को बरगलाने के लिए होते हैं, पर्दे के पीछे तो सबकी मिली भगत है। इस सदी के आखिरी वर्ष में अगर हम देश की राजनैतिक स्थिति का मूल्यांकन करs तो कुछ रोचक तथ्यों को अनदेखा नहीं कर पाएंगे। इस सदी के शुरू में श्री बालगंगाधर तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री लाला लाजपत राय, श्री गोपाल कृष्ण गोखले, श्री सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे महान्, त्यागी, राष्ट्र भक्त और युग दृष्टा राजनेताओं की एक लंबी कतार पाते हैं। जबकि आज के दौर की राजनीति के कुछ चमकते सितारें हैं श्री अमर सिंह, श्री ओम प्रकाश सिंह चैटाला, श्री लालू यादव, श्री पप्पू यादव, श्री सुखराम, श्री गुलामनबी आजाद आदि। कोई इन राजनेताओं से पूछे कि आप कौन-सी राजनैतिक विचारधारा में पले, बढ़े ? उस विचारधारा से आपके जीवन का क्या संबंध है ? आपने अपने जीवन में समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए कौन सा संघर्ष किया? क्या तकलीफें सही ? किन सुख, सुविधाओं का त्याग किया ? आखिर आपने देश और समाज के लिए ऐसा क्या योगदान किया कि आज आप देश के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं ? हो सकता है कि जवाब मिले ‘क्या करें हालात ही ऐसी है कि हमें न चाहते हुए भी बहुत कुछ ऐसा-वैसा करना पड़ता है।’ तब प्रश्न किया जा सकता है कि जिसने हालात के आगे समर्पण कर दिया हो उसे नेता कैसे माना जा सकता है ? नेता तो वह होता है जो विपरीत हालात में भी अपनी बात मनवाने की कुव्वत रखता हो। जो समाज और राष्ट्र को दिशा और नेतृत्व देने की क्षमता रखता हो। ऐसे सक्षम कितने नेता आज देश में हैं ? कितने नेता देश में हैं जिनकी एक झलग देखने को गांव के गांव उमड़े चले आते हों ? आज हर दल को किराए की भीड़ क्यों जुटानी पड़ती है ? ये कैसा लोकतंत्रा है जिसमें नेताओं के बेटे तो घर बैठे नेता बन जाते हैं और कार्यकर्ता जीवन भर कार्यकर्ता ही बने रहते हंक ? इस सदी में भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में आए इस प्रमुख परिवर्तन का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। आज देश का प्रबंधन और प्रगति की दिशा देश में उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रख कर या लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। बल्कि निहित स्वार्थों के आत्मपोषण के लिए है।

साफ बात है कि जब समाज सेवा का ढोंग रच कर लुटेरी मानसिकता के लोग राजनीति मंे हावी हो जाएंगे तो उनके प्रति जनता का रवैया इससे भिन्न और क्या हो सकता है ? कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर राजनेताओं की देश में इज्जत नहीं बची है। यह राष्ट्र और समाज के लिए दुखद स्थिति है। राजनेताओं को ही इसके कारण खोजने चाहिए। उन्हें धरातल पर उतरना चाहिए। उन्हें सदी के इस अंतिम वर्ष में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के इस पतन पर आत्मविश्लेषण करना चाहिए ताकि नई सदी में वे सही मायने में देश को नेतृत्व दे सकें। जिसकी भारत जैसे देश को अभी बहुत जरूरत है। ऐसा नहीं है कि सभी राजनेताओं का एक जैसा हाल है। अगर केंद्रीय सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल की तरफ ही देखें तो हर मामले में न सही, पर कुछ मामलों में अनूठे आदर्श सामने दिखाई देते हैं। मसलन, केंद्रीय रेल मंत्राी सुश्री ममता बनर्जी ने अभी तक अपने पद के अनुरूप सरकारी बंगला नहीं लिया है। वे बिना किसी तामझाम के, बेहद सादगी से, अपने उसी फ्लैट में रह रही हैं जिसमें बतौर सांसद वे आज तक रहती आई हैं। कोई अनजान व्यक्ति भी आसानी से उनके घर में घुस सकता है। इतना ही नहीं सुश्री बनर्जी अपने टिफिन में घर से अपना लंच लेकर जाती हैं। उनसे मिलने आने वालों को रेल मंत्रालय की कैंटीन से चाय मंगवा कर पिलाती हैं और उसका भुगतान भी खुद ही करती हैं। जबकि आज तक परंपरा यही थी कि रेलमंत्राी के मेहमानों की खातिर शाही तरीके से रेल विभाग द्वारा की जाती थी और इस फालतू खर्च का भार पड़ता था जनता पर। क्या ममता बनर्जी की तरह ही केंद्रीय सरकार के बाकी मंत्राी भी इसी तरह ही सादगी और मितव्यता से काम नहीं कर सकते ? दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है केंद्रीय रक्षा मंत्राी श्री जार्ज फर्नाडीज का। उनके पद की संवेदनशीलता को देखते हुए उनके साथ सेना के जवानों और सुरक्षा कर्मियों का लगातार उनके इर्द-गिर्द बने रहना स्वभाविक सी बात है। पर श्री जार्ज फर्नाडीन ने ये सारे भ्रम तोड़ डाले हैं। यूं कहने को तो वे रक्षा मंत्राी है पर उनके बंगले के दरवाजे पर कोई भी सुरक्षा कर्मी तैनात दिखाई नहीं देते। नई दिल्ली के कृष्णा मेनन मार्ग पर स्थित रक्षा मंत्राी के सरकारी आवास का आलम यह है कि इतने बड़े बंगले में एक फाटक तक नहीं लगा है। कोई भी सड़क चलता आदमी रक्षा मंत्राी के शयन कक्ष तक बे-रोक-टोक पहुंच सकता है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है और वह यह कि जब देश का रक्षा मंत्राी बिना सुरक्षा कर्मियों के आराम से रह सकता है, उसे कोई खतरा नहीं नजर आता, तो देश के बाकी नेताओं और उनके चमचे चाटुकारों को ऐसा कौन सा खतरा पैदा हो गया है जो सारे के सारे अपने इर्द-गिर्द सुरक्षा कर्मियों को लटकाए घूमते हैं। राज्यों के मुख्यमंत्राी जब सड़कों पर निकलते हैं तो उनके आगे-पीछे आला अफसरों की गाडि़यों का इतना बड़ा हुजूम होता है कि दुनिया के ज्यादातर देशों के राष्ट्राध्यक्ष तक देख कर घबड़ा जाएं। ये फिजूलखर्ची क्यों ? आर्थिक रूप से दीवालिया हो चुके उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हर विधायक तक एक एक सुरक्षाकर्मी को साथ लेकर घूमता है। खर्चा पड़ता है प्रदेश की जनता पर। जो जनप्रतिनिधि बन कर भी जनता के बीच जाने से घबड़ाता हो उसे जनता अपना नेता क्यों माने ? देश में नेतृत्व और आदर्शवादी राजनीतिज्ञों का अभाव सदी के अंतिम वर्षों में एक बहुत बड़े संकट के रूप में उभर कर सामने आया है।

राजनीति में आई इस गिरावट के लिए वो सब लोग जिम्मेदार हैं जो राजनीमि को अछूत मानते आए हैं। फिर चाहे वो समर्पित और त्यागी सामाजिक कार्यकर्ता हों या अन्य व्यवसायों से जुड़े संवेदनशील जागरूक नागरिक- सबको सोचना चाहिए कि इस तरह हजारों झुंडों और खेमों में बंट कर वे समाज को कैसे बदल पाएंगे? किले का सदर दरवाजा तोड़ने के लिए लकड़ी का एक लट्ठा ही काफी होता है। बशर्ते कि उसे सामुहिक रूप से उठाने के लिए कुछ लोग तैयार हों और वे सब सामुहिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उस लट्ठे से किले के सदर दरवाजे पर बार-बार आघात करें। दुर्भाग्य से राष्ट्र व समाज के बारे में सोचने वाले लोग अपने अहम के चलते किसी दूसरे के काम को न तो समझना चाहते हैं और न उसकी प्रशंसा करना चाहते हैं। सबको अपनी सोच, अपनी क्षमता और अपना काम ही सर्वश्रेष्ठ लगाता है। अगली सदी में यह स्थिति बदल सके इसके लिए जागरूक नागरिकों को ही पहल करनी होगी। ताकि देश की राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह और पारदर्शी बनाया जा सके। इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। भारत के बिगड़े हालात सुधारने चीन या पाकिस्तान के नागरिक तो करूणावश यहां आएंगे नहीं ? अगर हम चाहते है कि हमारे नेताओं का व्यक्तित्व गर्व करने योग्य हो तो हम सबको इसके लिए सतत प्रयास करना होगा। ताकि जब इंडियन एअर लाइंस का विमान अपहरण करके ले जाया जाए तो लोगों को प्रधानमंत्राी और विदेश मंत्राी के घर के सामने धरना न देना पड़े, उनकी आलोचना न करनी पड़े, उनकी औपचारिक बैठकों में दखन न देना पडे़, बल्कि उन्हंे विश्वास हो कि सरकार जो भी करेगी सर्वश्रेष्ठ करेगी, उनके हित में करेगी और जितनी जल्दी हो सके करेगी। पिछले दो दशकों में सरकार और प्रशासन पर से जनता का भरोसा लगभग उठ चुका है। किसी देश के लिए इससे ज्यादा चिंता की बात और क्या होगी कि उसकी जनता का अपनेे नेतृत्व में विश्वास ही न हो ? इस बिखराव को रोकना होगा और लोगों का विश्वास फिर से राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में जमाना होगा। तभी अगली सदी में वह सब हासिल हो पाएगा जिसके सपने आज देखे और दिखाए जा रहे हैं।

केवल नारो से कोई राष्ट्र मजबूूत नहीं बना करता। नारो के पीछे समर्पण और आदर्श-जीवन के उदाहरण होते हैं, तभी नारे सार्थक हो पाते हैं। पर दुर्भाग्य से बाजारू शक्तियों ने राष्ट्र के जीवन में आने वाले हर ऐतिहासिक अवसर को माल बेचने के अवसर में बदल देने में महारथ हासिल कर ली है। फिर चाहे वो कारगिल युद्ध हो या नई सदी के उत्सव। बाजारू शक्तियां मीडिया पर किस कदर हावी हैं इसका उदाहरण है नई सदी का बुखार, जो बिना वजह ही पूरे देश को चढ़ गया है। 1 जनवरी 2000 से बीसवीं सदी का आखिरी वर्ष शुरू हो रहा है ना कि नई सदी की शुरूआत। नई सदी तो 1 जनवरी 2001 से शुरू होगी। पर जिस तरह विज्ञापन एजेंसियां मिट्ठी को सोना बता कर बेंच देती हैं उसी तरह अब ये इतनी ताकतवर हो चुकी हैं कि बड़ी आसानी से लोगों की सोच पर कब्जा जमा लेती हैें। फिर चाहे वह सोच देश की समस्याओं के बार में हो या राजनैतिक नेतृत्व के बारे में या एड्स जैसी किसी तथाकथित महामारी के बारे में या क्रिकेट मैच के टीवी प्रसारण के बारे में, सब कुछ फास्ट-फूड की तरह पहले बाजारू शक्तियों के प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है और फिर उसे बड़ी होशियारी से लोगों के दिमागों में दर्ज करा दिया जाता है ताकि उसका फायदा कुछ कंपनियों के माल को बेचने में उठाया जा सके। इस तरह हमारी सोच और जेब दोनों पर डाका डाला जा रहा है। इस सदी के अंतिम दशकों में आ खड़े हुए इस नए खतरे के बावजूद अगर हमें अपने जीवन स्तर को वाकई उठाना है, भारत को महान् बनाना है और अपने राजनेताओं का रवैया सुधारना है, तो हमें कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे। वरना अगली सदी में सपने टूटते देर नहीं लगेगी। जाहिर है कि शराब पीकर ‘न्यू ईयर्स ईव’ पार्टियों में थिरकने वाले तो ऐसे कदम उठा नहीं सकते। फिर ये पहल कौन करेगा ?