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Monday, September 9, 2024

कांग्रेस समझदारी से चले


जून 2024 के चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी का ग्राफ काफ़ी बढ़ गया है। बेशक इसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष किया और भारत के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे लम्बी पदयात्रा की। जिसके दौरान उन्हें देशवासियों का हाल जानने और उन्हें समझने का अच्छा मौक़ा मिला। इस सबका परिणाम यह है कि वे संसद में आक्रामक तेवर अपनाए हुए हैं और तथ्यों के साथ सरकार को घेरते रहते हैं। किसी भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों का मज़बूत होना ज़रूरी होता है। इसी से सत्ता का संतुलन बना रहता है और सत्ताधीशों की जनता के प्रति जवाबदेही संभव होती है। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र को अधिनायकवाद में बदलने में देर नहीं लगती।
 


आज राहुल गांधी विपक्ष के नेता भी हैं। जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद है। जिसकी बात को सरकार हल्के में नहीं ले सकती। इंग्लैंड, जहां से हमने अपने मौजूदा लोकतंत्र का काफ़ी हिस्सा अपनाया है, वहाँ तो विपक्ष के नेता को ‘शैडो प्राइम मिनिस्टर’ के रूप में देखा जाता है। उसकी अपनी समानांतर कैबिनेट भी होती है, जो सरकार की नीतियों पर कड़ी नज़र रखती है। ये एक अच्छा मॉडल है जिसे अपने सहयोगी दलों के योग्य नेताओं को साथ लेकर राहुल गांधी को भी अपनाना चाहिए। आपसी सहयोग और समझदारी बढ़ाने के लिए, ये एक अच्छी पहल हो सकती है। 


राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनाने में ‘इंडिया गठबंधन’ के सभी सहयोगी दलों, विशेषकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की बहुत बड़ी भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश से 37 लोक सभा सीट जीत कर अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनने का आधार प्रदान किया। आज समाजवादी पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ऐसे में अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का ये नैतिक दायित्व है कि वे भी अखिलेश यादव जैसी उदारता दिखाएं जिसके कारण कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी जैसी प्रतिष्ठा की सीटें जीतने का मौक़ा मिला। वरना उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन और जनाधार के मामले में बहुत पीछे जा चुकी थी। अब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव हैं, जहां कांग्रेस सबसे बड़े दल की भूमिका में हैं। वहाँ उसे समाजवादी पार्टी को साथ लेकर चलना चाहिए और दोनों राज्यों के चुनावों में समाजवादी पार्टी को भी कुछ सीटों पर चुनाव लड़वाना चाहिए। महाराष्ट्र में तो समाजवादी पार्टी के दो विधायक अभी भी थे। हरियाणा में भी अगर कांग्रेस के सहयोग से उसके दो-तीन विधायक बन जाते हैं तो अखिलेश यादव को अपने दल को राष्ट्रीय दल बनाने का आधार मिलेगा। इससे दोनों के रिश्ते प्रगाढ़ होंगे और ‘इंडिया गठबंधन’ भी मज़बूत होंगे। 



स्वाभाविक सी बात है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को इस रिश्ते से तक़लीफ़ होगी। क्योंकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक एक सा है। ये नेता पुराने ढर्रे पर चलकर समाजवादी पार्टी के जनाधार पर निगाह गढ़ाएँगे। पर ऐसी हरकत से दोनों दलों के आपसी संबंध बिगड़ेंगे और बहुत दूर तक साथ चलना मुश्किल होगा। इसलिए ‘इंडिया गठबंधन’ के हर दल को ये ध्यान रखना होगा कि जिस राज्य में जिस दल का वर्चस्व है वो वहाँ नेतृत्व संभले पर, साथ ही अपने सहयोगी दलों को भी साथ खड़ा रखे। विशेषकर उन दलों को जिनका उन  राज्यों में कुछ जनाधार है। इससे गठबंधन के हर सदस्य दल को लाभ होगा। राहुल गांधी को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी दल ‘इंडिया गठबंधन’ में अपने को उपेक्षित महसूस न करें। इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी के बाद सबसे बड़ा क़द अखिलेश यादव का है। अखिलेश की शालीनता और उदारता का उनके विरोधी दलों के नेता भी सम्मान करते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव को पूरा महत्व देकर राहुल गांधी अपनी ही नींव मज़बूत करेंगे। 



हालाँकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के पिछले कुछ अनुभव अच्छे नहीं रहे। इसलिए और भी सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि अखिलेश यादव में इतना बड़प्पन है कि वे अपनी कटु आलोचक बुआजी बहन मायावती से भी संबंध सुधारने में सद्भावना से पहल कर रहे हैं। यही नीति ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार व लालू यादव आदि को भी अपनानी होगी। तभी ये सब दल भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत बना पायेंगे। 


यही बात भाजपा पर भी लागू होती है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देकर भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ एनडीए गठबंधन चला रही है। पर भाजपा का पिछले दस वर्षों का ये इतिहास रहा है कि उसने प्रांतों की सरकार बनाने में जिन छोटे दलों का सहयोग लिया, कुछ समय बाद उन्हीं दलों को तोड़ने का काम भी किया। इससे उसकी नीयत पर इन दलों को संदेह बना रहता है। पिछले दो लोक सभा चुनावों में भाजपा अपने बूते पर केंद्र में सरकार बना पाई। पर 2024 के चुनाव परिणामों ने उसे मिलीजुली सरकार बनाने पर मजबूर कर दिया। पर अब फिर वही संकेत मिल रहे हैं कि भाजपा का नेतृत्व, तेलगुदेशम, जदयू व चिराग़ पासवान के दलों में सेंध लगाने की जुगत में हैं।  अगर इस खबर में दम है तो ये भाजपा के हित में नहीं होगा। जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच एजेंसियों के तौर-तरीक़ों पर लगाम कसनी शुरू की है, उससे तो यही लगता है कि डरा-धमका कर सहयोग लेने के दिन लद गए। भाजपा को अगर केंद्र में सरकार चलानी है या आगामी चुनावों में भी वो राज्यों की सरकारें बनाना चाहती है तो उसे ईमानदारी से सबका साथ-सबका विकास की नीति पर चलना होगा। 


हमारे लोकतंत्र का ये दुर्भाग्य है कि जीते हुए सांसद और विधायकों की प्रायः बोली लगाकर उन्हें ख़रीद लिया जाता है। इससे मतदाता ठगा हुआ महसूस करता है और लोकतंत्र की जड़ें भी कमज़ोर होती हैं। 1967 से हरियाणा में हुए दल-बदल के बाद से ‘आयाराम-गयाराम’ का नारा चर्चित हुआ था। अनेक राजनैतिक चिंतकों और समाज सुधारकों ने लगातार इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की माँग की है। पर कोई भी दल इस पर रोक लगाने को तैयार नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि संविधान में परिवर्तन करके ऐसा क़ानून बनाया जाए कि जब कोई उम्मीदवार, लोक सभा या विधान सभा का चुनाव जीतता है तो उसे उस लोक सभा या विधान सभा के पूरे कार्यकाल तक उसी दल में बने रहना होगा जिसके चुनाव चिन्ह पर वो जीत के आया है। अगर वो दूसरे दल में जाता है तो उसे अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देना होगा। तभी इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सभी दलों को अपने हित में इस विधेयक को पारित कराने के लिए एकजुट होना होगा। 

Monday, July 8, 2024

अयोध्यावासियों का बहिष्कार क्यों?


जब से लोकसभा चुनावों के परिणाम आए हैं तब से सोशल मीडिया पर व अन्य माध्यमों से ऐसी बातें सुनने को मिल रही है कि भगवान श्रीसीताराम जी का दर्शन करने अयोध्या जाने वाले भक्त अयोध्यावासियों का बहिष्कार करें। वो वहाँ की दुकानों से कुछ भी सामान, भोग, माला, तस्वीर, ग्रंथ आदि न ख़रीदें। ऐसा इसलिए क्योंकि वहाँ के नागरिकों ने भाजपा को वोट नहीं दिया। यहाँ ये जानना बहुत ज़रूरी है कि अयोध्या जिसे अवध पुरी कहते हैं वो भगवान श्रीराम का नित्य धाम है और उन्हें अत्यंत प्रिय है। रामचरित् मानस के अनुसार भगवान श्री राम ने अयोध्या के विषय में कहा है कि -

‘अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥ 

हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥4॥’ 


इस चौपाई को हर राम भक्त ने अपने जीवन में कभी न कभी अवश्य पढ़ा होगा और पढ़ कर इसका अर्थ भी समझा होगा, जो इस प्रकार है कि, यहाँ के (अयोध्या के) निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्रीरामजी ने बड़ाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है। इस चौपाई में भगवान श्रीराम अयोध्या पुरी का इतना बड़ा माहात्म्य बता रहे हैं कि इसमें हमें भगवान श्रीराम के परमधाम तक पहुँचाने की सामर्थ है।  


अब प्रश्न उठता है कि जो भी अपने को राम भक्त कहता है या राम भक्त होने का दावा करता है, क्या वो भगवान श्रीराम की प्रिय वस्तु का तिरस्कार करेगा? जब भगवान स्वयं कह रहे हैं कि मुझे ये अयोध्या पुरी प्रिय है और यहाँ रहने वाले अयोध्यावासी अतिप्रिय हैं, तो भगवान श्रीराम की अतिप्रिय वस्तु का अपमान करना, उसकी उपेक्षा करना, उसका बहिष्कार करना, उसके प्रति द्वेष भावना रखना, क्या ये भक्ति का लक्षण है या ये भक्ति के मार्ग में किया जा रहा धाम अपराध है? यह एक बहुत गंभीर प्रश्न है। हर संप्रदाय के आचार्यों ने भक्तों को बार-बार चेतावनी दी है कि वे धाम अपराध से बचें। उदाहरण के तौर पर ब्रह्म गौड़ीय माधव संप्रदाय के प्रमुख आचार्य इस विषय में क्या कहते हैं, यह जानकर हमारा भ्रम दूर हो जाएगा। वे कहते हैं कि, ‘जो भी भक्त तीर्थ यात्रा पर जाते हैं वे उन अपराधों से सावधानी से बचें जो पवित्र स्थान की आपकी यात्रा को बिगाड़ सकते हैं। महान आध्यात्मिक गुरु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर धाम के साथ-साथ इसके निवासियों के प्रति भी अत्यंत सावधानीपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश दे रहे हैं। 



वे कहते हैं कि तीर्थ यात्रा के समय जब आप अयोध्या पुरी या मथुरा पुरी जैसे किसी धाम में जाते हैं तो अपने आध्यात्मिक गुरु का अनादर न करें, क्योंकि ये धाम अपराध माना जाएगा। यह सोचना कि अयोध्या पुरी जैसा पवित्र धाम अस्थायी है, भी धाम के प्रति अपराध है। क्योंकि धाम भौतिक सिद्धांतों के परे होते हैं। वे शाश्वत होते हैं। यानी सदैव थे और सदैव रहेंगे। ऐसे पवित्र धाम के निवासियों में से किसी के प्रति हिंसा करना या उन्हें साधारण व्यक्ति समझकर उनका अनादर करना या उस धाम में कूड़ा-कचरा फैलाना भी धामवासियों के प्रति हिंसा ही है। वे आगे कहते हैं कि, पवित्र धाम में अन्य देवताओं की पूजा करना और धर्म का व्यवसायीकरण करके धाम का उपयोग व्यक्तिगत आर्थिक विकास के लिए करना भी धाम अपराध है। बाहरी लोगों का धाम में जाकर कालोनियाँ काटना, होटल बनाना या व्यापार करना भी धाम अपराध की श्रेणी में ही आता है। उन शास्त्रों की निन्दा करना जो पवित्र धाम की इस गौरवशाली स्थिति का ज्ञान देते हैं, भी धाम अपराध है। धाम की शक्ति के प्रति अविश्वासी होना और यह सोचना कि धाम की महिमा काल्पनिक है, भी धाम अपराध है। इसी प्रकार अन्य संप्रदायों के आचार्यों ने और अनेक शास्त्रों ने धाम और धाम के वासियों के प्रति अपराध न करने का निर्देश दिया है।  



अब ज़रा सोचिए कि जिन लोगों ने भी अयोध्यावासियों का बहिष्कार करने का आह्वान किया है, वे किस श्रेणी के लोग हैं? या तो वे मूर्ख और अज्ञानी हैं, जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया? या वे भक्त हैं ही नहीं और राम भक्त होने का झूठा दावा कर रहे हैं और अगर यह सब उन्होंने जानते-बूझते हुए किया है तो वे न सिर्फ़ ख़ुद घोर पाप कर रहे हैं, बल्कि अन्य भक्तों को भी पाप कर्म करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अतः पिछले दिनों जिस किसी ने भी अयोध्या यात्रा के दौरान उनके इस आह्वान पर अयोध्यावासियों का बहिष्कार या तिरस्कार किया है, या इस संदेश को प्रसारित करने में योगदान किया है, उसने भी घोर पाप किया है। इसलिए इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्हें पुनः अयोध्या जा कर अयोध्यावासियों और अयोध्या धाम से क्षमा माँगनी चाहिए।



चुनावी राजनीति से भगवत् भक्ति को जोड़ना आध्यात्मिक सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है। आज किसी दल का सांसद बना है, पहले किसी और दल का था और भविष्य में न जाने किस दल का बनेगा। सांसद और विधायक तो आते-जाते रहेंगे, पर अयोध्या और अयोध्यावासियों का महत्व हज़ारों वर्षों से रहा है और रहेगा। उल्लेखनीय है कि मोदी जी कोई अवसर नहीं छोड़ते जब वे तीर्थ स्थलों में जाकर श्रद्धा और आस्था के साथ पूजन न करते हों। फिर चाहे वो केदारनाथ हो, काशी विश्वनाथ हो, पशुपतिनाथ हो, मथुरा-वृंदावन हो, तिरूपति बालाजी हो, जगन्नाथ
  पुरी हो, उद्दुपि हो, रामेश्वरम हो, द्वारिका पुरी हो, कामख्या देवी हो या अयोध्या हो। माना जा सकता है कि मोदी जी सनातन धर्म और अन्य तीर्थों के प्रति अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन और व्यापक प्रचार इस उद्देश्य से करते हैं कि उनके प्रशंसक उनसे प्रेरणा लेकर धाम के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रदर्शन करें। ऐसे में नरेंद्र मोदी जी ये कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि उनके आराध्य भगवान श्रीराम के अतिप्रिय अयोध्यावासियों और अयोध्या का तिरस्कार वे लोग करें जो स्वयं को मोदी जी का या भाजपा का समर्थक मानते हैं। चूँकि कुछ लोग इस तरह का आह्वान करके ये अपराध कर चुके हैं, इसलिए अपेक्षा की जानी चाहिए कि मोदी जी सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके इसकी आलोचना करें और सभी देशवासियों से हर धर्म के तीर्थ स्थल के प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव रखने की अपील करें ताकि भारतवासी धाम अपराध के पाप बचे रहें।  

Monday, June 17, 2024

नीट परीक्षा: हंगामा क्यों है बरपा?



जब भी कभी हम किसी प्रतियोगी परीक्षा के पेपर लीक होने की खबर सुनते हैं तो सबके मन में व्यवस्था को लेकर काफ़ी सवाल उठते हैं। इससे  पूरी व्यवस्था में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार का प्रमाण मिलता है।

पिछले कुछ वर्षों में ऐसी खबरें कुछ ज़्यादा ही आने लगी हैं। सोचने वाली बात है कि इससे  देश के युवाओं पर क्या असर पड़ेगा? महीनों तक परीक्षा के लिए मेहनत करने वाले विद्यार्थियों के मन में इस बात का डर बना रहेगा कि रसूखदार परिवारों के बच्चे पैसे के बल पर उनकी मेहनत पर पानी फेर देंगे? मद्य प्रदेश में हुए व्यापम घोटाले के बाद अब एक बार फिर मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए ‘नीट परीक्षा’ में हुए घोटाले पर जो बवाल मचा है उससे तो यही लगता है कि चंद भ्रष्ट लोगों ने लाखों विद्यार्थियों के भविष्य को अंधकार में धकेल दिया है। 



साल 2016 में पहली बार मेडिकल एंट्रेंस के लिए ‘नेशनल एंट्रेंस कम एलिजिबिलिटी टेस्ट’ यानी नीट की शुरुआत हुई।  पहले तीन सालों में इसे सीबीएसई द्वारा संचालित किया गया। परंतु वर्ष 2019 से इन इम्तहानों की ज़िम्मेदारी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) को दी गई। जब से नीट की परीक्षा लागू हुई है ऐसा पहली बार हुआ है कि इस परीक्षा की कटऑफ इतनी हाई गई है। यदि एनटीए की मानें तो नीट कट ऑफ कैंडिडेट्स की ओवरऑल परफॉर्मेंस पर निर्भर करती है। कटऑफ बढ़ने का मतलब है कि परीक्षा कंपटीटिव थी और बच्चों ने बेहतर परफॉर्म किया परंतु क्या ये बात सही है? 


ग़ौरतलब है कि इस बार की नीट परीक्षा में 67 ऐसे युवा हैं जिन्हें 720 अंकों में से 720 अंक मिलते हैं। इसके साथ ही ऐसे कई युवा भी हैं जिन्हें 718 व 719 अंक प्राप्त हुए हैं, जो कि परीक्षा पद्धति के मुताबिक़ असंभव है। 720 के टोटल मार्क्स वाली नीट परीक्षा में हर सवाल 4 अंक का होता है। गलत उत्तर के लिए 1 अंक कटता है। अगर किसी स्टूडेंट ने सभी सवाल सही किए तो उसे 720 में से 720 मिलेंगे। अगर एक सवाल का उत्तर नहीं दिया, तो 716 अंक मिलेंगे। अगर एक सवाल गलत हो गया, तो उसे 715 अंक मिलने चाहिए। लेकिन 718 या 719 किसी भी सूरत में नहीं मिल सकते। ज़ाहिर है तगड़ा घोटाला हुआ है। 



जिन विद्यार्थियों ने इस वर्ष नीट परीक्षा दी उनसे जब यह पूछा गया कि इस बार की परीक्षा कैसी थी? तो उनका जवाब था कि इस बार की परीक्षा काफ़ी कठिन थी, कटऑफ काफ़ी नीचे रहेगी। एनटीए द्वारा एक और स्पष्टीकरण भी दिया गया है जिसके मुताबिक़ इस बार टॉप करने वाले कई बच्चों को ग्रेस मार्क्स भी दिये गये हैं। इसका कारण है कि फिजिक्स के एक प्रश्न के दो सही उत्तर हैं। ऐसा इसलिए है कि फिजिक्स की एक पुरानी किताब जिसे 2018 में हटा दिया गया था, वह अभी भी पढ़ी जा रही थी। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि आजकल के युग में जहां सभी युवा एक दूसरे के साथ सोशल मीडिया के किसी न किसी माध्यम से जुड़े रहते हैं या फिर जहां कोचिंग लेते हैं वहाँ पर सबसे संपर्क में रहते हैं फिर ये कैसे संभव है कि छह साल पुरानी किताब  को सही नहीं कराया गया होगा? 


अगला सवाल यह भी उठता है कि एनटीए द्वारा किस आधार पर ग्रेस मार्क्स दिये गये? जबकि मेडिकल परीक्षाओं में ग्रेस मार्क्स देने का कोई प्रावधान नहीं है। एनटीए ने ग्रेस मार्क्स देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के एक आदेश का संज्ञान लिया है, जिसके अनुसार यदि प्रशासनिक लापरवाही के कारण परीक्षार्थी का समय ख़राब हो तो किन विद्यार्थियों को किन परिस्थितियों में कितने ग्रेस मार्क्स दिये जा सकते हैं। परंतु ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के जिस फ़ैसले का यहाँ उल्लेख किया जा रहा है वह कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (सीएलएटी) के लिए था, उसी आदेश में यह साफ़-साफ़ लिख है कि यह आदेश मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं पर लागू नहीं होगा। परंतु एनटीए ने न जाने किस आधार पर इस आदेश को संज्ञान में लिया और ग्रेस मार्क्स दे दिये ?



नीट परीक्षा का ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है और अदालत ने नीट परीक्षा करवाने वाली एजेंसी एनटीए को व केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब माँगा है। देखना होगा कि ये दोनों कोर्ट में क्या जवाब दाखिल करते हैं? परंतु जिस तरह इस मामले ने तूल पकड़ा है, इस पर राजनीति भी होने लग गई है। इतना ही नहीं जिस तरह एनटीए ने परीक्षा से पहले ही इसके पंजीकरण में ढील बरती है वह भी सवालों के घेरे में है। टॉपर्स की लिस्ट में कम से कम 6 विद्यार्थी ऐसे हैं जो एक ही सेंटर के हैं। इस सेंटर को इसलिए भी शक की नज़र से देखा जा रहा है, जहां विद्यार्थी देश के दूसरे कोने से परीक्षा देने आए। इसके साथ ही बिहार, गुजरात व अन्य राज्यों में नीट परीक्षा के पेपर लीक के मामले भी सामने आए हैं जिन पर जाँच चल रही है। 


सोचने वाली बात है कि देश का भविष्य माने जाने वाले विद्यार्थी, जो आगे चल कर डॉक्टर बनेंगे, यदि इस प्रकार भ्रष्ट तंत्र के चलते किसी मेडिकल कॉलेज में दाख़िला पा भी लेते हैं तो क्या भविष्य में अच्छे डॉक्टर बन पायेंगे या पैसे के बल पर वहाँ भी पेपर लीक करवा कर ‘मुन्ना भाई एम बी बी एस ’ की तरह सिर्फ़ डिग्री ही हासिल करना चाहेंगे चाहे उन्हें कोई ज्ञान हो या न हो? 


सवाल सिर्फ़ नीट की परीक्षा का ही नहीं है, पिछले कुछ वर्षों से अनेक प्रांतों में होने वाली सरकारी नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी लगातार घोटाले हो रहे हैं। जिनकी खबरें आए दिन मीडिया में प्रकाशित होती रहती हैं। इससे देश के युवाओं में भारी निराशा फैल रही है। नतीजा यह हुआ है कि पिछले 40 बरसों में आज भारत में बेरोज़गारी की दर सबसे अधिक हो गई है। 


एक मध्यम वर्गीय या निम्न वर्गीय परिवार के पास अगर ख़ुद की ज़मीन-जायदाद, खेतीबाड़ी या कोई दुकान न हो तो नौकरी ही एकमात्र आय का सहारा होती है। घर के युवा को मिली नौकरी उसके माँ-बाप का बुढ़ापा, बहन-भाई की पढ़ाई और शादी, सबकी ज़िम्मेदारी सम्भाल लेती है। पर अगर बरसों की मेहनत के बाद घोटालों के कारण देश के करोड़ों युवा इस तरह बार-बार धोखा खाते रहेंगे तो सोचिए कितने परिवारों का जीवन बर्बाद हो जाएगा? ये बहुत गंभीर विषय है जिस पर केंद्र और राज्य सरकारों को फ़ौरन ध्यान देना चाहिए। 

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, February 19, 2024

लोकतंत्र में जानने का अधिकार

किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में मतदाता और नेता के बीच यदि विश्वास ही न हो तो वो रिश्ता ज़्यादा लम्बा नहीं चलता। लोकतंत्र में हर एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने मतदाता के प्रति जवाबदेही के लिए बाध्य होता है। यदि मतदाता को लगे कि उससे कुछ छुपाया जा रहा है तो वो ठगा सा महसूस करता है। लोकतंत्र या जनतंत्र का सीधा मतलब ही यह होता है कि जनता की मर्ज़ी से चुने गये सांसद या विधायक उनकी आवाज़ उठाएँगे और उनके ही हक़ में सरकार चलाएँगे। यदि मतदाताओं को ही अंधेरे में रखा जाएगा तो दल चाहे कोई भी हो दोबारा सत्ता में नहीं आ सकता। परंतु पिछले सप्ताह देश की शीर्ष अदालत ने एक ऐसा फ़ैसला सुनाया जिसने देश के करोड़ों मतदाताओं के बीच उम्मीद की किरण जगा दी। 

‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये राजनैतिक दलों को दिये जाने वाले चुनावी चंदे को लेकर देश भर में एक भ्रम सा फैला हुआ था। जिस तरह इन बाँड्स के ज़रिये दिये जाने वाले चुनावी चंदे की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा रही थी उसे लेकर भी जनता के मन में काफ़ी संदेह था। जिस तरह से विपक्षी नेता सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे थे कि कुछ औद्योगिक घराने सत्तारूढ़ दल को भारी मात्रा में ‘चुनावी चंदा’ दे रहे थे वो असल में चुनावी चंदा नहीं बल्कि सरकार द्वारा अपने हक़ में नीतियाँ बनवाने की रिश्वत है। विपक्ष का ऐसा कहना इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न हो बड़े औद्योगिक घराने हमेशा से यही करते आए हैं कि वे सरकार से अच्छे संबंध बना कर रखते हैं। वो अलग बात है कि इन बड़े घरानों द्वारा दिये गये राजनैतिक चंदे की पोल कभी न कभी खुल ही जाती थी।  परंतु देश की सर्वोच्च अदालत ने ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ की जानकारी को साझा न करने के निर्णय को ग़लत ठहराया और ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को रद्द कर दिया। इतना ही नहीं आनेवाले तीन हफ़्तों में चुनाव आयोग को यह निर्देश भी दे डाले कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दिये गये चंदे की पूरी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए। 


विपक्षी दलों, वकीलों, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पंडितों द्वारा इस फ़ैसले का भरपूर स्वागत किया जा रहा है। यहाँ हम किसी भी एक विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं करेंगे। बड़े औद्योगिक घराने हर उस दल को वित्तीय सहयोग देते आए हैं जो कि सरकार बनाने के काबिल होता है। परंतु सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के अनुसार यदि यह चुनावी चंदा था तो क्या सभी पार्टियों ने इसे चुनाव के लिए ही इस्तेमाल किया? क्या चुनाव आयोग के तय नियमों के अनुसार बड़े राजनैतिक दलों के प्रत्याशी लोक सभा चुनाव में 95 लाख से अधिक राशि खर्च नहीं करते? क्या ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ को जारी करते समय काले धन की रोकथाम के किए गए दावे के अनुसार चुनावों में नक़द राशि खर्च नहीं हुई? अब जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश हुआ है तो वो सभी राजनैतिक दल जिन्हें ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ के ज़रिये सहयोग राशि मिली थी, उन्हें इसकी आमदनी और खर्च का हिसाब भी सार्वजनिक करना पड़ेगा।



वहीं दूसरी ओर जिन-जिन औद्योगिक घरानों ने सत्तापक्ष के अलावा विपक्षी दलों को भी चुनावी चंदा दिया है, उन्होंने यही उम्मीद की थी कि उनका नाम गुप्त रखा जाएगा। परंतु शीर्ष अदालत के इस फ़ैसले के बाद अब यह भी सार्वजनिक हो जाएगा। इसलिए अब इन घरानों को इस बात का डर है कि कहीं उन पर विभिन्न जाँच एजेंसियों द्वारा कोई करवाई तो नहीं की जाएगी। परंतु यहाँ एक तर्क यह भी है कि जिन-जिन औद्योगिक घरानों को किसी भी राजनैतिक दल को सहयोग करना है तो उन्हें डरना नहीं चाहिए। यदि वो किसी भी दल की विचारधारा के समर्थक हैं तो उन्हें उस दल को खुल कर सहयोग देना चाहिए। परंतु जो बड़े औद्योगिक समूह हैं वे यदि विपक्षी पार्टियों को कुछ वित्तीय सहयोग देते हैं, उससे कहीं अधिक मात्रा में यह सहयोग राशि सत्तारूढ़ दल को भी देते हैं। इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ द्वारा दी गई सहयोग राशि इन घरानों और राजनैतिक दलों के बीच एक संबंध बनाना है। 



जो भी हो शीर्ष अदालत ने यह बात तो स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में पारदर्शिता होना कितना अनिवार्य है। इस फ़ैसले पर टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के अनुसार, अब चूँकि चुनाव आयोग को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का सारा विवरण सार्वजनिक करना है, तो इससे यह बात भी सार्वजनिक हो जाएगी कि किस राजनैतिक दल को किस बड़े औद्योगिक घराने से भारी रक़म मिली है। इसके साथ ही यह बात पता लगाने में देर नहीं लगेगी कि इस बड़ी सहयोग राशि के बदले उस औद्योगिक समूह को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा क्या लाभ पहुँचाया गया है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई बड़ा उद्योगपति किसी दल को बड़ी मात्रा में दान दे और फिर केंद्र या राज्य सरकार का मंत्री उसका फ़ोन न उठाए। दान के बदले काम को सरल भाषा में भ्रष्टाचार भी कहा जा सकता है। चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की ओर से ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का समर्थन करते हुए सिब्बल का एक सुझाव है कि, क्यों न औद्योगिक घरानों द्वारा दी गई सहयोग राशि को चुनाव आयोग में जमा कराया जाए और आयोग उस राशि को हर दल की संसद या विधान सभा में भागीदारी के अनुपात में बाँट दे। ऐसा करने से किसी एक दल को ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ का बड़ा हिस्सा नहीं मिल पाएगा। 

कुल मिलाकर ‘इलेक्टोरल बाँड्स’ पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को एक अच्छी पहल माना जा रहा है। इस आदेश से चुनावों में मिलने वाली सहयोग राशि पर पारदर्शिता दिखाई देगी। नागरिकों के लिए सूचना के अधिकार के तहत चुनावी दान से संबंधित सभी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा। 2024 के चुनावों से ठीक पहले ऐसे फ़ैसले से उम्मीद की जा सकती है कि इन जानकारियों सार्वजनिक होने पर मतदाता को सही दल के प्रत्याशी को चुनने में मदद मिलेगी। यह फ़ैसला देर से ही आया परंतु दुरुस्त आया और लोकतंत्र को जीवंत रखने में काफ़ी मददगार साबित होगा।         

Monday, February 5, 2024

इंडिया एलायन्स क्यों बिखरा ?


देश के मौजूदा राजनैतिक माहौल में दो ख़ेमे बंटे हैं। एक तरफ वो करोड़ों लोग हैं जो दिलो जान से मोदी जी को चाहते हैं और ये मानकर बैठे हैं कि ‘अब की बार चार सौ पार।’ इनके इस विश्वास का आधार है मोदी जी की आक्रामक कार्यशैली, श्रीराम लला की प्राण प्रतिष्ठा, मोदी जी का बेहिचक होकर हिंदुत्व का समर्थन करना, काशी, उज्जैन, केदारनाथ, अयोध्या, मिर्जापुर और अब मथुरा आदि तीर्थ स्थलों पर भव्य कॉरिडोरों का निर्माण, अप्रवासी भारतीयों का भारतीय दूतावासों में मिल रहा स्वागतपूर्ण रवैया, निर्धन वर्ग के करोड़ों लोगों को उनके बैंक खातों में सीधा पैसा ट्रान्सफर होना, 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन का बाँटना और भविष्य के आर्थिक विकास के बड़े-बड़े दावे। 


जबकि दूसरे ख़ेमे के नेताओं और उनके करोड़ों चाहने वालों का मानना है कि देश के युवाओं में इस बात को लेकर भारी आक्रोश है कि दो करोड़ रोजगार हर वर्ष देने का वायदा करके भाजपा की मोदी सरकार देश के नौजवानों को सेना, पुलिस, रेल, शिक्षा व अन्य सरकारी विभागों में नौकरी देने में नाकाम रही है। आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा है। जबकि मोदी जी के वायदे के अनुसार इन दस वर्षों में 20 करोड़ लोगों को नौकरी मिल जाती तो किसी को भी मुफ्त राशन बाँटने की नौबत ही नहीं आती। क्योंकि रोजगार पाने वाला हर एक युवा अपने परिवार के पांच सदस्यों के पालन पोषण की जिम्मेदारी उठा लेता। यानी देश के 100 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से ऊपर उठ जाते। इसलिए इस खेमे के लोगों का मानना है कि इन करोड़ों युवाओं का आक्रोश भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सरकार नहीं बनाने देगा। 


विपक्ष के इस खेमे के अन्य आरोप हैं कि भाजपा सरकार महंगाई को काबू नही कर पाई। उसका शिक्षा और स्वास्थ्य बजट लगातार गिरता रहा है। जिसके चलते आज गरीब आदमी के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज और सस्ती शिक्षा प्राप्त करना असंभव हो गया है। इसी खेमे का यह भी दावा है कि मोदी सरकार ने पिछले 10 सालों में विदेशी कर्ज की मात्रा 2014 के बाद कई गुना बढ़ा दी है। इसलिए बजट में से भारी रकम केवल ब्याज देने में खर्च हो जाती है और विकास योजनाओं के लिए मुठ्ठी भर धन ही बचता है। इसका खामियाजा देश की जनता को रोज बढती महंगाई और भारी टैक्स देकर झेलना पड़ता है। इसलिए सेवा निवृत्त लोग, मध्यम वर्ग और व्यापारी बहुत परेशान है।


इसके अलावा विपक्षी दलों के नेता मोदी सरकार पर केन्द्रीय जाँच एजेंसियों व चुनाव आयोग के लगातार दुरूपयोग का आरोप भी लगा रहे हैं। इसी विचारधारा के कुछ वकील और सामाजिक कार्यकर्ता ईवीएम के दुरूपयोग का आरोप लगाकर आन्दोलन चला रहे हैं। दूसरी तरफ इतने लम्बे चले किसान आन्दोलन की समाप्ति पर जो आश्वासन दिए गये थे वो आज तक पूरे नहीं हुए। इसलिए इस खेमे का मानना है कि देश का किसान अपनी फ़सल के वाजिब दाम न मिलने के कारण मोदी सरकार से ख़फ़ा है। इसलिए इनका विश्वास है कि किसान भाजपा को तीसरी बार केंद्र में सत्ता नहीं लेने देगा। 

अगर विपक्ष के दल और उनके नेता पिछले साल भर में उपरोक्त सभी सवालों को दमदारी से जनता के बीच जाकर उठाते तो वास्तव में मोदी जी के सामने 2024 का चुनाव जीतना भारी पड़ जाता। इसी उम्मीद में पिछले वर्ष सभी प्रमुख दलों ने मिलकर ‘इंडिया’ एलायंस बनाया था। पर उसके बाद न तो इस एलायंस के सदस्य दलों ने एक साथ बैठकर देश के विकास के मॉडल पर कोई दृष्टि साफ़ की, न कोई साझा एजेंडा तैयार किया, जिसमें ये बताया जाता कि ये दल अगर सत्ता में आ गये तो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार से कैसे निपटेंगे। न अपना कोई एक नेता चुना। हालाँकि लोकतंत्र में इस तरह के संयुक्त मोर्चे को चुनाव से पहले अपना प्रधानमंत्री उम्मीदवार तय करने की बाध्यता नहीं होती। चुनाव परिणाम आने के बाद ही प्रायः सबसे ज्यादा सांसद लाने वाले दल का नेता प्रधानमंत्री चुन लिया जाता है। पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने मतदाताओं को यह समझाने में सफल रही है कि विपक्ष के पास मोदी जी जैसा कोई सशक्त नेता प्रधानमंत्री बनने के लायक़ नहीं है। ये भी बार-बार कहा जाता है कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों का हर नेता प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है।

‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने इतना भी अनुशासन नहीं रखा कि वे दूसरे दलों पर नकारात्मक बयानबाजी न करें। जिसका ग़लत संदेश गया। इस एलायंस के बनते ही सीटों के बंटवारे का काम हो जाना चाहिए था। जिससे उम्मीदवारों को अपने-अपने क्षेत्र में जनसंपर्क करने के लिए काफी समय मिल जाता। पर शायद इन दलों के नेता ईडी, सीबीआई और आयकर की धमकियों से डरकर पूरी हिम्मत से एकजुट नहीं रह पाए। यहाँ तक कि क्षेत्रीय दल भी अपने कार्यकर्ताओं को हर मतदाता के घर-घर जाकर प्रचार करने का काम भी आज तक शुरू नहीं कर पाए। इसलिए ये एलायंस बनने से पहले ही बिखर गया। 

दूसरी तरफ भाजपा व आर एस एस ने हमेशा की तरह चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ने की रणनीति 2019 का चुनाव जीतने के बाद से ही बना ली थी और आज वो विपक्षी दलों के मुकाबले बहुत मजबूत स्थिति में खड़े हैं। उसके कार्यकर्ता घर घर जा रहे हैं। जिनसे एलायंस के घटक दलों को पार पाना, लोहे के चने चबाना जैसा होगा। इसके साथ ही पिछले नौ वर्षों में भाजपा दुनिया की सबसे धनी पार्टी हो गई है। इसलिए उससे पैसे के मामले में मुकाबला करना आसान नहीं होगा। आज देश के मीडिया की हालत तो सब जानते हैं। प्रिंट और टीवी मीडिया इकतरफा होकर रातदिन केवल भाजपा का प्रचार करता है। जबकि विपक्षी दलों को इस मीडिया में जगह ही नहीं मिलती। जाहिर है कि चौबीस घंटे एक तरफा प्रचार देखकर आम मतदाता पर तो प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए मोदी जी, अमित शाह जी, नड्डा जी बार-बार आत्मविश्वास के साथ कहते हैं, अबकी बार चार सौ पार। 

जबकि विपक्ष के नेता ये मानते हैं कि भाजपा को उनके दल नहीं बल्कि 1977 व 2004 के चुनावों की तरह आम मतदाता हराएगा। भविष्य में क्या होगा ये तो चुनावों के परिणाम आने पर ही पता चलेगा कि ‘इंडिया’ एलायंस के घटक दलों ने बाजी क्यों हारी और अगर जीती तो किन कारणों से जीती? 

Monday, January 22, 2024

कैसे सार्थक हो श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा?


हर राष्ट्र के इतिहास में कोई पल ऐसा आता है जो मील का पत्थर बन जाता है। आज पूरी दुनिया के सनातन धर्मी हिंदुओं के जीवन में वो क्षण आया है जब जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम की जन्मस्थली व राजधानी अयोध्या जी पूरे वैभव के साथ विश्व के मानचित्र पर सदियों बाद पुनः प्रगट हुई है। इसलिए देश और विदेश में रहने वाले हिंदुओं के मन उल्लास से भरे हैं।यह सही है कि श्रीराम जन्मभूमि पर से बाबरी मस्जिद को हटाने में सदियों से हज़ारों लोगों ने बलिदान दिया और सैंकड़ों ने इस आंदोलन में अपनी क्षमता अनुसार महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पर पूरे अयोध्या नगर को जो भव्य रूप आज मिला है वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की कल्पनाशीलता और दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम है। 



इसलिए मोदी जी की आलोचना करने वालों की बात का भाजपा समर्थक हिंदू समाज पर वैसा असर नहीं पड़ रहा जैसी उनकी अपेक्षा रही होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि जिन मुद्दों को विपक्ष के नेता उठा रहे हैं वे कम महत्वपूर्ण हैं। निःसंदेह देश के युवाओं के लिए बेरोज़गारी विकराल रूप धारण करके खड़ी हुई है। दस बरस पहले मोदी जी ने हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोज़गार देने का वायदा किया था। यानी अब तक बीस करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाना चाहिए था। जबकि आज भारत में बेरोज़गारी की दर पिछले 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा है। ऐसे ही अन्य मुद्दे भी हैं जिनको लेकर विपक्ष मोदी सरकार पर हमलावर है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि मंदिर निर्माण पूरा हुए बिना ही इतना भव्य उद्घाटन करने का उद्देश्य केवल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इसलिए विपक्ष के नेता इसे राजनैतिक कार्यक्रम मान रहे हैं और इसलिए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के न्योते पर 22 तारीख़ को अयोध्या नहीं गये। उनका कहना है कि भगवान श्री राम के दर्शन करने वे अपनी श्रद्धा अनुसार भविष्य में अवश्य जाएँगे। 



विपक्ष का यह आरोप सही है कि आज का कार्यक्रम लोकसभा के चुनाव की दृष्टि से आयोजित किया गया है। पर इसमें अनहोनी बात क्या है? लोकतंत्र में हर राजनेता जो कुछ करता है वो वोटों पर नज़र रख कर ही करता है। कांग्रेस के शासन काल में भी ऐसे अनेक बड़े आयोजन हुए या फ़ैसले लिये गये जिनकी उस समय यही उपयोगिता थी कि उनसे कांग्रेस को वोट जुटाने में मदद मिले। अभी पिछले ही हफ़्ते हिंदुओं के चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी  में जगन्नाथ जी के मंदिर के नये बने भव्य कॉरिडोर का उद्घाटन बीजू जनता दल के नेता और उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक ने किया। निःसंदेह उनका यह प्रयास दुनिया भर के सनातन धर्मियों, विशेषकर भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों को आह्लादित करने वाला है। पर परोक्ष रूप से उद्देश्य तो इसका भी उड़ीसा का चुनाव जीतना है, जो इस वर्ष के अंत में होने वाला है।



इस तरह की राजनैतिक टीका-टिप्पणियाँ तो हर दल अपने विरोधियों पर हमेशा करता ही आया है। भाजपा ने भी विपक्ष में रह कर हमेशा यही किया जो आज विपक्ष भाजपा के विरोध में कर रहा है। इसलिए इस राजनैतिक बहसबाजी में न पड़ कर आज हम अपना मंथन अयोध्या के धार्मिक पक्ष पर ही केंद्रित रखना चाहेंगे। क्योंकि आज हम सब ‘राममय’ भाव में आकंठ डूबे हुए हैं। अयोध्या का यह विकास भारत के सनातन धर्मियों की आस्था के साथ ही हमारी सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ा हुआ है। पर उत्साह के अतिरेक में हमें अपनी भावनाओं को ग़लत दिशा में जाने से रोकना होगा। अन्यथा हमारी बयानबाज़ी और ट्विटरबाज़ी सनातन धर्म के लिए आत्मघाती होगी। जिस तरह ह्वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के प्रभाव में आकर अशोभनीय तरीक़े से सनातन धर्म के आधारस्तम्भ परम श्रद्धेय शंकराचार्यों पर तथ्यहीन और छिछली टिप्पणियाँ की जा रही हैं, उनके घातक परिणाम भविष्य में सामने आयेंगे। 


अयोध्या मामले की इलाहाबाद उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय में लगातार पैरवी करने वाले वरिष्ठ वकील डॉ पी एन मिश्रा ने एक न्यूज़ चैनल को दिये साक्षात्कार में स्पष्ट कहा है कि श्री राम जन्मभूमि के पक्ष में जो अदालत के निर्णय आए उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका द्वारिका पीठ के वर्तमान शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की रही। उन्हीं के द्वारा दिये गये प्रमाणों को न्यायाधीशों ने अकाट्य माना और इसलिए स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी के नाम का उल्लेख अपने लिखित आदेश में भी किया। डॉ मिश्रा ने इसी इंटरव्यू में बताया कि श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी के तर्कों को अदालत ने प्रामाणिक न मानते हुए ख़ारिज कर दिया था। इसका अर्थ यह हुआ कि राम मंदिर निर्माण के लिए अदालत से जो आदेश मिला उसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पर विडंबना देखिए कि सड़क छाप लोग श्रद्धेय शंकराचार्यों से पूछ रहे हैं कि उन्होंने राम मंदिर निर्माण के लिए क्या किया? दूसरी तरफ़ श्रद्धेय रामभद्राचार्य जी को इस तरह महिमा मंडित किया जा रहा है, मानो कि अदालत का फ़ैसला उन्हीं के कारण मिला हो। 


कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति या क़ानून का जानकार अयोध्या मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पढ़ कर तथ्य जान सकता है। इसलिए चाहे शंकराचार्यों की बात हो या रामभद्राचार्य जी जैसे अन्य संतों की बात हो, हमें अपने संतों प्रति ऐसी छिछली टिप्पणी करने से बचना चाहिए। यथासंभव सभी संतों का सम्मान करना चाहिए। यदि कोई असहमति का बिंदु हो तो उसे मर्यादा में रहकर ही निवेदन करना चाहिए।


निःसंदेह मोदी जी के प्रयासों से आज भारत में हिंदू नव-जागरण हुआ है। जिसका प्रमाण है तीर्थों बढ़ती श्रद्धालुओं की अपार भीड़। पर इसके साथ ही सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों का अनेक मामलों में हनन भी हो रहा है। जिससे आस्थावान सनातन धर्मीं और शंकराचार्य जैसे निष्ठावान संत व्यथित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि ‘गुरु, सचिव और वैद्य शासक को प्रसन्न करने के लिए यदि झूठ बोलते हैं तो वे उसका अहित ही करते हैं।’ आदरणीय शंकराचार्यों द्वारा आज की जा रही कुछ टिप्पणियों को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। वैसे भी बिना किसी संगठन के, बिना राजनैतिक कार्यकर्ताओं की फ़ौज के और बिना मीडिया के प्रोपेगंडा के 500 वर्ष पहले भगवान श्रीराम को भारत के हर घर में पहुँचाने का काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस लिख कर किया था। इसलिए भी भाजपा व संघ के नेतृत्व को गोस्वामी तुलसीदास जी का सम्मान करते हुए और भारत की सनातन परम्परा का निर्वाह करते हुए अपनी आलोचना को उदारता से स्वीकार करना चाहिए और जहां उनकी कमी हो उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। तभी सार्थक होगी भगवान श्री राम की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा। फ़िलहाल प्राण प्रतिष्ठा महोत्सव पर सबको बधाई।