Monday, March 28, 2022

योगी जी! ऐसे सुधरेंगी धर्मनगरियाँ

योगी सरकार उ. प्र. की धर्मनगरियों को सजाना-संवारना चाहती है। स्वयं मुख्यमंत्री इस मामले में गहरी रूचि रखते हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनके शासनकाल में मथुरा, वाराणसी, अयोध्या और चित्रकूट का विकास इस तरह हो कि यहां आने वाले श्रद्धालुओं को सुख मिले। इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। योगी जी ने पिछले कार्यकाल में इन धार्मिक शहरों के विकास के लिए उदारता से बड़ी मात्रा में धन आवंटित किया। पर क्या जितना पैसा लगा उससे वैसे परिणाम भी सामने आए? ईसा से तीन सदी पूर्व पूरे भारत पर राज करने वाले मगध सम्राट अशोक अपने अफ़सरों की दी सूचनाओं पर ही निर्भर नहीं रहते थे। बल्कि भेष बदल कर ज़मीनी हक़ीक़त का जायज़ा लेने प्रायः खुद निकलते थे। योगी जी अगर मथुरा, वृंदावन, अयोध्या व काशी आदि में इसी तरह भेष बदल कर स्थानीय निवासियों, संत गणों और तीर्थयात्रियों की राय लें तो उनको सही स्थिति का पता चलेगा।  


धर्मनगरियों व ऐतिहासिक भवनों का जीर्णोंद्धार या सौन्दर्यीकरण एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया है। जटिल इसलिए कि चुनौतियां अनंत है। लोगों की धार्मिक भावनाएं, पुरोहित समाज के पैतृक अधिकार, वहां आने वाले लाखों आम लोगों से लेकर मध्यम वर्गीय व अति धनी लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करना बहुत कठिन होता है। सीमित स्थान और संसाधनों के बीच व्यापक व्यवस्थाऐं करना, इन नगरों की ट्रैफ़िक, सफ़ाई, कानून व्यवस्था और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा को सुनिश्चति करना बड़ी चुनौतियाँ हैं। 


इस सबके लिए जिस अनुभव, कलात्मक अभिरूचि व आध्यात्मिक चेतना की आवश्यक्ता होती है, प्रायः उसका प्रशासनिक व्यवस्था में अभाव होता है। सड़क, खड़ंजे, नालियां, फ्लाई ओवर जैसी आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का अनुभव रखने वाला प्रशासन तंत्र इन नगरों के जीर्णोंद्धार और सौन्दर्यीकरण में वो बात नहीं ला सकता, जो इन्हें विश्वस्तरीय तीर्थस्थल बना दे। कारण यह है कि सड़क, खड़जे की मानसिकता से टैंडर निकालने वाले, डीपीआर बनाने वाले और ठेके देने वाले, इस दायरे के बाहर सोच ही नहीं पाते। अगर सोच पात होते तो आज तक इन शहरों में कुछ कर दिखाते। पिछले इतने दशकों में इन धर्मनगरियों में विकास प्राधिकरणों ने क्या एक भी इमारत ऐसी बनाई है, जिसे देखा-दिखाया जा सके? क्या इन प्राधिकरणों ने शहरों की वास्तुकला को आगे बढाया है या इन पुरातन शहरों में दियासलाई के डिब्बों जैसे भवन खड़े कर दिये हैं। जिनमें लाल पत्थर के होटल, गेस्ट हाउस, दुकानें आदि बनाए गए हैं। जिनसे न तो तीर्थ विकास हुआ है और न ही उस तीर्थ का सौंदर्यकरण ही हुआ है। नतीजतन ये सांस्कृतिक स्थल अपनी पहचान तेजी से खोते जा रहे हैं। ये निर्माण तो व्यापारी समाज हर धर्म नगरी या पर्यटक स्थल में स्वयं ही कर लेता है। उसमें जनता के कर का दिया हुआ सरकारी धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 


माना कि शहरीकरण की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सकता। बढ़ती आबादी की मांग को भी पूरा करना होता है। मकान, दुकान, बाजार भी बनाने होते हैं, पर पुरातन नगरों की आत्मा को मारकर नहीं। अंदर से भवन कितना ही आधुनिक क्यों न हो, बाहर से उसका स्वरूप, उस शहर की वास्तुकला की पहचान को प्रदर्शित करने वाला होना चाहिए। भूटान एक ऐसा देश है, जहां एक भी भवन भूटान की बौद्ध संस्कृति के विपरीत नहीं बनाया जा सकता। चाहे होटल, दफ्तर, मकान, स्कूल, थाना, पेट्रोल पम्प या दुकान, कुछ भी हो। सबके खिड़की, दरवाजे और छज्जे बौद्ध विहारों के सांस्कृतिक स्वरूप को दर्शाते हैं। इससे न सिर्फ कलात्मकता बनीं रहती है, बल्कि ये और भी ज्यादा आकर्षक लगते हैं। दुनिया के तमाम पर्यटन वाले नगर, जैसे पिटर्सबर्ग (रूस), फ़्लोरेंस (इटली) या पेरिस (फ़्रांस) आदि इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। जबकि उ. प्र. में आज भी पुराने ढर्रे से सोचा और किया जा रहा है। फिर कैसे सुधरेगा इन नगरों का स्वरूप?


जुलाई 2017 में जब मैंने उ. प्र. के नए बने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी को उनके लखनऊ कार्यालय में मथुरा के तीर्थ विकास के बारे में ‘पावर पाइंट’ प्रस्तुति दी, तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि महाराज! दो तरह का भ्रष्टाचार होता है, ‘करप्शन ऑफ डिजाईन’ व ‘करप्शन ऑफ इम्पलीमेंटेशन’। यानि नक्शे बनाने में भ्रष्टाचार और निर्माण करने में भ्रष्टाचार। निर्माण का भ्रष्टाचार तो भारतव्यापी है। बिना कमीशन लिए कोई सरकारी आदमी कागज बढ़ाना नहीं चाहता। पर डिजाईन का भ्रष्टाचार तो और भी गंभीर है। यानि तीर्थस्थलों के विकास की योजनाऐं बनाने में ही अगर सही समझ और अनुभवी लोगों की मदद नहीं ली जायेगी और उद्देश्य अवैध धन कमाना होगा, तो योजनाऐं ही नाहक महत्वाकांक्षी बनाई जायेंगी। गलत लोगों से नक्शे बनावाये जायेंगे और सत्ता के मद में डंडे के जोर पर योजनाऐं लागू करवाई जायेंगी। नतीजतन धर्मक्षेत्रों का विनाश  होगा, विकास नहीं।


पिछले तीन दशकों में, इस तरह कितना व्यापक विनाश धर्मक्षेत्रों का किया गया है कि उसके दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फिर भी अनुभव से कुछ सीखा नहीं जा रहा। सारे निर्णय पुराने ढर्रे पर ही लिए जा रहे हैं, तो कैसे सजेंगी हमारी धर्मनगरियां? मैं तो इसी चिंता में घुलता जा रहा हूं। शोर मचाओ तो लोगों को बुरा लगता है और चुप होकर बैठो तो दम घुटता है कि अपनी आंखों के सामने, अपनी धार्मिक विरासत का विनाश कैसे हो जाने दें? योगी जी पैसे कमाने के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। मगर समस्या यह है कि उन्हें सलाह देने वाले तो लोग वही हैं ना, जो इस पुराने ढर्रे के बाहर सोचने का प्रयास भी नहीं करते। इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें राग-द्वेष से मुक्त हो कर नए तरीक़े से सोचना होगा।


चूंकि धर्मक्षेत्रों का विकास करना आजकल ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का भी उद्देश्य हो गया है, इसलिए संघ नेतृत्व को भी चाहिए कि धर्मक्षेत्रों के विकास पर स्पष्ट नीति निधार्रित करने के लिए अनुभवी और चुने हुए लोगों की गोष्ठी बुलाए और उनकी राय लेकर नीति निर्धारण करवाये। नीतियों में क्रांतिकारी परिवर्तन किये बिना, वांछित सुधार आना असंभव है। फिर तो वही होगा कि ‘चौबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनके लौटे’। यही काम योगी जी को अपने स्तर पर भी करना चाहिए। पर इसमें भी एक खतरा है। जब कभी सरकारी स्तर पर ऐसा विचार-विमर्श करना होता है, तो निहित स्वार्थ सार्थक विचारों को दबवाने के लिए या उनका विरोध करवाने के लिए, सत्ता के दलालनुमा लोगों को समाजसेवी या विशेषज्ञ बताकर इन बैठकों में बुला लेते हैं और सही बात को आगे नहीं बढ़ने देते। इसलिए ऐसी गोष्ठी में केवल वे लोग ही आएं, जो स्वयंसिद्ध हैं, ढपोरशंखी नहीं। योगी जी अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसे क्रांतिकारी और लकीर से हट कर नई सोच वाले कदम उठा पायेंगे या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो उनकी उपलब्धियाँ पिछले कार्यकाल की तुलना में ज़्यादा सराहनीय होंगी। क्योंकि वे विश्व भर के धर्म प्रेमियों को इन तीर्थों की ओर आकर्षित कर पाएँगी। बनारस में एक कहावत मशहूर है ‘रांड, सांड, सीढ़ी, सन्यासी, इनसे बचें तो सेवें काशी’, अर्थात् पुराने मकड़ जाल से निकल कर ही होगा तीर्थों का सही विकास।  

Monday, March 21, 2022

मुसलमानों का क्या करें?

सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलाम, भारत माता इतनी उदार हैं कि हर भारतवासी सुखी, स्वस्थ व सम्पन्न हो सकता है। पर स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी अधिकतर आबादी पेट पालने के लिए भी दान के अनाज पर निर्भर है। कई दशकों तक ‘ग़रीबी हटाओ’ के नाम पर उसे झुनझुना थमाया गया। पर उसकी ग़रीबी दूर नहीं हुई। आज ग़रीबी के साथ युवा बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है । जिसका निदान अगर जल्दी नहीं हुआ तो करोड़ों युवाओं की ये फ़ौज देश भर में हिंसा, अपराध और लूट में शामिल हो जाएगी। हर राजनैतिक दल अपने वोटों का ध्रुवीकरण के लिए जनता को किसी न किसी नारे में उलझाए रखता है और चुनाव जीतने  के लिए उसे बड़े-बड़े लुभावने सपने भी दिखाता है।



पिछले कुछ वर्षों से अल्पसंख्यक मुसलमानों का डर बहुसंख्यक हिंदुओं को दिखाया जा रहा है। आधुनिक सूचना तकनीकी की मदद से ‘इस्लमोफोबिया’ को घर-घर तक पहुँचा दिया गया है। लगभग 30 फ़ीसदी हिंदू आबादी ये मान चुकी है कि भारत की हर समस्या का कारण मुसलमान है, जो सही नहीं है। आर्थिक समस्याओं के कारण दूसरे हैं और सामाजिक समस्याओं के कारण दूसरे।


जहां तक भारत में मुस्लिम आबादी का प्रश्न है वे आज 17 करोड़ हैं और हम हिंदू 96 करोड़ हैं। अपनी आबादी के इतने बड़े हिस्से को अगर हम अपनी हर समस्या का कारण मानते हैं तो इसका निदान क्या है? क्या उन्हें मार डाला जाए? क्या उन्हें एक और पाकिस्तान बना कर भारत से अलग कर दिया जाए? या उनके और हमारे बीच चले आ रहे विवाद के विषयों का समाधान खोजा जाए? 


उल्लेखनीय है कि सरसंघ चालक डॉक्टर मोहन भागवत जी मुसलमानों के विषय में कई बार कह चुके हैं कि उनके और हमारे पुरखे एक ही थे, कि उनका और हमारा डीएनए एक है, कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। 80 बनाम 20 फ़ीसदी का नारा देकर चुनाव लड़ने वाले योगी आदित्यनाथ जी ने अपनी एक सभा में  कहा, वह मुझसे प्यार करते हैं, मैं उनसे प्यार करता हूँ। 


संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए इस सब से बड़े असमंजस की स्थितियाँ पैदा होती रहती हैं। उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करें ? अगर भागवत जी की यही बात सही है तो फिर मॉबलिंचिंग, लव जिहाद, टोपी-दाढ़ी का विरोध, रेह्ड़ी वालों को पीट कर उनसे जय श्री राम कहलवाना या मुसलमानों के साथ हर तरह का व्यावसायिक व सामाजिक व्यवहार ख़त्म करने जैसे अभियानों का रात दिन सोशल मीडिया पर इतना प्रचार क्यों किया जाता है ? 


अगर भागवत जी या योगी जी या फिर मोदी जी भी यही मानते हैं कि मुसलमान ही हर समस्या की जड़ हैं तो इस अभियान को लम्बा खींचने के बजाय एक बार में इसका समाधान ढूँढ कर उसे कड़ाई से लागू क्यों नहीं करते? अगर वे ऐसा कर देते हैं तो समाज में नित्य नए उठने वाले विप्लव शांत हो जाएँगे। जो समाज और राष्ट्र के आर्थिक स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक हैं। क्योंकि अशांत समाज में आर्थिक गतिविधियाँ ठहर जाती हैं। अगर इन राष्ट्रीय नेताओं को ये लगता है कि ऐसा करना सम्भव नहीं है तो जो अभियान अभी चल रहे हैं उनको रोकने और उनकी दिशा मोड़ने का कार्य उन्हें करना चाहिये। जो उनके लिए असम्भव नहीं है। हां इससे अपेक्षित राजनैतिक लाभ नहीं प्राप्त होगा किंतु समाज में शांति ज़रूर स्थापित हो जाएगी। 


इस सबसे अलग एक प्रश्न हम सब सनातन धर्मियों के मन में सैंकड़ों वर्षों से घुट रहा है। भारत की सनातन संस्कृति को गत हज़ार वर्षों में राजाश्रय नहीं मिला। कई सदियों में तो उसका दमन किया गया। जिसका विरोध सिख गुरुओं व शिवाजी महाराज जैसे अनेक महापुरुषों ने किया। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि इनका विरोध उस राज सत्ता से था जो हिंदुओं का दमन करती थीं। सामाजिक स्तर पर इन्हें मुसलमानों से कोई बैर नहीं था। क्योंकि इनकी सेना और साम्राज्य में मुसलमानों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किया गया था। 


बँटवारे से पहले जो लोग भारत और पाकिस्तान के भोगौलिक क्षेत्रों में सदियों से रहते आए थे, उनके बीच भी पारस्परिक सौहार्द और प्रेम अनुकरणीय था। बँटवारे के बाद इधर से उधर या उधर से इधर गए ऐसे तमाम लोगों के इंटरव्यू यूट्यूब पर भरे पड़े हैं। ये बुजुर्ग बताते हैं कि बँटवारे की आग फैलने से पहले तक इनके इलाक़ों में साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी कोई बात ही नहीं थी। 


एक तरफ़ सनातन धर्म के मानने वाले वे संत और हम जैसे साधारण लोग हैं जिनका यह विश्वास है कि सनातन धर्म ही मानव और प्रकृति के कल्याण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है। इसीलिए हम इसका पालन राष्ट्रीय स्तर पर होते देखना चाहते हैं। वैसे भी दुनिया के सभी सम्प्रदाय वैदिक संस्कृति के बाद पनपे हैं। पर ऐसा होता दीख नहीं रहा। चिंता का विषय यह है कि हिंदुत्व का नारा देने वाले भी वैदिक सनातन संस्कृति की मूल भावना व शास्त्रोचित सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए अति उत्साह में अपने मनोधर्म को वृहद् हिंदू समाज पर जबरन थोपने का प्रयास करते हैं। जबकि हमारे सनातन धर्म की विशेषता ही यह है कि इसका प्रचार-प्रसार मनुष्यों की भावना से होता है तलवार के ज़ोर से नहीं। 


रही बात मुसलमानों की तो इसमें संदेह नहीं कि मुसलमानों के एक भाग ने भारतीय संस्कृति को अपने दैनिक जीवन में काफ़ी हद तक आत्मसात किया है। ऐसे मुसलमान भारत के हर हिस्से में हिंदुओं के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में जीवन यापन करते हैं। किंतु उनके धर्मांध नेता अपने राजनैतिक लाभ के लिए उन्हें गुमराह करके ऐसा वातावरण तैयार करते हैं जिससे बहुसंख्यक हिंदू समाज न सिर्फ़ असहज हो जाता है बल्कि उनकी ओर से आशंकित भी हो जाता है। हिंदू समाज की ये आशंका निर्मूल नहीं है। मध्य युग से आजतक इसके सैंकड़ों उदाहरण उपलब्ध हैं। ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानों का है जिन्होंने सदियों से वहाँ रह रहे हिंदुओं और  सिक्खों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे में अब समय आ गया है कि शिक्षा, क़ानून और प्रशासन के मामले में देश के हर नागरिक पर एक सा नियम लागू हो। धार्मिक मामलों को समाज के निर्णयों पर छोड़ दिया जाए। उनमें दख़ल न दिया जाए। ऐसे में मुसलमानों के पढ़े-लिखे और समझदार लोगों को भी हिम्मत जुटा कर अपने समाज में सुधार लाने का काम करना चाहिए। जिससे उनकी व्यापक स्वीकार्यता बन सके । वैसे ही जैसे हिंदुत्व का झंडा उठाने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं को गम्भीरता से सनातन धर्म के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, न कि उसमें घालमेल। तभी भारत अपनी 135 करोड़ जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप खड़ा हो सकेगा। 

Monday, March 7, 2022

रूस-यूक्रेन युद्ध के भारत पर परिणाम

पूरी दुनिया यूक्रेन रूस के युद्ध को लेकर बेचैन है। भारत की बड़ी चिंता उन विद्यार्थियों को लेकर है जो यूक्रेन में अभी फँसे हुए हैं। जो विद्यार्थी जोखिम उठा कर, तकलीफ़ सहकर, भूखे प्यासे रह कर यूक्रेन की सीमाओं को पार कर पा रहे हैं, उन्हें ही भारत लाने का काम भारत सरकार कर रही है। पर जो युद्धग्रस्त यूक्रेन के शहरों में फँसे हैं, ख़ासकर वो जो सीमा से कई सौ किलोमीटर दूर हैं, उनकी हालात बहुत नाज़ुक है। वे बार-बार सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें जल्दी से जल्दी वहाँ से सुरक्षित निकाला जाए अन्यथा वे ज़िंदा नहीं बचेंगे। चूँकि इस युद्ध में भारत रूस के साथ खड़ा है, इसलिए यूक्रेन की सेना और नागरिक भारतीयों से नाराज़ है और मदद करना तो दूर छात्रों को यातनाएँ दे रहे हैं। ऐसा उन विद्यार्थियों के वायरल होते विडीयो में देखा जा रहा है। इसके साथ ही इस युद्ध से जो दूसरी बड़ी चुनौती है उसके भी दीर्घगामी परिणाम हम भारतवासियों को भुगतने पड़ सकते हैं। 



सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ अरुण कुमार ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस युद्ध के परिणामों को लेकर अध्ययन किया है। प्रो॰ कुमार के अनुसार वैश्वीकरण के कारण किसी भी जंग का दुनिया के हर हिस्से पर असर पड़ता है। फिर वह युद्ध चाहे खाड़ी के देशों में हो या अफ्रीका में। परंतु रूस और यूक्रेन की जंग इन सबसे अलग है। यह युद्ध नहीं बल्कि विश्व की दो महाशक्तियों के बीच टकराव है। इस युद्ध में एक ओर रूस की सेना है, जबकि दूसरी ओर अमेरिका व नाटो द्वारा परोक्ष रूप से समर्थित यूक्रेन की सेना। दो ख़ेमे बन चुके हैं, जिनकी तनातनी भारत पर भी असर छोड़ सकती है।


यूक्रेन और रूस के बीच होने वाला यह युद्ध तात्कालिक तौर पर वैश्विक कारोबार, पूंजी प्रवाह, वित्तीय बाजार और तकनीकी पहुंच को भी प्रभावित करेगा। इस युद्ध में भले ही रूस ने हमला बोला है, लेकिन उस पर प्रतिबंध भी लागू हो गया है। आमतौर पर जिस देश पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उसके साथ होने वाले व्यापार को रोकने की कोशिश भी होती है। फिलहाल, दुनिया भर में रूस गैस और तेल का बहुत बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अभी इन उत्पादों के कारोबार भले ही प्रतिबंधित नहीं किए गए हैं, लेकिन मुमकिन है कि जल्द ही इनके व्यापार पर भी रोक लगाई जा सकती है। जाहिर है, इसके बाद इनके दाम बढ़ सकते हैं। 


दूसरी ओर, यूक्रेन गेहूं और खाद्य तेलों के बड़े निर्यातकों में से एक है। भारत भी वहां से लगभग 1.5 बिलियन डॉलर का सूरजमुखी तेल हर साल मंगाता है। ऐसे में, भारत में इन वस्तुओं के आयात प्रभावित होने से खाद्य उत्पादों पर भी असर पड़ेगा। यानी, यह युद्ध ऊर्जा, धातु और खाद्य उत्पादों के वैश्विक कारोबार को काफ़ी हद तक प्रभावित कर सकता है।



प्रो॰ कुमार के अनुसार, रूस पर प्रतिबंध लगने से वहाँ की पूंजी का प्रवाह भी बाधित होगा। यह वित्तीय बाजारों को प्रभावित करेगा। जब बाजार में अनिश्चितता का दौर आता है, तो बिक्री शुरू हो जाती है। विदेशी निवेशक अपनी पूंजी वापस निकालने लगते हैं। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई और विदेशी संस्थागत निवेश यानी एफआईआई का आना भी कम हो जाता है। जंग के हालात में सभी देश अपने-अपने निवेशकों को अपने-अपने मुल्क में ही निवेश करने की सलाह देते हैं। ऐसा इसलिए होता है जिससे उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत बनी रहे। इस बार भी ऐसा हो सकता है। तकनीक भी इन सबसे अछूती नहीं रह जाती है। चूंकि युद्ध में आधुनिक तकनीक की जरूरत बढ़ जाती है, इसलिए बाकी क्षेत्रों के लिए उसकी उपलब्धता कम हो जाती है। एक क्षेत्र ऐसा है जहां युद्ध फ़ायदा कराता है और वो है  सैन्य साजो-सामान से जुड़े उद्योग। युद्ध के समय उनकी खरीद-बिक्री व उत्पादन में बढ़ोतरी तो होती ही है।


सोचने वाली बात यह है कि यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यूक्रेन और रूस का युद्ध कितने समय तक चलता है। विशेषज्ञों का अनुमान यही है कि यह जंग लंबी नहीं चलने वाली। रूस 1979-89 में हुई अफगानिस्तान वाली गलती को शायद ही दोहराना पसंद करेगा। इसलिए दोनों देशों के बीच बातचीत की मेज सजने की भी खबर भी आ रही है। मगर इतना तो तय है कि हाल-फिलहाल में जंग भले ही खत्म हो जाए परंतु युद्ध उपरांत शीतयुद्ध थमने वाला नहीं। इस बार 1950 के दशक जैसा दृश्य नहीं होगा। उस समय सोवियत संघ (वामपंथ) और पश्चिम (पूंजीवाद) की वैचारिक लड़ाई थी। अब तो रूस और चीन जैसे देश भी पूंजीवादी व्यवस्था अपना चुके हैं। इसलिए यह वैचारिक लड़ाई नहीं, वर्चस्व की लड़ाई है। इससे दुनिया दो हिस्सों में बंट सकती है, जिनमें आपस में ही कारोबार करने की परंपरा जोर पकड़ सकती है।


अगर ऐसा होता है तो आपस में पूंजी प्रवाह बढ़ेगा और वैश्विक आपूर्ति शृंखला भी प्रभावित होगी। इसी कारण हमें भारत में महंगाई का सामना भी करना पड़ सकता है। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि इस युद्ध से दुनिया भर में मंदी और महंगाई बढ़ सकती है। रूस की कंपनियों पर प्रतिबंध लग जाने से वैश्विक कारोबार प्रभावित होगा। हालांकि, पश्चिमी देश इस कोशिश में हैं कि वे पेट्रो उत्पादों का अपना उत्पादन बढ़ा दें और ओपेक देशों से भी ऐसा करने की गुजारिश की जा सकती है। फिर भी, पेट्रो उत्पादों की घरेलू कीमतें बढ़ना तय है। इनकी क़ीमत बढ़ते ही अन्य चीजों के दामों में भी तेज़ी आएगी।


अभी चूंकि बाजार में बहुत ज्यादा पूंजी नहीं है, इसलिए माना जा रहा है कि पहले की तुलना में महंगाई ज्यादा असर डाल सकती है। आयात बढ़ने और निर्यात कम होने से भी भुगतान-संतुलन बिगड़ जाएगा। इस अनिश्चितता के दौर में सोने की मांग भी बढ़ सकती है, जिससे इसका आयात भी बढ़ सकता है। इन सबसे रुपया कमजोर होगा और स्थानीय बाजार में इसकी कीमत बढ़ सकती है। यानी, दो-तीन रास्तों से महंगाई हमारे सामने आने वाली है।


प्रो॰ कुमार का मानना है कि यूक्रेन-रूस युद्ध दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर कुछ अन्य असर भी हो सकते है। जैसे, दुनिया भर के देशों का बजट बिगड़ सकता है। सभी देश अपनी सेना पर ज्यादा खर्च करने लगेंगे। इससे वास्तविक विकास तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा और राजस्व में भी भारी कमी आएगी। महंगाई से कर वसूली बढ़ती जरूर है, लेकिन इनसे राजस्व घाटा बढ़ता जाता है, जिसके बाद सरकारें सामाजिक क्षेत्रों से अपने हाथ खींचने लगती हैं। इससे स्वाभाविक तौर पर देश की गरीब जनता प्रभावित होती है। भारत शायद ही इसका अपवाद होगा। मुमकिन है कि वैश्वीकरण की अवधारणा से भी अब सरकारें पीछे हटने लगें, जिसका नुकसान विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों को होगा।