Sunday, February 28, 2010

खान हूं तो जो करूं

रेल बजट, आम बजट, महंगाई पर संसद में हंगामा, पाकिस्तान के विदेश सचिव की अर्से बाद दिल्ली यात्रा और प्रधानमंत्री की 28 वर्ष बाद सउदी अरब यात्रा की तैयारी- एैसे सभी मुद्दों पर मीडिया में बहुत कुछ लिखा और कुछ कहा जा रहा है। इसलिए कुछ नया बताने को नहीं है। पर इस सब के बीच बा¡लीवुड की एक बहुचर्चित फिल्म रिलीज हुई। बड़े दिन से हल्ला था इस फिल्म का। माई नेम इज़ खानफिल्म रिलीज होने से पहले विवादों में घिर गई। शिव सैनिकों ने महाराष्ट्र में इसके पोस्टर फाड़ डाले। शाहरूख खान और बालठाकरे के बीच वाक्युद्ध भी चला। इस तरह बड़े हंगामे के साथ फिल्म रिलीज हुई और आजकल देशभर में दिखायी जा रही है। इस हंगामें के प्रचार के चक्कर में हम भी आ गए। पर ढाई घंटे थियेटर में काटने भारी पड़ गये। इस फिल्म का मूल है एक छोटी सी घटना। जो पिछले वर्ष अमरीका में घटी।

न्यूया¡र्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ये बेइज्जतीबर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने यह फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि, ‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम ना¡ट ए टैरेरिस्टमैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुका हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है। अपने आप में यह कोशिश सही भी है और जरूरी भी। पर इसका मतलब यह नहीं कि चाहे जो दर्शकों को परोस दिया जाए।

माई नेम इ़ज खानएक ऐसी फिल्म है जिसमें तथ्य दो मिनट का है कहानी को नाहक ही ढाई घंटे घसीटा गया है। फिल्म का कथानक दमदार नहीं है। रेंगती हुई कहानी बढ़ती है। बार-बार वही डायला¡ग दोहराये जाते हैं। बोझिल दृश्यों की भरमार है। शाहरूख खान को अमन का मसीहा बनाकर पेश किया गया है। फिल्म के दौरान दर्शक थियेटर से उठने को बेताब रहते हैं और कुछ तो उठकर चले भी जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से शाहरूख खान की फिल्मों में उनकी शख्सियत को कई गुना बढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जहां एक तरफ कामयाबी और दौलत ने शाहरूख खान को भारत के सफलतम फिल्मी सितारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है वहीं लगता है कि अब उन्हें शिखर से नीचे उतरने का डर सताने लगा है। इसलिए उनकी पत्नी गौरी खान के बैनर तले एक के बाद एक फिल्म शाहरूख खान को टिकाये रखने के मकसद से बनाई जा रही है। माई नेम इ़ज खानभी कुछ ऐसी ही फिल्म है। 

पश्चिमी देशों में एक रिवाज है कि जब कोई फिल्मी सितारा, गायक कलाकार या उद्योगपत्ति बहुत ज्यादा सफल हो जाता है और उसके पास दौलत का अंबार लग जाता है तो वह जन सेवा के कामों की ओर बढ़ जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य या राहत के कार्यों में अपना धन और अपनी शक्ति लगता देता है। इससे उसे यश भी मिलता है और संतोष भी। आज शाहरूख खान के पास बेशुमार दौलत है। वे चाहे तो अपनी रूचि के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा लगाकर जनहित के कार्य कर सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे फिल्मी दुनिया से सन्यास ले लें। बल्कि हर तरह की फिल्म करने की बजाय चुनिन्दा फिल्मों में काम करें और अपने अभिनय के झंडे गाढ़ते रहे। इस मामले में शाहरूख खान को आमिर खान से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने कछुए की चाल चलकर खरगोशों को पछाड़ा है। साल डेढ साल में एक फिल्म लाते हैं। यश भी कमाते हैं, धन भी कमाते हैं और समाज को कुछ ठोस संदेश भी दे जाते हैं। लगान, तारे जमीन पर, रंग दे बंसती व थ्री इडियट जैसी फिल्मों ने पूरी दुनिया के दर्शकों को प्रभावित किया है।

फिल्म सबसे सशक्त माध्यम है जिससे समाज में बड़ा परिवर्तन किया जा सकता है। राजनीति में आने वाले फिल्मी सितारों ने अपनी लोकप्रियता को भुनाया तो खूब पर समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। चाहे गोविन्दा हो या धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन हो या एन.टी.रामाराव। शाहरूख खान अपनी लोकप्रियता की उस बुलंदी पर है जहां से वे युवाओं का सैलाब सही दिशा में मोड़ सकते हैं। बशर्तें कि उन्हें खुद इस बात का अहसास हो कि दिशा क्या है। खुद ना हो तो उन्हें बताने वाले सही सलाह दें। फिर उन्हें अच्छी फिल्म का कथानक भी मिलेगा और अपने किरदार के लिए मौका भी। उनकी फिल्म उन्हें यश भी दिलायेगी और कुछ परिवर्तन भी ला पायेगी। उम्मीद है कि शाहरूख खान इन बातों पर गंभीरता से मनन करेंगे और अपनी कामयाबी के सूरज के डूबने से पहले एक बार फिर नए भूमिका में जनता के दिल के सितारे बनेंगे। माइ नेम इज़ खानबनाकर नहीं बल्कि काम से नाम पैदा करके।

Sunday, February 7, 2010

रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह

राजनीति के सदाबहार चर्चित चेहरे अमर सिंह के सितारे गर्दिश में हैं। सपा के नेता मुलायम सिंह यादव ने अपने इस निकटतम सहयोगी को दल से निष्कासित कर दिया है। पिछले कुछ हफ्तों का घटनाक्रम इस परिणिति की ओर इशारा कर रहा था। दोनों के बीच तकरार के कारणों को लेकर कई तरह की बातें कहीं जा रही हैं। अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव की अमर सिंह से नाराजगी छिपी हुई नहीं है। इसलिए यही माना जा रहा है कि इस विवाद की जड़ में यही मनमुटाव है। पर औद्योगिक जगत में कुछ और ही चर्चा है।

सभी जानते हैं कि देश के एक सबसे बड़े घराने के दो भाइयों के बीच गत कुछ वर्षों से महाभारत छिड़ा है। इनमें से एक भाई के साथ अमर सिंह डटकर खड़े रहे हैं। कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर होने के बाद दूसरे भाई को लगता था कि अमर सिंह ठंडे पड़ जायेंगे। पर अमर सिंह ने हमेशा सही मौके पर सही निर्णय लेकर अपने विरोधियों को ठेंगा दिखाया है। केन्द्र में जब राजग सरकार आई तो अमर सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी से ऐसी जुगलबंदी की कि भाजपा के नेता तक उनसे परेशान थे। भाजपा की सरकार में  अमर सिंह के काम भाजपाइयों से पहले होते थे।

यूपीए की सरकार आई तो अमर सिंह ने हरकिशन सिंह सुरजीत से ऐसे तार जोड़े  कि उनकी हैसियत बरकरार रही। मनमोहन सिंह सरकार जब परमाणु मुद्दे पर विश्वास मत में गिरने लगी तो अमर सिंह ने अपना बैर भुलाकर उसका हाथ थाम लिया। मनमोहन सिंह की सरकार की वैतरणी तो पर हुई ही पर अमर सिंह की भी खूब चल निकली। समाजवादी पार्टी पर अमर सिंह की पकड़ कैसे इतनी मजबूत हुई कि दल के पुराने धाकड़ नेता हाशिए पर बिठा दिए गए या दल छोड़कर चले गए, इसे लेकर तमाम बातें सत्ता के गलियारों में कही जाती हैं। पर सपा के नेताओं को तब यह सब स्वीकार्य था। आज सपा अमर सिंह पर पूंजीपतियों का हित साधने और दल में समाजवादी मूल्यों से किनारा करने का आरोप लगा रही है। सपा वाले यह कैसे भूल गए कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की पिछली सरकार बनते ही एक उत्तर प्रदेश विकास परिषद बनाई गई थी जिसके अध्यक्ष अमर सिंह और सदस्य वे सारे उद्योगपति थे जिनके अमर सिंह से प्रगाढ़ संबंध थे। तब सपाइयों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया ? अचानक ऐसा क्या हो गया कि अमर सिंह दाल में कंकड़ी की तरह दिखने लगे।

दरअसल बात कुछ और है। राजनीतिक मोहरे फिट करने में उस्ताद अमर सिंह लगता है अब की बार गच्चा खा गए। अंदर की खबर रखने वाले विश्वसनीय सा्रेत बताते हैं कि उस बड़े औद्योगिक घराने के बड़े भाई ने मुलायम सिंह यादव व अखिलेश यादव से मुलाकात कर पूछा कि उनका छोटा भाई सपा को नियमित रूप से कितना पैसा देता है? साथ ही यह पेशकश भी की कि वे चाहे तो उनके दल को इससे ज्यादा मदद मिल सकती है बशर्ते कि वे अपने दल से अमर सिंह को बाहर कर दे। लगता हैं कि बड़े भाई की यह युक्ति काम कर गई और नतीजा सबके सामने है। अब तो फिल्मी गाना गाने के शौकीन अमर सिंह अपने बाथरूम में गुनगुना रहे होंगे, ‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूंचे में हम आज गुनहगारों की तरह। पर हम्पटी-डम्पटी अमर सिंह इतनी आसानी से गिरने वाली दीवार नहीं है। वे कहीं न कहीं अपनी जुगाड़ फिट कर ही लेंगे। सोनिया गांधी भले ही उन्हें पास न फटकने दे पर मायावती से लेकर दर्जनों क्षेत्रीय दल में जाने का उनका विकल्प खुला है। क्योंकि हर दल को पैसे जुटाने वाले की जरूरत होती है और अमर सिंह इस कला में महारथी हैं। पर उनकी मुश्किल यह है कि  सत्तारूढ़ दल अभी कमजोर नहीं हुआ है और जल्दी उसके सत्ता से हटने के आसार नहीं है। इसलिए इस व्यवस्था में अमर सिंह अपना प्रभाव जमा पाएंगे इसके आसार कम ही नजर आते हैं। बिना केन्द्र की सत्ता में पकड़ हुए औद्योगिक जगत की पकड़ भी ढीली पड़ जाती है।

जहां तक अपना दल खड़ा करने की बात है तो उसमें अमर सिंह की कामयाबी संदेहास्पद है। क्योंकि किसी भी राजनैतिक दल को जमीन से खड़ा करने के लिए देश के गली-देहातों मे चप्पलें घिसनी पड़ती हैं। धूल-धूप झेलनी पड़ती है। जनता की खरी-खोटी सुननी पड़ती है। पांच सितारा जिंदगी जीने के आदी अमर सिंह ऐसा कर पायेंगे इसमें शक है और इसलिए उनका यह प्रयास शायद परवान न चढ़े। दूसरी तरफ अमर सिंह से द्वेष रखने वाले मानते हैं कि यह अमर सिंह के पतन की शुरूआत है। सिंगापुर में किडनी का आप्रेशन कराकर लौटे अमर सिंह का स्वास्थ्य अब ऐसा नहीं कि वे किसी नये दल को खड़ा कर सके। अब देखना यह होगा कि इन विपरीत परिस्थितियों में ठाकुर अमर सिंह खुद को कैसे फिर से खड़ा करते हैं?