Monday, May 25, 2020

अब आगे की सोचें

लॉकडाउन से सबने ये समझ लिया है कि कोरोना के साथ कैसे जीना है। धीरे धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं। प्रवासी मज़दूरों की घर लौटने की भीड़ देश के हर महानगर व अन्य नगरों में व शराब की दुकानों के बाहर लगी लम्बी लाइनें इस बात का प्रमाण है कि लोगों के धैर्य का बांध अब टूट चुका है। बहुत से लोग मानते हैं कि लॉकडाउन के चलते कोरोना से नहीं मरे तो भूख और बेरोज़गारी से लाखों लोग अवश्य मर जाएँगे। इसलिए जो भी हो इस क़ैद से बाहर निकला जाए और चुनौती का सामना किया जाए। 

जिनके पास घर बैठे खाने की सुविधा है और जिनका लॉकडाउन से कोई आर्थिक नुक़सान नहीं हो रहा उन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लॉकडाउन कितने दिन अभी और चले।

उधर देश भर से तमाम सूचनाएँ आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी बात नहीं है। पारम्परिक पद्धतियों जैसे होमियोपैथी और आयुर्वेद ने बहुत सारे कोरोना पोज़िटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पे वायरल हो रहे हैं। और इसी बीच पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज़ ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान-बूझ कर कोरोना का इंफ़ेक्शन लें और फिर ठीक हो कर दिखाएं। उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया, उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नए नए हानिकारक प्रयोग किए। जिन्हें बाद में रद्द करना पड़ा। जैसे माँ के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक। पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया। 

जहां तक हम भारतीयों की बात है मैं हमेशा से इस बात पर ज़ोर देता आ रहा हूँ कि भारत का पारम्परिक भोजन, पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन, पारम्परिक औषधियाँ और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त राष्ट्र बन पाएँगे। रही बात कोरोनापूर्व के आधुनिक जीवन की तो कोरोनापूर्व वाला जीवन तो लौटने वाला नहीं। न उत्सवों में वैसी भीड़ जुटेगी, न वैसा पर्यटन होगा, न वैसे मेलजोल होंगे और न वैसी चमक दमक की ज़िंदगी। कुछ महीनों या कुछ सालों तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे। 

1978 में जब मैं दिल्ली पढ़ने आया था तो किसी मंत्री या नेता के घर के चारों ओर न तो चार दिवारी होती थी, न सुरक्षा के इतने तामझाम । पर बढ़ते आतंकवाद और अपराध ने शासकवर्ग को हज़ारों किलों में क़ैद कर दिया है। इसी तरह न्यू यॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों पर आतंकवादी हमले के बाद से हवाई अड्डों पर सुरक्षा अचानक ही कई गुना बढ़ा दी गई। जिसका असर पूरी दुनिया में हुआ। शुरू में तो अटपटा लगा फिर लोगों ने सुरक्षा जाँच उपकरणों से गुजरने के लिए लम्बी लम्बी क़तारों में धीरज से खड़े रहने की आदत डाल ली। 

इसी तरह पूरी दुनिया पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने, गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे। चेहरे पर मास्क, बार बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना, जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी। इसी तरह अब लोग एक दूसरे को उपहार देने या फल, मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे।ऐसे सब लेन-देने ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफ़र से ही कर लिए जाएँगे। इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में माँ बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दिया जा रहा है।जहां तक सम्भव होगा दफ़्तर का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे। जिससे कम से कम सामाजिक सम्पर्क हो। 

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज़्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा। क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियाँ काफ़ी कम हो जाएँगी। लेकिन इसका बहुत बड़ा असर लोगों के मनोविज्ञान पर होगा। अनेक शोध प्रपत्रों में यह बात कही जा रही है कि इस तरह ऑनलाइन काम करने या पढ़ाई करने से लोगों के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, क्रोध और हताशा बढ़ेगी। बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने सहपाठियों से मिल कर मस्त हो जाते हैं। वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं। खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है। ये सब उनसे छिन जाएगा तो कल्पना कीजिए कि हमारी अगली पीढ़ी के करोड़ों नौजवान कितने डरे सहमें और असंतुलित बनेंगे। इसलिए विश्व स्तर पर एक बहुत बड़ा तबका ऐसे वैज्ञानिकों, पत्रकारों व राजनेताओं का है जो बार बार इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि कोरोना का आतंक फैला कर सरकारें लोकतांत्रिक परम्पराओं को नष्ट कर रही हैं, मानव अधिकारों का हनन कर रही हैं और राजनैतिक सत्ता का सीमित हाथों में नियंत्रण स्थापित कर रही हैं। यानी ये सब सरकारें तानाशाही की ओर बढ़ रही हैं। इस आरोप में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा। फ़िलहाल हमें कोरोना के इस मायाजाल से काफ़ी समय तक उलझे रहना होगा और अपनी सोच और तौर तरीक़ों में भारी बदलाव लाना होगा।                  

Monday, May 18, 2020

कोरोना से कैसे जीता ये परिवार ?

जब-जब हमने अपनी वैदिक परम्पराओं और ज्ञान की उपेक्षा करके पश्चिम का अंधा अनुकरण किया है। तब-तब हम लुटे, पिटे और बर्बाद हुए हैं। आज कोरोना के आतंक से पूरी दुनिया सहमी हुई है। लेकिन भारत में हर कोने से ऐसी खबरें आ रही हैं कि लोगों ने पारम्परिक अनुभव और ज्ञान का सहारा लेकर कोरोना से जंग जीती है। ऐसे ही एक अनुभव की चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया में खूब वायरल हो रही है।   

62 वर्षीय वीरेंद्र के. बंसल दिल्ली के मॉडल टाउन में रहते हैं। देश में लॉक डाउन की घोषणा के बाद इनके पूरे परिवार ने इसका ईमानदारी से पालन किया। घर से कोई भी व्यक्ति सिवाय रोजमर्रा की चीजों के जैसे दूध, सब्ज़ी, दाल, चावल इत्यादि के दो दिनों में एक बार के अलावा घर से बाहर नहीं गया। और इन सब चीजों को घर में लाने के बाद साफ सफाई के सभी नियमों का पालन किया।

वे खुद विशेष तौर से एक बार भी घर के गेट से बाहर नहीं निकले। परंतु पता नहीं कहाँ से इनको 26 अप्रेल 2020 को बुखार हो गया। शुरू में दो तीन दिन बुखार हल्का था, उन्होंने अपने पारिवारिक डाक्टर के कहने पर बुखार के सभी रूटीन टेस्ट भी कराये, पर वो सब नेगेटिव निकले। इसके बाद डाक्टर से पुनः संपर्क करने पर उन्हें कोरोना टेस्ट के लिये बोला गया। बंसल जी इस बात को मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्होंने  लॉकडाउन का सही से पालन किया था। फिर भी 4 मई 2020 को दिल्ली की एक नामी लैब से टेस्ट कराने पर 6 मई को इन्हें कोरोना पोसिटिव निकला। 

श्री बंसल ने तुरंत ही अपने आप को एक अलग कमरे में क्वारंटाइन कर सारे घर से अलग कर लिया। इनके छोटे भाई (57 वर्ष) व माताजी (89 वर्ष) का टेस्ट भी कोरोना पोसिटिव निकला, और वे दोनों भी क्वारंटाइन हो गए।

गौरतलब है कि, सरकारी संस्थाओं से लगातार संपर्क करने पर व प्रधानमंत्री जी को ट्वीट करने पर दिल्ली के हिन्दू राव अस्पताल से एक डाक्टर 9 मई 2020 को अपनी टीम के साथ इन्हें देखने आए। और यह कह गए कि पूरा परिवार पोसिटिव निकलेगा तथा सब के टेस्ट 11 मई 2020 को करा दिए जाएंगे। पर अफसोस की बात है कि 12 मई 2020 तक कुछ नहीं हुआ। पूरे बंसल परिवार ने कोरोना की इस बिमारी को एकजुट होकर 26 अप्रेल 2020 से ही इसे एक चैलेंज के रूप में लिया था। 

बंसल परिवार का सुबह से ही दिन भर का कार्यक्रम शुरू हो जाता ; दिन में दो बार गर्म पानी के नमक डाल कर गरारे, दिन में 4 बार घर पर बना हुआ काढ़ा, दो बार आँवले का गर्म पानी, तीन बार स्टीम, दो बार एक चम्मच हल्दी का दूध, नींबू की गर्म शिकंजी, दो समय नाश्ता और दो बार हल्का खाना।

जब भी बुखार 100 से ऊपर गया, तो वे डोलो 650 की एक गोली ले लेते और कई बार जब बुखार गोली लेने पर भी 102 से नीचे नहीं उतरा तो सर पर ठंडे पानी की पट्टी बुखार हल्का होने तक रखते। इसके साथ ही दिन में दो बार प्राणायाम भी करते।

बंसल जी का कहना है कि ईश्वर की कृपा से इनका बुखार पिछले कई दिनों से नॉर्मल चल रहा है, बिना किसी गोली के। इनके छोटे भाई व माता जी को भी पहले से आराम है। इनके परिवार में 11 सदस्य हैं जिसमें दो छोटी बच्ची तीन व चार साल की भी हैं।

बंसल जी ने सभी से करबद्ध प्रार्थना की है कि कोरोना से घबराएं नहीं इसे एक वायरल बुखार के तौर पर लें। इनके परिवार में किसी को भी सांस की कोई तकलीफ नहीं हुई। हल्की फुल्की खांसी या थोड़ा सा बलगम हुआ जो मौसम बदलने पर भी हो ही सकता है। उनकी सलाह है कि जहां तक सम्भव हो सके अपने आप को कोरोना से बचाइये । लेकिन यदि हो जाये तो हिम्मत से इसका सामना करें और इसको हरायें।

आज जिन सवालों और चुनौतियों को लेकर पूरी दुनियाँ परेशान हैं, उनको और उनके कुछ समाधानों को मैंने 1988 में, शिकागो (अमरीका) में एक वैश्विक सम्मेलन में बताया था। जिस पर तब मुझे वहाँ के टीवी और अख़बारों में छापा गया था। पिछले हफ़्ते अचानक उस सम्मेलन पर आधारित (1989 में अमरीका में छपी) ये पुस्तक पुरानी किताबों में रखी हाथ लगी, जिसमें कई जगह मेरे विचारों को उद्धृत किया गया है। 

वहाँ मेरा ज़ोर पर्यावरण संतुलन, आध्यात्मिक जीवन और भौतिकता की आधुनिक दौड़ पर लगाम कसने पर था। मैंने उनसे कहा था आप अंधे हैं और हम लंगड़े। दोनों मिलकर अगर सफ़र तय करें तो मानव जाति का भला होगा। आप हमें पिछड़ा या विकासशील कहना बंद करो। हमारे पारम्परिक ज्ञान और जीवन शैली से रहना सीखो और हमसे अपना तकनीकी ज्ञान साझा करो। जैसे थर्माकोल की जगह पत्तल और डिब्बे के दूध की जगह माँ का दूध, टॉयलेट पेपर की जगह पानी, रासायनिक खाद की जगह गोबर् की खाद, ताकि पर्यावरण का विनाश न हो। मेरे बोलते ही सम्मेलन में सन्नाटा छा गया। क्योंकि मैंने अपने ग्रामीण अनुभवजन्य विचारों से उनकी उपदेशात्मक शैली में चल रहे भाषणों पर प्रश्न खड़े कर दिए थे। 

इस सम्मेलन में कुल 35 लोग थे। जिनमें कई राष्ट्रों के प्रमुख लोग, विश्व बैंक के अध्यक्ष रहे और वियतनाम युद्ध के ज़िम्मेदार अमरीकी विदेश सचिव (मंत्री) रहे मैकनमारा और तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बुश की सचिव, दिवंगत राष्ट्रपति जॉन एफ कनेडी की भतीजी और बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के कार्यकाल में राज्यपाल रहीं जैसी बड़ी-बड़ी वैश्विक हस्तियाँ और नईजीरिया, आर्जेंटीना और भारत से हम तीन युवा पत्रकार थे। 

मेरी फटकार का ये असर हुआ कि 1988 के बाद मुझे गोरों ने कभी भाषण देने अमरीका नहीं बुलाया। हाँ अमरीका के भारतीय समाज और वहाँ के मशहूर विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र लगातार बुलाते रहे और मैं जाता रहा। 

कोरोना लाक्डाउन के दौरान वृंदावन के अपने पैतृक निवास पर दिन में पुराने बक्से खोल कर देख रहा हूँ तो 50 साल पुराने भी दस्तावेज और ग्रंथ सामने आ रहे हैं। इसी क्रम में  पिछले हफ़्ते जब एक पुराना बक्सा खोला तो ये ग्रंथ हाथ आया, सोचा आपसे साझा करूँ। 

साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि गांधी जी के ग्राम स्वराज्य का ही एक मॉडल है जो भारत की आम जनता को सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और सुरक्षा प्रदान कर सकता है। और यह बात हम जैसे लोग दशकों से कहते और लिखते आ रहे हैं। पर आज़ादी के बाद न तो प. नेहरू ने इस पर ध्यान दिया, न उनके बाद आज तक के प्रधान मंत्रियों ने। आज़ाद भारत का राजतंत्र, पश्चिम की चकाचौंध के पीछे दौड़-दौड़ कर विदेश जाता रहा और देश बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और लुटेरों के हाथ लुटवाता रहा। चलो, जब जागो तब सवेरा। देर से ही सही मोदी जी ने भी आज आत्मनिर्भरता के महत्व को समझा है। पर यह तभी सफल हो पाएगा जब हमारे राजनेता, अफ़सर, वैज्ञानिक और हम सब तथाकथित पढ़े लिखे लोग पश्चिम का मोह त्याग कर अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे और अपनी सोच और जीवन शैली को वाक़ई स्थानीय संसाधनों पर आधारित आत्मनिर्भर बनाएँगे। 

Monday, May 11, 2020

धर्म स्थलों का धन क्या विकास में लगे?

जब से कोरोना का लॉकडाउन शुरू हुआ है तब से अपनी जान बचाने के अलावा दूसरा सबसे महत्वपूर्ण चर्चा का विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर है। हर आदमी ख़ासकर व्यापारी, कारखानेदार और मज़दूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। अर्थव्यवस्था के इस तेज़ी से पिछड़ जाने के कारण प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्रीगण तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी, वेतन में कटौती, सरकारी खर्च में फ़िज़ूल खर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में सबका ध्यान भारत के धर्म स्थलों में जमा अकूत दौलत की तरफ़ भी गया है। बार-बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्म स्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारी मात्रा में जमा यह धन, निष्क्रिय पड़ा है। या इसका दुरुपयोग हो रहा है। 

कुछ सीमा तक उपरोक्त आरोप में दम हो सकता है। पर इस धन को सरकारी तंत्र के हाथ में दिए जाने के बहुतसे लोग शुरू से सर्वथा विरुद्ध रहे हैं। क्योंकि, तमाम क़ानूनों, पुलिस, सी.बी.आई., सीवीसी, आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है। 

दरअसल धार्मिक आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले, धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबन्धन कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि उस धर्म के मानने वाले समाज के प्रतिष्ठित और सम्पन्न लोगों की प्रबन्धकीय समितियों का गठन एक सर्वमान्य निर्देश के द्वारा कर देना चाहिए। इन समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में न हो। जब साधन सम्पन्न भक्त मिल बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे। 

जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं। कोरोना क़हर के दौरान लगभग सभी धर्म स्थलों ने ख़ासकर गुरुद्वारों ने बढ़चढ़ कर ज़रूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं। सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं। जैसे अस्पतालों, शिक्षा संस्थानों, रैन बसेरों, अन्य क्षेत्रों , आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है। क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर-नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का ग़बन करना । जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है ।

ऐसा नहीं है कि सभी धर्मस्थलों में पूरी पारदर्शिता और ईमानदारी से धर्मार्थ धन का सदुपयोग होता हो । वहाँ भी इस धन के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहती हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियाँ गठित हों , उनकी पारदर्शिता और जबावदेही विस्तृत दिशानिर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए। ताकि घोटालों की गुंजाइश न रहे। इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए। जिससे पाई-पाई पर जनता की निगाह बनी रहे। किसी भी धर्म के धर्मस्थानों का धन सरकार द्वारा हथियाना, उस समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। 

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं, जहाँ नित्य धन की वर्षा होती रहती है। इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाजों को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए। इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना। वे भी अच्छी भावना के साथ ऐसे कार्यों में जुड़ना पसन्द करेंगे। अब वे अपने धन का कितना प्रतिशत मन्दिर और अनुष्ठानों पर खर्च करते हैं और कितना विकास के कार्यों पर, यह उनके विवेक पर छोड़ना होगा।

धर्मस्थलों के धन पर अगर सरकार नज़र डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला  हो जाता है। और तब सवाल उठता है कि जनता की खून पसीने की कमाई के हज़ारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से क़र्ज़ लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अकूत दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं, उनसे क्यों न धन वसूला  जाए। सब जानते हैं कि देश का हर बड़ा पैसे वाला पसीने बहाकर धनी नहीं बनता। प्रकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन, करों की भारी चोरी, बैंकों के बिना चुकाए बड़े-बड़े ऋण, एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल धर्मस्थलों को ही सजा क्यों दी जाए? यदि असीम धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों, धर्माचार्यों को ही नहीं, बल्कि उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों और मीडिया के मठाधीशों को भी मिलनी चाहिए। उन सब लोगों को जो अपनी इस विशिष्ट स्थिति का लाभ उठाकर समाज के एक बड़े वर्ग का हक छीन लेते हैं।     

पुरानी कहावत है कि, ‘इस संसार में हर एक की ज़रूरत पूरा करने के लिए काफ़ी धन और संसाधन हैं, लेकिन कुछ लोगों की हवस पूरी करने के लिए वे नाकाफ़ी हैं’। भारत में की भी यही स्थिति है। ‘सुजलां, सुफलाम् शस्य्श्यामलाम’ भारत माता अपनी 135 करोड़ संतानों को स्वास्थ्य और सुखी रखने में सक्षम है। समस्या तब खड़ी होती है जब नियत में खोट हो जाता है। इसलिए हमारे जैसे लोग बरसों से सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के लिए संघर्ष करते रहे हैं। पर दुःख की बात यह है कि जिस स्तर की पारदर्शिता की आवश्यकता है वह तमाम क़ानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद आजतक स्थापित नहीं हो पाई है। इसलिए जनता का विश्वास जीतने में देश की नौकरशाही आज तक सफल नहीं हो पाई है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि पहले सार्वजनिक जीवन में पूरी पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और तब सरकार से इतर इन संसाधनों पर निगाह डाली जाए।  

Monday, May 4, 2020

ऋषि कपूर ने कहा था, “पापा की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना”

दादासाहेब फाल्के अवार्ड लेने दिल्ली आए राज कपूर जी को मई 1988 में दिल का भारी दौरा पड़ा और 2 जून को वो चल बसे। तब ऋषि कपूर ने कहा था, पापा (राज कपूर) की चिता में सिर्फ़ चंदन की लकड़ी लगाना। पर कोरोना क़हर के चलते कल ऋषि कपूर का बेटा रणबीर कपूर चाह कर भी अपने मशहूर पिता को उनके क़द के अनुरूप विदाई नहीं दे सका। ऋषि कपूर का शरीर विद्युत शव दाहग्रह में पंचतत्वों में विलीन हो गया। 

उन दिनो मैं इंडीयन इक्स्प्रेस समूह के हिंदी अख़बार जनसत्ता का दिल्ली संवाददाता था । एप्रिल और मई 1988 में मैं सपरिवार अमरीका के टूर पर था, जहां मेरे व्याख्यान स्टैन्फ़र्ड यूनिवर्सिटी (सैन फ़्रांसिस्को) और शिकागो में हो रहे थे। 

तभी दिल्ली दफ़्तर से फ़ोन आया फ़ौरन भारत लौट आओ। राज कपूर जी को दिल का घातक दौरा पड़ा है और वे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती हैं, जहां हिंदी या इंग्लिश के किसी भी पत्रकार को घुसने नहीं दिया जा रहा। तुम ही उनकी खबर निकाल कर ला सकते हो। मजबूरन मुझे अमरीका की यात्रा अधूरी छोड़कर भारत लौटना पड़ा। 

तब से एक महीने तक हर दिन मैं सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक एम्स के प्राइवेट वार्ड के सूट नम्बर 101 में कपूर परिवार के साथ रहता और रात को दफ़्तर जाकर दिन भर की रिपोर्ट लिखता। क्योंकि वहाँ दिन भर मिलने आने वाले वीवीआईपी और फ़िल्मवालों का ताँता लगा रहता था। जिसके कई रोचक क़िस्से होते। मेरी खबरों को ही अगले दिन देश भर के बाक़ी अख़बार अपनी- अपनी भाषा में छापते थे।

दुःख की घड़ी में आशा की हर किरण नई अपेक्षा जगा देती है। उन्हीं दिनों एक दिन दोपहर को राजीव कपूर (राम तेरे गंगा मैली के नायक) और मैं वीआईपी वार्ड के उसी कमरे में एक ही पलंग पर नीचे पैर लटकाए सो रहे थे। वार्ड के पर्दे के पीछे मरीज़ वाले पलंग पर श्रीमती कृष्णा राजकपूर, बहुरानी और तारीक़ा बाबीता और नीतू इसी तरह पैर लटकाये सो रही थीं। राज साहब तो आईसीयू में थे। 

तभी वार्डबोय ने सूचना दी कि रामायण की सीता जी आयी हैं। हम सब हड़बड़ाकर उठ गए। दीपिका चिखलिया अपनी माँ और छोटे भाई के साथ आयीं थी। उन्हें देखकर बॉलीवुड का ये मशहूर कपूर ख़ानदान ऐसे नतमस्तक हो गया मानो साक्षात सीता जी ही आशीर्वाद देने आ गयी हों। उस दिन मैंने जनसत्ता में खबर लिखी ‘कपूर ख़ानदान के लिए सीता ही थीं दीपिका चिखलिया’।

2 जून 1988 की शाम जब राज कपूर साहब ने अंतिम साँस ली तो उस कक्ष का वातावरण एकदम गमगीन हो गया। पर फिर जल्दी ही आगे की तय्यारी की चर्चा होने लगी। उन दिनों मोबाइल फ़ोन तो थे नहीं। अस्पताल के वीआईपी कमरे में जो एम.टी.एन.एल का फ़ोन था उसमें भारत सरकार ने एस.टी.डी की सुविधा दे रखी थी ।

उस पर सभी कपूर भाई बहन लगातार बम्बई फ़ोन करके अपने-अपने सचिवों को शव यात्रा की तैयारी की हिदायत दे रहे थे। दुखी बैठी श्रीमती कृष्णा राजकपूर को इस सबसे परेशानी ना हो इसलिये उस फ़ोन के तार को लंबा खींच कर बाहर बाल्कनी तक ले गये थे। जहां परिवार के मित्र फ़िल्मी सितारे राजेश खन्ना आदि कुर्सी पर बैठे लगातार सिगरेट पी रहे थे। रणधीर कपूर बहुत गमगींन ख़ामोश खड़े थे। 

मैं तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य व उड्डयन मंत्री मोतीलाल वोरा जी को हर थोड़ी देर बाद फ़ोन करके आगे की व्यवस्था पूछ रहा था। कुछ तय नहीं हो पाया था। 

क़रीब रात 9 बजे वोरा जी ने मुझे बताया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी जी से अनुमति मिल गयी है। इंडीयन एयरलाइंज़ का एक विशेष विमान कपूर परिवार को लेकर बम्बई जाएगा। उन्होंने मुझसे इसे गोपनीय रखने को कहा अन्यथा इतने सारे फ़िल्मी सितारों को देखने भारी भीड़ अस्पताल और हवाई अड्डे पर जुट जाती। 

तय हुआ कि रात के दो बजे पालम से विमान उड़ेगा। वोरा जी ने कहा मैं रात एक बजे अस्पताल आऊँगा। मैंने उनसे कहा कि मैं अपनी मारुति कार खुद चलाता हूँ इस भागदौड़ में कैसे चला पाउँगा? तो मैं अस्पताल से आपके साथ आपकी गाड़ी में पालम हवाई अड्डे तक विदा करने चलूँगा। उन्होंने कहा ठीक है। कपूर परिवार की बम्बई यात्रा का ये प्लान तय होते ही कक्ष में हलचल तेज हो गयी। 

तभी ऋषि कपूर ने अपने सचिव को फ़ोन करके सारे काम बताना शुरू किये। जहाज़ जब बंबई पहुँचेगा तो इन लोगों को क्या-क्या करना है। कल शव यात्रा के लिए सब सफ़ेद फूल होने चाहिये। उनका एक ख़ास वाक्य मुझे आज भी याद है कि पापा की चिता में आई वांट आल सैंडल्वुड (सब चंदन की लकड़ी होनी चाहिये)।

2018 की बात है, ऋषि कपूर एक हास्य फ़िल्म के लीड रोल में अभिनय कर रहे थे। जिसकी शूटिंग दिल्ली में कई हफ़्तों से चल रही थी। अचानक ऋषि कपूर की तबियत ख़राब हो गयी और कुछ ही घंटों में उनका बेटा रणबीर कपूर मुम्बई से उन्हें लेने आ गया। सारी शूटिंग रोक दी गयी। पूरी शूटिंग यूनिट मुम्बई लौट गई। फिर तो न्यू यॉर्क में ऋषि कपूर का कैन्सर का लम्बा इलाज चला। 

इस तरह उनकी यह आख़री फ़िल्म अधूरी रह गई। ऋषि कपूर की ज़िंदगी में बचपन से ही शानो-शौक़त और शौहरत क़िस्मत में लिखी थी। उनके दादा पृथ्वीराज कपूर से लेकर आज तक दर्जनों फ़िल्मी सितारे इस परिवार ने बॉलीवुड को दिए हैं। पर क़िस्मत का खेल देखिए जब ऋषि कपूर की माँ श्रीमती कृष्णा राजकपूर का मुंबई में देहांत हुआ तो ऋषि कपूर न्यू यॉर्क में थे और कैन्सर के इलाज के कारण अपनी माँ के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए। अब तो उनकी यादें उन दर्जनों मनोरंजक फ़िल्मों से दुनिया भर के फ़िल्म प्रेमियों को गुदगुदाती रहेंगी। जैसे उनके पिता राज कपूर की फ़िल्में आज भी सदाबहार हैं। अलविदा ऋषि कपूर।