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Monday, September 16, 2024

जल संकट: एक बार फिर वही रोना


देश के ज़्यादातर हिस्से में भारी वर्षा ने हालात बेक़ाबू कर दिये हैं और समाधान दिखाई नहीं देता। कई बाँधों में जल का स्तर ख़तरे के निशान से भी ऊपर चला गया है। ये पानी अगर छूट कर निकल पड़ा तो दूर-दूर तक तबाही मचा देगा। नदियों के बहाव में पुल बहे जा रहे हैं। जिनमें आए दिन जान-माल की हानि हो रही है। अनेक प्रदेशों के बड़े शहरों की पॉश बस्तियों में कमर तक पानी भर रहा है। ग़रीब बस्तियों की तो क्या कही जाए? वे तो हर आपदा की मार सहने को अभिशप्त हैं। देश की राजधानी दिल्ली का ही इतना बुरा हाल है कि यहाँ जल से भरे नालों और बिना ढक्कन के मैनहोलों में कितनी ही जाने जा चुकी हैं। अनियंत्रित जल का भराव, बिजली के खम्बों को अपनी लपेट में ले रहा है, जिनमें फैला करंट जानलेवा सिद्ध हो रहा है। नगरपालिका हो या महापालिकाएँ हों इस अतिवृष्टि के सामने बेबस खड़ी हैं। इसके अपने अलग कई कारण हैं। 


पहले तो इंजीनियरिंग डिज़ाइन में ही गड़बड़ी होती है। दूसरा, जल के प्रवाह को और धरती के ढलान को निर्माण करते समय गंभीरता से नहीं लिया जाता। तीसरा, जल बहने के मार्ग कचड़े से पटे होने के कारण वाटर-लॉगिंग को पैदा करते हैं। ये सब ‘विकास’ अगर सोच-विचार कर किया जाता तो ऐसे हालात पर क़ाबू पाया जा सकता था। पर जब उद्देश्य समस्या का हल न निकालना हो कर बल्कि अपनी हित साधना हो तो विकास के नाम पर ऐसा ही विनाश होगा। 



इस संदर्भ में, अपने इसी कॉलम में, शहरों में जल भराव की समस्या के एक महत्वपूर्ण कारण को पिछले दो दशकों में मैं कई बार रेखांकित कर चुका हूँ। पर केंद्र और प्रांतों के शहरी विकास मंत्रालय, इस पर कोई ध्यान नहीं देते। समस्या यह है कि हर शहर में सड़कों की मरम्मत या पुनर्निर्माण का कार्य केवल विभाग और ठेकेदार के मुनाफ़ा बढ़ाने के उद्देश्य से किए जाते हैं, जनता की समस्या का हल निकालने के लिए नहीं। हर बार पुरानी सड़क पर नया रोड़ा-पत्थर डाल कर उसे उसके पिछले स्तर से 8-10 इंच ऊँचा कर दिया जाता है और यह क्रम पिछले कई दशकों से चल रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि आज अच्छी-अच्छी कॉलोनियों की सड़कें, उन सड़कों के दोनों ओर बने भवनों से क़रीब एक-एक मीटर ऊँची हो गई हैं। नतीजतन, हल्की सी बारिश में ही इन घरों की स्थित नारकीय हो जाती है। क्योंकि सड़क पर गिरने वाला वर्ष का जल, इन घरों में जमा हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण की नगरी मथुरा हो या महाकाल की नगरी उज्जैन, आप इस समस्या का साक्षात प्रमाण देख सकते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हर बार सड़क की मरम्मत या पुनर्निर्माण से पहले उसे खोद कर उसके मूल स्तर पर ही बनाया जाए। मैंने दुनिया के कई दर्जन देशों की यात्रा की है। पर ऐसा भयावह दृश्य कहीं नहीं देखा जहां हर हर कुछ सालों में लोगों के घर के सामने की सड़क ऊँची होती जाती है। 



आज़ादी मिलने से आज तक खरबों रुपया जल प्रबंधन के नाम पर ख़र्च हो गया पर वर्षा के जल का संचय हम आज तक नहीं कर पाए। हमारे देश में वर्ष भर में बरसने वाले जल का कुल 8 फ़ीसद का ही संचयन हो पाता है। बाक़ी 92 फ़ीसद वर्षा का शुद्ध जल बह कर समुद्र में मिल जाता है। जिसका परिणाम यह होता है कि गर्मी की शुरुआत होते ही देश में जल संकट शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, वैसे-वैसे यह संकट और भी गहरा हो जाता है। 


राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र जैसे अनेक प्रांतों में तमाम शहर हैं जो अपनी आबादी की जल की माँग की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। आज देश में जल संकट इतना भयावह हो चुका है कि एक ओर तो देश के अनेक शहरों में सूखा पड़ता है तो दूसरी ओर कई शहर हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। इस सबसे आम जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। चेन्नई देश का पहला ऐसा शहर हो गया है जहां भूजल पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। जहां कभी चेन्नई में 200 फुट नीचे पानी मिल जाता था आज वहाँ भूजल 2000 फुट पर भी पानी नहीं है। यह एक गम्भीर व भयावह स्थिति है। ये चेतावनी है भारत के बाकी शहरों के लिए कि अगर समय से नहीं जागे तो आने वाले समय में ऐसी दुर्दशा और शहरों की भी हो सकती है। चेन्नई में प्रशासन देर से जागा और अब वहाँ बोरिंग को पूरी तरह प्रतिबंध कर दिया गया है। 



एक समय वो भी था जब चेन्नई में खूब पानी हुआ करता था। मगर जिस तरह वहां शहरीकरण हुआ उसने जल प्रबंधन को अस्त व्यस्त कर दिया। अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है। कही भी खाली जगह नहीं बची, जिसके माध्यम से पानी धरती में जा सके। बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है कही भी खाली जगह नहीं है जिससे धरती में पानी जा सके। इसलिए प्रशासन ने आम लोगों से आग्रह किया है कि वे अपने घरों के नीचे तलघर में बारिश का जल जमा करने का प्रयास करें। ताकि कुछ महीनों तक उस पानी का उपयोग हो सके। चेन्नई जैसे 22 महानगरों में भूजल पूरी तरह समाप्त हो गया है। जहां अब टैंकरों, रेल गाड़ियों और पाइपों से दूर-दूर से पानी लाना पड़ता है। अगर देश और प्रांतों के नीति निर्धारक और हम सब नागरिक केवल वर्षा के जल का सही प्रबंधन करना शुरू कर दें तो भारत सुजलाम-सुफलाम देश बन जाएगा, जो ये कभी था। ‘पानी बीच मीन प्यासी, मोहे सुन-सुन आवे हाँसी।’  

Monday, February 3, 2020

कुण्डों के जीर्णोंद्धार ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ कब तक ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति अभियान‘ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आवंटित की और अपने अतिविश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है। पर सोचने वाली बात ये है कि जल संकट जैसी गंभीर समस्या को दूर करने के लिए हम स्वयं कितने तत्पर हैं?

दरअसल पर्यावरण के विनाश का सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ता है। जिसके कारण ही पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले दो दशकों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आ गऐ।

सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की थी। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित रही। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व था कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए इसलिए तत्कालीन भारत सरकार की यह योजना विफल रही।

तब सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। हालत ये हो गई है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनमें कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। फिर ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी। पर इसमें भी राज्य सरकारें विफल रही। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनमें जल संचय हुआ। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर जहाँ नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहाँ बेगार टाली जाती है। 

पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर सवा लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बढ़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा। अन्यथा जापान के सुनामी, आस्ट्रेलिया के जंगलों में भीषण आग, केदारनाथ में बादलों का फटना इस बात के उदाहरण हैं कि हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

उ. प्र. के मथुरा जिले में विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा ‘द ब्रज फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था में 2002 से मथुरा जिले के पौराणिक कुण्डों के जीर्णोंद्धार का एक व्यापक अभियान चलाया। जिसके कारण न केवल भूजल स्तर बढ़ा बल्कि यहां विकसित की गई जनसुविधाओं से स्थानीय समुदाय को एक बेहतर जीवन मिला, जो उन्हें आजादी के बाद आज तक नहीं मिल पाया था। इसका प्रमाण गोवर्धन परिक्रमा पर स्थित गाॅव जतीपुरा, आन्योर व मथुरा के जैंत, चैमुंहा, अकबरपुर, चिकसौली, बाद, सुनरख व कोईले अलीपुर आदि हैं। जहां द ब्रज फाउंडेशन ने फलदार बड़े-बडे हजारों वृक्ष लगाये और यह सब कार्य सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के अनुरूप हुआ। जिसमें मथुरा प्रशासन और अन्य ब्रजवासियों ने सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाई। कुण्डों के जीर्णोंद्धार के मामले में प्रशासन की उपर्लिब्धयां उल्लेखनीय नहीं रही है, ऐसा स्वयं अधिकारी मानते हैं। इस दिशा में ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ को दूर करने के लिए 2009 से द ब्रज फाउंडेशन उ. प्र. सरकार से लिखित अनुरोध करती रही, कि कुण्डों के जीर्णोंद्धार की और इनके रखरखाव की स्पष्ट नीति निधार्रित करे, जिससे जल संचय के अभियान में स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी और योगदान बढ़ सके। पर आज तक यह नीति नहीं बनी। ग्रामीण जल संचय के मामले में द ब्रज फाउंडेशन ‘यूनेस्को’ समर्थित 6 राष्ट्रीय अवाॅर्ड जीत चुकी है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, नीति आयोग के सीईओ श्री अभिताभ कांत, अनेक केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री व भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी द ब्रज फाउंडेशन के द्वारा विकसित की गई इन परियोजना को देखने के बाद उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। बावजूद इसके कुछ स्वार्थीतत्वों ने द ब्रज फाउंडेशन पर मनगढं़त आरोप लगाकर ‘एनजीटी’ से उस पर दो वर्ष से हमला बोल रखा है। चिंता की बात ये है कि तमाम प्रमाण मौजूद होने के बावजूद एनजीटी तथ्यों से मुंह मोड़कर ऐसे आदेश पारित कर रही है, जिससे पर्यावरण और संस्कृति का तो विनाश हो ही रहा है, आम ब्रजवासी, संतगण और द ब्रज फाउंडेशन की समर्पित स्वयंसेवी टीम भी हतोत्साहित हो रही है और ये सब हो रहा है, तब जबकि मोदी जी ने जल संचयन के अभियान में हर नागरिक और स्वयंसेवी संस्था से आगे आकर सक्रिय योगदान देने का आवाह्न किया है। 

Monday, October 7, 2019

प्रधानमंत्री के ‘जल शक्ति अभियान’ को कैसे सफल बनाये?

देश में बढ़ते जल संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री जी के अति महत्वपूर्ण ‘जल शक्ति अभियान’ की शुरूआत जुलाई 2019 में की भी। जिसका उद्देश्य जल संरक्षण और सबके लिए स्वच्छ पेयजल की आपूत्र्ति करना है। ‘स्वच्छता अभियान’ व ‘प्लास्टिक मुक्त भारत’  की ही तरह यह भी एक अति महत्वपूर्णं कदम है। जिसका क्रियान्वयन करने में देश के हर नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रशासनिक अधिकारी और राजनेताओं को ईमानदारी और निष्ठा से सहयोग करना चाहिए। जिससे बढ़ते जल संकट से निजात पा सके। 
आजादी के बाद से आजतक यही होता आया है कि बड़ी-बड़ी योजनाऐं सद्इच्छा से और देश को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से घोषित की जाती है। पर जैसा 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि, ‘‘दिल्ली से चले 100 रूपये में से केवल 14 रूपये ही खर्च होते हैं, शेष रास्ते में भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाते हैं।’’ इस स्थिति में आज भी कोई अंतर नजर नहीं आ रहा। प्रधानमंत्री जी ने केंद्र सरकार के स्तर तक दलाली और भ्रष्टाचार को बिल्कुल खत्म कर दिया है। किंतु जिला और ग्रामीण स्तर पर कोई बदलाव नहीं पाया है। यह एक ऐसा नग्न सत्य है, जिसे बिना राग-द्वेष के कोई भी आम नागरिक सिद्ध कर सकता है। 
एक उदाहरण से यह बात हम ‘जल शक्ति अभियान’ के संदर्भ में देखे। जिसकी धज्जियाँ ‘ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ के उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्रा के निर्देशन में मथुरा प्रशासन खुलेआम उड़ा रहा है और आर्थिक मंदी से जूझते भारत के सीमित संसाधनों को भ्रष्टाचार की बलि चढ़ा रहा है। मथुरा के सभी अखबारों में गत 2 हफ्तों से यह खबर छप रही है कि मथुरा प्रशासन ने जिले के 1000 से ज्यादा कुंडों और सरोवरों को पिछले 3 महीने में खोदकर जल से भर दिया है। चूँकि हमारी संस्था ‘द ब्रज फाउंडेशन’ गत 17 वर्षों से ब्रज के दर्जनों पौराणिक कुंडो के जीर्णोद्धार का कार्य बिना किसी सरकारी आर्थिक मदद के निष्ठा से करती आ रही है, जिसके लिए हमें 6 बार ‘यूनेस्को’ समर्थित ‘कुंडों व सरोवरों के जीर्णोंद्धार के लिए भारत की सर्वश्रेष्ठ स्वयसेवी संस्था’ के अवाॅर्ड मिल चुके हैं। इसलिए जो लोग 1000 कुंड खोद चुकने का दावा कर रहे हैं, उनसे हम अपने कुछ अनुभवजन्य प्रश्न यहाँ पूछ रहे हैं, जिन पर योगी महाराज व मोदी जी को निष्पक्ष जाँच के आदेश देने चाहिए।
1. डिजिटल इंडिया के युग में क्या मथुरा प्रशासन ने हाल ही में खोदे गए इन 1000 कुंडों की सूची, वे किस ग्राम में स्थित हैं, खुदाई के पहले और बाद की इनकी तस्वीर और लागत की सूचना अपनी वेबसायट पर डाली है ? जिससे उस गांव के निवासी ये जान सकें कि उनके गांव का कुंड कब खुद गया और उस पर कितने दिन काम चला, कितने मजदूर लगे, कितनी ट्रैक्टर ट्रॉली लगीं, कितने अर्थमूवर्स मशीनें (जेसीबी) लगीं ? क्या इतनी जेसीबी मथुरा में एकसाथ उपलब्ध थीं ? अगर नहीं, तो कहाँ से कितने किराये पर मंगाई गईं ?
2. क्या मथुरा प्रशासन ने इसका हिसाब रखा है कि इतने बड़े खुदाई अभियान में कुंडों को कितने फुट गहरा खोदा गया ? कितने करोड़ टन मिट्टी निकली ? वो कहाँ बेची या डाली गयी ? या सैंकड़ों करोड़ रुपए की गीली मिट्टी रातों-रात हवा में उड़ गई ? हमारा हमेशा प्रयास रहा है कि हर कुंड की खुदाई इतनी गहरी की जाए कि उसके स्वाभाविक जल स्रोत खुल जाऐं। इसलिए हम औसतन 15 से 35 फुट गहरी खुदाई करते हैं। 
3. पूरे जिले के इतने बड़े खुदाई अभियान को शुरू करने से पहले क्या क्षेत्र के सभी कुंडों का व्यापक वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया गया था ? जिससे उनके आकार, भूजल स्तर, जलसंग्रह क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) उनमें गिरने वाले नालों को हटाने (डायवर्ट) की योजना आदि का अध्ययन किया गया ? अगर हाँ तो उसकी रिपोर्ट कहाँ है ? किस प्रफेशनल संस्था को इस काम पर लगाया गया ? कितने दिनों में उसके किन लोगों ने ये काम कब से कब तक किया ? उन्हें कितना भुगतान किया गया ? इसी से पता चल जाऐगा कि कार्य को कितनी गंभीरता से किया गया या कागजी खानापूत्र्ति की गई।
4. आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने इस अभियान की शुरुआत जुलाई 2019 में की थी और 1000 कुंड खुद जाने का दावा प्रशासन ने सितम्बर 2019 के अंत में कर दिया । यानी तीन महीन में औसतन 14 कुंड रोजाना खोदे गए। इससे तो लगता है कि मथुरा प्रशासन ने कुंड खोदने में विश्व रिेकर्ड कायम कर दिया। वैसे हमारा अनुभव है वर्षाकाल में कुंडों की खुदाई का काम हो ही नहीं सकता। क्योंकि गीली मिट्टी पर जेसीबी मशीनें व ट्रैक्टर-ट्राॅली बार-बार फिसलती हैं, काम नहीं कर पातीं। इसके अलावा रोज-रोज बारिश होते ही खोदी गयी मिट्टी फिर से बहकर कुंड में चली जाती है। इससे सारी मेहनत और पैसा बर्बाद हो जाता है। इसलिए हम बरसात के बाद कुंड का पानी निकालकर उसे सूखने के लिए छोड़ देते हैं। फिर बरसात के 2 महीने बाद खुदाई शुरू करते हैं। इस तरह एक कुंड की खुदाई में द ब्रज फाउंडेशन की टीम को तीन साल तक लग जाते हैं। तब जाकर यह काम स्थायी होता है। आश्चर्य है कि मथुरा प्रशासन ने 3 से भी कम महीने में 1000 कुंड कैसे खोद डाले ?

Monday, September 30, 2019

बारिश की गड़बड़ी से निपटना सीखना पड़ेगा

चार महीनों का वर्षाकाल खत्म हो गया है। पूरे देश में वर्षा का औसत देखें तो कहने को इस साल अच्छी बारिश हुई है। लेकिन कहीं बाढ़ और कहीं सूखे जैसे हालात बता रहे हैं कि यह मानसून देश पर भारी पड़ा है।
मघ्य भारत अतिवर्षा की चपेट में गया। मघ्य भारत में औसत से 26 फीसद ज्यादा पानी गिरा है। उधर पूर्व उत्तरपूर्व भारत में औसत से 16 फीसद कम वर्षा हुई। ज्यादा बारिश के कारण दक्षिण प्रायद्वीप की भी गंभीर स्थिति है। वहां 17 फीसद ज्यादा वर्षा दर्ज हुई है। सिर्फ उत्तर पश्चिम भारत में हुई बारिश को ही सामान्य कहा जा सकता है। हालांकि वहां भी 7 फीसद कम पानी गिरा है। कुलमिलाकर इस साल दो तिहाई देश असमान्य बारिश का शिकार है। आधा देश हद से ज्यादा असमान्य वर्षा से ग्रस्त हुआ है। मघ्य भारत बाढ़ का शिकार है तो पूर्व पूर्वोत्तर के कई उपसंभागों में सूखे जैसे हालात है। उत्तर पश्चिम भारत जिसे सामान्य वर्षा की श्रेणी में दर्शाया जा रहा है उसके 9 में से 4 उपसंभाग सूखे की चपेट में हैं।
पिछले हफते मघ्य प्रदेश में अतिवर्षा से किसानों की तबाही की थोड़ी बहुत खबरें जरूर दिखाई दीं। वरना अभी तक इस तरफ मीडिया का ज्यादा ध्यान नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला मानसून आखिर रहा कैसा। बाढ़ से जो नुकसान हुआ उसका आकलन हो रहा है लेकिन यह बात तो बिल्कुल ही गायब है कि इस मानसून की मार का आगे क्या असर पड़ेगा। खासतौर पर उन उपसंभागों का जो सूखे की चपेट में हैं। 
एक अकेले मप्र में ही बाढ़ और बेवक्त बारिश से ग्यारह हजार करोड़ रूप्ए के नुकसान का आकलन है। मानसून ने जाते जाते उप्र के कुछ जिलों में भी भारी तबाही मचा दी है। यानी तीन चैथाई देश में मानसून की मार का मोटा हिसाब लगाएं तो यह नुकसान पचास हजार करोड़ से कम नहीं बैठेगा। इस नुकसान की भरपाई कर पाना केंद्र और राज्य सरकारों के लिए एक चुनौती बनकर सामने है।
खैर ये तो प्रकृति की उंच नीच का मामला है। इस पर किसी का कोई जोर नहीं है। लेकिन क्या इस नुकसान को कम किया जा सकता था। इसका जवाब हां में दिया जाना चाहिए। और यह इस आधार पर कि हम और दुनिया के तमाम देश मौसम की भविष्यवाणियों को लेकर बड़े बड़े दावे करने लगे हैं। इसी साल हमने अपने यहां औसत से थोड़ी सी ही कम बारिश का वैज्ञानिक अनुमान लगाया था। गैर&सरकारी एंजसियों का अनुमान थोड़ी और कम बारिश का था। लेकिन इस साल औसत बारिश का आंकड़ा ही कोई 10 फीसद गलत बैठ गया। वैसे देश सामान्य बारिश का जो पैमाना बना कर रखा गया है उसकी रेंज इतनी लंबी है कि मानसून में कितनी भी गड़बड़ी हो जाए मौसम विभाग यह साबित कर देता है कि सामान्य बारिश हुई। वैसे इस साल मघ्य भारत और दक्षिणी प्रायद्वीप में बारिश को मौसम विभाग भी सामान्य बता नहीं पाएगा। क्योंकि दोनों ही जोन में उंचनीच का आंकड़ा 20 फीसद से कहीं ज्यादा बड़ा है।
ब्हरहाल] मामला भविष्यवाणी का है। और ये पूर्वानुमान इसलिए किए जाते हैं ताकि देश के किसानों को अपनी फसल की बुआई का समय तय करने में सुविधा हो और इन्हीं पूर्वानुमानों से फसलों के प्रकार भी तय होते हैं। बैंक और फसल बीमा कंपनियों इन्हीं पूर्वानुमानों के आधार पर अपना कारोबार तय करते हैं। क्या इस बार के पूर्वानुमानों ने किसान बैंक और बीमा कंपनियों यानी सभी को ही मुश्किल में नहीं डाल दिया है।
बत यहीं पर खत्म नहीं होती। ज्यादा बारिश के पक्ष में माहौल बनाने वालों की कमी नहीं है। उन्हें लगता है सूखा पड़ना ज्यादा भयावह है और बाढ़ वगैरह कम बड़ी समस्या है। उन्हें लगता है कि ज्यादा बारिश का मतलब है कि बाकी आठ महीने के लिए देश में पानी का इंतजाम हो गया। यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि वर्षा के पानी को रोक कर रखने के लिए देश के पास बहुत ही थोड़े से बांध है। इन बांधों की क्षमता सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी रोकने की है। जबकि देश में सामान्य बारिश की स्थिति में कोई 700 अरब घनमीटर सतही जल मिलता है। यानी जब हमारे पास प्र्याप्त जल भडारण क्षमता है ही नहीं तो ज्यादा पानी बरसने का फायदा उठाया ही नहीं जा सकता। बल्कि यह पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता है।

क्हते हैं कि देश में अगले अभियान का ऐलान जल संचयन को लेकर ही होने वाला है। जाहिर है बूंद बूद जल बचाने की मुहिम और जोर से शुरू होगी। लेकिन क्या मुहिम काफी होगी। देश में जलापूर्ति ही सीमित है लोग खुद ही बहुत किफायत से पानी का इस्तेमाल करने लगे हैं। बेशक किफायत की जागरूकता बढ़ने से कुछ कुछ पानी जरूर बचेगा। लेकिन जहां वर्षा के कुल सतही जल का दो तिहाई हिस्सा बाढ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस जा रहा हो तो हमें वर्षा जल संचयन के लिए बांध] जलाशय और तालाबों पर ध्यान लगाना चाहिए। कहा जा सकता है कि बड़ी जल परियोजनाएं बनाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उतना कारगर होगा नही।