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Monday, May 16, 2016

साम्यवादी निष्पक्ष चिंतन करें

क्षिप्रा नदी के तट पर सिंहस्थ कुंभ में दुनियाभर के आस्थावान लोगों का सागर उमड़ पड़ा है। इतने विशाल जनसमूह की आवश्यकताओं को देखते हुए मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने प्रशंसनीय व्यवस्थाएं की हैं, जिसके लिए वो बधाई की पात्र है। यहां आए सभी संतों को केंद्र सरकार से दो अपेक्षाएं हैं, एक तो यथाशीघ्र राम मंदिर का निर्माण हो और दूसरा गौ-हत्या प्रतिबंधित हो। दोनों ही मांगें सर्वथा उचित और चिरअपेक्षित हैं। पर अब तक केंद्र में ऐसी कोई सरकार नहीं रही, जो संवेदनशीलता से इन मांगों पर कुछ करती। पहली बार संतों को लग रहा है कि इरादे के पक्के और आस्थावान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रहते अगर यह काम नहीं हुआ, तो फिर भविष्य में न जाने कितने दिन टले। 

भारत के लोकतंत्र का यह दुर्भाग्य है कि यहां बहुमत सरकार लेकर भी नरेंद्र मोदी वह सब नहीं कर सकते, जो एक राजतंत्र में करना बहुत सरल होता है। राजा प्रजा की भावना को समझकर तुरंत निर्णय ले सकता है, लेकिन लोकतंत्र का चुना हुआ प्रधानमंत्री अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दबावों के तहत काम करता है। इसलिए कई बार चाहते हुए भी वो सब नहीं कर पाता, जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है। 

इन दोनों ही सवालों पर मेरा गत 30 वर्षों से पूरा समर्थन रहा है। पर मुझे लगता है कि ये मुद्दे राजनैतिक नहीं हैं। चुनावी भी नहीं हैं, क्योंकि जब इनको राजनीति से जोड़ा जाता है, तब ये और उलझ जाते हैं। ये बात सही है कि राम जन्मभूमि आंदोलन से भाजपा को भारत में बड़ा जनाधार मिला, लेकिन उसके बाद इस मुद्दे की राजनैतिक सार्थकता समाप्त हो गई। प्रमाण सामने है कि जब-जब इस मुद्दे को लेकर भाजपा ने राजनीति करनी चाही, तब-तब परिणाम अपेक्षित नहीं रहे। इसलिए चाहे उत्तर प्रदेश का भावी चुनाव हो या अन्य किसी राज्य में, इन मुद्दों को अगर चुनाव से हटकर भारत के सांस्कृतिक उत्थान के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया जाए, तो इनके सफल होने की ज्यादा संभावना है। 

देशी गाय की सार्थकता, उसका वैज्ञानिक महत्व, उससे किसान को आर्थिक लाभ और बिना किसी धर्म के भेद के हर किसी व्यक्ति को होने वाले स्वास्थ्य लाभ, कुछ ऐसे स्वयंसिद्ध तथ्य हैं, जिनके कारण देशी गाय की हत्या पर प्रतिबंध अविलंब लगना चाहिए। मुसलमान हों, कम्युनिस्ट हों या गैर-भाजपाई राजनैतिक दल हों, किसी को भी इस मुद्दे पर राजनीति नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो ऐसी राजनीति कर रहे हैं, वे या तो देशी गाय के इन गुणों से परिचित नहीं हैं या फिर परिचित होकर भी वे अपनी राजनीति के कारण गौहत्या प्रतिबंध को समर्थन नहीं देना चाहते। अगर यह वृत्ति है, तो मेरी दृष्टि में यह समाजद्रोह ही नहीं, देशद्रोह से कम नहीं है। मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने सहपाठी रहे कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी से एक प्रश्न पूछना चाहता हूं, क्या तुमने देशी गाय के मूत्र के रोगों में उपयोग पर कोई जानकारी हासिल की है ? क्या तुमने देशी गाय के गोबर की खाद की कृषि के लिए उपयोगिता पर उपलब्ध वैज्ञानिक अध्ययनों को देखा है ? क्या तुमने गोरस के फायदों को जाना है ? अगर नहीं, तो खुले दिमाग से जान लो। अगर जानते हो, तो फिर तुम किस मुंह से गौहत्या का समर्थन करते हो ? कम्युनिस्ट हों या मुसलमान, जब तक वे अपनी राजनीति और धर्मांधता के चलते इन तथ्यों से मुंह मोड़ते रहेंगे, तब तक भारत का बहुसंख्यक समाज दारिद्र में जीता रहेगा। क्योंकि भारत सोने की चिड़िया था, जब इन मूल्यों का समाज में सम्मान था। जब से हमने भारत के इस ऋषिजन्य ज्ञान को तिलांजलि देकर औपनिवेशिक शासकों का थोपा हुआ पश्चिमी ज्ञान और जीवनशैली को अपनाया है, तब से हमारा समाज गरीब, बीमार, दुखी और त्रस्त होता चला गया है। 

कार्ल माक्र्स की तरह अगर आपको सर्वहारा की चिंता है, तो सर्वहारा के हित में आप लोगों को चाहिए कि गौवंश आधारित जीवनशैली अपनाने का संदेश सर्वहारा को दें। कार्ल माक्र्स ने अपना सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए जवानी के दो दशक पुस्तकों के ढेर में बिता दिए। उन्हें भारत की इस सार्वभौमिक संस्कृति को जानने का समय ही नहीं मिला। अगर मिलता तो वे अपने ग्रंथ ‘कैपिटल’ में एक अध्याय लिखते कि, ‘दुनिया के मजदूरो  अगर सुख से जीना चाहते हो, तो भारत की देशी गाय को जीवन में अपना लो।’ 

रही बात राम मंदिर की, तो हमने पिछले 30 वर्षों में बार-बार में यह लिखा और बोला है कि काशी, मथुरा और अयोध्या में भगवान शिव, भगवान राम और भगवान कृष्ण के मंदिरों का निर्माण होने से मुसलमानों का अहित नहीं होगा, बल्कि लाभ ही होगा। क्योंकि 500 वर्ष पहले जो खाई हिंदू-मुसलमानों के बीच बन गई, वह इस एक कदम से पट जाएगी। तब मुसलमान और हिंदू एक साथ खड़े होकर अपना और देश का जीवनस्तर उठाने की तरफ आगे बढ़ेंगे। आज पूरे विश्व का मुसलमान समाज पश्चिम की दादागिरी से दुखी है और नाराज है। भारत की सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाला हिंदू समाज भी पश्चिमी संस्कृति से आहत और नाराज है। इस तरह हम हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन नहीं, बल्कि हम दोनों संस्कृतियों की दुश्मन पश्चिमी संस्कृति है, जिसे अपने जीवन से जितनी जल्दी हो और जितना ज्यादा निकाल दिया जाए, हमारा समाज सुखी और संपन्न हो जाएगा। यह बात दोनों धर्मों के धर्माचार्यों को भी समझनी चाहिए। सिंहस्थ कुंभ में स्नान करने के बाद बड़े पवित्र मन से मैं यह याचना दोनों धर्मों के धर्माचार्यों से कर रहा हूं, आगे हरि इच्छा। 

Sunday, May 22, 2011

ममता की विजय और आगे की चुनौती

Rajasthan Patrika 22-05-2011
आज पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव परिणाम से साफ जाहिर है कि पश्चिम बंगाल की जनता ने वामपंथी विचारधारा को पूरी तरह नकार दिया है। यह पहली बार है कि ममता बनर्जी ने अपने बूते पर वो कर दिखाया जो पिछले तीन दशक में काॅंगे्रस पार्टी भी नहीं कर पायी। पश्चिम बंगाल में पिछले 34 सालों के वामपंथी शासन में राज्य के सर्वांगीण विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसका सबसे ताजा उदाहरण यह है कि अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास के आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल सत्रहवें नम्बर पर आता है। वही हाल शिक्षा का है और यह कहा जाये कि वामपंथी सरकारों ने जिस तरह से चाहा, राज्य किया। दरअसल वामपंथियों ने जिस साम्यवादी विचारधारा का आवरण ओढ़ा, उसे अपने आचरण में नहीं उतारा। अगर उतारा होता तो बंगाल में नक्सलवाद का जन्म नहीं हुआ होता। केद्र की सरकारों को हमेशा गरीबी के मुद्दे पर घेरने वाली सी.पी.एम. इसका क्या जबाव देगी कि उसकी दो दशकों की हुकूमत के दौरान पश्चिमी बंगाल के गरीबों की हालत बद से बदतर हुयी है? आज अपने इसी दोहरे आचरण का खामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा है।

पश्चिमी बंगाल जिस हालत में ममता बनर्जी को मिला है, वह एक कांटों भरा ताज है। गरीबी और आर्थिक पिछड़ापन तो है ही, बांग्लादेश से जुड़ा एक लम्बी अन्तर्राष्टृीय सीमा अपने आप में एक बड़ी समस्या है। घुसपैठियों का लगातार आना, सीमा पर अवैध अन्तर्राष्टृीय व्यापार और आतंकवाद का खतरा, कुछ ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हंे ममता को झेलना होगा। पश्चिमी बंगाल की आबादी भी कुछ कम नहीं। जितने लोग, उतनी अपेक्षाऐं। सबकी अपेक्षा फौरन पूरी करना सरल न होगा। अपेक्षा पूरी न होने की दशा में निराशा भी जल्दी घर कर जाती है। इसलिए जरूरी है कि ममता इस चुनौती को गम्भीरता से लें और गुजरात और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अनुभवों से सबक लेते हुए अपनी पहली प्राथमिकता पश्चिमी बंगाल के विकास को बनायें। यह तो जग-जाहिर है कि यह विजय विधायकों की व्यक्तिगत विजय नहीं है, पूरा श्रेय अकेले ममता बनर्जी को जाता है। इसलिए मंत्रिमण्डल के गठन में वे अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्णय ले सकती हैं। उन्हें यह देखना होगा कि जाति, धर्म, क्षेत्र को मंत्रिमण्डल में तरजीह देने की बजाय, वे उन व्यक्तियों को मंत्रिमण्डल में लें जिनमें राज्य का विकास तेजी से करवा पाने की झमता हो। लोकप्रिय नेता होने का मतलब जरूरी नहीं कि आप कुशल प्रशासक भी हों। पर ममता जैसा साफ छवि का नेता यह जानता है कि किस काम के लिए कौन व्यक्ति योग्य है? उन्हें काम सौंपकर ममता जनता के बीच ज्यादा समय बिता सकती हैं और राष्टृीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभा सकती हैं। यह कुछ ऐसा होगा जैसा अमरीकी राष्टृपति का प्रशासकि माॅडल, जिसमें हर काम के लिए उस क्षेत्र के अनुभवी और योग्य व्यक्तियों को जिम्मा दिया जाता है।

ममता की जीत के कारणों पर अब तक बहुत कुछ कहा गया है। मुझे भी लगता है कि ममता ज्योति वसु के कार्यकाल से ही जिस तरह से पश्चिम बंगाल सरकार में प्रशासन के साथ-साथ पार्टी का सरकार के हर विभाग पर दबदबा रहा और आम आदमी जिस तरह से सरकार की फासीवादी नीतियों का गवाह रहा, उससे ममता बनर्जी की त्रृणमूल काॅंगे्रस की मुहिम को अनायास ही एक जनसंवेदना मिली। लोग ममता बनर्जी को भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखने लगे थे और उन्हें उम्मीद थी कि ममता बनर्जी ही यह लाल किला ढहाने में कामयाब होंगी। दरअसल ममता बनर्जी ने सिंगूर आन्दोलन से लेकर जो अपने जनअभियान की शुरूआत की, उसकी परिणति इस चुनाव में आकर हुई। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जिस ममता बनर्जी ने सिंगूर में टाटा के नैनो प्लांट का विरोध किया था, उसी नैनो पर चढ़कर वो सिंगूर पर अपना चुनाव प्रचार करने गयीं थीं। लेकिन कई राजनैतिक पर्यवेक्षक यह मानते हैं कि ये सिंगूर आन्दोलन ही था जिसने ममता बनर्जी को यह अहसास दिलाया कि राज्य में उनकी लोकप्रियता क्या है और यहीं से उनके राजनैतिक अभियान को और बल मिला।

ममता की विजय का दूसरा कारण था, वामपंथी सरकार की चरमराती प्रशासन व्यवस्था, आम आदमी पर हो रहे पुलिस और वामपंथी पार्टीतन्त्र का अत्याचार, बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी और खासकरके युवा शिक्षित बेरोजगारों में हताशा का भाव। आज की तारीख में पश्चिम बंगाल में लिखे-पढ़े बेरोजगारों की संख्या 76 लाख से उपर है और उनके लिए नौकरी मुहैया कराना और उनकी उर्जा को सही तरीके से इस्तेमाल करना, उनके लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी।

ममता बनर्जी का अपना व्यक्तित्व और आम लोगों में पड़ोस के घर में रहने वाली एक दीदी की छवि, उनकी पार्टी की ऐसी ऐतिहासिक जीत का एक महत्वपूर्ण कारण है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और एक आम आदमी का जीवनचर्या उन्हें राज्य के मतदाताओं से जोड़ने में काफी कारगर साबित हुआ और लोगों की आकांक्षाओं की कसौटी में वो खरी उतरीं।

इस वक्त ममता बनर्जी के सामने चार प्रमुख चुनौतियां हैं। जिनके बारे में उनको बहुत ही संजीदगी से सोचकर समुचित कदम उठाने की आवश्यकता है। राज्य में बिगड़ती कानून व्यवस्था को बहाल करने के अलावा औघोगिक और आर्थिक विकास उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी। साथ ही राज्य में नक्सलवाद से निपटना भी जरूरी होगा। पश्चिम बंगाल को विकास की राह पर ले जाने के लिए कई दूरगामी परियोजनाओं तथा केन्द्र सरकार से समुचित मात्रा में आर्थिक सहायता प्राप्त करना भी कम आसान नहीं होगा।

36 साल के वामपंथी प्रशासन में चैमुखी बदलाव की जरूरत तो है, मगर ममता बनर्जी को उसके लिए जी-तोड़ मेहनत ही नहीं करनी पड़ेगी, बल्कि एक ऐसे मंत्रिमण्डल का भी चुनाव करना होगा जिसमें हरेक मंत्री को जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं और राज्य की बहुक्षेत्रीय आवश्यकताओं की कसौटी पर भी खरा उतरना होगा।

पश्चिम बंगाल की राज्य सीमा चारों तरफ से अलग-अलग समस्याओं से घिरी हुई हैं। एक तरफ नक्सलवाद है तो दूसरी तरफ बांग्लादेशी शरणार्थियों को भी मुख्य धारा में लाने का काम। देखना यह है कि ममता बनर्जी इतनी बड़ी चुनौती और जनमानस की आकांक्षाओं को कितनी मुस्तैदी और ईमानदारी से निभा पाती है। क्योंकि रेलमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल और कार्यशैली उतना ओजस्वी और प्रशंसनीय नहीं रहा है। पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री के तौर पर अगर वो राज्य की चुनौतियों से जूझने के लिए एक सही और सार्थक शुरूआत भी कर लेती हैं तो शायद पश्चिम बंगाल के राजनैतिक इतिहास में यह निश्चय ही एक महत्वपूर्ण मोड़ गिना जायेगा।