Sunday, July 20, 2008

विश्वास मत और दलों की असलियत

 22 जुलाई को लोक सभा में विश्वास मत के बाद सरकार रहेगी या जाएगी ये तो सामने आ  ही जाएगा। पर  इस  पूरी प्रक्रिया में जो बातें सामने नहीं आ रही उन पर ध्यान देने की जरूरत है। वामपंथी दल परमाणु संधि के शुरू से विरोध में है। इसलिए स्वभाविक है कि वे इस मुद्दे पर सरकार गिराना चाहते हैं। परमाणु संधि के मुद्दे पर कांग्रेस का रूख शुरू से साफ है फिर क्यों नहीं यह निर्णायक लड़ाई पहले ही लड़ ली गयी ? वामपंथी कहेंगे कि तब सरकार इतनी कटिबद्ध नहीं थी जितनी आज है। असलियत ये है कि यह सारा नाटक चुनावी रणनीति के तहत खेला जा रहा है। डाॅ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां शुरू से ही अमरीकी नीतियों की पक्षधर रही हैं। फिर भी वामपंथी दलों ने उनके प्रधानमंत्रित्व में 4 साल तक सहयोग दिया क्योंकि वे सत्ता का सुख भोगना चाहते थे। अब चुनाव सिर पर है जिसमें उनका सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही होना है इसलिए कांग्रेस का मुखर विरोध करना उन्हें फायदेमंद लग रहा है। जितना ज्यादा शोर वो मचाएंगे उतना ही उन्हें चुनावी लाभ मिलेगा। अगर वामपंथी दल यह दावा करते हैं कि उनका विरोध सैद्धान्तिक है। तो ऐसे दर्जनों मुद्दे उन्हें याद दिलाए जा सकते हैं जब उन्होंने सिद्धांतों को ताक पर रखकर राजनैतिक फैसले लिए। भ्रष्टाचार के सवाल को ही ले तो क्या वामपंथी बता सकते हैं कि उन्होंने जैसा तूफान बोफोर्स और तहलका कांड पर मचाया था वैसा तूफान इन दोनों से सौ गुना बड़े व ज्यादा प्रमाणिक हवाला घोटाले पर क्यों नहीं मचाया ?

आज वाम मोर्चे के नेतृत्व में ही दरारें पड़ चुकी हैं। दो दशक तक बंगाल पर हुकूमत करने के बाद वामपंथी अपने प्रांत की गरीबी दूर नहीं कर पाए। आज उन्हें भी आर्थिक विकास के लिए पूंजीवाद और उदारीकरण का सहारा लेना पड़ रहा है। सच्चाई तो ये है कि बिड़ला, टाटा, निवतिया या खैतान कोई भी समूह क्यों न हों किसी को भी पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। साफ जाहिर है कि ज्योति बाबू के सुपुत्र वही करते रहे जो भाजपा में प्रमोद महाजन और कांगे्रस में अहमद पटेल करते आए हैं यानि सबको साधने का काम।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो उसे तो इस संधि पर कोई विरोध हो ही नहीं सकता। उनकी सरकार के सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से लेकर तमाम दूसरे नेता इस संधि के पक्षधर रहे हैं। कल अगर एनडीए की सरकार सत्ता में आती है तो वह भी वही करेगी जो यूपीए की सरकार आज कर रही है। पिछली बार जब एनडीए की सरकार सत्ता में आयी तो उसने इंका की सत्ता के दौरान लागू किए गए आर्थिक सुधारों को ही आगे बढाया कोई नयी आर्थिक नीति लागू नहीं की। यह हास्यादपद है कि भाजपा को अमरीकी साम्राज्यवाद का एजेंट बताने वाले वामपंथी दल आज भाजपा के ही साथ खड़े है। लोकसभा के चुनावों के बाद यही वामपंथी दल एक बार फिर इंका से हाथ मिलाकर सरकार बनाने को राजी हो जाएंगे। कल तक समाजवादी इंका के निशाने पर थे आज मुलायम सिंह उसकी सरकार बचाने में जुटे हैं। राजनीति के खेल निराले हैं। दरअसल विचारधारा का अब कोई स्थान बचा ही नहीं है। सारा खेल सत्ता पाने और उसे भोगने का है। जिसे जो चाहिए वो जैसे मिलता है वैसे हासिल करना है। जनता तो मूर्ख है उसे कुछ भी बता कर बहका लिया जाएगा।

इस विश्वास मत की विशेषता ये है कि कोई भी दल अभी चुनावों के लिए तैयार नहीं है। हर सांसद बेचैन है कि अगर सरकार गिर गयी और चुनावों की घोषणा हो गयी तो उसकी संसद सदस्यता नाहक ही अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी। फिर जो मोटा पैसा लगाकर चुनाव जीता गया था उसका पूरा लाभ भी नहीं मिल पाएगा। बहुत से सांसद जानते हैं कि उन्हें टिकिट भी नहंी मिलेगा और बहुत से जानते हैं कि वे अगले चुनाव में जीत नहीं पाएंगे। इस अफरातफरी के माहौल में आरोप लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल 25-25 करोड़ रूपए में सांसद खरीद रहा है। यदि यह सही है तो जो सांसद सरकार के पक्ष में मतदान करेंगे वे तो फायदे में रहेंगे और जो उसके विरोध में मतदान करेंगे उन्हें रुपया भी नहीं मिलेगा और लोकसभा का कार्यकाल भी जल्दी समाप्त हो जाएगा। घाटा ही घाटा। इसलिए वे पशोपेश में हैं कि करें तो क्या करें। इसलिए कई बड़े दलों को व्हिप जारी करना पड़ रहा है।

इसका मतलब यह नहीं कि परमाणु संधि देशहित में ही है। यहां तो सिर्फ इतनी सी बात है कि इस विश्वास मत में जो लोग भी हिस्सा ले रहे हैं वे किसी वैचारिक आधार के कारण नहीं बल्कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण निर्णय लेने जा रहे हैं। ढिढोरा देश में यही पीटा जाएगा कि यह एक सैद्धान्तिक लड़ायी थी। इसलिए जब टीवी चैनलों पर विभिन्न दलों के नेता अपनी बात ऊंची आवाज में तर्क देकर और आक्रामक तेवर से कहें तो यह मान लेना चाहिए कि ये सब शैडो-बाॅक्सिंग कर रहे हैं। नाटक कर रहे हैं। इस विश्वास मत का जनता के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ेगा। सिवाय इसके कि अनिश्चिता का माहौल व्यापार और उद्योग पर विपरीत असर डालेगा। नाहक थैलियों का आदान प्रदान होगा और देशवासी मूक दर्शक बनकर यह तमाशा देखेंगे।

Sunday, July 13, 2008

क्यों फट रही है धरती ?

13-07-2008_RP
एक कहावत है कि जब धरती पर पाप बढ़ते हैं तो धरती फट जाती है। पिछले कुछ महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में धरती फटने की खौफनाक खबरे आ रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में अचानक धरती फटी और कई सौ मीटर तक लंबी दरार पड़ गई। यह दरार कई मीटर चैड़ी और कई मीटर गहरी थी। इस अप्रत्याशित घटना से लोग भयभीत हो गए। घर छोड़कर भाग निकले। दहशत फैल गयी। प्रशासन को भी समझ में नहीं आया कि इस नई आपदा से कैसे निपटे ? अभी हाल ही में मथुरा जिले के अकबरपुर गांव में भी ऐसी ही घटना हुयी। उधर गुजरात में जब भूकंप आया था तो लोग यह देखकर हैरान थे कि कई-कई मंजिल की इमारतें सीधी जमीन के अंदर घुस गईं। नई दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के मार्ग में भी एक तिमंजिली इमारत देखते ही देखते धरती के भीतर समा गयी।

इस तरह धरती का फटना और भवनों का जमीन में समाना कोई साधारण घटना नहीं है। यह संकेत है इस बात का कि हमारी धरती बीमार है। जिसका इलाज फौरन किया जाना है। नहीं तो मर्ज बढ़ जाएगा। धरती की इस बीमारी का कारण भू-जल का निरन्तर, अविवेकपूर्ण व आपराधिक दोहन है। आज शहर हो या गांव हर ओर सबमर्सिबल पंप लगाने की होड़ मची है। बहुत आसान उपाय है जल संकट से जूझने का। दो, चार, छः इंच चैड़ी और सौ-दो सौ फुट गहरी बोरिंग करवाओ उस पर सबमर्सिबल पंप लगा दो। फिर तो खेत खलियान और घर बैठे गंगा बहने लगती है। कहां तो एक-एक बाल्टी पानी की किल्लत और कहां पानी पर कोई रोक ही नहीं। चाहें जितना बर्बाद करो। बिना मेहनत के एक बटन दबाते ही आपके पानी की टंकी लबा-लब भर जाती है। इसलिए हमारा पानी का उपभोग पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गया है। पर इस अविवेकपूर्ण दोहन ने पृथ्वी के भीतर जमा जल के विशाल भण्डारों को पिछले दशक में तेजी से खाली कर दिया है। जिस कारण पृथ्वी के भीतर बहुत बड़े-बड़े वैक्यूम पैदा हो गए हैं। यूं समझा जाए कि धरती की जिस परत पर हमारे घर और भवन खड़े हैं उसके कुछ नीचे ही गुब्बारेनुमा हवा के खोखले विशाल कक्ष बन गए हैं। पृथ्वी में थोड़ी सी भी भूगर्भीय हलचल होते ही ऊपर की सतह फट जाती है। उस पर बने भवन या तो सीधे सरक कर नीचे चले जाते हैं या टूट कर गिर जाते हैं। ऐसी घटनाएं अब तेजी से बढ़ेंगी। क्योंकि अभी तो इसका आगाज होना शुरू हुआ है।

पानी तो पहले भी पृथ्वी के अंदर से ही लिया जाता था। पर उसे निकालने के तरीके बहुत मानवीय थे जैसे कुंआ या रहट। मानवीय इसलिए कि मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने या अपने पशुओं के श्रम से जल निकालता था और उसका किफायत से उपयोग करता था। पर अब बिजली या डीजल के पंप अन्धाधुंध पानी निकालते हैं। किसान भी कृषि की आवश्यकता से ज्यादा पानी खींच लेता है। रासायनिक उद्योग और शीतलपेय कंपनियां भी बहुत बेदर्दी से भू-जल का दोहन कर रहे है। इसलिए धरती कराह उठी है।

पहले धरती की सतह पर जो जल फैलता था उसका एक भाग भाप बनकर आकाश में चला जाता था और दूसरा रिस-रिस कर पृथ्वी के भीतर। इस तरह भू-जल की कुछ मात्रा वापिस स्रोत तक पहुंच जाती थी। पर रासायनिकों, साबुन, डिटर्जेंट, फर्टीलाइजर, रासायनिक खाद और कारखानों से बहकर नदी नालों में जाने वाले तेल युक्त गंदे पानी ने पृथ्वी की सतह पर एक ऐसी तबाही मचाई है जो पिछले हजारों सालों में नहीं मची थी। इस सब ने और इसके साथ ही प्लास्टिक की थैलियों ने पृथ्वी की सतह पर जितने भी स्वभाविक छिद्र थे उन सबको सील कर दिया है। पूरी तरह बंद कर दिया है। अब सतह का जल धरती के भीतर रिस कर नहीं पहुंचता। पहुंचता भी है तो बहुत थोड़ी मात्रा में। 

पृथ्वी फटे न। सतह पर बने भवन उजड़े न। नगर और गांव पानी के संकट से जूझे न। भू-जल का स्तर घटे न। इसके लिए वही करना होगा जो इस समस्या का कारण है। यानी साबुन, रासायनिकों और फर्टीलाइजरों का प्रयोग बंद करना होगा। धरती के जल का दोहन तेजी से घटाना होगा। आधुनिक बाथरूमों की संरचना बदलनी होगी। जैसे जापान कर रहा है। वहां अब शौच के बाद पानी का फ्लश नहीं चलता बल्कि हवा के सक्शन से सीट साफ हो जाती है। यह सब करना ही होगा वरना अभी तो धरती ने बीमारी के लक्षण दिखाए हैं फिर प्रलय का तांडव भी दिखा देगी।

सवाल उठता है कि जानते सब है।ं लोग भी, कारखानेदार भी, किसान भी और सरकार भी। पर कोई पहल नहीं करता। विपक्षी दल परमाणुसंधि से लेकर घोटालों तक पे आसमान सिर पर उठा लेते हैं। पर ऐसे बुनियादी सवालों की तरफ उनका ध्यान नहीं जाता। इसलिए पहल जनता को ही करनी होगी। आजकल लखनऊ के लोग और आला अफसर मिलकर गोमती नदी में उतर गए है और टोकरी, फावड़े व जाल लेकर इस प्रदूषित नदी का जल रोज साफ कर रहे हैं। कितने ही शहरों में प्लास्टिक के थैलों के इस्तेमाल पर स्थानीय समाजिक व व्यापारिक संगठनों व निकायों ने पाबंदी लगा दी है। जिससे उनका पर्यावरण तेजी से सुधरा है।

आज भारत में ही नहीं दुनिया में हर ओर पानी के बढ़ते संकट पर चिंता व्यक्त की जा रही है। पर ठोस कदम उठाने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। वक्त ऐसा आ गया है कि हर शहर और गांव के लोग इन सवालों पर संगठित होकर आगे आए और प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ को पूरी ताकत से रोकने का प्रयास करें। पहले कहा जाता था कि हम यह अच्छा कार्य अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए कर रहे हैं। पर अब जिस तेजी से विनाश हो रहा है उससे साफ जाहिर है कि हम जो भी सही कदम उठाएंगे उसका परिणाम अपने ही जीवन काल में देख लेंगे। लेख को पढ़कर दो मिनट का मौन चिंतन और जीने का वही ढर्रा-यह तो श्मशान वैराग्य हुआ। मजा तो तब है जब हम अपनी जिंदगी में पानी का इस्तेमाल घटाएं और अपने हाथ पानी के किसी भी स्रोत को प्रदूषित न होने दें। ’मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर लोग मिलते गए और कारवां बनता गया।’

Sunday, July 6, 2008

अमरनाथ का सचः गृह मंत्रालय बेखबर

Rajasthan Patrika 06-07-2008
अमरनाथ में शिराइन बोर्ड को हुए भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर की घाटी में जो तूफान मचा उसकी जड़ बहुत गहरी है। भूमि आवंटन का विरोध तो एक झलक है। इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है जो धीरे-धीरे कश्मीर से भारत के अस्तित्व को खत्म कर देना चाहती है। इस साजिश की बात करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि यह विवाद इतना बढ़ता ही नहीं अगर इसकी असलियत लोग जान पाते। शिराइन बोर्ड इस जमीन पर तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिए यात्रा के दौरान मात्र दो महीने के लिए टीन के शैड और शौचालय बनाने जा रहा था। जबकि घाटी के मुसलमान बुद्धिजीवियों ने अफवाह फैलाई कि शिराइन बोर्ड इस जमीन पर इजराइलियों की तरह खुफिया अधिकारियों की आबादी बसाने जा रहा है। जहंा से मुसलमानों के खिलाफ रणनीतियां बनाई जाएंगी। बे पढ़ी लिखी जनता को भड़काना आसान होता है। घाटी में तूफान उठा और अब जम्मू भी इस आग की लपेट में झुलस रहा है। आने वाले दिनों में ये आग देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल सकती है। अमरनाथ का यह इलाका मौसम के हिसाब से इतना आक्रामक है कि यहां गर्मियों के दो महीनों के अलावा रहना असंभव है। उस बर्फीले तूफान में कौन अपनी जान जोखिम में डालेगा। काॅलोनी बसाकर रहना तो सपने में भी नहीं सोचा जा सकता। फिर शिराइन बोर्ड कोई सरकार तो है नहीं जो अमरनाथ में जमीन कब्जा कर लेती या उस पर खुफिया अधिकारियों की काॅलोनी बना देती। इतनी सी बात अगर कांगे्रस, पीडीपी, पैंथर पार्टी और दूसरे दलों के नेता बयान देकर घाटी के लोगों को बता देते तो उनका सारा भ्रम दूर हो जाता। पर एक नहीं बोला। सबने इस गफलत का राजनैतिक लाभ उठाया। जिससे मामला इतना उलझ गया।

जय बाबा बर्फानी का नारा लगाने वाले तीर्थयात्री जब अमरनाथ की ओर बढ़ते हैं तो उनके लिए भोजन, टट्टू, टैंट, कुली, गाइड, गेस्ट हाऊस, बस व टैक्सी का इंतजाम करने वाले कश्मीर के मुसलमान ही होते हैं। जिन्हें इस तीर्थयात्रा पर आने वालों से मोटी कमाई होती है। अमरनाथ जाने वाले बाकी कश्मीर में भी घूमते हैं तो शिल्पकारों, मेवा और फल बेचने वालांे, शिकारे, होटल व गाइड सबको रोजगार मिलता है। यह बात कश्मीरी मुसलमान अच्छी तरह जानते हैं। चरम आतंकवाद के दौर में घाटी में आम लोगो की बेरोजगारी और बदहाली काफी बढ़ गयी थी। जबसे आतंकवाद का असर कम हुआ है सारे देश से पर्यटक कश्मीर जाने लगे हैं। इस हकीकत को जानने के बावजूद यह आंदोलन किया गया। बिना ये सोचे कि इसकी प्रतिक्रिया में देश के बाकी हिस्सों में मुसलमानों के खिलाफ गुस्सा भड़क सकता है। उन्हें हज की जो सहूलियतें दी जा रही हैं या अल्पसंख्यक होने के नाते जो फायदे दिये जा रहे है या राजेन्द्र सच्चर समिति की सिफारिशों को मानकर देश के मुसलमानों के हित में जो अविवेकपूर्ण नीतियों को लागू करने की जो तैयारियां हैं उससे देश में साम्प्रदायिक सद्भाव घटेगा। पर देश की चिंता कश्मीर के नेताओं को क्यों होने लगी ? तभी तो कश्मीर में पैदा हुए नए किस्म के आतंकवाद से स्थानीय नेतृत्व या तो पूरी तरह बेखबर है या उसकी मिली भगत है। आश्चर्य की बात है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय में बैठे अधिकारी और मंत्री तमाम खुफिया एजेंसियों के बावजूद कश्मीर की घाटी में जड़ जमा चुके नव आतंकवाद से अनजान बने बैठे है।

दरअसल बंदूक की लड़ाई में थककर चूर हो चुके घाटी के आतंकवादी अब दिमाग की लड़ाई लड़ रहे है। घाटी के बुद्धिजीवी, प्रफैशनल्स, अनेक मीडिया कर्मी व दूसरे लोग बाकायदा सोची समझी रणनीति के तहत कश्मीर की घाटी में इस नव आतंकवाद को स्थापित कर चुके हैं। इसका तरीका यही है कि गोली मत चलाओ, बम मत फेंको पर अपने दिमाग से ऐसे मुद्दे खड़े करो जिससे कश्मीर में भारत की संम्प्रभुता धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त हो जाए। 

अमरनाथ में भूमि आवंटन के विरुद्ध शोर मचा कर इस वर्ग ने कश्मीर के राज्यपाल की गरिमा को ठेस पहुंचाई है और उनकी हैसियत गिरा दी है। राज्यपाल केन्द्र का प्रतिनिधि होता है। इस तरह घाटी के लोगों ने केन्द्र की सत्ता को चुनौती दी। आज अमरनाथ में शिराइन बोर्ड से जमीन वापिस मांगी है। कल मांग उठेगी कि कश्मीर में जहां जहां भारतीय सेनाओं ने डेरा डाला हुआ है वह जमीन भी खाली करवाई जाए। फिर मांग उठेगी कि कश्मीर से अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को दिल्ली की हुकूमत वापिस बुला ले। इस तरह क्रमशः भारत सरकार के और भारत के असर को कश्मीर से खत्म किया जा रहा है। खूनी लड़ाई से यह लड़ाई ज्यादा पेचीदी है। इस तरह कश्मीरी भारत सरकार को हाशिए पर खड़ा कर देना चाहते है। हमारी सरकार खासकर गृह मंत्रालय इतना बेखबर है कि घाटी में चल रहे इस षड़यंत्र को नहीं देख पा रहा है। वोटों की राजनीति के चक्कर में हर दल मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करता है। संविधान में सबको समान हक की गारंटी मिलने के बावजूद मुसलमानों के साथ पक्षपात क्यों किया जाता है ? अगर हमारी सरकार वाकई धर्मनिरपेक्ष है तो फिर हज हाऊस बनाना, हवाई अड्डे पर उनके लिए विशेष टर्मिनल और हाजियों को यात्रा किराए में रियायत क्यों दी जाती है ? अमरनाथ की इस घटना के बाद अगर देश भर में मुसलमानों के विरुद्ध आंदोलन खड़ा हो तो क्या गलत है ? ये दूसरी बात है कि इस आंदोलन का सभी राजनैतिक दल चुनाव में फायदा उठाना चाहेंगे। पर उससे जनता और देश को कुछ नहीं मिलेगा सिवाय बर्बादी के। अमरनाथ में जो कुछ हुआ वह अक्षम्य है। गृह मंत्रालय को अपनी तंद्रा तोड़कर कश्मीर की घाटी में चल रहे बौद्धिक आतंकवाद से निपटना होगा। वरना हालात बद से बदतर हो जाएंगे। वह दिन दूर नहीं जब घाटी के लोग हिन्दुस्तान की हुकूमत को कश्मीर की सरहदों से दूर फेंक देगें। 60 वर्षों तक कश्मीर में खरबों रूपया खर्च करने के बाद शेष भारत हाथ मलता रह जाएगा।