Friday, January 22, 1999

ये रईसजादे

दिल्ली की एक प्रमुख सड़क पर तड़के चार बजे 140-150 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से 60 लाख रुपए की कीमत वाली बीएमडब्लू कार चला रहे एक युवक ने अपने मित्रों के साथ, सात लोगों को कुचल दिया। इनमें से छह मर चुके हैं और सातवां अस्पताल में है। इन युवकों ने रुक कर घायलों का प्राथमिक उपचार कराने या अपने मोबाइल फोन से पीसीआर को सूचना देने की भी जरूरत नहीं समझी। बल्कि दुर्घटना में फटी पेट्रोल टंकी वाली कार लेकर किसी तरह अपने दोस्त के घर पहqच गए। दोस्त और उसके पिता को भी यह अनुचित या अनैतिक नहीं लगा। वे भी तुरत-फुरत अपने ड्राइवर और चैकीदार के साथ मिलकर इतनी बड़ी दुर्घटना के सबूत मिटाने में जुट गए। कम से कम कार की हालत से तो उन्हें पता चल ही गया होगा कि दुर्घटना मामूली नहीं थी। उन्होंने तो घर के बाहर निकाल कर अथवा छत पर जाकर यह देखने की भी जरूरत महसूस नहीं की कि कोई पीछा करता हुआ आ तो नहीं रहा है।

यह पूरा मामला एक उदाहरण है जिससे पता चलता है कि हमारा ‘सभ्य और कुलीन’ समाज कहां जा रहा है ? इस समाज में पैसे वाले या बड़े कहे जाने वाले लोगों की नैतिकता व समाज के प्रति जिम्मेदारी का क्या हाल है ? इस वर्ग के लोगों में सिर्फ अपनी खाल बचाने की चिंता किस कदर हावी हो चुकी है? ये कोई मामूली लोग नहीं हैं जो रोजी-रोटी की जुगाड़ में ही इतने परेशान रहते हैं कि ‘आ बैल मुझे मार’ की सोच भी नहीं सकते हैं। ये तो ऐसे लोग हैं जिनके पास अकूत पैसा है, बड़े से बड़े वकील रख सकते हैं और कोर्ट-कचहरी के काम के लिए दो तीन आदमी तैनात कर सकते हैं। इस सबके बावजूद इन्हें जानलेवा गलती करके भी कोई पश्चाताप नहीं हुआ या इसके लिए कुछ भी करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। इन्हें अपने बिगडै़ल बच्चों को ही बचाने की फिक्र थी। उन अनाथ हुए बच्चों और विधवा हुई महिलाओं की नहीं जिनके सुहाग इन ‘साहबजादों’ के नशे का शिकार हो गए।

अब बहस का मुद्दा ये नहीं है कि सड़क पर खड़े सात के सात लोगों को कुचल देने के बाद संजीव नंदा ने गाड़ी क्यों नहीं रोकी। कचहरी में बहस इस बात पर हो रही है कि पुलिस ने इन्हें गलत धाराओं में निरूद्ध किया है। जाहिर है कि पुलिस ने इन पर जो धारा लगाई है वह ज्यादा कड़ी है और उसमें छूटने की संभावना कम है और ज्यादा सजा का प्रावधान है। पुलिस की इस कार्रवाई को किसी भी तरह गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि संजीव नंदा और उसके मित्रा अगर दुर्घटना के बाद रुककर घायलों के उपचार में लगते या इन्हें अस्पताल ले जाने की व्यवस्था करते तब बात कुछ और ही होती। फिर भी तब क्या इन्हें छोड़ दिया जाता? जाहिर है नहीं। ऐसी हालात में इन लोगों के खिलाफ शायद सड़क दुर्घटना का मामला ही बनता। क्योंकि तब यह साफ हो जाता कि इनके इरादे नेक थे। हो सकता है कि कुलीन समाज के लोग ये तर्क करें कि अगर वे ऐसी पहल करते तो उन्हें पुलिस तंग करती। यह सही है कि पुलिस की जो छवि जनता में बनी है उसके कारण आम आदमी ऐसे हर झमेले से बचना चाहता है जिसमें उसे पुलिस से उलझना पड़े। पर मानवीय संवेदना और सामाजिक दायित्व भी तो कोई चीज होती है। आए दिन समाज में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब किसी साधारण से आदमी ने सड़क पर घायल पड़े लोगों की ऐसी मदद की कि उनकी जान बच गई। यह शालीनता प्रायः समाज के निम्न वर्ग में ज्यादा पाई जाती है। राजधानी दिल्ली के ही ऐसे कितने उदाहरण है जब इस तबके के लोगों ने सड़क पर बुरी तरह घायल पड़े जिन नौजवानों को अस्पताल पहुंचाया वे रईसों के साहबजादे थे। इस मदद से कायल हुए उन परिवारों ने जब निम्न वर्ग के ऐसे प्राणदाताओं को मोटी रकम ईनाम में देनी चाही तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि वे अपने इंसानी फर्ज की कोई कीमत नहीं लगाना चाहते। आदमी को पैसे से तौलने वाले ठगे से रह जाते हैं, जब देखते हैं कि एक सड़क छाप आदमी उनको नैतिकता में बौना बना कर चला गया।

महंगाई और गरीबी की मार से सताए हुए एक तरफ ये आम लोग हैं जिनमें आज भी नैतिकता और सामाजिक सारोकार बाकी है और दूसरी तरफ एडमिरल नंदा के पोतेनुमा लोग हैं जो पांच सितारा मस्ती में इतना खोए हैं कि अपनी ही गलती के शिकार हुए लोगों की जान बचाने की कोशिश भी करने को तैयार नहीं हैं। दुर्घटना की घबड़ाहट में उस स्थल से भाग जाना भी एक बार को समझा जा सकता है। पर अगले थाने पर समर्पण न करना और घायलों के बारे में पुलिस कंट्रोल रूप को सूचना न देना आपराधिक मानसिकता का प्रतीक है। ऐसी मानसिकता एक दिन में पैदा नहीं होती। उसकी एक लंबी पृष्ठभूमि होती है। जैसे संस्कार वे अपने परिवार और परिवेश में देखते हैं वैसा ही बर्ताव फिर वे समाज में करते हैं। अगर वे सूचना भर दे देते तो कौन जाने कुछ बेगुनाह जाने बच सकती थी? इस पूरे घटनाक्रम से जो खबर अखबारों के दफ्तर में पहले आई वह थी कि जिन धाराओं में इन युवकों को निरूद्ध किया गया है उनके कारण मृतकों के आश्रितों को ‘मोटर दुर्घटना दावा पंचाट’ से मुआवजा नहीं मिलेगा। मृतकों के साथ-साथ उनके आश्रितों के साथ सहानुभूति रखने वाले तमाम लोगों के लिए यह चिंताजनक खबर थी। पर बाद में जब खबर आई कि मुआवजा मिलने में इन धाराओं से कोई फर्क नहीं पडे़गा, तो सबने राहत की सांस ली।

इसके बावजूद अभियुक्तों ने जो किया है उसके लिए उन्हें सामान्य से ज्यादा सजा मिलनी चाहिए-इसमें कोई दो राय नहीं है। यह इसलिए भी जरूरी है कि हर तरह से पैसा कमाने में जुटे और अमीर या बड़े बने लोगों को यह समझ में आ जाए कि रईसी, गरीब को नशे में कुचलने का लाइसेंस नहीं देती। वैसे भी देश में अमीरों और गरीबों के लिए अलग-अलग कानून नहीं हैं। फिर भी दिल्ली के अमीरजादे इस गलतफहमी के शिकार हैं कि पैसें हों तो लालबत्ती पर रुकने की जरूरत नहीं। अव्वल तो कोई रोकता नहीं है और कोई रोक भी ले तो जुर्माना अदा करके छूटा जा सकता है। इसी लिए यहां के आत्मघोषित सुसंस्कृत लोग लालबत्ती पर नहीं रुकने में गर्व महसूस करते हैं।
घटना के पांच दिनों बाद सामने आए चश्मदीद गवाह सुनील कुमार ने अखबार वालों को बताया है कि टक्कर मारने के बाद संजीव ने आगे बढ़कर गाड़ी रोकी थी। उसने और उसके साथ बैठे दूसरे युवक ने उतर कर गाड़ी का हाल देखा और फिर वहां से फरार हो गए। इस तरह स्पष्ट हैं कि इन लोगों को मरने वालों से ज्यादा चिंता अपनी महंगी विदेशी कार की थी। होती भी क्यों नहीं ? आखिर यही कार उनके बाप-दादों की संपन्नता की प्रतीक थी और इसी संपन्नता के बल पर उन्हें यकीन था कि वे बचा लिए जाएंगे। यह तो उनकी किस्मत खराब थी कि पीसीआर जिप्सी पर इंस्पेक्टर जगदीश पांडे की ड्यूटी थी, दुर्घटना एकदम भोर में हुई और वह इतवार का दिन था। वरना विदेशी पासपोर्ट और अंतर्राष्ट्रीय ड्राइविंग लाइसंेस वाले इस युवक के लिए देश छोड़कर भाग जाना कोई मुश्किल काम नहीं था। क्योंकि हर तरह से पैसे कमाने में मशगूल ऐसे लोग यही समझते हैं कि पैसे से सब कुछ खरीदा जा सकता है।

भला हो पीसीआर के इंस्पेक्टर जगदीश पांडे का कि उन्होंने सिर्फ सरकारी खानापूर्ति से आगे बढ़कर बुद्धिमता का इस्तेमाल किया और बीएमडब्लू कार और सबूत मिटाने वालों को रंगे हाथों पकड़ लिया। इससे दिल्ली पुलिस भारी बदनामी और नालायक व निकम्मी होने के आरोपों से बच गई। आम लोगों को भी लगा कि कानून को हाथ में लेने वाले बड़े बाप के बच्चें ही क्यों न हो उनके खिलाफ कार्रवाई तो हुई। लोगों को यह देखकर अच्छा लगा कि हमारी न्यायिक व्यवस्था में अभी भी ऐसे लोग हैं कि नौसेना प्रमुख एडमिरल नंदा के पोते को भी तिहाड़ जेल की हवा खानी पड़ी। वरना नंदा परिवार के सदस्यों को तो पैसे का इतना घमंड था कि ये लोग नोटों के बंडल के साथ अदालत पहंुच गए थे। मानों वहीं जमानत मिल जाएगी और इसकी रकम जमा हो जाएगी।

देश के कई मशहूर और महंगे वकीलों से सलाह लेने के बाद इन्हें विश्वास था कि सड़क दुर्घटना के इस मामले में जमानत तो हो ही जाएगी। पैसे के नशें में चूर इन लोगों ने यह जानने की भी जरूरत नहीं समझी कि जमानत लेने की प्रक्रिया क्या होती है ? अगर नौसेना प्रमुख जैसे उच्च पदों पर रहे परिवार के सदस्यों का यह हाल है तो ऐसे मां-बाप के बच्चों से क्या उम्मीद की जाए? वह भी तब जब नौसेना प्रमुख रह चुके व्यक्ति का बेटा अंतर्राष्ट्रीय हथियारों का सौदागर हो जाए। ऐसे घर और संस्कार वालांे का 20 साल का पोता अगर बिना नंबर की बीएमडब्लू कार चलाएगा तो उससे भी और क्या उम्मीद की जा सकती है? अदालत में बचाव पक्ष भले ही उसे बच्चा कहे, पर उसके मां-बाप उसे बच्चा मानते तो बीएमडब्लू कार से पार्टी में नहीं जाने देते। कम से कम इस ‘बच्चे’ की हिफाजत के लिए एक ड्राइवर तो साथ भेजते ही। पर रातो रात रईस बने लोग तो आज इस बात पर फक्र करते हैं कि उनका बच्चा कौन सी गाड़ी चलाता है ? कैसी गाड़ी चलाता है? किस ‘ब्रांड-नेम’ के कपड़े पहनता हैं ? कैसी डांस पार्टियां आयोजित करता है ? आदि। एक ऐसे ही घनाड्य महिला अपनी मित्रा को बता रहीं थी कि उनका सोलह साल का बेटा सातों गाडि़यां चला लेता है। इस एक वाक्य में उनकी पूरी मानसिकता का परिचय मिलता है। गाड़ी एक चलाए या सातों, क्या फर्क पड़ता है ? हां, इस तरह अपने वैभव का प्रदर्शन जरूर होता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि कानूनों के पालन के प्रति इस वर्ग में कितनी अरूचि है। कानून तोड़ने की इस संस्कृति से ही पनप रहे ये धनाड्य लोग भारत में उसी मानसिकता से रहते हैं जैसे औपनिवेशिक शासक देश लूटने के लालच में भीषण गर्मी की मजबूरी झेलकर भी यहां पड़े रहते थे। जब तक उन्हें भारत से आर्थिक फायदा मिला, वे यहां टिके रहे। जब भारत उन पर भार बनने लगा, तो इसे छोड़ भागे। ये नवधनाड्य लोग भी तभी तक भारत के सीने पर मूंग दलेंगे, जब तक कि यहां पड़े रहना फायदे का सौदा है। जिस दिन यह घाटे का सौदा बन जाएगा ये यहां रूकने वाले नहीं है। इन सबने अपने अवैध धन से विदेशों में जायदादे बना रखी हैं। गुप्त खातों में मोटी रकम जमा करवा रखी हैं। जब देश के हालात नाजुक देखेंगे तो देश छोड़कर भाग जाएंगे। यह जिम्मेदारी तो मध्यम और निम्न वर्ग के उन युवाओं की है जिन्हें इसी भारत भूमि पर जीना और मरना है। उन्हें चाहिए कि इन रईसजादों के भड़काऊ जीवन की चकाचैंध से भ्रमित न हों बल्कि इनके कारनामों, इनकी जिंदगी और रवैए पर कड़ी निगाह रखें, ताकि भौंडे उपभोक्तावाद के इस नासूर को बढ़ने से पहले ही कुचल दिया जाए।

Friday, January 15, 1999

युवाओं के बिना नहीं जीती जा सकती भ्रष्टाचार से लड़ाई


यह कोई नई बात नहीं कि देश का हर आदमी भ्रष्टाचार से त्रास्त है। पर क्या वजह है कि एक के बाद एक प्रधानमंत्रh भ्रष्टाचार से राहत दिलाने का वायदा करके कुर्सी पकड़ते हैं और कुछ ही दिनों में अपने असहाय होने का रोना रोकर अपने भ्रष्ट साथियों को हर तरह का संरक्षण देने में जुट जाते हैं। सब जानते हैं कि सत्ता के शीर्ष से लेकर प्रशासन के निचले स्तर तक भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। कोई भ्रष्टाचार में सीधे शामिल है और कोई भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने में लगा है। जिसके कारण रोजमर्रा की चीजों की किल्लत व महंगाई बढ़ती जा रही हैं। यह साफ है कि युवाओं में फैली बेरोजगारी, अरबों रूपए के घोटालों और प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण ही हो रही है। साधन संपन्न होने के बावजूद भारत की बहुसंख्यक आबादी बदहाली में इसलिए रह रही है क्योंकि भ्रष्टाचारियों ने देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट मचा रखी है। भ्रष्टाचार के कारण ही किसानों का शोषण हो रहा है और उन्हें उनकी फसल के वाजिब दाम नहीं मिल रहे हैं। नासिक कांड के वीभत्स बलात्कारियों का छूट जाना सिद्ध करता है कि पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण ही देश में महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। भ्रष्टाचार के कारण ही देश का आर्थिक विकास बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। क्योंकि प्रशासनिक अव्यवस्था व आधारभूत ढांचे की कमी से युवा उद्यमियों को आगे बढ़ने में दिक्कत आ रही है। भ्रष्टाचार रोकने के लिए बनी देश की सभी एजेंसियां इस काम में नाकाम सिद्ध हो चुकी हैं। बड़े भ्रष्टाचारी यह कह कर छूट जाते हैं कि भ्रष्टाचार तो आम जीवन में भी व्याप्त है। जबकि हकीकत यह है कि छोटे-छोटे काम करवाने के लिए आम आदमी को न चाहते हुए भी मजबूरन भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ रहा है।
इसलिए अब देश के नागरिकों में भ्रष्टाचार को लेकर भारी चिंता है। इसका प्रमाण यह है कि पिछले कुछ दिनों से भ्रष्टाचार व प्रशासनिक दुव्र्यवहार से लड़ने के लिए जागरूक नागरिकों व जन संगठनों ने अपने वैचारिक मतभेद भुलाकर पास आना शुरू कर दिया है। आने वाले हफ्तों में मुंबई, वर्धा व कई अन्य नगरों में जुझारू संगठनों को एक साथ लाने के लिए कई महत्वपूर्ण बैठकें होने जा रही हैं। जिनमें देश के तमाम संगठनों के प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे। यह महसूस किया जा रहा है कि जब तक देश के सभी चिंतित नागरिक विशेषकर युवा हर स्तर पर जन सतर्कता समितियां बना कर अपने इलाके के भ्रष्ट अधिकारियों व जन प्रतिनिधियों के विरूद्ध निरंतर अभियान नहीं चलाएंगे, कुछ सुधरने वाला नहीं है।
इस दिशा में देश भर के कुछ मशहूर संगठनों व लोगों ने मिलकर अभी हाल ही में एक पीपुल्स विजिलेंस कमीशनका गठन किया है। ताकि लोगों व संगठनों को एक जुट किया जा सके। यह जन आयोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश भर के चिंतित नागरिकों और युवाओं को लामबंद करने का प्रयास करेगा। इस आयोग की विशेषता यह है कि इसमें मजदूर और जन आंदोेलनों से लेकर उद्योगपति तक शामिल हैं। इनके अलावा वकालत, पत्राकारिता व शिक्षा से जुड़े लोग, विभिन्न व्यवसायों से जुड़े प्रोफेेशनल युवा, अप्रवासीय भारतीय, भारतीय प्रशासनिक सेवा के कार्यरत अधिकारी, सांसद व एक राज्य के मंत्राी तक इसमें शामिल हैं। पिछले दिनों देश के सुदूर प्रांतों से आए कुछ मशहूर और समर्पित इन लोगों ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर तीन दिन तक दिल्ली में बैठकर गंभीर ंिचंतन किया। जिसमें कुछ रोचक बातें सामने आईं। इनसे देश में भ्रष्टाचार को लेकर चल रहे चिंतन की धाराओं को समझने में सुविधा होगी। इसीलिए इनका यहां विस्तृत उल्लेख आवश्यक है। 
अपने ही सहकर्मी भ्रष्ट आईएएस अधिकारियों के विरूद्ध अभियान चलाने वाले उत्तर प्रदेश के विजय शंकर पांडे का कहना था कि कानून में इतने सारे प्रावधान है जिनका सहारा लेकर ईमानदार अधिकारी जनता के हित में कुछ भी बेधड़क कर सकते हैं। कोई राजनेता उन्हें छू भी नहीं सकता। उन्होंने बताया कि भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध एक जुट हुए उत्तर प्रदेश के उनके साथियों ने मिलकर तमाम ऐसे पत्राक तैयार किए हैं जिसमें ऐसी शंकाओं के समाधान बताए गए हैं। उधर आईएएस की नौकरी में रहकर आजीवन सादगी से जीवन बिताने वाले और बस्तर के आदिवासियों के हक की लंबी लड़ाई लड़ने वाले बीडी शर्मा का मानना है कि जब तक प्रशासनिक व्यवस्था पर जनता का नियंत्राण नहीं होगा तब तक भ्रष्टाचार पनपता रहेगा। उन्होंने बताया कि संविधान के हाल में हुए संशोधन के बाद अब जन जातीय इलाकों की ग्राम सभाओं को यह अधिकार मिल चुका है कि वे अपने गांव की हर व्यवस्था पर सीधा नियंत्राण रखें। उन्होंने यह भी बताया कि जहां-जहां यह जानकारी फैलती जा रही है वहां-वहां स्थानीय प्रशासन की जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ती जा रही है। उधर महाराष्ट्र के एक साधारण से परिवार से आईएएस में आने के बावजूद युवा अवस्था में ही नौकरी छोड़कर महाराष्ट्र के युवाओं को चाणक्य मंडल बना कर संगठित करने में जुटे पुणे के अविनाश धर्माधिकारी का कहना था कि आज हालत इतनी खराब हो गई है कि अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी जनता का काम ईमानदारी से करता है तो जनता उसके प्रति कृतज्ञ हो जाती है। जबकि यह लोगों का हक है कि अधिकारी ईमानदारी से उसकी सेवा करे। इसलिए इस विषय में जागृति फैलाने की जरूरत है।
इनके अलावा मेगासेसे एवार्ड से सम्मानित मशहूर पर्यावरणवादी व सुप्रीम कोर्ट के वकील एमसी मेहता ने जोरदेकर कहा कि कोई भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरूद्ध लंबे समय तक अकेले नहीं लड़ सकता। उसे तमाम तरह की मुसिबतों का सामना करना पड़ता है। इसलिए संगठित लड़ाई की जरूरत है। अभी हाल ही में 70 लाख रूपए के एक अमेरिकी पुरस्कार को लात मार देने वाले, जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के संयोजक व विश्व मछुआरा संगठन के अध्यक्ष, केरल के टाॅमस कुचैरी का मानना था कि जब तक काॅलेजों के युवा स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक जुट होकर नहीं लड़ेंगे कोई लड़ाई कामयाब नहीं हो सकती है। गुजरात के युवाओं में देशभक्ति और सामाजिक चेतना का प्रसार करने वाले युवा इंजीनियर संजीव शाह व उनकी सहयोगी माया सोनी का मत था कि लड़ने के साथ व्यक्तित्व निर्माण भी बहुत जरूरी है। बिना आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के लड़ी गई लड़ाई बहुत दूर तक नहीं जाएगी। मेधा पाटेकर के घनिष्ठ सहयोगी और बिहार आंदोलन की मशाल आज तक ईमानदारी से जलाए रखने वाले डा. सुरेश खैरनार को उन लोगों से खतरा लगता है जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन में राजनैतिक लाभ की आकांक्षा से आते हैं और फिर धोखा देकर भाग जाते हैं। बिहार आंदोलन और वीपी सिंह के अभियान के बाद उपजी स्थिति के प्रति आगाह करते हुए उन्होंने ऐसी स्थिति से सचेत रहने की आवश्यकता पर जोर दिया। इंग्लैंड व आईआईटी कानपुर से पढ़ने के बाद पिछले दस वर्षों से मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ इलाके के मजदूरों और आदिवासियों के साथ संघर्षों का जीवन जीने वाली सुधा भारद्वाज को इस बात की खुशी थी कि अब केवल मजदूर ही नहीं बल्कि राहुल बजाज जैसे बड़े-बड़े उद्योगपति भी मल्टीनेशनल कंपनियों के खतरों के प्रति चिंतित हो रहे हैं। उन्होंने इस बात पर आक्रोश व्यक्त किया कि मजदूरों के हक में बने कानून लागू करवाने के लिए भी एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। कभी-कभी तो शहादत देनी पड़ती है। इसलिए उन्होंने इस बात को जोर देकर कहा कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो लड़ाई छिड़े उसमें मजदूर की इन तकलीफों का अगर ध्यान रखा जाएगा तो इस लड़ाई को बहुत बड़े वर्ग का समर्थन मिलेगा।
उद्योग व व्यापार क्षेत्रा का प्रतिनिधित्व करते हुए इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ मैनेजमेंट (अहमदाबाद) के छात्रों की एल्यूमनि एसोसिएशन के प्रतिनिधि राजस्थान के राजन सांघी व दिल्ली के युवा चार्टेड एकाउंटेंट व सामाजिक कार्यकर्ता पंकज अग्रवाल का कहना था कि ऐसा नहीं है कि उनकी जमात के लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर चिंता नहीं है या वे कुछ करना नहीं चाहते। उन्होंने बताया कि जब तक प्रशासन से भ्रष्टाचार को दूर नहीं किया जाएगा उद्योग और व्यापार चलाना और भी मुश्किल होता जाएगा। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि जहां छोटे-छोटे लोगों को तंग किया जाता है वहीं बड़े-बड़े अधिकारी करोड़ों रूपए की रिश्वत कमा कर भी कानून की गिरफ्त से बच जाते हैं। जिसे हर कीमत पर रोकनाचाहिए। पिछले लोकसभा चुनाव में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने के वायदे वाला प्रचार अभियान तैयार करने वाले युवा व काॅन्ट्रेक्ट एडवरटाइजिंग कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी सुशील पंडित का मानना है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए हर विचारधारा के मानने वाले नौजवानों और नागरिकों को एक साथ सामने आना चाहिए। वरना कोई भी सरकार क्यों न हो भ्रष्टाचार नहीं रोक पाएगी और जनता इसी तरह त्रास्त रहेगी। श्री पंडित अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े रहे हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्राध्यापक व समाजशास्त्राी आनंद कुमार ने इस बात पर जोर दिया कि युवाओं के सामने आदर्श का अभाव हो गया है। जबकि देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में नैतिक मूल्यों के लिए लड़ाई लड़ी और जीती। ऐसे लोगों की जिम्मेदारी है कि वे काॅलेज और विश्वविद्यालय परिसरों में युवाओं को प्रशिक्षित करने वाले शिविरों में जाएं ताकि जुझारू नौजवानों की एक फौज खड़ी हो सके। मशहूर चिंतक प्रो. आशीष नंदी ने तो यहां तक कहा कि अगर भ्रष्टाचार में लिप्त लोग भी इस आंदोलन को मदद देने आएं तो हमें संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि लड़ाई की इस प्रक्रिया से ही उनकी भी शुद्धि होगी। जाहिर है कि कि जब वे ऐसी हिम्मत करेंगे तो उन्हें इसके परिणामों का अनुमान होगा। टाइम्स आॅफ इंडिया पटना के संपादक व कुछ समय पहले तक जनेवि के छात्रा नेता रहे नलिनिरंजन मोहंती को लगता है कि सूचना का अधिकार मिले बिना भ्रष्टाचार के पूरे तंत्रा को पकड़ पाना सरल न होगा। 
गुजरात के वर्तमान आपूर्ति मंत्राी जसपाल सिंह ने जोर देकर कहा कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस दल में हैं। यदि आप भ्रष्टाचार से लड़ने की कमर कस लें तो भी आप अपनी जगह बने रह सकते हैं। उन्होंने स्वीकारा कि कई बार सब कुछ कर पाना संभव नहीं होता पर गलत का विरोध कर पाना भी एक उपलब्धि है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समाज के विभिन्न वर्गों और व्यवसायों से जुड़े देशभर के लोगों की ये टिप्पणियां इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि जो जहां है वहीं भ्रष्टाचार से त्रास्त है और इससे निजात पाना चाहता है। यह भी सच है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध बोलने वाले कुछ लोग भी कहीं न कहीं कुछ न कुछ तो समझौते जरूर किए बैठें हैं। पर यह भी सच है कि अगर मुल्क के हालात ठीक हों तो कोई क्यों ऐसा करेगा ? क्या वजह है कि वहीं हिंदुस्तानी विदेशों में कानून तोड़ने की हिम्मत नहीं करते ? बिना भ्रष्ट आचरण के तरक्की करते हैं। हमारे देश के हुक्मरान यदि वाकई चाहें तो यहां भी ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं। जब वे ऐसा करने में कमजोरी दिखाएं तो फिर जाहिरन यह जिम्मेदारी युवाओं व समाज के जागरूक नागरिकों के ऊपर आ जाती है कि वे मुल्क के निजाम को ठीक रास्ते पर लाने के लिए तत्परता से सक्रिय हों। युवाओं में आदर्श होता है। उनमें निडरता होती है। उन्हें बुराई से लड़ने में आनंद आता हैं। उन्हें सिर्फ अनुभवी लोगों की सलाह की जरूरत होती है। दुनियां में जहां भी बदलाव आ रहे हैं उनकी साझी ताकत से ही आ रहे हैं। भ्रष्टाचार के विरूद्ध इंडोनेशिया में चल रहे छात्रा आंदोलन ने वहां की सरकार की नींवे हिला दी है। युवाओं की अगुवाई के बिना न तो कोई क्रांति सफल हुई है और न ही कोई राष्ट्र मजबूत बना है।

Friday, January 8, 1999

धार्मिक उन्माद या आक्रोश

पिछले दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश के ईसाई मिशनरियों पर विहिप और बजरंग दल वालों के हमलों को कोई भी समझदार व्यक्ति ठीक नहीं ठहराएगा। सभ्य समाज में विरोध प्रकट करने का यह कोई तरीका नहीं है। पर साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है। कि शोर मचाने वाले क्या वास्तव में धार्मिक उन्माद के विरुद्ध हैं या केवल हिन्दुओं को ही नीचा दिखाना चाहते हें ? यदि यह विरोध हिन्दू बहुसंख्यकों द्वारा ईसाई अल्पसंख्यकों के प्रति किये जा रहे अत्याचारों के विरोध में है तो यह नहीं भूलना चाहिये कि इसी देश के उन हिस्सों में जहां ईसाई बहुसंख्यक हैं वहां के गैर ईसाइयों के प्रति कैसा व्यवहार हो रहा है ? पर उसकी तरफ इन लोगों को ध्यान नहीं जाता।

ईसाई मिशनरियों ने नागालैंड की बड़ी आबादी का धर्म परिवर्तित करवा कर उन्हें ईसाई बना दिया।वहीं जिमी नागा नाम की स्थानीय जनजाति ने ईसाई धर्म स्वीकारने से मना कर दिया। इसी तरह मशहूर रानी ग्याडलू के अनुयायी भी अपने पारंपरिक धर्म का निर्वाह करते है। ऐसे सभी गैर ईसाई नागरिकों पर ईसाइयों के अत्याचारों की कहानी मुख्य धारा के मीडिया की खबर क्यों नहीं बनती ? क्या यह हैरानी की बात नहीं कि नागालैंड की सरकार अपनी जनगणना तक में इन गैर ईसाई समुदायों का उल्लेख तक नहीं करती। इस राज्य में इ्रसाई पादरियों और उनके नेता विशपों की तूती बोलती है। राज्य का प्रशासन इन लोगों के इशारे पर चलता है। जिसमें गैर ईसाई उपेक्षित रहते है और प्रताडि़त किये जाते है। ंइसी तरह मेघालय राज्य के बहुसंख्यक ईसाई लोग स्थानीय खासी प्रजाति के गैर ईसाई जन समुदाय पर तमाम तरह के अत्याचार कर रहे हैं।

मानवीय करुणा और विश्व प्रेम का संदेश देने के वाले ईसाई धर्मावलंबियों ने दक्षिणी अफ्रीका के ही नहीं अमरीका तक के अश्वेत नागरिकों पर कैसे अमानवीय अत्याचार किये हैं यह किसी से छिपा नहीं है। यदि वास्तव में ईसाई मिशनरी दीनदुखियों की सेवा करना चाहते हैं तो इससे किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है ? किन्तु यदि सेवा ही मुख्य भाव है तो धर्म परिवर्तन का यह विश्वव्यापी अभियान क्यों ? भारत के गरीब इलाकों के तमाम लोग बतायेंगे कि उन्हें दवा, शिक्षा, भोजन या रोजगार देने के नाम पर किस तरह ईसाई बनने को ललचाया गया। इसमें शक नहीं है कि देश के सुदूर इलाकों में, कठिन परिस्थितियों में जाकर ईसाई मिशनरियों ने अस्पतालों और स्कूलों का एक बहुत बड़ा जाल फैला दिया है। जिससे ईष्र्या करने का विहिप वालों को कोई हक नहीं है यदि उन्हें मुकाबला ही करना है तो एक विेशष अभियान चलाकर ऐसे पिछ़ड़े इलाकों में स्वास्थ्य, कुपोषण और शिक्षा की सेवाओं का तंत्र विकसित करना चाहिये। हताशा में हमले करने से सहयोग और सहानुभूति नहीं आलोचना ही मिलेगी।पूर्वोत्तर राज्यों में जहां विहिप ने इस दिशा में कुछ प्रयास शुरू किये हैं वे न तो समुचित हैं और न प्रभावी ही। उधर देश के बहुसंख्य हिन्दू समाज में जहां मंदिरों में पंडे पुजारियों को मोटी मोटी भेंट चढ़ाने की प्रथा है वहीं समाज के निरीह लोगों को सबल बनाने के कार्यक्रमों में उनकी विेशष रूचि नहीं है। जिसे पैदा करना विहिप जैसे संगठछनों का काम होना चाहिये। दूसरी तरफ ऐसा नहीं है कि ईसाई मिशनरी केवल धर्म परिवर्तन और सेवा के काम में ही जुटे हैं।अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो पता चलेगा कि सेवा के नाम पर इन संस्थाओं में भी क्या क्या हो रहा है?

तेजपुर (मेघालय) के थाने में एक रिपोर्ट दर्ज है कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था ने ढाई बरस की बेबी सेसली नाम की एक अबोध बालिका को अवैध रूप से गायब कर दिया है। चूंकि इस शिकायत को मार्च 1998 में तेजपुर के आयुक्त की पत्नी श्रीमती नीरू ने दर्ज कराया था इसलिये इस मामले में तेजपुर के डी सी श्री नव कुमार चेतिया ने स्वयं जांच की और चैकाने वाली जानकारी हासिल की। इस लड़की को संस्था की ननों ने अनाथ बताकर अपने अनाथालय में रखा हुआ था। कुपोषण की शिकार जब इस लड़की की हालत बिगड़ने लगी तो उन्होंने श्रीमती नीरू से मदद मांगी कि वे उसका इलाज सरकारी अस्पताल में करवादें। चूंकि आयुक्त की पत्नी अक्सर इस अनाथालय में बच्चों की जरूरत के सामान इकट्ठा करके देने जाती थीं इसलिय उनकी बेबी सेसली में स्वाभाविक रूचि थी। पर फिर अचानक क्या हुआ कि ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज संस्था की ननों ने तेजपुर के सरकारी अस्पताल के डाक्टरों पर बेहद दबाव डालकर बच्ची को बेहद नाजुक हालत में अस्पताल से छुट्टी करवा ली। शायद उन्हें यह डर हुआ कि गरीबों की सेवा का जोर शोर से दावा करने वाली इस संस्था के बच्चों के कुपोषण की बात अखबारों तक न चली जाए। श्रीमती नीरू को जब यह पता चला तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने तहकीकात की तो संस्था की ननों ने बताया कि बेबी सेसली के मां बाप अरुणाचल से आये थे और जबरदस्ती बच्ची को ले गये। अनाथ बच्ची के मां बाप कैसे पैदा हो गये इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था।तेजपुर के जिलाधिकारी ने जब संस्था के बताये पते पर सेसली के मां बाप की खोज की तो मालू चला कि वह पता फर्जी था। इसके बादउस इलाके के बिशप और तमाम दूसरे पादरियों ने श्रीमती नीरू पर बेहद दबाव डाला कि वे अपनी एफआईआर वापिस ले लें, जो उन्होंने नहीं ली। इस पूरे प्रकरण में सेवा के नाम पर चल रहे अबोध बच्चों के एक रहस्यमय कारोबार का पर्दाफाश हुआ है।

यह पहली बार नहीं हुआ। कुछ समय पहले ही इंग्लैंड के प्रतिष्ठत अखबार ‘ दी गार्डियन’ में एक अंग्रेज पीटर टेलर नाम के ब्रिटिश वायुसेना के पायलट रहे व्यक्ति के कटु अनुभव प्रकाशित हुए थे। पीटर स्वयं कैथलिक ईसाई हैं। 1984 से लेकर 1994 तक उनका ‘मिशनरीज आॅफ चैरिटीज’ से संबंध रहाथा। इन दस वर्षों में वे बतौर स्वयंसेवी के इस संस्था के भारत में स्थापित केन्द्रों से जुड़े रहे थे। जहां बीमार और लावारिस गरीब बच्चों की ‘देखभाल’ की जाती है लेकिन श्री टेलर को इस बात का भारी दुख है कि आशादान नाम के इन केन्द्रों में कुछ बच्चों को यातनापूर्ण जीवन जीना पड़ता है। भारी मात्रा में विदेशी अनुदान के बावजूद यहां कुछ बच्चों को ऐसा यातनापूर्ण जीवन क्यों जीना पड़ता है यह बात श्री टेलर की समझ से परे है। श्री टेलर का आोप है कि सेवा के बहाने यहां धार्मिक कर्मकांडों और ईसाई धर्म के प्रचार को प्राथमिकता दी जाती है। इसी वजह से कई मरीजों की ठीक से देखभाल नहीं हो पाती और उनकी हालत बिगड़ने दी जाती है। ‘‘क्या गाॅड की यही इच्छा है कि प्रार्थना के आगे दर्द से कराहते बच्चों की आवाज अनसुनी करदी जाए और उन्हें देखकर भी अनदेखा छोड़ दिया जाए’’ ? श्री टेलर पूछते हैं।

दरअसल धर्म के नाम पर लोगों को फुसलाने, उनसे धन वसूलने और अपनी सतता और शक्ति का विस्तार करने का कारोबार सदियों से चल रहाहै। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं । जहां सेवा करने वालों के जीवन में त्याग, सदगी, सच्चाई, करुणा और प्रेम है वहां सच्ची सेवा का दर्शन होता है। जहां भोग, विलासिता, अंतर्राष्ट्रीय संगठन, बड़े बडे़ अनुदान, बड़े पदों के लिये लड़ाई और प्रचार की भूख है, वहां धोखाधड़ी है, आंडबर है, शोषण है और सत्ता व साधनों का दुरुपयोग है। ईसाई मिशनरियों के बारे में यूरोप के प्रतिद्ध इतिहासकार ााॅमसन ने कहा था कि, ‘जहां जहां ईसाई मिशनरी गये वहां वहां उनके पीछे तलवाई गयी वहां वहां झंडा गया।’ यानी ईसाइयों की सत्ता कायम होती चली गयी चूंकि धर्म का संबंध आस्था, विश्वास व भावना से है इसलिये समाज का बहुत बड़ा हिंस्सा धर्म से स्वतः प्रभावित हो जाता है। जब एक बार लोग किसी धर्म के प्रभाव में आ जाते हैं तो उस धर्म के राजनेताओं को अपनी सत्ता स्थापित करने में काफी सुविधा होती हे। विदेशों में जन्में इस्लाम और ईसाईयत दोनों इसके प्रमाण हैं। जबकि भारत की भूमि में पनपे दर्शन के पीछे राजसत्ता पाने की ललक कभी नहीं रही।। दर्शन को आत्मा और परमात्मा के बीच सेतु बंधन का उपकरण माना गया या मानव कल्याण का। यूं अपवाद यहां भी हैं पर इतिहास साक्षी है कि सनातन धर्म वालों ने धार्मिक प्रचार को कभी भी अपना लक्ष्य नहीं बनाया न ही इसके लिये कभी भी संगठित होकर किसी रणनीति के तहत कोई कार्यक्रम चलाया। यही कारण है कि सगुण उपासक से लेकर भौतिकतावादी चार्वाक तक को सनातन धर्म ने सहज स्वीकार किया। इसलिये हिन्दुओं को यह देखकर चिंतित व उत्तेजित होना स्वाभाविक है कि उन्हीं के देश में विदेशी लोग विदेशी धर्म को बाकायदा एक अभियान के तहत फैला रहे हैं। जिससे समाज में असंतुलन और विेद्वेष पनप रहाहै। मध्ययुग में चूंकि इस्लामी शासकों की हुकूमत रही इसलिये बहुसंख्यक हिन्दू समाज को अपमानका घूंट पीकर जीना पड़ा। धर्मनिरपेक्षतावादी चाहे जितना समझाने की कोशिश करें पर इसमें शक नहीं है कि मध्य युग में हिन्दुओं के धर्म पर भारी हमले हुए। उनके धर्म स्थान तोड़े गये। उन्हें धर्म परिवर्तन के लिये मजबूर किया गया। उनके बहुमूल्य ग्रंथों और पाण्डुलिपियों को जलाया गया। उनकी आस्थाओं पर कुठाराघात किया गया।

अंग्रेजी शासनकाल में इस सबसे राहत मिली तो दूसरी तरह का हमला हुआ। जिसमें बिना तलवार के ही हिन्दुओं के धर्म,संस्कार और मूल्यों की जड़ें काट दी गयीं। हिन्दु समाज को उम्मीद थी कि आजादी के बाद उन्हें फिर से अपनी परंपराओं के निष्पक्ष मूल्यांकन और अपनी संस्कृति के विस्तार का स्वाभाविक अवसर मिलेगा । पर ऐसा नहीं हुआ। रूस की गिरफ्त के शिकार भारतीय सत्ताधीशों ने धर्मनिरेक्षता के नाम पर एक अजीब स्थिति पैदा कर दी। जिसमें अपने ही देश में अपनी परंपराओं और वैदिक ज्ञान की बात करने वाले दकियानूसी समझे लाने लगे। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जहां बहुसंख्यक हिन्दू समाज को दबाया गया वहीं मुस्लिम साम्प्रदायिकता को पनपने दिया गया। इतना ही नहीं धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक समुदाय की धोखाधड़ी तक को रोका नहीं गया।क्या वजह है कि आज ईसाई धर्म प्रचारक केसरिया रंग का चोगा पहनकर घूमने लगे हैं ? जबकि उनके धर्म का वस्त्र सफेद रंग का होता है। क्या वजह है कि देश के अनेक इलाकों में अब गिरिजाघरों को प्रभु यीशू का ‘मंदिर’ बताकर प्रचारित किया जा रहा है ? क्या वजह है कि सेवा और करुणा की बात करने वाले ईसाई धर्म प्रचारक पिछड़े इलाकों में ‘फेथ हीलिंग’के भारी भारी शिविर लगाकर लोगों को गुमराह कर रहे है। ? साफ जाहिर है कि हिन्दू समाज के प्रतीकों और आस्थाओं को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने प्रचार की रणनीति में अभूतपूर्व बदलाव किया है। ताकि ज्यादा से ज्यादा समाज को अपनी ओर खींच सके और उनका धर्म परिवर्तित करवा सकें। एक तरफ धर्म परिवर्तन का यह सुनियोजित अभियान चल रहा हो और दूसरी तरफ बहुसंख्यक हिन्दू समाज को बार बार धर्मांध और कट्टरपंथी कह कर प्रचारित किया जाये यह कहांकि समझदारी है। इससे तो आक्रोश भड़केगा और उसकी परिणति फिर बजरंग दल जैसे संगठनों में ही होगा। ऐसे धार्मिक उन्माद को रोक पाना सत्ताधीशों के लिये सरल नहीं होगा। मगध के सम्राट अशोक मौर्य से लेकर मुगल शासक अकबर तक की एक धर्मनीति हुआ करती थ। भारत जैसे धर्म प्रधान देश में क्या भारत सरकार की एक धर्म नीति हो, इसकी आवश्यकता नहीं ? क्या धार्मिक संस्थाओं, स्थानों व संगठनों की समस्याओं और विवादों को सुलझाने के लिये भारत सरकार में विशेष विभाग की जरूरत नहीं है ? क्या इनके कामकाज और धन संग्रह व खर्च के तौर तरीकों में पारदर्शिता लाने वाले कानूनों की जरूरत नहीं है ? यदि हां तो फिर देर किस बात की ? धर्म से जुड़ी समस्याओं से आंख मूंद कर या उन्हें अदालतों में लटका कर हम उनका हल नहीं ढूढ सकते।

Friday, January 1, 1999

छवि सुधारने की रणनीति


दो-तीन जनवरी को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी, बंगलौर में अपनी छवि सुधारने की रणनीति बनाएगी। भाजपा नेतृत्व यह बात तो समझता ही होगा कि  सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग से नाटक या सिनेमा के पात्रों का चेहरा-मोहरा बदला जा सकता है, असली जीवन के पात्रों का नहीं। कलाकारों को तो कुछ क्षणों के लिए ही नाटकीय भूमिका निभानी होती है जबकि असली जीवन में व्यक्ति के आचरण, कार्यों और व्यक्तित्व से ही छवि बनती है, रणनीति बनाने से नहीं। लालू यादव, ओम प्रकाश चैटाला, सुखराम, बूटा सिंह व जयललिता जैसे राजनेताओं की जो भी छवि जनता के दिमाग में बन चुकी है उसे केवल रणनीति बनाकर ही ये नेता बदल नहीं सकते। ठीक ऐसे ही सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्राी व जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं की जो छवि उनके त्यागमय आचरण से बनी थी उसे आज तक कोई बदल नहीं पाया। अगर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व का निष्पक्ष मूल्यांकन करें तो कुछ बातें बिल्कुल साफ नजर आती है। सबसे पहली कमी जो भाजपा के नेतृत्व में दिखाई देती है वह है उसका किसी भी मुद्दे पर कभी न टिक पाना। पिछले दस बरस में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने हर मुद्दे पर अपने बयान और अपने कदम को इतनी बार बदला है कि उसकी विश्वसनीयता शून्य हो चुकी है।
सबसे ताजा घटना है पेटेंट बिलको लेकर भाजपा की फजिहत। भाजपा के वरिष्ठ नेता व केंद्रीय संसदीय मंत्राी मदनलाल खुराना ने पहले कहा कि, ‘बिल छपने में देर हो गई।फिर कहा कि, ‘राष्ट्रपति भवन ने बिल भेजने में देर कर दी।जब वहां से स्पष्टीकरण आया कि उन्हें बिल मिला ही नहीं था तो खुराना जी ने कहा कि, ‘अफसरों ने बदमाशी की।अगर कल अफसर ये सिद्ध कर दें कि उनकी तरफ से कहीं कमी नहीं हुई तो शायद खुराना जी कहेंगे कि ड्राइवर कोहरे के कारण गाड़ी ठीक से नहीं चला सका इसलिए बिल पहुंचने में देर हो गई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि असलियत कुछ और है, वह यह कि आडवाणी जी नहीं चाहते थे कि यह बिल संसद में पेश हो। इसलिए उन्होंने खुराना जी को इशारा कर दिया था। सच्चाई जो भी हो इस हादसे ने यह साफ कर दिया कि भाजपा का एक वरिष्ठ राष्ट्रीय नेता तक एक दिन में तीन बयान बदलने की गुस्ताखी करके भी अपनी कुर्सी पर टिका रहता है। भाजपा में किसी की हिम्मत नहीं है कि वे ऐसे अकुशल मंत्राी को इतनी बड़ी लापरवाही के बाद पदमुक्त कर दें।
भाजपा के मुंबई अधिवेशन में तय किया गया था कि भाजपा भ्रष्टाचार को अपना चुनावी मुद्दा बनाएगी। भाजपा नेतृत्व ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध तब बड़े जोशीले भाषण दिए थे। पर जैसे-जैसे भाजपा के नेता किसी न किसी कांड में फंसते गए या जैसे-जैसे भाजपा शासित राज्यों की सरकारों मेें व्याप्त भ्रष्टाचार के चर्चे आम होने लगे- भाजपा नेतृत्व ने इस मुद्दे को न छूने में ही भलाई समझी। फिर अभी पिछले चुनाव में ही श्री अटल बिहारी वाजपेयी को भ्रष्टाचार के विरूद्ध मसीहा बनाकर प्रचारित किया गया। पर पिछले आठ महीनों के शासन के दौरान जनता को कुछ दूसरी ही सच्चाई का सामना करना पड़ा। जिन सुखराम पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर भाजपा सांसदों ने तेरह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। उन्हीं सुखराम को आज भाजपा ने अपनी प्रांतीय सरकार में कैबिनेट मंत्राी का दर्जा दे रखा है। क्या भाजपा ऐसी गंगा है जिसमें शामिल होते ही व्यक्ति के जीवन में लगे तमाम दाग धुल जाते हैं ? पर ऐसा नहीं होता। भाजपा शासित किसी भी राज्य का कोई भी सरकारी दफ्तर नहीं है जहां भ्रष्टाचार में पहले के मुकाबले रत्तीभर भी कमी आई हो।
आज तक भाजपा नेतृत्व राम मंदिर के निर्माण से लेकर हिंदू-राष्ट्र बनाने तक को अपनी रणनीति का अहम् हिस्सा मानता था। इसी भावना को भुनाकर उसने हिंदुओं के बीच अपने जनाधार का इतना विस्तार किया। आज वही नेतृत्व इस सब के विरूद्ध बोल रहा है। इतना ही नहीं, कुर्सी से चिपके रहने के लालच में राम मंदिर आंदोलन को अपनी एक भूल बता रहा है। यही कारण है कि जिन साधु-संतों और महंतों ने राम-रथ यात्रा के बाद भाजपा के चुनावी अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था वे सब आज उससे नाराज बैठें हैं। संघ या भाजपा के किसी व्यक्ति में शायद इतनी हिम्मत नहीं कि वे भाजपा नेतृत्व से इसकी वजह पूछें। आपातकाल में संघ ने सड़कों पर उतर कर सत्ता का विरोध किया था। अगर उसे वाकई भाजपा से नाराजगी है तो क्यों नहीं आज संघ यही करता ? क्यों नहीं संघ अपने प्रतिनिधियों को भाजपा में से वापिस बुलाता ? अभी तो ऐसा संदेश जा रहा है कि संघ अपनी खाल बचाने के लिए विरोध का नाटक कर रहा है जबकि अंदर से उसकी भाजपा से मिली भगत है।
वैसे संघ के वरिष्ठ नेता व स्वदेशी जागरण मंच के आधार स्तंभ श्री दत्तोपंथ ठेंगड़ी जी का केंद्रीय सरकार  के विरूद्ध सड़कों पर प्रदर्शन करना बताता है कि उनके मन में भाजपा नेतृत्व के विरूद्ध कितना आक्रोश है। स्वदेशी का नारा तो सौ बरस पहले ही स्वतंत्राता संग्राम के दौरान दिया जाने लगा था। इसलिए इस  विषय में घरेलू आर्थिक दबाव और राजनैतिक सीमाओं की जानकारी सभी राजनेताओं को लंबे अरसे से है। कोई भ्रांति नहीं है। जिनकी इसमें आस्था है वे आज तक इस पर टिके हुए हैं जैसे गांधीवादी कार्यकर्ता, चिंतक और विशेषज्ञ। जिनकी आस्था नहीं है वे अपनी बात मनवाने से पीछे नहीं हटते। पर भाजपा नेतृत्व ने इस मामले में बेहद ढुलमुलपन का परिचय दिया है। ये बात करते हैं स्वदेशी की और भागते हैं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पीछे। बार-बार  इनका दोहरापन कार्यकर्ताओं में हताश फैलाता है। स्वदेशी के मामले पर भाजपा नेतृत्व क्यों नहीं अपनी समझ साफ कर लेता ? जो तय करे, उस पर टिके। तब तो लगे कि नेतृत्व दमदार है। फिर दमादार नेतृत्व को छवि बनाने के लिए अधिवेशन नहीं करना पड़ेगा। उसके काम से छवि अपने आप बन जाएगी।
लंबे अरसे से भाजपा कुशल प्रशासक होने का दावा करती आई है। किंतु केंद्र से लेकर जिन प्रांतों में भी भाजपा की सरकारें हैं वहां की असलियत कुछ और ही कहानी कहती हैं। गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां ग्राम पंचायतों से लेकर जिला परिषदों और प्रांतीय सरकार तक सब जगह भाजपा का बहुमत है। इसलिए गुजरात को भाजपा के काम के नमूने का आदर्श राज्य होना चाहिए। पर वहां की स्थिति क्या है इसका वर्णन भाजपा के ही प्रमुख नेताओं के बयानों से साफ हो जाएगा। 27 दिसंबर 1998 को भाजपा के सांसद व सिने अभिनेता शत्राुघ्न सिन्हा ने खेड़ा जिले के निसराया ग्राम में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए गुजरात सरकार का जो खाका खींचा उससे वहां मौजूद चालीस हजार ग्रामवासियों के ठहाके से सारा पंडाल गूंज उठा। यह तब हुआ जबकि गुजरात के मुख्यमंत्राी केशुभाई पटेल मंच पर आसीन थे। श्री पटेल की सरकार की लोकप्रियता का पता तब चला जब श्री पटेल का भाषण शुरू हुआ। जनता फौरन भारी तादाद में उठकर चल दी। गुजरात सरकार के ही एक वरिष्ठ और आम जनता में लोकप्रिय मंत्राी श्री जसपाल सिंह का कहना है कि गुजरात सरकार के ढीलेपन से जनता इतनी खीज चुकी है कि अगर आज चुनाव हों तो उसे भारी दिक्कत का सामना करना पड़ेगा। भाजपा में रह कर ही जनहित में ठोस काम करने को बेताब रहने वाले जसपाल सिंह जैसे लोगों को शिकायत है कि उनके काम में रोड़े अटकाए जाते हैं।
उधर गुजरात में तैनात कुछ ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि भाजपा, विहिप, संघ व बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने उनकी नाक में दम कर रखा है। भ्रष्ट, निजी और अनैतिक काम करवाने में ये कार्यकर्ता किसी मामले में कांग्रेसियों से पीछे नहीं हैं। इन अधिकरियों का कहना है कि अगर कार्यकर्ता वाकई जनहित में, निस्वार्थभाव से व ईमानदारी से काम करवाने के लिए दबाव डालें तो उन्हें खुशी ही होगी। पर होता ये है कि गलत काम करने को मना करने वाले अधिकारियों को छोटे-छोटे कार्यकर्ता भी तबादले की धमकी देते हैं। दरअसल आज हालत ये हो गई है कि राजनीतिक दलों में विशुद्ध जनसेवा की भावना से काम करने वालों का टोटा हो गया है। भाजपा का ही कार्यकर्ता जब देखता है कि उनका जो नेता बीस बरस पहले पांचजन्य अखबार की तीसरी मंजिल पर हाथ से रोटी बनाकर खाता था वो आज पांच सितारा जिंदगी जी रहा है तो उसे भी आर्थिक सुरक्षा का भय सताने लगता है। इसीलिए राजनीति सेवा नहीं व्यवसाय बन कर रह जाती है। अपनी छवि सुधारने को बेचैन भाजपा के शिखर नेतृत्व को यह सोचना होगा कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश कैसे लगाया जाए भगवान् गीता में कहते हैं कि, ‘जो कुछ श्रेष्ठजन आचरण करते हैं वही आमजन अनुसरण करते हैं।अगर भाजपा का शिखर नेतृत्व और उसके मंत्राी व मुख्यमंत्राी आधुनिकता के तमाम दबावों के बावजूद सादा जीवन-उच्च विचारके सिद्धांत पर चल सकें तो इसका गहरा प्रभाव कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। ये असंभव नहीं है। समाजवादी विचार वाले सुरेंद्र मोहन जैसे पूर्व केंद्रीय मंत्राी व राजनेता दिल्ली में जिस सादगी से रहते रहे हैं वह भाजपा के ज्यादातर मंत्रियों के आचरण में दिखाई नहीं देती। जबकि संघ में इस पर काफी जोर दिया जाता है।
छवि सुधारने की चिंता में भाजपा का शिखर नेतृत्व मीडिया को संभालने की योजना भी बनाएगा। ऐसा संकेत उसके बयानों से मिल रहा है। भाजपा के नेतृत्व को लगता है कि मीडिया ने पिछले चुनावों में उस पर नाहक हमला किया। पर भाजपा वाले ये क्यों भूल जाते है कि मीडिया अमूमन जनभावनाओं का ही प्रदर्शन करता है। मार्च में जनभावना भाजपा के काफी पक्ष में थी। सबको श्री अटल बिहारी वाजपेयी से भारी उम्मीदें थीं। अक्टूबर आते-आते लोगों का भ्रम टूट गया। अगर मीडिया ने इस बात को सही-सही जनता के सामने रखा तो इस पर भाजपा के नाराज होने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। हां उन लोगों की बात फर्क है जो रागद्वेष की भावना से ग्रस्त होकर पत्राकारिता करते हैं। किंतु तकलीफ यह देखकर होती है कि भाजपा का नेतृत्व भी मीडिया से ये उम्मीद करता है कि वे चाहे जो करें पर उनकी सुंदर छवि ही जनता के बीच प्रस्तुत की जाए। निष्पक्ष और जागरूक पत्राकार भला ऐसा क्यों करेंगे ? अगर वाकई भाजपा को मीडिया में अपनी छवि सुधारने की चिंता है तो उसे चाहिए कि ऐसे तमाम समाचारों और लेखों पर वह चैकन्नी निगाह रखे जिसमें उसके कामों और नीतियों की आलोचना होती है।  ऐसी हर स्वस्थ आलोचना का तुरंत और संतुष्टिपूर्ण जवाब भाजपा नेतृत्व की तरफ से उस पत्राकार के पास भेजा जाना चाहिए। तब एक ऐसा संबंध विकसित होगा जो स्वतः भाजपा को उसकी छवि सुधारने में मदद करेगा। देखना ये है कि बंगलौर के अधिवेशन में भाजपा का नेतृत्व वास्तव में अपने तौर-तरीके बदलने को तैयार होता है या चेहरे पर क्रीम-पाॅवडर पोत कर छवि सुधारने की रस्म अदायगी करता है ? क्योंकि देश में अभी भी बहुत से लोग हैं जो न तो चुनाव चाहते हैं और न ही यह माने को तैयार हैं कि भाजपा कुछ कर नहीं सकती।