Sunday, September 26, 2010

प्लेसमेंट एजेंसियों पर शिकंजा कसे

पिछले हफ्ते कोलकाता के एक अंग्रेजी दैनिक में खबर छपी की एक 27 वर्षीय महिला मध्यप्रदेश में एक परिवार में मई 2010 में नौकरी करने गई थी, तीन महीने से लापता है. उसके बूढ़े पिता और बच्चे उसके लौटने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. उन्होंने 20 सितम्बर को कोलकाता के थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी है. यह खबर पढ़ कर वह परिवार जिसने उसे नौकरी पर रख था घबरा गया. क्योंकि नौकरी पर आने के दूसरे ही दिन यह बंगाली महिला ज़िद करने लगी कि उसे वापिस कोलकाता जाना है. प्लेसमेंट एजेंसी से फोन पर उसकी बात करवा कर, जैसे वह आई थी वैसे ही उसे ट्रेन का टिकट दिलाकर ट्रेन में बिठा दिया गया. पर वह कोलकाता नहीं पहुंची तो इसकी खबर नौकरी देने वाले को कैसे हो? क्यों नहीं तीन महीने से उसके परिवार या प्लेसमेंट एजेंसी ने खोज खबर ली ? चिंता में उन्होंने अपने बाकी स्टाफ से पूछा कि वो जाते समय क्या कह कर गई थी ? तो इस पर सिक्यूरटी गार्ड ने बताया कि कह रही थी कि, दक्षिण दिल्ली के कोटला क्षेत्र में एक प्लेसमेंट एजेंसी है मैं वहाँ जाउंगी और दिल्ली में रहूंगी.

खोज करने पर वह एजेंसी मिल गई और पता चला कि यह महिला तीन महीने से इसी एजेंसी के माध्यम से दिल्ली में नौकरी कर रही है. दिल्ली पुलिस की दबिश के बाद उस एजेंसी ने दो घंटे में उस महिला को वहां प्रस्तुत कर दिया. दिल्ली पुलिस ने कोलकाता पुलिस को सूचना दी और उसे दिल्ली के नारी निकेतन में भेज दिया.

सामान्य सी दिखने वाली यह कहानी बड़ी गहरी साजिश की ओर इशारा करती है. जिसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए. सिने स्टार शाइनी आहूजा कि नौकरानी ने पहले बलात्कार का आरोप लगाया, उसे जेल भिजवाकर फिर अब कहती है कि उसने झूठा आरोप लगाया था. जानकारी मिली है कि प्लेसमेंट एजेंसियां इसी तरह का ताना-बाना बुनकर संपन्न परिवारों को फंसा लेती हैं फिर उन्हें कानून का डर दिखा कर उनसे मोटा पैसे ऐंठती हैं. तीन तरह के आरोप लगते हैं नाबालिग लड़की से छेड़-छाड़ के, गर्भधान कर देने के या गायब कर देने के. आरोप लगते ही और मामला पुलिस में जाते ही नौकरी देने वाला घबरा जाता है. घबराहट में वो इनके जाल में फंस जाता है.

उपरोक्त मामले में तो परिवार के ऊँचे संपर्क पुलिस में होने के कारण वे बच गए और महिला बरामद हो गई पर ज़्यादातर लोग इस गिरफ्त आसानी से नहीं छूट पाते. यह गंभीर समस्या बनती जा रही है. एक तरफ बंगाल, झारखण्ड, उड़ीसा, केरल, बिहार, मध्यप्रदेश के गरीब परिवार नौकरी की तलाश में संपन्न राज्यों की तरफ मुंह करते है और दूसरी तरफ कामकाजी व्यस्त जीवन जीने वाले परिवार या संपन्न परिवार घरेलू काम के लिए ऐसी महिलाओं को ढूँढ़ते हैं जो विश्वसनीय हों. प्लेसमेंट एजेंसियां इसी दूरी को पाटती हैं. कायदे से उन्हें अपनी व्यवस्था पारदर्शी और विश्वसनीय बनानी चाहिए. पर जैसा उपरोक्त मामले में हुआ. क्या कोटला की एजेंसी ने इस महिला को रखने से पहले उसकी तहकीकात की ? क्या उसके परिवार से रजामंदी ली ? यदि हाँ तो उसका परिवार कैसे कह सकता है कि वो गायब हो गई ? अगर यह रजामंदी लिए बिना ही उसे रख लिया तो क्या यह नए मालिक के साथ धोखाधड़ी नहीं है कि किसी महिला का अतीत और अता पता जाने बिना उसे किसी के घर में नौकरी पर रखवा दिया. कल कोई ऊंच-नीच हो जाये और यह महिला कोई अपराध करके भाग जाए तो उसे कहाँ से ढूंढेगे ? इसका कोई जवाब एजेंसी के पास नहीं है.

जांच का विषय है कि ऐसी एजेंसियां आपस में एक नेटवर्क से जुडी रहती हैं और फिर मिलकर ब्लैकमेलिंग का यह खेल खेला जाता हैं. कहीं प्लेसमेंट की आड़ में इन महिलाओं को वैश्यावृत्ति के धंधे में तो नहीं डाला जाता ? यह सब जांच का विषय होना चाहिए. ऐसे लोग जिन्हें अपने घरेलू नौकर के झूठे आरोपों को झेल कर ब्लैक मेल का शिकार होना पड़ा हो, अगर इस अखबार के नाम पत्र लिखते हैं तो यह जांच करना और आसान हो जायेगा.

पर तस्वीर का दूसरा पहलू भी है. ऐसी गरीब लाचार महिलाओं को नौकरी देने वाले अक्सर उनका शोषण भी करते हैं. उन्हें यातना या शारीरिक कष्ट देते हैं. उनसे वासना तृप्ति करते हैं. उनको छुट्टी नहीं देते. उनका वेतन मार लेते हैं. इसीलिए ऐसी महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए हर शहर में जागरूक महिलाओं को एक साझा मंच बनाना चाहिए. हर शहर में तमाम ऐसी संपन्न पढ़ी-लिखी महिलाएं रहती हैं जिनके पास दिन भर करने को कुछ खास नहीं होता. ताश के पत्ते या किट्टी पार्टी में दिन गुज़र जाता है. दूसरी तरफ इन्हें अपने ही बच्चे पालने कि फुर्सत नहीं होती. बच्चे आयाओं के सहारे पलते हैं. ऐसे में आयाएं संपन्न परिवारों का अहम हिस्सा बन चुकी हैं. इनकी मांग हमेशा पूर्ती से ज्यादा रहती हैं. इसलिए भी अगर संपन्न महिलाएं एक संस्था बना कर इस समस्या से निपटती हैं तो उनका और उनके परिवार का काम अच्छी तरह चलेगा. हर बात के लिए सरकार कि ओर मुह ताकना कोइ अकलमंदी नहीं है. जब तक समाज में आर्थिक विषमता हैं घरेलू नौकरों की ज़रूरत बनी रहेगी. ऐसे में इस समस्या का हल समाज को ढूँढना चाहिए वरना एक तरफ गरीबों का शोषण होगा और दूसरी तरफ संपन्न लोग नाहक ब्लैकमेल का शिकार होंगे.

Sunday, September 19, 2010

क्या हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट है?

हाल ही में सेवानिवृत्त हुये मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूश सिन्हा ने यह कहकर कि भारत में रहने वाला हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट है, खासा विवाद खड़ा कर दिया है। केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली ने इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। श्री सिन्हा का आशय शायद उन लोगों से था जो सत्ता से जुड़े हैं। वरना अगर पूरे भारत की बात की जाए तो भ्रष्टाचार के बारे में कुछ और ही समझ बनती है।

भ्रष्ट कौन है? जो अनैतिक साधनों से धन कमाता है। देश की 70 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है। किसान छोटा हो या बड़ा या फिर भूमिहीन कृषि मजदूर। रात-दिन खेत में कड़ी मेहनत करता है, तपती धूप, जमाने वाली सर्दी झेल कर भी अनाज उपजाता है। वर्षा में अपना खेत, अनाज, पशु यहां तक कि अपने घर की रक्षा में महीनों जाग-जाग कर रात काट देता है। कहीं बाढ़ में उसका यह छोटा सा संसार ही न बह जाए। इतना ही नहीं खाद, पानी और बीज के लिए बैंक या महाजन के कर्जे में डूबा रहता है। इस सबके बाद जो फसल पैदा होती है, उसे जब मंडी में बेचने जाता है तो यह गारंटी नहीं कि उसे आढ़तिया अनाज के पूरे दाम दे दे। अब बताइये इस बेचारे किसान को भ्रष्ट होने का अवसर कहां मिलता है?

इसी तरह खदानों में काम करने वाले मजदूर हों या भवन निर्माण में काम करने वाले मजदूर, कारखानों में काम करने वाले मजदूर हों या छोटे और मजले दुकानदारों के यहां काम करने वाले मजदूर, यह सब रात-दिन कड़ी मेहनत करते हैं। इनके मालिक कोई ठेकेदार या ऐसे लोग होते हैं जो इनसे काम तो पूरा लेते हैं लेकिन पैसे खींच कर देते हैं। श्रमिकों की सुरक्षा के नियमों की अवहेलना करके इनकी जान जोखिम में डालकर इनसे काम करवाते हैं। एक राज्य के मजदूरों को दूसरे राज्य में ले जाकर काम करवाते हैं, ताकि अगर वो दुर्घटना में मर जाए तो उसकी लाश को ठिकाने लगा दे या उसके घर भिजवा दे। पर स्थानीय जनता में कोई आक्रोष न पनपने दें। इन अमानवीय दशाओं में काम करने वाले करोड़ों मजदूरों को भ्रष्ट होने का मौका कहां मिलता है?

देश की आधी आबादी महिलाओं की है। जिनमें से बहुत थोड़ी महिलायें सरकारी नौकरी में है। ज्यादातर अपने घर, खेत-खलियान या कुटीर उद्योग में लगी हैं। यह सब महिलायें सूर्याेदय से लेकर देर रात तक अपने परिवार की धुरी की तरह निरंतर काम में लगी रहतीं हैं और घर की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। यह सब करने वाली इन महिलाओं को भ्रष्ट होने की गुंजाइश कहां है?

इसी तरह देश के वनों में रहने वाले जन-जातीय समुदाय न्यूनतम साधनों में गुजारा करते हैं और वन संपदा की रक्षा करते हुए उसके उत्पादनो पर ही निर्भर रहते हैं। इन वनवासियों के नैसर्गिक अधिकारों की अवहेलना करके जंगल का माफिया जंगल काटता है और खदान का माफिया खनन करता है। पर इन वनवासियों की थाने से कचहरी और संसद तक कहीं नहीं सुनी जाती। तो इन बेचारों को भ्रष्ट होने का कहां मौका है?

इसी तरह फौज के सिपाहियों या सरकारी महकमों में भी काम करने वाले वो सब लोग जिनसे कसकर काम लिया जाता है और जिन्हें अपने विवके से आर्थिक निर्णय लेने की कोई छूट नहीं है, कैसे भ्रष्ट हो सकते हैं?

साफ जहिर है कि भारत की 90 फीसदी आबादी भ्रष्ट नहीं है। दरअसल भ्रष्ट वही हो सकता है या होता है जिसे अपने विवेक से आर्थिक निर्णय या नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार मिला हुआ है। जैसे सरकार, सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र या निजी क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारी। जो लेागों को नियुक्ति देने से लेकर बड़ी-बड़ी खरीद, ठेके आवंटित करना, विकास की नीति बनाना, विकास के लिए किसी क्षेत्र को चुनना और उसे विकसित करना या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार जैसे क्षेत्रों में निर्णय लेते है। चूंकि इनके निर्णय से किसी को फायदा और किसी को घाटा हो सकता है, इसलिए इन्हें भ्रष्ट होने का हर क्षण अवसर मिलता रहता है। जिन्हें लाभ होने की संभावना होती है वह अपने लाभ का एक हिस्सा इन्हें रिश्वत के रूप में एडवांस देकर इनसे अपने हक में निर्णय करवाने की फिराक में रहते हैं।

अब यहां आदमी के संस्कार, उसकी चेतना, उसके परिवेश और उसकी पारिवारिक आवश्यकताओं के सम्मलित दबाव का परिणाम होता है कि वह भ्रष्ट मानसिकता से निर्णय ले या सदाचार से। ऐसे लोगों की संख्या पूरे भारत की आबादी की 2 फीसदी से ज्यादा नहीं होगी। इन 2 फीसदी में ही हर तीसरा भारतीय भ्रष्ट हो सकता है और है भी। इसलिए श्री सिन्हा का यह दुखभरा बयान सही ठहराया जा सकता है। जो उन्होंने अपने लंबे प्रशासनिक जीवन के अनुभवन के बाद इस हताशा में दिया कि केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त होते हुए भी वे ऐसे भ्रष्ट लोगों का कुछ खास बिगाड़ नहीं सके। शायद बयान देते समय वे यह तथ्य स्पष्ट करना भूल गये अथवा उनके बायान को सही संदर्भ में प्रस्तुत नहीं किया गया।

Sunday, September 12, 2010

मनमोहन सिंह का लेखा-जोखा

पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री डा¡. मनमोहन सिंह ने अपनी सालाना रस्म अदायगी के तहत संपादकों से बात करते हुए अपना मन खोला। डा¡. सिंह की पहली चिंता कश्मीर के हालात को लेकर है। साथ ही उनकी इच्छा है कि अपनी जन्मभूमि पाकिस्तान से भारत के संबंधों का सुधार हो। पर इसके अलावा भी अगर उनकी सरकार के काम का लेखा जोखा किया जाए तो कोई बहुत प्रभावशाली रिपोर्टकार्ड नहीं बनता। राष्ट्रकुल खेलों में 70 हजार करोड़ रूपये का चूना लग चुका है। इसमें भारी भ्रष्टाचार हुआ है। जिसकी जांच अब खेलों के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयोग करेगा। इधर अप्रत्याशित वर्षा ने न सिर्फ खेल के इंतजाम में पलीता लगा दिया है बल्कि कि देशभर में मुश्किल पैदा कर दी है। हालाकि जल प्रबंधन के मामले में डा¡. सिंह को दोषी करार नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह बदहाली तो आजादी के बाद बनी हर सरकार की लापरवाही और भ्रष्टाचार का परिणाम है। जो हम एक तरफ तो जल संकट के लिए हाय तोबा मचाते हैं और दूसरी तरफ नदी परियोजनाओं पर खरबों रूपया खर्च करके भी वर्षा के जल का संचय नहीं कर पाते।

अपने ही दल के केन्द्रीय मंत्रीमंडल के मंत्रियों के बीच पारस्परिक छीटाकशी ने डा¡. सिंह बार-बार असहज स्थिति में डाला है। हालाँकि वाजपेयी सरकार के मंत्रिमंडल में हुए झगडों के मुकाबले यह कहीं बेहतर स्थिति हैण् पर दूसरी तरफ डा सिंह की सरकार की आर्थिक विकास की दर अपेक्षित 9 फीसदी के निकट ही रही है। जो डा¡. सिंह के लिए संतोष की बात होगी। हालाकि कई क्षेत्रों में अपेक्षित विकास का कोई संकेत नहीं मिल रहा। मसलन केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का हर दिन 20 किमी0 राजमार्ग बनाने का दावा अधर में लटका है। क्योंकि उन्हें भारत के योजना आयोग व पर्यावरण मंत्रालय से अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने घोषणायें और कार्यक्रम तो बहुत से चालू किये हैं पर जमीनी हकीकत अभी नहीं बदली है। शिक्षा के अधिकार को मूल भूत अधिकार बनाने के बावजूद राज्य सरकारें ऐसी योजनाओं पर काम करने को तब तक तैयार नहीं है जब तब उन्हें केन्द्र पैसा न दे।

हालाकि प्रधानमंत्री ने अपने गृहमंत्री की पीठ थपथपाई है पर जनता का आंकलन यही है कि नक्सलवाद की समस्या को हल करने में पी चिदाम्बरम को कोई सफलता नहीं मिल पाई है। आये दिन नक्सलवादी युवा पुलिसकर्मियों की हत्या करके पुलिस फोर्स का मनोबल गिरा रहे हैं। हालाँकि आतंकवाद के मामले में डा सिंह की सरकार का रिकोर्ड बेहतर रहा है जबकि वाजपेयी सरकार के दौरान आतंकवादियों ने रघुनाथ मंदिर जम्मूए अक्षरधाम मंदिर गांधी नगर ही नहीं भारत की संसद तक पर खतरनाक हमले किये थेण्

डा¡. सिंह की भलमनसाहत के कायल लोग हैरान है कि वे कुछ जादुई करिश्मा क्यों नहीं दिखा पा रहे हैं। पर ऐसा नहीं है कि वे कुछ कर ही न पाये हों। हम उनकी आर्थिक या परमाणु नीति के समर्थक हों या न हों यह सच है कि 90 के दशक में अल्पमत की इंका सरकार के वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने बड़ी होशियारी से भारत में आर्थिक उदारीकरण का रास्ता साफ किया था। इसी तरह अमरीका से परमाणु संधि के मामले में उन्होंने पूरी कड़ाई दिखाते हुए और वामपंथियों के भारी विरोध के बावजूद जो चाहा सो करवा लिया। फिर क्या वजह है कि वे अपने कार्यकाल में ठोस उपलब्धियां नहीं दिखा पा रहे हैं?

यह सब जानते हैं कि मौजूदा यूपीए सरकार की कमान दरअसल 10 जनपथ के हाथ है। पर हकीकत यह है कि हर मामले में सोनिया गांधी दखल नहीं देती। बहुत सारे ऐसे मामले हैं जिन्हें प्रधानमंत्री अपनी पहल पर देखते हैं। जिसमें उन्हें उनके द्वारा चुने गये सलाहकारों की टीम मदद करती है। ऐसी सभी क्षेत्रों में उनसे अपेक्षित कार्यकुशलता का प्रमाण न मिलना लोगों के मन में २kaका पैदा करता है।

आर्थिक उदारीकरण तो इन्होंने कर दिया पर भारत सरकार में व्याप्त लालफीताशाही में कोई कमी नहीं आई। डा¡. सिंह नेता न होकर एक सीईओ की तरह हैं, इसलिए उन्हें लालफीताशाही को खत्म करने की ठोस पहल करनी चाहिए। इसी तरह भ्रष्टाचार के मामले में वैसे तो कोई भी सरकार अपवाद नहीं रही, चाहे वह अटल बिहारी वाजपेयी की ही सरकार क्यों न हों, पर डा¡. सिंह की सरकार के मामले में जो भी विवाद सामने आये हैं उनसे निपटने में उन्होंने अपनी छवि के अनुरूप मुस्तैदी नहीं दिखाई, ऐसा क्यों?

जबसे डा¡. सिंह दूसरी बार प्रधानमंत्री बने हैं लोग अक्सर सवाल पूछते हैं कि क्या उन्हें उनके कार्यकाल के बीच में ही हटाकर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया जायेगा? इसका जवाब प्रधानमंत्री यह कह कर देते हैं कि वे युवाओं के आगे आने को खुद बढ़ावा देना चाहते हैं। राहुल गांधी भी इसका जवाब टाल जाते हैं। वे कहते हैं कि देश में एक प्रधानमंत्री है जो अच्छा काम करते हैं। अंदर की बात जानने वाले कुछ और ही कहते हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी इस सरकार की नैया मझधार में खेने को तैयार नहीं है। उन्हs डर है कि ऐसा करने से अगले लोकसभा चुनाव में उन्हें इस सरकार की नाकामयाबियों का बोझ ढोना पड़ेगा। जो उनकी अपेक्षित सफलता में पंक्चर कर सकता है। इसलिए वे अपना पूरा ध्यान पार्टी का युवा जनाधार बढ़ाने में लगा रहे हैं। ताकि एक लहर बना कर बड़ी सफलता के साथ चुनाव में जीते और अगली सरकार के प्रधानमंत्री का पद संभाले। इस दृष्टि से डा¡. सिंह के पास “ksष पूरा कार्यकाल है। यह बात वह भी जानते हैं। इसलिए उन्हें अपनी सरकार का आत्मविश्लेषण कर इसके तौर तरीके में ठोस सुधार करना चाहिए। अपने मंत्रियों को भी अपने-अपने मंत्रालय के लक्ष्य निधारित कर हर सप्ताह अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करना चाहिए।

Sunday, September 5, 2010

श्रीनगर घाटी ही पूरा कश्मीर नहीं

पिछले हफ्ते कश्मीर पर लिखे हुए लेख की काफी प्रतिक्रियाऐं आयीं। चूंकि यह लेख देश के विभिन्न प्रांतों में विभिन्न भाषाओं में छपता है, इसलिए कश्मीर में लोकप्रिय उर्दू अखबार में इसे कश्मीर के बाशिन्दों ने दिलचस्पी से पढ़ा और इसमें कश्मीर समस्या के हल के लिए सुझाए गये रास्तों से इत्तेफाक जताया। पर उन्हें नाराजगी इस बात से थी कि सारा मीडिया कश्मीर के बारे में जो कुछ लिख रहा है या टीवी पर दिखा रहा है, वह केवल श्रीनगर घाटी के लोगों के बयानों और कारनामों पर आधारित है। उनका कहना था कि आप सब मीडिया वाले श्रीनगर के आगे नहीं जाते हो, इसलिए आपको आसपास के कस्बों, पहाड़ों और जंगलों में बसने वाले कश्मीरियों के ज़ज्बात का पता नहीं है। यह सही और रोचक और तथ्य था, जिसके लिए हम मीडियाकर्मी वाकई दोषी हैं। मैंने अनेक सम्पर्कों के माध्यम से कश्मीर के अलग-अलग हिस्सों में कुछ लोगों को फोन करके जब उनके ज़ज्बात जानने चाहे तो एक अलग ही तस्वीर नज़र आई।

कश्मीर में बड़ी तादाद गूजरों की है। ये गूजर श्रीनगर के आसपास के इलाकों से लेकर दूर तक पहाड़ों में रहते हैं और भेड़-बकरी चराते हैं। ऊन और दूध का कारोबार इनसे ही चलता है। कश्मीर में रहने वाले कश्मीरी गूजर और जम्मू के क्षेत्र में रहने वाले डोगरे गूजर कहलाते हैं। इनकी तादाद काफी ज्यादा है, लगभग 30 लाख। दोनों ही इलाकों के गूजर इस्लाम को मानने वाले हैं। पर रोचक बात यह है कि घाटी के अलगाववादी नेता हों या अन्य मुसलमान नेता, गूजरों को मुसलमान नहीं मानते। पिछले दिनों सैयद अली शाह गिलानी ने एक बयान भी इनके खिलाफ दिया था जिससे गूजर भड़क गये। बाद में गिलानी को यह कहकर सफाई देनी पड़ी कि मीडिया ने उनके बयान को गलत पेश किया। हकीकत यही है कि घाटी के मुसलमान गूजरों को हमनिवाला नहीं मानते। 1990 से आज तक आतंकवादियों द्वारा कश्मीर में जितने भी मुसलमानों की हत्या हुईं हैं, उनमें से अधिकतर गूजर रहे हैं। जम्मू और कश्मीर क्षेत्र के गूजर न तो आज़ादी के पक्ष में हैं और न ही पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं। वे भारत के साथ अमन और चैन के साथ रहने के हामी हैं। कड़क जाड़े में जब बर्फ की मोटी तह कश्मीर के पहाड़ों को ढक लेती है, तब ये गूजर नीचे मैदानों में चले आते हैं ताकि मवेशियों को चारा खिला सकें। इनका मैदान से छः महीने साल का नाता है। अलगाववादियों के जितने संगठन आज जम्मू कश्मीर में सक्रिय हैं और जिनके बयान आये दिन मीडिया में छाये रहते हैं, उन संगठनों में एक भी गूजर नेता नहीं है। इसी तरह कण्डी बैल्ट के जो लोग हैं, वो पहाड़ी बोलते हैं, कश्मीरी नहीं। उनका भी घाटी के अलगाववादियों से कोई नाता नहीं है। उरी, तंगधार और गुरेज़ जैसे इलाकों के रहने वाले मुसलमान घाटी के मुसलमानों से इफाक नहीं रखते। इन्हें भी भारत के साथ रहना ठीक लगता है।

यह तो जगजाहिर है कि उत्तरी कश्मीर का लेह लद्दाख का इलाका बुद्ध धर्मावलंबियों से भरा हुआ है और जम्मू का इलाका डोगरे ठाकुरों, ब्राह्मणों व अन्य जाति के हिन्दुओं से। ज़ाहिरन यह सब भी कश्मीर को भारत का अंग मानते हैं और भारत के साथ ही मिलकर रहना चाहते हैं। इन लोगों का कहना है कि अगर ईमानदारी से और पूरी मेहनत से सर्वेक्षण किया जाए तो यह साफ हो जायेगा कि अलगाववादी मानसिकता के लोग केवल श्रीनगर घाटी में हैं और मुट्ठीभर हैं। इनका दावा है कि आतंकवाद के नाम पर गुण्डे और मवालियों के सहारे जनता के मन में डर पैदा करके यह लोग पूरी दुनिया के मीडिया पर छाये हुए हैं। सब जगह इनके ही बयान छापे और दिखाये जाते हैं। इसलिए एक ऐसी तस्वीर सामने आती है मानो पूरा जम्मू-कश्मीर भारत के खिलाफ बगावत करने को तैयार है। जबकि असलियत बिल्कुल उल्टी है। ये सब लोग प्रशासनिक भ्रष्टाचार से नाराज हैं। कश्मीर की राजनीति में लगातार हावी रहे अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार को भी पसन्द नहीं करते और स्थानीय राजनीति को बढ़ावा देने के पक्षधर हैं। पर ये अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ कतई नहीं हैं।

कश्मीर के राजौरी क्षेत्र से राजस्थान आकर वहाँ के दौसा संसदीय क्षेत्र में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले गूजर नेता कमर रब्बानी को इस चुनाव में तीन लाख वोट मिले। श्री रब्बानी का कहना है कि, ‘‘दौसा के गूजर, चाहे हिन्दु हों या मुसलमान, हमें अपना मानते हैं। इसीलिए मुझ जैसे कश्मीरी को उन्होंने तीन लाख वोट दिए। हम बाकी हिन्दुस्तान के गूजरों के साथ हैं, घाटी के अलगाववादियों के साथ नहीं।’’

कश्मीर के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से बात करने पर एक सुझाव यह भी सामने आया कि अगर केन्द्र सरकार कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू कर दे और छः महीने बढि़या शासन करने के बाद फिर चुनाव करवाए तब उसे ज़मीनी हकीकत का पता चलेगा। हाँ उसे इस लोभ से बचना होगा कि वो अपना हाथ नेशनल कांफ्रेस या पी.डी.पी. जैसे किसी भी दल की पीठ पर न रखे। घाटी के हर इलाके के लोगों को अपनी मर्जी का और अपने इलाके का नेता चुनने की खुली आज़ादी हो। वोट बेखौफ डालने का इंतजाम हो। तो कश्मीर में एक अलग ही निज़ाम कायम होगा।