Monday, April 22, 2024

लोकतंत्र अभी और परिपक्व हो


अभी आम चुनाव का प्रथम चरण ही पूरा हुआ है पर ऐसा नहीं लगता कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव जैसी कोई महत्वपूर्ण घटना घट रही है। चारों ओर एक अजीब सन्नाटा है। न तो गाँव, कस्बों और शहरों में राजनैतिक दलों के होर्डिंग और पोस्टर दिखाई दे रहे हैं और न ही लाऊडस्पीकर पर वोट माँगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय के ढाबों और पान की दुकानों पर अक्सर जमा होने वाली भीड़ भी खामोश है। जबकि पहले चुनावों में ये शहर के वो स्थान होते थे जहाँ से मतदाताओं की नब्ज पकड़ना आसान होता था। आज मतदाता खामोश है। इसका क्या कारण हो सकता है। या तो मतदाता तय कर चुके हैं कि उन्हें किसे वोट देना है पर अपने मन की बात को ज़ुबान पर नहीं लाना चाहते। क्योंकि उन्हें इसके सम्भावित दुष्परिणामों का खतरा नजर आता है। ये हमारे लोकतंत्र के स्वस्थ के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। जनसंवाद के कई लाभ होते हैं। एक तो जनता की बात नेता तक पहुँचती है दूसरा ऐसे संवादों से जनता जागरूक होती है। अलबत्ता शासन में जो दल बैठा होता है वो कभी नहीं चाहता कि उसकी नीतियों पर खुली चर्चा हो। इससे माहौल बिगड़ने का खतरा रहता है। हर शासक यही चाहता है कि उसकी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर मतदाता के सामने पेश किया जाए। इंदिरा गाँधी से नरेन्द्र मोदी तक कोई भी इस मानसिकता का अपवाद नहीं रहा है। 



आमतौर पर यह माना जाता था कि मीडिया सचेतक की भूमिका निभाएगा। पर मीडिया को भी खरीदने और नियंत्रित करने पर हर राजनैतिक दल अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च करता है। जिससे उसका प्रचार होता रहे। पत्रकारिता में इस मानसिकता के जो अपवाद होते हैं वे यथा संभव निष्पक्ष रहने का प्रयास करते हैं। ताकि परिस्थितियों और समस्याओं का सही मूल्यांकन हो सके। पर इनकी पहुँच बहुत सीमित होती है, जैसा आज हो रहा है। ऐसे में मतदाता तक सही सूचनाएँ नहीं पहुँच पातीं। अधूरी जानकारी से जो निर्णय लिए जाते हैं वो मतदाता, समाज और देश के हित में नहीं होते। जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।   


सब मानते हैं कि किसी भी देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही सबसे अच्छी होती है क्योंकि इसमें समाज के हर वर्ग को अपनी सरकार चुनने का मौका मिलता है। इस शासन प्रणाली के अन्तर्गत आम आदमी को अपनी इच्छा से चुनाव में खड़े हुए किसी भी प्रत्याशी को वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनने का अधिकार होता है। इस तरह चुने गए प्रतिनिधियों से विधायिका बनती है। एक अच्छा लोकतन्त्र वह है जिसमें  राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की व्यवस्था भी है। देश में यह शासन प्रणाली लोगों को सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं।


आज भारत में जो परिस्थिति है उसमें जनता भ्रमित है। उसे अपनी बुनियादी समस्याओं की चिंता है पर उसके एक हिस्से के दिमाग में भाजपा और संघ के कार्यकर्ताओं ने ये बैठा दिया है कि नरेन्द्र मोदी अब तक के सबसे श्रेष्ठ और ईमानदार प्रधान मंत्री हैं इसलिए वे तीसरी बार फिर जीतकर आएंगे। जबकि ज़मीनी हकीकत अभी अस्पष्ट है। क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेज़ी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं। और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए ‘इंडिया’ गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भरी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग फीका है। हालाँकि चुनाव की हवा मतदान के 24 घंटे पहले भी पलट जाती है इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। 


70 के दशक में हुए जयप्रकाश आन्दोलन के बाद से किसी भी राजनैतिक दल ने आम मतदाताओं को लोकतंत्र के इस महापर्व के लिए प्रशिक्षित नहीं किया है। जबकि अगर ऐसा किया होता तो इन दलों को चुनाव के पहले मतदाताओं को खैरात बाँटने और उनके सामने लम्बे चौड़े झूठे वायदे करने की नौबत नहीं आती। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता। जबकि आज काडर के नाम पर पैसा देकर कार्यकर्ता जुटाए जाते हैं या वे लोग सक्रिय होते हैं जिन्हें सत्ता मिलने के बाद सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। ऐसे किराये के कार्यकर्ताओं और विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव ही दल बदल का मुख्य कारण है। इससे राजनेताओं की और उनके दलों की साख तेज़ी से गिरी है। एक दृष्टि से इसे लोकतंत्र के पतन का प्रमाण माना जा सकता है। हालाँकि दूसरी ओर ये मानने वालों की भी कमी नहीं है कि इन सब आंधियों को झेलने के बावजूद भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ है। उसके करोड़ों आम मतदाताओं ने बार-बार राजनैतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। जब उसने बिना शोर मचाये अपने मत के जोर पर कई बार सत्ता परिवर्तन किये हैं। मतदाता की राजनैतिक परिपक्वता का एक और प्रमाण ये है की अब निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव लगभग समाप्त हो चला है। 1951 के आम चुनावों में 6% निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे जबकि 2019 के चुनाव में इनकी संख्या घटकर मात्र 0.11% रह गई। स्पष्ट है कि मतदाता ऐसे उम्मीदवारों के हाथ मजबूत नहीं करना चाहता जो अल्पमत की सरकारों से मोटी रकम ऐंठकर समर्थन देते हैं। मतदाताओं की अपेक्षा और विश्वास संगठित दलों और नेताओं के प्रति है यदि वे अपने कर्तव्य का सही पालन करें तो। इसलिए हमें निराश नहीं होना है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि हमारे परिवार और समाज में राजनीति के प्रति समझ बढ़े और हर मतदाता अपने मत का प्रयोग सोच समझकर करे। कोई नेता या दल मतदाता को भेड़-बकरी समझकर हाँकने की जुर्रत न करे। 

Monday, April 15, 2024

इस चुनाव में मुद्दे और माहौल क्या हैं?


इस बार का चुनाव बिलकुल फीका है। एक तरफ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदू, मुसलमान, कांग्रेस की नाकामियों को ही चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं। वहीं चार दशक में बढ़ी सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी, किसान को फसल के उचित दाम न मिलना, बेइंतहा महंगाई और तमाम उन वायदों को पूरा न करना जो मोदी जी 2014 व 2019 में किए थे - ऐसे मुद्दे हैं जिन पर भाजपा का नेतृत्व चुनावी सभाओं में कोई बात ही नहीं कर रहा। ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के बावजूद समाज में जो खाई पैदा हुई है, वो चिंताजनक है। रोचक बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी जी ने गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के मुद्दे पर लड़ा था। पता नहीं 2019 में और इस बार क्यों वे इनमें से किसी भी मुद्दों पर बात नहीं कर रहे हैं? इसलिए देश के किसान, मजदूर, करोड़ों बेरोजगार युवाओं, छोटे व्यापारियों यहां तक कि उद्योगपतियों को भी मोदी जी के भाषणों में रूचि खत्म हो गई है। उन्हें लगता है कि मोदी जी ने उन्हें वायदे के अनुसार कुछ भी नहीं दिया। बल्कि बहुत से मामलों में तो जो कुछ उनके पास था, वो भी छीन लिया गया। इसलिए यह विशाल मतदाता वर्ग भाजपा सरकार के विरोध में है। हालांकि वह अपना विरोध खुलकर प्रकट नहीं कर रहा। पर यहाँ ये उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि प्रतिव्यक्ति हर महीने 5 किलो अनाज मुफ़्त बाँटने का मोदी जी का फार्मूला कारगर रहा है। जिन्हें ये अनाज मिल रहा है वे कहते हैं कि इससे पहले कभी किसी सरकार ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं दिया। इसलिए वे मोदी जी के समर्थन में हैं।
 



पर इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों और अर्थशास्त्रियों की राय भिन्न है। वे कहते हैं कि अगर मोदी जी ने अपने वायदे के अनुसार हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार दिया होता तो अब तक 20 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिल जाता। तब हर युवा अपने परिवार के कम से कम पाँच सदस्यों का भरण पोषण कर लेता। इस तरह भारत के 100 करोड़ लोग सम्मान की ज़िंदगी जी रहे होते। जबकि आज 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन के लिए भीख का कटोरा लेकर जी रहे हैं।  


दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो मोदी जी के अन्धभक्त हैं। जो हर हाल में मोदी सरकार फिर से लाना चाहते हैं। वे मोदी जी के 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। मोदी सरकार की सब नाकामियों को वे कांग्रेस शासन के मत्थे मढ़कर पिंड छुड़ा लेते हैं। क्योंकि इन प्रश्नों का कोई उत्तर उनके पास नहीं है। अभी यह बताना असंभव है कि इस कांटे की टक्कर में ऊंट किस करवट बैठेगा। क्या विपक्षी गठबंधन की सरकार बनेगी या मोदी जी की? सरकार जिसकी भी बने, चुनौतियां दोनों के सामने बड़ी होंगी। मान लें कि भाजपा की सरकार बनती है, तो क्या हिंदुत्व के ऐजेंडे को इसी आक्रामकता से, बिना सनातन मूल्यों की परवाह किये, बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन किये सब पर थोपा जाऐगा, जैसा पिछले 10 वर्षों में थोपने का प्रयास किया गया। इसका मोदी जी को सीमित मात्रा में राजनैतिक लाभ भले ही मिल जाऐ, हिंदू धर्म और संस्कृति को स्थाई लाभ नहीं मिलेगा।



भाजपा व संघ दोनों ही हिंदू धर्म के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं, पर सनातन हिंदू धर्म की मूल सिद्धांतों से परहेज करते हैं। सैंकड़ों वर्षों से हिंदू धर्म के स्तंभ रहे शंकराचार्य ये मानते हैं कि जिस तरह का हिंदूत्व मोदी और योगी राज में पिछले कुछ वर्षों में प्रचारित और प्रसारित किया गया, उससे हिंदू धर्म का मजाक ही उड़ा है। केवल नारों और जुमलों में ही हिंदू धर्म का हल्ला मचाया गया। हाँ उज्जैन, काशी, अयोध्या, केदारनाथ आदि धर्मस्थलों पर भगवान के विशाल मंदिरों के निर्माण से हिंदू समाज में अपनी पहचान के लिए जागरूकता बढ़ी है। पर इसके अलावा जमीन पर ठोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे ये सनातन परंपरा पल्लवित-पुष्पित होती। इस बात का हम जैसे सनातनधर्मियों को अधिक दुख है। क्योंकि हम साम्यवादी विचारों में विश्वास नहीं रखते। हमें लगता है कि भारत की आत्मा सनातन धर्म में बसती है और वो सनातन धर्म विशाल हृदय वाला है। जिसमें नानक, कबीर, रैदास, महावीर, बुद्ध, तुकाराम, नामदेव सबके लिए गुंजाइश है। वो संघ और भाजपा की तरह संकुचित हृदय नहीं है, इसलिए हजारों साल से पृथ्वी पर जमा हुआ है। जबकि दूसरे धर्म और संस्कृतियां अपनी अहंकारी नीतियों के कारण कुछ सदियों के बाद धरती के पर्दे पर से गायब हो गए।


संघ और भाजपा के राजनैतिक हिंदू ऐजेंडा से उन सब लोगों का दिल टूटता है, जो हिंदू धर्म और संस्कृति के लिए समर्पित हैं, ज्ञानी हैं, साधन-संपन्न हैं पर उदारमना भी है। क्योंकि ऐसे लोग धर्म और संस्कृति की सेवा डंडे के डर से नहीं, बल्कि श्रद्धा और प्रेम से करते हैं। जिस तरह की मानसिक अराजकता पिछले 5 वर्षों में भारत में देखने में आई है, उसने भविष्य के लिए बड़ा संकट खड़ा दिया है। अगर ये ऐसे ही चला, तो भारत में दंगे, खून-खराबे और बढ़ेगे। जिसके परिणामस्वरूप भारत का विघटन भी हो सकता है। इसलिए संघ और भाजपा को इस विषय में अपना नजरिया क्रांतिकारी रूप में बदलना होगा। तभी आगे चलकर भारत अपने धर्म और संस्कृति की ठीक रक्षा कर पायेगा, अन्यथा नहीं। अलबत्ता हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए अगर संघ का संगठन सक्रिय रहता है तो सनातनधर्मियों को अच्छा लगेगा।


जहां तक ‘इंडिया’ गठबंधन की बात है, ये आश्चर्यजनक तथ्य है कि समय और अवसर दोनों प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हुए भी इस गठबंधन का सामूहिक नेतृत्व वो एकजुटता और आक्रामकता नहीं दिखा पा रहा जो उसे बड़ी सफलता की ओर ले जा सकती थी। फिर भी ‘इंडिया’ के समर्थकों का विश्वास है कि इस बार का चुनाव ‘विपक्ष बनाम भाजपा’ नहीं बल्कि आम ‘जनता बनाम भाजपा’ की तर्ज़ पर लड़ा जाएगा, जैसा आपातकाल के बाद 1977 में लड़ा गया था। वैसे अगर राज्यवार आँकलन किया जाए तो गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक राजस्थान को छोड़ कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं है जहां भाजपा विपक्षी दलों के सामने कमज़ोर नहीं है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। 


लोकतंत्र की खूबसूरती इस बात में है कि मतभेदों का सम्मान किया जाए, समाज के हर वर्ग को अपनी बात कहने की आजादी हो, चुनाव जीतने के बाद, जो दल सरकार बनाए, वो विपक्ष के दलों को लगातार कोसकर या चोर बताकर, अपमानित न करें, बल्कि उसके सहयोग से सरकार चलाए। क्योंकि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। चुनावी बाँड के तथ्य उजागर होने के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी जी की सरकार भी इसकी अपवाद नहीं रही। इसलिए और भी सावधानी बरतनी चाहिए।

Monday, April 8, 2024

जल संकट के बढ़ते ख़तरे


बेंगलुरु में भीषण पेयजल संकट पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन रहा है। हाल ही में कर्नाटक के मुख्य मंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि बेंगलुरु को हर दिन 500 मिलियन लीटर पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जो शहर की दैनिक कुल मांग का लगभग पांचवां हिस्सा है। सीएम ने कहा कि बेंगलुरु के लिए अतिरिक्त आपूर्ति की व्यवस्था की जा रही है।


हालाँकि, पानी की कमी केवल बेंगलुरु तक ही सीमित नहीं है, और न ही यह केवल पीने के पानी की समस्या है। संपूर्ण कर्नाटक राज्य, साथ ही तेलंगाना और महाराष्ट्र के निकटवर्ती क्षेत्र भी पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका अधिकांश संबंध पिछले एक वर्ष में इस क्षेत्र में सामान्य से कम वर्षा और इस क्षेत्र में भूमिगत जलभृतों की प्रकृति से है।

 


अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।

 

दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेज़ी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेज़ी से गिरता चला जाएगा।

 


आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास मॉडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

Monday, April 1, 2024

मुख़्तार अंसारी की मौत से सबक़


माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख़्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफ़ियाओं का सफ़ाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफ़ियाओं को संरक्षण न मिलता हो। फ़र्क़ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफ़ियाओं को ही निशाने पर रखता है अपने दल के अपराधियों की तरफ़ से आँख मूँद लेता है। ये सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है।



आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंदियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएँ? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु बल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। 



जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएँ, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएँ उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेक़सूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हाँ ये ज़रूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक ज़रूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ़ कम नहीं हुआ। 



90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफ़सरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आजतक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रचीं नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं। 


ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के  व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है। 


जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुँह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख़्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ़्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि   को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ़ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।      

Monday, March 25, 2024

आम आदमी की पहुंच हो न्यायपालिका तक: डीवाई चंद्रचूड़


हाल ही में देश की शीर्ष अदालत द्वारा दिये गये कई अहम फ़ैसलों से देश में न्यायिक सक्रियता अचानक बढ़ने लग गई है। इसके पीछे देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ डी वाई चंद्रचूड़ की अहम भूमिका को देखा जा रहा है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ का एक राष्ट्रीय टीवी चैनल को दिया गया इंटरव्यू चर्चा में आया है। जब से जस्टिस चंद्रचूड़ ने भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सम्भाला है तभी से देश की शीर्ष अदालत में कई परिवर्तन देखने को मिले हैं। ऐसे कई क्रांतिकारी कदम उठाए गए हैं जो वकीलों, याचिकाकर्ताओं, पत्रकारों और आम जनता के लिए फ़ायदेमंद साबित हुए हैं।
 



देश भर के नागरिकों को संदेश देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, सुप्रीम कोर्ट हमेशा भारत के नागरिकों के लिए मौजूद है। चाहे वे किसी भी धर्म के हों, किसी भी सामाजिक स्थिति के हों, किसी भी जाति अथवा लिंग के हों या फिर किसी भी सरकार के हों। देश की सर्वोच्च अदालत के लिए कोई भी मामला छोटा नहीं है। इस संदेश से उन्होंने देश भर के आम नागरिकों को यह विश्वास दिलाया है कि न्यायपालिका की दृष्टि में कोई भी मामला छोटा नहीं है। जस्टिस चंद्रचूड़ आगे कहते हैं कि, कभी-कभी मुझे आधी रात को ई-मेल मिलते हैं। एक बार एक महिला को मेडिकल अबॉर्शन की जरूरत थी। मेरे स्टाफ ने मुझसे देर रात संपर्क किया। हमने अगले दिन एक बेंच का गठन किया। किसी का घर गिराया जा रहा हो, किसी को उनके घर से बाहर किया जा रहा हो, हमने तुरंत मामले सुने। इससे यह बात साफ़ है कि देश की सर्वोच्च अदालत देश के हर नागरिक को न्याय दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है।



सूचना और प्रौद्योगिकी का हवाला देते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी संदेश दिया कि देश की सर्वोच्च अदालत अब केवल राजधानी दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। इंटरनेट के ज़रिये अब देश के कोने-कोने में हर कोई अपने फ़ोन से ही सुप्रीम कोर्ट से जुड़ सकता है। आज हर वो नागरिक चाहे वो याचिकाकर्ता न भी हो देश की शीर्ष अदालत में हो रही कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख सकता है। इस कदम से पारदर्शिता बढ़ी है। जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, अदालतों पर जनता का पैसा खर्च होता है, इसलिए उसे जानने का हक है। पारदर्शिता से जनता का भरोसा हमारे काम पर और बढ़ेगा। 



टेक्नोलॉजी पर बात करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, टेक्नोलॉजी के जरिए आम लोगों तक इंसाफ पहुंचाना मेरा मिशन है। टेक्नोलॉजी के जमाने में हम सबको साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं। हर किसी के पास महँगा स्मार्ट फ़ोन या लैपटॉप नहीं है। केवल इस कारण से कोई पीछे ना छूटे, इसके लिए हमने देश भर की अदालतों में ‘18000 ई-सेवा केंद्र’ बनाए हैं। इन सेवा केंद्रों का मकसद सारी ई-सुविधाएं एक जगह पर मुहैया कराना है। यह एक अच्छी पहल है जो स्वागत योग्य है। ज़रा सोचिए पहले के जमाने में जब किसी को किसी अहम केस की जानकारी या उससे संबंधित दस्तावेज चाहिए होते थे तो उसे दिल्ली के किसी वकील से संपर्क साध कर कोर्ट की रजिस्ट्री से उसे निकलवाना पड़ता था, जिसमें काफ़ी समय ख़राब होता था। परंतु आधुनिक टेक्नोलॉजी के ज़माने में अब यह काम मिनटों हो जाता है। 



टेक्नोलॉजी के अन्य फ़ायदे बताते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, 29 फ़रवरी 2024 तक वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये देश भर की अदालतों में लगभग 3.09 करोड़ केस सुने जा चुके हैं। इतना ही नहीं देश भर के क़रीब 21.6 करोड़ केसों का सारा डेटा इंटरनेट पर उपलब्ध है। इसके साथ ही क़रीब 25 करोड़ फ़ैसले भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यह देश की न्यायपालिका के लिए उठाया गया एक सराहनीय कदम है।


महिला सशक्तिकरण को लेकर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि, फ़रवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट में 12 महिला वकीलों को वरिष्ठ वकील की उपाधि दी गई। अगर आज़ादी के बाद से 2024 की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट में केवल 13 वरिष्ठ महिला अधिवक्ता थीं। यह एक बड़ी उपलब्धि है। इतना ही नहीं आज सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही महिला रजिस्ट्रार देश के कोने-कोने से आई हुई हैं। ये वो न्यायिक अधिकारी हैं जो ज़िला अदालत की वरिष्ठ न्यायाधीश होती हैं। वे अपने अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों की सहायता कर रहीं हैं। इनके अनुभव पर ही सुप्रीम कोर्ट को देश भर की अदालतों के लिए योजनाएँ बनाने में मदद मिलती है जो न्यायिक प्रक्रिया को जनता के लिए लाभकारी बनाती है। इसके साथ ही हम इस बात पर भी ध्यान देते हैं कि महिलाओं को कोर्ट में काम करते समय एक सुरक्षित व सम्मानित वातावरण भी मिले।


इस साक्षात्कार का सबसे रोचक पक्ष है जस्टिस चंद्रचूड़ की दिनचर्या का खुलासा। वे गत 25 वर्षों से रोज़ सुबह 3.30 बजे उठते हैं। फिर योग, ध्यान, अध्ययन और चिंतन करते हैं। वे दूध से बने पदार्थ नहीं खाते बल्कि फल सब्ज़ियों पर आधारित खुराक लेते हैं। हर सोमवार को व्रत रखते हैं। इस दिन साबूदाना की खिचड़ी या फिर अधिक मात्रा में रामदाना प्रयोग करते हैं। जोकी सबसे सस्ता, हल्का और सुपाच्य खाद्य है। रोचक बात ये है कि उनकी पत्नी, जिन्हें वे अपना सबसे अच्छा मित्र मानते हैं, इस दिनचर्या में उनका पूरा साथ निभाती हैं। आज के दौर में जब प्रदूषण व मिलावट के चलते हर आम आदमी ज़हर खाने को मजबूर है और तनाव व बीमारियों से ग्रस्त है, जस्टिस चंदचूड़ का जीवन प्रेरणास्पद है।


जस्टिस चंद्रचूड़ को शायद याद होगा कि 1997 से 2000 के बीच सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीशों के अनैतिक आचरण पर मैंने कई बड़े खुलासे किए थे। जिनकी चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हुई थी। जबकि भारत का मीडिया अदालत की अवमानना क़ानून के डर से ख़ामोश रहा। मुझे अकेले एक ख़तरनाक संघर्ष करना पड़ा। तब मेरी उम्र मात्र 42 वर्ष थी। इसलिए तब मेरा विरोध ‘अदालत की अवमानना क़ानून के दुरूपयोग’ को लेकर भी बहुत प्रखर था। इस पर मैंने एक पुस्तक भी लिखी थी जो अब मैं जस्टिस चंद्रचूड़ को इस आशा से भेजूँगा कि वो इस मामले पर भी सर्वोच्च अदालत की तरफ़ से निचली अदालतों को स्पष्ट निर्देश जारी करें। अदालतों की पारदर्शिता स्थापित करने में ये एक बड़ा कदम होगा। 

Monday, March 11, 2024

अखिलेश यादव क्यों हैं सबसे अलग ?


कुछ वर्ष पहले जब मैंने अपने इसी कॉलम में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए ममता दीदी के सादगी भरे जीवन पर लेख लिखा था तो एक ख़ास क़िस्म की मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने मुझे ट्विटर (अब एक्स) पर गरियाने का प्रयास किया। पिछले हफ़्ते जब मैंने संदेशख़ाली की घटनाओं के संदर्भ में ममता बनर्जी की कड़ी आलोचना की तो उन लोगों में ये नैतिक साहस नहीं हुआ कि एक्स पर लिखें मान गये कि आप निष्पक्ष पत्रकार हैं। 


इसी तरह 2003 में जब मैंने सोनिया गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए एक लेख लिखा था जिसमें दोनों के गुण दोषों का ज़िक्र था तो कुछ मित्रों ने पूछा तुम किस तरफ़ हो ये समझ में नहीं आता। मैंने पलटकर पूछा कि क्या कोई पत्रकार बिना तरफ़दारी के अपनी समझ से सीधा खड़ा नहीं रह सकता? क्या उसका एक तरफ़ झुकना अनिवार्य है? 



आज के हालात ऐसे ही हो गए हैं जिनमें विरला ही होगा जो बिना झुके खड़ा रहे। प्रायः सब अपने-अपने आकाओं के आँचल की छाँव में फल-फूल रहे हैं। जनता का दुख-दर्द, लिखे जा रहे तर्कों की प्रामाणिकता, पत्रकारिता में निष्पक्षता, सब गयी भाड़ में। अब तो पत्रकारिता का धर्म है कि अपना मुनाफ़ा क्या लिखने या बोलने में है, उसे बिना झिझके एलानिया करो। 


दरअसल हर लेख की विषय वस्तु के अनुसार उसके समर्थन में संदर्भ खोजे जाते हैं। किसी एक लेख में हर व्यक्ति की हर बात का इतिहास लिखना मूर्खता है। ये सब भूमिका इसलिए कि आज मैं राजनैतिक लोगों के बिगड़ते बोलों पर चर्चा करूँगा। तो कुछ सिरफिरे कहेंगे कि मैं फ़लाँ के भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं लिख रहा। तो क्या ऐसे लोग बता सकते हैं कि आज देश का कौनसा बड़ा नेता या राजनैतिक दल है जो आकंठ भ्रष्टाचार में नहीं डूबा? या देश में कौनसा नेता है जो अपने दल की आय-व्यय का ब्यौरा देश के सामने खुलकर रखने में हिचकिचाता नहीं है? 


आज का लेख इन नेताओं और इनके कार्यकर्ताओं की भाषा पर केंद्रित है जो दिनोंदिन रसातल में जा रही है। अब तो कुछ सांसद संसद के सत्र तक में हर मर्यादा का खुलकर उल्लंघन करने लगे हैं। उनकी भाषा गली मौहल्ले से भी गयी बीती हो गयी है। सोचिए देश के करोड़ों बच्चों, युवाओं और बाक़ी देशवासियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? 



ग़नीमत है ऐसे कुछ सांसदों के टिकट इस बार कट रहे हैं। पर इतना काफ़ी नहीं है। हर दल के नेताओं को इस गिरते स्तर को उठाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। अपने कार्यकर्ताओं और ‘ट्रोल आर्मीज़’ को राजनैतिक विमर्श में संयत भाषा का प्रयोग करने के कड़े आदेश देने होंगे। ऐसा नैतिक साहस वही नेता दिखा सकता है जिसकी  ख़ुद की भाषा में संयम हो।  


इस संदर्भ में मैं अखिलेश यादव के आचरण का उल्लेख करना चाहूँगा। मेरी नज़र में अपनी कम आयु के बावजूद जिस तरह का परिपक्व आचरण व विरोधियों के प्रति भी संयत और सम्माजनक भाषा का प्रयोग अखिलेश यादव करते हैं ऐसे उदाहरण देश की राजनीति में कम ही मिलेंगे। 



मेरा अखिलेश यादव से परिचय 2012 में हुआ था जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने। मैं मथुरा के विकास के संदर्भ में उनसे मिलने गया था। ब्रज सजाने के लिए उनका उत्साह और तुरंत सक्रियता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मथुरा की हमारी सांसद हेमा मालिनी तक अखिलेश के इस व्यवहार की मुरीद हैं। 2012 से आज तक मैंने अखिलेश यादव के मुँह से कभी भी किसी के भी प्रति न तो अपमानजनक भाषा सुनीं न उन्हें किसी की निंदा करते हुए सुना। विरोधियों को भी सम्मान देना और उनके सही कामों को तत्परता से करना अखिलेश यादव की एक ऐसी विशेषता है जो उनके क़द को बहुत बड़ा बना देती है। 


कई बार कुंठित या चारण क़िस्म की पत्रकारिता करने वाले टीवी एंकर अखिलेश यादव को उकसाने की बहुत कोशिश करते हैं। पर वो बड़ी शालीनता से उस स्थिति को सम्भाल लेते हैं। क्या आज हर दल और नेता को इससे कुछ सीखना नहीं चाहिए? सोचिए अगर ऐसा हो तो उससे देश का राजनैतिक माहौल कितना ख़ुशगवार बन जाएगा। टीवी शो हों या सोशल मीडिया आज हर जगह गाली-गलौज की भाषा सुन-सुनकर देशवासी पक गये हैं।


अखिलेश यादव जैसे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को जो लोग बात-बात पर टोंटी चोर कहकर अपमानित करते हैं उन्हें अपने दल के नेताओं के भी आचरण और कारनामों को भूलना नहीं चाहिए। कोई दूध का धुला नहीं है। टोंटी चोर, फेंकू, जुमलेबाज़, चारा चोर, पप्पू - ऐसी सब भाषा अब इस चुनाव की राजनीति में बंद होनी चाहिए। इस भाषा से ऐसा बोलनेवालों का केवल छिछोरापन दिखाए देता है और देश के सामने मौजूद गंभीर विषयों से ध्यान हट जाता है। कौन सा नेता या दल कितने पानी में ये जनता सब जानती है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें वो वोट देती हैं उन्हें वो पाक साफ़ मानती है। उन्हें वोट देने के उसके कई दूसरे कारण भी होते हैं। इसलिए ज़्यादा वोट पाकर चुनाव जीतने वाले को अपने महान होने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। क्योंकि किसी और को पता हो न हो अपनी असलियत उससे तो कभी छिपी नहीं होती। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि सारी सृष्टि प्रकृति के तीन गुणों: सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से नियंत्रित है। जिसका कोई भी अपवाद नहीं। हाँ कौन सा गुण किसमें अधिक या क़िसमें कम है, ये अंतर ज़रूर रहता है। पर तमोगुण से रहित तो केवल विरक्त संत या भगवान ही हो सकते हैं, हम और आप नहीं। राजनेता तो कभी हो ही नहीं सकते। क्योंकि राजनीति तो है ही काजल की कोठरी उसमें से उजला कौन निकल पाया है?इसलिए कहता हूँ भाषा सुधारो-देश सुधरेगा। क्यों ठीक है न? 

Monday, March 4, 2024

संदेशखाली : नया नहीं है अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण


पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं से यौन उत्पीड़न और जमीन हड़पने के आरोपी तृणमूल कांग्रेस के नेता शेख शाहजहां जिस तरह कोर्ट में पेश होता हुआ दिखाई दिया उससे उसको मिल रहे राजनैतिक संरक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता। इस कारण टीएमसी नेता और पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आरोपों के घेरे में हैं। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ऐसी क्या मजबूरी होती है कि बिना अपवाद की सभी राजनैतिक पार्टियों को कुख्यात अपराधियों को संरक्षण देना पड़ता है? यह बात नई नहीं है कि भोले-भले वोटरों के बीच भय पैदा करने के उद्देश्य से सभी राजनैतिक दल स्थानीय अपराधियों और माफ़ियाओं को संरक्षण देते हैं। लोकतंत्र की दृष्टि से क्या यह सही है?
 



जैसे ही संदेशखाली के आरोपी शेख शाहजहां के मामले ने तूल पकड़ा उसे टीएमसी ने 6 साल के लिए पार्टी से निलंबित कर दिया है। पार्टी के इस फैसले का ऐलान करते हुए टीएमसी नेता डेरेक ओ' ब्रायन ने अन्य राजनैतिक दलों पर तंज कसते हुए कहा कि एक पार्टी है, जो सिर्फ बोलती रहती है। तृणमूल जो कहती है, वो करती है। परंतु यहाँ सवाल उठता है कि ये काम पहले क्यों नहीं किया? क्या कोर्ट में पेश होते समय शेख शाहजहां की जो चाल-ढाल थी उससे इस निष्कासन का कोई मतलब रह गया है? पश्चिम बंगाल की पुलिस शेख शाहजहां के साथ अन्य अपराधियों की तरह बरताव क्यों नहीं कर रही थी? क्या शेख शाहजहां का निलंबन केवल एक औपचारिकता है और असल में उसे भी अन्य राजनैतिक अपराधियों की तरह जेल में वो पूरी ‘सेवाएँ’ दी जाएँगी जो हर रसूखदार क़ैदी को मिलती है? 



जहां तक पश्चिम बंगाल की मुख्य मंत्री ममता बनर्जी का सवाल है उन पर यह आरोप अक्सर लगते आए हैं कि वे अपने प्रदेश में अल्पसंख्यक वर्ग के अपराधियों को संरक्षण देती आई हैं। इतना ही नहीं कई बार तो वे ऐसे अपराधियों को अपनी पार्टी का कार्यकर्ता बताते हुए उसे पुलिस थाने से छुड़ाने भी गईं हैं। यहाँ सवाल उठता है कि जब भी कभी आप अपने घर या कार्यालय में किसी को काम करने के लिए रखने की सोचते हैं तो उसके बारे में पूरी छान-बीन अवश्य करते हैं। ठीक उसी तरह जब कोई राजनैतिक दल अपने वरिष्ठ कार्यकर्ता या नेता को कोई ज़िम्मेदारी देता है तो भी वे इसकी जाँच अवश्य करते होंगे कि वो व्यक्ति पार्टी और पार्टी के नेताओं के लिए कितना कामगार सिद्ध होगा। यदि ममता बनर्जी जैसी अनुभवी नेता से ऐसी भूल लगातार होती आई है तो इसे भूल नहीं कहा जाएगा। 



वहीं अगर दूसरी ओर देखा जाए तो विपक्षी दलों का आरोप है कि भाजपा भी अपराधियों को संरक्षण देने में किसी से पीछे नहीं है। मामला चाहे महिला पहलवानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले नेता ब्रज भूषण शरण सिंह का हो या किसानों पर गाड़ी चढ़ाने वाले गृह राज्यमंत्री के बेटे का हो या बलात्कार करने वाले कुलदीप सिंह सेंगर का हो। मणिपुर में हुई हिंसा और बलात्कार के दर्जनों घटनाएँ हों। बीजेपी शासित राज्यों में हिंसा, बलात्कार और अन्य अपराधों में लिप्त भाजपा के नेताओं की लिस्ट भी काफ़ी लंबी है। 



चुनाव सुधार पर काम करने वाले संगठन 'एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स' (एडीआर) की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार लगभग 40% मौजूदा सांसदों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 25% हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध जैसे गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। बावजूद इसके उन्हें सांसद या विधायक बनाकर सदन में बिठा दिया जाता है। इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि 763 मौजूदा सांसदों में से 306 सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही 194 सांसदों ने ख़ुद पर गंभीर आपराधिक मामले होने की घोषणा अपने नामांकन प्रपत्र में घोषित की है। 


देश में अपराधियों को मिल रहे राजनैतिक संरक्षण पर आज तक अनेकों रिपोर्टें बनीं और उनमें इस समस्या से निपटने के लिए कई सुझाव भी दिये गये। परंतु अपराधियों, नेताओं और नौकरशाही के इस गठजोड़ के चक्रव्यूह को अभी तक भेदा नहीं जा सका। यदि कोई भी राजनैतिक दल ठान ले कि वो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को अपने दलों में संरक्षण नहीं देगा तो इस समस्या का समाधान अवश्य निकल सकता है। 


जो भी राजनैतिक दल यदि केंद्र या राज्य में सत्ता में हों और यदि उसके समक्ष उसी के दल के किसी सदस्य या नेता के ख़िलाफ़ संगीन आरोप लगते हैं तो उन्हें इस पर उस दल के बड़े नेताओं को तुरंत कार्यवाही करनी चाहिए। देश की अदालतों के हस्तक्षेप का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी ऐसा दल अपने किसी कार्यकर्ता या नेता के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाएगा तो मतदाताओं की नज़र में उस दल का क़द काफ़ी ऊँचा उठेगा। इसके साथ ही वो दल दूसरे दलों पर अपराधियों को संरक्षण देने के मामले में बढ़-चढ़ कर शोर भी मचा सकेगा। 


इसके साथ ही भारतीय पुलिस तंत्र में भी ठोस सुधार किये जाने चाहिए। राष्ट्रीय पुलिस आयोग व वोरा समिति द्वारा दिये गये सुझावों को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। ऐसे सुधारों के प्रति हर सरकार का ढुल-मुल रवैया रहा है जो ठीक नहीं है। पुलिस तंत्र को प्रभावी बनाना, उसे हर तरह के राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना, नेताओं, अफसरों व पुलिस के गठजोड़ को खत्म करना सरकार की मुख्य प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। हालिया मसले में देखें, तो जहां तक अदालत में पेश करने का मामला है, वह तो समझ में आता है, पर कोई व्यक्ति अगर किसी राजनैतिक दल संरक्षण में है, तो उसके साथ पुलिस का व्यवहार एक मामूली अपराधी की तरह होगा यह कहना मुश्किल है। यदि पुलिस राजनैतिक दबाव से बाहर रहे तो वो बिना किसी डर के राजनैतिक अपराधियों के साथ क़ानून के दायरे में रहकर अपना कर्तव्य निभाएगी।  


देश के तमाम राजनैतिक दल भारत को अपराध मुक्त करने का दावा तो अवश्य करते हैं पर क्या इसे आचरण में लाते हैं? क्या अपने-अपने दलों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करना और जनता के सामने अपराध मुक्ति के बड़े-बड़े दावे करना विरोधाभास नहीं हैं? यदि चुनाव आयोग या देश की सर्वोच्च अदालत कुछ कड़े कदम उठाए और राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों पर पूरी तरह रोक लग जाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। परंतु ऐसा कब होगा देश के मतदाताओं को इसका इंतज़ार रहेगा।