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Monday, November 3, 2025

चुनावी मौसम में पत्रकारों का कर्तव्य

भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी जनता है और इस जनता की आवाज़ बनने का दायित्व पत्रकारों पर है। चुनाव वह समय होता है जब यह शक्ति सबसे अधिक सक्रिय होती है, जब जनता अपने मत से आने वाले पाँच वर्षों की दिशा तय करती है। ऐसे निर्णायक समय में मीडिया की भूमिका केवल सूचना देने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि वह एक प्रहरी यानी ‘वॉचडॉग’ की भूमिका निभाता है। दुर्भाग्य से, आज के परिदृश्य में कई बार यह प्रहरी सार्वजनिक हित का रक्षक बनने के बजाय सत्ता या किसी दल का प्रचारक बनता दिखता है। यही वह विमर्श है जिस पर विचार होना चाहिए, कि पत्रकारों और एंकरों को क्यों और कैसे अपनी मूल भूमिका निभानी चाहिए, न कि पीआर (पब्लिक रिलेशन) पेशेवर बन जाना चाहिए।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य हमेशा सत्य का अन्वेषण रहा है। पत्रकार न तो किसी नेता के समर्थक होते हैं, न विरोधी, वे केवल जनता के प्रतिनिधि हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रेस का काम जनता को सरकार की भूलों से सतर्क करना है, सरकार का मुखपत्र बनना नहीं। जब चुनाव आते हैं, तो यही भूमिका और भी संवेदनशील हो जाती है क्योंकि इस समय जनता को सूचित निर्णय लेने के लिए निष्पक्ष जानकारी चाहिए होती है। यदि मीडिया इस समय भ्रम फैलाए या किसी पक्ष के प्रचार का माध्यम बने, तो लोकतंत्र की आत्मा को आघात पहुँचता है।


पत्रकारिता एक सार्वजनिक सेवा है, जबकि पीआर एक निजी हित का कारोबार। दोनों के स्वरूप में मूलभूत अंतर है। जहाँ पत्रकारिता का उद्देश्य सत्य और पारदर्शिता है, वहीं पीआर का उद्देश्य छवि निर्माण होता है, और वह भी किसी व्यक्ति या संगठन के हित में। जब कोई पत्रकार या एंकर अपने मंच का उपयोग किसी नेता की छवि चमकाने या विरोधी को बदनाम करने के लिए करता है, तो वह पत्रकार नहीं, पीआर एजेंट बन जाता है। यह स्थिति न केवल उसकी पेशेवर आचारसंहिता का उल्लंघन करती है, बल्कि जनता के साथ विश्वासघात भी है।

चुनाव कवरेज अक्सर टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज रूप ले लेता है। लेकिन वास्तविक पत्रकारिता की परीक्षा इसी समय होती है जब दबाव हो, आकर्षण हो और फिर भी कोई पत्रकार निष्पक्ष रह पाए। पत्रकारों को चाहिए कि वे चुनावी खबरों में तथ्यों की पुष्टि करें, उम्मीदवारों के वादों की जांच करें और जनता से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखें, न कि केवल रैलियों की भीड़ या विवादों की गहमागहमी को।

एंकरों के लिए भी यह समय आत्म-संयम का होता है। उनसे अपेक्षा है कि वे मंच पर दोनों पक्षों को बराबर अवसर दें, तर्क पर तर्क से जवाब लें और चुनावी बहस को ‘शोर’ नहीं बल्कि ‘संवाद’ में बदलें। पत्रकारों व एंकरों का उद्देश्य दर्शकों को किसी दल की मनोवैज्ञानिक दिशा में मोड़ना नहीं, बल्कि उन्हें सोचने के लिए प्रेरित करना होना चाहिए।


लोकतंत्र में पत्रकार सत्ता का संतुलन बनाए रखने वाले चौथे स्तंभ का प्रतिनिधि है। चुनाव काल में जब राजनीतिक दल वादों की बाढ़ लाते हैं, तब मीडिया का दायित्व है कि वह इन वादों की जांच करे। कौन से वादे व्यवहारिक हैं, कौन से केवल भाषणों की सजावट। इसके अलावा, मीडिया को यह भी देखना चाहिए कि क्या चुनावी प्रक्रिया पारदर्शी है? क्या प्रशासन और चुनाव आयोग निष्पक्ष हैं? क्या मतदाता को स्वतंत्र रूप से वोट डालने का अवसर मिल रहा है? यदि पत्रकार यह निगरानी न करें, तो सत्ता और धनबल का उपयोग करके जनमत को गुमराह करने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में पत्रकार ही वह दीवार है जो जनतंत्र को ‘विज्ञापनतंत्र’ बनने से बचा सकती है। 


सच्चा पत्रकार अपनी राय ज़रूर रख सकता है, लेकिन उसे तथ्यों की सत्यता से कभी समझौता नहीं करना चाहिए। उसे चाहिए कि वह हर रिपोर्ट में स्रोत स्पष्ट करे, हर दावा परखे और किसी भी राजनीतिक संदेश को प्रसारित करने से पहले उसकी विश्वसनीयता सुनिश्चित करे। पत्रकारिता में ‘निष्पक्षता’ का अर्थ यह नहीं कि सबकी बात एक समान मानी जाए, बल्कि यह कि सच्चाई के प्रति वफ़ादारी रखी जाए, चाहे वह सत्ता के खिलाफ़ हो या विपक्ष के।

एंकरों को भी समझना होगा कि उनका मंच और चैनल एक भरोसे का प्रतीक है। यदि वे उसी मंच से किसी विशेष पार्टी के प्रवक्ता बन जाएँ, तो वह भरोसा टूट जाता है। ट्रोल्स के प्रभाव, कॉर्पोरेट दबाव और राजनीतिक समीकरणों के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन अवश्य है, पर यही कठिनाई पत्रकारिता को सम्मान दिलाती है।


आज के युग में सोशल मीडिया ने सूचना का लोकतंत्रीकरण किया है, लेकिन अफवाहों और आधी सच्चाईयों के प्रसार का खतरा भी बढ़ा है। इस वातावरण में टीवी और प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। उन्हें चाहिए कि वे त्वरित सुर्खियों से आगे बढ़कर पड़ताल करें, डेटा और दस्तावेज़ों पर आधारित रिपोर्ट तैयार करें और जनता को यह सिखाएँ कि सच्ची खबर कैसे पहचानी जाए। यदि पत्रकार भी सिर्फ़ ट्रेंड या वायरल वीडियो के पीछे भागने लगे, तो वह समाज को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित करेगा।

आज चुनाव के मौसम में पत्रकारों को आत्ममंथन की ज़रूरत है। क्या वे अपनी रिपोर्टों से जनता को सशक्त बना रहे हैं या किसी राजनीतिक पार्टी या कॉर्पोरेट घराने के एजेंडे को मज़बूत कर रहे हैं? क्या उनके सवाल जनता के प्रश्न हैं या टीआरपी के लिए रचे गए नाटक? लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहेगा जब पत्रकार अपने पेशे की आत्मा को जिंदा रखेंगे।  जब वे सत्ता से नहीं, बल्कि जनता से डरेंगे। ‘वॉचडॉग’ बनने का अर्थ है सत्ता पर निगाह रखना, अन्याय पर सवाल करना और जनता के अधिकारों की रक्षा करना। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या नगरपालिका का, मीडिया का धर्म एक ही है: सच दिखाना, पूरी ईमानदारी से, चाहे किसी को असुविधा ही क्यों न हो।

पत्रकारिता केवल करियर नहीं, बल्कि लोकसेवा का माध्यम है। यदि पत्रकार और एंकर इस आत्मा को पहचान लें और चुनावी मौसम में पीआर के प्रभाव से ऊपर उठकर तटस्थ प्रहरी बनें, तो लोकतंत्र की नींव और अधिक मजबूत होगी। जनमत जागरूक होगा, सत्ता जवाबदेह बनेगी और भारत की लोकतांत्रिक परंपरा सच्चे अर्थों में सशक्त होगी। 

Monday, May 29, 2023

तो मुझे क्या


एक मुल्ला जी मस्जिद के बाहर बैठे थे। उनसे एक शरारती लड़के ने पूछा,
मुल्ला जी आपके पड़ोस में शादी है और आप यहाँ बैठे हैं। मुल्ला जी ने जवाब दिया, तो मुझे क्या? लड़के ने फिर छेड़ा, सुना है वो आपके यहाँ मिठाई भेजने वाले हैं। मुल्ला जी पलट कर बोले, तो तुझे क्या? अब किसी देश का प्रधान मंत्री पैर छुए या बॉस कह कर संबोधित करे। स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए या गर्मजोशी से झप्पी डाले तो इस पर भारत के मतदाताओं का जवाब होगा, तो मुझे क्या? 



कर्नाटक चुनाव में करारी हार के बाद भाजपा के ख़ेमे में बहुत घबराहट है। प्रधान मंत्री मोदी की अन्तराष्ट्रीय छवि को मार्केट करके इस घबराहट से ध्यान हटाने की कोशिश कि जा रही है। ऑस्ट्रेलिया में होने वाली क्वाड नेताओं की बैठक अमरीका के राष्ट्रपति जो बाईडेन के न आ पाने के कारण स्थगित कर दी गई थी। फिर भी मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये, जबकि उन्हें कोई सरकारी न्योता नहीं था। ये उनकी निजी यात्रा थी जिसके लिए अप्रवासी भारतीयों की एक रैली का आयोजन किया गया। जिसमें लगभग बीस हज़ार भारतीयों ने हिस्सा लिया। जबकि ऑस्ट्रेलिया में दस लाख भारतीय रहते हैं। जानकारों का कहना है कि इन बीस हज़ार श्रोताओं में पंद्रह हज़ार गुजराती थे। ये भी सुना है कि बारह चार्टर हवाई जहाज़ चीयरलीडर्स को ले कर गये थे। 



दरअसल भाजपा ने कई देशों में ‘फ़्रेंड्स ऑफ़ बीजेपी’ नाम के हज़ारों संगठन बना रखे हैं। पिछली बार जब मोदी जी ऑस्ट्रेलिया गये थे तो ऑस्ट्रेलिया में इस संगठन के अध्यक्ष बालेश धनखड़ ने ऐसे ही कार्यक्रम आयोजित किए थे। ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि वही बालेश पाँच कोरियाई महिलाओं के साथ बलात्कार के आरोप में जेल में बंद है। उधर अमरीका में मोदी जी के स्वागत के लिए अब तक जो भव्य आयोजन किए गये हैं उनका प्रारूप भी राजनैतिक न हो कर कॉर्पोरेट इवेंट मैनेजमेंट जैसा रहा है। ज़ाहिर है कि ऐसे आयोजनों में लोगों को लाने, होटलों में ठहराने और खिलाने-पिलाने में अरबों रुपया खर्च होता है। ये पैसा कौन खर्च कर रहा है? ‘पीएम केयर्स’ में जमा और खर्च पैसे का हिसाब आजतक देश के मतदाताओं को नहीं दिया गया। जबकि इस निजी ट्रस्ट को सरकारी की तरह ही दिखा कर चंदे में भारी भरकम रक़म उघाई गई थी। विपक्ष को संदेह है कि कहीं यही पैसा तो मोदी जी की छवि बनाने पर खर्च नहीं किया जा रहा? वरना आज के दौर में किसे फ़ुरसत हैं कि वो तकलीफ़ उठा कर किसी रैली में जाए, जब सब कुछ टीवी या सोशल मीडिया पर उपलब्ध है। 



देश के जागरूक नागरिक इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि मोदी जी को अप्रवासी भारतीयों से ही अपने स्वागत के लिए इवेंट मैनेजमेंट करवाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? जबकि ये वो लोग हैं जो भारत के विकास की प्रक्रिया में हिस्सा न लेकर विदेश चले गये और वहाँ सफल होने के बाद अब भारतवासियों को ज्ञान देते हैं। ये वो अप्रवासी भारतीय नहीं हैं जो अपनी कमाई हुई विदेशी मुद्रा भारत भेजते हों। विदेशी मुद्रा भेजने वाली जमात तो उन ग़रीब अप्रवासी भारतीयों की है जो खाड़ी के देशों या अन्य देशों में मेहनत मज़दूरी करके अपनी कमाई भेजते हैं। अगर अप्रवासी भारतीय वास्तव में मोदी जी के प्रशंसक हैं और यह मानते हैं कि मोदी जी ने वाक़ई भारत की कायाकल्प कर दी है तो वे लौट कर भारत में बसने क्यों नहीं आते? सच्चाई तो यह है कि इन नौ सालों में हज़ारों अरबपतियों ने भारत की नागरिकता छोड़ कर विदेशों की नागरिकता ले ली है। अबसे पहले कभी किसी प्रधान मंत्री ने विदेशों में अपनी छवि बनाने के लिए ऐसे आयोजन नहीं करवाए। जब भी कोई प्रधान मंत्री विदेश जाते थे तो भारतीय दूतावास के अधिकारी कुछ चुनिंदा भारतीय परिवारों को दूतावास में चाय पर बुला कर प्रधान मंत्री का एक सामान्य स्वागत करवा दिया करते थे।  


मोदी जी की छवि बनाने में जनता के हज़ारों करोड़ रुपये विज्ञापनों में खर्च कर दिया गया है। ये विज्ञापन केंद्र सरकार, उसके मंत्रालय, सार्वजनिक उपक्रम, प्रांतीय सरकारें, सरकार से लाभान्वित बड़े उद्योगपति और भाजपा प्रकाशित करवाते हैं। इन विज्ञापनों से देश की जनता का क्या भला हो रहा है? क्या दो करोड़ रोज़गार हर वर्ष देने का वादा किए गये अठारह करोड़ लोगों को पिछले नौ वर्षों में रोज़गार मिल गया? अगर मिल गया होता तो मुफ़्त का राशन लेने वाले साठ करोड़ लोगों के घर में एक-एक सपूत तो कमाने वाला हो गया होता। क्योंकि ऐसा नहीं हुआ है इसलिए ये परिवार ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे आज भी जी रहे हैं। चीयर लीडर्स की रैलियाँ विदेशों में करवाने के बजाए अगर मोदी जी ने देश भर में ‘जनता दरबार’ लगाए होते और उनसे उनकी समस्याएँ सुनी होती तो वास्तव में मोदी जी की छवि कुछ और ही बनती। तब उन्हें विज्ञापनों और विदेशी यात्राओं की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। 


भारत में मोदी जी की हर यात्रा में वो चाहे धार्मिक हो या राजनैतिक करोड़ों रुपये के फूल सजाए जाते हैं और फूल पत्तियों से भारी थैलियाँ घर-घर बँटवा कर लोगों से मोदी जी पर फूल फेंकने को कहा जाता है। सड़कें फूलों से पट जाती हैं। जैसा हाल के चुनावों में कर्नाटक में बार-बार हुआ। बावजूद इसके भाजपा बुरी तरह हार गई। मतलब ये कि वो फूल लोगों ने अपने पैसे और भावना से नहीं फेंके। बल्कि उनसे फ़िकवाए गये थे। सवाल है कि क्या भाजपा के पास जनता को प्रभावित करने के लिए कोई और मुद्दे नहीं बचे, सिवाय मोदी जी की छवि भुनाने के? तो क्या 2024 की वयतरणी केवल मोदी जी की छवि के सहारे पार की जाएगी? जितना ज़्यादा बढ़-चढ़ कर उनका प्रचार किया जा रहा है उसका वांछित परिणाम तो आ नहीं रहा। दिल्ली, बंगाल, हिमाचल और कर्नाटक आदि कितने ही राज्यों में भाजपा को हार का मुँह देखना पड़ा है। ज़रूरत इस बात की है कि भाजपा और मोदी जी नक़ली छवि पर धन और ऊर्जा खर्च करने के बजाए अपनी ठोस उपलब्धियों को मतदाताओं के सामने रखें और उनके आधार पर वोट माँगे। 


Monday, May 30, 2016

हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया

मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर जहाँ एक तरफ सरकार जश्न मना रही है वहीं विपक्षी सरकार को कटघरे में खड़ा करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, पर अभी तक कामयाब नहीं हुए। हम बेबाकी से यहाँ उन बातों की चर्चा करें जिनकी चर्चा आम तौर पर नहीं की जा रही। दिल्ली के हर पाँच सितारा होटल की लाॅबी में पिछले दो साल से सन्नाटा पसरा है। आप सोचेगें कि इसका मोदी सरकार से क्या मतलब। गहरा मतलब है। दो साल पहले ये लाॅबियाँ दिल्ली के तमाम दलालों और देशभर के व्यापारियों, उद्योगपतियों और अच्छी पोस्टिंग की इच्छा लेकर आने वाले अफसरों से भरी रहती थी। इन लाॅबियों में अरबों रुपये के बेनामी लेन-देन हो जाते थे। नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसी लगाम कसी कि दलालों के धन्धे चैपट हो गये। क्योंकि अब कोई यह दावा नहीं कर सकता कि वो इस सरकार में काम करवा सकता है। आपको याद होगा जब एक केन्द्रिय मंत्री ने प्रधान मंत्री के मित्र माने जाने वाले मुकेश अम्बानी के साथ किसी पाँच सितारा होटल में मुलाकात की तो उन्हें ऐसा ना करने की कड़ी हिदायत प्रधान मंत्री से मिली। यह बाकी सब मंत्रियों के लिए संकेत था।

    इस मुहिम का नकारात्मक पक्ष यह है कि अब उद्योग जगत और व्यापार से जुड़े बड़े लोग परेशान हैं कि उनके जा-बेजा काम नहीं हो रहे। उनकी शिकायत है कि इससे आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ गयी है। उनका मानना है कि काले धन का सरकुलेशन और मोटी रिश्वत का टाॅनिक पीकर ही अर्थ व्यवस्था तेजी से आगे बढ़ती है। जबकि मोदी सरकार का इरादा प्रशासन को जनोन्मुखी व पारदर्शी बनाने का है। अब देखना ये होगा कि आगामी 3 वर्षों में किसका पलड़ा भारी रहता है। 

    इसी क्रम में यह उल्लेख करना भी जरुरी है कि ऊपर के भारी भ्रष्टाचार को नियन्त्रित करने के बावजूद जमीन तक आज भी रुपये में 15 पैसे पहुँच रहे हैं। जिसके दो कारण हैं- एक तो नौकरशाही के चले आ रहे ढ़ाँचे में किसी भी क्रान्तिकारी परिवर्तन का अभाव। दूसरा गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर अनावश्यक रुप से अनेक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के कन्सल्टेंट्स की हर मंत्रालय में नियुक्ति। अफसरशाही आज भी अपने अहंकार और अहमकपन से फैसले ले रही है। सच को तथ्यों के साथ सामने रखने पर भी वह सुनने और बदलने को तैयार नहीं है। परिणामतः कितनी भी नई योजनाएँ शुरु क्यों न हो जाये, जम़ीन पर उनका क्रियान्वयन राज्य सरकारों के पुराने रवैये के कारण पहले की तरह ही कागजी ज्यादा हो रहा है। पता नहीं प्रधान मंत्री तक यह बात पहुँच रही है या नहीं। अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स मोटी रकम वसूल रहे हैं और मोटा वेतन पाने वाले आला अफसर उनके जिम्मे काम सौंपकर अपने फर्ज से बच रहे हैं। जबकि इन अन्तर्राष्ट्रीय कन्सल्टेंट्स कि समझ जमीनी हकीकत के बारे में ना के बराबर है। प्रायः इनके सुझाव बेतुके और अव्यवहारिक होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस देश के अनुभवसिद्ध लोगों की सलाह मानी जाए। जिससे कम लागत में ठोस काम हो सके। पर ऐसी नीति ज्यादातर ताकतवर लोगों को रास नहीं आती इसलिए वे ढ़ाँचागत परिवर्तन का हमेशा विरोध करते हैं। क्योंकि इससे उनके अस्तित्व पर संकट आ जाता है। साथ-ही बड़ी लूट करने की गुंजाइश नहीं बचती। नीति आयोग के सी.ई.ओ. अमिताभ कान्त को मैंने इस विषय पर सोचने और काम करने की सलाह दी है। वरना मोदी जी के कई अच्छे प्रयास जमीन तक नहीं पहुँच पाएगें।

    केन्द्र सरकार की अफसरशाही नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली से भी बहुत त्रस्त है। वे न तो खुद आराम करते हैं और न अफसरों को गोल्फ खेलने और मौज-मस्ती करने का समय देते हैं। नतीजतन बहुत सारे अफसर अपने गृहराज्य लौटने को बेताब हैं। मोदी जी को चाहिए कि अफसरशाही के सामने लक्ष्य निर्धारित करने, उन्हें समय पर पूरा करने और गुणवत्ता सूनिश्चित करने के लिए व्यक्तिगत रुप से जिम्मेदार ठहरा दें। कोताही करने वालों को कड़ी सजा देने का प्रावधान कर दें। इसके साथ-ही अपने इतिहास के अनुरुप वे समाज में हर अच्छा काम करने वाले व्यक्ति को बुलाकर पूछें की तुम जो करना चाहते हो उसके रास्ते में क्या अड़चन है और उस अड़चन को दूर करने की पहल करें।

    यह सही है कि राज्य सभा में बहुमत के अभाव में राजग सरकार अपने विधेयक पारित नहीं करवा पा रही है, पर जहाँ संभव है वहाँ तो नीतियों और निर्देशों को स्पष्ट करके बहुत बड़ा काम करवाया जा सकता है। जिन नीतियों को आज बदलने की जरूरत है। जिससे हर काम गति से हो सके। जिन विभागों में ऐसा करना सम्भव हो वहाँ तो यह कवायद चालू की जाय। उधर देश के कुछ टी.वी. चैनल, जो रात-दिन राज्य सभा की सीट के लालच में मोदी सरकार का यशगान करने में जुटे हैं, उनसे मोदी जी को कोई लाभ नहीं मिलने वाला। क्योंकि जनता जमीन पर परिवर्तन देखना चाहती है। जरूरत इस बात की है कि इन टी.वी. चैनलों पर विचारोत्तेजक और गंभीर कार्यक्रम हों जिनमें देश के नागरिकों की सोच और प्राथमिकताएं बदलने की क्षमता हो। यह कार्य करने में ये चैनल असफल रहै  हैं ।

    हमने कई बार यहाँ लिखा है कि मौर्य सम्राट अशोक भेष बदल कर जनता के बीच जाता और उसकी राय गोपनीय तरीके से जान जाता। इससे उसे अपना शासन चलाने में बहुत मदद मिली। पर मोदी सरकार के दो साल हो गये ऐसा न्यौता शायद ही किसी ऐसे व्यक्ति के पास आया हो, जो अपनी राय खुल कर दे सके। मोदी जी को इस बारे में अपना तंत्र और सुधारना चाहिए। ‘निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय’। आज देश में मोदी की टक्कर का सशक्त नेता दूसरा नहीं है। इसलिए हर आदमी चाहता है कि मोदी वो सब कर दें जो अब तक कोई नहीं कर पाया।