Monday, July 30, 2012

केवल नेता ही भ्रष्ट क्यों

अन्ना एण्ड कम्पनी हो या बाबा रामदेव, सब राजनेताओं को ही भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसलिए राजनेताओं को गाली देना, उनका मजाक उड़ाना, उनके गाल पर थप्पड़ मारना, उनके खिलाफ अनशन के मंचों पर चुन्नी ओढ़कर नौटंकी करना, यह सब अब सामान्य बात हो गई है। राजनेताओं को विद्रुप बनाना आत्मघोषित आन्दोलनकारियों और मीडिया का फैशन हो गया है। यह बात दूसरी है कि राजनेताओं के खिलाफ शोर मचाने वाले चाहे जितना उछल लें, चुनावों में जनता वोट उन्ही राजनेताओं को देती है जिनके खिलाफ ऐसे लोग आन्दोलन चलाते हैं। फिर क्या वजह है कि राजनेता इस हमले को लगातार सहते जा रहे हैं और हमलावरों से कुछ नहीं कहते। जनता समझती है कि राजनेता ढीट हो गये हैं। उन्हें अपनी निन्दा से कोई परेशानी नहीं होती बशर्ते कि उनकी कमाई ठीक चलती रहे। इसलिए राजनेता लगातार जनता की निगाहों में गिरते जा रहे हैं। राजनेताओं की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?
मैं समझता हूँ कि राजनेता ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसके दो कारण हैं । एक तो उनके मन में एक डर बैठा है जिसकी वजह से वे चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने से बचना चाहते हैं। दूसरा वे समाज को आइना नहीं दिखाते। पिछले दिनों मुम्बई के कुछ अति धनी उद्योगपतियों के साथ देश के भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा हुई जो इस सवाल पर काफी उद्वेलित थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हवाला कारोबार, काले धन और 1000 रुपये के बड़े नोटों के चलन को रोकने की पैरोकारी करेंगे। यह सुनकर सभी मुंह बिचकाने लगे। बात साफ है कि भ्रष्टाचार के लिए हम नेताओं को तो गाली देते हैं पर अपने उद्योग, व्यापार, खनन व भवन निर्माण जैसे क्षेत्रों में जम कर काले धन का आदान-प्रदान करते हैं। देश और विदेश में अचल सम्पत्ति में निवेश हो या विलासितापूर्ण जीवन सब में काले धन का जमकर प्रयोग होता है। सरकारी जमीन का आंवटन कराना हो, ठेके कोटे या लाइंसेंस लेने हों या रक्षा मंत्रालय जैसे विभागों को माल की भारी आपूर्ति करनी हो, तो कोई भी सीधे रास्ते नहीं जाना चाहता। सबकी यही मंशा होती है कि ‘‘खर्चा चाहे जो हो जाए काम हमें ही मिलना चाहिए।’’ फिर चाहे हमारी योग्यता हो या न हो। साफ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर अपने ड्राइंगरूमों में राजनेताओं को गाली देने वाले ये व्यवसायी इन्हीं ड्राइंगरूमों में बिठाकर नेताओं और अफसरों की आवभगत करते हैं। उन्हें बक्सों में भरकर नोट देते हैं। चुनाव के पहले बिना मांगे भी इन नेताओं के घर रुपया भेजते हैं। इस उम्मीद में कि अगर वह नेता जीत गया तो आगे 10 गुना लाभ लेंगे।
जब से टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आयी है तब से टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल वाले खोजी पत्रकारिता के नाम पर सनसनीखेज खबरें लाते हैं और उन्हें खूब मिर्च मसाला लगाकर बार-बार इस तरह दिखाते हैं जैसे कोई चोर रंगे हाथों पकड़ लिया हो। अपने चेहरे के भाव क्रान्तिकारी दिखाते हैं और जनता को उत्तेजित करने के लिए भड़काऊ भाषा का प्रयोग करते हैं। देश में राजनेताओं के खिलाफ माहौल बनाने में इन टीवी चैनलों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। मजे की बात यह है कि इन चैनलों के मालिक वे लोग हैं जो बिल्डिर्स माफिया से लेकर दूसरे ऐसे ही अवैध धन्धों में अरबों रुपये की काली कमाई कर चुके हैं। टीवी चैनल उनके लिए कोई राष्ट्र निर्माण का माध्यम नहीं बल्कि ब्लैक मेलिंग या अपना दबदबा कायम करने या अपने अपराध छिपाने का माध्यम है। देश के ज्यादातर हिस्सों में जो समाचार चैनल चल रहे हैं उनके पीछे आप खोजने पर यही कहानी पायेंगे। जो बड़े और नामी चैनल भी हैं वे सब घाटे में चल रहे हैं। फिर यह घाटा कैसे पूरा हो रहा है ? कई बड़े चैनलों को हाल है के वर्षों में उद्योगपतियों के आगे घुटने टेकने पड़े। अब उन्हीं उद्योगपतियों के आर्थिक साम्राज्य में जो घोटाले होते हैं उनकी सुध कौन लेगा ? फिर यह आक्रामक तेवर किसके लिए ? इतना ही नहीं अब तो चैनलों की राजनैतिक लाइन भी साफ दिखाई देती है। जो जिस दल से पोषण पा लेता है उसी का भौपूं बजाता है। तो क्या यह स्वतंत्र और नैतिक पत्रकारिता है ? अगर नहीं तो फिर राजनेता ही भ्रष्ट क्यों ? यह बात दूसरी है कि आज ज्यादातर राजनेताओं के अपने टीवी चैनल चल रहे हैं। उनमें काम करने वाले लोग पत्रकार कतई नहीं माने जा सकते। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पत्रकारिता के आवरण में उस नेता का जन सम्पर्क अधिकारी माना जाना चाहिए।
न्यायपालिका के सदस्यों को मान-सम्मान, वेतन, सुरक्षा व मनोरंजन सबकी बेहतर सुविधाएं मिली हुई हैं। किसी वादी या प्रतिवादी की हिम्मत नहीं कि उनके घर या चैम्बर में घुस जाये। पर न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अब किसी को कोई संदेह नहीं बचा है। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक के न्यायधीशों का आचरण सामने आ चुका है। राजनेताओं को तो चुनाव लड़ना होता है । जनता की खैर खबर रखनी होती है। हार जायें तो अगले पांच साल राजनीति में जिन्दा रहना होता है। भविष्य की कोई गारंटी नहीं। इस असुरक्षा की भावना के चलते वे भ्रष्ट हो जाते हैं। पर न्यायधीशों को क्या मजबूरी है? देश की अदालतों में ढेड करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली व कार्यक्षमता को दर्शाता है।
इस देश की सबसे ज्यादा मट्टी खराब नौकरशाही ने की है। अंग्रेज अपनी हुकूमत चलाने के लिए अखिल भारतीय सेवाओं का ढांचा बना गये। जिसमें घुसने के लिए एक बार मेहनत करनी होती है। इन्तहान पास होने के बाद सारी जिन्दगी देश को मूर्ख बनाने, लूटने और रौब गांठने का लाइंसेंस मिल जाता है। इस ‘स्टील फ्रेमवर्क’ के सदस्यों को जीवन में कोई असुरक्षा नहीं है फिर ये क्यों भ्रष्टाचार करते हैं ? इनकी सेवाओं के ही ईमानदार अफसर बताते हैं कि अगर ये लोग सहयोग न करें तो राजनेता एक पैसे का भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। पर इनका लालच और हवस नेताओं को भयमुक्त कर देता है। फिर दोनों की सांठगांठ से जनता लुटती है, देश बर्बाद होता है । हर बार भोली-भाली जनता की मृगतृष्णा को अन्ना एण्ड कम्पनी जैसे नये-नये कलाकार अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। हर बार जनता को हताशा हाथ लगती है। क्योंकि ऐसे लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावनाओं को तो भडका लेते हैं पर इनके पास समाधान कोई नहीं है। लोकपाल भी नहीं। क्योंकि इन्हीं लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की सबसे बड़ी लड़ाई को षडयंत्र करके विफल किया और सीवीसी और सूचना आयोग जैसे हवाई किले खड़े करके भ्रष्टाचार से निपटने का दावा किया, जो आज खोखला सिद्ध हो चुका है। ऐसे आन्दोलनकारी भी नैतिकता का आचरण नहीं करते । इनके लिए लक्ष्य महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सारा खेल अपने छिपे एजेण्डा के लिए किया जाता है। इसीलिए ये लोग अपनी दुकान चमकाने के चक्कर में अपने कद से बडे लोगों को दूर रखते हैं। तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं ? जरुरत भ्रष्टाचार के कारणों को गहराई से समझने की है। राजनेताओं जैसे किसी एक वर्ग को बलि का बकरा न बनाकर इसे राष्ट्रीय समस्या मानना होगा। साझे प्रयास से यथा संभव इस बुराई को दूर करने का संकल्प लेना होगा। पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज कभी नहीं रहा। चाणक्य पण्डित ने कहा था कि शहद के गोदाम की रखवाली करने वाले के होठों पर शहद लगा होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करें।

Monday, July 23, 2012

अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना

25 जुलाई को अन्ना एण्ड कम्पनी एक दिन के उपवास पर बैठने जा रही है। ऐसा वो ’देश जगाने’ के लिए कर रही है। यह बात दूसरी है कि पिछले डेढ़ साल से इस कम्पनी का दावा था कि देश की 120 करोड़ जनता उनके साथ है। जब देश की 100 फीसदी जनता अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ है तो सो कौन रहा है, जिसे जगाने की जरूरत है ? वैसे अभी यह साफ नहीं हैं कि खुद अन्ना हजारे इस धरने पर बैठेंगे या नहीं। पिछले कुछ महीनों से अन्ना हजारे ने बाबा रामदेव की शरण ले ली है। वे अनेक सार्वजनिक मंचों पर बाबा के साथ ही नजर आते हैं। पिछले हफ्ते महाराष्ट्र में जब संवाददाता सम्मेलन के दौरान पत्रकारों ने अन्ना को घेर कर निरूत्तर कर दिया तो अन्ना बौखला गये और अन्ट-शन्ट बोलने लगे। पत्रकार उनके दोहरे आचरण को लेकर आक्रामक थे। आखिर बाबा रामदेव को अन्ना की रक्षा में उतरना पड़ा।
उधर गत 3 जून को बाबा रामदेव के सांकेतिक धरने के मंच से अरविन्द केजरीवाल ने जो कुछ कहा उससे बाबा के अनुयाइयों और अन्ना एण्ड कम्पनी के बीच मनमुटाव बढ़ा। बाबा के लोगों का मानना था कि अन्ना हजारे और बाबा के कंधे पर चढ़कर अरविन्द ने अपनी पहचान बना ली और अब उन्हें किसी की जरूरत नहीं है अन्ना की भी। शायद इसीलिए अभी तक अन्ना ने अपना रूख इस धरने को लेकर साफ नहीं किया है। इधर बाबा को शिकायत है कि दोनों टीमों के साथ आने के बावजूद क्या वजह है कि अरविन्द ने बाबा के पूर्व घोषित 9 अगस्त के धरने से पहले ही अपने धरने की घोषणा कर डाली ? इतनी छोटी बातों पर भी अगर इन दो समूहों में पारस्परिक विश्वास नहीं है तो देशवासी इनकी बात पर कैसे विश्वास करें ?
अन्ना एण्ड कम्पनी के पिछले डेढ़ वर्ष के कारनामों ने यह साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करना उनका ऐजेण्डा नहीं है। इसलिए वे किसी न किसी बहाने चर्चा में रहना चाहते हैं। अन्ना एण्ड कम्पनी मानती है कि उनसे ज्यादा पवित्र और देश की सोचने वाला और कोई नहीं है। इसलिए इस कम्पनी को यह गुमान है कि हम जो भी कह रहे है ठीक है और सरकार को उसे फौरन मान लेना चाहिए। जबकि देशभर के वे लोग जो व्यवस्था के बाहर या भीतर रहकर भ्रष्टाचार से लड़ते रहे है, उनका साफ कहना है कि अन्ना एण्ड कम्पनी का लोकपाल एक मजाक है जिसे न तो वैधता दी सकती है और न ही उससे भ्रष्टाचार दूर होगा।
अन्ना एण्ड कम्पनी आजकल मध्य प्रदेश के दिवंगत क्रान्तिकारी दुष्यंत कुमार की कविताओं का पाठ कर रही है, ’’सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’’ हालात बदलने की लड़ाई है। कोई पूछे कि जन्तर मन्तर के पहले धरने से लेकर आजतक जितने धरने अन्ना एण्ड कम्पनी ने किये और हिसार के चुनाव प्रचार से लेकर आजतक जो भी कार्यक्रम चलाये हैं, उससे क्या कहीं हालात बदलने का काम हुआ है या सिर्फ हंगामा खड़ा हुआ है। अन्ना एण्ड कम्पनी कहती है कि हम नींव हिलाना चाहते हैं। किसकी, क्या लोकतन्त्र की ? क्योंकि उनके अबतक के कारनामों से भ्रष्टाचार की नींव कहीं भी नहीं हिली। हां लोकतन्त्र को खतरा जरूर हो गया है।
वैसे अबतक के इनके कार्यकलाप भ्रष्टाचार के विरूद्व न होकर केवल सरकार के खिलाफ रहे हैं। यानी मकसद सरकार को बदलना है। पर किसे उसकी जगह बैठाना है इस पर अन्ना एण्ड कम्पनी रहस्यमयी तरीके से खामोश है। अब यह साफ हो जाना चाहिए कि यह मुहीम किस दल को सत्ता में बिठाने के लिए चलाई जा रही है ? अगर भ्रष्टाचार के खिलाफ होती तो भ्रष्टाचार जूझते रहे सभी योद्धा अन्ना एण्ड कम्पनी के साथ खड़े होते। पर ऐसा नहीं है। देशभर के ऐसे सभी योद्धाओं को शुरू से पता है कि इस कम्पनी के नाटक का असली मकसद क्या है।
वैसे इन्हें गम्भीरता से इनके साथ दिखने वाले प्रोफेशनल्स भी नहीं लेते। वे भी आपसे की चर्चा में यही कहते हैं कि अब अन्ना एण्ड कम्पनी का अगला फंक्शन कब होगा। इनका धरना बयान बाजी, टीवी कवरेज, सलीम-जावेद के लिखे फिल्मी डायलोगों की तरह आक्रामक तेवर दिखाते हुए हर मशहूर आदमी पर हमला, बढ़िया खान-पान और मनोरंजन का मिला-जुला रंग लिये होता है। इसलिए लोग मनोरंजन होगा यह सोचकर वहां पहुंच जाते हैं। वहां पहुंचने वालों में ज्यादा तादाद उनकी होती है जिन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनकर जिन्दगी का हर लुत्फ उठाया है। कभी भ्रष्टाचार के विरूद्व न तो संघर्ष किया, न तकलीफ झेली, न जान जोखिम में डाली और न हीं बड़े और ताकतवर लोगों से दुश्मनी ली और न ही इस सवाल पर किसी को नुकसान पहुंचाया।  गुल-गुले खाकर और मौज उड़ाकर गुलिस्तां के उजड़ने का रोना रोने वाले घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। इसलिए अन्ना एण्ड कम्पनी का धरना एक मजाक और गीदड़ भभकी बनकर रह गया है।

Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।

Monday, July 16, 2012

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस क्यों पिट रही है ?

हाल ही में उत्तर प्रदेश की महापलिकाओं और नगरपालिकाओं के चनावों के नतीजे आये हैं। एक बार फिर कांग्रेस का सूपणा साफ हो गया है। विधानसभ चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं को प्रान्त में अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देना चाहिए था। पर लगता है कि आपसी गुटबाजी और राष्ट्रीय स्तर पर किसी स्पष्ट दिशानिर्देश के अभाव में उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी लावारिस हो गये हैं। न तो उनका संगठन दुरूस्त है और न ही उनमें जनहित के मुद्दों पर लड़ने का उत्साह है। जब स्थानीय कार्यकर्ता और नेता ही उत्साहित नहीं हैं, तो फिर वो नये लोगों को अपने दल की ओर कैसे आकर्षित कर पायेंगे। यानी न तो नेतृत्व चुस्त है और न ही कार्यकर्ता दुरूस्त। ऐसे में कांग्रेस 2014 का चुनाव कैसे लड़ेगी ? क्या उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं, या फिर मुलायम सिंह यादव से कोई गुप्त समझौता हो गया है ? जिसके तहत उत्तर प्रदेश सपा को थाली में परोसकर पेश किया जा रहा है।

सरकार चाहें मायावती की हो, अखिलेश यादव की हो या किसी और की, इतनी कार्यकुशल नहीं होती कि प्रदेश की पूरी जनता को संतुष्ट कर सके। बिजली पानी, कानून व्यवस्था जैसे सामान्य मुद्दे ही नहीं बल्कि तमाम ऐसे दूसरे मसले होते हैं, जिन पर जनता का गुस्सा अक्सर उबलता रहता है। कोई भी विपक्षी दल बुद्विमानी से जनता के आक्रोश को हवा देकर और उसकी समस्याओं के लिए सड़कों पर उतर कर जन समर्थन बढ़ा सकता है। लोकतन्त्र में जमीन से जुड़ा जुझारूपन ही किसी राजनैतिक दल को मजबूत बनाता है। लगता है कि दो दशकों से सत्ता के बाहर रहकर उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी हताश और निराश हो गये है। उनमें न तो जुझारूपन बचा है और न ही सत्ता हासिल करने का आत्मविश्वास। ऐसे माहौल में राहुल गांधी के आने से जो उम्मीद जगी थी, वो भी विधानसभा के नतीजों के बाद धूमिल हो गई। राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में महनत तो बहुत की, पर न तो उनके सलाकारों ने उन्हें जमीनी हकीकत से रूबरू कराया और न ही उनके पास समर्पित कार्यकर्ताओं की फौज थी, जो मतदाताओं को तैयार कर पाती। ऐसे में राहुल गांधी का अभियान रोड-शो तक निपटकर रह गया।
अगर कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी सीटंे उत्तर प्रदेश में बढ़ाना चाहती है तो उसे पूरे प्रदेश के ढांचे में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे। हर जिले में नेतृत्व क्षमता, साफ छवि और जुझारू तेवर के लोगों को जिले की बागडोर देनी होगी। इसी तरह प्रदेश का नेतृत्व कुछ ऐसे नये चेहरों को सौंपना होगा, जो प्रदेश में दल को जमीन से खड़ा कर सकें। पर कांग्रेस दरबारी संस्कृति और गणेश प्रदक्षिणा के माहौल में दिल्ली में बैठे बड़े मठाधीश ऐसे नेतृत्व को स्वीकरेंगें के नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि वे प्रान्त में दल का भला चाहते है या अपना।
पूरा उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा है। फिर भी उद्योगपति यहां निवेश करने को तैयार नहीं है। उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश के नेताओं की पैसे की भूख व जातिगत मानसिकता किसी भी आर्थिक विकास में बहुत बड़ा रोड़ा है। इसलिए वे उत्तर प्रदेश में आने से बचते हैं। ऐसे में ’’मुर्गी पहले हो या अण्डा पहले’’ उत्तर प्रदेश की छवि सुधरे या पहले विनियोग आय। दोनों एक दूसरे का इन्तजार नहीं कर सकते। इसका समाधान यही है कि दोनों तरफ साथ-साथ प्रयास किये जाये। छवि भी सुधरे और निवेशकों का विश्वास भी बढ़े। जिस उत्तर प्रदेश जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर जैसे प्रधानमंत्री देश को दिये हों, उस प्रदेश में क्या नेतृत्व का इतना बड़ा अकाल पड़ गया है कि कांग्रेस प्रदेश का सही नेता भी नहीं चुन सकती ? प्रदेश में एक से एक मेधावी प्रतिभायें हैं। तो सपा, बसपा व भाजपा से मन न मिलने के कारण राजनैतिक रूप से सक्रिय नहीं हैं। ऐसी व्यक्तियों को प्रोत्साहित करना होगा। उन्हें छूट देनी होगी संगठन को अपनी तरह से खड़ा करने की। वैसे भी कौन सा जोखिम है  ऐसा कौन सा बड़ा साम्राज्य है जो नये नेतृत्व के प्रयोग से छिन जायेगा ? जो कुछ होगा वो बेहतर ही होगा। ऐसा विश्वास करके चलना पड़ेगा। राजनीति में असम्भव कुछ भी नहीं है। ’’जहां चाह वहां राह’’ अब यह तो कांग्रेस आला कमान के स्तर की बात है। क्या वे उत्तर प्रदेश में मजबूत कांग्रेस खड़ा करना चाहती है या उसके मौजूदा हालात से संतुष्ट है।

Monday, July 9, 2012

मायावती का फैसला

मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।

जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।

पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।

Monday, July 2, 2012

डॉ. कलाम का खुलासा और सोनिया गाँधी

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक टर्निंग पाइंट्स में 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम का खुलासा करके एक बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा उठा दिया है। उस समय श्रीमती सोनिया गाँधी ने अपनी पार्टी के सभी सांसदों के भावुक अनुरोधों को ठुकराते हुए प्रधानमंत्री पद न स्वीकारने का फैसला किया था। जब उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, तो भाजपा व संघ से जुड़े संगठनों ने पूरे देश में यह अफवाह फैलाई कि राष्ट्रपति डॉ. कलाम ने सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनने से रोका। अफवाह यह फैलाई गई कि सोनिया गाँधी अपने समर्थन के सांसदों की सूची लेकर जब राष्ट्रपति भवन पहुंची तो डॉ. कलाम ने उन्हें संविधान का हवाला देकर उनके विदेशी मूल के आधार पर प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाने से मना कर दिया। इस घटना को 8 वर्ष बीत गये पर न तो श्रीमती गाँधी ने इसका खंडन किया और न ही संघ परिवार ने इसके तर्क में कभी कोई प्रमाण प्रस्तुत किए। आम आदमी को यही कहकर बहकाया गया कि सोनिया गाँधी तो प्रधानमंत्री का पद हड़पने को अधीर थीं किन्तु उन्हें बनने नहीं दिया गया। अब जब डॉ. कलाम ने अपनी ताजा पुस्तक में यह साफ कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था बल्कि अफवाह के विपरीत डॉ. कलाम ने तो यह लिखा है कि वे श्रीमती गाँधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलावाने के लिए तैयार थे पर वे ही तैयार नहीं थीं। जब वे डॉ. मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति से मिलीं तो डॉ. कलाम उनके इस अप्रत्याशित प्रस्ताव पर हतप्रभ रह गये।
यह पहली बार नहीं जब भाजपा व संघ परिवार अपनी संकुचित मानसिकता के चलते श्रीमती गाँधी के मामले में इस तरह बेनकाब हुआ है । राजीव गाँधी के जीवन में जबसे सोनिया आईं हैं इसी मानसिकता से उनके खिलाफ निराधार प्रचार किया जा रहा है। हर बार अफवाह फैलाने वालों को मुंह की खानी पड़ी है। जब 1977 में श्रीमती गाँधी चुनाव हारीं तो इसी समूह ने यह अफवाह फैलाई थी कि सोनिया गाँधी तो केवल श्रीमती गाँधी की सत्ता का सुख भोगने तक उनकी बहू थीं। उनका माल-टाल से भरा हवाई जहाज दिल्ली के हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा है और चुनाव परिणाम आते ही वे अपने बच्चों और पति को लेकर इटली भाग जायेंगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सोनिया यहीं रहीं। राजीव गाँधी की दर्दनाक हत्या के बाद विदेशी मूल की कही जाने वाली सोनिया गाँधी के लिए भारत में रहने का कोई औचित्य नहीं था। उनका जीवन असुरक्षित था। उनके बच्चे छोटे थे। भारत की राजनीति में उनकी कोई जगह नहीं थी। उस वक्त भी यही प्रचारित किया गया कि वे अब इटली चली जायेंगी। पर वे यहीं रहीं। एक आदर्श विधवा की तरह अपने गम को पीती रहीं और समाज और राजनीति से लम्बे समय तक कटी रहीं।
अब यह तीसरी बार है जब एक बड़े आरोप से उन्हें अनायास ही मुक्ति मिल गई है। डॉ. कलाम अगर यह खुलासा न करते तो देश के बहुत से लोगों को यह गलतफहमी रहती कि सोनिया प्रधानमंत्री बनना चाहती थीं। किन्तु उन्हें डॉ. कलाम ने बनने नहीं दिया। यह गम्भीरता से सोचने की बात है कि संघ और भाजपा नेतृत्व की सोच इतनी संकुचित क्यों है ? अक्सर मेरे पाठक या टी.वी. पर चर्चाओं में मुझे सुनने वाले यह सवाल करते हैं कि आप भ्रष्टाचार या अन्य मुद्दों पर तो बड़ी सख्ती से सभी दलों पर हमला करते हैं पर आपके हमले की धार भाजपा पर ज्यादा क्यों रहती है। क्या आप भी छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हो गये हैं ? उत्तर साफ है मैं सनातन धर्म में गहरी आस्था रखता हुआ भगवान श्री राधाकृष्ण के भक्तों की चरण रज का आकांक्षी हूँ। पर मेरा गत 30 वर्ष का पत्रकारिता का अनुभव बताता है कि संघ और भाजपा ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ कर समाज में विद्वेश को ही भड़काया है। विभिन्न धर्मों के मानने वालों से बना भारतीय समाज उदारता की भावना रखता है और सनातन संस्कृति में विश्वास रखता है । उसको विगत 50 वर्षों में ऐसी मानकिसता के लोगों ने बार-बार नष्ट भ्रष्ट किया है। इसका जवाब जनता उन्हें अब दे रही है।
इस मानसिकता के ज्यादातर लोग अफवाहें फैलाने में उस्ताद हैं। ऐसा मैंने बार-बार अनुभव किया। 1993 में जब मैंने आतंकवाद और भ्रष्टाचार से जुड़े जैन हवाला काण्ड को उजागर किया तो उसमें भाजपा के 4-5 नेता ही फंसे थे जबकि कांग्रेस के दर्जनों नेताओं के राजनैतिक जीवन दांव पर लग गये थे। पर देश और धर्म की दुहाई देने वाले संघ और भाजपाईयों ने इस लड़ाई में मेरा साथ देना तो दूर मेरे खिलाफ देश विदेश में यह प्रचार किया कि मैं कांग्रेस के हाथ में खेलकर भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने से रोक रहा हूँ। मेरे खिलाफ संघ के एक बड़े नेता ने अंग्रेजी पुस्तिका छपवाकर पूरी दुनिया में बंटवाई। ये बात दूसरी है कि उस पुस्तिका में झूठ का सहारा लेकर आडवाणी जी को बचाने का जो तानाबाना बुना गया था उसे मैं देश विदेश की अपनी जन सभाओं में बड़े तार्किक रूप से ध्वस्त करता चला गया। पर यह टीस मेरे मन में हमेशा रहेगी कि 1993 में ही जब मैंने देश के 115 सबसे ताकतवर राजनेताओं और अफसरों के विरुद्ध शंखनाद किया था तो संघ और भाजपा ने एक व्यक्ति को बचाने के लिए अपने संगठन और राष्ट्रहित की बलि दे दी।
पिछले वर्ष जब टीम अन्ना के दो स्तम्भ वही सामने आए जो इस ऐतिहासिक संघर्ष को विफल करने के देशद्रोही कार्य में संलग्न थे तो मुझे मजबूरन टी.वी. चैनलों पर जाकर टीम अन्ना को आड़े हाथों लेना पड़ा। चूंकि भाजपा व संघ टीम अन्ना के कंधों पर बंदूक रखकर अपनी राजनीति कर रही है इसलिए मुझे इन सभी टी.वी. चर्चाओं में मजबूरन भाजपा व संघ को फिर कटघरे में खड़ा करना पड़ा। भगवत कृपा से भाजपा के जो भी बड़े नेता इन चर्चाओं में मेरे विरुद्ध बैठते रहे हैं वे मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे पाये। अब 2014 के लोकसभा चुनाव को लक्ष्य बनाकर फिर संघ और भाजपा सोनिया गाँधी की नैतिकता पर लगातार चोट कर रहे हैं। देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। मैं टीम अन्ना की तरह किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने का दंभ नहीं पालता। मैं यह मानता हूँ कि आज की राजनीति में भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन चुका है और कोई दल इससे अछूता नहीं। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं कि भाजपा और संघ की कमीज दूसरों से ज्यादा सफेद है। सोनिया गाँधी पर उनका लगातार परोक्ष और सीधा हमला जनता को गुमराह करने के लिए है। जैसे उन्होंने पिछले 40 वर्षों में किया है। विरोध मुद्दों और आर्थिक या अन्य नीतियों का विचारधारा के आधार पर हो तो यह लोकतंत्र के लिए अच्छा होता है। पर तंग दिल और दिमाग से झूठा प्रचार करने वाले देश के हित में कोई बड़ा काम कभी नहीं कर पायेंगे।

Monday, June 18, 2012

राष्ट्रपति चुनाव में बहुतों की फजीहत


ममता बनर्जी चाहे कितने ही जोर से कहे कि खेल अभी खत्म नहीं हुआ पर राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने अपनी पूरी फजीहत करवा ली। उन्होंने क्या सोचकर प्रधानमंत्री का नाम सुझाया ? जिसका उन्हें कोई हक नहीं था। डा. अब्दुल कलाम भी बिना जीत की गारंटी के अपनी फजीहत नहीं करवाना चाहते। सोमनाथ चटर्जी को पता है कि वामपन्थी दल और एन.डी.ए. सहित कोई उनके नाम पर सहमत नहीं है। फिर यह नाम क्यों उछाले गये ? मुलायम सिंह यादव तो यह कहकर किनारा कर गये कि यू.पी.ए. ने राष्ट्रपति के उम्मीदवार का नाम घोषित करने में देर की, इसलिए उन्होंने जो ठीक समझे नाम सुझा दिये। अब प्रणवदा चूंकि सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हैं इसलिए सपा उनका समर्थन करेगी। पर दीदी क्यों अकड़ी रहीं ? यह जानते हुए भी कि बंगाल के लोगों को अपनी संस्कृति और अपने बंगाली होने का जितना गर्व है उतना शायद किसी दूसरे प्रान्त के निवासियों को नहीं होगा। बंगाली आज भी इस बात को भूले नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस को आजाद भारत में  अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाने का मौका नहीं मिला। अब जबकि पहली बार एक बंगाली के राष्ट्रपति बनने का मौका आया है तो दीदी उसमें पलीता लगा रही हैं। इसका ममता बनर्जी को खासा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वैसे राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर जिस तरह दलित, महिला, या मुसलमान के चयन किये जाने की बातें अनेक दलों ने उठाई उससे इस गरिमामय पद की प्रतिष्ठा को आघात लगा है। राष्ट्रपति किसी दल, समुदाय, श्रेत्र या जाति का ना होकर पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है। देश मंे प्रधानमंत्री को सत्ता का प्रतीक माना जाता है। पर अन्तर्राष्ट्रीय जगत में  राष्ट्रपति को ही देश का सदर मानकर सम्मानित किया जाता है। अगर कोई यह कहे कि यह तो उनका राष्ट्रपति है, हमारा नहीं, तो फिर लोकतन्त्र का मायना क्या बचा ? विधानसभा या लोकसभा चुनाव में जीतने वाला प्रत्याशी 25-26 फीसदी मतों पर जीत जाता है। तो क्या उस विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र के लोग उसे उनका विधायक या सांसद कहते है या पूरे क्षेत्र का ? जाहिर है कि जीतने के बाद वह पूरे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है और सबकी सुध लेता है। इसी तरह राष्ट्रपति भी चुन जाने के बाद पूरे देश का हो जाता है।
वैसे भी प्रणव मुखर्जी का व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनके बारे में किसी संशय हो। उनके विरोधियों को ही नहीं अपनों को भी पता हैं कि प्रणवदा कैसे आदमी हैं। दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में यू.पी.ए 1 के समय से ही यह चर्चा रही कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार होने के बावजूद उन्हें यह जिम्मेदारी इसलिए नहीं मिल पाई क्योंकि वे अपनी स्वतन्त्र सोच रखते हैं। ऐसे में उनके दल के नेताओं को यह संशय रहा कि किसी नाजुक मोड़ पर प्रणवदा अलग भी निर्णय ले सकते हैं। यह बात विपक्षीदल भी जानते हैं। इसलिए उन्हें प्रणवदा का समर्थन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर भी प्रणवदा के सभी दलों के लोगों से मधुर सम्बन्ध हैं।
इस चुनावी दंगल में एन.डी.ए. की फजीहत भी कम नहीं हुई। अपने उम्मीदवार की घोषणा एन.डी.ए. ने इसलिए नहीं की कि पहले यू.पी.ए. का नाम सामने आ जाये। उसकी फजीहत हो जाये तब हम अपनी शतरंज बिछायेंगे। पर पासा उल्टा पड़ गया, जिन अब्दुल कलाम को दुबारा राष्ट्रपति बनाने की बात एन.डी.ए. में चल रही थी, वे खुद ही आम सहमति के बिना चुनाव लड़ना नहीं चाहते। उधर प्रणव मुखर्जी के नाम पर देश में जैसी प्रतिक्रिया अब तक मिली है उससे साफ जाहिर है कि एन.डी.ए. के लिए अपना उम्मीदवार जिताना सम्भव न होगा। कमजोरी की हालत में यू.पी.ए. एन.डी.ए. से डील कर सकती थी कि राष्ट्रपति हमारा और उपराष्ट्रपति तुम्हारा। पर अब शायद इसकी जरूरत न पड़े। उधर भाजपा में दो खेमे हैं। प्रणवदा को जानने वाले कह रहे हैं कि एन.डी.ए. को उनका समर्थन करना चाहिए। पर दूसरा खेमा ऐसे मौके पर खुद को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा दीखना चाहता है। अभी अंतिम निर्णय होना बाकी है।
इस चुनाव में पी.ए. संगमा और राम जेठमलानी जबरदस्ती कूदकर सस्ती प्रसिद्वि पाना चाहते हैं। संगमा को तो उनके ही दल राकापा का समर्थन नहीं है और जेठमलानी को कोई भी दल गम्भीरता से नहीं लेता। क्योंकि वो कब क्या कर बैठें किसी को पता नहीं। दरअसल राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसी गम्भीरता और परिपक्वता राजनैतिक दलों को दिखानी चाहिए थी, वैसी उन्होंने नहीं दिखाई। अपने स्थानीय मतदाता को प्रभावित करने का मौका समझकर सब ने इस चुनाव को एक मखौल बना दिया। जो लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ परम्परा नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रपति का चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो और सभी दल चिन्तन करें कि भविष्य में राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति पद पर चयन आम सहमति से हो, इससे लोकतन्त्र की गरिमा बढ़ेगी। अल्पमत की साझी सरकारों के दौर में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की गरिमा बचाने का भी यही एक तरीका होगा।

Monday, June 11, 2012

विकास का पैसा कहाँ जाता है ?

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ’वाटरशेड’ कार्यक्रम की प्रान्त सरकारों की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हराभरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर आई.आई.टी. के पढे़ श्री रमेश को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। उन्होंने उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देखा और पाया कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये थे, वो सब झूठे निकले। इसलिए प्रान्तीय ग्रामीण विकास मंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी खुली नाराजगी जाहिर की।
दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 60 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबो-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।
जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाडे़ के बयान लगातार धमाकेदार छपते है।
उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल खानापूरी के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फर्जीवाडे़ का प्रतिशत काफी ऊॅचा रहता है। यही वजह है कि योजनाऐ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।
आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम  नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। जयराम रमेश ही नहीं हर मंत्री को तकनीकि क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ती और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाऐं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरूद्व जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शीतल करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। नहीं तो देश में अराजकता फैलने के आसार पैदा हो जायेंगे।

Monday, June 4, 2012

बाबा राम देव ने क्या खोया क्या पाया ?

जन्तर मन्तर पर बाबा रामदेव के नेतृत्व मे टीम अन्ना ने एक बार फिर दिन भर का धरना किया। इस धरने से बाबा ने क्या खोया क्या पाया इस पर अलग अलग विचार है। धरने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले छः महीने से भ्रष्टाचार के विरूद्व बाबा रामदेव व अन्ना हजारे की मुहीम ठण्डी पड़ रही थी। जनता इन आन्दोलनों के नेतृत्व लेकर, अनेक कारणों से, पहले की तरह उत्साहित नहीं थी। इधर मीडिया भी इन आन्दोलनों में अपनी रूचि खो चुका था। इसलिए आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं में हताशा व्याप्त थी। उनको अपने नेतृत्व पर दबाव था कि कुछ ऐसा किया जाये जो आन्दोलन ठण्डा न पड़े। इसलिए बाबा ने इस धरने का फैसला किया और इसके लिए दो महीने तक देशभर में जी जान लगाकर लोगों को उत्साहित करने की कोशिश की। इस बीच अन्ना हजारे को अपनी ही टीम के बीच हो रहे रोज के झगड़ों ने परेशान कर दिया। अन्ना को लगा कि अगर टीम अन्ना के चक्कर में ही फंसे रहे तो रही सही साख भी जाती रहेगी। इसलिए उन्होनें बाबा की शरण ली। जो टीम अन्ना को नागवार गुजरा। उनके बयान इस फैसले के खिलाफ आये। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अन्ततः टीम अन्ना को लगा कि बाबा के धरने में न जाकर उनका घाटा ही है इसलिए सब वहाँ जाकर खड़े हो गये।
बाबा रामदेव के मंच से जो कुछ कहा गया उसमें पुरानी बातो को ही दोहराया गया। काले धन को लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के बारे में जो भी बयान दिये गये उनमें ऐसी रोशनी दिखाई नहीं दी जिससे इन समस्याओं का हल निकाला जा सके। आगे का जो आव्हान किया गया है उसमें राजनैतिक दलों के अध्यक्षों और सासंदो का समर्थन जुटाने की बात की गई है। साथ ही आन्दोलन और धरनों के दौर को बनाये रखने का भी संकल्प लिया गया है। जोकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जायज तरीका है। पर क्या इस प्रक्रिया से हल निकल पायेगा?
इस पूरे आन्दोलन की आधार रेखा यह है कि सरकार ही भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार काला धन बाहर नहीं निकालना चाहती। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून नहीं बनाना चाहती। पर यह बात पूरी तरह से सही नही है। निश्चित रूप से सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी होती है। पर क्या यह सही नही है कि किसी भी दल की सरकार क्यों न हो उसका रवैया एक सा ही रहता है। अगर आन्दोलनकारी सरकार का मतलब केवल केन्द्र सरकार मानते है और दावा करते है कि उन्हें अनेक विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है तो सोचने वाली बात है कि इन विपक्षी दलों की इन प्रान्तों में सरकारे हैं, क्या वे प्रान्त भ्रष्टाचार से मुक्त है ? दरअसल भ्रष्टाचार का कारण हमारी चुनाव व्यवस्था, न्याय प्रणाली, औद्यौगिक हित, हमारा मूल चरित्र व इस देश का प्रशासनिक ढांचा है। जिसमें बुनियादी बदलाव की जरूरत है। कोई एक दल की सरकार अकेले इस काम को नहीं कर सकती। इस बात को आन्दोलनकारी या तो समझते नहीं या जान बूझकर अनदेखा कर रहे है। अगर समझते नही तो वे इस आन्दोलन को कोई सकारात्मक दिशा नही दे पायेंगें और अगर समझते है फिर भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारते नही, तो उनकी मंशा पर शक किया जायेगा।
निसंदेह बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों में इन मुद्दों पर देशभर में जिज्ञासा जगाई है। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। अब उनका उदेश्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करना होना चाहिए। जो भी राजनैतिक दल बाबा को समर्थन का आश्वासन दे रहे है उनसे दो बातें कही जायें। पहली अपने दल द्वारा शासित राज्य को भ्रष्टाचार को मुक्त करके दिखायें। दूसरा संसद के मानसून सत्र में इन मुददों पर लगातार खुली बहस चलायें। केवल रस्म आदायगी न करें। उधर बाबा को जनजागरण का अपना अभियान जारी रखना चाहिए। पर उसका तेवर लोगो को समाधान देना होना चाहिए। समाधान ऐसा हो कि लोग उससे इतने सहमत हों कि उसके समर्थन में पूरी ताकत से उठ खड़े हों । इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को बल मिलेगा। यह एक धीमी पर सतत प्रक्रिया होगी। जिसके परिणाम जल्दी तो नही आयेंगे पर दूरगामी होंगे।
पिछले कुछ महीनों से देशभर के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता बाबा रामदेव से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो पिछले तीन दशकों से देश के अलग अलग हिस्सो में, अगल अलग विचारधारा से सामाजिक सरोकार के मुददों पर संघर्षशील रहे है। इन लोगों ने गांवों से जिलों तक व्यवस्था के प्रभाव को देखा है और व्यवस्था से भिड़े है। इसलिए उनकी जमीनी समझ अच्छी है। पर राष्ट्रीय स्तर की समझ सैद्वान्तिक तो है पर व्यवहारिक अनुभव की कमी है। इसलिए यह लोग कभी एकजुट होकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खडा़ कर पाये। अब बाबा के संसाधनों की छत्र छाया में इन्हें मौका मिला है। पर अभी तक इनकी बाबा के साथ पूरी जुगलबन्दी नहीं हुई है। इनका मानना है कि बाबा आत्मकेन्द्रित हैं। जबकि बाबा चाहते हैं कि यह सब उनके नेतृत्व में एक जुट हो जायें। इसलिए अन्दरूनी रस्साकशी जारी है। देखना होगा कि आने वाले समय में अन्ना, सामाजिक संगठन, बाबा रामदेव के अनुयायी कहां तक एकमत हो पाते हंै। देखना यह भी होगा कि बाबा और उनका कोरगु्रप काले धन और भ्रष्टाचार के मामले पर अपनी रणनीति को व्यवहारिक और दलनिपेक्ष बना पाते हैं या नहीं ? इस पर ही इस आन्दोलन का भविष्य निर्भर करेगा।

Monday, May 28, 2012

एयर इण्डिया की हड़ताल के पीछे का घोटाला

एयर इण्डिया के पायलटों की हड़ताल को लेकर मीडिया, यात्री व अदालत काफी सक्रिय हैं। वहीं इस हड़ताल के पीछे के खेल को बहुत कम लोग समझ पा रहे हैं। जबकि राजधानी की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इस खेल पर टिप्पणीयाँ की जा रही हैं।
चर्चा है कि उ0प्र0 में राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन करने के बावजूद काँग्रेस को अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिली, इसलिए काँग्रेस अब चैधरी अजीत सिंह से पल्ला झाड़ना चाहती है, क्योंकि अब उनकी काँग्रेस को कोई उपयोगिता दिखाई नहीं दे रही। इसलिए इस हड़ताल को राजनैतिक शै पर करवाकर ऐसा माहौल खड़ा किया जा रहा है कि चैधरी अजीत सिंह को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया जाए।
दूसरी तरफ हवाई सेवाओं के व्यापार से जुड़े अनुभवी लोगों का कहना है कि इस हड़ताल के पीछे ताकतवर लोगों की कमाई का धंधा अच्छा चल रहा है। गर्मियों की छुट्टी के समय विदेश जाने वाले यात्रियों की भारी भीड़ रहती है। ऐसे में एयर इण्डिया के पायलटों की हड़ताल से एयर इण्डिया की केवल अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें ही रूकी हैं। इण्डियन एयरलाइंस की घरेलू उड़ानों पर कोई असर नहीं पड़ा है। जाहिर सी बात है कि जो यात्री एयर इण्डिया में सफर करते, वे अब निजी एयर लाइंस की तरफ भाग रहे हैं। निजी एयर लाइंस इस मौके का भरपूर फायदा उठा रही हैं। यात्रियों से मनमाने किराये वसूल कर रही हैं और आरोप है कि अपने मुनाफे को सत्ताधीशों के साथ गुपचुप रूप से बांट भी रही हैं। ऐसे दौर में जब हवाई सेवाऐं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी के दौर से गुजर रही हैं, भारत में आॅपरेट करने वाली निजी एअरलाइंस इस हड़ताल से लाभान्वित हो रही हैं।
यह हड़ताल कोई इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण नहीं थी, जिसे राजनैतिक कुशलता से काबू नहीं किया जा सकता था। एयर इण्डिया के सामने इससे भी बड़े कई मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की फौरन जरूरत है। मसलन जेट एयरलाइंस जैसी मुनाफे में चलने वाली एयरलाइंस भी अपने खर्चों में कटौती कर रही है। उसने दिल्ली के टी-3 हवाई अड्डा से अपने विस्तार को कम किया है और देश-विदेश में अपने खर्चों में कटौती की है। वहीं एयर इण्डिया आज भी सफेद हाथी की तरह पूरी दुनिया में अपना गैर मुनाफे का कारोबार फैलाकर बैठी है। अनेक देशों में इसने महंगे किराये पर कार्यालयों के लिए सम्पत्तियाँ ले रखी हैं, जिन्हें काफी हद तक समेटा जा सकता है। इसके अलावा देश-विदेश में बहुत सारी सम्पत्तियाँ खरीद रखी हैं, जिन्हें बनाए रखने में नाहक फालतू खर्चा हो रहा है। अगर बुद्धिमानी से काम लिया जाए, तो इन सम्पत्तियों को बेचकर एयरलाइंस की आर्थिक दुर्दशा दूर की जा सकती है। इसी तरह एयर इण्डिया में हमेशा से कर्मचारियों की भारी फौज को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आवश्यकता से कई गुना ज्यादा कर्मचारी एयर इण्डिया के पैरों में पत्थर की तरह बंधे बैठे हैं। जिनकी उत्पादकता नगण्य है और जिनके रहते घाटा दूर नहीं हो सकता। इसी तरह एयर इण्डिया उन सभी दोषों और अपराधों से भी मुक्त नहीं है, जो सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के सम्बन्ध में जगजाहिर हैं। मसलन निर्णय व्यवसायिक न होकर, अवैध कमाई की दृष्टि से लिए जाते हैं। राजनैतिक आकाओं और आलाअफसरों को खुश करने के लिए इस एयरलाइंस का नृशंस दोहन किया जाता है। योग्यता और कुशलता की जगह भाई-भतीजावाद को प्राश्रय दिया जाता है। जरूरत इस बात की थी कि नागरिक उड्यन मंत्री, उनका मंत्रालय और सरकार इस मंदी के दौर में एयर इण्डिया की सेहत दुरूस्त करने की कोशिश करते। पर वह तो हो नहीं रहा, हड़ताल के जाल में एयरलाइंस को उलझाकर, उसकी कब्र खोदी जा रही है।
नागरिक उड्यन मंत्रालय से जुड़े स्रोतों के अनुसार सरकार बहुत समय से एयरइण्डिया से पिण्ड छुड़ाने का मन बना चुकी है। 1991 के बाद से खुला बाजार और खुली प्रतियोगिता के दौर में सरकारी वायु सेवाऐं चलाने का कोई औचित्य नहीं है। परन्तु अपने वामपंथी और समाजवादी सहयोगियों से दबाव में सरकार ऐसे कड़े निर्णय लेने से संकोच करती रही है। क्योंकि उसे डर है कि कर्मचारियों के भविष्य की दुहाई देकर ये सहयोगी दल उसके लिए आफत खड़ी कर सकते थे। सरकार यह समझ चुकी है कि एयरइण्डिया को अब फायदे की कम्पनी नहीं बनाया जा सकता। इसलिए इसे क्रमशः धीमी मौत मारा जा रहा है। जिसे ख्यह खुद-ब-खुद ऐसे हालात पैदा हो जाऐं कि इस कम्पनी को बन्द करने के अलावा कोई विकल्प ही न बचे। मौजूदा हड़ताल को इसी परिपेक्ष्य में देखा जा रहा है।
सोचने वाली बात यह है कि जिस आम जनता के खून-पसीने की कमाई पर यह सब सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गए थे, आज उसी जनता को सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्धकों के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों से उम्मीद थी कि एक दिन ये देश के विकास का आधारभूत ढांचा खड़ा करेंगे। जिसके बाद आत्मप्रेरित आर्थिक विकास होने लगेगा। काफी सीमा तक सरकार इस उद्देश्य में सफल रही। सार्वजनिक क्षेत्र ने भारत के आर्थिक विकास के लिए जमीन तो तैयार की, पर पेड़ में फल लगने से पहले ही उसकी जड़ों में दीमक लग गई। एयर इण्डिया इससे अछूती नहीं है।
इसलिए जो लोग भी नागरिक उड्यन के क्षेत्र से किसी भी रूप में सम्बद्ध हैं, उन्हें अपनी आवाज और विवेक का इस्तेमाल कर पायलटों की इस हड़ताल का बहाना लेकर एयर इण्डिया के इस विनाश को रोकना चाहिए। उल्लेखनीय है कि नागरिक उड्यन सेवाओं से समाज का वह वर्ग जुड़ा है, जो आधुनिक है और अपनी आवाज सत्ताधीशों तक पहुँचा सकता है। इसलिए उन्हें सक्रिय होकर इस कम्पनी की समस्याओं का सार्थक समाधान खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
 

Sunday, May 20, 2012

भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भर्ती क्यों करना चाहते हैं चिदंबरम?

पिछले कुछ समय से देश के गृह मंत्री भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की आपूर्ति में कमी को लेकर परेशान हैं। विभिन्न राज्यों की निरन्तर बढ़ती पुलिस बल की मांग और आतंकवाद व नक्सलवाद से जूझने के लिए नए संगठनों की संरचना आदि के लिए श्री चिदंबरम को मौजूदा कोटे से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की जरूरत महसूस हो रही है। जिसके लिए वे ‘शॉर्ट सर्विस कमीशन’ जैसी व्यवस्था बनाकर भा.पु.से. में सीधे भर्ती करना चाहते हैं, जिससे नियुक्ति करने के लिए गृहमंत्री को संघ लोक सेवा आयोग की एक लम्बी चयन प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। उनके इस प्रयास से भा.पु.से. कैडर में बहुत बैचेनी है। देशभर में फैले भा.पु.से. के अधिकारियों को डर है कि इस तरह की व्यवस्था से भा.पु.से. का चरित्र बिगड़ जाऐगा और उससे पूरे काडर का मनोबल टूट जाऐगा। क्योंकि इन नई भर्तियों से भा.पु.से. में ऐसे अधिकारी आ जाऐंगे, जिन्हें एक लम्बी और जटिल चयन प्रक्रिया से नहीं गुजारा गया है।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भा.पु.से. की चयन नियमावली के अनुसार 1954 में नियम-7 (2) के तहत भारत सरकार ने यह साफ घोषणा कर दी थी कि भा.पु.से. का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से ही किया जाऐगा। हालांकि सेवा निवृत्त भा.पु.से. अधिकारी श्री कमल कुमार ने भा.पु.से. भर्ती योजना (2009-2020) की अपनी अन्तिम सरकारी रिपोर्ट में इन भर्तियों के लिए तीन विकल्प सुझाऐं हैं (1) सिविल सेवा परीक्षा में अगले कुछ वर्षों के लिए भा.पु.से. की सीटों की संख्या बढ़ाना (2) 45 वर्ष से कम आयु के व न्यूनतम 5 वर्ष के अनुभव के राज्यों के उप पुलिस अधीक्षकों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा से चयन करके भा.पु.से. का दर्जा देना। (3) सूचना प्रोद्योगिकी, संचार, वित्त एवं मानव संसाधन प्रबन्धन आदि के विशेषज्ञों को कुछ समय के लिए पुलिस व्यवस्था में डेपुटेशन पर लेना, ताकि इन विशिष्ट क्षेत्रों में लगे पुलिस अधिकारियों को फील्ड के काम में लगाया जा सके।
2009 की उपरोक्त रिपोर्ट के बाद 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की अगले 10 वर्षों की भर्ती योजना पर अपनी सरकारी रिपोर्ट देते हुए प्रो. आर. के. पारीख ने इस बात पर जोर दिया कि सिविल सेवा परीक्षा में सीटों का बढ़ाना ही एक मात्र विकल्प है और उन्होंने जोरदार शब्दों में डी.ओ.पी.टी. (कार्मिक विभाग) के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया कि सीमित परीक्षा के माध्यम से सीधी भर्ती की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि 2010 में भारत सरकार के गृह सचिव ने संघ लोक सेवा आयोग व विभिन्न राज्यों को पत्र लिखकर भा.पु.से. में सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भर्ती पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। जिस पर संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने जोरदार शब्दों में कहा कि, ‘‘अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र उसकी जटिल चयन प्रक्रिया और प्रशिक्षण व्यवस्था पर निर्भर करता है। इससे इतर कोई भी व्यवस्था इस प्रक्रिया की बराबरी नहीं कर सकती। इस बात का कोई कारण नहीं है कि भा.पु.से. के प्रत्याशियों की संख्या मौजूदा सिविल सेवा परीक्षा में ही अगले 6-7 वर्षों के लिए ही, रिक्तियां बढ़ाकर, पूरी क्यों नहीं की जा सकती? जो कि मौजूदा स्थिति में लगभग 70 है।
इसी जबाव में संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने यह भी कहा कि इस नई प्रक्रिया से भा.पु.से. के अधिकारियो का मनोबल गिरेगा और कई तरह के कानूनी विवाद खड़े हो जाएंगे। जिनमें वरिष्ठता के क्रम का भी झगड़ा पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया उस चयन प्रक्रिया से भिन्न है, जिसे आमतौर पर प्रांतों की सरकारों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए उस प्रक्रिया से चुने व प्रशिक्षित अधिकारियों को इसमें समायोजित करना उचित नहीं होगा। इसलिए उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में ही भा.पु.से. की सीट 200 तक बढ़ाने की सिफारिश की।
अनेक प्रांतों की सरकारों ने भी इस कदम का विरोध किया है। इसी तरह देश के अनेक पुलिस संगठनों के महानिदेशकों ने भी इस कदम का विरोध किया है। उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक में जब गृहमंत्रालय ने पूर्व सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से  भा.पु.से. में चुना था, तो उस निर्णय को 1975 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था। उसके बाद से आज तक ऐसा चयन कभी नहीं किया गया। इसी तरह भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस के महानिदेशक ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए लिखा कि जिलों की पुलिस आवश्यकताऐं और सेना की प्रशिक्षण व्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसलिए सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भा.पु.से. में नहीं लिया जा सकता।
इसके अलावा भारत सरकार के कानून मंत्रालय ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया। उसका कहना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 (3) के अनुसार ‘सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की सहमति सभी मामलों में लेना अनिवार्य होगा।’ इसलिए कानून मंत्रालय ने भी मौजूदा चयन प्रणाली में रिक्तियां बढ़ाने का अनुमोदन किया।
इन सब विरोधों के बावजूद केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने 11 मई, 2010 के अपने पत्र में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री को पत्र लिखकर कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए, वे सीमित प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें। आश्चर्य की बात है कि गृह मंत्रालय ने 19 अगस्त 2011 को भा.पु.से. (भर्ती) नियम 1954 में संशोधन करके सीमित प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था कायम कर दी और इसके लिए 3 सितंबर, 2011 को भारत सरकार के गजट में सूचना भी प्रकाशित करवा दी। अब यह परीक्षा 20 मई, 2012 को होनी है। देखना यह है कि इस मामले में क्या गृहमंत्री अपनी बात पर अड़े रहते हैं, या उनकी इस जिद से उत्तेजित पुलिस अधिकारी किसी जनहित याचिका के माध्यम से इस चयन प्रक्रिया को रोकने में सफल होते हैं? मैं समझता हूँ कि यह गम्भीर मुद्दा है और दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर, आपसी सहमति से जो न्यायोचित और व्यवहारिक हो, वही करना चाहिए। मूल मकसद है कि देश की कानून व्यवस्था सुधरे। हर प्रयास इसी ओर किया जाना चाहिए। 

Monday, April 30, 2012

सचिन बने सांसद! हंगामा क्यों है बरपा?

सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में लाकर कांग्रेस आलाकमान ने राजनैतिक हलकों में हड़कम्प मचा दिया। किसी को उम्मीद न थी कि क्रिकेट के अपने कैरियर के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोत्तम दौर में सचिन इस तरह रातों-रात सांसद बन जाऐंगे। वो भी तब जब उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। जहाँ कांग्रेस के लोगों के बीच में इस बात को लेकर उत्साह है कि सचिन कांग्रेस के लिए युवाओं के मन में जगह बनाएंगें, वहीं कांग्रेस के आलोचक मानते हैं कि इन शगूफों से कांग्रेस की छवि बदलने वाली नहीं। अगर ऐसा है तो क्यों आलोचक सचिन के सांसद बनने पर इतने बौखलाऐं हुए हैं? एक टी.वी. चर्चा में तो सचिन को ‘डेमोगोग’ तक बता दिया गया। जबकि ‘डेमोगोग’ वो होता है जो समाज के एक असंतुष्ट वर्ग की भावनाऐं भड़काकर व्यवस्था ध्वस्त करने की अवैध कोशिश करता है। ‘डेमोगोग’ की इससे भी तीखी परिभाषा मशहूर दार्शनिक अरस्तू ने दी थी। जिसने समाज में ऐसी तथाकथित क्रांति करने वाले को अवैध नेता करार दिया था। इस परिभाषा से सचिन तेंदुल्कर ‘डेमोगोग’ दूर-दूर तक नजर नहीं आते। एक सीधा-साधा क्रिकेट खिलाड़ी अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर अन्तर्राष्ट्रीय खेल जगत का सितारा बन गया, उससे जनता को भड़काने या व्यवस्था के खिलाफ क्रांति करवाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पर आलोचकों का सचिन तेंदुलकर पर इस तरह हमला करना यह जरूर दर्शाता है कि उन्हें डर है कि कहीं कांग्रेस 2014 के चुनाव में सचिन से फायदा न उठा ले। इधर कांग्रेस में इस बात की पूरी तैयारी की जा रही है कि धीरे-धीरे ऐसे कई कदम उठाए जाऐं, जिनसे कांग्रेस की छवि चुनाव तक सुधरती चली जाए।
पर सवाल उठता है कि राज्यसभा में किसी को मनोनीत कर भेजे जाने का क्या उद्देश्य होता है? संविधान निर्माताओं ने यह प्रावधान समाज के उन विशिष्ट लोगों के लिए रखा था, जो अपने कार्यकलापों से राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा योगदान करते हैं, किंतु किसी राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाते। ऐसे लोगों के अनुभव और ज्ञान का उपयोग कानून के निर्माण की प्रक्रिया में किया जा सके। इसलिए उनके मनोनयन की व्यवस्थ की गई है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो सचिन का व्यक्तित्व और रूचि दूर-दूर तक कानून की प्रक्रिया में नहीं है। ऐसी भी संभावना है कि पूर्ववर्ती सितारे सांसदों की तरह सचिन भी या तो संसद में आयें ही न और या उनका योगदान शून्य रहे। ऐसा होता है तो यह मनोनयन निरर्थक रहेगा।
दरअसल आजादी के बाद से हर सत्तारूढ़ दल ने मनोनयन के इस प्रावधान का ठीक उपयोग नहीं किया। अपने चाटुकारों या अपने अनुग्रह पात्रों को राज्यसभा में भेजकर इस प्रावधान का मखौल उड़ाया है। कोई दल इसमें अपवाद नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र को ही लें तो कभी ऐसे पत्रकार का राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन नहीं हुआ जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी और समाज के प्रति योगदान की राष्ट्रीय ख्याति हो। ऐसे पत्रकार और संपादक जो अपनी नौकरी के दौरान दलविशेष की छवि बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें ही वह राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद राज्यसभा में भेजता है। एक लम्बी सूची है ऐसे नामों की, जो चाहे फिल्म क्षेत्र से हों, साहित्य से हों, संस्कृति से हों, कला से हों, शिक्षा से हों या किसी अन्य कार्यक्षेत्र से हों, उन्हें जब राज्यसभा में भेजा गया, तो उनका योगदान नगण्य रहा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि या तो इस प्रावधान को समाप्त किया जाए और या मनोनयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। कहने को तो हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर दल के कार्यकर्ताओं को चुनाव में टिकट देने से लेकर किसी भी स्तर पर भेजना हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्वाहन कभी भी नहीं किया जाता। ऐसे फैसले दल के नेता द्वारा अपने रागद्वेष और राजनैतिक लाभ के मकसद से लिए जाते हैं। यही कारण है कि हमारी संसद में बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। बहस का स्तर ही नहीं गिर रहा, सांसदों का आचरण भी कई बार देश की जनता को उद्वेलित कर देता है। 
सारे विवाद को एकतरफ रखकर अगर कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले का भावना के स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो यह कहना गलत न होगा कि टैस्ट और वनडे में मिलकर सौ शतक बनाने वाले सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में भेजकर कांगे्रेस आलाकमान ने देश के करोड़ों क्रिकेटप्रेमी युवाओं के हृदय को जीत लिया है। इतना ही नहीं इससे देश के श्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान भी हुआ है। जिसके वे सर्वथा सुपात्र हैं। बहुत दिनों बाद ऐसा लगा कि राजनैतिक हानि-लाभ से हटकर कांग्रेस आलाकमान ने एक पारदर्शी फैसला लिया है। जिसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है।

Sunday, April 22, 2012

सियाचिन में अमरीकी कूटनीति

अरूणाचल से लेकर कश्मीर तक की सीमाओं पर भारत को पाकिस्तान और चीन के मार्फत घेरने की अमरीका की कूटनीति का परिणाम है, पाकिस्तान के सेना प्रमुख अशफाक परवेज कयानी का ताजा बयान। देखने में यह बड़ा मनभावन लगता है। भारत के रक्षा राज्य मंत्री ने भी कूटनीतिक भाषा में इसका समर्थन किया है। 7 अप्रेल को सियाचीन में आए बर्फीले तूफान में पाकिस्तानी सेना ने अनेक सिपाही मारे गए। वहीं राहत कार्य देखने गए जनरल कयानी ने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों को सियाचिन ग्लेशियर से फौजी जमावाड़ा हटा देना चाहिए। जिससे दुनिया के इस सबसे ऊँचे और जोखिम भरे रणक्षेत्र पर हो रहा खर्चा विकास कार्यों पर लग सके। दिल्ली ने भी इस बयान का स्वागत किया है। जबकि पाकिस्तान के अखबारों ने इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सवाल है कि भारत और पाक के सम्बन्धों में मधुरता लाने के जो भी प्रयास अब तक दोनों देशों के चुने हुए नेताओं ने किए हैं, उनमें पलीता लगाने का काम पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व करता आया है। पाठकों को याद होगा कि जब भारत के गृहमंत्री पी0 चिदांबरम पाकिस्तान गए थे, तो हमने इसी कॉलम में लिखा था, ‘कयानी बिना वार्ता बेमानी’। कारण राजनैतिक निर्णयों को पाकिस्तान में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक उन्हें वहाँ की फौज और आई0एस0आई0 की स्वीकृति न मिले। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि पाकिस्तान के जनरल की भाषा बदल गयी और वे मधुर सम्बन्धों और विकास की बात करने लगे?
दरअसल सियाचीन पर पाकिस्तान का कोई हक नहीं है। वहाँ घुसने की जबरदस्ती में पाकिस्तान लगातार मुँह की खाता रहा है। 20 हजार फुट ऊँचे बर्फ से ढके इन पर्वतों पर 1984, 1990, 95, 96, 99 में बार-बार पाकिस्तान की फौज ने कब्जा करने की कोशिश की और हर बार भारत की सेनाओं से मुँह की खाई। आज सियाचीन के ऊपरी हिस्सों पर भारत का आधिपत्य है। जबकि निचले हिस्सों पर पाकिस्तान की सेना तैनात है। सियाचीन में इस फौजी जमावड़े के कारण अब तक दोनों ओर के 2 हजार सैनिक खराब मौसम और छुटपुट युद्धों में मारे जा चुके हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों देश अपनी-अपनी तरफ से इन संवेदनशील पहाड़ों पर देश और विदेशों के पर्वतारोही दलों को पर्वतारोहण की अनुमति देकर अपने आधिपत्य को प्रमाणित करने का अप्रत्यक्ष प्रयास करते रहे हैं। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम अपनी-अपनी तरफ से इन पहाड़ों का दौरा कर चुके हैं। जिसे विपरीत मौसम की परिस्थितियों के कारण उनका बहुत साहसभरा कदम माना गया।
भारत की पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी सीमाऐं पाकिस्तान, चीन, नेपाल, वर्मा व बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं। सामरिक दृष्टि से यह सीमाऐं काफी महत्व की हैं। खासकर अमरीका के लिए। क्योंकि यहाँ उसकी दखल से उसे दोहरा लाभ है। एक तरफ तो वह चीन की सीमाओं पर अपना दबाव बनाये रख सकता है और दूसरी तरफ यहीं से रूस के खिलाफ अपनी पकड़ बनाए रख सकता है। इसलिए अमरीकी कूटनीतिज्ञ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन सीमा विवादों में भारी रूचि रखते हैं और इन विवादों का फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं। अगर यह कहा जाए कि इन विवादों के पीछे अमरीका के अन्तर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थ हैं, तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए कयानी के ताजा बयान को बहुत महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। अगर वास्तव में पाकिस्तान के सेना प्रमुख का हृदय परिवर्तन हो गया है, तो उन्हें भारत की पश्चिमी सीमाओं पर चले आ रहे अनावश्यक तनाव को कम करने की भी पहल करनी चाहिए। जिससे दोनों देशों के बीच नागरिक और व्यापारिक आदान-प्रदान सुगम हो सके। इसके साथ ही आई0एस0आई0 को नियन्त्रित करते हुए पाकिस्तान की भूमि पर पनप रहे आतंकवाद के अड्डों का सफाया करने की भी जोरदार पहल करनी चाहिए। पर ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा। इसलिए कयानी के बयान का कोई गहरा मतलब निकालने की जरूरत नहीं है।
भारतीय उपमहाद्वीप के नागरिकों के लिए यह भारी दुख का विषय रहा है कि ब्रिटानी हुकूमत यहाँ से जाते-जाते मुल्क के दो टुकड़े करा गई। आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले हिन्दू और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए नफरत का जहर बो गई। जिसका खामियाजा दोनों देशों के आवाम और अर्थव्यवस्था को आज तक भुगतना पड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव और सैनिक प्रतिस्पर्धा को बनाये रखना और बढ़ाते रहना विकसित देशों के हथियारों के सौदागरों के लिए भारी मुनाफे का सौदा है। सब जानते हैं कि अमरीका जैसे लोकतांत्रिक देश की भी विदेश नीति ऐसे ही निहित स्वार्थ नियन्त्रित करते हैं। इसीलिए लोकतंत्र की आड़ में अमरीकी सरकार और उसकी सी0आई0ए0 जैसी एजेंसी पूरे वैश्विक पटल पर शतरंज के खेल खेला करती है और दुनिया के देशों को मोहरों की तरह भिड़ाया करती है। कयानी के बयान को इसी परिपेक्ष्य में देखने की जरूरत है। 

Sunday, April 15, 2012

तिरूपति में धरोहरों का विध्वंस

दुनिया का सबसे लोकप्रिय और धनी हिन्दू मन्दिर तिरूपति बालाजी गंभीर विवादों में घिरा है। सारी दुनिया से करोड़ों भक्त आन्ध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति बालाजी के दर्शन करने पूरे वर्ष आते हैं। लगभग 6 सौ करोड़ रूपये का यहाँ वर्षभर में चढ़ावा चढ़ता है। मन्दिर की कुल सम्पदा लगभग एक  लाख करोड़ रूपये है। दुनिया के इस सबसे धनी मन्दिर का प्रबन्धन आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एक न्यास ‘तिरूपति तिरूमला देवस्थानम्’ (टी.टी.डी.) द्वारा किया जाता है। ट्रस्ट द्वारा यात्रियों की सुविधा के लिए और मन्दिर के रख-रखाव के लिए जो व्यवस्थाऐं की गयीं हैं, उनकी प्रशंसा यहाँ आने वाला हर व्यक्ति करता रहा है। खासकर जब वे इन व्यवस्थाओं की तुलना देश के बाकी हिन्दू मन्दिरों से करते हैं, तो निश्चय ही इस मन्दिर की श्रेष्ठता सिद्ध होती है।
आज कल लगभग सवा लाख यात्री औसतन यहाँ प्रतिदिन आते हैं। यानि सालभर में तीन चार करोड़। अगले कुछ वर्षों में यह संख्या तेजी से दोगुनी हो जाऐगी। पर इस बढ़ते जनसैलाब को संभालने की टी.टी.डी. की कोई तैयारी दिखाई नहीं देती। आज भी बाहर से आने वाले आम यात्रियों को सिर मुंडवाने से लेकर दर्शन की टिकट, ठहरने के कमरे की बुकिंग आदि के लिए टी.टी.डी. के कर्मचारियों को दोगुनी रिश्वत देनी पड़ती है। इसके बाद भी गारण्टी इस बात की नहीं कि आधा सैकण्ड का भी दर्शन मिल सके। आश्चर्य की बात यह है कि ऊपर से नीचे तक व्याप्त इस भ्रष्टाचार को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। भ्रष्टाचार में पकड़े गए कर्मचारी और अधिकारी कुछ दिन बाद उसी जगह फिर तैनात हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस मन्दिर के बोर्ड का अध्यक्ष एक शराब माफिया बना दिया गया था। भ्रष्टाचार के इस युग में भगवान का दरबार उससे अछूता नहीं है, यह बात तो मान भी ली जाए, पर पैसा कमाने की हवस में टी.टी.डी. के अधिकारी लगातार इस मन्दिर की परपंराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं व भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे भक्त और संत बहुत दुखी हैं। सबसे ताजा उदाहरण यह है कि मन्दिर के सामने बने एक हजार खम्बों के ऐतिहासिक मण्डप को ध्वस्त करके पहाड़ के पीछे नाले में फैंक दिया गया। विजय नगर साम्राज्य के राजा द्वारा सन् 1454 ई0 में बनाए गए इस मण्डप में वैकुण्ठ एकादशी के दस दिन पहले और दस दिन बाद भारी उत्सव मनता था। इस मण्डप के टूट जाने से यह सुन्दर परंपरा नष्ट हो गयी।
यह बात दूसरी है कि इस विध्वंस के लिए जिम्मेदार रहे पी0वी0आर0के0 प्रसाद आज अपना अपराध कबूल करते हैं। पर यह तो एक उदाहरण है। मन्दिर के पास स्थित पौराणिक पुष्कर्णी भी नष्ट कर दी गई। इसी तरह तिरूमला पर्वत पर चढ़कर आने वाले यात्री जिस पौराणिक द्वार से प्रवेश करते थे और जिसका गहरा आध्यात्मिक महत्व था, उस द्वार को भी नष्ट कर दिया गया। तिरूमला पर्वत पर पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार हजारों तीर्थस्थल हैं। पर आधुनिकीकरण की आड़ में टी.टी.डी. के बुद्धिहीन अधिकारी धीरे-धीरे इन सभी धरोहरों को नष्ट करते जा रहे हैं। उनका हर काम भगवान बालाजी को नोट छापने की मशीन मानकर होता है
सब जानते हैं कि सगुण उपासना में मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पत्थर की साधारण मूर्ति नहीं माना जा सकता। उन्हें साक्षात जीवधारी की तरह जागृत भगवान माना जाता है। इसलिए उनके प्रातः उठने से लेकर रात्रि शयन तक की व्यवस्था एक महाराजाधिराज की तरह की जाती है। जिसमें अभिषेक, श्रृंगार, आरती और अनेक बार अनेक तरह के भोग, दोपहर का विश्राम और रात्रि का शयन तक शामिल होता है। देशभर के मन्दिरों में यही व्यवस्था है। पर संत समाज और भक्त समाज को इस बात की बहुत पीड़ा है कि धनलोलुप टी.टी.डी. ने वैंक्टेश्वर बालाजी के शयन का समय भी समाप्त कर दिया है। उन्हें रात्रि में ढेड़-दो बजे तक जगाए रखा जाता है और सुबह ढाई-तीन बजे से फिर जगा दिया जाता है। जबकि इसकी बेहतर और वैकल्पिक व्यवस्थाऐं की जा सकती हैं।
चूंकि टी.टी.डी. विशिष्ट व्यक्तियों जिनमें राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपति ही नहीं, फिल्म, मीडिया और खेल के सितारे भी शामिल हैं, उनको वी.आई.पी. व्यवस्था में दर्शन करवाता है। इसलिए कोई इसके खिलाफ आवाज उठाना नहीं चाहता। पर सच्चे संत अपनी परंपराओं और भक्तों की भावनाओं से हो रहे इस खिलवाड़ से मूक दृष्टा बने नहीं रह सकते। आन्ध्र प्रदेश के ऐसे ही एक उच्च कोटि के विद्वान, समाजसेवी किन्तु क्रंातिकारी युवा संत श्री श्री श्री त्रिदण्डी चिन्ना श्रीमन्नारायण रामानुज जीयार स्वामी जी ने टी.टी.डी. की विध्वंसकारी नीतियों के विरूद्ध आवाज बुलन्द करने का संकल्प लिया। सबसे पहले तो उन्होंने अधिकारियों से वार्ता कर उन्हें सद्बुद्धि देने का प्रयास किया। जब उनकी नहीं सुनी गई, तो अपने प्रिय शिष्य डा. रामेश्वर राव जैसे अन्य सहायकों की मदद से स्वामी जी ने नाले में पड़े उन ऐतिहासिक एक हजार खम्बों को बाहर निकलवाया और उन्हें उचित स्थान पर पहुँचाया ताकि भविष्य में इस मण्डप का पुर्ननिर्माण हो सके।
पूरे आन्ध्र प्रदेश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे जीयार स्वामी जी ने एक लाख आन्दोलनकारी भक्तों के साथ तिरूमला पहाड़ पर चढ़ने की चेतावनी दे दी, तो प्रशासन में हड़कम्प मच गया। उन्हें समझा-बुझाकर रोका गया। पर स्वामी जी चुप बैठने वाले नहीं है। वे आन्ध्र प्रदेश के गांव-गांव मे जाकर अलख जगा रहे हैं ताकि तिरूपति मन्दिर में हो रही लूट को रोका जा सके और विध्वंसक नीतियों को बन्द किया जा सके। इस आन्दोलन को आन्ध्र प्रदेश में भारी समर्थन मिलने लगा है। पर भारत का कोई तीर्थ ऐसा नहीं, जिसके उपासक उसी प्रांत में रहने वाले हों। सारे भारत से भक्त तिरूपति जाते हैं। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि जब इन अव्यवस्थाओं और बेईमानियों का समाचार देश के अन्य हिस्सों में पहुँचेगा तो पूरे देश का भक्त समाज टी.टी.डी. की नीतियों के विरोध में उठ खड़ा होगा।

Monday, April 9, 2012

बाबा रामदेव हर कदम सोच - विचार कर उठाएं

ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव को मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने में मजा आता है। अभी कांग्रेस से उनकी पंगेबाजी चल ही रही है कि उन्होंने आयुर्वेद की दवाओं के निर्माताओं से भी पंगा ले लिया। जिससे देश की नामी आयुर्वेद कम्पनियों के निर्माता उनसे खासे नाराज हैं। योग सिखाते-सिखाते बाबा ने आयुर्वेद का कारोबार खड़ा कर डाला। अब तक वे इसे अपने केन्द्रों और अनुयायियों तक सीमित रखे हुए थे। पर अब वे उतर पड़े हैं खुले बाजार में और ताल ठोककर आयुर्वेद की दवाओं और प्रसाधनों के देशी और विदेशी निर्माताओं को चुनौती दे रहे हैं। बाबा अपने टी0वी0 पर सीधे प्रसारण में खुलेआम इन कम्पनियों के उत्पादनों की मूल्य सूची पर सवाल खड़े कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि ये कम्पनियां किस तरह से आयुर्वेद के नाम पर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रही हैं। साथ ही वे अपने उत्पादनों की सूची जारी करके मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन कर रहे हैं।
क्या बाबा के इस नये शगूफे को विशुद्ध मार्केटिंग की रणनीति माना जाए? लगता तो ऐसे ही है कि आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव दोनों ने मिलकर आयुर्वेद के बाजार पर कब्जा करने का इरादा कर लिया है। वर्ना इस तरह योग गुरू को अपने उत्पादनों के लिए देश के विभिन्न नगरों में जाकर प्रचार करने की क्या जरूरत थी? पर आश्चर्य की बात यह है कि उनके दर्शक और श्रोता ऐसा नहीं मानते। बाबा के दूसरे अभियानों की तरह वे इसे भी जनचेतना का एक अभियान ही मान रहे हैं। उनका कहना है कि बाबा के रहस्योद्घाटन ने उनकी आँखे खोल दी हैं। वे अब तक लुटते रहे और उन्हें पता ही नहीं चला। उदाहरण के तौर पर जब दुनियाभर में ऐलोवेरा जैल बाजार में लाया गया तो विदेशी कम्पनियों ने इसे सेहत का रामबाण बताकर खूब महंगा बेचा। 1200 रूपये लीटर तक बिका। मुझे याद है कि सन् 2000 में अपने अमरीकी प्रवास के दौरान मैंने ऐलोवेरा का खूब शोर सुना। जिसे देखो इसकी बात करता था। मैं भी स्टोर में उत्सुकतावश ऐलोवेरा देखने पहुँचा। तब पता चला कि बचपन से घर के बगीचे में जिस ग्वारपाठा को देखा था, जिसके गूदे से माँ हलुवा और रोटी बनवाती थी, उसकी एक पत्ती चार डॉलर की बिक रही थी।
पिछले दिनों बाबा रामदेव के संस्थान ने ऐलोवेरा जैल को चैथाई कीमत पर जब बाजार में उतारा तो बड़ी-बड़ी कम्पनियों को अपने दाम घटाने पड़े। बाबा के सहयोगी आचार्य बालकृष्णन इसे अपनी नैतिक जीत बताते हैं। उनका दावा है कि हम आयुर्वेद का बाजार कब्जा करने नहीं जा रहे। इतना बड़ा देश है, हम ऐसा कर ही नहीं सकते। पर गुणवत्ता के उत्पादनों को ‘वाजिब दाम’ में बाजार में लाकर हम देशी और विदेशी कम्पनियों को चुनौती दे रहे हैं। उन्हें दाम कम करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसलिए वे मानते हैं कि बाबा रामदेव का इन उत्पादनों के समर्थन में जनता को सम्बोधित करना एक आम मार्केटिंग का शगूफा नहीं है, बल्कि उनके राष्ट्र निर्माण अभियान का एक और कदम है। वे यह भी दावा करते हैं कि अगर देशभर में फैले छोटे निर्माता उनसे तकनीकि सीखकर इन औषधियों और प्रसाधनों का उत्पादन करना चाहें, तो वे इसे सहर्ष बांटने के लिए तैयार हैं।
यह बात दूसरी है कि बाबा के आलोचक बाबा के इस पूरे कार्यक्रम को धर्म की आड़ में चल रहे व्यापार की संज्ञा देते हैं। सीपीएम नेता वृंदा करात और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बाबा पर होने वाले हमलों को छोड़ भी दें तो भी देश के अनेक धर्माचार्य रामदेव बाबा को धंधेबाज बताते हैं। जबकि रामदेव बाबा का कहना है कि वे भारत के सनातन ज्ञान को मार्केटिंग का पैकेज बनाकर इस लिए चल रहे हैं ताकि राष्ट्र निर्माण के उनके अभियान में उन्हें साधनों के लिए पूंजीपतियों या राजनैतिक दलों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। उनका मानना है कि इन लोगों पर अपनी आर्थिक निर्भरता सौंपने के कारण ही हमारी राजनीति इतनी कलुषित हो गई है। जिनके मतों से राजनेता चुने जाते हैं, उनसे ज्यादा उन्हें उन लोगों की चिंता होती है, जिनकी आर्थिक मदद से वे चुनाव लड़ते हैं। इसलिए वे आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ राष्ट्रनिर्माण का आन्दोलन चलाना चाहते हैं। वे उदाहरण देते हैं महात्मा गांधी के स्वराज कोष का, जो गांधी जी ने राष्ट्रीय राजनीति में कूदते ही स्थापित किया था। पर बाबा के आलोचक इससे सहमत नहीं हैं। वे आरोप लगाते हैं कि गांधी जी की तरह बाबा इस कारोबार के संचालन से अनासक्त नहीं हैं। इसलिए उन्होंने अपने मुठ्ठीभर चहेतों के हाथ में सारा कारोबार सौंप रखा है। यह रवैया गैर लोकतांत्रिक है और अधिनायकवादी है। अपनी सफाई में बाबा इस आरोप से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उनका कहना है कि दूसरों के अनुभव से सीखकर वे नहीं चाहते कि उनकी योजनाओं को भी निहित स्वार्थ घुसपैठिया बनकर धराशायी कर दें। जिसके हाथ में तिजोरी की चाबी होती है, ताकत भी उसी के पास होती है। इसलिए बाबा अपने आर्थिक और योग के साम्राज्य को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखना चाहते हैं।
जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि बाबा रामदेव ने गत् चार-पांच वर्षों से हिन्दुस्तान की राजनीति में तूफान मचा दिया है। उन पर जितना सरकारी हमला तेज होता है, उतना ही वे और भड़कते हैं और बार-बार अपने अनुयायियों से एक बड़े आन्दोलन के लिए तैयार रहने को कहते हैं। जो उनकी घोषणा के अनुसार जल्द ही देश में शुरू होने वाला है। सोचने वाली बात यह है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद क्या बाबा रामदेव को सिर्फ इसलिए दरकिनार किया जा सकता है कि वे केसरिया कपड़े पहनते हैं? या वे योग और आयुर्वेद को एक कॉरपोरशन की तरह चलाते हैं? या फिर उनके उत्साह और ऊर्जा का भी मूल्यांकन किया जाए, जो वे अपने अभियान के लिए लगातार जनता के बीच में झोंके हुए हैं? बाबा रामदेव के जीवन का लक्ष्य सत्ता हासिल करना हो या राष्ट्र का निर्माण, वो पूरे जीवट से जुटे हैं और यही उनके व्यक्तित्व के आकर्षक या विवादास्पद होने का कारण है। बाबा रामदेव जैसे व्यक्तित्वों का सही मूल्यांकन शायद राजनीतिक जमात या मीडिया नहीं कर सकता। यह काम तो शायद जनता करेगी। जिनपर उनका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए बाबा को भी हर कदम खूब सोच-विचार कर उठाना चाहिए।

Monday, April 2, 2012

उत्तर प्रदेश में नई बयार

पाँच साल से एक किस्म के अघोषित आतंक में जी रही उत्तर प्रदेश की नौकरशाही बदले परिवेश में ज्यादा काम करने को उत्साहित है। विवादों में फंसने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त के साथ उत्तर प्रदेश के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राग-द्वेष से मुक्त होकर, अधिकारियों की क्षमता और गुणों के अनुसार, जिम्मेदारियाँ सौंप रहे हैं। बहिन जी के शासनकाल में जिन अधिकारियों ने भी अच्छा काम किया था, उन्हें अपने पदों पर रहने दिया गया है या ज्यादा जिम्मेदारी देकर उनका कद बढ़ाया है। मतलब यह कि अगर आप काम से कार्य रखते हैं तो आप मौजूदा मुख्यमंत्री के पसन्दीदा व्यक्ति हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप उनकी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के चहेते थे या नहीं। हाल ही में प्रदेश के पुलिस अधिकारियों की सूची जारी हुई। उत्तर प्रदेश में प्रायः जिलों के स्तर पर कुछ ऐसे पुलिस अधिकारियों को तैनात किया जाता रहा है, जो मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र हों और उनके राजनैतिक एजेण्डा को आगे बढ़ाऐं। जबकि इस बार अखिलेश यादव का प्रयास शायद उस माहौल को बनाने का है, जिसमें आम जनता का विश्वास पुलिस पर व अपने थानों पर फिर से कायम हो।
लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास कालीदास मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग पर गत् 5 वर्षों से सामान्यजन और यातायात की आवाजाही प्रतिबन्धित थी। अखिलेश ने उसे सर्वसाधारण के लिए खोल दिया है। 4-5 चहेते अधिकारियों के अलावा बहिन जी किसी को भी अपने आवास में आने नहीं देती थीं। मीडिया और जनता की तो और भी हालत खराब थी। पर अब मुख्यमंत्री के घर मिलने वाले आम लोगों की लम्बी कतारें लगी हैं। जिससे प्रदेश की जनता में एक नई आशा जगी है। उल्लेखनीय है कि बसपा की हार के लिए एक कारण बहिन जी का एकांतवास भी बताया जा रहा है। वे किसी से मिलना पसन्द नहीं करती थीं।
अखिलेश यादव के सहज व मिलनसार स्वभाव को राजनैतिक विश्लेषक उनके व्यक्तित्व की कमजोरी या अनुभवहीनता बता रहे हैं। जबकि अखिलेश का यही गुण उनकी विजय का कारण बना। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर भी अखिलेश हर आने वाले से गर्मजोशी से मिल रहे हैं। जिसका बहुत अच्छा सन्देश प्रदेश में जा रहा है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव के कुछ राजनैतिक निर्णयों की एक वर्ग द्वारा आलोचना भी की गई है। पर साथ ही ऐसा मानने वालांे की कमी नहीं कि बहुमत में होने के बावजूद अखिलेश सारे निर्णय स्वंय लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। राजनैतिक दबाव के कारण उन्हें कई निर्णय अपने मन के विरूद्ध भी लेने पड़े हैं।
देश-विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अखिलेश यादव की समझ काफी विकसित हुई है। वे हर प्रस्ताव और मुद्दे को वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। 
बेरोजगारी भत्ता देने की अखिलेश की योजना को उनके आलोचक एक जल्दी में लिया गया अव्यवहारिक कदम बता रहे हैं। जबकि देश में फैली भारी बेरोजगारी का हल ढूंढे बिना युवाओं को अपने हाल पर छोड़ देने से अराजकता बढ़ रही है। बेरोजगारी भत्ता उन्हें उम्र के इस नाजुक मोड़ पर टॉनिक का काम करेगा। देश की अर्थव्यवस्था को देखते हुए, इन विपरीत परिस्थितियों में, अखिलेश यादव का यह कदम साहसी माना जाऐगा। केवल यह ध्यान रखना होगा कि इस योजना का दुरूपयोग करने की मंशा रखने वाले सफल न हों।
प्रदेश की कमजोर माली हालत को उबारने के लिए भी कुछ साहसिक कदम उठाने पड़ेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि विकास प्राधिकरणों से लेकर ऐसे 26 विभाग हैं, जो प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भार बने हुए हैं। इन विभागों से जनता को लाभ कम और तकलीफ ज्यादा है। विकास के नाम पर इन्होंने नगरों का विनाश करने का काम किया है। अगर इन विभागों को बन्द कर दिया जाए तो उत्तर प्रदेश सरकार को कई हजार करोड़ का सालाना फायदा होगा। वैसे भी ये विभाग लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जहाँ एक तरफ युवा मुख्यमंत्री के मन में कुछ कर गुजरने का अदम्य उत्साह है, वहीं प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, और प्रशासनिक व्यवस्था उन्हें नाकाम करने में तब तक जुटी रहेगी, जब तक मुख्यमंत्री इन लोगों को इनकी सही जगह नहीं दिखा देते। उत्तर प्रदेश ने लम्बे समय से कोई विकास नहीं देखा। प्रदेश की जनता अब प्रदेश का विकास तेजी से होते हुए देखना चाहती है। अखिलेश यादव को नीतिश कुमार, शीला दीक्षित व नरेन्द्र मोदी के कुछ सफल प्रयोगों को अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। क्योंकि इनकी कार्यशैली ने इन्हें दो-तीन बार लगातार मुख्यमंत्री बनाया है। इसके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि विचारों और सलाह लेने का काम नौकरशाही के साथ ही विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों से लिया जाए। 

Sunday, March 25, 2012

ये कैसा रामराज्य ?

पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।

Sunday, March 18, 2012

समय बरबाद कर रहे हैं नेतृत्व और चिंतक

संसद और टी.वी. की बहस को देखकर क्या आपको लगता है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी देश की समस्याओं के समाधान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं या हम फिजूल की नोंक-झोंक में कीमती समय बरबाद कर रहे हैं ? देश में पैदा हो रहे इन हालातों के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार हैं। जहाँ काँग्रेस नेतृत्व अपने लम्बे अनुभव के बावजूद विपक्ष और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा, वहीं विपक्ष और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा शोर मचाकर लोगों में हताशा पैदा कर रहा है।
सात फीसदी की आर्थिक विकास दर को हासिल करने का लक्ष्य लेकर प्रणव मुखर्जी ने जो बजट प्रस्तुत किया, वह ‘हैण्डस अप बजट’ था। यानि सरकार ने यह तय कर लिया कि मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक हालात में वह कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने पर विपक्ष के भड़कने का पूरा खतरा था। दूसरी तरफ कड़े कदम से मतदाताओं के बीच आक्रोश पैदा हो सकता था। जो 2014 के लोकसभा चुनावों के लिये घातक होता। वैसे इस सरकार के पास बजट प्रस्तुत करने का एक मौका फिर 2013 में आयेगा, लेकिन उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंदी की आहट को ध्यान में रखकर कुछ कदम भले ही उठाये गये हों, पर इस बजट को कामचलाऊ बजट से ज्यादा कुछ नहीं का जा सकता।
काँग्रेस अपनी इस हालत के लिये कहाँ तक जिम्मेदार है ? उत्तरांचल को लीजिये। हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है ? जिस आदमी ने उत्तरांचल में काँग्रेस को खड़ा किया उसे तो 2002 में ही मुख्यमंत्री बना देना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अबकी बार फिर रावत के साथ धोखा हुआ। पंजाब और उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की आशा के विपरीत परिणाम  आने के बाद उत्तरांचल ने कुछ आंसू पोंछे थे। पर इस नाटक ने वहाँ भी काँग्रेस की छवि खराब करने का काम किया हैं।  नेतृत्व को सोचना होगा कि पुराने रवैये से अब महत्वाकांक्षी जनता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि राहुल गांधी फेल हो गये। आखिर 11 फीसदी मत कांग्रेस को मिला है। उस राज्य में जहां गांव कस्बे और जिले स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का चेहरा गायब हो चुका था। संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं है। कार्यकर्ता जैसी कोई चीज वहां नहीं हैं प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में नहीं है जो आम आदमी व खासकर युवाओं को आश्वस्त कर सकें। जिसके पास सोच, क्षमता और आत्मविश्वास है। सब कुछ इतना लचर पचर था, फिर क्यों नेतृत्व ने इसे संजीदगी से सुधारा नहीं ? सुल्तानपुर रायबरेली के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया कि केवल चुनावी उत्सवों पर दर्शन देने से जनता नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी। अब जनता को अपने बीच में से उठने वाले नेता चाहियें। जिनसे उनका सम्वाद बना रहे। क्या श्रीमती सोनिया गांधी ने या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कुछ संकेत दिये हैं, जिनसे यह पता चले कि उनके दरबार में गंभीर और अनुभवी लोगों के सद्विचार सुनने का रास्ता खुला है ? 8-10 चुने हुए सम्पादकों से बात करना और समर्पित बुद्धजीवियों के विचार जानना सम्वाद नहीं कहा जा सकता। छोटे-छोटे लाभ के लालच में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग न तो जनता की नब्ज पर उंगली रख पाते हैं और न ही नेतृत्व को सही राय दे पाते हैं। पर दुर्भाग्य से आज दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में यही संस्कृति प्रचलित हो गयी है। इसलिये दोनों क्षेत्रीय स्तर पर पिट रहे है। ंनतीजन नीतिश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी व जयललिता जैसे नेता सफलता के नये झण्डे गाड़ रहे हैं। इसलिये इन दोनों ही दलों को अपनी कार्यशैली में भारी बदलाव लाना होगा।
आज अगर भाजपा सशक्त और आश्वस्त होती तो मध्यावधि चुनाव करवा सकती थी। पर उसे पता है कि उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी ही है। इसलिये सरकार के विरूद्ध शोर चाहें जितना भी मचाये, सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। इसलिये मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना दिखायी नहीं देती। क्षेत्रीय दलों के सांसद भी समय से पहले चुनावों के खिलाफ हैं। हां यह जरूर है कि क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से केन्द्र सरकार कमजोर हुई है। कभी ममता बनर्जी, कभी करूणानिधि, कभी मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब सरकार को अपनी शर्तों पर झुकाते रहेंगे और इनकी शर्तें मानना सरकार की मजबूरी होगी।
पर विपरीत परिस्थिति में जो अपना रास्ता बना ले उसे ही नेता कहा जाता है। देश के इस राजनैतिक माहौल में हर उस नेता को और उनसे जुड़े बुद्धजीवियों को आत्मचिंतन करना चाहिये कि हम समस्या का पोस्टमार्टम करते रहेंगे या मरीज का इलाज भी करेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम समस्या का कारण न बनें, समाधान बनें। क्योंकि हमारा देश आज भी काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के शिकंजे से बचा हुआ है। इसलिये हमारे उठ खड़े होने की संभावना उन देशों से ज्यादा है जिनका नेतृत्व और अर्थव्यवस्थायें बाहरी शक्तियों के आगे समर्पित हैं। युवाओं की बढ़ती तादाद और महत्वाकांक्षा किसी भी दल या नेता के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली नहीं हैं। चांहे वो अखिलेश यादव हों या सुखविन्दर सिंह बादल। इन्हें कुछ मिलेगा तो ये साथ खड़े रहेंगे। नहीं मिलेगा तो ये विरोध में ही नहीं जायेंगे बल्कि सड़कों पर भी उतर आयेंगे। वह भयावह स्थिति होगी। जिससे हमें बचना है और मजबूती और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।