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Monday, April 1, 2024

मुख़्तार अंसारी की मौत से सबक़


माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख़्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफ़ियाओं का सफ़ाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफ़ियाओं को संरक्षण न मिलता हो। फ़र्क़ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफ़ियाओं को ही निशाने पर रखता है अपने दल के अपराधियों की तरफ़ से आँख मूँद लेता है। ये सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है।



आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंदियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएँ? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु बल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। 



जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएँ, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएँ उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेक़सूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हाँ ये ज़रूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक ज़रूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ़ कम नहीं हुआ। 



90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफ़सरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आजतक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रचीं नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं। 


ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के  व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है। 


जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुँह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख़्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ़्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि   को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ़ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।      

Monday, August 21, 2023

तीर्थों की भीड़ संभालें !

प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री योगी जी ने हिन्दू तीर्थों के विकास की तरफ जितना ध्यान पिछले सालों में दिया है उतना पिछली दो सदी में किसी ने नही दिया था। ये बात दूसरी है कि उनकी कार्यशैली को लेकर संतों के बीच कुछ मतभेद है। पर आज जिस विषय पर मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ उससे हर उस हिन्दू का सरोकार है जो तीर्थाटन में रुचि रखता है। जब से काशी, अयोध्या, उज्जैन व केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों पर मोदी जी ने विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया है, तब से इन सभी तीर्थों पर तीर्थयात्रियों का सागर उमड़ पड़ा है। इतनी भीड़ आ रही है कि कहीं भी तिल रखने को जगह नही मिल रही।

इस परिवर्तन का एक सकारात्मक पहलू ये है कि इससे स्थानीय नागरिकों की आय तेज़ी से बढ़ी है और बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन भी हुआ है। स्थानीय नागरिक ही नहीं बाहर से आकार भी लोगों ने इन तीर्थ नगरियों में भारी निवेश किया है। इससे यह भी पता चला है कि अगर देश के अन्य तीर्थ स्थलों का भी विकास किया जाए तो तीर्थाटन व पर्यटन उद्योग में भारी उछाल आ जायेगा। इस विषय में प्रांतीय सरकारों को भी सोचना चाहिए। जहाँ एक तरफ इस तरह के विकास के आर्थिक लाभ हैं वहीं इससे अनेक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं।



उदाहरण के तौर पर अगर मथुरा को ही लें तो बात साफ़ हो जाएगी। आज से 2 वर्ष पहले तक मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन व बरसाना आना-जाना काफ़ी सुगम था। जो आज असंभव जैसा हो गया है। कोविड के बाद से तीर्थाटन के प्रति भी एक नया ज्वार पैदा हो गया है। आज मथुरा के इन तीनों तीर्थ स्थलों पर प्रवेश से पहले वाहनों की इतनी लम्बी कतारें खड़ी रहती हैं कि कभी-कभी तो लोगों को चार-चार घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। यही हाल इन कस्बों की सड़कों व गलियों का भी हो गया है। जन सुविधाओं के अभाव में, भारी भीड़ के दबाव में वृन्दावन में बिहारी जी मंदिर के आस-पास आए दिन लोगों के कुचलकर मरने या बेहोश होने की ख़बरें आ रही हैं। भीड़ के दबाव को देखते हुए आधारभूत संरचना में सुधार न हो पाने के कारण आए दिन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। जैसे हाल ही में वृंदावन के एक पुराने मकान का छज्जा गिरने से पांच लोगों की मौत और पांच लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। अब नगर निगम ने वृन्दावन के ऐसे सभी जर्जर भवनों की पहचान करना शुरू किया है जिनसे जान-माल का खतरा हो सकता है। ऐसे सभी भवनों को प्रशासन निकट भविष्य में मकान-मालिकों से या स्वयं ही गिरवा देगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ये एक सही कदम होगा। पर इसमें एक सावधानी बरतनी होगी कि जो भवन पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं या जिनकी वास्तुकला ब्रज की संस्कृति को प्रदर्शित करती है, उन्हें गिराने की बजाय उनका जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए।



इस सन्दर्भ में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जो नए निर्माण हो रहे हैं या भविष्य में होंगे उनमें भवन निर्माण के नियमों का पालन नही हो रहा। जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इस पर कड़ाई से नियंत्रण होना चाहिए। पिछले दिनों यमुना जी की बाढ़ ने जिस तरह वृन्दावन में अपना रौद्र रूप दिखाया उससे स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने यमुना डूब क्षेत्र में हुए सभी अवैध निर्माण गिराने के आदेश दिए हैं। फिर वो चाहें घर हों, आश्रम हों या मंदिर हों। स्थानीय नागरिकों का प्रश्न है कि यमुना के इसी डूब क्षेत्र में हाल के वर्षों जो निर्माण सरकारी संस्थाओं ने बिना दूर-दृष्टि के करवा दिए क्या उनको भी ध्वस्त किया जायेगा?


जहाँ तक तीर्थ नगरियों में भीड़ और यातायात को नियंत्रित करने का प्रश्न है इस दिशा में प्रधान मंत्री मोदी जी को विशेष ध्यान देना चाहिए। हालांकि यह विषय राज्य का होता है लेकिन समस्या सब जगह एक सी है। इसलिए इस पर एक व्यापक सोच और नीति की ज़रूरत है, जिससे प्रांतीय सरकारों को हल ढूँढने में मदद मिल सके। वैसे आन्ध्र प्रदेश के तीर्थ स्थल तिरुपति बालाजी का उदाहरण सामने है जहाँ लाखों तीर्थयात्री बिना किसी असुविधा के दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं। जबकि मुख्य मंदिर का प्रांगण बहुत छोटा है और उसका विस्तार करने की बात कभी सोची नही गई। इसी तरह अगर काशी, मथुरा व उज्जैन जैसे तीर्थ नगरों की यातायात व्यवस्था पर इस विषय के जानकारों और विशेषज्ञों की मदद ली जाए तो विकराल होती इस समस्या का हल निकल सकता है।


तीर्थ स्थलों के विकास की इतनी व्यापक योजनाएँ चलाकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने आज सारी दुनिया का ध्यान सनातन हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित किया है। स्वाभाविक है कि इससे आकर्षित होकर देशी पर्यटक ही नही बल्कि विदेशों से भी भारी मात्रा में पर्यटक इन तीर्थ नगरों को देखने आ रहे हैं। अगर उन्हें इन नगरों में बुनियादी सुविधाएँ भी नही मिलीं या भारी भीड़ के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ा, तो इससे एक ग़लत संदेश जायेगा। इसलिए तीर्थों के विकास के साथ आधारभूत ढांचे के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। केंद्र और राज्य की सरकारें हमारे धर्मक्षेत्रों को सजाएं-संवारें तो सबसे ज्यादा हर्ष हम जैसे करोड़ों धर्म प्रेमियों को होगा, पर धाम सेवा के नाम पर, अगर छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे तो भगवान तो रुष्ट होंगे ही, भाजपा की भी छवि खराब होगी।


2008 से मैं, अपने साप्ताहिक लेखों में मोदी जी के कुछ अभूतपूर्व प्रयोगों की चर्चा करता रहा हूँ जो उन्होंने गुजरात का मुख्य मंत्री रहते हुए किये थे। जैसे हर समस्या के हल के लिए उसके विशेषज्ञों को बुलाना और उनकी सलाह को नौकरशाही से ज्यादा वरीयता देना। ऐसा ही प्रयोग इन तीर्थ नगरों के लिए किया जाना चाहिए क्योंकि कानून-व्यवस्था की दैनिक जिम्मेदारी में उलझा हुआ जिला-प्रशासन इस तरह की नई जिम्मेदारियों को सँभालने के लिए न तो सक्षम होता है और न उसके पास इतनी ऊर्जा और समय होता है। इसलिए समाधान गैर-पारंपरिक तरीकों से निकला जाना चाहिए। 

Monday, April 17, 2023

क्यों उठते हैं एनकाउंटर पर सवाल?


उत्तर प्रदेश के व्यापारी आजकल कहते हैं कि योगी राज में मुसलमानों का आतंक ख़त्म हो गया है। इसलिये माफिया डॉन अतीक अहमद के बेटे असद अहमद की एनकाउंटर में मौत का समाचार उन लोगों को सुखद लगा। एनकाउंटर के विषय में कुछ तथ्य और क़ानूनी पेचीदगियों का ज़िक्र मैं इस लेख में आगे करूँगा। पर यहाँ एक सवाल जो समाजवादी पार्टी ने उठाया है वो भी महत्वपूर्ण है। वो ये कि ऐन चुनावों के पहले ही इस एनकाउंटर को करने का योगी सरकार का क्या उद्देश्य था? सिवाय इसके कि इस एनकाउंटर की खबर को दिन-रात टीवी चैनलों पर चलवाकर इसका फ़ायदा अगले महीने होने वाले निकायों के चुनावों में लिया जाए। इसलिये सरकार की नीयत पर शक होता है। क़ानून की नज़र में सब बराबर होने चाहिए। किसी अपराधी का कोई जाति या धर्म नहीं होता। इसलिए बिना भय और पक्षपात के अगर प्रदेश के माफ़ियाओं के विरुद्ध योगी सरकार कड़े कदम उठाती है तो उसका स्वागत ही होगा। पर ऐसे कदम सब अपराधियों पर एक समान उठाए जाने चाहिए, जो आज नहीं हो रहा है। हत्या, बलात्कार और पुलिस उत्पीड़न के शिकार कितने ही लोगों को न्याय नहीं मिल रहा। फ़रियादी हताश होकर आत्महत्या तक कर रहे हैं ऐसी खबरें अक्सर सामने आती रहती है। उत्तर प्रदेश के एक विशेष जाति के माफ़ियाओं की सूची आज कल सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है जिसमें योगी सरकार से पूछा जा रहा है कि इन माफ़ियाओं के विरुद्ध आजतक ‘बुलडोज़रनुमा’ कार्यवाही क्यों नहीं हुई? उनमें से किसी का एनकाउंटर क्यों नहीं होता? उत्तर प्रदेश सरकार की इस नीति के विरुद्ध भी बहुत लोगों को आक्रोश है।



एनकाउंटर उमेश पाल के आरोपियों का हो या किसी अन्य का जब भी उस पर सवाल उठते हैं तो मामला जाँच कमेटी के पास पहुँचता है। आपको याद होगा कि कुछ ही समय पहले नवंबर 2019 में तेलंगाना राज्य के हैदराबाद में हुए गैंगरेप और हत्या के चार अभियुक्तों के संदिग्ध एनकाउंटर को सर्वोच्च न्यायालय की जाँच समिति ने फ़र्ज़ी पाया। जाँच समिति द्वारा इन पुलिसवालों पर हत्या का मुक़द्दमा चलाने की सिफ़ारिश भी की गई। 


पाठकों को याद होगा कि जब यह एनकाउंटर हुआ था, तब लोगों ने पुलिस का समर्थन करते हुए भारी जश्न मनाया था। जैसा असद व अन्य आरोपियों के एनकाउंटर पर भी हो रहा है। वहीं दूसरी ओर हमेश की तरह पुलिस एनकाउंटर पर तमाम सवाल भी खड़े हो रहे हैं। प्रायः ऐसा मान लिया जाता है कि पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर फ़र्ज़ी ही होते हैं। एनकाउंटर कब और कैसे होते हैं इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता। 


क़ानून की बात करें तो देश में मौजूद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) दोनों में ही एनकाउंटर का कोई भी ज़िक्र नहीं है। तो फिर सवाल उठता है कि पुलिस एनकाउंटर आख़िर है क्या? यदि कोई भी पुलिसकर्मी आत्मरक्षा में सामने वाले पर गोली चलाता है तो उसे सामान्य भाषा में एनकाउंटर माना जाता है। तो क्या पुलिस किसी भी अपराधी पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है? नहीं ऐसा नहीं है। 



जब कभी भी पुलिस को किसी अपराधी के बारे में सूचना मिलती है और वह उसे गिरफ़्तार करने जाती है, तो अगर वो अपराधी आत्मसमर्पण कर देता है तब पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं कर सकती। यदि कोई कुख्यात अपराधी, जिसे उम्र क़ैद या उससे ज़्यादा सज़ा हो सकती है और वो गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागने का प्रयास करता है और पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती, तो उस सूरत में पुलिस उसे ज़ख़्मी करने की नियत से उसके शरीर के किसी भी हिस्से में गोली मार सकती है। प्रायः ये गोली उसकी टांगों में मारी जाती है। जिससे वह ज़्यादा दूर न भाग सके और उसे गिरफ़्तार कर लिया जाए। यदि ऐसे किसी अपराधी के पास कोई जान लेवा हथियार होता है और वो पुलिस पर वार करता है, तो केवल उस सूरत में पुलिस उस पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है। 


मुंबई पुलिस के बहुचर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक और प्रदीप शर्मा से जब किसी पत्रकार ने पूछा कि मुंबई में अपराधियों की सफ़ाई के लिए आप दोनो को ही श्रेय दिया जाता है तो, उनका कहना था कि, हम तो अपराधियों को पकड़ने के लिए ही जाते हैं, लेकिन वो जब हम पर वार करते हैं तो हमें भी पलटवार करना पड़ता है। अपराधियों को भी पता है कि यदि वो पुलिस के हत्थे चढ़े तो कई सालों तक जेल के बाहर नहीं आएँगे। इसलिए इन सब से बच कर भागने के प्रयास में वे पुलिस की गोली का शिकार हो जाते हैं। उनके अनुसार 97-98 में जब मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक चरम पर था तब सरकार कड़े क़ानून ले कर आई। अपराधी इन्हीं कड़े क़ानूनों से बचने की पुरज़ोर कोशिश में मारा जाता है। इसी के बाद से मुंबई के अंडरवर्ल्ड में एनकाउंटर का भय बढ़ने लगा। कारण चाहे कुछ और भी रहे हों पर मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक थमने लगा।    



पुलिस एनकाउंटर को बॉलीवुड की कई फ़िल्मों में भी दिखाया गया हैं। जहां ज़्यादातर एनकाउंटर को ऐसे दर्शाया जाता है कि भले ही वो एनकाउंटर फ़र्ज़ी हो, लेकिन जाँच में असली ही पाया जाए। लेकिन यदि किसी भी एनकाउंटर की योजना ग़लत नीयत से की जाती है तो वो आज नहीं तो कल पकड़ा ही जाता है। 


इस बात के कई प्रमाण भी हैं जहां फ़र्ज़ी एनकाउंटर करने पर पुलिस वालों को सज़ा भी हुई है। इसका मतलब यह नहीं होता कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। जनता में पुलिस पर विश्वास की कमी होने के कारण ऐसी धारणा बन जाती है की ज़्यादातर एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। 


एक पूर्व आईपीएस अधिकारी ने दिल्ली में 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर का हवाला देते हुए बताया कि, पुलिस को ज़्यादातर मामलों में इस बात का पता होता है कि वो जहां गिरफ़्तारी करने जा रही हैं वहाँ कितना ख़तरा हो सकता है। ऐसे एनकाउंटर को एक सुनियोजित एनकाउंटर कहा जाता है। ऐसे एनकाउंटर में पुलिस की टीम पूरी तैयारी के साथ जाती है। 


बाटला हाउस में सब जानकारी के बावजूद दिल्ली पुलिस के एक बहादुर अफ़सर मोहन चंद शर्मा शहीद हुए थे। पुलिस एनकाउंटर में काफ़ी ख़तरा होता है। पुलिसकर्मी भी घायल होते हैं, परंतु ऐसा मान लेना कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं सही नहीं। दोषियों को सज़ा देना अदालत का काम होता है न कि पुलिस का। लेकिन पुलिसकर्मी यदि आत्मरक्षा में गोली चलाता है तो उसे हमेशा ग़लत नहीं समझना चाहिए। 


एनकाउंटर करने के लिए जिन अनुभवी पुलिसकर्मियों को चुना जाता है, उन्हें एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहा जाता है। एनकाउंटर जोखिम भरा होता है और ऐसा जोखिम हर कोई नहीं ले सकता। उसके लिए हथियारों को सही ढंग से चलाना और सामने वाले से बेहतर निशाना लगाना आना चाहिए। परंतु ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रायः विवादों में भी घिरे रहते हैं। जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह कुछ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के घमंड और कभी-कभी उसके भ्रष्टाचार के चलते हर पुलिस एनकाउंटर को शक की निगाह से ही देखा जाता है। ख़ासकर जब राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के पाले हुए गुंडों का एंकाउंटर होता है तब तो जनता के मन में ऐसे ही सवाल उठते हैं कि ऐसे सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। परंतु सच्चाई तो जाँच के बाद ही सामने आती है। 

Monday, June 28, 2021

आईपीएस अपना कर्तव्य समझें


मार्च 2010 में भोपाल में मध्य प्रदेश शासन की ‘आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी’ ने आईपीएस अधिकारियों के बड़े समूह को संबोधित करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। वहाँ शायद पाँच दर्जन आईपीएस अधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से आकर कोर्स कर रहे थे। मुझे याद पड़ता है कि वे सन 2000 से 2008 के बैच के अधिकारी थे। मैं एक घंटा बोला और फिर तीन घंटे तक उनके अनेक जिज्ञासु प्रश्नों के उत्तर देता रहा। बाद में मुझे अकादमी के निदेशक व आईएएस अधिकारी संदीप खन्ना ने फ़ोन पर बताया कि इन युवा आईपीएस अधिकारियों ने अपनी कोर्स बुक में जो टिप्पणी दर्ज की वो इस प्रकार थी,
इस कोर्स के दौरान हमने विशेषज्ञों के जितने भी व्याख्यान सुने उनमें श्री विनीत नारायण का व्याख्यान सर्वश्रेष्ठ था।



आप सोचें कि ऐसा मैंने क्या अनूठा बोला होगा, जो उन्हें इतना अच्छा लगा? दरअसल, मैं शुरू से आजतक अपने को ज़मीन से जुड़ा जागरूक पत्रकार मानता हूँ। इसलिए चाहे मैं आईपीएस या आईएएस अधिकारियों के समूहों को सम्बोधित करूँ या वकीलों व न्यायाधीशों के समूहों को या फिर आईआईटी, आईआईएम या नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों को, जो भी बोलता हूँ, अपने व्यावहारिक अनुभव और दिल से बोलता हूँ। कभी-कभी वो इतना तीखा भी होता है कि श्रोताओं को डर लगने लगता है कि कोई इस निडरता से संवैधानिक पदों पर बैठे देश के बड़े-बड़े लोगों के बारे में इतना स्पष्ट और बेख़ौफ़ कैसे बोल सकता है। कारण है कि मैं किताबी ज्ञान नहीं बाँटता, जो प्रायः ऐसे विशेष समूहों को विशेषज्ञों व उच्च पदासीन व्यक्तियों द्वारा दिया जाता है। चूँकि मैंने गत चालीस वर्षों में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरणों को, युवा अवस्था से ही, निडर होकर उजागर करने की हिम्मत दिखाई है, इसलिए मैंने जो देखा और भोगा है वही माँ सरस्वती की कृपा से वाणी में झलकता है। हर वक्ता को यह पता होता है कि जो बात ईमानदारी और मन से बोली जाती है, वह श्रोताओं के दिल में उतर जाती है। वही शायद उन युवा आईपीएस अधिकारियों के साथ भी हुआ होगा। 


उनके लिए उस दिन मैंने एक असमान्य विषय चुना था: ‘अगर आपके राजनैतिक आका आपसे जनता के प्रति अन्याय करने को कहें, तो आप कैसे न्याय करेंगे?’ उदाहरण के तौर पर राजनैतिक द्वेष के कारण या अपने अनैतिक व भ्रष्ट कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए, किसी राज्य का मुख्य मंत्री किसी आईपीएस अधिकारी पर इस बात के लिए दबाव डाले कि वह किसी व्यक्ति पर क़ानून की तमाम वो कठोर धाराएँ लगा दे, जिस से उस व्यक्ति को दर्जनों मुक़दमों में फँसा कर डराया या प्रताड़ित किया जा सके। ऐसा प्रायः सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं व राजनैतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ करवाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों पर भी इस तरह के आपराधिक मुक़दमें क़ायम करने की कुछ प्रांतों में अचानक बाढ़ सी आ गई है। हालाँकि हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर हिमाचल प्रदेश में की गई ऐसी ही एक ग़ैर ज़िम्मेदाराना एफ़आईआर को रद्द करते हुए 117 पन्नों का जो निर्णय दिया है, उसमें आज़ादी की लड़ाई में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर रहे मराठी अख़बार ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य तिलक से लेकर आजतक दिए गए विभिन्न अदालतों के निर्णयों का हवाला देते हुए पत्रकारों की स्वतंत्रता की हिमायत की है और कहा है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। 


सवाल है कि जब मुख्य मंत्री कार्यालय से ही ग़लत काम करने को दबाव आए तो एक आईपीएस अधिकारी क्या करे? जिसमें ईमानदारी और नैतिक बल होगा, वह अधिकारी ऐसे दबाव को मानने से निडरता से मना कर देगा। चार दशकों से मेरी मित्र, पुलिस महानिदेशक रही, महाराष्ट्र की दबंग पुलिस अधिकारी, मीरा बोरवांकर, मुंबई के 150 साल के इतिहास में पहले महिला थी, जिसे मुंबई की क्राइम ब्रांच का संयुक्त पुलिस आयुक्त बनाया गया। फ़िल्मों में देख कर आपको पता ही होगा कि मुंबई अंडरवर्ल्ड के अपराधों के कारण कुविख्यात है। ऐसे में एक महिला को ये ज़िम्मेदारी दिया जाना मीरा के लिए गौरव की बात थी। अपने कैरीयर के किसी मोड़ पर जब उसे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के निजी सचिव का फ़ोन आया, जिसमें उससे इसी तरह का अनैतिक काम करने का निर्देश दिया गया तो उसने साफ़ मना कर दिया, यह कह कर, कि मैं ऐसे आदेश मौखिक रूप से नहीं लेती। मुख्य मंत्री जी मुझे लिख कर आदेश दें तो मैं कर दूँगी। मीरा के इस एक स्पष्ट और मज़बूत कदम ने उसका शेष कार्यकाल सुविधाजनक कर दिया। कैरियर के अंत तक फिर कभी किसी मुख्य मंत्री या गृह मंत्री ने उससे ग़लत काम करने को नहीं कहा। 


कोई आईपीएस अधिकारी जानते हुए भी अगर ऐसे अनैतिक आदेश मानता है, तो स्पष्ट है कि उसकी आत्मा मर चुकी है। उसे या तो डर है या लालच। डर तबादला किए जाने का और लालच अपने राजनैतिक आका से नौकरी में पदोन्नति मिलने का या फिर अवैध धन कमाने का। पर जो एक बार फिसला फिर वो रुकता नहीं। फिसलता ही जाता है। अपनी ही नज़रों में गिर जाता है। हो सकता है इस पतन के कारण उसके परिवार में सुख शांति न रहे, अचानक कोई व्याधि आ जाए या उसके बच्चे संस्कारहीन हो जाएं। ये भी हो सकता है कि वो इस तरह कमाई अवैध दौलत को भोग ही न पाए। सीबीआई के एक अति भ्रष्ट माने जाने वाले चर्चित निदेशक की हाल ही में कोरोना से मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें सेवानिवृत हुए कुछ ही समय हुआ था। उस अकूत दौलत का उन्हें क्या सुख मिला? दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के 1972 बैच के आईपीएस अधिकारी राजीव माथुर, जो आईपीएस के सर्वोच्च पद, निदेशक आईबी और भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे, वे सेवानिवृत हो कर आज डीडीए के साधारण फ़्लैट में रहते हैं। देश में आईबी के किसी भी अधिकारी से आप श्री माथुर के बारे में पूछेंगे तो वह बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं। एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी ने तो उन्हें भगवान तक की उपाधि दी। 


आम जनता के कर के पैसे से वेतन और सुविधाएँ लेने वाले आईपीएस अधिकारी, अगर उस जनता के प्रति ही अन्याय करेंगे और केवल अपना घर भरने पर दृष्टि रखेंगे, तो वे न तो इस लोक में सम्मान के अधिकारी होंगे और न ही परलोक में। दुविधा के समय ये निर्णय हर अधिकारी को अपने जीवन में स्वयं ही लेना पड़ता है। भोपाल में जो व्यावहारिक नुस्ख़े उन आईपीएस अधिकारियों को मैंने बताए थे, वो तो यहाँ सार्वजनिक नहीं करूँगा, क्योंकि वो उनके लिए ही थे। पर जिन्होंने उन्हें अपनाया होगा उनका आचरण आप अपने ज़िले अनुभव कर रहे होंगे।

Monday, April 20, 2020

कोरोना क़हर में पुलिस के जबाँजो का सहयोग करें

आज जब पूरा विश्व कोरोना की महामारी से जूझ रहा है, भारत में पुलिसवालों या कहें कोरोना के जाँबाज़ों को एक अलग ही तरह के समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इंदौर हो, पटियाला हो, मुरादाबाद हो, या राजस्थान  जिस तरह से पुलिसकर्मियों को कुछ ख़ास इलाक़ों में जाहिल लोगों के ग़ुस्से का सामना करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाना पड़ रहा है वो क़ाबिले तारिफ़ है।

सोशल मीडिया पर आपको ऐसे कई विडियो देखने को मिलेंगे जहां पुलिसकर्मी अपने घर भी नहीं जा पा रहे हैं। यदि वो अपनी ड्यूटी करने की जगह से दोपहर का भोजन करने भी घर जाते हैं तो परिवार से दूर, खुले आँगन में ही भोजन कर तुरंत ड्यूटी पर लौट जाते हैं। उनके छोटे बच्चे उन्हें घर पर कुछ देर और ठहरने के लिए फ़रियाद करते रह जाते हैं । 

विश्व के अन्य देशों के मुक़ाबले हमारे देश में अगर कोरोना के क़हर की रफ़्तार फ़िलहाल कम है तो वो केवल मोदी जी के लाक्डाउन के इस सख़्त कदम और उसे लागू करने में इन पुलिसकर्मियों की वजह से ही है । 

सड़कों पे तैनात इन पुलिसकर्मियों को कड़ी धूप में रह कर अपनी ड्यूटी करनी पड़ रही है। कई जगह तो इनके सर पर कनात तक नहीं है। लेकिन सिर्फ़ कनात होने से काम नहीं चलता। आने वाले दिनों में पारा और ऊपर जाएगा तो पूरी बाजू की वर्दी पहन कर ड्यूटी करना इनके लिये और कठिन हो जाएगा। आपने पढ़ा होगा कि कुछ ज़ाहिल लोगों ने किस बेदर्दी से पटियाला पुलिस के अफ़सर हरजीत सिंह का हाथ काटा। ज़रा सोचें इसका क्या असर पुलिस फ़ोर्स के मनोबल पर पड़ेगा? ये घोर निंदनीय कृत्य था, जिसका पूरे समाज को ताक़त से विरोध करना चाहिये। 

हमें सोचना चाहिए कि चाहे वो महिला पुलिसकर्मी हों या पुरुष इनका योगदान हमारे जीवन की रक्षा के लिये अतुल्य है। जहां ये पुलिसकर्मी न सिर्फ़ सड़कों पर तैनात हो कर दिन रात चौकसी से अपनी ड्यूटी कर रहे हैं वहीं  जरूरतमंदों को राशन व अन्य ज़रूरी सामान भी पहुँचा रहे हैं। महिला पुलिसकर्मी अपने अपने थानों में रहकर न सिर्फ़ अपनी सामान्य ड्यूटी कर रही हैं बल्कि ज़रूरतमंदो के लिए फ़ेस मास्क भी सिल रहीं हैं। कुछ शहरों से तो ये भी खबर आई है कि पुलिसकर्मी बेज़ुबान जानवरों को भी भोजन दे रहे हैं।

इसलिये प्रधान मंत्री हों, आम लोग हों या मशहूर हस्तियाँ, आज सभी लोग बढ़-चढ़ कर इन जाँबाज़ों की खुल कर तारीफ कर रहे हैं। यहाँ तक कि कोरोना से लड़ने वाले डाक्टर भी इन पुलिसकर्मियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर पाएँगे। इसलिए हम सबको, चाहे हम किसी भी धर्म या जाति के हों बिना किसी के उकसाये में आए पुलिस विभाग के इन वीरों को सम्मान देना चाहिए। जहां तक संभव हो उनकी देखभाल भी करनी चाहिये। आपके घर के पास तैनात पुलिसकर्मी को चाय-पानी पूछना तो मानवता का सामान्य तक़ाज़ा है । 

आज अगर पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी ठीक से न करें तो लाकडाउन के बेअसर होने में देर नही लगेगी। कौन जाने फिर हमारे देश में भी कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या अमरीका से कई अधिक हो जाए। इसलिये समय की माँग ये है कि हम सब जब अपने अपने घरों में आराम से बैठे हैं तो हम से जो भी बन पड़े इन पुलिसकर्मियों का सहयोग करना चाहिए। वो सहयोग किसी भी तरह से हो सकता है। युवा साथी स्वयमसेवकों कि तरह उनसे सहयोग करें। हर मोहल्ले में प्रवेश और निकासी पर कुछ ज़िम्मेदार नागरिक भी अपनी सेवाएँ भी दे सकते हैं। अगर आपके मोहल्ले में या आसपास में कुछ मज़दूर या कामगार लोग रहते हैं तो उन्हें भोजन बाँटने में भी आप पुलिस का सहयोग करें। 

इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अगर ये पुलिसकर्मी, जो अपनी जान खतरे में डालकर हमारी जान बचा रहे हैं, तो इनका आभार प्रकट करने के लिए हमें प्रधान मंत्री जी की अपील का इंतेज़ार न करना पड़े बल्कि हम स्वयं ही ये कार्य करें।

आज जाहिल जमातियों ने अपने लोगों में ऐसा डर फैला दिया गया है कि जो भी डाक्टर इनकी जाँच के लिए इनके इलाक़े में आ रहा है वो इन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं, जबकि ये सत्य नहीं है। इसलिये इसी समाज के चर्चित चेहरों  को अपने समाज के लोगों से ये अपील करनी चाहिए कि वो सभी पुलिसकर्मियों और डाक्टरों का सहयोग करें और जैसा सिनेस्टार सलमान खान ने भी कहा कि ऐसा न करके वे न सिर्फ़ अपनी ही मौत का कारण बन रहे हैं बल्कि समाज के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बनते जा रहे हैं।

जिस तरह से समाज के कई वर्गों से ग़रीबों व जरूरतमंदों को भोजन व राशन मुहैया कराया जा रहा है ठीक उसी तरह सरकार और समाज सेवी संस्थाओं को कोरोना के युद्ध में जुटे इन सिपाहियों के बारे में भी कुछ ठोस कदम उठाने चाहिये। 

ग़ौरतलब है कि 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि इतने बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया। आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की रही है। लेकिन कोरोना के कहर के समय जिस तरह पुलिसकर्मी आज जनता के रक्षक के रूप में उभर के आए हैं, लगता है कि सरकार को अब पुलिस सुधार के लिए अवश्य कुछ करना चाहिए। पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

Monday, December 9, 2019

बलात्कारियों के एंकाउंटर पर उठे सवाल


हैदराबाद में नवयुवती पशु चिकित्सक का बलात्कार करने के आरोपी चारों युवाओं को पुलिस ने एंकाउंटर में मार दिया। इसे लेकर सारे देश में एक उत्साह का वातावरण है। देश का बहुसंख्यक समाज इन पुलिसकर्मियों को बधाई दे रहा है। जबकि कुछ लोग हैं, जो इस एंकाउंटर की वैधता पर सवाल खड़ा कर रहे हैं।दरअसल दोनों पक्ष अपनी-अपनी जगह सही हैं, कैसे, इसका हम यहाँ विवेचन करेंगे। 

लोगों का हर्षोन्माद इसलिए है कि हमारी पुलिस की जांच प्रक्रिया और हमारे देश की न्याय प्रक्रिया इतनी जटिल, लंबी और थका देने वाली होती है कि आम जनता का उस पर से लगभग विश्वास खत्म हो गया है। इसलिए बलात्कार के बाद अभागी कन्या को बेदर्दी से जलाकर मारने वालों को पुलिस ने अगर मार गिराया, तो आम जनता में इस बात का संतोष है कि अपराधियों को उनके करे की सजा मिल गई। अगर ऐसा न होता, तो हो सकता है कि अगले 20 बरस भी वे कानूनी प्रक्रिया में ही खिंच रहे होते। 

बलात्कारी को फाँसी देने की मांग भी समाज का एक वर्ग दशकों से करता रहा है। इस्लामिक देशों में प्रायः ऐसी सजा देना आम बात होती है। इतना ही नहीं मार डाले गऐ अपराधी की लाश को शहर के बीच चैराहे में ऊंचे खंभे पर लटका दिया जाता है ताकि लोगों के मन ये डर बैठ जाए कि अगर उन्होंने ऐसा अपराध किया तो उनकी भी यही दशा होगी। पर यह मान्यता सही नहीं है।

फ्रांस के एक राजा ने देश में बढ़ती हुई जेबकतरी की समस्या को हल करने के लिए एलान करवाया कि हर जेबकतरे को चैराहे पर फांसी दी जाऐगी। आश्चर्य की बात ये हुई कि जब एक जेबकतरे को चैराहे पर फांसी दी जा रही थी, तो जो सैंकड़ों तमाशबीन खड़े थे, उनमें से दर्जनों की भीड़ में जेबें कट गईं। इससे स्पष्ट है कि फांसी का खौफ भी जेबकतरे को जेब की चोरी अंजाम देने से रोक नहीं सका। इसीलिए लोगों का मानना है कि चाहे बलात्कारियों को फांसी पर ही क्यों न लटका दिया जाए, इससे भविष्य में बलात्कारों की संख्या गिर जाऐगी, ऐसा होता नहीं है। बलात्कार करने का आवेग, वह परिस्थिति, व्यक्ति के संस्कार आदि  ये सब मिलकर तय करते हैं कि वो व्यक्ति बलात्कार करेगा या अपने पर संयम रख पायेगा। केवल कानून उसे बाध्य नहीं कर पाता। 

इसलिए मानवाधिकारों की वकालत करने वाले और ईश्वर की कृति (मानव) को मारने का हक किसी इंसान को नहीं है, ऐसा मानने वाले, फांसी की सजा का विरोध करते हैं। उनका एक तर्क यह भी है कि फांसी दे देने से न तो उस अपराधी को अपने किये पर पश्चाताप् करने का मौका मिलता है और न ही किसी को उसके उदाहरण से सबक मिलता है। इन लोगों का मानना है कि अगर अपराधी को आजीवन कारावास दे दिया जाऐ, तो न सिर्फ वह पूरे जीवन अपने अपराध का प्रायश्चित करता है, बल्कि अपने परिवेश में रहने वालों को भी ऐसे अपराधों से बचने की प्रेरणा देता रहेगा । 

यहां एक तर्क ये भी है कि ये आवश्यक नहीं कि जिन्हें पुलिस एंकाउंटर में मारती है, वो वास्तव में अपराधी ही हों। भारत जैसे देश में जहां पुलिस का जातिवादी होना और उसका राजनीतिकरण होना एक आम बात हो गई है, वहां इस बात की पूरी संभावना होती है कि पुलिस जिन्हें अपराधी बता रही है या उनसे स्वीकारोक्ति करवा रही है, वास्तव में वे अपराधी हैं ही नहीं। 

अपराध करने वाला प्रायः कोई बहुत धन्ना सेठ का बेटा या किसी राजनेता या अफसर का कपूत भी हो सकता है और ऐसे हाई प्रोफाइल मुजरिम को बचाने के लिए पुलिस मनगढ़ंत कहानी बना कर उस वीआईपी सुपुत्र के सहयोगियों या कुछ निरीह लोगों को पकड़कर उनसे डंडे के जोर पर स्वीकारोक्ति करवा लेती है। फिर इन्हीं लोगों को इसलिए एंकाउंटर में मार डालती है ताकि कोई सबूत या गवाह न बचे। 

यहां मेरा आशय बिल्कुल नहीं है कि हैदराबाद कांड के चारों आरोपी बलात्कारी नहीं थे या नहीं । मुद्दा केवल इतना सा है कि बिना पूरी तहकीकात किये किसी को इतने जघन्य अपराध का अपराधी घोषित करना नैसर्गिक कानून  विरूद्ध है ।हो सकता है कि इन आरोपित चार युवाओं से जाँच में इस बलात्कार और हत्या के असली मुजरिम का पता मिल जाता और तब अपराध की सजा उसे ज्यादा मिलती, जिसने इस अपराध को अंजाम दिया। इसलिए किसी अपराधी के खिलाफ मुकदमा चलाने की वैधता लगभग सभी आधुनिक राष्ट्र मानते हैं। 

इसीलिए आज जहां एक तरफ बहुसंख्यक लोग इन बलात्कारियों को मौत के घाट उतारने की मांग करते हैं वहीं दूसरे लोग हर एक व्यक्ति को स्वाभाविक न्याय का हकदार मानते हैं। 


जो भी हो इतना तो तय है कि कोई भी अभिभावक ये नहीं चाहेंगे कि उनकी बहु-बेटियां सड़कों पर असुरक्षित रहें। वे इस मामले में प्रशासन की ओर से कड़े कदम उठाने की मांग करेंगे। अब ये संतुलन सरकार को हासिल करना है, जिससे बलात्कार के अपराधियों को सजा भी मिले और निर्दोष को झूठा फंसाया न जाए। बलात्कार को रोकना किसी भी पुलिस विभाग के लिए सरल नहीं है। शहर और गाॅव के किस कोने, खेत, गोदाम या घर में कौन किसके साथ बलात्कार कर रहा है, पुलिस कैसे जानेगी ? जिम्मेदारी तो समाज की भी है कि ऐसी मानसिकता के खिलाफ माहौल तैयार करे।

Monday, April 22, 2013

क्यों संवेदनाशून्य है हमारी पुलिस ?

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलि
स के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

Sunday, May 20, 2012

भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भर्ती क्यों करना चाहते हैं चिदंबरम?

पिछले कुछ समय से देश के गृह मंत्री भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की आपूर्ति में कमी को लेकर परेशान हैं। विभिन्न राज्यों की निरन्तर बढ़ती पुलिस बल की मांग और आतंकवाद व नक्सलवाद से जूझने के लिए नए संगठनों की संरचना आदि के लिए श्री चिदंबरम को मौजूदा कोटे से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की जरूरत महसूस हो रही है। जिसके लिए वे ‘शॉर्ट सर्विस कमीशन’ जैसी व्यवस्था बनाकर भा.पु.से. में सीधे भर्ती करना चाहते हैं, जिससे नियुक्ति करने के लिए गृहमंत्री को संघ लोक सेवा आयोग की एक लम्बी चयन प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। उनके इस प्रयास से भा.पु.से. कैडर में बहुत बैचेनी है। देशभर में फैले भा.पु.से. के अधिकारियों को डर है कि इस तरह की व्यवस्था से भा.पु.से. का चरित्र बिगड़ जाऐगा और उससे पूरे काडर का मनोबल टूट जाऐगा। क्योंकि इन नई भर्तियों से भा.पु.से. में ऐसे अधिकारी आ जाऐंगे, जिन्हें एक लम्बी और जटिल चयन प्रक्रिया से नहीं गुजारा गया है।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भा.पु.से. की चयन नियमावली के अनुसार 1954 में नियम-7 (2) के तहत भारत सरकार ने यह साफ घोषणा कर दी थी कि भा.पु.से. का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से ही किया जाऐगा। हालांकि सेवा निवृत्त भा.पु.से. अधिकारी श्री कमल कुमार ने भा.पु.से. भर्ती योजना (2009-2020) की अपनी अन्तिम सरकारी रिपोर्ट में इन भर्तियों के लिए तीन विकल्प सुझाऐं हैं (1) सिविल सेवा परीक्षा में अगले कुछ वर्षों के लिए भा.पु.से. की सीटों की संख्या बढ़ाना (2) 45 वर्ष से कम आयु के व न्यूनतम 5 वर्ष के अनुभव के राज्यों के उप पुलिस अधीक्षकों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा से चयन करके भा.पु.से. का दर्जा देना। (3) सूचना प्रोद्योगिकी, संचार, वित्त एवं मानव संसाधन प्रबन्धन आदि के विशेषज्ञों को कुछ समय के लिए पुलिस व्यवस्था में डेपुटेशन पर लेना, ताकि इन विशिष्ट क्षेत्रों में लगे पुलिस अधिकारियों को फील्ड के काम में लगाया जा सके।
2009 की उपरोक्त रिपोर्ट के बाद 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की अगले 10 वर्षों की भर्ती योजना पर अपनी सरकारी रिपोर्ट देते हुए प्रो. आर. के. पारीख ने इस बात पर जोर दिया कि सिविल सेवा परीक्षा में सीटों का बढ़ाना ही एक मात्र विकल्प है और उन्होंने जोरदार शब्दों में डी.ओ.पी.टी. (कार्मिक विभाग) के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया कि सीमित परीक्षा के माध्यम से सीधी भर्ती की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि 2010 में भारत सरकार के गृह सचिव ने संघ लोक सेवा आयोग व विभिन्न राज्यों को पत्र लिखकर भा.पु.से. में सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भर्ती पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। जिस पर संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने जोरदार शब्दों में कहा कि, ‘‘अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र उसकी जटिल चयन प्रक्रिया और प्रशिक्षण व्यवस्था पर निर्भर करता है। इससे इतर कोई भी व्यवस्था इस प्रक्रिया की बराबरी नहीं कर सकती। इस बात का कोई कारण नहीं है कि भा.पु.से. के प्रत्याशियों की संख्या मौजूदा सिविल सेवा परीक्षा में ही अगले 6-7 वर्षों के लिए ही, रिक्तियां बढ़ाकर, पूरी क्यों नहीं की जा सकती? जो कि मौजूदा स्थिति में लगभग 70 है।
इसी जबाव में संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने यह भी कहा कि इस नई प्रक्रिया से भा.पु.से. के अधिकारियो का मनोबल गिरेगा और कई तरह के कानूनी विवाद खड़े हो जाएंगे। जिनमें वरिष्ठता के क्रम का भी झगड़ा पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया उस चयन प्रक्रिया से भिन्न है, जिसे आमतौर पर प्रांतों की सरकारों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए उस प्रक्रिया से चुने व प्रशिक्षित अधिकारियों को इसमें समायोजित करना उचित नहीं होगा। इसलिए उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में ही भा.पु.से. की सीट 200 तक बढ़ाने की सिफारिश की।
अनेक प्रांतों की सरकारों ने भी इस कदम का विरोध किया है। इसी तरह देश के अनेक पुलिस संगठनों के महानिदेशकों ने भी इस कदम का विरोध किया है। उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक में जब गृहमंत्रालय ने पूर्व सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से  भा.पु.से. में चुना था, तो उस निर्णय को 1975 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था। उसके बाद से आज तक ऐसा चयन कभी नहीं किया गया। इसी तरह भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस के महानिदेशक ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए लिखा कि जिलों की पुलिस आवश्यकताऐं और सेना की प्रशिक्षण व्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसलिए सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भा.पु.से. में नहीं लिया जा सकता।
इसके अलावा भारत सरकार के कानून मंत्रालय ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया। उसका कहना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 (3) के अनुसार ‘सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की सहमति सभी मामलों में लेना अनिवार्य होगा।’ इसलिए कानून मंत्रालय ने भी मौजूदा चयन प्रणाली में रिक्तियां बढ़ाने का अनुमोदन किया।
इन सब विरोधों के बावजूद केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने 11 मई, 2010 के अपने पत्र में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री को पत्र लिखकर कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए, वे सीमित प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें। आश्चर्य की बात है कि गृह मंत्रालय ने 19 अगस्त 2011 को भा.पु.से. (भर्ती) नियम 1954 में संशोधन करके सीमित प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था कायम कर दी और इसके लिए 3 सितंबर, 2011 को भारत सरकार के गजट में सूचना भी प्रकाशित करवा दी। अब यह परीक्षा 20 मई, 2012 को होनी है। देखना यह है कि इस मामले में क्या गृहमंत्री अपनी बात पर अड़े रहते हैं, या उनकी इस जिद से उत्तेजित पुलिस अधिकारी किसी जनहित याचिका के माध्यम से इस चयन प्रक्रिया को रोकने में सफल होते हैं? मैं समझता हूँ कि यह गम्भीर मुद्दा है और दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर, आपसी सहमति से जो न्यायोचित और व्यवहारिक हो, वही करना चाहिए। मूल मकसद है कि देश की कानून व्यवस्था सुधरे। हर प्रयास इसी ओर किया जाना चाहिए।