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Monday, March 31, 2025

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं


भारत के इतिहास में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस रामस्वामी पर अनैतिक आचरण के चलते 1993 में संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। पर कांग्रेस पार्टी ने मतदान के पहले लोकसभा से बहिर्गमन करके उन्हें बचा लिया। 1997 में मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा के अनैतिक आचरण को उजागर किया तो सर्वोच्च अदालत, संसद व मीडिया तूफ़ान खड़ा हो गया था। पर अंततः उन्हें भी सज़ा के बदले तत्कालीन सत्ता व विपक्ष दोनों का संरक्षण मिला। 2000 में एक बार फिर मैंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉ ए एस आनंद के छह ज़मीन घोटाले उजागर किए तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ये मामला चर्चा में रहा व तत्कालीन क़ानून मंत्री राम जेठमलानी की कुर्सी चली गई। पर तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विपक्ष के सहयोग से उन्हें सज़ा देने के बदले भारत के मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया। इसलिए मौजूदा विवाद जिसमें जस्टिस यशवंत वर्मा के घर जले नोटों के बोरे मिले, कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है।



न्यायपालिका को देश के लोकतांत्रिक ढांचे का आधार माना जाता है, जो संविधान की रक्षा और कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों की एकीकृत प्रणाली के साथ यह संस्था स्वतंत्रता और निष्पक्षता के सिद्धांतों पर खड़ी है। दुर्भाग्य से हाल के दशकों में न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के बढ़ते आरोपों ने इसकी साख पर सवाल उठाए हैं। किसी न्यायाधीश के घर पर बड़ी मात्रा में नगदी मिलना एक गंभीर मुद्दा है। ऐसी घटनाओं से न सिर्फ़ न्यायपालिका पर कई सवाल उठते हैं बल्कि न्याय की आशा रखने वाली आम जनता का न्यायपालिका से विश्वास भी उठने लगता है।  


भारत की न्यायपालिका का आधार संविधान में निहित है। अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय को शक्तियाँ प्रदान करते हैं, जबकि अनुच्छेद 214 से 231 उच्च न्यायालयों को परिभाषित करते हैं। यह प्रणाली औपनिवेशिक काल से विकसित हुई है, जब ब्रिटिश शासन ने आम कानून प्रणाली की नींव रखी थी। स्वतंत्रता के बाद, न्यायपालिका ने संवैधानिक व्याख्या, मूल अधिकारों की रक्षा और जनहित याचिकाओं के माध्यम से अपनी प्रगतिशील भूमिका निभाई है। 1973 के केशवानंद भारती मामले में मूल संरचना सिद्धांत और 2018 के समलैंगिकता की अपराधमुक्ति जैसे फैसले इसकी उपलब्धियों के उदाहरण हैं।



हालांकि न्यायपालिका की छवि आमतौर पर सम्मानजनक रही है, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप इसकी विश्वसनीयता को चुनौती दे रहे हैं। 2010 में कलकत्ता हाई कोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन पर वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगे, जिसके बाद उन पर महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हुई। यह स्वतंत्र भारत में पहला ऐसा मामला था। हाल के वर्षों में कुछ निचली अदालतों के न्यायाधीशों के घरों से असामान्य मात्रा में नकदी बरामद होने की खबरें सामने आई हैं। 2022 में एक जिला जज के यहाँ छापेमारी में लाखों रुपये मिले, जिसने भ्रष्टाचार के संदेह को बढ़ाया। 2017 में  सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को एक याचिका में शामिल किया गया, जिसमें मेडिकल कॉलेजों को अनुमति देने में कथित रिश्वतखोरी का आरोप था। हालाँकि ये आरोप सिद्ध नहीं हुए, लेकिन इसने संस्थान की छवि को काफ़ी हद तक प्रभावित किया। कई मामलों में वकील और कोर्ट स्टाफ पर पक्षपातपूर्ण फैसलों के लिए पैसे लेने के आरोप भी लगे हैं, जिससे यह संदेह पैदा होता है कि क्या न्यायाधीश भी इसमें शामिल हो सकते हैं। ये घटनाएँ अपवाद हो सकती हैं, लेकिन इनका प्रभाव व्यापक है। भ्रष्टाचार के ये आरोप न केवल जनता के भरोसे को कम करते हैं, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर भी सवाल उठाते हैं।



न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ-साथ कई अन्य चुनौतियाँ भी हैं जो भारत की न्यायपालिका की वर्तमान स्थिति को परिभाषित करती हैं। आँकड़ों की मानें तो मार्च 2025 तक, देश भर में 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 80,000 से अधिक और उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले विचाराधीन हैं। यह देरी भ्रष्टाचार के लिए अवसर पैदा करती है, क्योंकि लोग त्वरित न्याय के लिए अनुचित साधनों का सहारा ले सकते हैं। देश भर में न्यायाधीशों के स्वीकृत 25,771 पदों में से लगभग 20% रिक्त हैं। इससे मौजूदा जजों पर दबाव बढ़ता है और पारदर्शिता बनाए रखना मुश्किल हो जाता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर भी विवाद हुए हैं। कोलेजियम प्रणाली, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है, पर अपारदर्शिता और भाई-भतीजावाद के आरोप लगते रहे हैं। 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को असंवैधानिक ठहराने के बाद भी इस मुद्दे पर बहस जारी है। इतना ही नहीं न्यायिक जवाबदेही की कमी बाई एक गंभीर मुद्दा है। क्योंकि न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया जटिल है और महाभियोग दुर्लभ है। इसके अलावा, आंतरिक अनुशासन तंत्र कमजोर है, जिससे भ्रष्टाचार पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाता। देखा जाए तो बड़ी संख्या में ग्रामीण और गरीब आबादी को कानूनी सहायता और जागरूकता की कमी का सामना करना पड़ता है। यह असमानता भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती है।


न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोपों का समाज पर प्रभाव बहुआयामी है। समय समय पर होने वाले सर्वेक्षण और सोशल मीडिया पर चर्चाएँ यह दर्शाते हैं कि लोग न्यायपालिका को पक्षपाती और भ्रष्ट मानने लगे हैं। यह लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि न्यायपालिका पर भरोसा कम होने से कानून का सम्मान घटता है। जब किसी फैसले पर पैसे या प्रभाव से प्रभावित होने की आशंका उठती है, तो यह निष्पक्षता के सिद्धांत को कमजोर करता है। भ्रष्टाचार के आरोप सरकार और अन्य संस्थानों के लिए हस्तक्षेप का बहाना बन सकते हैं, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ती है। कई लोग मानते हैं कि ‘न्याय बिकता है’ और गरीबों के लिए यह पहुँच से बाहर है।


ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। 1 जुलाई 2024 से लागू भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में पारदर्शिता और तकनीक पर जोर दिया गया है। डिजिटल साक्ष्य और समयबद्ध सुनवाई से भ्रष्टाचार के अवसर कम हो सकते हैं। वर्चुअल सुनवाई और ऑनलाइन केस प्रबंधन से प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जा रहा है, जिससे बिचौलियों की भूमिका कम हो सकती है।सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के लिए आचार संहिता को सख्त करने की बात कही जा रही है, हालाँकि इसे लागू करने में चुनौतियाँ हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायतों की जाँच के लिए स्वतंत्र तंत्र की माँग बढ़ रही है, लेकिन यह अभी प्रस्ताव के स्तर पर है।


भारत की न्यायपालिका एक शक्तिशाली संस्था है, जो देश के लोकतंत्र को सँभाले हुए है। लेकिन न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप और संरचनात्मक कमियाँ इसकी विश्वसनीयता को कमजोर कर रही हैं। सुधारों की दिशा सकारात्मक अवश्य है, लेकिन इनका प्रभाव तभी दिखेगा जब इन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाए। समय की माँग है कि न्यायपालिका अपनी आंतरिक कमियों को दूर करे और जनता का भरोसा फिर से हासिल करे, ताकि यह संविधान के ‘न्याय, समानता और स्वतंत्रता’ वाले वादे को साकार कर सके। 

Monday, March 3, 2025

कब सुधेरेंगी स्वस्थ सेवाएँ?


आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं। मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचहत्तर वर्ष बाद भी हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब दिखाई देती है। विभिन्न दलों की सरकारों के शासन के बावजूद नए-नए नारों से, नए-नए वायदों से, नई-नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जाता रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए।
 



नियोजित विकास के तहत देश के कई प्रदेशों के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर देश भर में हज़ारों प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथोलॉजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हुआ। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया गया, वह जमीन पर भी हो रहा है? 



देश के किसी भी गांव में जाकर असलियत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद देश भर में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम कई वर्षों से ठप्प पड़ा है। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा दशकों से बेकार पड़ी है।



इस तरह ऐसे सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह देश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है।


साल 2000 में विश्व बैंक द्वारा ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। देश में  कई उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। ऐसी  योजनाओं के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण लेने गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।


इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन देश के कई प्रदेशों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ इनमें से कई प्रदेशों को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। 


फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों टी.वी. व अन्य उपकरण भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले जहां थोड़े बहुत क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र थे उनके स्थान पर दुगने केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंच वालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।


बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। तमाम बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएँ केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएँ सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। 

Monday, February 17, 2025

आंकड़ों से बदलता व्यापार का संसार


एक बार लॉस एन्जेलिस में उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते समय मैंने श्रम आधारित तकनीकी के समर्थन और औद्योगिकरण के विरोध में काफी जोर से भाषण दिया। तब वहां मौजूद एक धनाड्य उद्योगपति गणपत पटेल ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। जिसमें बताया गया था कि 1920 में अमरीका में जिन क्षेत्रों में रोजगार काफी मात्रा में उपलब्ध था वे क्षेत्र 1960 के दशक में गायब हो गए। पर इससे बेरोजगारी नहीं बढ़ी क्योंकि अनेक नए रोजगार क्षेत्र विकसित हो गए। उदाहरण के तौर पर 1920 के दशक में हाथ की मशीन पर टाइप करने वालों की भारी मांग थी। पर कम्प्यूटर आने के बाद यह मांग समाप्त हो गयी। 1920 में हवाई जहाज के पायलटों की कोई मांग नहीं थी। पर बाद में हजारों पायलटों की मांग पैदा हो गयी। श्री पटेल ने मुझसे जोर देकर कहा कि तकनीकी आने से बेरोजगारी नहीं बढ़ती। ऐसा ही अनुभव आज देश में सूचना क्रान्ति को देखकर हो रहा है। सूचना क्रान्ति ने हर क्षेत्र को बहुत व्यापक रूप में प्रभावित किया है।
 


कुछ वर्ष पहले तक व्यापारी के बही-खातों में आमदनी-खर्च का जो हिसाब रखा जाता था वो इतना माकूल होता था कि उसमें एक पैसे की भी गलती नहीं होती थी। सदियों से भारत में यही प्रथा चल रही थी। पर कम्प्यूटर क्रांति ने सब बदल कर रख दिया। अब व्यापार के आँकड़े केवल आमदनी खर्च तक सीमित नहीं है। अब तो व्यापारी यह जानना चाहता है कि उसका कौन सा उत्पादन किस इलाके में ज्यादा बिक रहा है। उसके ग्राहक किस वर्ग के हैं। साल के किस महीने में उसकी बिक्री बढ़ जाती है। कौन सी राजनैतिक या सामाजिक घटनाओं के बाद किस वस्तु की मांग अचानक बढ़ जाती है। जैसे-जैसे यह जानकारी उत्पादक या वितरक कम्पनी के पास आती जाती है वैसे-वैसे उसका नजरिया और नीति बदलने लगती है। जबकि बही-खाते में केवल आमदनी-खर्च या लाभ-घाटे का हिसाब रखा जाता था।


साम्प्रदायिक दंगों का अंदेशा हो तो अचानक शहर में डबल रोटी, दूध, चाय, कॉफ़ी के पैकेट, दाल-चावल, चीनी, मोमबत्ती, टोर्च, शस्त्रों की मांग बढ़ जाती है। जाहिर है कि इन वस्तुओं के निर्माताओं को देश की नाड़ी पर इस नजरिये से निगाह रखनी पड़ती है। जिस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव बढ़े वहां इन वस्तुओं की आपूर्ति तेजी से बढ़ा दी जाए। इसी तरह बरसात से पहले छाते और बरसाती की मांग, गर्मी से पहले कूलर और एसी की मांग, जाड़े से पहले हीटर और गीजर की मांग बढ़ जाना सामान्य सी बात है। पर एसी बीस हजार रुपये वाला बिकेगा या पचास  हजार रुपये वाला यह जानने के लिए उसे ग्राहकों का मनोविज्ञान और उनकी हैसियत जानना जरूरी है। अगर निम्न वर्गीय रिहायशी क्षेत्र में लिप्टन की ग्रीन लेबल चाय के डिब्बे दुकानों पर सजा दिए जाएं तो शायद एक डिब्बा भी न बिके। पर रैड लेबल चाय धड़ल्ले से बिकती है। धनी बस्ती में पांच रुपये वाला ग्लूकोज बिस्कुट का पैकेट खरीदने कोई नहीं आयेगा। पर पांच सौ रुपये किलो की कूकीज़ के पैकेट धड़ल्ले से बिकते हैं। इसलिए इन कम्पनियों को हर पल बाजार और ग्राहक के मूड़ पर निगाह रखनी होती है।



इससे यह कम्पनियां कई अहम फैसले ले पाती हैं। मसलन उत्पादन कब, कैसा और कितना किया जाए। वितरण कहां, कब और कितना किया जाए।  विज्ञापन का स्वरूप कैसा हो। उसमें किस वर्ग का प्रतिनिधित्व किया जाए और क्या कहा जाए जो ग्राहक का ध्यान आकर्षित कर सके। इसी सूचना संकलन का यह असर था कि 10 वर्ष पहले सभी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपने विज्ञापन अंग्रेजी की बजाय क्षेत्रीय भाषाओं में देने शुरू कर दिए। वरना हमारे बचपन में तो लक्स साबुन का विज्ञापन हिंदी के अखबार में भी अंग्रेजी भाषा में आता था। जब सूचना का इतना महत्व बढ़ गया है तो जाहिर है कि इस सूचना को एकत्र करने वाले, प्रोसेस करने वाले और उसका विश्लेषण करने वाले सभी की मांग बजार में बेहद बढ़ गयी है। यहां तक कि केवल इसी किस्म की सेवायें देने वाली कम्पनियों की बाढ़ आ गयी है। जैसे पहले शेयर मार्केट को चलाने वाले बड़े-बड़े दलाल और बड़ी कम्पनियां होती थीं। पर आज इंटरनेट की मदद से देश के हर कस्बे और शहर में शेयर मार्केट में खेलने वाली हजारों कम्पनियां खड़ी हो गयीं है।



अर्थव्यवस्था ही नहीं कानून की स्थिति को बनाये रखने के लिए भी इस सूचना क्रांति ने भारी मदद की है। आज अपराधियों या आतंकवादियों के बारे में सूचना का भंडार पुलिस विभाग के पास उपलब्ध है और आवश्यकता पड़ने पर मिनटों में देश में इधर से उधर भेज दिया जाता है। इसी तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी इस सूचना क्रांति ने शिक्षकों और विद्यार्थियों के लिए ज्ञान के सैकड़ों दरवाजे खोल दिये हैं। आज देश के लगभग सभी शहरों, गाँवों व क़स्बों में इंटरनेट की मदद से बच्चों के पास दुनिया भर की जानकारी पहुंच रही है।



जब 1985 में देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटराईजेशन की बाद की थी तो विपक्षी दलों और उनसे जुड़े पत्रकारों ने श्री गांधी का खूब मखौल बनाया था। उन पर कार्टून बनाये गये थे। जिनमें दिखाया गया कि भूखे लोगों को राजीव गांधी कम्प्यूटर सिखा रहे हैं। उस वक्त हमला करने वाले सभी राजनैतिक दल आज सबसे ज्यादा कम्प्यूटर का प्रयोग कर रहे हैं। यह अनुभव यही बताता है कि हम राजनीति में हों या मीडिया में तथ्यों का विवेकपूर्ण मूल्यांकन करें तो देश का लाभ होगा। विरोध के लिए विरोध करना सनसनीखेज तो हो सकता है पर इससे जनहित नहीं होता। क्या यह बात हमारे देश के सभी सांसद सोचेंगे?


Monday, December 30, 2024

डॉ मनमोहन सिंह: सबके मन को मोहा


दुनिया से जाने के बाद इंसान के सद्गुणों को याद करने की परंपरा है। इसलिए आज भारतवासी ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के महत्वपूर्ण लोग डॉ मनमोहन सिंह को याद कर रहे हैं। पिछले तीस वर्षों में मेरा उनसे कई बार सामना हुआ। हर बार एक नया अनुभव मिला। मेरा छोटा बेटा और डॉ मनमोहन सिंह का धेवता माधव दिल्ली के सरदार पटेल विद्यालय में पहली कक्षा से 12वीं कक्षा तक साथ पड़े। इसलिए इन दोनों बच्चों के जन्मदिन पर मेरी पत्नी और डॉ सिंह की बेटी अपने सुपुत्र को लेकर जन्मदिन की पार्टी में आती-जाती थीं। जब डॉ सिंह वित्त मंत्री थे तो मेरी पत्नी ने उनके कृष्ण मेनन मार्ग के निवास से लौट कर बताया कि उनकी यह पार्टी उतनी ही सादगी पूर्ण थी जैसी आम मध्यम वर्गीय परिवारों की होती है। न कोई साज सज्जा, न कोई हाई-फ़ाई केटरिंग, सब सामान घर की रसोई में ही बने थे। कोई सरकारी कर्मचारी इस आयोजन में भाग-दौड़ करते दिखाई नहीं दिये। माधव के माता-पिता और नाना-नानी ही सभी अतिथि बच्चों को खिला-पिला रहे थे।
 



सरदार पटेल विद्यालय के वार्षिक समारोह में डॉ मनमोहन सिंह भारत के वित्त मंत्री के नाते मुख्य अतिथि थे। विद्यालय की मशहूर प्राचार्या श्रीमती विभा पार्थसार्थी, अन्य अध्यापकगण और हम कुछ अभिभावक उनके स्वागत के लिए विद्यालय के गेट पर खड़े थे। तभी विद्यालय का एक कर्मचारी प्राचार्या महोदया के पास आया और बोला कि एक सरदार जी हॉल में आकर बैठे हैं और आपको पूछ रहे हैं। विभा बहन और हम सब तेज़ी से हॉल की ओर गये तो देखा कि वो डॉ मनमोहन सिंह ही थे। हुआ ये कि वे आदत के मुताबिक़ कैबिनेट मंत्री की गाड़ी, सुरक्षा क़ाफ़िला साथ न ला कर अपनी सफ़ेद मारुति 800 कार को ख़ुद चला कर विद्यालय के उस छोटे गेट से अंदर आ गये जहां वे अक्सर माधव को स्कूल छोड़ने आते रहे होंगे। 



1993-96 में जैन हवाला कांड उजागर करने के दौरान मैं देश भर में प्रायः रोज़ ही जनसभाएँ संबोधित करने बुलाया जाता था। उन दिनों मीडिया की सुर्ख़ियों में भी मेरे बयान छपते रहते थे, ऐसे में इण्डियन एयरलाइंस का स्टाफ़ एयरपोर्ट पर चेक-इन करते वक्त मुझे और मेरे सहयोगी रजनीश कपूर को प्राथमिकता देते थे। एक बार मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो डॉ मनमोहन सिंह ब्रीफकेस हाथ में लिए लाइन में पीछे खड़े थे। मुझे झिझक लगी तो मैंने उनसे आगे बढ़कर कहा कि, पहले आप चेक-इन कर लीजिए। उन्होंने विनम्रता से मना कर दिया और अपना नंबर आने पर ही चेक-इन किया। 



हवाला कांड के अभियान के दौरान मैं देश के हर बड़े दल के नेताओं के घर जा कर उनसे तीखे सवाल करता था और पूछता था कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े इतने बड़े कांड पर संसद मौन क्यों है? आप लोग सरकार से सवाल क्यों नहीं पूछते कि कश्मीर के आतंकवादियों को हवाला के ज़रिये अवैध धन पहुँचाने के मामले में सीबीआई जाँच क्यों दबाए बैठी है? इसी दौरान मैं तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह से मिलने उनके आवास भी गया। वे और उनकी पत्नी बड़े सम्मान से मिले। शिष्टाचार की औपचारिकता के बाद मैंने उन से पूछा, ‘आपकी छवि एक ईमानदार नेता की है। ये कैसे संभव हुआ कि बिना यूरिया भारत आए करोड़ों रुपये का भुगतान हो गया?’ फिर मैंने कहा, ‘हर्षद मेहता कांड और अब जैन हवाला कांड आपकी नाक के नीचे हो गये और आपको भनक तक नहीं लगी, ऐसे कैसे हो सकता है कि वित्त मंत्रालय को इसकी जानकारी न हो? यह भी संभव नहीं है कि आपके अफ़सरों ने आपको अंधेरे में रखा हो। पर अब तो ये मामले सार्वजनिक मंचों पर आ चुके हैं तो आपकी खामोशी का क्या कारण समझा जाए।’ उन्होंने मेरे इन प्रश्नों के उत्तर देने के बजाए चाय की चुस्की ली और मुझसे बोले, आपने बिस्कुट नहीं लिया। मैं समझ गया कि वे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं चाहते या उत्तर न देने की बाध्यता है। फिर दोनों पति-पत्नी मुझे मेरी गाड़ी तक छोड़ने आए और जब तक मैं गाड़ी स्टार्ट करके चल नहीं दिया तब तक वहीं खड़े रहे। 



हवाला कांड के लंबे संघर्ष से जब मैं थक गया तो बरसाना के विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा से मथुरा वृंदावन और आस-पास के क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण करने में जुट गया। मुझे आश्चर्य हुआ यह देख कर कि 1947 से अब तक किसी भी राजनैतिक दल या उससे जुड़े सामाजिक संगठनों ने कभी भी भगवान श्री राधा कृष्ण की दिव्य लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का कोई प्रयास नहीं किया था। अगर कुछ किया तो सार्वजनिक ज़मीनों पर क़ब्ज़े करने का काम किया। ख़ैर भगवत कृपा और संत कृपा से हमारे कार्य की सुगंध दूर-दूर तक फैल गई। लेकिन इस दौरान मैं देश की मुख्य धारा के राजनैतिक और मीडिया दायरों से बहुत दूर चला गया। मेरी गुमनामी इस हद तक हो गई कि मात्र सात वर्षों में दिल्ली के महत्वपूर्ण लोग मुझे भूलने लगे। तभी   2009 में ‘आईबी डे’ पर आईबी के तत्कालीन निदेशक के आवास पर प्रधान मंत्री डॉ मनमोहन सिंह अन्य गणमान्य लोगों से हाथ मिलाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। मैं और मेरी पत्नी उनसे काफ़ी दूर लॉन में एक पेड़ के नीचे खड़े थे। मेरी पत्नी ने कहा कि चलिए हम भी आगे बढ़कर प्रधान मंत्री जी से मिल लेते हैं। पर मैं संकोचवश वहीं खड़ा रहा। इतने में डॉ सिंह मुड़े और दूर से मुझे देख कर मेरे पास चलते हुए आए और बोले, विनीत जी आपका मथुरा का काम कैसा चल रहा है? हमारी यह मुलाक़ात शायद लगभग 15 वर्ष बाद हो रही थी। मुझे आश्चर्य हुआ उनका यह प्रश्न सुन कर। मैंने कहा, ‘हमारा काम तो ठीक चल रहा है पर आपकी धर्मनिरपेक्ष सरकार से कोई मदद नहीं मिल रही।’ वे बोले, आप कभी आकर मुझ से मिलें। 


चालीस वर्षों की पत्रकारिता में देश के सभी बड़े राजनेताओं से अच्छा संपर्क रहा। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि प्रधान मंत्री के पद पर रहते हुए भी जिस आत्मीयता से श्री चंद्रशेखर जी, श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी व डॉ मनमोहन सिंह जी मुझ से मिलते रहे वह चिरस्मरणीय है। ये तो तब जब इन तीनों की, उनके इस महत्वपूर्ण पद पर रहते हुए, मैं अपने लेखों और भाषणों में तीखी आलोचना करता था।   

Monday, December 16, 2024

मुसलमान ज़रा सोचें


हर जमात में शरीफ लोगों की कमी नहीं होती। मुसलमानों में भी नहीं है। चाहे भारत के हों या पाकिस्तान के। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इम्तियाज अहमद उन मुसलमानों में से थे जिन्होंने भारत में इस्लाम की हालत पर वर्षों गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन के आधार पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। इस पुस्तकों में उन्होंने बताने की कोशिश की है कि भारत में रहने वाले मुसलमानों का सामाजिक जीवन, सोच और प्राथमिकतायें दूसरे देशों के मुसलमानों से भिन्न हैं और भारतीय हैं। उनका मानना है कि धर्मान्धता से ग्रस्त होकर विद्वेष की भावना रखने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत थोड़ी है। भारत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान ये जानते हैं कि उनका जीवन पाकिस्तान में रह रहे मुसलमानों से कही बेहतर है। जितनी आजादी और आगे बढ़ने के अवसर उन्हें भारत में मिले हैं, उतने कट्टरपंथी पाकिस्तान में नहीं मिलते।



आमतौर पर यह माना जाता है कि पूरे देश का समाज हिन्दू और मुसलमान दो खेमों में बंटा है। इन दोनों खेमों के बीच स्थाई द्वेष और अपने अपने खेमे के भीतर भारी एकजुटता है। दोनों पक्षों के धर्मान्ध नेता इस मान्यता को बढ़ाने में काफी तत्पर रहते हैं। हकीकत यह नहीं है। कश्मीर के एक मुसलमान को यह देखकर आश्चर्य होगा कि तमिलनाडु के मुसलमानों के घर बारात का स्वागत केले के पत्ते, नारियल और इलायची से वैसे ही किया जाता है जैसे किसी हिन्दू के घर में। कश्मीर का मुसलमान तमिलनाडु के मुसलमान के घर का भोजन खाकर तृप्त नहीं होता ठीक वैसे ही जैसे तमिलनाडु का मुसलमान तमिल घर में भोजन खाकर ही प्रसन्न होता है। बात बात पर उत्तेजित हो जाने वाली बंगाल की आम जनता के साथ अगर आप रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में सफर कर रहे हैं और आपकी बहस किसी स्थानीय व्यक्ति से हो जाए तो आप अपने को अकेला पाएंगे। आपके विरोध में हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोग एकजुट होकर खड़े हो जायेंगे। वहां सवाल इस बात का नहीं होगा कि आप हिन्दू हैं या मुसलमान। आप गैर बंगाली हैं इसलिये आपके प्रति स्थानीय लोगों की हमदर्दी हो ही नहीं सकती। हर राज्य का यही हाल है। भाषा, पहनावा, भोजन, आचार विचार के मामले में भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में रहने वाले लोग भिन्न भिन्न समुदायों में बंटै हैं मसलन तमिल, कन्नड, केरलीय, मराठी, गुजराती, उडि़या, बंगाली, असमिया, पंजाबी, बिहारी, हरियाणवी आदि। जब तक कोई धर्मान्धता की घुट्टी पिलाने न जाए स्थानीय जनता अपने धर्म के संकुचित दायरे में ही सिमट कर नहीं रहती बल्कि परदेशी के विरूद्ध स्थानीय लोगों की एकजुटता का प्रदर्शन करती है। इसलिये यह कहना कि सारे मुसलमान एक जैसे हैं, ठीक नहीं।



ठीक इसी तरह से ये सोचना भ्रम है कि इस्लाम धर्म के मानने वाले सभी लोगों में भारी एकजुटता होती है। कुरान शरीफ के मुताबिक खुदा की नजर में उसका हर बंदा एक समान हैसियत रखता है। कोई भेद नहीं। मुसलमान दावा भी करते हैं कि वे एक पंगत में बैठकर नमाज अदा करते हैं और एक ही पंगत में बैठकर खाते हैं पर यह भी हकीकत है कि उनकी यह एकजुटता कुछ खास मकसद तक सिमट कर रह जाती है। कायदे से मुसलमानों में जाति व्यवस्था नहीं होनी चाहिये पर चूंकि भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान स्थानीय मूल के ही लोग हैं जिन्होंने किन्हीं कारणों से इस्लाम स्वीकार कर लिया था और जब वे मुसलमान बने तो अपने साथ वे न सिर्फ अपनी जीवनशैली ले गये बल्कि जाति व्यवस्था को भी ले गये। इसीलिये मुस्लिम समाज में भी अनेक जातियां हैं। मसलन जुलाहे, बढ़ई, लुहार, धुनिया, नाई आदि। मुसलमानों में भी तथाकथित ऊंची और नीची जातियां होती हैं ऊंची जातियों में प्रमुख हैं- सैय्यद, लोधी, पठान वगैरह। अब अगर कोई गरीब मुसलमान जुलाहा किसी पठान या सैययद के बैटे से अपनी बेटी के निकाह का पैगाम लेकर जाए तो उसे कामयाबी नहीं मिलेगी। शायद इज्जत बचाकर लौटना भी मुश्किल होगा। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुओं में अगर कोई केवट जाति का पिता ब्राह्मण परिवार में अपनी कन्या का प्रस्ताव लेकर जाये तो उसके साथ भी ऐसा ही होगा। इसलिये यह मानना कि सारे हिन्दू एक तरफ हैं और सारे मुसलमान एक तरफ, गलत होगा।


हिन्दूओं की तरह ही मुसलमानों में बहुसंख्यक लोग ऐसे हैं जिन्हें मजहब से ज्यादा रोजी रोटी की फिक्र है। वे चाहे पाकिस्तान में रह रहे हों या भारत में। लाहौर में बसे राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मुबारक अली बताते हैं कि पाकिस्तान की पढ़ी लिखी आबादी तालिबान की नीतियों की समर्थक नहीं है। उन्हें डर है कि अगर कठमुल्लापन इसी तरह बढ़ता गया और इसे रोका न गया तो पाकिस्तान की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था चूर चूर हो जाएगी


मिस्त्र, इरान, इराक, मलेशिया, इंडोनेशिया और तमाम दूसरे ऐसे देश हैं जो घोषित रूप से इस्लाम में आस्था रखने वाले देश हैं पर अगर इनकी तरक्की, वेशभूषा और आधुनिकता को देखा जाए तो यह आश्चर्य होगा कि मुसलमान होते हुए भी ये इतने प्रगतिशील कैसे हैं। इन देशों के संतुश्ट और खुशहाल नागरिक बताते हैं कि उन्होंने कुरान के मूल संदेश को अपनाया है। पर साथ ही हर मोर्चे पर आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।


जिन लोगों को 1980 के मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों की याद है उन्हें ये भी याद होगा कि इन दंगों के बाद मुरादाबाद के कलात्मक बर्तनों के निर्यात में भारी कमी आयी थी। जिसके बाद हजारों हुनरमंद कारीगरों को बदहाली से मजबूर होकर अपने बच्चों के पेट पालने के लिये रिक्शा चलाना पड़ा। जो यह करने के बाद भी अपने बच्चों का पेट नहीं भर सके उन्होंने पूरे परिवार को तेजाब पिलाकर खुद भी पी लिया और खुदा को प्यारे हो गये। आज हालात फिर वैसे ही बन रहे हैं।


दुर्भाग्य से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिये तमाम सियासती लोग और मजहबों के ठेकेदार देश की जनता को धार्मिक और जातीय खेमों में बांटते जा रहे हैं। जिसका भारी खामियाजा देश की आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये ऐसे संवेदनशील माहौल में जब आतंकवाद का चारों तरफ तांडव हो रहा हो भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे वतनपरस्ती की एक ऐसी जलवाफरोशी करें कि उनके आलोचक भी दंग रह जायें। अक्सर यह सवाल उठाया जा सकता है कि इसी मुल्क में पैदा होने के बावजूद मुसलमानों से बार बार देश प्रेम का सबूत क्यों मांगा जाता है ? सवाल बिल्कुल जायज है। क्या ऐसा नहीं है कि देश के साथ अनेक मोर्चों पर गद्दारी करने वालों में विभिन्न प्रांतों के अनेक हिन्दू ही शामिल रहे हैं तो फिर ऐसी अपेक्षा मुसलमानों से ही क्यो? इसकी एक वजह है। पिछले कुछ वर्षों से देश में फैल रहे आतंकवाद में शामिल नौजवान मुस्लिम समाज से ही आये हैं। इसलिये अगर देश की शेष जनता मुस्लिम समुदाय और आतंकवादियों के बीच सीधा सम्बन्ध देखती है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में हुए आतंकवादी हमले के बाद अमरीकी जनता ने एक सरदार जी को इसलिये मार डाला क्योंकि उनकी शक्ल ओसामा बिन लादेन से मिलती थी। गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है। 


इसलिये भारत के मुसलमानों को चाहिये कि वे कट्टरपंथी और दहशतगर्दों से बचकर रहे। इतना ही नहीं इनको पकड़वाने और इनके हौसले नाकामयाब करने में सक्रिय हों। देश भर में होने वाले आतंकी हमले, ख़ासकर जम्मू कश्मीर में होने वाले  भयानक विस्फोटों की निंदा सारे भारत में उसी तरह की जानी चाहिये जैसे अमरीका में रहने वाले हर धर्म के लोगों ने न्यूयार्क के हमले के विरोध में प्रदर्शन और प्रार्थनायें कीं। यदि ऐसा किया जाता है तो इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। न सिर्फ फिरकापरस्त सियासतदानों के हौसले पस्त होंगे बल्कि समाज में जानबूझकर पैदा कर दी गयी खाई भी पटने लगेगी। इसमें कोई बुरा मानने की बात नहीं है। मौके की नजाकत को देखकर कभी कभी हमें रोजमर्रा की जिंदगी से हटकर भी कुछ करना पड़ता है। इससे आवाम का ही फायदा होता है। उम्मीद की जानी चाहिये कि भारत के मुसलमान वक्त के इस नाजुक दौर में परिपक्वता और होशियारी का परिचय देंगे ताकि हर परिवार में खुशहाली और अमन चैन बढ़े, नफरत और बैर नहीं। 

Monday, December 9, 2024

राजनेताओं के प्रेम प्रसंग


हमेशा की तरह राजनेताओं के प्रेम प्रसंग लगातार चर्चा में रहते हैं। ये बात दूसरी है कि ऐसे सभी मामलों को बल पूर्वक दबा दिया जाता है। जल्दी ही ऐसी घटनाएँ जनता के मानस से ग़ायब हो जाती हैं। पर दुनिया भर के राजनेताओं के चरित्र और आचरण पर जनता और मीडिया की पैनी निगाह हमेशा लगी रहती है। जब तक राजनेताओं के निजी जीवन पर परदा पड़ा रहता है, तब तक कुछ नहीं होता। पर एक बार सावधानी हटी और दुर्घटना घटी। फिर तो उस राजनेता की मीडिया पर ऐसी धुनाई होती है कि कुर्सी भी जाती है और इज्जत भी। ज्यादा ही मामला बढ़ जाए, तो आपराधिक मामला तक दर्ज हो जाता है। विरोधी दल भी इसी ताक में लगे रहते हैं और एक दूसरे के खिलाफ सबूत इकट्ठे करते हैं। उन्हें तब तक छिपाकर रखते हैं, जब तक उससे उन्हें राजनैतिक लाभ मिलने की परिस्थितियाँ पैदा न हो जाऐं। मसलन चुनाव के पहले एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम जमकर होता है। पर यह भारत में ही होता हो, ऐसा नहीं है।
 



उन्मुक्त जीवन व विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्ध को मान्यता देने वाले अमरीकी समाज में भी जब उनके राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का अपनी सचिव मोनिका लेवांस्की से प्रेम सम्बन्ध उजागर हुआ तो अमरीका में भारी बवाल मचा था। इटली, फ्रांस व इंग्लैंड जैसे देशों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर अनेक बार बड़े राजनेताओं को पद छोड़ने पड़े हैं। मध्य युग में फ्रांस के एक समलैंगिक रूचि वाले राजा को तो अपनी दावतों का अड्डा पेरिस से हटाकर शहर से बाहर ले जाना पड़ा। क्योंकि आए दिन होने वाली इन दावतों में पेरिस के नामी-गिरामी समलैंगिक पुरूष शिरकत करते थे, और जनता में उसकी चर्चा होने लगी थी। 



आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं, जहाँ मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि के प्रेम प्रसंगों पर बवाल मचते रहे हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री जी.बी. पटनायक पर समलैंगिकता का आरोप लगा था। आन्ध्र प्रदेश के राज्यपाल एन. डी. तिवारी का तीन महिला मित्रों के साथ शयनकक्ष का चित्र टी.वी. चैनलों पर दिखाया गया। अटल बिहारी वाजपयी का यह बयान कि वे न तो ब्रह्मचारी हैं और न ही विवाहित, काफी चर्चित रहा था। क्योंकि इसके अनेक मायने निकाले गए। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के सम्बन्धों को लेकर पार्टी में काफी विरोध हुआ था। ऐसे अनेक मामले हैं। पर यहाँ कई सवाल उठते हैं। 



घोर नैतिकतावादी विवाहेत्तर सम्बन्धों की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं। उसे निकृष्ट कृत्य और समाज के लिए घातक बताते हैं। पर वास्तविकता यह है कि अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना राजाओं और नेताओं को छोड़, संतों और देवताओं के लिए भी अत्यंत दुष्कर कार्य रहा है। महान तपस्वी विश्वामित्र को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने अपनी पायल की झंकार से विचलित कर दिया। यहाँ तक कि भगवान विष्णु का मोहिनी रूप देखकर भोलेशंकर समाधि छोड़कर उठ भागे और मोहिनी से संतान उत्पत्ति की। इसी तरह अन्य धर्मों में भी संतो के ऐसे आचरण पर अनेक कथाऐं हैं। वर्तमान समय में भी जितने भी धर्मों के नेता हैं, वे गारण्टी से यह नहीं कह सकते कि उनका समूह शारीरिक वासना की पकड़ से मुक्त है। ऐसे में राजनेताओं से यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वे भगवान राम की तरह एक पत्नी व्रतधारी रहेंगे? विशेषकर तब जब सत्ता का वैभव सुन्दरियों को उन्हें अर्पित करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे में मन को रोक पाना बहुत कठिन काम है।


प्रश्न यह उठता है कि यह सम्बन्ध क्या पारस्परिक सहमति से बना है या सामने वाले का शोषण करने की भावना से? अगर सहमति से बना है या सामने वाला किसी लाभ की अपेक्षा से स्वंय को अर्पित कर रहा है तो राजनेता का बहुत दोष नहीं माना जा सकता। सिवाय इसके कि नेता से अनुकरणीय आचरण की अपेक्षा की जाती है। किन्तु अगर इस सम्बन्ध का आधार किसी की मजबूरी का लाभ उठाना है, तो वह सीधे-सीधे दुराचार की श्रेणी में आता है। लोकतंत्र में उसके लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। यह तो राजतंत्र जैसी बात हुई कि राजा ने जिसे चाहा उठवा लिया। 


ऐसे सम्बन्ध प्रायः तब तक उजागर नहीं होते, जब तक कि सम्बन्धित व्यक्ति चाहे पुरूष हो या स्त्री, इस सम्बन्ध का अनुचित लाभ उठाने का काम नहीं करता। जब वह ऐसा करता है, तो उसका बढ़ता प्रभाव, विरोधियों में ही नहीं, अपने दल में भी विरोध के स्वर प्रबल कर देता है। वैसे शासकों से जनता की अपेक्षा होती है कि वे आदर्श जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। पर अब हालात इतने बदल चुके हैं कि राजनेताओं को अपने ऐसे सम्बन्धों का खुलासा करने में संकोच नहीं होता। फिर भी जब कभी कोई असहज स्थिति पैदा हो जाती है, तो मामला बिगड़ जाता है। फिर शुरू होता है, ब्लैकमेल का खेल। जिसकी परिणिति पैसा या हत्या दोनों हो सकती है। जो राजनेता पैसा देकर अपनी जान बचा लेते हैं, वे उनसे बेहतर स्थिति में होते हैं जो पैसा भी नहीं देते और अपने प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करवाकर लाश गायब करवा देते हैं। इस तरह वे अपनी बरबादी का खुद इंतजाम कर लेते हैं। 


मानव की इस प्रवृत्ति पर कोई कानून रोक नहीं लगा सकता। आप कानून बनाकर लोगों के आचरण को नियन्त्रित नहीं कर सकते। यह तो हर व्यक्ति की अपनी समझ और जीवन मूल्यों से ही निर्धारित होता है। अगर यह माना जाए कि मध्य युग के राजाओं की तरह राजनीति के समर में लगातार जूझने वाले राजनेताओं को बहुपत्नी या बहुपति जैसे सम्बन्धों की छूट होनी चाहिए तो इस विषय में बकायदा कोई व्यवस्था की जानी चाहिए। ताकि जो बिना किसी बाहरी दबाव के, स्वेच्छा से, ऐसा स्वतंत्र जीवन जीना चाहते हैं, उन्हें ऐसा जीने का हक मिले। पर यह सवाल इतना विवादास्पद है कि इस पर दो लोगों की एक राय होना सरल नहीं। इसलिए देश, काल और वातावरण के अनुसार व्यक्ति को व्यवहार करना चाहिए, ताकि वह भी न डूबे और समाज भी उद्वेलित न हो। 

Monday, November 18, 2024

रोज़गारपरक शिक्षा कैसे हो?


आय दिन अख़बारों में पढ़ने में आता है जिसमें देश में चपरासी की नौकरी के लिए लाखों ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टेक व एमबीए जैसी डिग्री धारकों की दुर्दशा का वर्णन किया जाता है। ऐसी हृदय विदारक खबर पर बहुत विचारोत्तेजक प्रतिक्रियाएं भी आती हैं। सवाल है कि जो डिग्री नौकरी न दिला सके, उस डिग्री को बांटकर हम क्या सिद्ध करना चाहते हैं। दूसरी तरफ दुनिया के तमाम ऐसे मशहूर नाम हैं, जिन्होंने कभी स्कूली शिक्षा भी ठीक से पूरी नहीं की। पर पूरी दुनिया में यश और धन कमाने में झंडे गाढ़ दिए। जैसे स्टीव जॉब्स, जो एप्पल कंपनी के मालिक हैं, कभी कालेज पढ़ने नहीं गए। फोर्ड मोटर कंपनी के संस्थापक हिनेरी फोर्ड के पास मैनेजमेंट की कोई डिग्री नहीं थी। जॉन डी रॉकफेलर केवल स्कूल तक पढ़े थे और विश्व के तेल कारोबार के सबसे बड़े उद्यमी बन गए। मार्क टुइन और शेक्सपीयर जैसे लेखक बिना कालेज की शिक्षा के विश्वविख्यात लेखक बने।



पिछले 25 वर्षों में सरकार की उदार नीति के कारण देशभर में तकनीकि शिक्षा व उच्च शिक्षा देने के लाखों संस्थान छोटे-छोटे कस्बों तक में कुकरमुत्ते की तरह उग आए। जिनकी स्थापना करने वालों में या तो बिल्डर्स थे या भ्रष्ट राजनेता। जिन्होंने शिक्षा को व्यवसाय बनाकर अपने काले धन को इन संस्थानों की स्थापना में निवेश कर दिया। एक से एक भव्य भवन बन गए। बड़े-बड़े विज्ञापन भी प्रसारित किए गए। पर न तो इन संस्थानों के पास योग्य शिक्षक उपलब्ध थे, न इनके पुस्तकालयों में ग्रंथ थे, न प्रयोगशालाएं साधन संपन्न थीं, मगर दावे ऐसे किए गए मानो गांवों में आईआईटी खुल गया हो। नतीजतन, भोले-भाले आम लोगों ने अपने बच्चों के दबाव में आकर उन्हें महंगी फीस देकर इन तथाकथित संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। लाखों रूपया इन पर खर्च किया। इनकी डिग्रियां हासिल करवाई। खुद बर्बाद हो गए, मगर संस्थानों के मालिकों ने ऐसी नाकारा डिग्रियां देकर करोड़ों रूपए के वारे न्यारे कर लिए।



दूसरी तरफ इस देश के नौजवान मैकेनिकों के यहां, बिना किसी सर्टिफिकेट की इच्छा के, केवल हाथ का काम सीखकर इतने होशियार हो जाते हैं कि लकड़ी का अवैध खोखा सड़क के किनारे रखकर भी आराम से जिंदगी चला लेते हैं। हमारे युवाओं की इस मेधा शक्ति को पहचानकर आगे बढ़ाने की कोई नीति आजतक क्यों नहीं बनाई गई ? आईटीआई जैसी संस्थाएं बनाई भी गईं, तो उनमें से अपवादों को छोड़कर शेष बेरोजगारों के उत्पादन का कारखाना ही बनीं। क्योंकि वहां भी व्यवहारिक ज्ञान की बहुत कमी रही। इस व्यवहारिक ज्ञान को सिखाने और सीखने के लिए जो व्यवस्थाएं चाहिए, वे इतनी कम खर्चे की हैं कि सही नेतृत्व के प्रयास से कुछ ही समय में देश में शिक्षा की क्रांति कर सकती हैं। जबकि अरबों रूपए का आधारभूत ढांचा खड़ा करने के बाद जो शिक्षण संस्थान बनाए गए हैं, वे नौजवानों को न तो हुनर सिखा पाते हैं और न ज्ञान ही दे पाते हैं। बेचारा नौजवान न घर का रहता है, न घाट का।


कभी-कभी बहुत साधारण बातें बहुत काम की होती हैं और गहरा असर छोड़ती हैं। पर हमारे हुक्मरानों और नीति निर्धारकों को ऐसी छोटी बातें आसानी से पचती नहीं। एक किसान याद आता है, जो बांदा जिले से पिछले 20 वर्षों से दिल्ली आकर कृषि मंत्रालय में सिर पटक रहा है। पर किसी ने उसे प्रोत्साहित नहीं किया। जबकि उसने कुएं से पानी खींचने का एक ऐसा पंप विकसित किया है, जिसे बिना बिजली के चलाया जा सकता है और उसे कस्बे के लुहारों से बनवाया जा सकता है। ऐसे लाखों उदाहरण पूरे भारत में बिखरे पड़े हैं, जिनकी मेधा का अगर सही उपयोग हो, तो वे न सिर्फ अपने गांव का कल्याण कर सकते हैं, बल्कि पूरे देश के लिए उपयोगी ज्ञान उपलब्ध करा सकते हैं। यह ज्ञान किसी वातानुकूलित विश्वविद्यालय में बैठकर देने की आवश्यकता नहीं होगी। इसे तो गांव के नीम के पेड़ की छांव में भी दिया जा सकता है। इसके लिए हमारी केंद्र और प्रांतीय सरकारों को अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षा में सुधार के नाम पर आयोगों के सदस्य बनने वाले और आधुनिक शिक्षा को समझने के लिए बहाना बना-बनाकर विदेश यात्राएं करने वाले हमारे अधिकारी और नीति निर्धारक इस बात का महत्व कभी भी समझने को तैयार नहीं होंगे, यही इस देश का दुर्भाग्य है। 


प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभाओं के दौरान इस बात को पकड़ा था। पर ‘मेक इन इंडिया’ की जगह अगर वे ‘मेड बाई इंडिया’ का नारा देते, तो इस विचार को बल मिलता। ‘मेक इन इंडिया’ के नाम से जो विदेशी विनियोग आने की हम आस लगा रहे हैं, वे अगर आ भी गया, तो चंद शहरों में केंद्रित होकर रख जाएगा। उससे खड़े होने वाले बड़े कारखाने भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाकर और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करके मुट्ठीभर लोगों को रोजगार देंगे और कंटेनरों में भरकर मुनाफा अपने देश ले जाएंगे। जबकि गांव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को पुर्नस्थापित करके हम इस देश की नींव को मजबूत करेंगे और सुदूर प्रांतों में रहने वाले परिवारों को भी सुख, सम्मान व अभावमुक्त जीवन जीने के अवसर प्रदान करेंगे। अब ये फैसला तो प्रधानमंत्री जी और देश के नीति निर्धारकों को करना है कि वे औद्योगिकरण के नाम पर प्रदूषणयुक्त, झुग्गी झोपड़ियों वाला भारत बनाना चाहते हैं या ‘मेरे देश की माटी सोना उगले, उगले हीरे मोती’ वाला भारत।