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Monday, March 7, 2016

देशद्रोह और राजद्रोह में क्या अंतर है ?

 जो देश के विखंडन की बात करे, आतंकवाद का समर्थन करें, सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करे निःसंदेह वह देशद्रोही है और उसे देश के कानून के तहत सजा मिलनी चाहिए। पर देशद्रोह और राजद्रोह में अंतर है। अंग्रेज सरकार ने आजादी की मांग करने वाले सरदार भगत सिंह जैसे युवा देशभक्तों पर राजद्रोह के मुकदमें चलाए थे। पर आजाद भारत में राजद्रोह के आरोप लगाकर किसी को प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। क्योंकि चुनी हुई सरकार भी केवल एक तिहाई मतों से ही सत्ता में आती है। यानि दो तिहाई मतदाताओं का उसे समर्थन प्राप्त नहीं होता। जाहिर है कि ऐसे मतदाता चुनी हुई सरकार से मतभेद रखते हैं। इसलिए लोकतंत्र में उन्हें अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने की छूट होती है। इसलिए सरकार का विरोध करना राजद्रोह होता है। राजद्रोह को देशद्रोह नहीं माना जा सकता और देशद्रोह करने वाले को माफ नहीं किया जा सकता।


आज देशद्रोह को लेकर देश में एक बहस चल रही है। जहां राजद्रोह और देशद्रोह के भेद को गड्ड-मड्ड कर दिया गया है। आम लोग दोनों में अंतर नहीं कर पा रहे। पर जो लोग इस फर्क को समझते हैं, उन्हें कोई भ्रांति नहीं है। वे मानते हैं कि भारत की संप्रभुता और सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। लेकिन साथ ही उनका यह भी कहना है कि जो खान माफिया खनन के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का नृशंसता से, रात-दिन अवैध खनन कर रहा है और उन इलाकों में रहने वाले जनजातीय लोगों के जीने के साधन छीनकर उन्हें महानगरों की गंदी बस्तियों में धकेल रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो बिल्डर माफिया निर्बल वर्ग की जमीनों का ‘लैंड यूज’ बदलवाकर उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर अरबों के कारोबार कर रहा है, क्या वे देशद्रोही नहीं है ? जो उद्योगपति बैंकों से लाखों रूपया कर्जा लेकर डकार जाते हैं, ब्याज देना तो दूर मूल तक वापिस नहीं करते और इस देश के आम लोगों की मेहनत की कमाई को हड़प कर गुलछर्रे उड़ाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सीमा पर जान की बाजी लगाने वाले सेना के नौजवानों के लिए खरीदे जाने वाले सामान और आयुध की खरीद में जो अरबों रूपये का कमीशन डकार जाते हैं, क्या वे देशद्रोही नहीं हैं ? सारे देश में गरीब किसानों के नौजवान बेटों से पुलिस में या स्कूल में अध्यापक की नौकरी देने के लिए जो रिश्वत लेते हैं, क्या ये लोग देशद्रोही नहीं हैं ? भारत के मुख्य न्यायाधीश तक ये बात सार्वजनिक रूप से मान चुके हैं कि अदालतों में नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है, तो क्या भ्रष्टाचार करने वाले जज देशद्रोही नहीं हैं ?

पर देशद्रोह के नाम पर आज देश में जो बहस चल रही है, उनमें ये सवाल नहीं उठाए जा रहे। इसलिए इस बहस का कोई दूरगामी परिणाम निकलने वाला नहीं है। यह भी एक और भावनात्मक मुद्दा बनकर कुछ ही दिनों में पानी के बुलबुले की तरह फूट जाएगा। क्योंकि बुनियादी सवाल खड़े किए बिना, उन पर बहस किए बिना, उनका समाधान खोजे बिना, ये मतभेद खत्म नहीं होगा। यह बात सरकार और उसके समर्थन में खड़े हर आदमी को समझ लेनी चाहिए, चाहे वो किसी भी दल का क्यों न हो। क्योंकि कोई भी दल सत्ता में क्यों न आ जाए, उसके तौर-तरीके हालात में बहुत बुनियादी बदलाव नहीं ला पाते। इस विषय में वामपंथी दल भी कोई अपवाद नहीं है।

केरल और पश्चिम बंगाल में जहां लंबे समय तक जनता ने वामपंथी सरकार का काम देखा है, वहां की जनता यह कहने में कोई संकोच नहीं करती कि इन सरकारों ने आम आदमी की हैसियत में कोई सुधार नहीं किया, उसकी बदहाली दूर नहीं की। इतना ही नहीं इन सरकारों ने लोकतांत्रिक मूल्यों का भी सम्मान नहीं किया। नतीजतन वामपंथी सरकारों के विरूद्ध गुस्साई युवा पीढ़ी को नक्सलवाद का सहारा लेना पड़ा।

इस परिप्रेक्ष्य में जेएनयू के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया का, रिहाई के बाद का, भाषण बहुत महत्वपूर्ण है। जहां एक तरफ उसने अपना वही तेज-तर्रार तेवर कायम रखा है और अपने तर्कों से स्वयं को निर्दोष बताते हुए मोदी सरकार की खुलकर खिंचाई की है, वहीं कन्हैया ने क्रांति का अपना लक्ष्य जोरदारी से उठाया है। जिससे उस पर लगे देशद्रोह के आरोप की धार भौंथरी हुई है। पर प्रश्न ये है कि मुट्ठी हवा में लहराकर मनुवाद का विरोध करने वाले वामपंथी कभी कठमुल्लेपन का और शरीयत का ऐसा ही जोरदार विरोध करते नजर क्यों नहीं आते, उनके इस इकतरफा रवैए से क्षुब्ध होकर ही वृह्द हिंदू समाज उन्हें देशद्रोही करार दे देता है। उधर वामपंथ की विचारधारा अपने जन्मस्थलों में ही असफल सिद्ध हो चुकी है। भारत में भी इसका प्रदर्शन कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया। इसके बावजूद क्या वजह है कि कन्हैया जैसे नौजवान केवल वामपंथ के रटे रटाए नारे लगाते हैं। पर उनके पास जनसमस्याओं के हल के लिए कोई ठोस समाधान उपलब्ध नहीं है। वे तो यह भी गारंटी नहीं ले सकते कि अगर कभी उनकी सरकार आ गई, तो उनके पास समाधान और विकास का कारामद ब्लू प्रिंट तैयार है ? ऐसा कोई ब्लू प्रिंट है ही नहीं, होता तो अब तक उसके परिणाम दुनिया में दिखाई देते। एक असफल विचारधारा को मरे सांप की तरह गले में लटकाने से कोई क्रांति नहीं होने जा रही।

रही बात व्यवस्था से लड़ने के लिए हिंसा अपनाने की, तो वैदिक संस्कृति का प्रमुख ग्रंथ भगवद् गीता ही हिंसक युद्ध की वकालत करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि आताताइयों, अत्याचारियों और देशद्रोह करने वालों से युद्ध लड़ना और उन्हें मार डालना, पुण्य प्राप्ति का मार्ग है, पाप का नहीं। माक्र्सवाद और गीतावाद के रास्ते अलग हो सकते हैं, पर लक्ष्य दोनों का समाज को सुखी और संपन्न बनाना है। अपने प्रयोग में विफल रहे माक्र्सवादियों को चाहिए कि अब कुछ दिन सनातन वैदिक ज्ञान और गीतावाद का प्रयोग करके देखें। उस ज्ञान का जिसका प्रकाश हर विषय पर समाधान देता है। पर उसे समझने और अपनाने का कोई ईमानदार प्रयास कभी हुआ नहीं। दूसरी तरफ दुनियाभर के देश खुलेआम या चोरी-छिपे सनातन वैदिक ज्ञान को आधार बनाकर भविष्य की संभावित जीवन पद्धति पर शोध कर रहे हैं। जबकि भारत में हम आज भी इस बहुमूल्य ज्ञान का उपहास उड़ा रहे हैं। इसे समझकर, विवेकपूर्ण तरीके से अपनाकर ही हम अपने समाज का भला कर सकते हैं।
 

Monday, June 4, 2012

बाबा राम देव ने क्या खोया क्या पाया ?

जन्तर मन्तर पर बाबा रामदेव के नेतृत्व मे टीम अन्ना ने एक बार फिर दिन भर का धरना किया। इस धरने से बाबा ने क्या खोया क्या पाया इस पर अलग अलग विचार है। धरने की जरूरत इसलिए पड़ी कि पिछले छः महीने से भ्रष्टाचार के विरूद्व बाबा रामदेव व अन्ना हजारे की मुहीम ठण्डी पड़ रही थी। जनता इन आन्दोलनों के नेतृत्व लेकर, अनेक कारणों से, पहले की तरह उत्साहित नहीं थी। इधर मीडिया भी इन आन्दोलनों में अपनी रूचि खो चुका था। इसलिए आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं में हताशा व्याप्त थी। उनको अपने नेतृत्व पर दबाव था कि कुछ ऐसा किया जाये जो आन्दोलन ठण्डा न पड़े। इसलिए बाबा ने इस धरने का फैसला किया और इसके लिए दो महीने तक देशभर में जी जान लगाकर लोगों को उत्साहित करने की कोशिश की। इस बीच अन्ना हजारे को अपनी ही टीम के बीच हो रहे रोज के झगड़ों ने परेशान कर दिया। अन्ना को लगा कि अगर टीम अन्ना के चक्कर में ही फंसे रहे तो रही सही साख भी जाती रहेगी। इसलिए उन्होनें बाबा की शरण ली। जो टीम अन्ना को नागवार गुजरा। उनके बयान इस फैसले के खिलाफ आये। इससे असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अन्ततः टीम अन्ना को लगा कि बाबा के धरने में न जाकर उनका घाटा ही है इसलिए सब वहाँ जाकर खड़े हो गये।
बाबा रामदेव के मंच से जो कुछ कहा गया उसमें पुरानी बातो को ही दोहराया गया। काले धन को लाने और भ्रष्टाचार को रोकने के बारे में जो भी बयान दिये गये उनमें ऐसी रोशनी दिखाई नहीं दी जिससे इन समस्याओं का हल निकाला जा सके। आगे का जो आव्हान किया गया है उसमें राजनैतिक दलों के अध्यक्षों और सासंदो का समर्थन जुटाने की बात की गई है। साथ ही आन्दोलन और धरनों के दौर को बनाये रखने का भी संकल्प लिया गया है। जोकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जायज तरीका है। पर क्या इस प्रक्रिया से हल निकल पायेगा?
इस पूरे आन्दोलन की आधार रेखा यह है कि सरकार ही भ्रष्टाचार के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। सरकार काला धन बाहर नहीं निकालना चाहती। सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानून नहीं बनाना चाहती। पर यह बात पूरी तरह से सही नही है। निश्चित रूप से सरकार की ज्यादा जिम्मेदारी होती है। पर क्या यह सही नही है कि किसी भी दल की सरकार क्यों न हो उसका रवैया एक सा ही रहता है। अगर आन्दोलनकारी सरकार का मतलब केवल केन्द्र सरकार मानते है और दावा करते है कि उन्हें अनेक विपक्षी दलों का समर्थन हासिल है तो सोचने वाली बात है कि इन विपक्षी दलों की इन प्रान्तों में सरकारे हैं, क्या वे प्रान्त भ्रष्टाचार से मुक्त है ? दरअसल भ्रष्टाचार का कारण हमारी चुनाव व्यवस्था, न्याय प्रणाली, औद्यौगिक हित, हमारा मूल चरित्र व इस देश का प्रशासनिक ढांचा है। जिसमें बुनियादी बदलाव की जरूरत है। कोई एक दल की सरकार अकेले इस काम को नहीं कर सकती। इस बात को आन्दोलनकारी या तो समझते नहीं या जान बूझकर अनदेखा कर रहे है। अगर समझते नही तो वे इस आन्दोलन को कोई सकारात्मक दिशा नही दे पायेंगें और अगर समझते है फिर भी सार्वजनिक रूप से स्वीकारते नही, तो उनकी मंशा पर शक किया जायेगा।
निसंदेह बाबा रामदेव ने पिछले दो सालों में इन मुद्दों पर देशभर में जिज्ञासा जगाई है। यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी है। अब उनका उदेश्य व्यवस्था परिवर्तन के लिए जमीन तैयार करना होना चाहिए। जो भी राजनैतिक दल बाबा को समर्थन का आश्वासन दे रहे है उनसे दो बातें कही जायें। पहली अपने दल द्वारा शासित राज्य को भ्रष्टाचार को मुक्त करके दिखायें। दूसरा संसद के मानसून सत्र में इन मुददों पर लगातार खुली बहस चलायें। केवल रस्म आदायगी न करें। उधर बाबा को जनजागरण का अपना अभियान जारी रखना चाहिए। पर उसका तेवर लोगो को समाधान देना होना चाहिए। समाधान ऐसा हो कि लोग उससे इतने सहमत हों कि उसके समर्थन में पूरी ताकत से उठ खड़े हों । इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को बल मिलेगा। यह एक धीमी पर सतत प्रक्रिया होगी। जिसके परिणाम जल्दी तो नही आयेंगे पर दूरगामी होंगे।
पिछले कुछ महीनों से देशभर के अनेक सामाजिक कार्यकर्ता बाबा रामदेव से जुड़े हैं। ये वो लोग हैं जो पिछले तीन दशकों से देश के अलग अलग हिस्सो में, अगल अलग विचारधारा से सामाजिक सरोकार के मुददों पर संघर्षशील रहे है। इन लोगों ने गांवों से जिलों तक व्यवस्था के प्रभाव को देखा है और व्यवस्था से भिड़े है। इसलिए उनकी जमीनी समझ अच्छी है। पर राष्ट्रीय स्तर की समझ सैद्वान्तिक तो है पर व्यवहारिक अनुभव की कमी है। इसलिए यह लोग कभी एकजुट होकर देश में कोई बड़ा आन्दोलन नहीं खडा़ कर पाये। अब बाबा के संसाधनों की छत्र छाया में इन्हें मौका मिला है। पर अभी तक इनकी बाबा के साथ पूरी जुगलबन्दी नहीं हुई है। इनका मानना है कि बाबा आत्मकेन्द्रित हैं। जबकि बाबा चाहते हैं कि यह सब उनके नेतृत्व में एक जुट हो जायें। इसलिए अन्दरूनी रस्साकशी जारी है। देखना होगा कि आने वाले समय में अन्ना, सामाजिक संगठन, बाबा रामदेव के अनुयायी कहां तक एकमत हो पाते हंै। देखना यह भी होगा कि बाबा और उनका कोरगु्रप काले धन और भ्रष्टाचार के मामले पर अपनी रणनीति को व्यवहारिक और दलनिपेक्ष बना पाते हैं या नहीं ? इस पर ही इस आन्दोलन का भविष्य निर्भर करेगा।