पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।