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Sunday, March 25, 2012

ये कैसा रामराज्य ?

पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।

Sunday, March 27, 2011

संसद में असली बहस तो हुयी नहीं !

Rajasthan Patrika 27 Mar 11
विकिलीक्स के बाद देश की राजनीति में आये भूचाल का सीधा असर यह हुआ कि संसद में इस पूरे मुद्दे पर काफी तीखी और लम्बी बहस छिड़ गयी। जिसकी अन्तिम परिणति प्रधानमंत्री के बयान से हुयी। पर इस पूरी बहस में असली मुद्दा कहीं खो गया। जिस पर अब भी बहस होनी चाहिए। संसद न करे तो देश के मीडिया और जनता को करनी चाहिए। असली मुद्दा है, विकिलीक्स का वह अंश जिसमें उसने यह खुलासा किया है कि अमरीका के राज़दूत भारत सरकार के मंत्रियों से मिलकर सरकार की खैर-खबर लेते रहे और किस व्यक्ति को कौन सा पद दिया जाए, इसकी भी चर्चा करते रहे। मसलन यह बात साफ हुयी है कि अमरीका चाहता था कि मोंटेक सिंह आहलूवालिया को भारत का विŸामंत्री बनाया जाये।

यह बहुत चिंता की बात है। यह देश की अस्मिता और 110 करोड़ लोगों के जीवन से जुड़ा सवाल है। क्या हमारी सरकार का चाल-चलन, उसकी नीतियाँ और उसमें कौन, कहाँ बैठे, इसका फैसला व्हाइट हाउस में बैठने वाले करते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अपनी सरकारें जिनके द्वारा चुनी जाती हैं, उनके हित नहीं साधतीं, बल्कि अमरीकी हितों को ध्यान में रखकर बनायी और चलायी जाती हैं। जो ज़ाहिरन देशवासियों के हित से मेल नहीं खाते। वैसे यह कोई नई बात नहीं है। खेसरी दाल पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला हो या भारत की दवा नीति बनाने का, परमाणु नीति बनाने का मामला हो या रक्षा नीति, सबमें अमरीकी दखल या उससे पहले रूसी दखल रहा है। यह बात वे सब जानते हैं जो सŸाा में रहे हैं या सŸाा के नज़दीक रहे हैं। चाहें वे राजनेता हों, अफसर हों या मीडियाकर्मी भी हों। जिस देश में 80 फीसदी लोग प्रदूषित पेयजल के कारण बीमार पड़ते हों, उस देश में एड्स जैसी निरर्थक बीमारी पर सरकार का इतना ध्यान देना दर्शाता है कि जीवन के हर क्षेत्र में देशवासियों का हित ताक पर रखकर अमरीका या बहुराष्ट्रिय कम्पनियों के हित साधे जा रहे हैं।

Punjab Kesari 28.03.11
यह बात अगर विकिलीक्स के खुलासे तक ही सीमित रहती तो इसकी सच्चाई को लेकर संशय बना रहता। पर ऐसा नहीं हुआ। विपक्ष के हमले का जबाव देते हुए भारत सरकार के संसदीय कार्यमंत्री पवन बंसल ने, जो कि काँग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में बोले, साफ कहा कि विदेशी राजदूतों का काम अपनी तैनाती वाले देश में सूचना एकत्रित करना होता है। पर बंसल जी इस बात का स्पष्टीकरण नहीं दे पाये कि राजदूत के साथ मंत्रियो ंकी मुलाकात और उसमें सरकार की कार्यविधि और नीतियों की चर्चा करना कूटनीतिज्ञ गुप्तचरी के दायरे में कैसे आता है? यह तो सीधा-सीधा सरकारी कामकाज में बाहरी दखलअंदाजी का मामला बनता है। जिसके लिए ऐसे राजदूतों से मिलकर इस तरह की चर्चाऐं करने वाले सभी मंत्री दोषी हैं। सही मायने में तो ऐसा आचरण देशद्रोह की श्रेणी में आता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दौरान बंगाल में इस तरह का आचरण करने वाले मीरज़ाफर को इतिहास ने कभी माफ नहीं किया।

रोचक बात यह है कि पवन बंसल जहाँ सफाई देते-देते अपने ही जाल में फंस गये, वहीं किसी को अहसास भी नहीं हुआ कि विपक्ष भी अनजाने में ही ऐसी भूल कर बैठा। विपक्ष की तरफ से बोलते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता डाॅ. मुरली मनोहर जोशी ने यह स्वीकारा कि भारत की ‘सरकारों’ पर अमरीकी प्रभाव रहा है। यह महत्वपूर्ण बात है। विपक्ष के हमले का निशाना यू.पी.ए. की वर्तमान सरकार है। पर डाॅ. जोशी ने ‘सरकार’ न कहकर ‘सरकारों’ कहा। जिसका साफ मतलब है कि एन.डी.ए. की सरकार भी अमरीकी प्रभाव से अछूती नहीं रही। अगर यह बात है तो अब सŸाापक्ष को विपक्ष पर हावी हो जाना चाहिए और डाॅ. जोशी से पूछना चाहिए कि एन.डी.ए. की सरकार किस तरह से अमरीकी प्रभाव में थी? ऐसी कौन सी नियुक्तियाँ और फैसले थे जो वाजपेयी सरकार ने अमरीकी दबाव में लिये? क्योंकि तभी यह साफ होगा कि अमरीका का भारत पर कितना और कैसा दबदबा बन चुका है।

Jag Baani 28.03.11
डाॅ. जोशी को ईमानदारी और साफगोई से इन तथ्यों को देश की संसद, लोगों और मीडिया के सामने रखना चाहिए। जहाँ इस सारी बहस से यह सिद्ध हो जाऐगा कि संसद में वोट खरीदने का मामला कहीं कम गंभीर मुद्दा है, बमुकाबले इस बात के कि हमारी सरकारें ही अमरीका के हाथ बिकी हुयी हैं। मतलब ये कि पिछले हफ्ते संसद में जो हंगामा मचा और जनता के पैसे की बर्बादी हुयी उसका कोई लाभ देश को नहीं मिला। सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सरकार बनाने और बिगाड़ने में देश का कोई प्रमुख दल कभी पीछे नहीं रहा। यह बात हर राजनैतिक व्यक्ति जानता है। रिश्वत के प्रमाण अक्सर मिला नहीं करते क्योंकि रिश्वत या सांसदों और विधायकों की खरीद रजिस्ट्रार कार्यालय में जाकर स्टाम्प पेपर के ऊपर रजिस्ट्री करवाकर नहीं होती। यह सौदे तो पर्यटक सैरगाहों, उद्योगपतियों के ड्राईंगरूमों, सŸाा के दलालों के फार्म हाउसों और पाँच सितारा होटलों के कमरों में छिपकर किये जाते हैं। इसलिए जो असली मुद्दा बहस का होना चाहिए था, वो यह कि आखिर हमारी ‘सरकारें’ अमरीका के आगे किस सीमा तक घुटने टेक चुकी हैं? देखना होगा कि आने वाले दिनों में देश में कितने महत्वपूर्ण लोग इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत दिखाते हैं?