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Monday, September 26, 2016

केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि चुनाव जैसे होंगे विस चुनाव

विधानसभा चुनावों के लिए राज्यों में चुनावी मंच सजना शुरू हो गए हैं। खासतौर पर उप्र और पंजाब में तो चुनावी हलचल जोरों पर है। उप्र में सभी राजनीतिक दलों ने अपने कार्यकर्ताओं की कमर भी कस दी है। लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए ये चुनाव सिर्फ विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं दिख रहे हैं। मोदी सरकार के सामने बिल्कुल वैसी चुनौती है जैसे उसके लिए ये मघ्यावधि चुनाव हों। वाकई उसके कार्यकाल का आधा समय गुजरा है। इसी बीच उसके कामकाज की समीक्षाएं हो रही होंगी। हालांकि उप्र में चुनावी तैयारियों के तौर पर अभी थोड़ी सी बढ़त कांग्रेस की दिख रही है। गौर करने लायक बात है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उप्र में महीने भर की किसान यात्रा की अनदेखी मीडिया भी नहीं कर पाया।

हर चुनाव में सत्तारूढ़ दल के सामने एक अतिरिक्त चुनौती अपने काम काज या अपनी उपलब्धियां बताने की होती है। इस लिहाज से भाजपा और उप्र की अखिलेश सरकार के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। यानी उप्र में सपा और भाजपा को अपने सभी प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के उठाए सवालों का सामना करना पड़ेगा।  उप्र में भाजपा भले ही तीसरे नंबर का दल है लेकिन केंद्र में सत्तारूढ़ होने के कारण उससे केंद्र में सत्तारूढ़ होने के नाते सवाल पूछे जाएंगे। इसी आधार पर कहा जा रहा है कि उसके लिए यह चुनाव मध्यावधि जैसा होगा। रही बात समालवादी पार्टी की तो उसने तो अपनी उपलब्धियों की लंबी चौड़ी सूची तैयार करके पोस्टर और होर्डिग का अंबार लगा दिया है। ये बात अलग है सपा के भीतर ही प्रभुत्व की जोरआजमाइश ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन जिस तरह से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जोश और विश्वास के साथ परिस्थियों का सामना किया उससे सपा की छवि को उतनी चोट पहुंच नहीं पाई। इधर उप्र विकास के कामों को फटाफट निपटाने जो ताबड़तोड़ मुहिम चल रही है उसे उप्र विधान सभा चुनाव की तैयारियां ही माना जाना चाहिए।

कांग्रेस ने जिस तरह से उप्र के चालीस जिलों से होकर कि सान यात्रा निकाली है उससे अचानक हलचल मच गई है। दो महीने पहले तक कांग्रेस मुक्त भारत का जो अभियान भाजपा चला रही थी वह भी ठंडा पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में जान फूंक दी। अब तो कांग्रेस के बड़े नेता भी प्रशांत किशोर के सलाह मशविरे को तवज्जो देते दिख रहे हैं। वैसे तो विधान सभा चुनाव अभी छह महीने दूर हैं  लेकिन  कांग्रेस की मेहनत देखकर लगने लगा है कि उसे हल्के में नहीं लिया जा पाएगा। उसने दूसरे बड़े दलों से गठजोड़ लायक हैसियत तो अभी ही बना ही ली है।  

रही बात इस समय दूसरे पायदान पर खड़ी बसपा की तो बसपा के बारे में सभी लोग मानते हैं कि उसके अपने जनाधार को हिलाना डुलाना आसान नहीं है। उसके इस पक्के घर में कितनी भी तोड़फोड़ हुई हो लेकिन जल्दी ही वह बेफर्क मुद्रा में आ गई। पिछले दिनों उसकी बड़ी बड़ी रैलियों से इस बात का आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। हां कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो फर्क पड़ता ही है। वास्तविक स्थिति के पता करने का उपाय तो हमारे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में पहुंची चोट का असर उस पर जरूर होगा। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर आगे चलकर बसपा गठबंधन के जरिए अपना रास्ता आसान बना ले।

कुलमिलाकर उप्र में मचने वाला चुनावी घमासान चौतरफा होगा। इस चौतरफा लड़ाई में अभी सभी प्रमुख दल अपने बूते पर खड़े रहने का दम भर रहे हैं। कोई संकेत या सुराग नहीं मिलता कि कौन सा दल किस एक के  खिलाफ मोर्चा लेगा। लेकिन केंद्र की राजनीति के दो प्रमुख दल कांग्र्रेस और भाजपा का आमने सामने होना तय है। इसी तरह प्रदेश के दो प्रमुख दल सपा और बसपा के बीच गुत्थमगुत्था होना तय है। लेकिन उप्र के एक ही रणक्षेत्र में एक ही समय में दो तरह के युद्ध तो चल नहीं सकते। सो जाहिर है कि चाहे गठबंधन की राजनीति सिरे चढ़े और चाहे सीटों के बंटवारे के नाम पर हो अंतरदलीय ध्रुवीकरण तो होगा ही। बहुत संभव है कि इसीलिए अभी कोई नहीं भाप पा रहा है कौन किसके कितने नजदीक जाएगा। 

अपने बूते पर ही खड़े रहने की ताल कोई कितना भी ठोक ले लेकिन चुनावी लोकतंत्र में दो ध्रवीय होने की मजबूरी बन ही जाती है। इस मजबूरी को मानकर चलें तो कमसे इतना तय है कि उप्र का चुनाव या तो सपा और बसपा के बीच शुद्ध रूप् से प्रदेश की सत्ता के लक्ष्य को सामने रख कर होगा या कांग्रेस और भाजपा के बीच 2019 को सामने रखकर होगा। पहली सूरत में राष्टीय स्तर के दो बड़े दलों यानी भाजपा और कांग्रेस को तय करना पड़ेगा कि सपा या बसपा में से किसे मदद पहुंचाएं। दूसरी सूरत है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच साधे ही तूफानी भिड़त होने लगे। देश में जैसा माहौल है उसे देखते हुए इसका योग बन सकता है लेकिन उप्र कोई औसत दर्जे का प्रदेश नहीं है। दुनिया के औसत देश के आकार का प्रदेश है। लिहाजा इस चुनाव का लक्ष्य प्रदेश की सत्ता ही होगा। जाहिर है घूमफिर कर लड़ाई का योग सपा और बसपा के बीच ही ज्यादा बनता दिख रहा है। बाकी पीछे से केंद्र के मध्यावधि चुनाव जैसा माहौल दिखता रहेगा।

Monday, April 21, 2014

इस चुनाव में नया श्रृंगार


लोकसभा के लिए चुनाव का आधा काम निपट गया | अबतक जो कुछ हुआ है वह कई लोगों को चौका रहा है | दसियों साल बाद यह पहली बार दिखा है कि चुनावी हिंसा खत्म होती नज़र आ रही है| और जो लोग इस बार विवादित बयानों या एक दूसरे पर आरोप लगाने में कुछ ज्यादा ही आक्रामक भाषा के इस्तेमाल की बात कर रहे हैं उन्हें बताया जा सकता है कि लोकतंत्र में इतना तो सहन करना ही होगा | कहने का मतलब यह कि पिछले कई चुनाव जिस तरह खून-खराबे और दहशत भरे होते थे वैसा माहोल इस बार नहीं है |

कारण जो भी रहे हों हिंसा के बाद दूसरा भयानक रोग साम्प्रदायिकता के लक्षण भी ज्याद नहीं दिख रहे | यह बात ऊपर से दिखने वाले लक्षणों के आधार पर कही जा रही है | वरना समाज-मनोविज्ञान के अध्यनों को देखें तो यह आश्चर्य ही लगता है कि सिर्फ २५-५० साल में साम्प्रदायिकता जैसे रोग के लक्षण कम कैसे हो गए |

चुनाव के दौरान कुछ बुरा न होना क्या खुश होने के लिए काफी है | क्योंकि बाहुबल और साम्प्रदायिकता जैसे रोग तो बिना किसी प्रयास के खुद-ब-खुद भी निपट जाते हैं | लेकिन धनबल से छुटकारा आसान नहीं होता | धन से सत्ता और सत्ता से धन का दुश्चक्र टूटना बहुत मुश्किल होता है | चुनाव सुधारों के तेहत, चुनाव के खर्च की सीमा के जितने भी उपाय कर लिए गए हों पर यह काम उतना हो नहीं पाया | लेकिन इस मामले में बड़ा रोचक तथ्य यह है कि जो आर्थिक विपन्न लोग चुनावी उद्यम में शामिल हो रहे हैं उनके पास भी निवेशकों की कमी नहीं है | संसदीय लोकतंत्र में चुनाव कि महत्ता इतनी ज्यादा हो गयी है जिसमे होने वाले घाटे भी मुनाफे में तब्दील हो जाते हैं | सामान्य अनुभव है कि संसदीय लोकतंत्र के चुनावों में जनता द्वारा अस्वीकृत उमीदवारों का भी महत्व बडता जा रहा है | स्तिथि यहाँ तक है कि जनता द्वारा स्वीकृत उम्मीदवार चुनाव जीतने के बाद विपक्ष की राजनीति करने में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं | यह संसदीय लोकतंत्र में जुड़ रहा एक नया आयाम है जो राजनितिक प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को समझना पड़ेगा | बस यहां पर अच्छाई इस तरह देखी जा सकती है कि ‘चलिए, लोकतंत्र में सह-भागिता बढ़ तो रही है |’

इन सारी प्रव्रित्यों के बीच वह लक्ष्य अभी भी गर्दिश में है कि लोकतंत्र का अपना मकसद क्या है | ज्यादा से ज्यादा लोगों को सुख-समृधि का सामान वितरण करने वाली इस विलक्षण राजनितिक प्रणाली की विशेषताओं पर पता नहीं क्यों ज्यादा चर्चा नहीं होती | राजनीतिकी पार्टियों के घोषणापत्रों में दूध-घी की नदियाँ बहाने का वायदा तो है पर वह तरकीब नहीं बताई जाती कि सबको समुचित समानता के आधार पर वितरण कैसे सुनिश्चित होगा | अब अगर लोकतंत्र के लक्ष्य के प्रबंधन का काम सामने आया है तो राजनेताओं के जिम्मे एक नया काम आ गया है | उन्हें इस कौशल का विकास भी करना होगा कि सुख समृधि के समान वितरण कि प्रणाली कैसे बने ? यहाँ कुछ नए लोग भ्रष्टाचार की समस्या कि पुरानी बात कह सकते हैं | लेकिन उनसे पूछा जा सकता है कि क्या भ्रष्टाचार को हम निदान के रूप में ले सकते हैं ? भ्रष्टाचार को तो विद्वान लोग खुद एक बड़ी और जटिल समस्या बताते हैं | और ऐसी समस्या बताते हैं जिसके निवारण के लिए अबतक कोई निरापद निदान नहीं ढूंढा जा पाया | लिहाजा लाख दुखों की एक दवा के तौर पर भ्रष्टाचार की बात करना लगभग वैसी बात है जैसे सौ रूपए की समस्या से निपटने के लिए करोड़ों के खर्च की बात करना या कोई ऐसा उपाय बताना जो तत्काल हो ही न पाए | इस तरह हम निष्कर्ष निकल सकते हैं कि संसदीय लोकतंत्र में अब भ्रष्टाचार तब तक कोई मुद्दा नहीं बन सकता जबतक कोई यह न बताये कि यह काम होगा कैसे ? नीयत की बात करने वालों से पूछा जा सकता है कि किसी की नीयत जांचने का उपाय क्या है ? किसी व्यक्ति की नीयत का पता तो तभी चलता है जब वह काम करता है | भारतीय लोकतंत्र का अनुभव है कि भ्रष्टाचार मिटाने के लिए विगत में जितने भी दावे हुए वे किसी एक या दूसरे बहाने से नाकाम ही रहे | ज़ाहिर है कि ऐसे जटिल मुद्दे राजनितिक या चुनावी उत्क्रम का विषय नहीं हो सकते | बल्कि भ्रष्टाचार एक सामाजिक – आर्थिक – वैधानिक विषय है | और इसे निरंतरता के साथ और समग्रता के आधार पर बड़ी गंभीरता से समझना होगा | वरना चुनाव के दौरान ऐसे मुद्दों का इस्तेमाल तात्कालिक लाभ के लिए होता रहेगा और बाद में बहानेबाजी करके  एक दूसरे पर आरोप लगाए जाते रहेंगे और अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ा जाता रहेगा |


कुलमिलाकर चुनाव के इन दिनों में अबतक आशावादिता का कोई नया माहौल नज़र नहीं आता | अगर कुछ नया है तो प्रचार का रूप रंग नया है, श्रृंगार नया है |

Monday, July 9, 2012

मायावती का फैसला

मायावती के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अदालत में सीबीआई को अपनी सीमा उल्लघन करने के लिए फटकारा है। पर सर्वोच्च अदालत जनहित के मामलों में अक्सर ’सूमोटो’ यानी अपनी पहल पर भी कोई मामला ले लेती है। इस मामले में अगर सीबीआई ने बसपा नेता के पास आय से ज्यादा सम्पत्ति के प्रमाण एकत्र कर लिये हैं तो सर्वोच्च न्यायालय उस पर मुकदमा कायम कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। विरोधी दलों को यह कहने का मौका मिल गया कि सरकार ने हमेशा की तरह मायावती से डील करके उन्हें सीबीआई की मार्फत बचा दिया। सारे टीवी चैनल इसी लाइन पर शोर मचा रहे हैं। पर अदालत के रवैये पर अभी तक किसी ने टिप्पणी नहीं की।

जहां तक बात सीबीआई के दुरूपयोग की है तो यह कोई नई बात नहीं है। हर दल जब सत्ता में होता है तो यही करता है। किसी ने भी आज तक सीबीआई को स्वायत्ता देने की बात नहीं की। पर आज मैं भ्रष्टाचार के सवाल पर एक दूसरा नजरिया पेश करना चाहता हूं। यह सही है कि भ्रष्टाचार ने हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था को जकड़ लिया है और विकास की जगह पैसा चन्द लोगों की जेबों मे जा रहा है। पर क्या यह सही नही है कि जिस राजनेता के भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और सिविल सोसाइटी बढ़-चढ़ कर शोर मचाते हैं उसे आम जनता भारी बहुमत से सत्ता सौंप देती है। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्ट बताकर सत्ता से बाहर कर दिया गया था। अब दुबारा उसी जनता ने उनके सिर पर ताज रख दिया। क्या उनके ’पाप’ धुल गये मायावती पर ताज कोरिडोर का मामला जब कायम हुआ था उसके बाद जनता ने उन्हें उ.प्र. की गददी सौंप दी। वे कहती हैं कि उन्हें यह दौलत उनके कार्यकर्ताओं ने दी। जबकि सीबीआई के स्त्रोत बताते हैं कि उनको लाखों-करोड़ों रूपये की बड़ी-बड़ी रकम उपहार मे देने वाले खुद कंगाल हैं। इसलिए दाल में कुछ काला है।

पर यहां ऐसे नेताओं के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सवाल उठाया जाता है कि जब दलितों और पिछड़ों के नेताओं का भ्रष्टाचार सामने आता है तब तो देश में खूब हाहाकार मचता है। पर जब सवर्णों के नेता पिछले दशकों में अपने खजाने भरते रहे, तब कोई कुछ नहीं बोला। यह बड़ी रोचक बात है। सिविल सोसाइटी वाले दावा करते हैं कि एक लोकपाल देश का भ्रष्टाचार मिटा देगा। पर वे भूल जाते हैं कि इस देश में नेताओं और अफसरों के अलावा उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, खान मालिकों आदि की एक बहुत बड़ी जमात है जो भ्रष्टाचार का भरपूर फायदा उठाती है और इसका सरंक्षण करती है। यह जमात और सुविधा भोगी होते जा रहे है भारतीय अब पैसे की दौड़ में मूल्यों की बात नहीं करते। गांव का आम आदमी भी अब चारागाह, जंगल, पोखर, पहाड़ व ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा करने में संकोच नहीं करता। ऐसे में कोई एक संस्था या एक व्यक्ति कैसे भ्रष्टाचार को खत्म कर सकता है। 120 करोड़ के मुल्क में 5000 लोगों की सीबीआई किस-किस के पीछे भागेगी।
अपने अध्ययन के आधार पर कुछ सामाजिक विश्लेषक यह कहने लगे हैं कि देश की जनता विकास और तरक्की चाहती है उसे भ्रष्टाचार से कोई तकलीफ नहीं। उनका तर्क है कि अगर जनता भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त होती जितनी सिविल सोसाइटी बताने की कोशिश करती है तो भ्रष्टाचार को दूर भगाने के लिए जनता एकजुट होकर कमर कस लेती। रेल के डिब्बे में आरक्षण न मिलने पर लाइन में खड़ी रहकर घर लौट जाती, पर टिकिट परीक्षक को हरा नोट दिखाकर, बिना बारी के, बर्थ लेने की जुगाड़ नहीं लगाती। हर जगह यही हाल है। लोग भ्रष्टाचार की आलोचना में तो खूब आगे रहते है पर सदाचार को स्थापित करने के लिए अपनी सुविधाओं का त्याग करने के लिए सामने नहीं आते। इसलिए सब चलता है की मानसिकता से भ्रष्टाचार पनपता रहता है।
देखने वाली बात यह भी है कि सिविल सोसाइटी के जो लोग भ्रष्टाचार को लेकर आय दिन टीवी चैनलों पर हंगामा करते है वे खुद के और अपने संगी साथियों के अनैतिक कृत्यों को यह कहकर ढकने की कोशिश करते हैं कि अगर हमने ज्यादा किराया वसूल लिया तो कोई बात नही हम अब लौटाये देते हैं। अगर हम पर सरकार का वैध 7-8 लाख रूपया बकाया है तो हम बड़ी मुश्किल से मजबूरन उसे लौटाते हैं यह कहकर कि सरकार हमें तंग कर रही है, पर अब हमारी आर्थिक मदद करने वाले दोस्तों को तंग न करें। फिर तो पकड़े जाने पर भ्रष्ट नेता भी कह सकते है कि हम जनता का पैसा लौटाने को तैयार हैं। ऐसा कहकर क्या कोई चोरी करने वाला कानून की प्रक्रिया से बच सकता है। नहीं बच सकता। अपराध अगर पकड़ा जाये तो कानून की नजर में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी लड़ाई का मकसद कितना पाक है।
ऐसे विरोधाभासों के बीच हमारा समाज चल रहा है। जो मानते हैं कि वे धरने और आन्दोलनों से देश की फिजा बदल देंगे। उनके भी किरदार सामने आ जायेंगे। जब वे अपनी बात मनवाकर भी भ्रष्टाचार को कम नहीं कर पायेंगे, रोकना तो दूर की बात है। फिर क्यों न भ्रष्टाचार के सवाल पर आरोप प्रत्यारोप की फुटबाल को छोड़कर प्रभावी समाधान की दिशा में सोचा जाये। जिससे धनवान धन का भोग तो करे पर सामाजिक सरोकार के साथ और जनता को अपने जीवन से भ्रष्टाचार दूर करने के लिए प्रेरित किया जाये। ताकि हुक्मुरान भी सुधरें और जनता का भी सुधार हो। फिलहाल तो इतना बहुत है।

Monday, April 2, 2012

उत्तर प्रदेश में नई बयार

पाँच साल से एक किस्म के अघोषित आतंक में जी रही उत्तर प्रदेश की नौकरशाही बदले परिवेश में ज्यादा काम करने को उत्साहित है। विवादों में फंसने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त के साथ उत्तर प्रदेश के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राग-द्वेष से मुक्त होकर, अधिकारियों की क्षमता और गुणों के अनुसार, जिम्मेदारियाँ सौंप रहे हैं। बहिन जी के शासनकाल में जिन अधिकारियों ने भी अच्छा काम किया था, उन्हें अपने पदों पर रहने दिया गया है या ज्यादा जिम्मेदारी देकर उनका कद बढ़ाया है। मतलब यह कि अगर आप काम से कार्य रखते हैं तो आप मौजूदा मुख्यमंत्री के पसन्दीदा व्यक्ति हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप उनकी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के चहेते थे या नहीं। हाल ही में प्रदेश के पुलिस अधिकारियों की सूची जारी हुई। उत्तर प्रदेश में प्रायः जिलों के स्तर पर कुछ ऐसे पुलिस अधिकारियों को तैनात किया जाता रहा है, जो मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र हों और उनके राजनैतिक एजेण्डा को आगे बढ़ाऐं। जबकि इस बार अखिलेश यादव का प्रयास शायद उस माहौल को बनाने का है, जिसमें आम जनता का विश्वास पुलिस पर व अपने थानों पर फिर से कायम हो।
लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास कालीदास मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग पर गत् 5 वर्षों से सामान्यजन और यातायात की आवाजाही प्रतिबन्धित थी। अखिलेश ने उसे सर्वसाधारण के लिए खोल दिया है। 4-5 चहेते अधिकारियों के अलावा बहिन जी किसी को भी अपने आवास में आने नहीं देती थीं। मीडिया और जनता की तो और भी हालत खराब थी। पर अब मुख्यमंत्री के घर मिलने वाले आम लोगों की लम्बी कतारें लगी हैं। जिससे प्रदेश की जनता में एक नई आशा जगी है। उल्लेखनीय है कि बसपा की हार के लिए एक कारण बहिन जी का एकांतवास भी बताया जा रहा है। वे किसी से मिलना पसन्द नहीं करती थीं।
अखिलेश यादव के सहज व मिलनसार स्वभाव को राजनैतिक विश्लेषक उनके व्यक्तित्व की कमजोरी या अनुभवहीनता बता रहे हैं। जबकि अखिलेश का यही गुण उनकी विजय का कारण बना। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर भी अखिलेश हर आने वाले से गर्मजोशी से मिल रहे हैं। जिसका बहुत अच्छा सन्देश प्रदेश में जा रहा है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव के कुछ राजनैतिक निर्णयों की एक वर्ग द्वारा आलोचना भी की गई है। पर साथ ही ऐसा मानने वालांे की कमी नहीं कि बहुमत में होने के बावजूद अखिलेश सारे निर्णय स्वंय लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। राजनैतिक दबाव के कारण उन्हें कई निर्णय अपने मन के विरूद्ध भी लेने पड़े हैं।
देश-विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अखिलेश यादव की समझ काफी विकसित हुई है। वे हर प्रस्ताव और मुद्दे को वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। 
बेरोजगारी भत्ता देने की अखिलेश की योजना को उनके आलोचक एक जल्दी में लिया गया अव्यवहारिक कदम बता रहे हैं। जबकि देश में फैली भारी बेरोजगारी का हल ढूंढे बिना युवाओं को अपने हाल पर छोड़ देने से अराजकता बढ़ रही है। बेरोजगारी भत्ता उन्हें उम्र के इस नाजुक मोड़ पर टॉनिक का काम करेगा। देश की अर्थव्यवस्था को देखते हुए, इन विपरीत परिस्थितियों में, अखिलेश यादव का यह कदम साहसी माना जाऐगा। केवल यह ध्यान रखना होगा कि इस योजना का दुरूपयोग करने की मंशा रखने वाले सफल न हों।
प्रदेश की कमजोर माली हालत को उबारने के लिए भी कुछ साहसिक कदम उठाने पड़ेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि विकास प्राधिकरणों से लेकर ऐसे 26 विभाग हैं, जो प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भार बने हुए हैं। इन विभागों से जनता को लाभ कम और तकलीफ ज्यादा है। विकास के नाम पर इन्होंने नगरों का विनाश करने का काम किया है। अगर इन विभागों को बन्द कर दिया जाए तो उत्तर प्रदेश सरकार को कई हजार करोड़ का सालाना फायदा होगा। वैसे भी ये विभाग लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जहाँ एक तरफ युवा मुख्यमंत्री के मन में कुछ कर गुजरने का अदम्य उत्साह है, वहीं प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, और प्रशासनिक व्यवस्था उन्हें नाकाम करने में तब तक जुटी रहेगी, जब तक मुख्यमंत्री इन लोगों को इनकी सही जगह नहीं दिखा देते। उत्तर प्रदेश ने लम्बे समय से कोई विकास नहीं देखा। प्रदेश की जनता अब प्रदेश का विकास तेजी से होते हुए देखना चाहती है। अखिलेश यादव को नीतिश कुमार, शीला दीक्षित व नरेन्द्र मोदी के कुछ सफल प्रयोगों को अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। क्योंकि इनकी कार्यशैली ने इन्हें दो-तीन बार लगातार मुख्यमंत्री बनाया है। इसके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि विचारों और सलाह लेने का काम नौकरशाही के साथ ही विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों से लिया जाए। 

Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।