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Monday, September 2, 2024

जंक फ़ूड खाने के ख़तरे


देश में उपलब्ध खाद्य पदार्थों में मिलावट और उनकी लगातार गिरती गुणवत्ता के कारण जागरूक और जानकार लोगों द्वारा अपने और बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। कई सामाजिक संगठन आधुनिक खाद्य पदार्थों के देश में बढ़ते दुष्प्रभाव को लेकर जागृति पैदा करने में जुटे हैं। बर्गर हो या पिजा का बेस, सैंडविच हो या पावभाजी सबमें मैदा की डबल रोटी के ही विभिन्न रूपों का इस्तेमाल होता है। सारे फसाद की जड़ यह डबल रोटी ही है। कुछ वर्ष पूर्व दक्षिणी आस्ट्रेलिया की सरकार ने बर्गर व पिजा जैसे आधुनिक खान-पान के विज्ञापनों के टेलीविजन पर प्रसारण पर रोक लगा दी थी। ग़ौरतलब है कि शीतल पेय और वो सारे आधुनिक व्यंजन जिनमें वसा, चीनी और नमक की मात्रा ज्यादा होती है बच्चों के लिए हानिकारक है। उनकी सरकार यह सुनिश्चित किया कि वहां के स्कूलों की कैंटीनों में बच्चों को केवल स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ ही मिलें।



भारत का शायद ही कोई शहर होगा जहां आम आदमी की सुबह डबलरोटी के साथ शुरू न होती हो। भारत में जैसे चाय की लत डालकर करोड़ों रूपए के मुनाफे कमाए जा रहे हैं लोगों की सेहत से खिलवाड़ किया जा रहा है वैसे ही डबलरोटी को सुविधाजनक बता कर आज हर घर में जबरन घुसा दिया गया है। जाने-अनजाने सब उसकी आदत के गुलाम बन गए हैं। खासकर शहरवासियों को बनी बनई रोटी यानी डबलरोटी से काफी लगाव है। डबलरोटी बनाने के लिए बारीक आटा या मैदे का इस्तेमाल किया जाता है। इसे बनाने की प्रक्रिया के दौरान आटे अथवा मैदे में उपस्थित सभी विटामिन और खनिज पदार्थ नष्ट हो जाते है। डबलरोटी स्वाद में तो अच्छी लगती है लेकिन रेशे रहित होने के कारण दांतों के लिए अत्यंत नुकसान देह है। यही नहीं यह हमारी पाचन प्रणाली के लिए भी हानिकारक है।



गेहूं के साबुत दाने में कार्बोहाईड्रेट्स के अलावा विटामिन और खनिज पदार्थ भी होते हैं। गेहूं विटामिन मध्यभाग के बाहरी हिस्से में पाया जाता है। मैदा बनाने की प्रक्रिया में कुछ कार्बोहाईड्रेट्स तो बच जाते हैं लेकिन विटामिन पूर्ण रूप से खत्म हो जाते है। इसी प्रकार गेहूं के दाने के बाहरी हिस्से में जिंक और अंदरूनी हिस्से में कौडमियम नामक तत्व पाए जाते हैं। मैदा बनाने के कारण जिंक नष्ट हो जाता है और कौडियम रह जाता है। इस तरह जितने भी जरूरी और लाभदायक तत्व हैं वह नष्ट हो जाते है और दूषित तत्व रह जाते हैं आपकी चहेती ब्रेड के लिए।



क्या कभी सोचा कि डबलरोटी ज्यादा समय तक क्यों रह पाती है? क्योंकि इसमें लगे आटे में पौष्टिक तेल तक नष्ट हो जाता है। यही नहीं इसमें किसी प्रकार के रेशे भी नहीं बचते। जिसका शरीर को नुकसान उठाना पड़ता है। बिना रेशे के खाद्य पदार्थ दांतों में चिपक जाते है। जिससे दांत सड़ सकते हैं। रेशे रहित भोजन कब्ज का भी कारण बनता है। आप अपने इलाके में एक सर्वेक्षण कर लें, तो पाएंगे कि ज्यादातर उन लोगों को ही कब्ज होता है, जो डबलरोटी खाते हैं। उन्हें नहीं जो ताजी रोटी खाते हैं। लेकिन चीनी, टेलीविजन और केबिल टीवी की तरह डबलरोटी भी आधुनिक सभ्यता की पहचान बन गई है। मार्डन मम्मियां समझती हैं कि बच्चों को ब्रेकफास्ट में टोस्ट, लंच में सैंडविच और डिनर में बर्गर देकर उन्होंने बच्चों का दिल जीत लिया है। वह नहीं जानतीं कि यह डबलरोटी उनके बच्चों की सेहत की कितनी बड़ी दुश्मन है?



कभी गेहूं का आटा गूंथिए और उसमें से अपनी उंगलियों को निकाल कर साफ कीजिए। वहीं दूसरी तरफ़ मैदा आपकी उंगलियों पर इस तरह चिपक जाती है कि पानी से कई बार रगड़ने पर ही छूटती है। इसी तरह डबलरोटी की मैदा आपके और आपके बच्चों की आतों की अंदरूनी कोमल झिल्ली पर चिपक जाती है। उसकी स्वाभाविक क्रियाओं को रोक देती है। आसानी से बाहर नहीं निकलती। नया भोजन खा लेने से आतों में पहले से पड़ी मैदा और चिपक जाती है। आगे चलकर बड़ी-बड़ी बीमारियों का कारण बनती है।


जिस तकनीक से डबलरोटी का निर्माण किया जाता है वह उसकी पौष्टिकता को पूर्ण रूप से नष्ट कर देती है। जबसे यह तथ्य साबित हुआ तभी से ही पश्चिमी देशों ने डबलरोटी बनाने के आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिलाने शुरू कर दिए है। उन देशों में जो डबलरोटी मिलती है उसमें काफी विटामिन ऊपर से मिलाए गए होते हैं। आज के पढ़े-लिखे लोगों की मूर्खता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि पहले तो गेहूं के आटे में से सभी महत्वपूर्ण पोष्टिक तत्व नष्ट कर देते है। फिर बाद मे उसी आटे में कृत्रिम विटामिन तथा खनिज पदार्थ मिला कर उसे डबलरोटी की सूरत में इस्तेमाल करते हैं। वह भी ताजी नहीं बासी।


भारतीयों को इस बात से सबक सीखना चाहिए। अकलमंदी गलती करते जाने में नहीं, समय रहते उसे सुधारने में है। युनाइटेड नेशन्स विश्वविद्यालय ने अपनी एक खोज से यह नतीजा निकाला है कि यदि सही मायनों में गेहूं व आटे का फायदा उठाना है तो पूरी दुनिया को भारतीयों से रोटी बनाने का तरीका सीखना होगा। हम भारतीय है जो अपनी ताकतवर रोटी भूलकर सुबह, दोपहर व शाम डबलरोटी के पीछे दीवाने है। योगासन सदियों भारत में धक्के खाता रहा और जब अमरीका और दूसरे विकसित देशों ने योग सीखकर अपनी सेहत और पैसे बनाना शुरू किया तो भारत में भी योग सीखने व सिखाने वालों की लाइन लग गई। क्या रोटी के मामले में भी हम यही करने वाले हैं?


पश्चिम के एक वैज्ञानिक रूडोल्फबैलन टाइम लिखते हैंः गेहूं के आटे में उपस्थित तरल तत्व के कारण आटा ज्यादा समय तक टिक नहीं पाता। इसलिए रोटी खाने वालों को बार-बार आटे की चक्की की तरफ जाना पड़ता है। क्योंकि गेहूं को तो सालों तक रखा जा सकता है। इसलिए चक्की वाले भी एक समय में ज्यादा गेहूं न पीस कर थेड़े-थोड़े करके पीसते हैं। इससे आटे की ताजगी और पौष्टिकता दोनों बनी रहती है। मामला बिल्कुल साफ है। गेहूं रखना, आटा पिसवाना और ताजा रोटी बनाकर खाना, इससे ज्यादा फायदे की बात कोई हो नहीं सकती। पर हम सीधे और सरल रास्तों को न अपना कर आधुनिकता के पीछे भागते हैं और आधुनिकता को ही अपनाना चाहते हैं। फिर चाहे यह हमारे लिए नुकसानदायक ही क्यों न हो। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो पिछड़े हुए माने जाएंगे। बात केवल आधुनिक बनने की नहीं है, बात उन बेरोजगार दंत चिकित्सकों को रोजगार दिलवाने की भी है जो हजारों की तादाद में हर साल दंत चिकित्सा में डाक्टरी पास करके आते हैं। अगर हम डबलरोटी नहीं खाएंगे तो दांत सड़ेंगे ही नहीं और अगर दांत नहीं सड़ेंगे तो भला दंत चिकित्सक भूखे नहीं मर जाएंगे? इस तरह अपनी आंतों और अपने दांतों का नुकसान करके हम बनाने वालों को, डाक्टरों को, अस्पतालों को और दवा कंपनियों को अपनी मेहनत का पैसा बांटना चाहते हैं तो हमें कौन रोक सकता है? 

Monday, July 25, 2022

अम्मा ने बनाया भारत का सबसे बड़ा अस्पताल


 

आम तौर पर ज़्यादातर मशहूर धर्माचार्य कोरपोरेट ज़िंदगी जीते हैं। महलनुमा आश्रमों में रहते हैं। महंगी गाड़ियों में घूमते हैं। हीरे जवाहरात से लदे रहते हैं। सैंकड़ों करोड़ रुपए के निवेश करते हैं। अमीरों के पीछे भागते हैं और ग़रीबों को हिक़ारत की नज़र से देखते हैं। पर दक्षिण भारत के केरल राज्य में मछुआरों की बस्ती में एक दरिद्र परिवार में जन्मीं माता अमृतानंदमयी मां ‘अम्मा’ एक अपवाद हैं। जिनका पूरा जीवन ग़रीबों और ज़रूरतमंदों की सेवा के लिए ही समर्पित है। पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों के जीवन में सुख देने वाली ‘अम्मा’ जनसेवा के क्षेत्र में एक और ऐतिहासिक कदम रखने जा रही हैं। आगामी 24 अगस्त को फ़रीदाबाद में अम्मा के नए अस्पताल का उद्घाटन प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे। 


133 एकड़ भूमि में फैला ये अस्पताल भारत का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का अस्पताल है। कोच्चि,(केरल) में प्रतिष्ठित 1,200 बिस्तरों वाले अमृता अस्पताल के बाद यह देश में अम्मा का दूसरा बड़ा अस्पताल होगा। केरल के इस अस्पताल को 25 साल पहले माता अमृतानंदमयी मठ द्वारा स्थापित किया गया था। फरीदाबाद के सेक्टर-88 में फैला यह अस्पताल 1 करोड़ वर्ग फुट का होगा। जिसमें एक 14 मंजिल ऊंची टॉवर है, जहां प्रमुख चिकित्सा सुविधाओं की मदद से विभिन्न बीमारियों के रोगियों का इलाज होगा।



अम्मा के इस अस्पताल की 81 विशिष्टताओं में न्यूरोसाइंसेस, गैस्ट्रो-साइंसेस, ऑन्कोलॉजी, रीनल साइंस, हड्डी रोग, कार्डियक साइंस और स्ट्रोक और मां व बच्चे जैसे उत्कृष्टता के आठ केंद्र शामिल होंगे। 2400 बिस्तरों के लक्ष्य वाले इस अस्पताल में इस साल 500 बिस्तरों के साथ मरीज़ों का इलाज चरणबद्ध तरीक़े से चालू किया जाएगा। आने वाले दो वर्षों में, यह संख्या बढ़कर 750 बिस्तरों और पांच वर्षों में 1,000 बिस्तरों तक हो जाएगी। ग़ौरतलब है कि पूरी तरह से चालू होने पर अस्पताल में 800 से अधिक डॉक्टरों सहित 10,000 लोगों का स्टाफ तैनात होगा। अस्पताल में कुल 2,400 बेड होंगे, जिसमें 534 क्रिटिकल केयर बेड शामिल हैं, जो भारत में सबसे अधिक होंगे।


64 मॉड्यूलर ऑपरेशन थिएटर, सबसे उन्नत इमेजिंग सेवाएं, पूरी तरह से स्वचालित रोबोट प्रयोगशाला, उच्च-सटीक विकिरण ऑन्कोलॉजी, सबसे आधुनिक परमाणु चिकित्सा और नैदानिक सेवाओं के लिए अत्याधुनिक 9 कार्डियक और इंटरवेंशनल कैथ लैब भी होंगे।


फरीदाबाद में अल्ट्रा-आधुनिक अमृता अस्पताल कम कार्बन पदचिह्न के साथ भारत की सबसे बड़ी ग्रीन-बिल्डिंग हेल्थकेयर परियोजनाओं में से एक होगा। यह एक एंड-टू-एंड पेपरलेस सुविधा है, जिसमें शून्य अपशिष्ट निर्वहन होता है। मरीजों के तेजी से परिवहन के लिए परिसर में एक हेलीपैड और एक 498 कमरों वाला गेस्ट हाउस भी है, जहां मरीजों के साथ आने वाले परिचारक रह सकते हैं।

      

अम्मा की संस्था द्वारा चलाई जा रही सेवाओं का मुख्य उद्देश्य दीनहीन लोगों की निःस्वार्थ मदद करना है। मसलन, उनके सुपरस्पेशलिटी अस्पताल में गरीब और अमीर दोनों का एक जैसा इलाज होता है। पर गरीब से फीस उसकी हैसियत अनुसार नाम मात्र की ली जाती है। आज जब राम रहीम, आसाराम, राधे मां, रामलाल, जैसे वैभव में आंकठ डूबे ढोंगी धर्मगुरूओं का जाल बिछ चुका है, तब गरीबों के लिए अपना सब कुछ लुटा देने वाली ये अम्मा कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं हो सकतीं। 


आज टी.वी. चैनलों पर स्वयं को परम पूज्य बताकर या बाइबल की शिक्षा के नाम पर जादू-टोने दिखाकर या इस्लाम पर मंडरा रहे खतरे बताकर, धर्म की दुकानें चलाने वालों की एक लंबी कतार है। ये ऐसे ‘धर्मगुरू’ हैं, जिनके सानिध्य में आपकी आध्यात्मिक जिज्ञासा शांत नहीं होती, बल्कि भौतिक इच्छाएं बढ़ जाती हैं। जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था। पर, प्रचार का जमाना है। चार आने की लागत वाले स्वास्थ्य विरोधी शीतल पेयों की बोतल 20 रूपए की बेची जा रही है। इसी तरह धर्मगुरू विज्ञापन एजेंसियों का सहारा लेकर टीवी, चैनलों के माध्यम से, अपनी दुकान अच्छी चला रहे हैं और हजारों करोड़ के साम्राज्य को भोग रहे हैं। 


जबकि दूसरी ओर केरल की ये अम्मा गरीबों का दुख निवारण करने के लिए सदैव तत्पर रहती है। इसका ही परिणाम है कि केरल में जहां गरीबी व्याप्त थी और उसका फायदा उठाकर भारी मात्रा में धर्मांतरण किए जा रहे थे, वहीं आज अम्मा की सेवाओं के कारण धर्मांतरण बहुत तेजी से रूका है। हिंदू धर्मावलंबी अब अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए मिशनरियों के प्रलोभनों में फंसकर अपना धर्म नहीं बदलते। पर, इस स्थिति को पाने के लिए अम्मा ने वर्षों कठिन तपस्या की है। 


कृष्ण भाव में तो वे जन्म से ही डूबी रहती थीं। पर उनके रूप, रंग और इस असामान्य व्यवहार के कारण उन्हें अपने परिवार से भारी यातनाएं झेलनी पड़ीं। वयस्क होने तक अपने घर में नौकरानी से ज्यादा उनकी हैसियत नहीं थी। जिसकी दिनचर्या सूर्योदय से पहले शुरू होती और देर रात तक खाना बनाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना, गाय चराना, नाव खेकर दूर से मीठा पानी लाना, क्योंकि गांव में खारा पानी ही था, गायों की सेवा करना, बीमारों की सेवा करना, यह सब कार्य अम्मा को दिन-रात करने पड़ते थे। ऊपर से उनके साथ हर वक्त मारपीट की जाती थी। उनके बाकी भाई-बहिनों को खूब पढ़ाया लिखाया गया। पर, अम्मा केवल चौथी पास रह गईं। इन विपरीत परिस्थितियों में भी अम्मा ने कृष्ण भक्ति और मां काली की भक्ति नहीं त्यागी। इतनी तीव्रता से दिन-रात भजन किया कि उनकी साधना सिद्ध हो गई। कलियुग के लोग चमत्कार देखना चाहते हैं, पर अम्मा स्वयं को सेविका बताकर चमत्कार दिखाने से बचती रहीं। पर ये चमत्कार क्या कम है कि वे आज तक दुनिया भर में जाकर 5 करोड़ से अधिक लोगों को गले लगा चुकी हैं। उनको सांत्वना दे चुकी हैं, उनके दुख हर चुकी हैं और उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रही हैं। 


इस चमत्कार के बावजूद हमारी ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था ने एक महान आत्मा को मछुआरिन मानकर वो सम्मान नहीं दिया, जो संत समाज में उन्हें दिया जाना चाहिए था। ये बात दूसरी है कि ढोंगी गुरूओं के मायाजाल के बावजूद दुनिया भर के तमाम पढ़े-लिखे लोग, वैज्ञानिक, सफल व्यवसायी, सिने कलाकार, नेता और पत्रकार भारी मात्रा में उनके शिष्य बन चुके हैं और उनके आगे बालकों की तरह बिलख-बिलख कर अपने दुख बताते हैं। मां सबको अपने ममतामयी आलिंगन से राहत प्रदान करती हैं। उनके आचरण में न तो वैभव का प्रदर्शन है और न ही अपनी विश्वव्यापी लोकप्रियता का अहंकार। जबकि वे संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व की सबसे बड़ी सम्मानित संत हैं। उनके द्वार पर कोई भी, कभी भी, अपनी फरियाद लेकर जा सकता है।

Monday, November 29, 2021

कोरोना: ख़तरा अभी थमा नहीं


यूरोप में कोरोना फिर क़हर ढाह रहा है। जैसे-जैसे कोरोना के संक्रमण के दोबारा फैलने की खबरें आ रही हैं वैसे-वैसे ही आम जनता में इसके प्रति चिंता बढ़ती जा रही है। ये बात सही है कि भारत में कोरोना महामारी की स्थित पहले से बेहतर तो हुई है। लेकिन जब तक यह बीमारी पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाती हम सबको सावधानी ही बरतनी पड़ेगी। हमें इस बीमारी के साथ अभी और रहने की आदत डाल लेनी चाहिए ।


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है।  कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाति, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता। ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो घर के बाहर जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। कोरोना के चलते दुनिया भर में हुए लॉकडाउन ने हमें एक बार फिर अपनी जीवन पद्धति को समझने, सोचने और सुधारने पर मजबूर किया है। 



लेकिन पिछले कुछ महीनों से जिस तरह से लोग बेपरवाह हो कर खुलेआम घूम रहे हैं और सामाजिक दूरी भी नहीं बना रहे उससे संक्रमण के फिर से फैलने की खबरें आने लग गई हैं।विशेषज्ञों की मानें तो संक्रमण के मामलों में गिरावट का श्रेय टीकाकरण अभियान है। साथ ही इस साल आई कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वायरस से संक्रमित होने वाले लोगों में पनपी हाइब्रिड इम्युनिटी को भी दिया जा सकता है।


परंतु जिन्होंने इस बीमारी की भयावहता को भोगा है, वो हर एक को पूरी सावधानी बरतने की हिदायत देते हैं। जो लोग मामूली बुख़ार, खांसी झेलकर या बिना लक्षणों के ही कोविड पॉज़िटिव से कोविड नेगेटिव हो गए, वो यह कहते नहीं थकते कि कोरोना आम फ़्लू की तरह एक मौसमी बीमारी है और इससे डरने की कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन ऐसा सही नहीं है। 


पिछले हफ़्ते दक्षिण भारत के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ में एक लेख छपा जिसके अनुसार यूरोप के अनुभव को देखते हुए ऐसा लगता है कि केवल वैक्सीन से ही कोरोना संक्रमण की श्रंखला को नहीं तोड़ा जा सकता और न ही इस महामारी का अन्त किया जा सकता है। यूरोप में पिछले वर्ष मार्च के पश्चात् दूसरी बार कोरोना संक्रमण के नये मामलों और मौतों में तेज गति से वृद्धि हो रही है। आज यूरोप पुनः कोरोना महामारी का मुख्य केन्द्र बन गया है।


इस वर्ष अक्टूबर के प्रारम्भ से ही संक्रमण के मामलों में रोजाना वृद्धि होनी शुरू हुई थी। यह वृद्धि प्रारम्भ में तीन देशों तक ही सीमित थी किन्तु बाद में यूरोप के सभी देशों में फैल गई जिसकी मुख्य वजह डेल्टा वेरियंट है।


पिछले सप्ताह यूरोप में 20 लाख नये मामले सामने आए जो महामारी की शुरूआत होने के बाद से सर्वाधिक है। कोरोना से पूरे विश्व में जितनी मौतें हुई है उनमें से आधे से ज्यादा इस महीने यूरोप में हुई है।


ऑस्ट्रिया, नीदरलैण्ड, जर्मनी, डेनमार्क तथा नोर्वे में प्रतिदिन संक्रमण के सर्वाधिक मामले हो रहे हैं। रोमानिया तथा यूक्रेन में भी कुछ दिनों पहले सर्वाधिक मामले हुए। पूरे यूरोप में हॉस्पीटल बेड्स तेज गति से भर रहे हैं।


विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान हैं कि वर्तमान से लगाकर अगले वर्ष मार्च तक यूरोप के अनेक देशों में हॉस्पीटल, हॉस्पीट्ल्स बेड्स और आई. सी. यू. पर भारी दबाव बना रहेगा। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया भर के देशों को कोविड के खतरे के खिलाफ अलर्ट रहने को कहा और जल्द से जल्द जरूरी कदम उठाने के निर्देश भी दिए हैं।


अधिकांश पश्चिमी यूरोप के देशों में टीकाकरण की दर बहुत ऊँची है। आयरलैण्ड में 90 प्रतिशत से अधिक लोगों को इस वर्ष सितम्बर तक दोनों टीके लग चुके है। फ्रांस में बिना टीका लगे लोगों की उन्मुक्त आवाजाही तथा कार्यालय जाने को मुश्किल बना दिया गया है। अगले वर्ष फरवरी से आस्ट्रिया में टीकाकरण अनिवार्य कर दिया जायेगा। आस्ट्रिया में इस वर्ष 22 नवम्बर से 3 सप्ताह का राष्ट्रव्यापी लॉक-डाउन भी लगाया गया है। इस देश में 65 प्रतिशत लोगों को दोनों टीके लगे हुए हैं फिर भी संक्रमण तेज गति से फैल रहा है।


ग़ौरतलब है कि यूरोप में संक्रमण के अधिकांश नये मामले उन लोगों के है जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है, जिन्हे ब्रेकथू्र इन्फेक्शन हैं तथा दोनों टीका लगे हुए लोग भी भारी संख्या में अस्पतालों में भर्ती हो रहे हैं।


इस सबको देखते हुए भारत जैसे देश में भी कुछ कठोर कदम उठाने की ज़रूरत है वरना कोरोना की तीसरी ही नहीं चौथी-पाँचवी लहर भी आ सकती है। सरकार को कुछ ऐसे कदम उठाने की ज़रूरत है जिससे कि जनता खुद से ही आगे आकर टीका लगवाए। इससे कोरोना महामारी से कुछ तो राहत मिलेगी। साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम जितनी सावधानी बरतेंगे उतना ही जल्दी इस बीमारी से बचे रहेंगे और छुटकारा पा सकेंगे। 


दुनिया भर के कई ऐसे देश हैं जहां लोगों को टीके की दोनो डोज़ लगने के बाद भी कोरोना हुआ है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि यह बीमारी हमारा पीछा इतनी आसानी से नहीं छोड़ने वाली है। किसी ने शायद ये ठीक ही कहा है ‘सावधानी हटी - दुर्घटना घटी’। इसलिए जितना हो सके अपने आप को इस बीमारी से बचाने की ज़रूरत है।


हाल ही में मशहूर फ़िल्म अभिनेता कमल हसन को भी कोविड संक्रमित पाया गया। उधर जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, August 31, 2020

कोरोना महामारी: आगे का सफ़र


पिछले कुछ हफ़्तों में सरकार ने कोरोना से सम्बंधित कई दिशा निर्देश दिए हैं। ख़ासतौर पे भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से दिए गए ‘अनलॉक’ के दिशा निर्देश जिनका पालन सभी राज्य सरकारों को करना अनिवार्य है। लेकिन इन दिशा निर्देशों में प्रत्येक राज्य को अपने राज्य की मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार इनमें संशोधन करने का भी प्रावधान है। अगर किसी राज्य में संक्रमण तेज़ी से बढ़ रहा है तो वहाँ सख़्ती की ज़रूरत है। इसी प्रकार अगर संक्रमण नियंत्रण में है तो छूट भी दी जा रही है। दिल्ली में तो अब मेट्रो रेल को भी सशर्त खोलने की तैयारी है। कारण स्पष्ट है जनता को हो रही असुविधा और मेट्रो को हो रहे करोड़ों के नुक़सान से बचना अनिवार्य हो चुका है। लेकिन सावधानी तो हम सबको ही बरतनी पड़ेगी।
 

पिछले दिनों मई 2020 की एक खबर पढ़ने में आई जिसका आधार अमरीका के मेरीलैंड विश्वविद्यालय के डा फाहिम यूनुस का शोध है। डा यूनुस मेरीलैंड विश्वविद्यालय के संक्रमण रोग विभाग के मुखिया हैं। उनके अनुसार कोरोना के वाइरस से जल्द छुटकारा पाना आसान नहीं है। हां रूस ने इसके इंजेक्शन के ईजाद का दावा ज़रूर किया है लेकिन चीन में जो लोग कोरोना से ठीक हुए थे उनमें से कुछ को कोरोना दोबारा होने की भी खबर है। डा फाहिम के अनुसार हमें इस बीमारी के साथ हंसी ख़ुशी रहने की आदत डाल लेनी चाहिए और नाहक परेशान या घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। 


उनके अनुसार अगर कोरोना का वाइरस हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका है तो अत्यधिक पानी पीने से वो बाहर नहीं निकलेगा। हम बस बाथरूम ज़्यादा जाने लगेंगे। 


इस वाइरस पे किसी भी तरह के मौसम का भी असर नहीं होगा। उनकी इस बात पर यक़ीन इसलिए होता है क्योंकि गर्मियों के मौसम में भी कोरोना के मरीज़ों की संख्या विश्वभर में तेज़ी से बढ़ी ही है। 


लगातार हाथ धोने और उचित दूरी बनाए रखने से ही इससे बचा जा सकता है। यदि हमारे घर में कोई भी संक्रमित नहीं है तो हमें बार बार घर की वस्तुओं को डिसइन्फ़ेक्ट करने की भी आवश्यकता नहीं है। 


कोरोना के वाइरस आम फ़्लू की तरह ही होते हैं जो खाने कि वस्तुओं को मंगाने से नहीं फैलते। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल पम्प और एटीएम आदि पे जाने से संक्रमण नहीं फैलता। बस हाथ धोना और दूरी बनाए रखना अहम है। 


डा यूनुस के अनुसार यदि कोई इससे संक्रमित है और वो स्टीम या सौना लेने के लिए जाता है तो उसके शरीर से वाइरस नहीं निकल सकता। ऐसी कई और एलेर्जी होती हैं जिनके कारण भी इंसान की सूंघने और स्वाद की शक्ति खो जाती है। अभी तक इस लक्षण को इसका एकमात्र कारण नहीं कहा जा सकता। 


कोरोना का वाइरस एक ड्रिप इंफ़ेक्शन है जो केवल निकटता और सम्पर्क में आने से ही फैलता है हवा में नहीं। इसलिए घर में घुसते ही तुरंत कपड़े बदलना और स्नान करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन शुद्धि करना एक अच्छी आदत होती है जो हमारे देश में सदियों से चली आ रही है। 


इन दिनों देखा गया है कि जो लोग घर में खाना नहीं बना पाते थे, जैसे कि विद्यार्थी आदि, वो भी मजबूरन खाना बनाने लग गए हैं। लेकिन अगर आप बाज़ार से खाना मँगवाते हैं तो उसे एक बार दोबारा गर्म कर लेना बेहतर रहेगा। 


कोरोना का वाइरस किसी भी धर्म, जाती, लिंग या स्टेटस में भेद नहीं करता ये किसी को भी हो सकता है। यदि आप बाहर से आते हैं तो जूतों को उतारना एक अच्छी आदत है लेकिन वही जूते जो आपने दिन भर पहने हैं और उनसे आपको संक्रमण नहीं हुआ तो जूतों से संक्रमण का कोई लेना देना नहीं है। 


कुछ लोग जो अधिक सावधानी बरतने के लिए दस्ताने पहनते हैं उन्हें भी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि दस्तानों पे यदि वाइरस आ भी जाता है तो आसानी से जाता नहीं। उन दस्तानों को फेंका ही जाता है। हाथ धोना ही एकमात्र उपाय है जो वाइरस को बहा देता है। इसलिए अपने मुह या आँख को छूने से पहले हाथ अवश्य धोएँ। हाथों को धोने के लिए आम साबुन का प्रयोग ही करें एंटी-बेक्टीरिया साबुन का नहीं क्योंकि कोरोना एक वाइरस है बेक्टीरिया नहीं। 


अपने 20 वर्षों से अधिक अनुभव के चलते डा फाहिम यूनुस ने ये सब हिदायतें दी हैं और कहा है कि हमें सतर्क रहने की ज़रूरत है परेशान रहने की नहीं। 


ये तो डा फाहिम यूनुस के विचार हैं पर जिस तरह अभी हाल में चंडीगढ़ में हरियाणा के मुख्य मंत्री और स्पीकर व अन्य लोगों को कोरोना हुआ है, जिस तरह भारत में कोरोना संक्रमण की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है, जिस तरह चीन में कोरोना से ठीक हो चुके लोगों को ये दोबारा हो रहा है, इस सबसे कोरोना के ख़तरे को हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसलिए जो सावधानियाँ सुझाई गई हैं उन्हें गम्भीरता से लेना चाहिए। जहां तक सम्भव हो घर से बाहर न निकलें। किसी को भी स्पर्श करने से बचें। साबुन से हाथ लगातार धोते रहें। घर के बाहर नाक और मुँह को ढक कर रखें। तो काफ़ी हद तक अपनी व औरों की सुरक्षा की जा सकती है। जब तक कोरोना का कोई माकूल इलाज सामने नहीं आता तब तक सावधानी बरतना और भगवत कृपा के आसरे ही जीना होगा।

Monday, March 16, 2020

करोनाः मांसाहार खाने वालों सावधान!

जब से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने योग, भगवत्गीता और वैदिक संस्कृति का प्रचार पूरे दमखम के साथ अंतर्राष्ट्रीय पटल पर किया है, तब से दुनिया के तमाम राष्ट्राध्यक्ष और नागरिक भारत की सनातन संस्कृति के प्रति पहले से अधिक उत्सुकता और सम्मान व्यक्त करने लगे हैं। मोदी जी न केवल नवरात्रि का व्रत रखते हैं, बल्कि किसी सरकारी भोज में मांस नहीं परोसने देते। आज विश्वभर में ‘करोना वायरस’ का आतंक है। अभी इसकी भयावहता का पूरा अनुमान नहीं है। भगवान करें कि ये आपात स्थिति नियंत्रण में आ जाऐ। अगर नहीं आई तो ये विश्व में लाखों लोगों को लील जाऐगी। इस संदर्भ में दो महत्वपूर्णं बाते सामने आई हैं एक तो ये कि अभिवादन के लिए हाथ मिलाना आज खतरे से खाली नहीं माना जा रहा। दूसरा इस वायरस का स्रोत मांसाहार है। इसलिए दुनियाभर में बहुत बड़ी तादाद नें फिलहाल मांसाहार का परित्याग कर दिया है। मोदी जी ने विश्व जनसमुदाय से अपील की है कि वे अभिवादन में अब भारतीय परंपरा के अनुसार ‘नमस्ते’ को अपना ले, जो एक सुरक्षित और विनम्र तरीका है। इजराइल के राष्ट्रपति और इंग्लैंड के प्रिंस चॉर्ल्ज ने ‘नमस्ते’ को सार्वजनिकरूप से स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही मोदी जी को चाहिए कि दुनियाभर से मांसाहार छोड़ने की अपील भी करें।

किसी शादी की दावत या नए साल की दावत में अगर माँस न हो तो यार दोस्त कहते हैं क्या घास-कूड़ा खिला दिया।

एक ओर जहां भारत के सभी महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों में यह देखकर आश्चर्य होता है कि किस ललचाई नजरों से लोग मांसाहार के लिए आतुर रहते हैं। वहीं दूसरी ओर अगर आप देश के बहुत ही संपन्न लोगों की संगति में बैठे हों तो आप पाएंगे कि बहुत से बड़े लोग मांसाहार छोड़ते जा रहे हैं। और तो और अमरीका और यूरोप के देश जहां बीस वर्ष पहले तक शाकाहार का नाम तक नहीं जानते थे। वहीं आज काफी तादाद में लोग मांसाहार पूरी तरह छोड़ चुके हैं। जानते हैं क्यों ? पहली बात तो यह कि मानव शरीर शाकाहार के लिए बना है मांसाहार के लिए नहीं। यह बात हम अपनी तुलना शाकाहारी और मांसाहारी पशुओं से करने पर समझ सकते हैं। शेर, कुत्ता, घड़ियाल व भेड़िया मांसाहारी हैं। गाय, बकरी, बंदर व खरगोश शाकाहारी हैं। मांसाहारी पशुओं को कुदरत ने दोनों जबड़ों में तेज नुकीले कीलनुमा दांत और खतरनाक पंजे दिए हैं। जिनसे ये शिकार करके उसमें से मांस नोच कर खा सकें। पर गाय और बंदर की ही तरह मानव को कुदरत ने ऐसे दांतों और पंजों से वंचित रखा है, क्यों ? 

मांसाहारी पशु जैसे कुत्ता जीभ से पसीना टपकाता है। इसलिए हाॅफता रहता है। शाकाहारी पशुओं और मानव के बदन से पसीना टपकता है। मांसाहारी पशुओं की आंते काफी छोटी होती है ताकि मांस जल्दी ही पाखाने के रास्ते बाहर निकल जाए जबकि शाकाहारी जानवरों और मानव की आंते अनुपात में तीन गुनी बड़ी और ज्यादा घुमावदार होती है ताकि अन्न, फल, सब्जियों का रसा अच्छी तरह सोख ले। यदि आप मांसाहारी है तो आपने नोट किया होगा कि रेफ्रिजरेटर के निचले खाने में इतनी ठंडक होने के बावजूद मांस कुछ ही घंटों में सड़ने लगता है। फिर मानव शरीर की गर्मी में मांस के आंत में अटक-अटक चलने में इसकी क्या गति होती होगी, कभी सोचा आपने? वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि मांसाहारी पशुओं के आमाशय में जो तेजाब रिसता है वह शाकाहारी पशुओं और मानव के आमाशय में रिसने वाले तेजाब से बीस गुना ज्यादा तीखा होता है, ताकि मांस जल्दी गला सके। ऐसे तेजाब के अभाव में हमारे आमाशय में पड़े मांस की क्या हालत होती होेगी ?

भारत जैसे देश में, बहुसंख्यक आबादी किसी न किसी रोग से ग्रस्त है। हमारे शरीर में तरह-तरह की बीमारियां पल रही हैं, तो जो जानवर काटे जा रहे हैं उनके वातावरण, भोजन और रख-रखाव में जो नर्क से बदतर जिंदगी होती है, उससे कैसा मांस आप तक पहुंचता है? फिर आप तो जानते हैं कि भारत में कितना भ्रष्टाचार है। जिन भी इंस्पेक्टरों की ड्यूटी कसाईखानों में लगी होती है उनसे क्या आप राजा हरिशचन्द्र होने की उम्मीद कर सकते हैं? या वक्त के साथ-साथ चलने वाला होशियार आदमी। मतलब ये हुआ जो हाकिम यह देखने के लिए तैनात किए जाते हैं कि भयानक बीमारियों से घिरे हुए घायल या गंदे पशु मांस के लिए न काटे जाएं वो निरीक्षक ही अगर आंख बंद किए हुए हों तो आपकी क्या हालत हो रही है, आपको क्या पता ?

अक्सर तर्क दिया जाता है कि लोग मांसाहार नहीं करेंगे तो दुनिया में खाने की कमी पड़ जाएगी। पर क्या कभी सोचा आपने कि व्हेल मछली, हाथी, ऊॅट व जिराफ से बड़े कोई जानवर हैं? ये कभी भूखे पेट नहीं सोते। 

अमरीका के अर्थशास्त्रियों ने आंकड़ों से सिद्ध कर दिया है कि एक बकरा कटने से पहले जितना अन्न व सब्जी खाता है उससे एक परिवार का महीने भर का भोजन पूरा हो सकता है। जबकि काटने के बाद एक बकरे को एक परिवार दो-तीन वक्त में खा-पीकर निपटा लेता है। दुनिया भर में मांसाहारियों के लिए जानवरों को खिला-पिला कर मोटा किया जाता है और फिर काट दिया जाता है। यह तो आपको पता ही होगा कि विकसित देशों में गेंहू, सब्जियां, मक्खन, पनीर, पानी के जहाजों में भर कर दूर समुद्र में फेंका जाता है ताकि दुनिया में इनके दाम नीचे न गिरें। कहावत है कि दुनिया में सबके लिए काफी अन्न है पर लालचियों के लिए फिर भी कम है।

अमेरिकन मैडिकल एसोसिएशन के जर्नल ने यह छापा था कि अमरीका में दिल के दौरों से ग्रस्त होने वालों में 97 फीसदी मांसाहारी हैं। यानी शाकाहारी लोगों को दिल की बीमारी काफी कम होने की संभावना है। एक और मशहूर वैज्ञानिक शेलों रसेल ने 25 देशों के अध्ययन के बाद बताया कि इनमें से 19 देशों में कैंसर की मात्रा बहुत ज्यादा थी। यह सभी देश वो हैं जिनमें मांसाहार का प्रतिशत काफी ऊंचा है। एक भ्रांति है कि मांसाहार से ज्यादा ताकत मिलती है। हकीकत यह है कि मांस आधारित भोजन को पचाने में शरीर की बहुत ऊर्जा बेकार चली जाती है।

अब आते हैं शुद्ध विज्ञान पर। विज्ञान में एक सिद्धांत है कि हर क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है। ‘एवेरी एक्शन हैज इक्वल एंड अपोजित रिएक्शन‘। याद रखिए ‘एक्शन’ यानी हर क्रिया की, तो पशु वद्ध करने की भी समान और विपरीत प्रतिक्रिया होगी। सनातन धर्म के शास्त्रों में लिखा है कि जीव हत्या करने वाले को अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। शिकागो दुनियां की सबसे बड़ी मांस की कटाई और बिक्री वाला शहर है और दुनिया में सबसे ज्यादा मानव हत्याएं, चाकूबाजी और बलात्कार की वारदातें भी वहीं होते हैं। 

भगवान् श्रीकृष्ण गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहते हैं-

पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मंे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहम भक्त्युपह्तमश्रामि प्रयतातमनः।।

9वें अध्याय के इस 26वें श्लोक में भगवान् अपने शुद्ध भक्त और सखा अर्जुन से ये कहते हैं कि यदि कोई प्रेम तथा भक्ति से मुझे पत्र, पुष्प, फल या जल प्रदान करता है तो मैं उसे स्वीकार करता हूं। याद रखिए भगवान् अन्न, फल ही स्वीकार करते हैं। पर आपको ऐसे तमाम लोग मिलेंगे जो कृष्ण, महावीर की अराधना का दावा करेंगे और जम कर मांसाहार करेंगे। यह जानते हुए भी कि हिंदु शास्त्रों में इसके भयंकर परिणाम बताए गए हैं।

ईसाई-धर्म की पवित्र-पुस्तक बाईबिल में ईसामसीह जीवों पर करूणा करने का आदेश देते हैं और मांसाहार को मना करते हैं। हर धर्म में दूसरे को कष्ट पहुंचाना पाप कर्म बताया गया है। तो जिस जीव को भोजन के लिए काटा जाए उसे क्या चाकू की धार गर्दन पर चलवाने में आनंद आता होगा ? फिर मांस का उत्पादन कितना महंगा है उसका एक उदाहरण है कि एक किलो मांस बनकर तैयार होने में कुदरत का पचास हजार लीटर पानी खर्च होता है और एक किलो गेंहू कुल आठ लीटर पानी में ही उपज जाता है।


गुरू ग्रंथ साहिब में गुरू श्री नानक देव कहते हैं कि यदि किसी घायल लाश के खून का छींटा तुम्हारे कपड़ों पर पड़ जाता है तो तुम कपड़ा बदल लेते हो। पर जब लाश को अपने शरीर के अंदर ले जाते हो तो तुम्हारा शरीर कितना गंदा हो जाता है, कभी सोचा सिंह साहब?

Monday, January 7, 2019

कैसे मुक्त हों अंग्रेजी दवाओं के षड्यंत्र से ?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 1997 की एक रिर्पोट के अनुसार बाजार में बिक रही चैरासी हजार दवाओं में बहत्तर हजार दवाईओं पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए। क्योंकि ये दवाऐं हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। लेकिन प्रतिबंध लगना तो दूर, आज इनकी संख्या दुगनी से भी अधिक हो गई है। 2003 की रिर्पोट के अनुसार भारत में नकली दवाओं का धंधा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष हो गया था, जो अब और भी अधिक बढ़ गया है। भारत में मिलने वाली मलेरिया, टीबी. या एड्स जैसी बीमारियों की पच्चीस फीसदी दवाऐं नकली हैं। कारण स्पष्ट है। जब दवाओं की शोध स्वास्थ्य के लिए कम और बड़ी कंपनियों की दवाऐं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे, कमीशन और विदेशों में सैर सपाटे व खातिरदारी के लालच में डॉक्टर, मीडिया, सरकार और प्रशासन ही नहीं, बल्कि स्वयंसेवी संस्थाऐं तक समाज का ‘ब्रेनवॉश’ करने में जुटे हों, तब हमें इस षड्यंत्र से कौन बचा सकता है? कोई नहीं। केवल तभी बच सकते हैं, जब हम अपने डॉक्टर खुद बन जाऐं।

जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार 10-15 वर्षों में ही नऐ आविष्कार के साथ अधूरा, अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है। उसके पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े-बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाय यह अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से दादी-नानी के प्रमाणित नुस्खों व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर औषधि देकर एक नऐ रोग को शरीर में घुसा दें या शरीर में भयंकर उत्पाद पैदा कर दें और शास्त्र की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए साइड इफैक्ट, रिऐक्शन जैसे शब्द जाल रचें, तब तक अपने आप ‘गिनी पिग’ बनने से बचाने के लिए जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब पैथोलॉजिस्ट-डॉक्टर की सांठ-गांठ से बात-बेबात रक्त-जांच, एक्स-रे, सोनोग्राफी, एमआरआई, ईसीजी आदि के चक्कर में फंसा हमसे रूपये ऐंठे जाने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने और समय व धन की बर्बादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस व्यवस्था में लाखों रूपये खर्च करने पर डॉक्टर बना जाता हो और विशेषज्ञ के रूप में स्थापित होते-होते आयु के 33-34 वर्ष निकल जाते हों, उस व्यवस्था में डॉक्टरों को नैतिकता का पाठ- ‘मरीज को अपना शिकार नहीं भगवान समझें’ पढ़ाने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब चारों ओर इस प्रकार का वातावरण हो कि डॉक्टर भय मनोविज्ञान का सहारा ले रोगी के रिश्तेदारों की भावनाओं का शोषण करने लगे, तब भय के सौदागरों से बचने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस व्यवस्था में डॉक्टरों को ऐसी भाषा सिखायी जाऐ, जो आम जनता समझ न सके और इस कारण उन्हें रोगी के अज्ञान का मनमाना लाभ उठाने का भरपूर मौका मिले या दूसरे शब्दों में जिस व्यवस्था में धन-लोलुप भेड़ियों के सामने आम जनता को लाचार भेड़ की तरह जाना पड़ता हो, उस व्यवस्था में खूनी दांतों से आत्मरक्षा के लिए यह बहुत जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जिस देश में यूरोपीय-अमरीकी समाज की आवश्यक्ताओं के अनुसार की गई खोजों को पढ़कर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजार वर्षों से समृद्ध खान-पान और रहन-सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाय यह अधिक जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी हाइपेटेटिस बी, कभी चिकनगुनिया, कभी स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंक फैलाकर लूटा जाता हो। वहां षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

जब स्वास्थ्य विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति के साथ-साथ रोग बढ़ने लगे, बुढ़ापे में होने वाले हृदय रोग 30-35 वर्ष की आयु में होने लगे, सामान्य प्रसव चीरा-फाड़ी वाले प्रसव में बदलने लगे, उक्त रक्तचाप, मधुमेह (डायबिटीज), कमर व घुटनों में दर्द घर-घर में फैलने लगे, तब इसका तथाकथित विज्ञान से स्वयं की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें। जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे, तब भी ठीक है। क्योंकि धंधे में एक नैतिकता होती है। लेकिन यदि कोई नैतिकता छोड़ इसे लूट, ठगी, शिकार आदि का स्रोत बना ले, तब बजाय सिर धुनने के समझदारी इसी में है कि हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।

बात अजीब लगेगी। अगर स्वस्थ्य रहने के लिए डॉक्टर बनना पड़ेगा, तो बाकी व्यवसाय कौन चलायेगा? ऐसा नहीं है जिस डॉक्टरी की बात यहां की जा रही है, उसके लिए किसी मेडीकल कॉलेज में दाखिला लेकर 10 वर्ष पढ़ाई करने की जरूरत नहीं है। केवल अपने इर्द-गिर्द बिखरे पारंपरिक ज्ञान और अनुभव को खुली आंखों और कानों से देख-समझकर अपनाने की जरूरत है। टीवी सीरियलों, फिल्मों, मैकाले की शिक्षा पद्धति, उदारीकरण व बाजारू संस्कृति ने हमें हमारी जड़ों से काट दिया है। इसलिए भारत की बगिया में खिलने वाले फूल समय से पहले मुरझाने लगे हैं। इस परिस्थिति को पलटने का एक अत्यंत सफल और प्रभावी प्रयास किया है मुबंई के उत्तम माहेश्वरी जी ने अपनी एक पुस्तक लिखकर, जिसका शीर्षक है ‘अपने डॉक्टर स्वयं बनें’। मैंने यह रोचक, सरल व सचित्र पुस्तक पढ़ी, तो लगा कि हम पढ़े-लिखे लोग कितने मूर्ख हैं, जो स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। goseva.rogmukti@gmail.com पर इमेल भेजकर आप उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं। जब ज्ञान बेचा जाए, तो वह धंधा होता है और जब बांटा जाऐ, तो वह परमार्थ होता है। आपको लाभ हो, तो इसे दूसरों को बांटियेगा।

Monday, April 9, 2012

बाबा रामदेव हर कदम सोच - विचार कर उठाएं

ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव को मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने में मजा आता है। अभी कांग्रेस से उनकी पंगेबाजी चल ही रही है कि उन्होंने आयुर्वेद की दवाओं के निर्माताओं से भी पंगा ले लिया। जिससे देश की नामी आयुर्वेद कम्पनियों के निर्माता उनसे खासे नाराज हैं। योग सिखाते-सिखाते बाबा ने आयुर्वेद का कारोबार खड़ा कर डाला। अब तक वे इसे अपने केन्द्रों और अनुयायियों तक सीमित रखे हुए थे। पर अब वे उतर पड़े हैं खुले बाजार में और ताल ठोककर आयुर्वेद की दवाओं और प्रसाधनों के देशी और विदेशी निर्माताओं को चुनौती दे रहे हैं। बाबा अपने टी0वी0 पर सीधे प्रसारण में खुलेआम इन कम्पनियों के उत्पादनों की मूल्य सूची पर सवाल खड़े कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि ये कम्पनियां किस तरह से आयुर्वेद के नाम पर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रही हैं। साथ ही वे अपने उत्पादनों की सूची जारी करके मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन कर रहे हैं।
क्या बाबा के इस नये शगूफे को विशुद्ध मार्केटिंग की रणनीति माना जाए? लगता तो ऐसे ही है कि आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव दोनों ने मिलकर आयुर्वेद के बाजार पर कब्जा करने का इरादा कर लिया है। वर्ना इस तरह योग गुरू को अपने उत्पादनों के लिए देश के विभिन्न नगरों में जाकर प्रचार करने की क्या जरूरत थी? पर आश्चर्य की बात यह है कि उनके दर्शक और श्रोता ऐसा नहीं मानते। बाबा के दूसरे अभियानों की तरह वे इसे भी जनचेतना का एक अभियान ही मान रहे हैं। उनका कहना है कि बाबा के रहस्योद्घाटन ने उनकी आँखे खोल दी हैं। वे अब तक लुटते रहे और उन्हें पता ही नहीं चला। उदाहरण के तौर पर जब दुनियाभर में ऐलोवेरा जैल बाजार में लाया गया तो विदेशी कम्पनियों ने इसे सेहत का रामबाण बताकर खूब महंगा बेचा। 1200 रूपये लीटर तक बिका। मुझे याद है कि सन् 2000 में अपने अमरीकी प्रवास के दौरान मैंने ऐलोवेरा का खूब शोर सुना। जिसे देखो इसकी बात करता था। मैं भी स्टोर में उत्सुकतावश ऐलोवेरा देखने पहुँचा। तब पता चला कि बचपन से घर के बगीचे में जिस ग्वारपाठा को देखा था, जिसके गूदे से माँ हलुवा और रोटी बनवाती थी, उसकी एक पत्ती चार डॉलर की बिक रही थी।
पिछले दिनों बाबा रामदेव के संस्थान ने ऐलोवेरा जैल को चैथाई कीमत पर जब बाजार में उतारा तो बड़ी-बड़ी कम्पनियों को अपने दाम घटाने पड़े। बाबा के सहयोगी आचार्य बालकृष्णन इसे अपनी नैतिक जीत बताते हैं। उनका दावा है कि हम आयुर्वेद का बाजार कब्जा करने नहीं जा रहे। इतना बड़ा देश है, हम ऐसा कर ही नहीं सकते। पर गुणवत्ता के उत्पादनों को ‘वाजिब दाम’ में बाजार में लाकर हम देशी और विदेशी कम्पनियों को चुनौती दे रहे हैं। उन्हें दाम कम करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसलिए वे मानते हैं कि बाबा रामदेव का इन उत्पादनों के समर्थन में जनता को सम्बोधित करना एक आम मार्केटिंग का शगूफा नहीं है, बल्कि उनके राष्ट्र निर्माण अभियान का एक और कदम है। वे यह भी दावा करते हैं कि अगर देशभर में फैले छोटे निर्माता उनसे तकनीकि सीखकर इन औषधियों और प्रसाधनों का उत्पादन करना चाहें, तो वे इसे सहर्ष बांटने के लिए तैयार हैं।
यह बात दूसरी है कि बाबा के आलोचक बाबा के इस पूरे कार्यक्रम को धर्म की आड़ में चल रहे व्यापार की संज्ञा देते हैं। सीपीएम नेता वृंदा करात और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बाबा पर होने वाले हमलों को छोड़ भी दें तो भी देश के अनेक धर्माचार्य रामदेव बाबा को धंधेबाज बताते हैं। जबकि रामदेव बाबा का कहना है कि वे भारत के सनातन ज्ञान को मार्केटिंग का पैकेज बनाकर इस लिए चल रहे हैं ताकि राष्ट्र निर्माण के उनके अभियान में उन्हें साधनों के लिए पूंजीपतियों या राजनैतिक दलों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। उनका मानना है कि इन लोगों पर अपनी आर्थिक निर्भरता सौंपने के कारण ही हमारी राजनीति इतनी कलुषित हो गई है। जिनके मतों से राजनेता चुने जाते हैं, उनसे ज्यादा उन्हें उन लोगों की चिंता होती है, जिनकी आर्थिक मदद से वे चुनाव लड़ते हैं। इसलिए वे आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ राष्ट्रनिर्माण का आन्दोलन चलाना चाहते हैं। वे उदाहरण देते हैं महात्मा गांधी के स्वराज कोष का, जो गांधी जी ने राष्ट्रीय राजनीति में कूदते ही स्थापित किया था। पर बाबा के आलोचक इससे सहमत नहीं हैं। वे आरोप लगाते हैं कि गांधी जी की तरह बाबा इस कारोबार के संचालन से अनासक्त नहीं हैं। इसलिए उन्होंने अपने मुठ्ठीभर चहेतों के हाथ में सारा कारोबार सौंप रखा है। यह रवैया गैर लोकतांत्रिक है और अधिनायकवादी है। अपनी सफाई में बाबा इस आरोप से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उनका कहना है कि दूसरों के अनुभव से सीखकर वे नहीं चाहते कि उनकी योजनाओं को भी निहित स्वार्थ घुसपैठिया बनकर धराशायी कर दें। जिसके हाथ में तिजोरी की चाबी होती है, ताकत भी उसी के पास होती है। इसलिए बाबा अपने आर्थिक और योग के साम्राज्य को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखना चाहते हैं।
जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि बाबा रामदेव ने गत् चार-पांच वर्षों से हिन्दुस्तान की राजनीति में तूफान मचा दिया है। उन पर जितना सरकारी हमला तेज होता है, उतना ही वे और भड़कते हैं और बार-बार अपने अनुयायियों से एक बड़े आन्दोलन के लिए तैयार रहने को कहते हैं। जो उनकी घोषणा के अनुसार जल्द ही देश में शुरू होने वाला है। सोचने वाली बात यह है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद क्या बाबा रामदेव को सिर्फ इसलिए दरकिनार किया जा सकता है कि वे केसरिया कपड़े पहनते हैं? या वे योग और आयुर्वेद को एक कॉरपोरशन की तरह चलाते हैं? या फिर उनके उत्साह और ऊर्जा का भी मूल्यांकन किया जाए, जो वे अपने अभियान के लिए लगातार जनता के बीच में झोंके हुए हैं? बाबा रामदेव के जीवन का लक्ष्य सत्ता हासिल करना हो या राष्ट्र का निर्माण, वो पूरे जीवट से जुटे हैं और यही उनके व्यक्तित्व के आकर्षक या विवादास्पद होने का कारण है। बाबा रामदेव जैसे व्यक्तित्वों का सही मूल्यांकन शायद राजनीतिक जमात या मीडिया नहीं कर सकता। यह काम तो शायद जनता करेगी। जिनपर उनका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए बाबा को भी हर कदम खूब सोच-विचार कर उठाना चाहिए।