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Monday, April 1, 2024

मुख़्तार अंसारी की मौत से सबक़


माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सज़ा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख़्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफ़ियाओं को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है। फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चली गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपनाकर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफ़ियाओं का सफ़ाया करवा रही है या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतार रहे हैं, तो ये अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफ़ियाओं को संरक्षण न मिलता हो। फ़र्क़ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफ़ियाओं को ही निशाने पर रखता है अपने दल के अपराधियों की तरफ़ से आँख मूँद लेता है। ये सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है।



आज़ादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंदियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गईं। जब अपराधियों को ये समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफ़ी महत्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औज़ार क्यों बनें? हम ख़ुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएँ? बस फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु बल के ज़ोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे मवाली आज के राजनेता बन गये। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। 



जब क़ानून बनाने वाले ख़ुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी क़ानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के ख़िलाफ़ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएँ, बदलता कुछ भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ अगर ये दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएँ उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार का शिकार हो रहीं हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेक़सूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हाँ ये ज़रूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं उन पर योगी सरकार में रोक ज़रूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ़ कम नहीं हुआ। 



90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफ़सरों व न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है। बावजूद इसके आजतक किसी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने में कोई रचीं नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफ़ारिशें आजतक धूल खा रही हैं। 


ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। ये तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज़्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फ़ीसद ही लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सज़ा दी जाए। यह सब होने के बावजूद भी समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के  व्यक्ति को अपराध करना अनुचित नहीं लगता। उसके लिए यह सहज प्रक्रिया होती है। 


जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज़ लोगों को काल के मुँह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख़्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज़ लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ़्त में आ गये। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए। इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सज़ा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि   को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ़ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गये। पुराणों और इतिहास के ये सभी उदाहरण उन अपराधियों के लिए हैं जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं और जो कर रहे हैं वो अपने परिवार की ख़ुशी के लिये ही कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही उनका और समाज का भला होगा।      

Monday, March 11, 2024

अखिलेश यादव क्यों हैं सबसे अलग ?


कुछ वर्ष पहले जब मैंने अपने इसी कॉलम में कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए ममता दीदी के सादगी भरे जीवन पर लेख लिखा था तो एक ख़ास क़िस्म की मानसिकता से ग्रस्त लोगों ने मुझे ट्विटर (अब एक्स) पर गरियाने का प्रयास किया। पिछले हफ़्ते जब मैंने संदेशख़ाली की घटनाओं के संदर्भ में ममता बनर्जी की कड़ी आलोचना की तो उन लोगों में ये नैतिक साहस नहीं हुआ कि एक्स पर लिखें मान गये कि आप निष्पक्ष पत्रकार हैं। 


इसी तरह 2003 में जब मैंने सोनिया गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए एक लेख लिखा था जिसमें दोनों के गुण दोषों का ज़िक्र था तो कुछ मित्रों ने पूछा तुम किस तरफ़ हो ये समझ में नहीं आता। मैंने पलटकर पूछा कि क्या कोई पत्रकार बिना तरफ़दारी के अपनी समझ से सीधा खड़ा नहीं रह सकता? क्या उसका एक तरफ़ झुकना अनिवार्य है? 



आज के हालात ऐसे ही हो गए हैं जिनमें विरला ही होगा जो बिना झुके खड़ा रहे। प्रायः सब अपने-अपने आकाओं के आँचल की छाँव में फल-फूल रहे हैं। जनता का दुख-दर्द, लिखे जा रहे तर्कों की प्रामाणिकता, पत्रकारिता में निष्पक्षता, सब गयी भाड़ में। अब तो पत्रकारिता का धर्म है कि अपना मुनाफ़ा क्या लिखने या बोलने में है, उसे बिना झिझके एलानिया करो। 


दरअसल हर लेख की विषय वस्तु के अनुसार उसके समर्थन में संदर्भ खोजे जाते हैं। किसी एक लेख में हर व्यक्ति की हर बात का इतिहास लिखना मूर्खता है। ये सब भूमिका इसलिए कि आज मैं राजनैतिक लोगों के बिगड़ते बोलों पर चर्चा करूँगा। तो कुछ सिरफिरे कहेंगे कि मैं फ़लाँ के भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं लिख रहा। तो क्या ऐसे लोग बता सकते हैं कि आज देश का कौनसा बड़ा नेता या राजनैतिक दल है जो आकंठ भ्रष्टाचार में नहीं डूबा? या देश में कौनसा नेता है जो अपने दल की आय-व्यय का ब्यौरा देश के सामने खुलकर रखने में हिचकिचाता नहीं है? 


आज का लेख इन नेताओं और इनके कार्यकर्ताओं की भाषा पर केंद्रित है जो दिनोंदिन रसातल में जा रही है। अब तो कुछ सांसद संसद के सत्र तक में हर मर्यादा का खुलकर उल्लंघन करने लगे हैं। उनकी भाषा गली मौहल्ले से भी गयी बीती हो गयी है। सोचिए देश के करोड़ों बच्चों, युवाओं और बाक़ी देशवासियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा होगा? 



ग़नीमत है ऐसे कुछ सांसदों के टिकट इस बार कट रहे हैं। पर इतना काफ़ी नहीं है। हर दल के नेताओं को इस गिरते स्तर को उठाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। अपने कार्यकर्ताओं और ‘ट्रोल आर्मीज़’ को राजनैतिक विमर्श में संयत भाषा का प्रयोग करने के कड़े आदेश देने होंगे। ऐसा नैतिक साहस वही नेता दिखा सकता है जिसकी  ख़ुद की भाषा में संयम हो।  


इस संदर्भ में मैं अखिलेश यादव के आचरण का उल्लेख करना चाहूँगा। मेरी नज़र में अपनी कम आयु के बावजूद जिस तरह का परिपक्व आचरण व विरोधियों के प्रति भी संयत और सम्माजनक भाषा का प्रयोग अखिलेश यादव करते हैं ऐसे उदाहरण देश की राजनीति में कम ही मिलेंगे। 



मेरा अखिलेश यादव से परिचय 2012 में हुआ था जब वो पहली बार मुख्यमंत्री बने। मैं मथुरा के विकास के संदर्भ में उनसे मिलने गया था। ब्रज सजाने के लिए उनका उत्साह और तुरंत सक्रियता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मथुरा की हमारी सांसद हेमा मालिनी तक अखिलेश के इस व्यवहार की मुरीद हैं। 2012 से आज तक मैंने अखिलेश यादव के मुँह से कभी भी किसी के भी प्रति न तो अपमानजनक भाषा सुनीं न उन्हें किसी की निंदा करते हुए सुना। विरोधियों को भी सम्मान देना और उनके सही कामों को तत्परता से करना अखिलेश यादव की एक ऐसी विशेषता है जो उनके क़द को बहुत बड़ा बना देती है। 


कई बार कुंठित या चारण क़िस्म की पत्रकारिता करने वाले टीवी एंकर अखिलेश यादव को उकसाने की बहुत कोशिश करते हैं। पर वो बड़ी शालीनता से उस स्थिति को सम्भाल लेते हैं। क्या आज हर दल और नेता को इससे कुछ सीखना नहीं चाहिए? सोचिए अगर ऐसा हो तो उससे देश का राजनैतिक माहौल कितना ख़ुशगवार बन जाएगा। टीवी शो हों या सोशल मीडिया आज हर जगह गाली-गलौज की भाषा सुन-सुनकर देशवासी पक गये हैं।


अखिलेश यादव जैसे सरल स्वभाव वाले व्यक्ति को जो लोग बात-बात पर टोंटी चोर कहकर अपमानित करते हैं उन्हें अपने दल के नेताओं के भी आचरण और कारनामों को भूलना नहीं चाहिए। कोई दूध का धुला नहीं है। टोंटी चोर, फेंकू, जुमलेबाज़, चारा चोर, पप्पू - ऐसी सब भाषा अब इस चुनाव की राजनीति में बंद होनी चाहिए। इस भाषा से ऐसा बोलनेवालों का केवल छिछोरापन दिखाए देता है और देश के सामने मौजूद गंभीर विषयों से ध्यान हट जाता है। कौन सा नेता या दल कितने पानी में ये जनता सब जानती है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें वो वोट देती हैं उन्हें वो पाक साफ़ मानती है। उन्हें वोट देने के उसके कई दूसरे कारण भी होते हैं। इसलिए ज़्यादा वोट पाकर चुनाव जीतने वाले को अपने महान होने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। क्योंकि किसी और को पता हो न हो अपनी असलियत उससे तो कभी छिपी नहीं होती। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि सारी सृष्टि प्रकृति के तीन गुणों: सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण से नियंत्रित है। जिसका कोई भी अपवाद नहीं। हाँ कौन सा गुण किसमें अधिक या क़िसमें कम है, ये अंतर ज़रूर रहता है। पर तमोगुण से रहित तो केवल विरक्त संत या भगवान ही हो सकते हैं, हम और आप नहीं। राजनेता तो कभी हो ही नहीं सकते। क्योंकि राजनीति तो है ही काजल की कोठरी उसमें से उजला कौन निकल पाया है?इसलिए कहता हूँ भाषा सुधारो-देश सुधरेगा। क्यों ठीक है न? 

Monday, December 25, 2023

क्यों जरुरी था अयोध्या का भव्य विकास?


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(ट्विटर) पर एक पोस्ट देखी जिसमें अयोध्या में रामलला के विग्रह को रज़ाई उढ़ाने का मज़ाक़ उड़ाया गया है। उस पर मैंने निम्न पोस्ट लिखी जो शायद आपको रोचक लग। वैष्णव संप्रदायों में साकार ब्रह्म की उपासना होती है। उसमें भगवान के विग्रह को पत्थर, लकड़ी या धातु की मूर्ति नहीं माना जाता। बल्कि उनका जागृत स्वरूप मानकर उनकी सेवा- पूजा एक जीवित व्यक्ति के रूप में की जाती है।


ये सदियों पुरानी परंपरा है। जैसे श्रीलड्डूगोपाल जी के विग्रह को नित्य स्नान कराना, उनका शृंगार करना, उन्हें दिन में अनेक बार भोग लगाना और उन्हें रात्रि में शयन कराना। ये परंपरा हम वैष्णवों के घरों में आज भी चल रही है। ‘जाकी रही भावना जैसी-प्रभु मूरत देखी तीन तैसी।’


इसीलिए सेवा पूजा प्रारंभ करने से पहले भगवान के नये विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। इसका शास्त्रों में संपूर्ण विधि विधान है। जैसा अब रामलला के विग्रह की अयोध्या में भव्य रूप से होने जा रही है।



यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपना चुनावी एजेंडा तय करता है और उसे इस आशा में आगे बढ़ाता है कि उसके जरिये वह दल चुनाव की वैतरणी पार कर लेगा। ‘गरीबी हटाओ’, ‘चुनिए उन्हें जो सरकार चला सकें’ या ‘बहुत हुई महंगाई की मार-अबकी बार मोदी सरकार’ कुछ ऐसे ही नारे थे जिनके सहारे कांग्रेस और भाजपा ने लोक सभा के चुनाव जीते और सरकारें बनाई। इसी तरह ‘सौगंध राम की खाते हैं, हम मंदिर वहीं बनाएंगे’ ये वो नारा था जो संघ परिवार और भाजपा ने 90 के दशक से लगाना शुरू किया और 2024 में उस लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। इसलिए आगामी 22 जनवरी को अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर में भगवान के श्री विग्रहों की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन किया जा रहा है। स्वाभाविक है कि मंदिर का निर्माण पूर्ण हुए बिना ही बीच में इतना भव्य आयोजन 2024 के लोक सभा चुनावों को लक्ष्य करके आयोजित किया जा रहा है। पर ये कोई आलोचना का विषय नहीं हो सकता। 



विगत 33 वर्षों में श्रीराम जन्मभूमि को लेकर जितने विवाद हुए उनपर आजतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। हर पक्ष के अपने तर्क हैं। पर सनातन धर्मी होने के कारण मेरा तो शुरू से यही मत रहा है कि अयोध्या, काशी और मथुरा में हिन्दुओं के धर्म स्थानों पर मौजूद ये मस्जिदें कभी सांप्रदायिक सद्भाव नहीं होने देंगी। क्योंकि अपने तीन प्रमुख देवों श्रीराम, श्री शिव व श्री कृष्ण के तीर्थ स्थलों पर ये मस्जिदें हिन्दुओं को हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी जब मुसलमान आक्रांताओं ने यहां मौजूद हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करके यहां मस्जिदें बनाईं थीं। अपने इस मत को मैंने इन 33 वर्षों में अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में प्रमुखता से प्रकाशित व प्रसारित भी किया। इसलिए आज अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हर आस्थावान हिन्दू के लिए हर्षोल्लास का विषय है।



हर्ष का विषय है कि प्रभु श्रीराम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक की साक्षी रही अयोध्या नगरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भव्य स्तर पर विकसित करने का संकल्प लिया और उसी प्रारूप पर आज अयोध्या का विकास हो रहा है ताकि दुनिया भर से आने वाले भक्त और पर्यटक अयोध्या का वैभव देखकर प्रभावित व प्रसन्न हों। भगवान श्री राम की राजधानी का स्वरूप भव्य होना ही चाहिए।  


एक बात और कि जब मोदी जी प्रधान मंत्री बने और मुझे उनकी ‘ह्रदय योजना’ का राष्ट्रीय सलाहकार नियुक्त किया गया, तब से यह बात मैं सरकार के संज्ञान में सीधे और अपने लेखों के माध्यम से ये बात लाता रहा हूँ कि अयोध्या, काशी और मथुरा का विकास उनकी सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप होना चाहिए एकरूप नहीं। जैसे अयोध्या राजा राम की नगरी है इसलिए उसका स्वरुप राजसी होना चाहिए।  जबकि काशी औघड़ नाथ की नगरी है जहां कंकड़-कंकड़ में शंकर बसते हैं। इसलिए उसका विकास उसी भावना से किया जाना चाहिए था न कि काशी कॉरिडोर बनाकर। क्योंकि इस कॉरिडोर में भोले शंकर की अल्हड़ता का भाव पैदा नहीं होता बल्कि एक राजमहल का भाव पैदा होता है। ऐसा काशी के संतों, दार्शनिकों व सामान्य काशीवासियों का भी कहना है। इसी तरह मथुरा-वृन्दावन में जो कॉरिडोरनुमा निर्माण की बात आजकल हो रही है वह ब्रज की संस्कृति के बिलकुल विपरीत है। यह बात स्वयं  बालकृष्ण नन्द बाबा से कह रहे हैं, नः पुरो जनपदा न ग्रामा गृहावयम्, नित्यं वनौकसतात् वनशैलनिवासिनः (श्रीमदभागवतम, दशम स्कंध, 24 अध्याय व 24 वां श्लोक), बाबा ये पुर, ये जनपद, ये ग्राम हमारे घर नहीं हैं। हम तो वनचर हैं। ये वन और ये पर्वत ही हमारे निवासस्थल हैं। इसलिए ब्रज का विकास तो उसकी प्राकृतिक धरोहरों जैसे कुंड, वन, पर्वत और यमुना का संवर्धन करके होना चाहिए, जहां भगवान श्री राधा-कृष्ण ने अपनी समस्त लीलाएं कीं। पर आज ब्रज तेजी से कंक्रीट का जंगल बनता जा रहा है। इससे ब्रज के रसिक संत और ब्रज भक्त बहुत आहत हैं। हमारे यहां तो कहावत है, ‘वृन्दावन के वृक्ष को मरम न जाने कोय, डाल-डाल और पात पे राधे लिखा होय।’  



यहां एक और गंभीर विषय उठाना आवश्यक है। वह यह कि नव निर्माण के उत्साह में प्राचीन मंदिरों के प्राण प्रतिष्ठित विग्रहों को अपमानित या ध्वस्त न किया जाए, बल्कि उन्हें ससम्मान दूसरे स्थान पर ले जाकर स्थापित कर दिया जाए।यहाँ ये याद रखना भी आवश्यक है कि किसी भी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह की उपेक्षा करना, उनका अपमान करना या उनका विध्वंस करना सनातन धर्म में जघन्य अपराध माना जाता है। इसे ही तालिबानी हमला कहा जाता है। जैसा अनेक मुसलमान शासकों ने मध्य युग में और हाल के वर्षों में कश्मीर, बांग्लादेश व अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों ने किया। इतिहास में प्रमाण हैं कि कुछ हिंदू राजाओं ने भी ऐसा विध्वंस बौद्ध विहारों का किया था।


अगर किसी कारण से किसी प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को या उसके मंदिर को विकास की योजनाओं के लिए वहाँ से हटाना आवश्यक हो तो उसका भी शास्त्रों में पूरा विधि-विधान है। जिसका पालन करके उन्हें श्रद्धा पूर्वक वहाँ से नये स्थान पर ले ज़ाया जा सकता है।

पर उन्हें यूँ ही लापरवाही से उखाड़ कर कूड़े में फेंका नहीं जा सकता। ये सनातन धर्म के विरुद्ध कृत्य माना जाएगा। हर हिंदू इस पाप को करने से डरता है। 

Monday, August 21, 2023

तीर्थों की भीड़ संभालें !

प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी व उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री योगी जी ने हिन्दू तीर्थों के विकास की तरफ जितना ध्यान पिछले सालों में दिया है उतना पिछली दो सदी में किसी ने नही दिया था। ये बात दूसरी है कि उनकी कार्यशैली को लेकर संतों के बीच कुछ मतभेद है। पर आज जिस विषय पर मैं अपनी बात रखना चाहता हूँ उससे हर उस हिन्दू का सरोकार है जो तीर्थाटन में रुचि रखता है। जब से काशी, अयोध्या, उज्जैन व केदारनाथ जैसे तीर्थ स्थलों पर मोदी जी ने विशाल मंदिरों का निर्माण करवाया है, तब से इन सभी तीर्थों पर तीर्थयात्रियों का सागर उमड़ पड़ा है। इतनी भीड़ आ रही है कि कहीं भी तिल रखने को जगह नही मिल रही।

इस परिवर्तन का एक सकारात्मक पहलू ये है कि इससे स्थानीय नागरिकों की आय तेज़ी से बढ़ी है और बड़े स्तर पर रोजगार का सृजन भी हुआ है। स्थानीय नागरिक ही नहीं बाहर से आकार भी लोगों ने इन तीर्थ नगरियों में भारी निवेश किया है। इससे यह भी पता चला है कि अगर देश के अन्य तीर्थ स्थलों का भी विकास किया जाए तो तीर्थाटन व पर्यटन उद्योग में भारी उछाल आ जायेगा। इस विषय में प्रांतीय सरकारों को भी सोचना चाहिए। जहाँ एक तरफ इस तरह के विकास के आर्थिक लाभ हैं वहीं इससे अनेक समस्याएँ भी पैदा हो रही हैं।



उदाहरण के तौर पर अगर मथुरा को ही लें तो बात साफ़ हो जाएगी। आज से 2 वर्ष पहले तक मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन व बरसाना आना-जाना काफ़ी सुगम था। जो आज असंभव जैसा हो गया है। कोविड के बाद से तीर्थाटन के प्रति भी एक नया ज्वार पैदा हो गया है। आज मथुरा के इन तीनों तीर्थ स्थलों पर प्रवेश से पहले वाहनों की इतनी लम्बी कतारें खड़ी रहती हैं कि कभी-कभी तो लोगों को चार-चार घंटे इंतज़ार करना पड़ता है। यही हाल इन कस्बों की सड़कों व गलियों का भी हो गया है। जन सुविधाओं के अभाव में, भारी भीड़ के दबाव में वृन्दावन में बिहारी जी मंदिर के आस-पास आए दिन लोगों के कुचलकर मरने या बेहोश होने की ख़बरें आ रही हैं। भीड़ के दबाव को देखते हुए आधारभूत संरचना में सुधार न हो पाने के कारण आए दिन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। जैसे हाल ही में वृंदावन के एक पुराने मकान का छज्जा गिरने से पांच लोगों की मौत और पांच लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। अब नगर निगम ने वृन्दावन के ऐसे सभी जर्जर भवनों की पहचान करना शुरू किया है जिनसे जान-माल का खतरा हो सकता है। ऐसे सभी भवनों को प्रशासन निकट भविष्य में मकान-मालिकों से या स्वयं ही गिरवा देगा, ऐसे संकेत मिल रहे हैं। ये एक सही कदम होगा। पर इसमें एक सावधानी बरतनी होगी कि जो भवन पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं या जिनकी वास्तुकला ब्रज की संस्कृति को प्रदर्शित करती है, उन्हें गिराने की बजाय उनका जीर्णोद्धार किया जाना चाहिए।



इस सन्दर्भ में यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जो नए निर्माण हो रहे हैं या भविष्य में होंगे उनमें भवन निर्माण के नियमों का पालन नही हो रहा। जिससे अनेक समस्याएँ पैदा हो रही हैं। इस पर कड़ाई से नियंत्रण होना चाहिए। पिछले दिनों यमुना जी की बाढ़ ने जिस तरह वृन्दावन में अपना रौद्र रूप दिखाया उससे स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने यमुना डूब क्षेत्र में हुए सभी अवैध निर्माण गिराने के आदेश दिए हैं। फिर वो चाहें घर हों, आश्रम हों या मंदिर हों। स्थानीय नागरिकों का प्रश्न है कि यमुना के इसी डूब क्षेत्र में हाल के वर्षों जो निर्माण सरकारी संस्थाओं ने बिना दूर-दृष्टि के करवा दिए क्या उनको भी ध्वस्त किया जायेगा?


जहाँ तक तीर्थ नगरियों में भीड़ और यातायात को नियंत्रित करने का प्रश्न है इस दिशा में प्रधान मंत्री मोदी जी को विशेष ध्यान देना चाहिए। हालांकि यह विषय राज्य का होता है लेकिन समस्या सब जगह एक सी है। इसलिए इस पर एक व्यापक सोच और नीति की ज़रूरत है, जिससे प्रांतीय सरकारों को हल ढूँढने में मदद मिल सके। वैसे आन्ध्र प्रदेश के तीर्थ स्थल तिरुपति बालाजी का उदाहरण सामने है जहाँ लाखों तीर्थयात्री बिना किसी असुविधा के दर्शन लाभ प्राप्त करते हैं। जबकि मुख्य मंदिर का प्रांगण बहुत छोटा है और उसका विस्तार करने की बात कभी सोची नही गई। इसी तरह अगर काशी, मथुरा व उज्जैन जैसे तीर्थ नगरों की यातायात व्यवस्था पर इस विषय के जानकारों और विशेषज्ञों की मदद ली जाए तो विकराल होती इस समस्या का हल निकल सकता है।


तीर्थ स्थलों के विकास की इतनी व्यापक योजनाएँ चलाकर प्रधान मंत्री मोदी जी ने आज सारी दुनिया का ध्यान सनातन हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित किया है। स्वाभाविक है कि इससे आकर्षित होकर देशी पर्यटक ही नही बल्कि विदेशों से भी भारी मात्रा में पर्यटक इन तीर्थ नगरों को देखने आ रहे हैं। अगर उन्हें इन नगरों में बुनियादी सुविधाएँ भी नही मिलीं या भारी भीड़ के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ा, तो इससे एक ग़लत संदेश जायेगा। इसलिए तीर्थों के विकास के साथ आधारभूत ढांचे के विकास पर भी ध्यान देना चाहिए। केंद्र और राज्य की सरकारें हमारे धर्मक्षेत्रों को सजाएं-संवारें तो सबसे ज्यादा हर्ष हम जैसे करोड़ों धर्म प्रेमियों को होगा, पर धाम सेवा के नाम पर, अगर छलावा, ढोंग और घोटाले होंगे तो भगवान तो रुष्ट होंगे ही, भाजपा की भी छवि खराब होगी।


2008 से मैं, अपने साप्ताहिक लेखों में मोदी जी के कुछ अभूतपूर्व प्रयोगों की चर्चा करता रहा हूँ जो उन्होंने गुजरात का मुख्य मंत्री रहते हुए किये थे। जैसे हर समस्या के हल के लिए उसके विशेषज्ञों को बुलाना और उनकी सलाह को नौकरशाही से ज्यादा वरीयता देना। ऐसा ही प्रयोग इन तीर्थ नगरों के लिए किया जाना चाहिए क्योंकि कानून-व्यवस्था की दैनिक जिम्मेदारी में उलझा हुआ जिला-प्रशासन इस तरह की नई जिम्मेदारियों को सँभालने के लिए न तो सक्षम होता है और न उसके पास इतनी ऊर्जा और समय होता है। इसलिए समाधान गैर-पारंपरिक तरीकों से निकला जाना चाहिए। 

Monday, April 17, 2023

क्यों उठते हैं एनकाउंटर पर सवाल?


उत्तर प्रदेश के व्यापारी आजकल कहते हैं कि योगी राज में मुसलमानों का आतंक ख़त्म हो गया है। इसलिये माफिया डॉन अतीक अहमद के बेटे असद अहमद की एनकाउंटर में मौत का समाचार उन लोगों को सुखद लगा। एनकाउंटर के विषय में कुछ तथ्य और क़ानूनी पेचीदगियों का ज़िक्र मैं इस लेख में आगे करूँगा। पर यहाँ एक सवाल जो समाजवादी पार्टी ने उठाया है वो भी महत्वपूर्ण है। वो ये कि ऐन चुनावों के पहले ही इस एनकाउंटर को करने का योगी सरकार का क्या उद्देश्य था? सिवाय इसके कि इस एनकाउंटर की खबर को दिन-रात टीवी चैनलों पर चलवाकर इसका फ़ायदा अगले महीने होने वाले निकायों के चुनावों में लिया जाए। इसलिये सरकार की नीयत पर शक होता है। क़ानून की नज़र में सब बराबर होने चाहिए। किसी अपराधी का कोई जाति या धर्म नहीं होता। इसलिए बिना भय और पक्षपात के अगर प्रदेश के माफ़ियाओं के विरुद्ध योगी सरकार कड़े कदम उठाती है तो उसका स्वागत ही होगा। पर ऐसे कदम सब अपराधियों पर एक समान उठाए जाने चाहिए, जो आज नहीं हो रहा है। हत्या, बलात्कार और पुलिस उत्पीड़न के शिकार कितने ही लोगों को न्याय नहीं मिल रहा। फ़रियादी हताश होकर आत्महत्या तक कर रहे हैं ऐसी खबरें अक्सर सामने आती रहती है। उत्तर प्रदेश के एक विशेष जाति के माफ़ियाओं की सूची आज कल सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है जिसमें योगी सरकार से पूछा जा रहा है कि इन माफ़ियाओं के विरुद्ध आजतक ‘बुलडोज़रनुमा’ कार्यवाही क्यों नहीं हुई? उनमें से किसी का एनकाउंटर क्यों नहीं होता? उत्तर प्रदेश सरकार की इस नीति के विरुद्ध भी बहुत लोगों को आक्रोश है।



एनकाउंटर उमेश पाल के आरोपियों का हो या किसी अन्य का जब भी उस पर सवाल उठते हैं तो मामला जाँच कमेटी के पास पहुँचता है। आपको याद होगा कि कुछ ही समय पहले नवंबर 2019 में तेलंगाना राज्य के हैदराबाद में हुए गैंगरेप और हत्या के चार अभियुक्तों के संदिग्ध एनकाउंटर को सर्वोच्च न्यायालय की जाँच समिति ने फ़र्ज़ी पाया। जाँच समिति द्वारा इन पुलिसवालों पर हत्या का मुक़द्दमा चलाने की सिफ़ारिश भी की गई। 


पाठकों को याद होगा कि जब यह एनकाउंटर हुआ था, तब लोगों ने पुलिस का समर्थन करते हुए भारी जश्न मनाया था। जैसा असद व अन्य आरोपियों के एनकाउंटर पर भी हो रहा है। वहीं दूसरी ओर हमेश की तरह पुलिस एनकाउंटर पर तमाम सवाल भी खड़े हो रहे हैं। प्रायः ऐसा मान लिया जाता है कि पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर फ़र्ज़ी ही होते हैं। एनकाउंटर कब और कैसे होते हैं इस बात पर कोई विशेष ध्यान नहीं देता। 


क़ानून की बात करें तो देश में मौजूद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) दोनों में ही एनकाउंटर का कोई भी ज़िक्र नहीं है। तो फिर सवाल उठता है कि पुलिस एनकाउंटर आख़िर है क्या? यदि कोई भी पुलिसकर्मी आत्मरक्षा में सामने वाले पर गोली चलाता है तो उसे सामान्य भाषा में एनकाउंटर माना जाता है। तो क्या पुलिस किसी भी अपराधी पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है? नहीं ऐसा नहीं है। 



जब कभी भी पुलिस को किसी अपराधी के बारे में सूचना मिलती है और वह उसे गिरफ़्तार करने जाती है, तो अगर वो अपराधी आत्मसमर्पण कर देता है तब पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं कर सकती। यदि कोई कुख्यात अपराधी, जिसे उम्र क़ैद या उससे ज़्यादा सज़ा हो सकती है और वो गिरफ़्तारी से बचने के लिए भागने का प्रयास करता है और पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती, तो उस सूरत में पुलिस उसे ज़ख़्मी करने की नियत से उसके शरीर के किसी भी हिस्से में गोली मार सकती है। प्रायः ये गोली उसकी टांगों में मारी जाती है। जिससे वह ज़्यादा दूर न भाग सके और उसे गिरफ़्तार कर लिया जाए। यदि ऐसे किसी अपराधी के पास कोई जान लेवा हथियार होता है और वो पुलिस पर वार करता है, तो केवल उस सूरत में पुलिस उस पर आत्मरक्षा में गोली चला सकती है। 


मुंबई पुलिस के बहुचर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक और प्रदीप शर्मा से जब किसी पत्रकार ने पूछा कि मुंबई में अपराधियों की सफ़ाई के लिए आप दोनो को ही श्रेय दिया जाता है तो, उनका कहना था कि, हम तो अपराधियों को पकड़ने के लिए ही जाते हैं, लेकिन वो जब हम पर वार करते हैं तो हमें भी पलटवार करना पड़ता है। अपराधियों को भी पता है कि यदि वो पुलिस के हत्थे चढ़े तो कई सालों तक जेल के बाहर नहीं आएँगे। इसलिए इन सब से बच कर भागने के प्रयास में वे पुलिस की गोली का शिकार हो जाते हैं। उनके अनुसार 97-98 में जब मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक चरम पर था तब सरकार कड़े क़ानून ले कर आई। अपराधी इन्हीं कड़े क़ानूनों से बचने की पुरज़ोर कोशिश में मारा जाता है। इसी के बाद से मुंबई के अंडरवर्ल्ड में एनकाउंटर का भय बढ़ने लगा। कारण चाहे कुछ और भी रहे हों पर मुंबई में गैंगस्टरों का आतंक थमने लगा।    



पुलिस एनकाउंटर को बॉलीवुड की कई फ़िल्मों में भी दिखाया गया हैं। जहां ज़्यादातर एनकाउंटर को ऐसे दर्शाया जाता है कि भले ही वो एनकाउंटर फ़र्ज़ी हो, लेकिन जाँच में असली ही पाया जाए। लेकिन यदि किसी भी एनकाउंटर की योजना ग़लत नीयत से की जाती है तो वो आज नहीं तो कल पकड़ा ही जाता है। 


इस बात के कई प्रमाण भी हैं जहां फ़र्ज़ी एनकाउंटर करने पर पुलिस वालों को सज़ा भी हुई है। इसका मतलब यह नहीं होता कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। जनता में पुलिस पर विश्वास की कमी होने के कारण ऐसी धारणा बन जाती है की ज़्यादातर एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। 


एक पूर्व आईपीएस अधिकारी ने दिल्ली में 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर का हवाला देते हुए बताया कि, पुलिस को ज़्यादातर मामलों में इस बात का पता होता है कि वो जहां गिरफ़्तारी करने जा रही हैं वहाँ कितना ख़तरा हो सकता है। ऐसे एनकाउंटर को एक सुनियोजित एनकाउंटर कहा जाता है। ऐसे एनकाउंटर में पुलिस की टीम पूरी तैयारी के साथ जाती है। 


बाटला हाउस में सब जानकारी के बावजूद दिल्ली पुलिस के एक बहादुर अफ़सर मोहन चंद शर्मा शहीद हुए थे। पुलिस एनकाउंटर में काफ़ी ख़तरा होता है। पुलिसकर्मी भी घायल होते हैं, परंतु ऐसा मान लेना कि सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं सही नहीं। दोषियों को सज़ा देना अदालत का काम होता है न कि पुलिस का। लेकिन पुलिसकर्मी यदि आत्मरक्षा में गोली चलाता है तो उसे हमेशा ग़लत नहीं समझना चाहिए। 


एनकाउंटर करने के लिए जिन अनुभवी पुलिसकर्मियों को चुना जाता है, उन्हें एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहा जाता है। एनकाउंटर जोखिम भरा होता है और ऐसा जोखिम हर कोई नहीं ले सकता। उसके लिए हथियारों को सही ढंग से चलाना और सामने वाले से बेहतर निशाना लगाना आना चाहिए। परंतु ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट प्रायः विवादों में भी घिरे रहते हैं। जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह कुछ एनकाउंटर स्पेशलिस्ट के घमंड और कभी-कभी उसके भ्रष्टाचार के चलते हर पुलिस एनकाउंटर को शक की निगाह से ही देखा जाता है। ख़ासकर जब राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के पाले हुए गुंडों का एंकाउंटर होता है तब तो जनता के मन में ऐसे ही सवाल उठते हैं कि ऐसे सभी एनकाउंटर फ़र्ज़ी होते हैं। परंतु सच्चाई तो जाँच के बाद ही सामने आती है। 

Monday, January 23, 2023

बिना बिहारी जी कैसे बनेगा कॉरिडोर?


असम की राजधानी गोहाटी में स्थित कामाख्या देवी मंदिर की सेवा पूजा वंशानुगत सेवायत करते आ रहे थे। लेकिन असम सरकार ने धर्मार्थ बोर्ड बना कर उन्हें उनके अधिकार से वंचित कर दिया था। लेकिन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद में फ़ैसला देते हुए सेवायतों (बोरदुरी समाज) के वंशानुगत अधिकार को बहाल कर दिया। ये बात मैंने वृंदावन के श्री बाँके बिहारी मंदिर के सेवायतों को तभी बताई थी। गत कुछ महीनों से बिहारी जी मंदिर और उसके आस-पास रहने वाले गोस्वामी परिवार, अन्य ब्रजवासी व दुकानदार बहुत आंदोलित हैं। क्योंकि सरकार ने यहाँ भी काशी की तरह ‘बाँके बिहारी कॉरिडोर’ बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिसके विरुद्ध वृंदावन में जन-आंदोलन छिड़ा हुआ है। रोज़ाना प्रदर्शन और धरने हो रहे हैं। इस मामले में अब अचानक एक नया मोड़ आ गया है। आंदोलनकारी गोस्वामियों ने घोषणा की है कि वे ठाकुर बाँके बिहारी के विग्रह को यहाँ से उठा कर ले जाएँगे और चूँकि मंदिर समिति के कोष में 150 करोड़ से ज़्यादा रुपया जमा है इसलिए वे 10 एकड़ ज़मीन ख़रीद कर वृंदावन में दूसरी जगह बाँके बिहारी का भव्य मंदिर बना लेंगे। 

उनकी इस घोषणा से योगी सरकार में हड़कंप मच गया है। क्योंकि अगर ठाकुर जी ही वहाँ नहीं रहेंगे तो सरकार ‘कॉरिडोर’ किसके नाम पर बनाएगी? कामख्या देवी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार बाँके  बिहारी जी के विग्रह पर वंशानुगत सेवायत गोस्वामियों का ही अधिकार है। दरअसल, आधुनिकता के नाम पर अयोध्या, काशी और मथुरा को जिस तरह ‘पर्यटन केंद्र’ के रूप में विकसित किया जा रहा है उससे सनातन धर्मी समाज की आस्था को गहरा आघात लगा है। सदियों से पूजित प्राण प्रतिष्ठित विग्रहों को और मंदिरों को जिस बेदर्दी से, बुलडोज़रों से, अयोध्या और काशी में तोड़ा गया उससे संतों, भक्तों, अयोध्यावासियों और काशीवासियों को भारी पीड़ा पहुँची है। 


वृंदावन में ‘बिहारी जी कॉरिडोर’ को लेकर जहां एक ओर सरकार ये तर्क देती है कि इससे व्यवस्था में सुधार होगा। वहीं दूसरी ओर वृंदावन में धरने पर बैठे गोस्वामी और ब्रजवासी ये सवाल पूछते हैं कि योगी महाराज की अध्यक्षता में बने ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पिछले पाँच सालों में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च कर दिये उससे तीर्थ का क्या विकास हुआ? क्या यमुना महारानी साफ़ हो गईं? क्या वृंदावन मथुरा की गन्दगी साफ़ हो गई? क्या इन तीर्थस्थलों में आने वाले लाखों तीर्थ यात्रियों की सुविधाएँ बढ़ीं या परेशानियाँ बढ़ीं? क्या गौशालाओं और आश्रमों पर फ़र्ज़ी दस्तावेज़ बना कर क़ब्ज़ा करने वालों पर कोई जाँच या क़ानूनी कार्यवाही हुई? क्या बंदरों की समस्या से निजात मिला? क्या परिक्रमा जन उपयोगी बन पाई? क्या वृंदावन की ट्रैफिक समस्या दुरुस्त हुई? क्या वृंदावन में यमुना के तट पर बने अवैध आश्रमों और कॉलोनियों को एनजीटी के आदेशानुसार हटाया गया? क्या वृंदावन में रात-दिन हो रहे अवैध निर्माणों पर कोई रोक लगी? इन सभी प्रश्नों का उत्तर सरकार के पास नहीं है। 

दूसरी तरफ़ ब्रजवासियों को यह चिंता है कि वृंदावन में तीर्थ विकास के नाम पर सरकार हज़ारों करोड़ रुपये की जिन योजनाओं की घोषणाएँ कर रही है उनका संतों, भक्तों, तीर्थयात्रियों व ब्रजवासियों को कोई लाभ नहीं मिलेगा। ये सब परियोजनाएँ तो बाहर से आनेवाले निवेशकों, भू-माफ़ियाओं और कॉलोनाईज़र्स के फ़ायदे के लिए बनाई जा रही है। आंदोलनकारी कहते हैं कि, कॉरिडोर के नाम पर छटीकरा, सुनरख से लेकर बेगमपुर, जहांगीरपुर, क़ब्ज़ा की गई गौशालाओं तक सभी जमीनों के रेट कई गुना बढ़ चुके हैं। वृन्दावन अब छोटा पड़ गया है। अधिकतर आश्रमों की भूमि, गौशालाएं, तालाब, पार्क, धर्मशालाओं पर क़ब्ज़े हो चुके हैं और इनमें प्लाट काटकर ऊँचे दामों पर बेचे जा रहे हैं। कमाने वाले तो कमाकर चले गए। अब अगर कॉरिडोर बना तो पिकनिक करने आने वालों के लिए होटल बनेंगे, दुकानें बनेंगी बड़े-बड़े मॉल बनेंगी। लुटे-पिटे ब्रजवासी तो चटाई पर बैठकर भजन करेंगे। अव्यवस्थाएं पहले भी थीं सभी मंदिरों में, आज भी हैं, आगे भी रहेंगी वो नहीं बदलने वाली। बिहारी जी का कॉरिडोर बनाकर क्या वृन्दावन की सभी समस्याओं का हल हो जायेगा? 


तीर्थ की समस्याओं का हल तभी हो सकता है जबकि हल खोजने वाले अफ़सर और नेता निष्काम भावना से सोचें और काम करें। स्थानीय परंपराओं, धार्मिक मान्यताओं, दार्शनिक विद्वानों, आचार्यों और शास्त्रों को महत्व दें। उनके निर्देशों का पालन करें। पर ऐसा नहीं हो रहा है। तीर्थ स्थलों के विकास के नाम पर मुनाफ़ाख़ोरी और व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिसमें दूसरे राज्यों के निवेशकों को पैसा कमाने के ढेरों अवसर दिये जा रहे हैं। तीर्थों में रहने वाले स्थानीय लोगों को इस सारे कारोबार से दूर रखा जा रहा है। सरकार के इसी रवैये का परिणाम है कि आज देवभूमि हिमालय के अस्तित्व को भी ख़तरा हो गया है। मथुरा के तीर्थ विकास के लिये योगी जी की अध्यक्षता में बनी ‘उत्तर प्रदेश ब्रज तीर्थ विकास परिषद’ के उपाध्यक्ष शैलजाकांत मिश्रा से गत पाँच वर्षों से मैं बार-बार सोशल मीडिया पर लिख कर पूछ रहा हूँ कि इस परिषद का बिना नियमानुसार गठन किए उन्होंने अरबों रुपये की परियोजनाएँ किसकी सलाह पर बनवा दी? क्योंकि ख़ुद तो इस कार्य का उन्हें कोई अनुभव नहीं है। वे आजतक अपनी परिषद के मुख्य उद्देश्य अनुसार ब्रज का तीर्थाटन मास्टर प्लान क्यों नहीं बना पाए? वे अपनी परियोजनाओं की डीपीआर और आय-व्यय का लेखा-जोखा सार्वजनिक करने से क्यों डरते हैं? ब्रजवासियों और स्थानीय पत्रकारों की आरटीआई का जवाब देने से उनकी परिषद क्यों बचती है? 


चिंता की बात यह है कि मय-प्रमाण इन सारे मुद्दों को हम जैसे आम ब्रजवासी ही नहीं ख़ुद आरएसएस और भाजपा के लोग भी समय-समय पर मुख्य मंत्री योगी जी व संघ प्रमुख के संज्ञान में लाते रहे हैं। पर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। नेतृत्व की इस उपेक्षा व उदासीनता के कारण ही ब्रज जैसे तीर्थों का लगातार विनाश हो रहा है। अब वे तीर्थ न हो कर पर्यटकों के मनोरंजन के स्थल बनते जा रहे हैं। पहले लोग यहाँ श्रद्धा से पूजा, आराधना या दर्शन करने आते थे। अब मौज मस्ती करने और वहाँ की चमक-दमक देखने आते हैं। आस्था की जगह अब हवस ने ले ली है। इस तरह न तो तीर्थों की गरिमा बचेगी और न ही सनातन धर्म।
 

Monday, October 17, 2022

‘नेता जी’ के राजकीय सम्मान में अव्यवस्था क्यों?



समाजवादी पार्टी के संस्थापक, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री व देश के पूर्व रक्षा मंत्री ‘धरतीपुत्र’ मुलायम सिंह यादव के स्वर्गवास पर देश भर से आए शोक संदेशों से सोशल मीडिया भरा रहा। उनका अंतिम सरकार उनके गाँव सैफ़ई (इटावा) में योगी सरकार द्वारा पूर्ण राजकीय सम्मान से होना घोषित किया गया। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक भी घोषित किया। बीते मंगलवार को सैफ़ई में उनका अंतिम संस्कार हुआ। देश भर से अनेकों मुख्यमंत्रियों, नेताओं व केंद्रीय मन्त्रियों के सैफ़ई आने की सूचना भी समय से आने लगी। इनमें उत्तर प्रदेश सरकार के कई मंत्री, फ़िल्म व उद्योग जगत की बड़ी हस्तियाँ भी शामिल थीं। परंतु इन सभी को जिस अव्यवस्था का सामना करना पड़ा वो योगी सरकार की व प्रशासन की मंशा पर कई सवाल उठाती है। यहाँ तक कि केंद्र सरकार में मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति की तो धक्कामुक्की में हाथ की हड्डी ही टूट गई। 


दरअसल ‘नेता जी’ की मृत्यु का समाचार मिलते ही जिस तत्पर्ता से राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री ने संवेदना व्यक्त की गृहमंत्री अमित शाह समेत कई बड़े नेताओं ने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में जा कर या अखिलेश यादव से फ़ोन पर श्रद्धांजली अर्पित की। वैसी ही तत्पर्ता अगर उनके अंतिम संस्कार की तैयारी पर दिखाई होती और प्रशासन को उचित निर्देश दिए गये होते तो शायद ऐसी बदइंतज़ामी न होती जैसी सबको उस दिन झेलनी पड़ी। 



राजकीय सम्मान का ऐलान संबंधित राज्य का मुख्यमंत्री अपने वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगियों के परामर्श के बाद ही करता है। फैसला लेने के बाद इसे मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक की मार्फ़त उस ज़िले के ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक सहित सभी अधिकारियों को सूचित किया जाता है। जिससे कि वे राजकीय अंतिम संस्कार के लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर सकें। 


राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि के दौरान पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा जाना, पूर्ण सैन्य सम्मान दिया जाना, मिलिट्री बैंड द्वारा ‘शोक संगीत’ बजाना और इसके बाद बंदूकों की सलामी देना आदि भी शामिल हैं। इसके साथ ही अंतिम संस्कार स्थल पर समुचित सुरक्षा, क़ानून व्यवस्था बनाना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। अंत्येष्टि में भाग लेने वाले अतिविशिष्ट व्यक्तियों को भीड़ से अलग बैठने की व्यवस्था करना इस व्यवस्था का अंग होता है। जिसमें इन सभी अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए समुचित प्रोटोकॉल उपलब्ध करना भी शामिल होता है। इस पंडाल में बैठने वाले अतिविशिष्ट लोग दाह संस्कार पूरा होने तक वहीं बैठे रहते हैं। संस्कार की समाप्ति पर पहले इन अतिविशिष्ट व्यक्तियों को सुरक्षित मार्ग से, बिना व्यवधान के, बाहर पहुँचाया जाता है और तब तक आम जनता को रोके रखा जाता है।        


पहले राजकीय शोक व राजकीय सम्मान का ऐलान सिर्फ प्रधानमंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों (पूर्व या वर्तमान) के निधन पर ही किया जाता था। हालांकि, अब यह सम्मान उन सभी हस्तियों को दिया जाता है, जिन्होंने राष्ट्र के नाम को ऊंचा करने के लिए काम किया हो। अलग-अलग क्षेत्रों जैसे, राजनीति, कला, कानून, विज्ञान, साहित्य आदि में बड़ा योगदान देने वाले लोगों के सम्मान में राजकीय शोक घोषित किया जाता है। उनके कद और काम को देखते हुए राज्य सरकार यह फैसला लेती है। जैसा हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने स्वर साम्रग्गी लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार के समय किया था।  



‘नेता जी’ से मेरा बहुत पुराना सम्पर्क था। इसके चलते मंगलवार को मैं भी सैफ़ई गया और ‘नेता जी’ के परिवार को अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की। परंतु सैफ़ई में जो हाल मैंने देखा वो काफ़ी विचलित करने वाला था। लाखों लोगों के लोकप्रिय ‘नेता जी’ के देहावसान पर उत्तर प्रदेश की सरकार ने सैफ़ई में ऐसा कुछ भी नहीं किया जो ‘नेता जी’ की गरिमा के अनुकूल होता। सारे देश से अनेक बड़े नेता, मुख्यमंत्री, उद्योग और फ़िल्म जगत की हस्तियाँ और लाखों लोग ‘नेता जी’ को श्र्द्धांजली अर्पित करने सैफ़ई पहुँचे। पर भारी अव्यवस्था के कारण बेहद परेशान हुए। धक्कामुक्की में तमाम नेता कुचल गए। अनेकों को चोटें भी लगी। खुद अखिलेश यादव तक अपने पिता के पार्थिव शरीर के पास सीधे खड़े नहीं रह पा रहे थे। उन्हें बार-बार भीड़ के धक्के लग रहे थे। 


पुलिस बड़ी संख्या में सारे सैफ़ई में मौजूद थी पर खड़ी तमाशा देखती रही। न तो यातायात की व्यवस्था सुचारु की और न ही अंतिम संस्कार स्थल पर भीड़ को निर्देशित और नियंत्रित करने का काम किया। प्रशासन केवल औपचारिकता निभा रहा था। आसपास के ज़िलों से बुलाए गए दर्जनों मजिस्ट्रेट व अन्य अधिकारी, जिनमें से कुछ को अतिविशिष्ट व्यक्तियों की अगवानी करनी थी, वे भी भ्रमित से नज़र आ रहे थे। जबकि ‘नेता जी’ का देहांत हुए 24 घंटे हो चुके थे। इतना समय काफ़ी होता है प्रशासन के लिए व्यवहारिक योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना। ऐसा इंतेजाम हर प्रशासनिक अधिकारी को अपने कार्यकाल में कई बार करना पड़ता है। इसलिए इसे अनुभवहीनता कह कर बचा नहीं जा सकता। प्रशासन की ऐसी लापरवाही के कारण लाखों लोग बदहवास हो कर वहाँ धक्के खा रहे थे। अपने घोर दुश्मन रावण की मृत्यु पर भगवान श्री राम ने उसका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया और लक्ष्मण जी को यह ज्ञान दिया कि मरने के बाद सारा वैर समाप्त हो जाता है। इसलिए मानना चाहिए कि इस अव्यवस्था के पीछे कोई वैर की भावना नहीं रही होगी। इसलिए योगी जी को पूरे मामले की जाँच करवानी चाहिए और दोषी अधिकारियों को सज़ा देनी चाहिए। 


यहाँ मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस अव्यवस्था के लिए समाजवादी दल के कार्यकर्ता भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। अनेक राजनैतिक दलों के समर्पित कार्यकर्ता ऐसे मौक़ों पर खुद अनुशासित रह कर अपने लाखों समर्थकों को भी अनुशासित रखने का प्रयास पूरी ज़िम्मेदारी से करते हैं। फिर वो चाहे शपथ ग्रहण समारोह हो या कोई अन्य अवसर। ‘नेता जी’ के जाने के बाद समाजवादी दल का सारा बोझ अखिलेश यादव के कंधों पर आ गया है। इसलिए दल के अनुभवी और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं, विशेषकर फ़ौज या पुलिस में नौकरी कर चुके कार्यकर्ताओं को बाक़ायदा शिविर लगा कर अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित रहने का प्रशिक्षण देना चाहिए। जिससे भविष्य में ऐसी अव्यवस्था देखने को न मिले।