भ्रष्टाचार के विरूद्ध कुछ वर्ष पहले पूरे हिंदुस्तान में तूफान खड़ा करने
वाली सिविल सोसाईटी अचानक कहां गायब हो गई। यह एक नई बात यह
दिख रही है कि स्वयंसेवी सामाजिक संगठन अचानक निष्क्रिय हो गये हैं। यह अनुमान
लगाना मुश्किल है कि ये निष्क्रियता अस्थायी
है या किसी थकान का नतीजा है। दोनों स्थितियां एक साथ भी हो सकती हैं।
क्योंकि देश में सामाजिक क्षेत्र में काम कर रही तमाम गैर सरकारी संस्थाएं पिछले
दो दशकों से वाकई जबर्दस्त हलचल मचाए हुए थीं। आजकल वह हलचल लगभग ठप है। चाहे
भ्रष्टाचार हो, चाहे पर्यावरण हो या दूसरी
सामाजिक समस्याएं उन्हें लेकर आंदोलनों, विरोध
प्रदर्शनों और विचार विमर्शो के आयोजन अब दुर्लभ हो गए हैं।
महंगाई, बेरोजगारी, बंधुआ मजदूरी, महिलाओं पर अत्याचार, प्रदूषण, भ्रष्टाचार को लेकर जंतर मंतर पर
होने वाले प्रतीकात्मक धरनों प्रदर्शनों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी आयी है।
क्या ये सोच विचार का एक मुददा नहीं होना चाहिए। और अगर सोचना
शुरू करेंगे तो देश में राजनीतिक और सामाजिक वातावरण में आए बदलावों को सामने रखकर
ही सोचना पड़ेगा। खासतौर पर इसलिए क्योंकि दो-तीन साल में एक बड़ा बदलाव केंद्र में
सत्ता परिवर्तन हुआ है। उसके पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक लंबा जन जागरण अभियान
चलाया गया था। ज्यादातर राजनीतिक विश्लेषक मानते ही हैं कि पूर्व सरकार की छवि नाश
करने में उस अभियान ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। वह सामाजिक आंदोलन या जन आंदोलन
सिर्फ विरोध करने के लिए भी नहीं था। उस आंदोलन में बाकायदा एक मांग थी कि
भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल का कानून बनाया जाए। यानी सामाजिक संस्थाओं ने बाकायदा
एक विशेषज्ञ के किरदार में आते हुए लोकपाल को सबसे कारगर हथियार साबित कर दिया था।
बहरहाल सत्ता बदल गई। नए माहौल में वह आंदोलन भी ठंडा पड़ गया। दूसरे छुटपुट
आंदोलन जो चला करते थे वे भी बंद से हो गए। और तो और मीडिया का मिजाज भी बदल गया।
यानी लोकपाल को लेकर बात आई गई हो गई।
इन तथ्यों के आधार पर क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि सामातिक
संस्थाएं और मीडिया इतना असरदार होता है कि वह जब चाहे जिस समस्या को जितना बड़ा
बनाना चाहे उतना बड़ा बना सकता है। और जब चाहे उसी समस्या को उतना ही छोटा भी बना
सकता है। इसका मतलब यह निकाला जा सकता है कि बिना लोकपाल का गठन हुए ही भ्रष्टाचार
कम या खत्म हो गया है। इसीलिए शायद सामाजिक संगठनों ने अब आंदोलन करना बंद कर दिया
है। पर ऐसा नहीं है। फिर इस निष्क्रियता से क्या सिविल सोसाइटी की विश्वसनीयता पर
प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता है। लेकिन मौजूदा माहौल ही कुछ इस तरह का है कि इन
मुद्दों पर बात नहीं हो रही है।
लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार और कालेधन पर जितना कारगर आंदोलन तीन-चार
साल पहले चला था, उस दौरान हम विरोध के नए और
कारगर तरीके जान गए थे। अभी भले न सही लेकिन जब भी माहौल बनेगा वे तरीके काम में
लाए जा सकते हैं। यह भी हो सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उन तरीकों को एक बार
अपनाए जाने के बाद उनकी धार कुंद पड़ गई हो। लेकिन दूसरे और मुददों के खिलाफ वैसे
आंदोलन और हलचल पैदा करना सीखा जा चुका है। अब देखना यह होगा कि सामाजिक संगठन
भविष्य में अगर फिर कभी सक्रिय होते हैं तो वे किस मुददे पर उठेंगे।
सामाजिक संगठनों के लिए बेरोजगारी और महंगाई और प्रदूषण जैसे मुददे आज भी
कारगर हो सकते थे। लेकिन देश में पिछले दो महीने से नोटबंदी ने कामधंधे और खेती
किसानी के अलावा और कोई बात करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है। देश में उत्पादन
बढ़ाने के काम में सामाजिक संगठन ज्यादा कुछ कर नहीं सकते। कुछ भी करने के लिए अगर
कुछ करना हो तो स्वयंसेवी संस्थाएं आर्थिक क्षेत्र में सरकारी नीतियों और
कार्यक्रम बनवाने में हस्तक्षेप की भूमिका भर ही निभा सकती हैं। लेकिन यह काम इतनी
विशेषज्ञता का काम है कि अपने देश में सामाजिक क्षेत्र की गैर सरकारी संस्थाएं ऐसे
विशेषज्ञ कार्य में ज्यादा सक्षम नहीं हो पाई हैं। वैसे भी इस तरह के कामों में
सामजस्यपूर्ण व्यवहार की दरकार होती है। जबकि पिछले दो दशकों में हमने अपनी
स्वयंसेवी संस्थाओं को सिर्फ विरोध और संघर्ष के व्यवहार में अपना ही विकास करते
देखा है।
देश के मौजूदा हालात में जब मीडिया ही अपने लिए सुरक्षित खबरों और चर्चाओं
को ढूंढने में लगा हो तो इस मामले में स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने तो और भी बड़ा
संकट है। ये संस्थाएं अब प्रदूषण जैसी समस्या पर भी अपनी सक्रियता बढ़ाने से परहेज
कर रही हैं। दरअसल नदियों की साफ-सफाई का काम शहर-कस्बों में गंदगी कम करने के काम
से जुड़ा है। यानी प्रदूषण की बात करेंगे तो देश में चालू स्वच्छता अभियान में
मीनमेख निकालने पड़ेंगे और किसी भी मामले में मीनमेख निकालने का ये माकूल वक्त नहीं
है।
कुल मिलाकर स्वयंसेवी संस्थाओं को काम करने की गुंजाइश पैदा करना हो तो
उन्हें उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जिनमें मौजूदा सरकार से संघर्ष की स्थिति
न बनती हो। आज की स्थिति यह है कि जो भी संघर्ष के किरदार में दिखता है वह सरकार
के राष्ट्र निर्माण के काम में विघ्नकारी माना जाने लगा है। एक बार फिर दोहराया जा
सकता है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली संस्थाओं के सामने मुददों का संकट
खड़ा हो गया है।