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Sunday, May 20, 2012

भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भर्ती क्यों करना चाहते हैं चिदंबरम?

पिछले कुछ समय से देश के गृह मंत्री भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की आपूर्ति में कमी को लेकर परेशान हैं। विभिन्न राज्यों की निरन्तर बढ़ती पुलिस बल की मांग और आतंकवाद व नक्सलवाद से जूझने के लिए नए संगठनों की संरचना आदि के लिए श्री चिदंबरम को मौजूदा कोटे से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की जरूरत महसूस हो रही है। जिसके लिए वे ‘शॉर्ट सर्विस कमीशन’ जैसी व्यवस्था बनाकर भा.पु.से. में सीधे भर्ती करना चाहते हैं, जिससे नियुक्ति करने के लिए गृहमंत्री को संघ लोक सेवा आयोग की एक लम्बी चयन प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। उनके इस प्रयास से भा.पु.से. कैडर में बहुत बैचेनी है। देशभर में फैले भा.पु.से. के अधिकारियों को डर है कि इस तरह की व्यवस्था से भा.पु.से. का चरित्र बिगड़ जाऐगा और उससे पूरे काडर का मनोबल टूट जाऐगा। क्योंकि इन नई भर्तियों से भा.पु.से. में ऐसे अधिकारी आ जाऐंगे, जिन्हें एक लम्बी और जटिल चयन प्रक्रिया से नहीं गुजारा गया है।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भा.पु.से. की चयन नियमावली के अनुसार 1954 में नियम-7 (2) के तहत भारत सरकार ने यह साफ घोषणा कर दी थी कि भा.पु.से. का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से ही किया जाऐगा। हालांकि सेवा निवृत्त भा.पु.से. अधिकारी श्री कमल कुमार ने भा.पु.से. भर्ती योजना (2009-2020) की अपनी अन्तिम सरकारी रिपोर्ट में इन भर्तियों के लिए तीन विकल्प सुझाऐं हैं (1) सिविल सेवा परीक्षा में अगले कुछ वर्षों के लिए भा.पु.से. की सीटों की संख्या बढ़ाना (2) 45 वर्ष से कम आयु के व न्यूनतम 5 वर्ष के अनुभव के राज्यों के उप पुलिस अधीक्षकों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा से चयन करके भा.पु.से. का दर्जा देना। (3) सूचना प्रोद्योगिकी, संचार, वित्त एवं मानव संसाधन प्रबन्धन आदि के विशेषज्ञों को कुछ समय के लिए पुलिस व्यवस्था में डेपुटेशन पर लेना, ताकि इन विशिष्ट क्षेत्रों में लगे पुलिस अधिकारियों को फील्ड के काम में लगाया जा सके।
2009 की उपरोक्त रिपोर्ट के बाद 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की अगले 10 वर्षों की भर्ती योजना पर अपनी सरकारी रिपोर्ट देते हुए प्रो. आर. के. पारीख ने इस बात पर जोर दिया कि सिविल सेवा परीक्षा में सीटों का बढ़ाना ही एक मात्र विकल्प है और उन्होंने जोरदार शब्दों में डी.ओ.पी.टी. (कार्मिक विभाग) के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया कि सीमित परीक्षा के माध्यम से सीधी भर्ती की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि 2010 में भारत सरकार के गृह सचिव ने संघ लोक सेवा आयोग व विभिन्न राज्यों को पत्र लिखकर भा.पु.से. में सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भर्ती पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। जिस पर संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने जोरदार शब्दों में कहा कि, ‘‘अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र उसकी जटिल चयन प्रक्रिया और प्रशिक्षण व्यवस्था पर निर्भर करता है। इससे इतर कोई भी व्यवस्था इस प्रक्रिया की बराबरी नहीं कर सकती। इस बात का कोई कारण नहीं है कि भा.पु.से. के प्रत्याशियों की संख्या मौजूदा सिविल सेवा परीक्षा में ही अगले 6-7 वर्षों के लिए ही, रिक्तियां बढ़ाकर, पूरी क्यों नहीं की जा सकती? जो कि मौजूदा स्थिति में लगभग 70 है।
इसी जबाव में संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने यह भी कहा कि इस नई प्रक्रिया से भा.पु.से. के अधिकारियो का मनोबल गिरेगा और कई तरह के कानूनी विवाद खड़े हो जाएंगे। जिनमें वरिष्ठता के क्रम का भी झगड़ा पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया उस चयन प्रक्रिया से भिन्न है, जिसे आमतौर पर प्रांतों की सरकारों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए उस प्रक्रिया से चुने व प्रशिक्षित अधिकारियों को इसमें समायोजित करना उचित नहीं होगा। इसलिए उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में ही भा.पु.से. की सीट 200 तक बढ़ाने की सिफारिश की।
अनेक प्रांतों की सरकारों ने भी इस कदम का विरोध किया है। इसी तरह देश के अनेक पुलिस संगठनों के महानिदेशकों ने भी इस कदम का विरोध किया है। उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक में जब गृहमंत्रालय ने पूर्व सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से  भा.पु.से. में चुना था, तो उस निर्णय को 1975 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था। उसके बाद से आज तक ऐसा चयन कभी नहीं किया गया। इसी तरह भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस के महानिदेशक ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए लिखा कि जिलों की पुलिस आवश्यकताऐं और सेना की प्रशिक्षण व्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसलिए सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भा.पु.से. में नहीं लिया जा सकता।
इसके अलावा भारत सरकार के कानून मंत्रालय ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया। उसका कहना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 (3) के अनुसार ‘सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की सहमति सभी मामलों में लेना अनिवार्य होगा।’ इसलिए कानून मंत्रालय ने भी मौजूदा चयन प्रणाली में रिक्तियां बढ़ाने का अनुमोदन किया।
इन सब विरोधों के बावजूद केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने 11 मई, 2010 के अपने पत्र में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री को पत्र लिखकर कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए, वे सीमित प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें। आश्चर्य की बात है कि गृह मंत्रालय ने 19 अगस्त 2011 को भा.पु.से. (भर्ती) नियम 1954 में संशोधन करके सीमित प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था कायम कर दी और इसके लिए 3 सितंबर, 2011 को भारत सरकार के गजट में सूचना भी प्रकाशित करवा दी। अब यह परीक्षा 20 मई, 2012 को होनी है। देखना यह है कि इस मामले में क्या गृहमंत्री अपनी बात पर अड़े रहते हैं, या उनकी इस जिद से उत्तेजित पुलिस अधिकारी किसी जनहित याचिका के माध्यम से इस चयन प्रक्रिया को रोकने में सफल होते हैं? मैं समझता हूँ कि यह गम्भीर मुद्दा है और दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर, आपसी सहमति से जो न्यायोचित और व्यवहारिक हो, वही करना चाहिए। मूल मकसद है कि देश की कानून व्यवस्था सुधरे। हर प्रयास इसी ओर किया जाना चाहिए। 

Sunday, February 5, 2012

अब सूरत बदलनी चाहिए

ट्रायल कोर्ट ने डा. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका निरस्त कर दी। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को बड़ी राहत मिली। पर क्या सर्वोंच्च न्यायालय के फैसले के बाद यूपीए सरकार के दामन से टू जी घोटाले का दाग मिट गया ? इस पर दो मत हैं। विपक्ष सरकार की इस दलील से सहमत नहीं कि इस घोटाले के लिये प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल जिम्मेदार नहीं है। जबकि संचार मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को दोषी नहीं माना। केवल आवंटन की नीति को गलत माना है जो राजग ने बनाई थी और ए राजा के तौर-तरीकों को गलत माना है। इसलिए प्रधानमंत्री की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। श्री सिब्बल का यह भी कहना है कि यह फैसले आने के बावजूद सेंसेक्स गिरने की बजाय बढ़ गया। यानि उद्योग जगत को इस फैसले से कोई झटका नहीं लगा। काँग्रेस ने यह भी दावा किया है कि इस फैसले से गठबन्धन की सरकार में आने वाली दिक्कतों से बचने का रास्ता प्रधानमंत्री के लिये साफ हो गया है। उधर डा. स्वामी चुप बैठने वाले नहीं है। वे उच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगे। वहाँ से भी राहत न मिली तो सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे। इस फैसले से निराश हुई भाजपा अब इसे चुनाव प्रचार में ज्यादा नहीं भुना पायेगी।
पर यहीं मेरा विरोध है। कब तक राजनैतिक दल एक-दूसरे पर इसी तरह भ्रष्टाचार के मामलों में हल्ला बोल कर देश को उलझाये रखेंगे। आज यूपीए पर हमला है, कल एनडीए पर ऐसा ही होगा। गठबन्धन की सरकार में शामिल होने वाले क्षेत्रीय दल जिस तरह मंत्रिमंडल में अपने दल के नेताओं को मंत्री बनावाते हैं और उनके लिये महत्वपूर्ण मंत्रालयों की माँग करते हैं, उससे गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है। ए राजा जैसे मंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्देशों की उपेक्षा करते हैं और करूणानिधि से निर्देश लेते हैं। पर विपक्ष इस भेद को अनदेखा कर सीधा प्रधानमंत्री पर तोप दागता है। जो कि स्वाभाविक है। पर क्या तोप दागने से कुछ हासिल होता है ? क्या भ्रष्टाचार रूकता है ? क्या आरोपियों को सजा मिल पाती है ? बोफोर्स, हवाला घोटाला, स्टाम्प ड्यूटी घोटाला, बैंक घोटाला, चारा घोटाला, तहलका काण्ड जैसे कितने ही घोटाले जोर-शोर से सामने आये। पर अन्त में क्या हुआ ? किसी को सजा नहीं मिली।
राजनीति का मकसद है आम आदमी की सम्पन्नता और खुशहाली बढ़ाना। पहले ‘सकल घरेलू उत्पाद‘ (जीडीपी) की बात होती थी, अब जी एन एच(ग्रास नैचुरल हैप्पीनेस) की बात हो रही है यानि लोगों की खुशहाली बढ़ायी जाये। अब खुशहाली बढ़ाने के लिये सरकार कोई निर्णय लेना चाहती हो और गठबन्धन के सहयोगी दल सहमत न हों  तो सरकार क्या करेगी ? अगर गठबन्धन के सहयोगी दल भ्रष्ट आचरण करें और रोकने पर सरकार गिराने की धमकी दें तो प्रधानमंत्री क्या करे ? आँखें मींचे, जैसा टू जी में हुआ या नैतिकता की दुहाई देकर सरकार गिर जाने दे। अगर ऐसे सरकारें गिरेंगी तो इटली की तरह एक-एक साल में कई-कई प्रधानमंत्री शपथ लेंगे। देश की प्रगति रूक जायेगी। निवेशकों का विश्वास हिल जायेगा। देश में अराजकता बढ़ेगी।
समय आ गया है कि सरकारों के घोटालों से आजिज आ रहे देशवासियों को राहत मिले। सभी दलों और जागरूक लोगों को मिल कर कुछ ठोस फैसले लेने होंगे। जैसे गठबंधन की शर्तें क्या हों ? सहयोगी दलों को ब्लैकमेल करने से कैसे रोका जाये ? सरकारें अपने संसाधनों का आवंटन किस तरह करें कि पारदर्शिता भी बनी रहे और देश को लाभ भी हो ? यानि घोटालों की गुंजाइश खत्म की जाये।
दुख की बात यह है कि घोटाले सामने आने पर शोर तो खूब मचता है। पर इस बात पर कभी सहमति नहीं होती कि घोटालों को रोकने के लिये व्यवस्था को पारदर्शी और जिम्मेदार कैसे बनाया जाये ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्तता देने की बात हो या ठेके, आवंटन और लीज में पारदर्शिता लाने की बात हो। ये सब मामले ऐसे हैं जिन्हें ठोस और क्रान्तिकारी परिवर्तनों के बिना सुलझाया नहीं जा सकता। घोटाले का उबाल उतरते ही मीडिया भी ढीला पड़ जाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि घोटालों के कारणों को दूर करने के काम में भी मीडिया, विशेषकर टी वी मीडिया वैसी ही उत्तेजना और तत्परता दिखाये, जैसी घोटालों के उजागर होने के कुछ दिन बात तक दिखाता है। अगर परिवर्तत के तमाम बिन्दुओं पर गंभीर और लंबी बहसें चलेंगी तो जनता भी शिक्षित होगी और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। पिछले वर्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध चले लम्बे आन्दोलन के बावजूद समाधान के बिन्दुओं पर कोई गहरी चर्चायें नहीं हुईं। बस एक ही बात उठती रही कि ‘आप लोकपाल के साथ है या खिलाफ‘ नतीजन सब ठंडा पड़ गया। अगर सुधार लाने का यह प्रयास राजनैतिक जमात, न्यायविद्, मीडिया व सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर प्राथमिकता से नहीं करते हैं तो रोज नये घोटाले होते रहेंगे। न तो आरोपियों को सजा मिलेगी और न भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’, जैसी भावना दिवगंत कवि दुष्यंत ने अभिव्यक्त की थी वैसा ही जज्बा आज हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व के मन में उठना चाहिये।