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Monday, October 20, 2014

मनरेगा की सार्थकता पर सवाल

जब से यूपीए सरकार ने मनरेगा योजना चालू की, तब से ही यह कार्यक्रम विवादों में रहा है। यूपीए सरकार का मानना यह था कि आजादी के बाद से गरीबों के विकास के लिए जितनी योजनाएं बनीं, उनका फल आम आदमी तक नहीं पहुंचा। इसलिए गरीब और गरीब होता गया। खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सन् 1984 में कहा था कि दिल्ली से गया विकास का 1 रूपया गांव तक पहुंचते-पहुंचते 14 पैसे रह जाता है, यानि 86 फीसदी पैसा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। इसलिए यह नई योजना बनायी गयी, जिसमें भूमिहीन मजदूरों को साल में न्यूनतम 200 दिन रोजगार देने की व्यवस्था की गई। अगर कहीं रोजगार उपलब्ध नहीं है, तो उसे उपलब्ध कराने के लिए कुंड खोदना, कुएं खोदना या सड़क बनाना जैसे कार्य शुरू करने की ग्राम प्रधान को छूट दी गई। उम्मीरद यह की गई थी कि अगर एक गरीब आदमी को 200 दिन अपने ही गांव में रोजगार मिल जाता है, तो उसे पेट पालने के लिए शहरों में नहीं भटकना पड़ेगा। गांव के अपेक्षाकृत सस्ते जीवन उसके परिवार का भरण-पोषण हो जायेगा। हर योजना का उद्देश्य दिखाई तो बहुत अच्छा देता है, पर परिणाम हमेशा वैसे नहीं आते, जैसे बताए जाते हैं।
मनरेगा के साथ भी यही हुआ। बहुत गरीब इलाकों के मजदूर, जो पेट पालने के लिए पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बड़ी तादाद में जाते थे, वे जब दिवाली की छुट्टी पर घर गए, तो लौटकर नहीं आए। सूरत की कपड़ा मिलों में, महाराष्ट्र के कारखानों में और पंजाब के खेतों में काम करने वाले मजदूरों का टोटा पड़ गया। हालत इतनी बिगड़ गई कि जो थोड़े बहुत मजदूर इन इलाकों में पहुंच जाते, उन्हें रेलवे स्टेशन से ही धर दबोचने को उद्योगपति और किसान स्टेशन के बाहर खड़े रहते। कभी-कभी तो उनके बीच मारपीट भी हो जाती थी। मतलब ये कि इन इलाकों में इतनी ज्यादा गरीबी थी कि थोड़ा सा रोजगार मिलते ही लोगों ने पलायन करना छोड़ दिया। पर शेष भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी।
ज्यादातर राज्यों में मनरेगा निचले स्तर पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं और सरकारी कर्मचारियों की कमाई का धंधा बन गया। ऐसी बंदरबाट मची कि मजदूरों के नाम पर इन साधन संपन्न लोगों की चांदी हो गई। मजदूरों से 200 दिन की मजदूरी प्राप्त होने की रसीद पर अंगूठे लगवाए जाते और उन्हें 10 दिन की मजदूरी देकर भगा दिया जाता। वे बेचारे यह सोचकर कि बिना कुछ करे, घर बैठे आमदनी आ रही है, तो किसी के शिकायत क्यों करे, चुप रह जाते। अंधेर इतनी मच रही है कि मनरेगा के नाम पर जो विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, वे केवल कागजों तक सिमट कर रह गए हैं। धरातल पर कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिर भी देश-विदेश के कुछ जाने-माने अर्थशास्त्री इस बात पर आमदा है कि इतने बड़े भ्रष्टाचार का कारण बना यह कार्यक्रम जारी रखा जाए। वे चेतावनी देते हैं कि अगर मनरेगा को बंद कर दिया, तो गरीब बर्बाद हो जाएंगे, भुखमरी फैलेगी, धनी और धनी होगा। इसलिए इस कार्यक्रम को जारी रखना चाहिए। इन अर्थशास्त्रियों में ज्यादातर वामपंथी विचारधारा के हैं। जिनका मानना है कि गरीब को हर हालत में मदद की जानी चाहिए। चाहे उस मदद का अंश ही क्यों न सही जगह पहुंचे। पर सोचने वाली बात यह है कि अगर ऐसी खैरात बांटकर आर्थिक तरक्की हो पाती, तो दो दशक तक पश्चिमी बंगाल पर हावी रहे वामपंथी दलों क्यों बंगाल के गरीबों की गरीबी दूर नहीं कर पाए ?

वैसे भी यह मान्य सिद्धांत है कि भूखे को रोटी देने से बेहतर है, उसे रोटी बनाने के लायक बनाना। मनरेगा यह नहीं करता। यह तो बिना कुछ करे भी रोजी कमाने की गारंटी देता है, इसलिए यह समाज के हित में नहीं। ठीक जिस तरह अंग्रेज भारत को अंग्रेजीयत का गुलाम बनाकर चले गए और आज तक हमारा उल्लू बना रहे हैं। उसी तरह यूपीए सरकार के थिंक टैंक ने मनरेगा को पार्टी कार्यकर्ताओं की सुविधा विस्तार का उपक्रम बना लिया। इसलिए धरातल पर इसके ठोस परिणाम नहीं आ रहे हैं।
आज से 30 बरस पहले सन् 1984 में लंदन के एक विश्वविद्यालय में रोजगार विषय पर बोलते हुए मैंने भारत की खोखा संस्कृति पर प्रकाश डाला था। मैंने वहां युवाओं को बताया कि भारत के ग्रामीण बेरोजगार युवा बिना किसी कालेज या पाॅलीटैक्निक में जाए केवल अपनी जिज्ञासा से हुनर सीख लेते हैं। किसी कारीगर के चेले बन जाते हैं। कुछ महीने बेगार करते हैं। पर जब सीख जाते हैं, तो उसी हुनर की दुकान शहर के बाहर, सड़क के किनारे एक लकड़ी के खोखे में खोल देते हैं। फिर चाहे चाय की दुकान हो, स्कूटर कार मरम्मत करने की हो या फिर किसी और मशीन को मरम्मत करने की। पुलिस वाले इनसे हफ्ता वसूलते हैं। बाजार के निरीक्षक इन्हें धमकाते हैं। स्थानीय प्रशासनिक संस्था इनकी दुकान गिरवाती रहती हैं। फिर भी ये हिम्मत नहीं हारते और अपने परिवार के पालन के लिए समुचित आय अर्जित कर लेते हैं। दुर्भाग्य से इनकी समस्याओं का हल ढूढ़ने का कोई प्रयास आज तक सरकारों ने नहीं किया।
जरूरत इस बात की है कि सरकार हो या बड़े औद्योगिक घराने, इन उद्यमी युवाओं की छोटी-छोटी समस्याओं के हल ढूढ़ें। जिससे देश में रोजगार भी बढ़े और आर्थिक तरक्की भी हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हाल ही में इस मुद्दे में विशेष ध्यान देना शुभ संकेत है। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मनरेगा से बंटने वाली खैरात की जगह आम लोगों को अपने पैरों पर खड़ा करने की कवायद की जाएगी। जिससे गरीबी भी दूर होगी और बेरोजगारी भी।

Tuesday, July 17, 2012

मनरेगा योजना कितनी सफल, कितनी विफल ?

सिक्के के दो पहलू की तरह मनरेगा के भी दो पहलू हैं: एक तरफ तो गरीबों के लिए रोजगार सृजन कार्यक्रम को मिली ऐतिहासिक सफलता और दूसरी तरफ योजना के क्रियान्वन में अनेक कमियां और भ्रष्टाचार। हम दोनों की निष्पक्ष चर्चा करेंगे। पहले प्रधानमंत्री के उस दावे का मूल्यांकन किया जाये जिसमें उन्होंने मनरेगा को गरीबों के हक में आजादी के बाद की सबसे सफल योजना बताया है। ये दावा कहां तक सही है ?
मनरेगा की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण गुजरात में मिलता हैं। कपड़े की मिलों के लिए भारत का मैनचैस्टर माना जाने वाला गुजरात का शहर सूरत मनरेगा से धीरे-धीरे तबाह हो रहा है। यहां बिहार के हजारों मजदूर कपड़ा मिलों में काम करते थे। पिछले साल दीपावली पर वे घर गये, फिर लौटे नहीं। क्योंकि मनरेगा के चलते अब उन्हें अपने गांव में ही इतना रोजगार मिलने लगा है कि उनके परिवार का गुजारा चल जाता है।

एक समय हरित क्रान्ति का अग्रणी रहा पंजाब गरीब प्रान्तों के मजदूरों के लिए बहुत बड़ा रोजगार देने वाला था। ढोल की थाप पर नाचने वाले सम्पन्न सिख और जाट किसानों के खेतों का काम ये मजदूर किया करते थे। अब हालात बदल गये हैं। अब बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से आने वाली जनता रेल गाड़ियों में मजदूरों की खेप नहीं आती। नतीजतन बड़े किसान अपनी मोटर गाड़ियां लेकर रोज सुबह रेलवे स्टेशन पर खड़े होते हैं। इस उम्मीद में कि जिन मजदूरों पर भी हाथ लग जाये, उन्हें झपट लिया जाये। इस चक्कर में कई बार इन बड़े किसानों के आपस में झगड़े और मारपीट भी हो जाती है। यह है मनरेगा की सफलता का एक और नमूना।

सुनने में यह अटपटा लगेगा पर विचारने का बिन्दु जरूर है। अगर हम नक्सलवादी विचारधारा के अनुसार अमीरों की अमीरी उनसे छीनकर गरीबों में नहीं बांट सकते, तो क्यों ना गरीबी का देशभर में समान बंटवारा कर दिया जाये। मतलब ये कि ऐसा ना हो कि एक जगह के गरीब तो बच्चे बेचकर और पेड़ों की जड़े पकाकर पेट भरें और दूसरी तरफ देश में गरीबी का मापदंड बढ़ते जीवन स्तर से मापा जाये। मनरेगा ने यही किया है। राष्ट्रीय संसाधनों का इस योजना ने इस तरह बंटवारा किया है कि देश के हर हिस्से में रहने वाले गरीब मजदूरों को साल मंे कम से कम सौ दिन के रोजगार की गारंटी मिल गई है। इसका सीधा असर कस्बों के स्तर तक देखने को मिल रहा है। पहले कस्बों और छोटे शहरों में दिहाड़ी मजदूर 80 रूपये रोज में मिल जाते थे। अब ढाई सौ रूपये से कम का मजदूर नहीं मिलता। इतना ही नहीं अब हर क्षेत्र में रोजगार मांगने वालांे की अपेक्षाएं और वेतन बढ़ गये हैं। जाहिरन इससे उनका जीवन स्तर भी बढ़ा है। 

इस तरह मनरेगा के कारण देशभर में दैनिक मजदूरी में औसतन 81 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह अपने आप में अकेली घटना नहीं है। क्योंकि जब मजदूरों की मजदूरी बढ़ी तो अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले निचले दर्जे के कर्मचारियों की वेतन वृद्वि की मांग भी बढ़ गई। कुल मिलाकर पूरे देश में गरीबों और निम्न वर्ग को मनरेगा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बहुत बड़ा फायदा हुआ है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आंका जा सकता। रोजगार की मंडी का मजदूरों के हक में हो जाना किसी क्रान्ति से कम नहीं। यह क्रान्ति विचारधारा की या व्यवस्था के विरूद्व बगावत की घुट्टी पिलाकर नहीं आई। यह आई है मनरेगा की सोची समझी कार्य योजना के कारण निश्चित तौर पर सरकार ने जिससे भी यह योजना बनवाई उसने अब तक की ऐसी सभी योजनाओं को पीछे छोड़ दिया, जिनमें गरीबी दूर करने का लक्ष्य रखा जाता था। इसीलिए सरकार के इस कार्यक्रम का आज पूरी दुनियां में अध्ययन किया जा रहा है। इसलिए प्रधानमंत्री या कांग्रेस सरकार का अपनी पीठ ठोकना नाजायज नहीं है।

पर ऐसा नहीं है कि मनरेगा में सब कुछ सोने की तरह चमक रहा है। अनेक खोट भी है। ग्रामीण स्तर पर मनरेगा के तहत जो कार्य योजनाएं बनाई जा रही हैं इनकी उपयोगिता और सार्थकता पर कई जगह प्रश्न चिन्ह लगाये जा रहे हैं। वेतन के भुगतान में देरी। करवाये जा रहे काम की गुणवत्ता में स्थान-स्थान पर अन्तर होना। मनरेगा के क्रियान्वन में ग्राम प्रधान से लेकर जिलाधिकारी तक का अक्सर घपले घोटालों में फंसा होना। मजदूरों के पंजीकरण में फर्जीवाड़ा। खर्च का सही हिसाब न रखना। कुछ ऐसे दोष हैं जो मनरेगा के क्रियान्वन के काफी मामलों में सामने आये हैं। जिन की सरकार को जानकारी है और इनका निराकरण किया जाना चाहिए। यह बात दूसरी है कि मनेरगा का क्रियान्वन प्रान्तीय सरकारों के हाथ में है। जिन राज्यों में आम लोगों में जागरूकता है और प्रशासन में जिम्मेदारी का माद्दा ज्यादा है, वहां यह योजना ज्यादा सफल हुई है। जहां ऐसा नहीं है और ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार और कोताही का बोलबाला है वहां मनरेगा मुह के बल गिरी है। पर इसके लिए केन्द्र सरकार को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह कहना भी गलत होगा कि यह योजना कारगर नहीं है।
विपक्षी दल मनरेगा को नकारते हैं। उनका आरोप है कि यह कागजी योजना है। जमीनी हकीकत इससे कोसो दूर है। वे यह भी कहते हैं कि अगर पांच करोड़ लोगों को इससे लाभ मिलने का जो दावा किया जा रहा है, उसे सही भी मान लिया जाये, तो इससे गरीबी तो दूर नहीं हुई। बाकी 10 करोड़ लोगों को तो कुछ नहीं मिला। यहां सवाल उठाया जा सकता है कि गिलास को आधा भरा देखें या आधा खाली। एक तिहाई गरीब लोगों को अगर फायदा मिला है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले समय में सौ फीसदी लोग इसके लाभ के घेरे में आ जायेंगे। सिर्फ इसलिए कि सबकों एक साथ लाभ नहीं मिल सकता, क्या जिन्हें मिल सकता है उन्हें भी न दिया जाये ?

जरूरत है इस योजना के सही और गहरे मूल्यांकन की। इसमें सामाजिक आडिट को बढ़ाने की भी जरूरत है। आधुनिक सूचना तकनीकी का इस्तेमाल करके मनरेगा के काम में पारदर्शिता और पर्यवेक्षण को बढ़ाना चाहिए। देश में पेन्शनयाफ्ता लोगों की एक लम्बी फौज बेकार पड़ी है। स्वास्थ के क्षेत्र में सुधार के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ गई है। ऐसे लाखों लोगों को मनरेगा जैसी जनहित की योजनाओं के क्रियान्वन में कार्यकुशलता सुनिश्चित करने के काम में लगाया जा सकता है। उधर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षा सोनिया गांधी इस कार्यक्रम को लेकर बहुत सतक्र हैं। क्योंकि वे जानती हैं कि आम जनता के हित का यह कार्यक्रम अगर पूरी तरह सफल हो गया तो सामाजिक आर्थिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार भी दबाव में है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनरेगा का अगला संस्करण इन कमियों को दूर करने की तरफ ध्यान देगा।