Monday, June 12, 2017

एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा

जिस दिन एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा पड़ा, उसके अगले दिन एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान भाजपा के प्रवक्ता का दावा था कि सीबीआई स्वायत्त है। जो करती है, अपने विवेक से करती है। मैं भी उस पैनल पर था, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। सीबीआई कभी स्वायत्त नही रही या उसे रहने नहीं दिया गया। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन ले लिया था, तब से हर सरकार इसका इस्तेमाल करती आई है। 



रही बात एनडीटीवी के मालिक के यहां छापे की तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि डा. प्रणय रॉय एक अच्छे इंसान हैं। मेरा उनका 1986 से साथ है, जब वे दूरदर्शन पर ‘वल्र्ड दिस वीक’ एंकर करते थे और मैं ‘सच की परछाई’। तब देश में निजी चैनल नहीं थे। जैसा मैंने उस शो में बेबाकी से कहा कि 1989 में कालचक्र वीडियो मैग्जी़न के माध्यम से देश में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की स्थापना करने के बावजूद, आज मेरा टीवी चैनल नहीं है। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता करनी नहीं आती या चैनल खड़़ा करने का मौका नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि चैनल खड़ा करने के लिए बहुत धन चाहिए। जो बिना सम्पादकीय समझौते किये, संभव नहीं था। मैं अपनी पत्रकारिता की स्वतंत्रता खोकर चैनल मालिक नहीं बनना चाहता था। इसलिए ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। 



एनडीटीवी के कुछ एंकर बढ़-चढ़कर ये दावा कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमला हो रहा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि ‘गोधरा कांड’ के बाद, जैसी रिपोर्टिंग उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की, क्या वैसे ही तेवर से उन्होंने कभी कांग्रेस के खिलाफ भी अभियान चलाया ? जब मैंने हवाला कांड में लगभग हर बड़े दल के अनेकों बड़े नेताओं को चार्जशीट करवाया, तब वे सब चैनलों पर जाकर अपनी सफाई में तमाम झूठे तर्क और स्पष्टीकरण देने लगे। उस समय मैंने उन सब चैनलों के मालिकों और एंकरों को इन मंत्रियों और नेताओं से कुछ तथ्यात्मक प्रश्न पूछने को कहा तो किसी ने नहीं पूछे। क्योंकि वे सब इन राजनेताओं को निकल भागने का रास्ता दे रहे थे। ऐसा करने वालों में एनडीटीवी भी शामिल था। ये कैसी स्वतंत्र पत्रकारिता है? जब आप किसी खास राजनैतिक दल के पक्ष में खड़े होंगे, उसके नेताओं के घोटालों को छिपायेंगे या लोकलाज के डर से उन्हें दिखायेंगे तो पर दबाकर दिखायेंगे। ऐसे में जाहिरन वो दल अगर सत्ता में हैं, तो आपको और आपके चैनल को हर तरह से मदद देकर मालामाल कर देगा। पर जिसके विरूद्ध आप इकतरफा अभियान चलायेंगे, वो भी जब सत्ता में आयेगा, तो बदला लेने से चूकेगा नहीं। तब इसे आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला नहीं कह सकते।



सोचने वाली बात ये है कि अगर कोई भी सरकार अपनी पर उतर आये और ये ठान ले कि उसे मीडियाकर्मियों के भ्रष्टाचार को उजागर करना है, तो क्या ये उसके लिए कोई मुश्किल काम होगा? क्योंकि काफी पत्रकारों की आर्थिक हैसियत पिछले दो दशकों में जिस अनुपात में बढ़ी है, वैसा केवल मेहनत के पैसे से होना संभव ही न था। जाहिर है कि बहुत कुछ ऐसा किया गया, जो अपराध या अनैतिकता की श्रेणी में आता है। पर उनके स्कूल के साथियों और गली-मौहल्ले के खिलाड़ी मित्रों को खूब पता होगा कि पत्रकार बनने से पहले उनकी माली हालत क्या थी और इतनी अकूत दौलत उनके पास कब से आई। ऐसे में अगर कभी कानून का फंदा उन्हें पकड़ ले तो वे इसेप्रेस की आजादी पर हमला’ कहकर शोर मचायेंगे। पर क्या इसे ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ माना जा सकता है?



अगर हमारी पत्रकार बिरादरी इस बात का हिसाब जोड़े कि उसने नेताओं, अफसरों या व्यवसायिक घरानों की कितनी शराब पी, कितनी दावतें उड़ाई, कितने मुर्गे शहीद किये, उनसे कितने मंहगे उपहार लिए, तो इसका भी हिसाब चैकाने वाला होगा। प्रश्न है कि हमें उन लोगों का आतिथ्य स्वीकार ही क्यों करना चाहिए, जिनके आचरण पर निगेबानी करना हमारा धर्म है। मैं पत्रकारिता को कभी एक व्यवसायिक पेशा नहीं मानता, बल्कि समाज को जगाने का और उसके हक के लिए लड़ने का हथियार मानता रहा हूं। प्रलोभनों को स्वीकार कर हम अपनी पत्रकारिता से स्वयं ही समझौता कर लेते हैं। फिर हम प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला कहकर शोर क्यों मचाते हैं



सत्ता के विरूद्ध अगर कोई संघर्ष कर रहा हो, तो उसे अपने दामन को साफ रखना होगा। तभी हमारी लड़ाई में नैतिक बल आयेगा। अन्यथा जहां हमारी नस कमजोर होगी, सत्ता उसे दबा देगी। पर ये बातें आज के दौर में खुलकर करना आत्मघाती होता है। मध्य युग के संत अब्दुल रहीम खानखाना कह गये हैं, ‘अब रहीम मुस्किल परी, बिगरे दोऊ काम। सांचे ते तौ जग नहीं, झूंठे मिले न राम’।। जो सच बोलूंगा, तो दुनिया मुझसे रूठेगी और झूंठ बोलूंगा तो भगवान रूठेंगे। फैसला मुझे करना है कि दुनिया को अपनाऊं या भगवान को। लोकतंत्र में प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला एक निंदनीय कृत्य है। पर उसे प्रेस का हमला तभी माना जाना चाहिए जबकि हमले का शिकार मीडिया घराना वास्तव में निष्पक्ष सम्पादकीय नीति अपनाता हो और उसकी सफलता के पीछे कोई बड़ा अनैतिक कृत्य न छिपा हो।


Monday, May 29, 2017

चीन की तिलस्मी माया


पिछले हफ्ते मैं चीन में था। बचपन में एक फिल्म देखी थी। ‘कोटनीस की अमर कहानी’ 1961-1962 में भारत में हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे सुने थे। फिर चीन के हमले के बाद ‘हकीकत’ फिल्म देखी, तो फौजियों के हाल पर बहुत दुख हुआ। उसके बाद 1965 के आसपास ‘संगीत नाटक अकादमी’ का एक नाटक देखा था ‘नेफा’ की एक शाम जिसकी हीरोईन एक चीनी महिला थी। नेफा के हमारे लोगों को प्रेमजाल में फंसाकर जासूसी कर रही थी। इस सबसे अलग इतिहास की पुस्तकों में चीन की ‘ग्रेट वॉल’ और चीन की कम्यूनिस्ट क्रांति के बारे में भी पढ़ा था। मगध सम्राट अशोक ने चीन में बौद्धधर्म के प्रचार के लिए ईसा से 300 वर्ष पहले जो सफल प्रयास किये, उनकी भी जानकारी थी और ह्वेनसांग की भारत यात्रा का विवरण भी पढ़ा था। गत 30 वर्षों में चीन की जो आर्थिक प्रगति हुई है, उसका यशगान तो सुनते ही आ रहे हैं। खुद हमारे प्रधानमंत्री जी भी इससे प्रभावित हुऐ बिना नहीं रहे हैं और पिछले वर्ष 5 दिन चीन में बिताकर आऐ हैं। भारत के बाजार सस्ते और जल्दी खराब होने वाले चीनी माल से पटे पड़े हैं, ये बात आप सब जानते हैं। कुल मिलाकर बचपन से चीन के अलग-अलग प्रतिबिंब मन मस्तिष्क पर छाये थे। पर उम्र के 62 वर्ष में चीन जाने का मौका मिला, तो पिछले हफ्ते जो देखा उसका एक मिश्रित अनुभव आपसे बांट रहा हूं।

     लोकतंत्र की मांग करने वाले हजारों युवाओं को ‘थिनामेन स्क्वायर’ पर बेदर्दी से पेटन टैंकों से भून देने वाले चीन के हुक्मरान कितने संवेदना शून्य हैं कि उन्होंने बीजिंग और शंघाई से लगभग सभी बड़े-बूढ़ों को ही खदेड़कर बाहर कर दिया है। जिससे इन शहरों में पर्यटकों को युवा और खूबसूरत जोड़े ही दिखाई दें। जिससे चीनी लोगों के व्यवहार में आम तौर पर कोई गर्म जोशी नही है।

वे दुनिया को एक बाजार की तरह देखते हैं और हर व्यक्ति को खरीदार की तरह। बीजिंग और शंघाई जैसे शहर आधुनिक खूबसूरती, तकनीकी विकास, चकाचैंध और साफ-सफाई में दुनिया के अग्रणी शहरों में है। न्यूयॉर्क और मॉस्को भी उनका मुकाबला नहीं कर सकते, पर इन शहरों की आत्मा मर गयी है। चीन की सांस्कृतिक परंपराऐं समाप्त हो गयी हैं। समाज का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो गया है। हर एक मीटर की दूरी पर लगे कैमरों ने व्यक्ति की आजादी को आमूलचूल रूप से खत्म कर दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि इन दोनों बड़े शहरों में आपको ढूढ़े से भी कोई पुलिस वाला दिखाई नहीं देगा। फिर भी 2.5 करोड़ की आवादी वाले शहर में अपराध या अव्यवस्था का नामो-निशान नहीं है। सुनकर लगेगा की वाह ये तो रामराज्य है। पर असलियत ये है कि हर आदमी अदृश्य पुलिस के आतंक के साये में जी रहा है। हर व्यक्ति के, हर काम पर, हर वक्त निगाह है।  ऐसे में हर व्यक्ति डरा और सहमा दिखाई देता है। ये भयावह स्थिति है। जहां आप न तो राजनैतिक व्यवस्था से सवाल पूछ सकते हैं, न उस पर टिप्पणी कर सकते हैं और न उस पर अखबार और टेलीविजन में बहस कर सकते हैं। जो आकाओं ने कह दिया वो आपको मानना होगा। यही कारण कि 5000 सांसद भी अगर देश की व्यवस्था पर विचार करने बैठे तो सवाल खड़े नही करेंगे, नेता के आदेश का पालन करेंगे।

चीन की आम जनता किस बदहाली में जी रही है, इसका तो कोई जिक्र ही नहीं होता। टीन-खप्पर के झुग्गीनुमा घरों में रहकर, दो वक्त उबले नूडल्स खाकर और 10 घंटे बिना सिर उठाये कारखानों में काम करके चीनी लोग एक मशीन का पुर्जा बन गये हैं। ये कैसा विकास है? जो आदमी को पुर्जा बना देता है। उसकी आत्मा को मार देता है। उसके जीवन से हर्षोल्लास छीन लेता है। उसकी आस्थाओं को नष्ट कर देता है। उसको प्लास्टिक की नकली जिदंगी जीने पर मजबूर कर देता है। क्या विकास का ये मौडल हमारा आदर्श हो सकता है? उस भारत का जिसके हर भौगोलिक क्षेत्र का अपना सांस्कृतिक इतिहास है। जहां नित्य आनंद और उत्सव हैं। जहां घर की तिजोरियों में छिपी दादी-पोतियों की खानदानी विरासत है। जहां आस्था के 33 करोड़ प्रतीक हैं। जहां हजारों साल की सतत चलने वाली सांस्कृतिक परंपराऐं हैं। नहीं, चीन हमारा आदर्श कदापि नहीं हो सकता। यूरोप और अमरिका तो पहले ही हमारे आदर्श नहीं थे। हमारा आदर्श तो हमारा अपना अतीत होगा। जो तकनीकी आधुनिकता को उपकरण के रूप में तो प्रयोग करेगा, पर उसका गुलाम नहीं बनेगा।

चीन जाकर कोई सुखद् अनुभूति नहीं हुई। बल्कि मन में एक आशंका और भय व्याप्त हो गया। अगर कहीं हम इस रास्ते पर चल पड़े तो हममें और शंघाई-सिंगापुर में क्या अंतर रह जायेगा? क्या 40 साल का इनका तथाकथित विकास भारत के हजारों साल के इतिहास पर हावी हो जायेगा? क्या हम भी अपनी जड़ों से इसी तरह कट जायेंगे? क्या हम प्लास्टिक संस्कृति के अंग बनकर इसी तरह लाचार और बेसहारा हो जायेंगे और अपनी मौलिक सृजनशीलता को खो देंगे?  दिल्ली वापसी की फ्लाइट में भगवान से एक ही प्रार्थना है की, ‘हे योगेश्वर कृष्ण तुम इस तपोभूमि भारत को चीन जैसा मत बनने देना’।

Monday, May 22, 2017

अब ग्रामोद्योग के जरिए पांच करोड़ रोजगार की बात

बेरोज़गारी भारत की सबसे बड़ी समस्या है। करोड़ों नौजवान रोज़गार की तलाश में भटक रहे हैं। हर सरकार इसका हल ढूंढने के दावा करती आई है पर कर नहीं पाई। कारण स्पष्ट है: जिस तरह सबका ज़ोर भारी उद्योगों पर रहा है और जिस तरह लगातार छोटे व्यापारियों और कारखानेदारों की उपेक्षा होती आई है| उससे बेरोज़गारी बढ़ी है। आज तक सब जमीनी सोच रखने वाले और अब  बाबा रामदेव भी ये सही कहते हैं कि अगर रोज़मर्रा के उपभोग के वस्तुओं को केवल कुटीर उद्योंगों के लिए ही सीमित कर दिया जाय तो बेरीज़गारी तेज़ी से हल हो सकती है। पर उस मॉडल से नहीं जिस पर आगे बढ़कर चीन भी पछता रहा है। अंधाधुंध शहरीकरण ने पर्यावरण का नाश कर दिया। जल संकट बढ़ गया और आर्थिक प्रगति ठहर गई।

इसलिए शायद अब  खादी उद्योग में पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार दिलाने की योजना बनी है। इस सूचना की विश्वसनीयता पर सोचने की ज्यादा जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि यह जानकारी खुद केंद्र सरकार के राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान दी है।

पांच साल में पांच करोड़ लोगों को रोजगार की बात सुनकर कोई भी हैरत जता सकता है। खासतौर पर तब जब मौजूदा सरकार से इसी मुददे पर जवाब मांगने की जोरदार तैयारी चल रही है। सरकार के आर्थिक विकास के दावे को झुठलाने के लिए भी रोजगार विहीन विकास का आरोप लगाया जा रहा है।

यह बात सही है कि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के पहले अपने चुनाव प्रचार के दौरान हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करने का आश्वासन दिया था। सरकार के अब तक तीन साल गुजरने के बाद इस मोर्चे को और टाला भी नहीं जा सकता था। सो हो सकता है कि अब तक जो सोचविचार किया जा रहा हो उसे लागू करने की स्थिति वाकई बन गई हो। लेकिन सवाल यह है कि पांच साल में पांच करोड रोजगार की बात सुनकर ज्यादा हलचल क्यों नहीं हुई। इससे एक प्रकार की अविश्वसनीयता तो जाहिर नहीं हो रही है।

पांच करोड लोगों को रोजगार दिलाने की सूचना देने का काम जिस कार्यक्रम में हुआ वह रेमंड की खादी के नाम से आयोजित था। यानी इस कार्यक्रम में निजी और सरकारी भागीदारी के माडल की बात दिमाग में आना स्वाभाविक ही था। सो राज्यमंत्री ने यह बात भी बताई कि खादी ग्रामोद्योग ने रेमंड और अरविंद जैसी कपड़ा बनाने वाली कंपनियों से भागीदारी की है। जाहिर है कि निजीक्षेत्र के संसाधनों से खादी उद्योग को बढ़ावा देने की योजना सोची गई होगी। लेकिन यहां फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या निजी क्षेत्र किसी सामाजिक स्वभाव वाले लक्ष्य में इतना बढ़चढ़ कर भागीदारी कर सकता है। वाकई पांच करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा करने की भारी भरकम योजना के लिए उतने ही भारी भरकम संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। फिर भी अगर बात हुई है तो इसका कोई व्यावहारिक या संभावना का पहलू देखा जरूर गया होगा।

राज्यमंत्री ने इसी कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत में इसका भी जिक्र किया कि देश में खादी उत्पादों की बिक्री के सात हजार से ज्यादा शोरूम हैं। इन शो रूम में बिक्री बढ़ाई जा सकती है। इसी सिलसिले में उन्होंने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खादी कपड़ों की गुणवत्ता बढाने के लिए जीरो डिफैक्ट जीरो अफैक्ट योजना शुरू की है। इसके पीछे खादी को विश्व स्तरीय गुणवत्ता का बनाने का इरादा है। जाहिर है कि विश्वस्तरीय बनाने के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी की इस्तेमाल की बातें भी शुरू हो जाएंगी। और फिर हाथ से और देसी तकनीक के उपकरणों से बने उत्पादों को मंहगा होने से कौन रोक पाएगा। हां फैशन की बात अलग है। जिस तरह से खादी कपड़ों और दूसरे उत्पादों को बनाने में फैशन डिजायनरों को शामिल कराने की योजना है उससे खादी उत्पादों को आकर्षक बनाकर बेचना जरूर आसान बनाया जा सकता है। लेकिन पता नहीं डिजायनर खादी के दाम के बारे में सोचा गया है या नहीं।

खैर अभी पांच करोड़ रोजगार की बात कहते हुए खादी उत्पादों को विश्वस्तरीय बनाने की बात हुई। यानी उत्पाद की मात्रा की बजाए गुणवत्ता का तर्क दिया गया है। लेकिन आगे हमें बेरोजगारी मिटाने की मुहिम में बने खादी उत्पादों को खपाने यानी उसके लिए बाजार विकसित करने पर लगना पड़ेगा। यहां गौर करने की बात यह है कि इस समय भारतीय बाजार में सबसे ज्यादा जो माल अटा पड़ा है वह कपड़े ही हैं। उधर विश्व में आर्थिक मंदी के इस दौर में विदेशी कपड़ों और दूसरे माल ने देशी उद्योग और व्यापार को पहले से बेचैन कर रखा है। यानी आज के करोड़ों बेरोजगार अगर कल कोई माल बनाएंगे भी तो उसे निर्यात करने के अलावा हमारे पास कोई चारा होगा नहीं। लेकिन रोना यह है कि इस समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि दुनिया में अपने सामान को दूसरे देशों में बेचने के लिए हद दर्जे की होड़ मची है। क्या सबसे पहले इस मोर्चे पर निश्चिंत होने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।

Monday, May 15, 2017

उ.प्र. पुलिस की कायापलट

यूं तो बम्बईया फिल्मों में पुलिस को हमेशा से ‘लेट-लतीफ’ और ‘ढीला-ढाला’ ही दिखाया जाता है। आमतौर पर पुलिस की छवि होती भी ऐसी है कि वो घटनास्थल पर फुर्ती से नहीं पहुंचती और बाद में लकीर पीटती रहती है। तब तक अपराधी नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं। पुलिस के मामले में उ.प्र. पुलिस पर ढीलेपन के अलावा जातिवादी होने का भी आरोप लगता रहा है। कभी अल्पसंख्यक आरोप लगाते हैं कि ‘यूपी पुलिस’ साम्प्रदायिक है, कभी बहनजी के राज में आरोप लगता है कि यूपी पुलिस दलित उत्पीड़न के नाम पर अन्य जातियों को परेशान करती है। तो सपा के शासन में आरोप लगता है कि थाने से पुलिस अधीक्षक तक सब जगह यादव भर दिये जाते हैं। यूपी पुलिस का जो भी इतिहास रहा हो, अब उ.प्र. की पुलिस अपनी छवि बदलने को बैचेन है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन ‘यूपी 100’ योजना शुरू होने से आया है। 

इस योजना के तहत आज उ.प्र. के किसी भी कोने से, कोई भी नागरिक, किसी भी समय अगर 100 नम्बर पर फोन करेगा और अपनी समस्या बतायेगा, तो 3 से 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ की गाड़ी में बैठे पुलिसकर्मी उसकी मदद को पहुंच जायेंगे। फिर वो चाहे किसी महिला से छेड़खानी का मामला हो, चोरी या डकैती हो, घरेलू मारपीट हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य कोई भी ऐसी समस्या, जिसे पुलिस हल कर सकती है। यह सरकारी दावा नहीं बल्कि हकीकत है। आप चाहें तो यूपी में इसे कभी भी 24 घंटे आजमाकर देख सकते हैं। पिछले साल नवम्बर में शुरू हुई, यह सेवा आज पूरी दुनिया और शेष भारत के लिए एक मिसाल बन गई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उ.प्र. के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अनिल अग्रवाल ने अपनी लगन से इसे मात्र एक साल में खड़ा करके दिखा दिया। जोकि लगभग एक असंभव घटना है। अनिल अग्रवाल ने जब यह प्रस्ताव शासन के सम्मुख रखा, तो उनके सहकर्मियों ने इसे मजाक समझा। मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत इस योजना को स्वीकार कर लिया और उस पर तेजी से काम करवाया।

आज इस सेवा में 3200 गाडियां है और 26000 पुलिसकर्मी और सूचना प्रौद्योगिकी के सैकड़ों विशेषज्ञ लगे हैं।
 
जैसे ही आप 100 नम्बर पर फोन करते हैं, आपकी काल सीधे लखनऊ मुख्यालय में सुनी जाती है। सुनने वाला पुलिसकर्मी नहीं बल्कि युवा महिलाऐं हैं। जो आपसे आपका नाम, वारदात की जगह और क्या वारदात हो रही है, यह पूछती है। फिर ये भी पूछती है कि आपके आस पास कोई महत्वर्पूण स्थान, मंदिर, मस्ज्जिद या भवन है और आप अपने निकट के थाने से कितना है दूर हैं। इस सब बातचीत में कुछ सेकंेड लगते हैं और आपका सारा डेटा और आपकी आवाज कम्प्यूटर में रिकार्ड हो जाती है। फिर यह रिकार्डिंग एक दूसरे विभाग को सेकेंडों में ट्रांस्फर हा जाती है। जहां बैठे पुलिसकर्मी फौरन ‘यूपी 100’ की उस गाड़ी को भेज देते हैं, जो उस समय आपके निकटस्थ होती है। क्योंकि उनके पास कम्प्यूटर के पर्दें पर हर गाड़ी की मौजूदगी का चित्र हर वक्त सामने आता रहता है। इस तरह केवल 3 मिनट से लेकर 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ के पुलिकर्मी मौका-ए-वारदात पर पहंच जाते है। 

अब तक का अनुभव यह बताता है कि 80 फीसदी वारदात आपसी झगड़े की होती हैं। जिन्हें पुलिसकर्मी वहीं निपटा देते हैं या फिर उसे निकटस्थ थाने के सुपुर्द कर देते हैं।

ये सेवा इतनी तेजी से लोकप्रिय हो रही है कि अब उ.प्र. के लोग थाना जाने की बजाय सीधे 100 नम्बर पर फोन करते हैं। इसके तीन लाभ हो रहे हैं। एक तो अब कोई थाना ये बहाना नहीं कर सकता कि उसे सूचना नहीं मिली। क्योंकि पुलिस के हाथ में केस पहुंचने से पहले ही मामला लखनऊ मुख्यालय के एक कम्प्यूटर में दर्ज हो जाता है। दूसरा थानों पर काम का दबाव भी इससे बहुत कम हो गया है। तीसरा लाभ ये हुआ कि ‘यूपी 100’ जिला पुलिस अधीक्षक के अधीन न होकर सीधे प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के अधीन है। इस तरह पुलिस फोर्स में ही एक दूसरे पर निगाह रखने की दो ईकाई हो गयी। एक जिला स्तर की पुलिस और एक राज्य स्तर की पुलिस। दोनों में से जो गडबड़ करेगा, वो अफसरों की निगाह में आ जायेगा। 

जब से ये सेवा शुरू हुई है, तब से सड़कों पर लूटपाट की घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आई है। आठ महीने में ही 323 लोगों को मौके पर फौरन पहुंचकर आत्महत्या करने से रोका गया है। महिलाओं को छेड़ने वाले मजनुओं की भी इससे शामत आ गयी है। क्योंकि कोई भी लडकी 100 नम्बर पर फोन करके ऐसे मजनुओं के खिलाफ मिनटों में पुलिस बुला सकती है। इसके लिए जरूरत इस बात की है कि उ.प्र. का हर नागरिक अपने मोबाइल फोन पर ‘यूपी 100 एप्प’ को डाउनलोड कर ले और जैसे ही कोई समस्या में फंसे, उस एप्प का बटन दबाये और पुलिस आपकी सेवा में हाजिर हो जायेगी। विदेशी सैलानियों के लिए भी ये रामबाण है। जिन्हें अक्सर ये शिकायत रहती थी कि उ.प्र. की पुलिस उनके साथ जिम्मेदारी से व्यवहार नहीं करती है। इस पूरी व्यवस्था को खड़ी करने के लिए उ.प्र. पुलिस और उसके एडीजी अनिल अग्रवाल की जितनी तारीफ की जाए कम है। जरूरत है इस व्यवस्था को अन्य राज्यों में तेजी से अपनाने की।

Monday, May 8, 2017

नया भारत कर रहा अपनी धार्मिक अस्मिता को पुर्नस्थापित

नया भारत अपनी धार्मिक अस्मिता और मानकों को पुर्नस्थापित करने की चेष्टा में पुरजोर लगा हुआ है। ऐसी ही एक चेष्टा पिछले 15 सालों से योगेश्वर श्रीकृष्ण की क्रीड़ा स्थली ब्रज में मूर्त रूप ले रही है। जिसका एक मनमोहने वाला दृश्य गिरि गोवर्धन की तलहटी में 24 फुट ऊँचे भगवान संकर्षण की स्थापना के दौरान सामने आया। बृजवासियों का उत्साह देखने लायक था। इन्द्र के मान मर्दन के समय जिस आत्मविश्वास का स्थापन हुआ था वही जनभावना दाऊ दादा की इस स्थापना के समय स्फूर्त हुई। जिन कतिपय ताकतों द्वारा ब्रज के सॉंस्कृतिक सोपानों को हड़पने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है वो दाऊ दादा की जय के निनाद से भयभीत हो उठे से दिखे।
5000 वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को भगवान संकर्षण (दाऊजी) का जो विग्रह प्राप्त हुआ था, उसी का एक विशालकाय व भव्य प्रतिरूप गोवर्धन की तलहटी में स्थित संकर्षण कुंड, आन्यौर में स्थापित किया गया। इस विग्रह को तिरूपति बालाजी में स्थित कार्यशाला में 22 अनुभवी शिल्पकारों के एक वर्ष की सघन परिश्रम के पश्चात निर्मित किया गया।
आध्यात्मिक भारत अनादि काल से एकीकृत रहा है। हमारी आस्थाएँ, हमारी परम्पराएँ और हमारे संस्कृतिक मानक भाषा व भूगोल से परे एक से ही रहे हैं। वैविध्यपूर्ण इकाइयाँ एक दूसरे से अंतरंगता बनाए रखती हैं। तभी तो दक्षिण के सर्वमान्य चिन्ना जीवर स्वामी तिरूपति स्थित अपनी शिल्पशाला में उत्तर के बलराम को संकर्षण स्वरूप देने को सहज तैयार हो जाते हैं। तो वेंकटेश्वर बालाजी के भक्त डॉ रामेश्वर राव उतर भारत की इस महाकृति को वित्तीय अनुदान सहज भाव से स्वीकृत कर देते हैं। भारत की यही आध्यात्मिक एकता ही तो नए भारत का निर्माण कर पाएगी।
सांस्कृतिक मानबिंदुओ की पुनः प्रतिष्ठा का एक गहरा प्रभाव सामाजिक अंतर्मन पर होता है जोकि समसामयिक अर्थ व राज व्यवस्था का निर्माण करता है। नए भारत के निर्माण हेतु यह एक प्रमुख अवयव होगा जिसके लिए किसी भी विदेशी धन और ज्ञान की जरूरत नहीं होगी। कम से कम 5000 वर्ष की सुसमृद्ध सभ्यता का धनी भारत अपने व्यक्तिक चिन्तन व कौशल से अपना पुनर्निर्माण करने में सक्षम है। श्रीकृष्ण सरीखे राजनयिक ने विकास का जो मोडेल ब्रज प्रांत में स्थापित किया उससे प्रेरणा लेने की जरूरत है।
इंद्र की अमरावती के ऐश्वर्य का मोह तज उन्होंने ब्रज की समृद्धि के मूल कारक गिरि गोवर्धन की प्रतिष्ठा की। ब्रज के वन और शैल को ही ब्रजवासियोंके मूल निवास स्थान के रूप में स्थापित किया। ऐसा नहीं की वो नगरीय संस्कृति से अनभिज्ञ थे। द्वारिका का प्रणयन तो उन्हीं के कर कमलों से ही हुआ था। सन्दर्भ की सारगर्भित व्याख्या और प्रतिष्ठा ने ही तो कृष्ण को जगतगुरु की पदवी प्रदान की। उन्होंने कंस जैसी विजातीय संस्कृति के अनुयायी के प्रभाव को ब्रज में प्रवेश ही नहीं होने दिया।
ब्रज की सम्पदा को संरक्षित करने के उनके अभिनव प्रयास ने उन्हें ब्रजराज की ख्याति भी दिला दी। ब्रज के वन्य-ग्राम्य जीवन को ना केवल उन्होंने प्रचारित किया बल्कि स्वयं अपनाया भी। नए भारत के निर्माताओं को श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित मूल्यों और मानकों की ओर अपना ध्यान आकृष्ट करना चाहिए। एक भव्य और दिव्य भारत का निर्माण भारतीय अधिष्ठान पर ही हो पाएगा ऐसा विश्वास भारतीय जनमानस में सृष्टिकाल से रहा है।
1893 के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन से लेकर संयुक्त राष्ट्र की महासभा के 2015 के अभिभाषण तक में भारत के इस चिर परिचित स्वरूप का निरूपण हुआ है। दोनों ही नरेंद्र नामराशियों ने भारत के आध्यात्मिक जन मानस की विशद व्याख्या की है। भगवान संकर्षण के इस विशालकाय स्वरूप की स्थापना भी इसी ओर इंगित करती है।नई संज्ञाएँ, नए समीकरण और नए सोपान भारत की धर्मभीः जनता को भ्रमित नहीं कर पाएँगे। इसका जीता जागता उद्घोष गिरि गोवर्धन की तलहटी में स्थापित भगवान संकर्षण का गगनचुंबी श्रीविग्रह कर रहा है। नया भारत, चिर पुरातन भारत की नित प्रवाहमान और सारगर्भित जीवन शैली के अनुक्रम में ही अँगड़ाई ले पाएगा। एक विजातीय परम्परा के अनुगमन के रूप में शायद कभी नहीं।
ब्रज भूमि में ही जन्मे और पले बढ़े एकात्म मानवतावाद के प्रवर्तक दीन दयाल जी ने भी कृष्ण के ही इस जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर के दर्शन को ही अपने राजनैतिक जीवन का आधार बनाया। उनका विशद वॉंग्मय इस दिशा में स्पष्ट व सारगर्भित है। पश्चिम का अलक्षेन्द्र विविध मुखौटे लगा भारत का अतिक्रमण ही करेगा। भारत के फटे वसन को सीने की उसकी लालसा न होगी।

Monday, May 1, 2017

देश को राहुल बजाज से जैसे उद्योगपतियों की जरूरत

पिछले हफ्ते भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने ‘सीआईआई’ के एक भव्य समारोह में प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज को ‘लाईफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड’ दिया। यह एक सुखद अनुभव था। क्योंकि राहुल उस पीढी के उद्योगपति हैं, जिन्होंने मूल्यों पर आधारित व्यापार किया और निज लाभ के लिए सरकारी तंत्र को भ्रष्ट बनाने की कोशिश नहीं की। जिसके बिना बहुत से औद्यौगिक घराने आज वहां न होते, जहाँ वे पहुंच गये हैं। अपने इसी नैतिक बल के आधार पर राहुल की शख्सियत में वो खुद्दारी है, कि वे सरकार की कमियों पर खुलकर बोलते हैं। अवार्ड स्वीकार करते वक्त भी उन्होंने देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं में तेजी से आ रही गिरावट पर दुख प्रकट किया।

दरअसल वतनपरस्ती और बेबाकी उन्हें खून में मिली है। उनके दादा जमुनालाल बजाज जी महात्मा गांधी के सहयोगी और बड़े राष्ट्रभक्त थे। उनकी दादी ने भरी जवानी में गांधीजी के कहने से घर का सारा सोना और चांदी के बर्तन बेचकर, आजादी की लड़ाई के लिए दे दिये। दोनों ने जीवनभर मोटा खादी का कपड़ा पहना। ऐसे संस्कारों में पल-बढ कर और देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्तकर राहुल ने बजाज आटो को नई ऊँचाई तक पहुंचाया। हमारी पीढी के लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि उस जमाने के कोटा लाईसेंस राज में बजाज का एक स्कूटर बुक कराने के बाद दसियों वर्ष इंतजार करना पड़ता था।

 एक बार राहुल ने मुझे बताया कि अरूण पुरी उनके पास इंडिया टुडे’ पत्रिका की परिकल्पना लेकर आये, तो राहुल ने बिना प्रोडक्ट देखे, अगले 10 वर्ष के लिए इंडिया टुडे का पिछला पेज विज्ञापन के लिए बुक कर दिया। उनके उद्योगपति मित्रों ने मजाक उड़ाया कि पत्रिका बाजार में आयी नहीं और तुमने इतना बड़ा वायदा कर दिया। आदमी और विचारों की परख करने की क्षमता रखने वाले राहुल बजाज ने यह सिद्ध कर दिया कि उनके मित्र गलत थे। क्योंकि तब से आज तक विज्ञापन के लिए वह पिछला पेज किसी को नहीं मिला। आज भी उस पर ‘हमारा बजाज’ स्कूटर का विज्ञापन छपता है।

 1989 में जब मैंने देश की पहली स्वतंत्र हिंदी टीवी समाचार ‘कालचक्र वीडियों मैग्जीन’ शुरू की, तो मैनें राहुल से उसमें विज्ञापन देने को कहा। उन्होंने इंडिया टुडे का उदाहरण देकर मेरी पूरी वीडियो मैग्जीन को स्पोंसर करने का प्रस्ताव दिया। जिसे मैंने विनम्रता से यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि, मैं किसी एक उद्योगपति घराने के अधीन रहकर, पत्रकारिता नहीं करना चाहता। राहुल ने बुरा नहीं माना।

तमाम दूसरे उद्योगपतियों से भिन्न राहुल को देश के सवालों में गहरी रूचि रहती है। उनके मित्रों में उनकी उम्र के, हमारी उम्र के और आज के नौजवान सभी शामिल हैं। जिन्हें वे एक-एक करके भोजन पर बुलाते हैं और उनसे तमाम बड़े सवालों पर चर्चा करते हैं। वरना आमतौर पर ऐसे उद्योगपति ही मिलते हैं, जो हर पत्रकार को दलाल बनाने के लिए उत्सुक रहते हैं, ताकि उसके संपर्कों का लाभ उठाकर व्यवसायिक फायदा लिया जा सके। राहुल ने आजतक ऐसी कोई कोशिश किसी के साथ नहीं की। इसीलिए उनसे बात करना, एक सुखद अनुभूति होती है।

कई बार पैसे वाले लोग अपनी आलोचना नहीं झेल पाते। वे केवल अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं। 1993 में जब मैंने हवाला कांड उजागर किया, तो राहुल से फोन पर बात हो रही थी। वो ये मानने को तैयार नहीं थे कि कोई इतनी भी निष्पक्ष पत्रकारिता कर सकता है कि एक ही रिर्पोट में सभी राजनैतिक दलों के बड़े नेताओं का पर्दाफाश कर दे। मै ने उनसे कहा कि मेरी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण मेरी यह रिपोर्ट है, ‘हर्षद से बड़ा घोटाला- सीबीआई ने दबा डाला’। मैंने जान जोखिम डालकर, पूरी राजनैतिक व्यवस्था से अकेले युद्ध छेड़ दिया है। वे फिर भी तर्क करते रहे, तो खीजकर मैंने कहा कि आप तो रहने दीजिए। बैंकों का हजारों करोड़ रूपया दबाकर बैठे उद्योगपति तो मौज कर रहे हैं और किसान छोटे-छोटे कर्जे न दे पाने के  कारण आत्महत्या कर रहे हैं। आप उनके खिलाफ जोरदारी से बोलकर दिखाऐं, तब पता चले, आपमें कितनी हिम्मत है। उन्होंने हंसकर मेरी बात सुनी और कुछ ही दिनों बाद अखबारों में मैंने पढ़ा कि राहुल बजाज ने मुंबई के कुछ बड़े उद्योगपतियों को साथ लेकर उद्योग और व्यापार में नैतिकता लाने के लिए एक ‘बाम्बे क्लब’ नाम का समूह गठित किया।

यूं तो राहुल से मेरा दूर का रिश्ता भी है, पर मेरी पहली मुलाकात एक युवा पत्रकार के रूप में आज से 30 वर्ष पहले दिल्ली में हुई। मैं अपने अखबार के लिए उनका इंटरव्यू लेना चाहता था, पर वे उसके लिए तैयार न थे। उनसे हुई केवल अनौपचारिक बातचीत को जब अगले दिन मैनें एक औपचारिक साक्षात्कार के रूप में छाप दिया, तो उनका पूना से फोन आया। बोले अभी दिल्ली के हवाई जहाज में अटल बिहारी वाजपेयी मेरे साथ आए और वे तुम्हारे कालम को पढ़कर उसकी चर्चा मुझसे कर रहे थे। राहुल इस बात पर हैरान थे कि बिना टेप रिकार्ड किये, कोई कैसे एक घंटे की बातचीत को शब्दशः याद रख सकता है। तब से आज तक हम अनेक बार मिलते रहे हैं और हर मुलाकात एक अच्छी भावना से पूरी होती है। युवा उद्योगपतियों के लिए राहुल बजाज का जीवन अनुकरणीय है। हम इस अखबार के अपने सुधी पाठकों की ओर से उनके दीर्घ व स्वस्थ जीवन की कामना करते हैं।

Monday, April 24, 2017

क्यों घुसना चाहता है वल्र्ड बैंक हमारे धर्मक्षेत्रों में?

Punjab Kesari 24 April 2017
ईसाईयों के विश्व गुरू पोप जब भारत आए थे, तो भारत सरकार ने उनका भव्य स्वागत किया था। परंतु पोप ने इसका उत्तर शिष्टाचार और कृतज्ञता के भाव से नहीं दिया बल्कि भारत के बहुसंख्यकों का अपमान एवं तिरस्कार करते हुए खुलेआम घोषणा की, कि हम 21वीं सदी में समस्त भारत को ईसाई बना डालेंगे। बहुसंख्यकों के धर्म को नष्ट कर डालने की खुलेआम घोषणा करना हमारी धार्मिक भावनाओं पर खुली चोट करना था, जो कानून की नजर में अपराध है। पर सरकार ने कुछ नहीं किया। सरकार की उस कमजोरी का लाभ उठाकर विश्व बैंक व ऐसी अन्य संस्थाओं के ईसाई पदाधिकारी, पोप की उसी घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं। इसी में से एक है ‘गरीब-परस्त पर्यटन’ (प्रो-पूअर टूरिस्म) के नाम पर हमारे पवित्र तीर्थों जैसे ब्रज या बौद्ध तीर्थ कुशीनगर आदि में पिछले दरवाजे से साजिशन ईसाई हस्तक्षेप। इसी क्रम में ब्रज के कुंडों के जीर्णोंद्धार और श्रीवृंदावन धाम में श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सौंदर्यींकरण के नाम पर एक कार्य योजना बनवाकर विश्व बैंक चार लक्ष्य साधने जा रहा है।

पहलाः विश्व में यह प्रचार करना कि भारत गरीबों का देश है और हम ईसाई लोग उनके भले के लिए काम कर रहे है। इस प्रकार उभरती आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की छवि को खराब करना। दूसराः हिंदूओं को नाकारा बताकर यह प्रचारित करना कि हिंदू अपने धर्मस्थलों की भी देखभाल नहीं कर सकते, उन्हें भी हम ईसाई लोग ही संभाल सकते हैं। जैसे कि भारत को संभालने का दावा करके अंगे्रज हुकुमत ने 190 वर्षों में सोने की चिड़ियां भारत को जमकर लूटा। उसके बावजूद भारत आज भी वैभव में पूरे यूरोप से कई गुना आगे है। जबकि उनके पास तो पेट भरने को अन्न भी नहीं है। यूरोप के कितने ही देश दिवालिया हो चुके है और होते जा रहे हैं। क्योंकि अब उनके पास लूटने को औपनिवेशिक साम्राज्य नहीं हैं। इसलिए ‘वल्र्ड बैंक’ जैसी संस्थाओं को सामने खड़ाकर हमारे मंदिरो और धर्मक्षेत्रों को लूटने के नये-नये हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। तीसराः इस प्रक्रिया में हमारे धर्मक्षेत्रों में अपने गुप्तचरों का जाल बिछाना जिससे वो सारी सूचनाऐं एकत्र की जा सकें, जिनका भविष्य में प्रयोग कर हमारे धर्म को नष्ट किया जा सके। 

एक छोटा उदाहरण काफी होगा। इसाई धर्म में पादरी होता है, पुजारी नहीं। चर्च होता है, मंदिर नहीं। ईसा मसीह प्रभु के पुत्र माने जाते हैं, ईश्वर नहीं। इनके पादरी सदियों से सफेद वस्त्र पहनते हैं, केसरिया नहीं। अब इनकी साजिश देखिएः आप बिहार, झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों में ये देखकर हैरान रह जायेंगे कि भोली जनता को मूर्ख बनाने के लिए ईसाई धर्म प्रचारक अब भगवा वस्त्र पहनते हैं। स्वयं को पादरी नहीं, पुजारी कहलवाते हैं। गिरजे को प्रभु यीशु का मंदिर कहते हैं। 2000 वर्षों से जिन ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बताते आए थे, उन्हें अब भारत में  ईश्वर बताने लगे हैं। क्योंकि हमारे भगवान तो श्रीकृष्ण व श्रीराम हैं। भगवान श्रीराम के पुत्र तो लव और कुश हैं। हिंदू समाज भगवान राम की पूजा करता है, लव और कुश का केवल सम्मान करता है। अगर ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र बतायेंगे तो भारतीय जनता उन्हें लव-कुश के समान समझेगी, भगवान नहीं मानेगी। चौथाः हमारे धर्मक्षेत्रों की गरीबी दूर करने के नाम पर जो कर्ज ये देने जा रहे हैं, उसमें से बड़ी मोटी रकम अर्तंराष्ट्रीय सलाहकारों को फीस के रूप में दिलवा रहे हैं। ऐसे सलाहकार जो ब्रज के विकास की योजनाऐं बनाते समय प्रस्तुति देते हुए कहते हैं कि स्वामी हरिदास जी, तानसेन के शिष्य थे।

ऐसी योजनाऐं बनाने के लिए दी जाने वाली करोड़ों रूपये फीस के पीछे हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को भ्रष्ट करने के लिए मोटा कमीशन देना और उन्हें विदेश घुमाने का खर्चा शामिल होता है। जबकि इस सब खर्चे का भार भी उत्तर प्रदेश की जनता पर कर्ज के रूप में ही डाला जायेगा। पिछले कई वर्षों से अखबारों में आ रहा है कि विश्व बैंक ब्रज की गरीबी दूर करने के लिए बडी-बड़ी योजनाऐं बना रहा है। शुरू में खबर आई कि वृंदावन में 100 करोड़ रूपये खर्च करके एक बगीचा बनाया जायेगा और एक-एक कुंड के जीर्णोद्धार पर 10-10 करोड़ रूपये खर्च करके 9 कुंडों का जीर्णोद्धार किया जायेगा। 2002 से ब्रज को सजाने में व कुंडों के जीर्णोद्धार में जुटी ब्रज फाउंडेशन की टीम को ये बात गले नहीं उतरी। क्योंकि कूड़े के ढेर पडे़, वृंदावन के ब्रह्मकुंड को ब्रज फाउंडेशन ने मात्र 88 लाख रूपये में सजा-संवाकर, सभी का हृदय जीत लिया। गोवर्धन परिक्रमा पर भी इसी तरह दशाब्दियों से मलबे का ढेर बने रूद्र कुंड को मात्र ढाई करोड़ रूपये में इतना सुंदर बना दिया कि उसका उद्घाटन करने आए उ.प्र. के मुख्यमंत्री को सार्वजनिक मंच पर कहना पड़ा कि ‘रूपया तो हमारी सरकार भी बहुत खर्च करती है, पर इतना सुंदर कार्य क्यों नहीं कर पाती, जितना ब्रज फाउंडेशन करती है।’ ब्रज फाउंडेशन ने विरोध किया तो 2015 में विश्व बैंक को ये योजनाऐं निरस्त करनी पड़ीं। अब जो नई योजनाऐं बनाई हैं वे भी इसी तरह बे-सिर पैर की हैं। ‘कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना’।
हमारे मंदिरों, तीर्थस्थलों, लीलास्थलियों और आश्रमों के संरक्षण, संवर्धन या सौदंर्यीकरण का दायित्व हिंदू धर्मावलम्बियों का है। ईसाई या मुसलमान हमारे धर्मक्षेत्रों में कैसे दखल दे सकते हैं? क्या वे हमें अपने वैटिकन या मक्का मदीने में ऐसा हस्तक्षेप करने देंगे? हमारे धर्मक्षेत्रों में क्या हो, इसका निर्णय, हमारे धर्माचार्य और हम सब भक्तगण करेंगे। ब्रज में इस विनाशकारी हस्तक्षेप के विरूद्ध आवाज उठ रही है। देखना है योगी सरकार क्या निर्णय लेगी।
 

Monday, April 17, 2017

वैदिक मार्गदर्शन से बचेंगे जल प्रलय से

सूर्य नारायण अपने पूरे तेवर दिखा रहे हैं। ये तो आगाज है 10 साल पहले ही जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञों द्वारा चेतावनी दे दी गई थी कि 2035 तक पूरी धरती के जलमग्न हो जायेगी। ये चेतावनी देने वाले दो वैज्ञानिकों को, राजेन्द्र पचैरी व भूतपूर्व अमेरिकन उप. राष्ट्रपति अलगौर को ग्लोबल पुरस्कार से नवाजा गया था। इस विषय पर एक डाक्यूमेंट्री ‘द इन्कवीनियेंट टू्रथ’ को भी जनता के लिए जारी किया गया था। विश्व के 3000 भूगर्भशास्त्रियों ने एक स्वर में ये कहा कि अगर जीवाष्म ईंधन यानि कोयला, डीजल, पेट्रोल का उपभोग कम नहीं किया गया, तो वायुमंडल में कार्बनडाई आक्साइड व ग्रीन हाऊस गैस की वायुमंडल में इतनी मोटी धुंध हो जायेगी कि सूर्य की किरणें उसमें में से प्रवेश करके धरती की सतह पर जमा हो जायेंगी और बाहर नहीं निकल पायेंगी। जिससे धरती का तापमान 2 डिग्री से बढ़कर 15-17 डिग्री तक जा पहुंचेगा। जिसके फलस्वरूप उत्तरी, दक्षिणी ध्रुव और हिमालय की ग्लेशियर की बर्फ पिघलकर समुद्र में जाकर जल स्तर बढ़ा देगी। जिससे विश्व के सारे द्वीप- इंडोनेशिया, जापान, फिलीपींस, फिजी आईलैंड, कैरिबियन आईलैंड आदि जलमग्न हो जायेंगे और समुद्र का पानी ठांठे मारता समुद्र के किनारे बसे हुए शहरों को जलमग्न करके, धरती के भू-भाग तक विनाशलीला करता हुआ आ पहुंचेगा। उदाहरण के तौर पर भारतीय संदर्भ में देखा जाए, तो बंगाल की खाड़ी का पानी विशाखापट्टनम, चेन्नई, कोलकाता जैसे शहरों को डुबोता हुआ दिल्ली तक आ पहुंचेगा।


ठससे घबराकर पूरे विश्व ने ‘सस्टेनेबल ग्रोथ’ नारा देना शुरू किया। मतलब कि हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए, जिससे कि लेने के देने पड़ जाए। पर अब हालात ऐसे हो गये हैं कि चूहों की मीटिंग में बिल्ली के गलें में घंटी बांधने की युक्ति तो सब चूहों ने सुझा दी। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए कोई चूहा साहस करके आगे नहीं बढ़ा। अमेरिका जैसा विकसित ‘देश कोयले, पैट्रोल और डीजल का उपभोग कम करने के लिए तैयार नहीं हो सका। उसने सरेआम  ‘क्योटो प्रोटोकोल’ की धज्जियां उड़ा दी। दुनिया की हालत ये हो गई है कि ‘एक तरफ कुंआ, दूसरी तरफ खाई, दोनों ओर मुसीबत आई’। ऐसे मुसीबत के वक्त भारतीय वैदिक वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर ने भूगर्भ वैज्ञानिकों से प्रश्न पूछा कि धरती का तापमान 15 डिग्री सें किस स्रोत से है? तो वैज्ञानिकों ने जबाव दिया कि 15 डिग्री से तापमान का अकेला स्रोत सूर्य की धूप है। तो अथर्ववेद के ब्रह्मचारी सूक्त के मंत्र संख्या 10 और 11 में ब्रह्मा जी ने स्पष्ट लिखा है कि धरती के तापमान के दो स्रोत है- एक ’जीओेथर्मल एनर्जी’ भूतापीय उर्जा और दूसरा सूर्य की धूप। याद रहे कि विश्व में 550 सक्रिय ज्वालामुखियों के मुंह से निकलने वाला 1200 डिग्री सें0 तापमान का लावा और धरती पर फैले हुए 1 लाख से ज्यादा गर्म पानी के चश्मों के मुंह से निकलता हुआ गर्म पानी, भाप और पूरी सूखी धरती से निकलने वाली ‘ग्लोबल हीट फ्लो’ ही धरती के 15 डिग्री सें तापमान में अपना महत्वपूर्णं योगदान देती हैं। कुल मिलाकर सूर्य की धूप के योगदान से थोड़ा सा ज्यादा योगदान, इस भूतापीय उर्जा का भी है। यूं माना जाए कि 8 डिग्री तापमान भूतापीय उर्जा और 7 डिग्री सें तापमान का योगदान सूर्य की धूप का है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के किसी मैदान में एक वर्ग मि. जगह के अंदर से 85 मिलीवाट ग्लोबल हीट फ्लो निकलकर आकाश में जाती है, जो कि धरती के वायुमंडल को गर्म करने में सहयोग देती है। इस तरह विश्व की एक महत्वपूर्णं बुनियादी मान्यता को वेद के मार्ग दर्शन से गलत सिद्ध किया जा सका।

इस सबका एक समाधान है कि सभी सक्रिय ज्वालामुखियों के मुख के ऊपर ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर 1200 डिग्री तापमान की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए और उसका योगदान वायुमंडल को गर्म करने से रोकने में किया जाए। इसी प्रकार गर्म पानी के चश्मों के मुंह पर भी ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर भूतापीय उर्जा को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके अलावा सभी समुद्री तटों पर और द्वीपों पर पवन चक्कियां लगाकर वायुमंडल की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए, तो इससे ग्लोबल कूलिंग हो जायेगी और धरती जलप्रलय से बच जायेगी।
भारत के हुक्मरानों के लिए यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए कि जब हमारे वेदों में प्रकृति के गहनतम रहस्यों के समाधान निहित हैं, तो हम टैक्नोलोजी के चक्कर में सारी दुनिया में कटोरा लेकर क्यों घूमते रहते हैं? पर्यावरण हो, कृषि हो, जल संसाधन हो, स्वास्थ हो, शिक्षा हो या रोजगार का सवाल हो, जब तक हम अपने गरिमामय अतीत को महत्व नहीं देंगे, तब तक किसी भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है।

Monday, April 10, 2017

केवल कर्ज माफी से नहीं होगा किसानो का उद्धार

Punjab Kesari 10 April 2017
यूपीए-2 से शुरू हुआ किसानों की कर्ज माफी का सिलसिला आज तक जारी है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी ने चुनावी वायदों को पूरा करते हुए लघु व सीमांत किसानों की कर्ज माफी का एलान कर दिया है। निश्चित रूप से इस कदम से इन किसानों को फौरी राहत मिलेगी। पर  इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उनके दिन बदल जायेंगे। केंद्रीय सरकार ने किसानों की दशा सुधारने के लिए ‘बीज से बाजार तक’ छः सूत्रिय कार्यक्रम की घोषणा की है। जिसका पहला बिंदू है किसानों को दस लाख करोड़ रूपये तक ऋण मुहैया कराना। किसानों को सीधे आनलाईन माध्यम से क्रेता से जोड़ना, जिससे बिचैलियों को खत्म किया जा सके। कम कीमत पर किसानों की फसल का बीमा किया जाना। उन्हें उन्नत कोटि के बीज प्रदान करने। 5.6 करोड़ ‘साईल हैल्थ कार्ड’ जारी कर भूमि की गुणवत्तानुसार फसल का निर्णय करना। किसानों को रासायनिक उर्वरकों के लिए लाईन में न खड़ा होना पड़े, इसकी व्यवस्था सुनिश्चित करना। इसके अलावा उनके लिए सिंचाई की माकूल व्यवस्था करना। विचारणीय विषय यह है कि क्या इन कदमों से भारत के किसानों की विशेषकर सीमांत किसानों की दशा सुधर पाएगी?

सोचने वाली बात यह है कि कृषि को लेकर भारतीय सोच और पश्चिमी सोच में बुनियादी अंतर है। जहां एक ओर भारत की पांरपरिक कृषि किसान को विशेषकर सीमांत किसान को उसके जीवन की संपूर्ण आवश्यक्ताओं को पूरा करते हुए, आत्मनिर्भर बनाने पर जोर देती है, वहीं पश्चिमी मानसिकता में कृषि को भी उद्योग मानकर बाजारवाद से जोड़ा जाता है। जिसके भारत के संदर्भ में लाभ कम और नुकसान ज्यादा हैं। पश्चिमी सोच के अनुसार दूध उत्पादन एक उद्योग है। दुधारू पशुओं को एक कारखानों की तरह इकट्ठा रखकर उन्हें दूध बढ़ाने की दवाऐं पिलाकर और उस दूध को बाजार में बड़े उद्योगों के लिए बेचकर पैसा कमाना ही लक्ष्य होता है। जबकि भारत का सीमांत कृषक, जो गाय पालता है, उसे अपने परिवार का सदस्य मानकर उसकी सेवा करता है। उसके दूध से परिवार का पोषण करता है। उसके गोबर से अपने खेत के लिए खाद् और रसोई के लिए ईंधन तैयार करता है। बाजार की व्यवस्था में यह कैसे संभव है? इसी तरह उसकी खेती भी समग्रता लिए होती है। जिसमें जल, जंगल, जमीन, जन और जानवर का समावेश और पारस्परिक निर्भरता निहित है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानवतावाद इसी भावना को पोषित करता है। बाजारीकरण पूर्णतः इसके विपरीत है।

देश  की जमीनी सोच से जुड़े और वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले विचारकों की चिंता का विषय यह है कि विकास की दौड़ में कहीं हम व्यक्ति केन्द्रित विकास की जगह बाजार केंद्रित विकास तो नहीं कर रहे। पंजाब जैसे राज्य में भूमि उर्वरकता लगातार कम होते जाना, भू-जल स्तर खतरनाक गति से नीचा होते जाना, देश में जगह-जगह लगातार सूखा पड़ना और किसानों को आत्महत्या करना एक चिंताजनक स्थिति को रेखांकित करता है। ऐसे में कृषि को लेकर जो पांरपरिक ज्ञान और बुनियादी सोच रही है, उसे परखने और प्रयोग करने की आवश्यकता है। गुजरात का ‘पुनरोत्थान ट्रस्ट’ कई दशकों से देशज ज्ञान पर गहरा शोध कर रहा है। इस शोध पर आधारित अनेक ग्रंथ भी प्रकाशित किये गये हैं। जिनको पढ़ने से पता चलता है कि न सिर्फ कृषि बल्कि अपने भोजन, स्वास्थ, शिक्षा व पर्यावरण को लेकर हम कितने अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी हो गये हैं। हम देख रहे हैं कि आधुनिक जीवन पद्धति लगातार हमें बीमार और कमजोर बनाती जा रही है। फिर भी हम अपने देशज ज्ञान को अपनाने को तैयार नहीं हैं। वो ज्ञान, जो हमें सदियों से स्वस्थ, सुखी और संपन्न बनाता रहा और भारत सोने की चिड़िया कहलाता रहा। जबसे अंग्रेजी हुकुमत ने आकर हमारे इस ज्ञान को नष्ट किया और हमारे अंदर अपने ही अतीत के प्रति हेय दृष्टि पैदा कर दी, तब से ही हम दरिद्र होते चले गये। कृषि को लेकर जो भी कदम आज उठाये जा रहें हैं, उनकी चकाचैंध में देशी समझ पूरी तरह विलुप्त हो गयी है। यह चिंता का विषय है। कहीं ऐसा न हो कि ‘चैबे जी गये छब्बे बनने और दूबे बनकर लौटे’।

यह सोचना इसलिए भी महत्वपूर्णं है क्योंकि बाजारवाद व भोगवाद पर आधारित पश्चिमी अर्थव्यवस्था का ढ़ाचा भी अब चरमरा गया है। दुनिया का सबसे विकसित देश माना जाने वाला देश अमरिका दुनिया का सबसे कर्जदार है और अब वो अपने पांव समेट रहा है क्योंकि भोगवाद की इस व्यवस्था ने उसकी आर्थिक नींव को हिला दिया है। समूचे यूरोप का आर्थिक संकट भी इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि बाजारवाद और भोगवाद की अर्थव्यवस्था समाज को खोखला कर देती है। हमारी चिंता का विषय यह है कि हम इन सारे उदाहरणों के सामने होेते हुए भी पश्चिम की उन अर्थव्यवस्थाओं की विफलता की ओर न देखकर उनके आडंबर से प्रभावित हो रहे हैं।

आज के दौर में जब भारत को एक ऐसा सशक्त नेतृत्व मिला है, जो न सिर्फ भारत की वैदिक संस्कृति को गर्व के साथ विश्व में स्थापित करने सामथ्र्य रखता है और अपने भावनाओं को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने में संकोच नहीं करता, फिर क्यों हम भारत के देशज ज्ञान की ओर ध्यान नहीं दे रहे? अगर अब नहीं दिया तो भविष्य में न जाने ऐसा समय फिर कब आये? इसलिए बात केवल किसानों की नहीं, पूरे भारतीय समाज की है, जिसे सोचना है कि हमें किस ओर जाना है?

Monday, April 3, 2017

योगी को सीएम बनाकर मोदी ने कोई गलती नहीं की

जिस दिन आदित्यनाथ योगी जी की शपथ हुई, उस दिन व्हाट्सएप्प पर एक मजाक चला, जिसमें दिखाया गया कि आडवाणी जी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कंधे पर हाथ रखकर कह रहे हैं कि ‘आज तूने वही गलती कर दी, जो मैने तूझे गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर की थी’। ये एक भद्दा मजाक था। ये उस शैतानी दिमाग की उपज है, जो भारत में सनातनधर्मी मजबूत नेतृत्व को उभरते और सफल होते नहीं देखना चाहता। जबकि सच्चाई ये है कि मोदी जी ने योेगी जी को उ.प्र. की बागडोर सौंपकर तुरूप का पत्ता फैंका है। देश की जनता तभी सुखी हो सकती है, जब प्रदेश की सरकार का नेतृत्व चरित्रवान और योग्य लोग करें। क्योंकि केंद्र की सरकार तो नीति बनाने का और साधन मुहैया करने का काम करती है। योजनाओं का क्रियान्वयन तो प्रदेश की नौकरशाही करती है। अगर वो कोताही बरतें तो जनता तक नीतियों का लाभ नहीं पहुंचता, जिससे जनाक्रोश पनपता है। आज के दौर में जब राजनीतिज्ञों को सफल होने के लिए चाहे-अनचाहे तमाम भ्रष्ट तरीके अपनाने पड़ते हैं, ऐसे में किसी नेता से ये उम्मीद करना कि वो रातों-रात रामराज्य स्थापित कर देगा, काल्पनिक बात है। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है कि साधन संपन्न तपस्वी योगी के भ्रष्ट होने का कोई कारण नहीं है। इसलिए वह ईमानदार रह भी सकता है और ईमानदारी को शासन पर कड़ाई से लागू भी कर सकता है। उ.प्र. की जो हालत पिछले दो दशकों से रही है, उसमें जनता को शासन से अपेक्षा के अनुरूप व्यव्हार नहीं मिला। ऐसे में उ.प्र. को योगी जी जैसेे मुख्यमंत्री का इंतजार था।

मोदी जी के इस कदम से उ.प्र. की हालत सुधरने की संभावनाऐं प्रबल हो गयी हैं। लेकिन ये काम 5 साल में भी पूरा होने नहीं जा रहा और जब तक उ.प्र. उत्तम प्रदेश नहीं बनेगा तब तक योगी जी परीक्षा में पास नही होंगें। ऐसे में उन्हें कम से कम अगले 10 साल उत्तर प्रदेश को तेज विकास के रास्ते से ले जाना होगा। उ.प्र. की नौकरशााही का तौर-तरीक बदलना होगा। उसमें जनता के प्रति सेवा का भाव लाना होगा। ये काम एक-दो दिन का नहीं है। आज योगी जी की आयु मात्र 45 वर्ष है। 10 वर्ष बाद, वे मात्र 55 वर्ष के होंगें। जबकि मोदी जी 75 वर्ष के हो जायेंगे। तब वो समय आयेगा, जब योगी जी राष्ट्रीय भूमिका के लिए उपलब्ध हो सकेगें। इस तरह मोदी जी ने आम जनता के मन में जो प्रश्न था कि उनके बाद कौन, उसे भी इस कदम से दूर कर दिया है। क्योंकि यह सवाल उठना स्वभाविक था कि मोदी के बाद भारत को सशक्त नेतृत्व कौन देगा? अब उस प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना प्रबल हो गयी है।

वैसे भी राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण करने से पहले मोदी जी ने 15 वर्ष गुजरात की सेवा की। आज उन्होंने अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि बना ली है जबकि योगी जी के लिए सरकार चलाने का ये पहला अनुभव है। अभी उन्हें बहुत कुछ देखना और समझना है। इसलिए इस तरह के बेतुके मजाक करना, सिर्फ मानसिक दिवालियापन का परिचय देता है। वरना न तो मोदी को योगी से खतरा है और न योगी को मोदी से खतरा है। अगर खतरा होता तो अमित शाह जैसे मझे हुए शतरंज के खिलाड़ी ये मोहरा बिछाते ही नहीं।

1000 साल का मध्य युग, 200 साल का औपनिवेशक शासन और फिर 70 साल आजादी के बाद भारत की बहुसंख्यक हिंदू आबादी ने अपमान के घूंट पीकर गुजारे हैं। हमारी आस्था के तीनों केंद्र मथुरा, काशी और अयोध्या, आज भी हमें उस अपमान की लगातार याद दिलाते हैं। हमारी गौवंश आधारित कृषि, आर्युवेद व गुरूकुल शिक्षा प्रणाली की उपेक्षा करके, जो कुछ हम पर थोपा गया, उसे भारतीय समाज शारिरिक, मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल हुआ है। भैतिकतावाद की इस चकाचैंध में अब तो हमसे शुद्ध अन्न, जल, फल व वायु तक छीन ली गई है। हमारे उद्यमी और कर्मठ युवाओं को थोथी डिग्री के प्रमाण पत्र पकड़ाकर, नाकारा बेरोजगारों की लंबी कतारों में खड़ा कर दिया गया है। न तो वो गांव के काम के लायक रहे और न शहर के। इन सारी समस्याओं का हल हमारी शुद्ध सनातन संस्कृति में था, और आज भी है। जरूरत है उसे आत्मविश्वास के साथ अपनाने की।

जब तक प्रदेशों और राष्ट्र के स्तर पर भारत के सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रवादी नेतृत्व पदासीन नहीं होगा, तब तक भारत अपना खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त नहीं कर पायेगा। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अगर कर्नाटक के खानमाफिया रेड्डी बंधुओं या मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले जैसे कांड होंगे तो फिर सत्ता में कोई भी हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। इसलिए जहां एक तरफ हर राष्ट्रप्रेमी भारत को एक सबल राष्ट्र के रूप देखना चााहता है। वहीं इस बात की सत्तारूढ़ दल की जिम्मेदारी है कि परीक्षा की घडी में सच्चाई से आंख न चुरायें और अपनी गल्तियों को छिपाने की कोशिश न करें।

मैं याद दिलाना चाहता हूं कि जब आतंकवाद और भ्रष्टाचार के विरूद्ध 1993 में मैंने हवाला कांड खोलकर, अपनी जान हथेली पर रखकर, पूरी राजनैतिक व्यव्यस्था से वर्षों अकेले संघर्ष किया था तब राष्ट्रप्रेमी शक्तियों ने केवल इसलिए चुप्पी साध ली क्योंकि हवाला कांड में लालकृष्ण आडवाणी जी भी आरोपित थे। जबकि कांगेस और दूसरे दलों के 53 से अधिक नेता अरोपित हुए थे। फिर भी मुझे कुछ लोगों ने हिन्दू विरोधी कहकर बदनाम करने की नाकाम कोशिश की जबकि मैं भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के लिए हमेशा सीना तानकर खड़ा रहा हूं। यही वजह है कि नरेन्द भाई के प्रधानमंत्री बनने के 5 वर्ष पहले से ही, मैं उनके नेतृत्व का कायल था और उन्हें भारत की गद्दी पर देखना चाहता था। इसलिए हमेशा उनके पक्ष में लिखा और बोला। भारत की वैदिक परंपरा है कि अपने शुभचिंतकों की आलोचना को भगवत्प्रसाद मानकर स्वीकार किया जाए और चाटुकरों की फौज से बचा जाऐ। अगर मोदी जी और योगी जी इस सिद्धांत का पालन करेंगे तो उन्हें सफल होने से कोई नहीं रोक सकता।

Monday, March 27, 2017

वेदों के अनुसार आकाश की बिजली का प्रयोग संभव

बिजली आज सभ्य समाज की बुनियादी जरूरत बन चुकी है। गरीब-अमीर सबको इसकी जरूरत है। विकासशील देशों में बिजली का उत्पादन इतना नहीं होता कि हर किसी की जरूरत को पूरा कर सके। इसलिए बिजली उत्पादन के वैकल्पिक स्त्रोत लगातार ढू़ढे जाते है। पानी से बिजली बनती है, कोयले से बनती है, न्यूक्लियर रियेक्टर से बनती है और सूर्य के प्रकाश से भी बनती है। लेकिन वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर जिन्होंने वैदिक विज्ञान के आधार पर आधुनिक जगत की कई बड़ी चुनौतियों को मौलिक रूप से सुलझाने का काम किया है, उनका दावा है कि बादलों में चमकने वाली बिजली को भी आदमी की जरूरत के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि एक हकीकत है। दुनिया के विकसित देश जैसे अमेरिका, जापान, चीन, फ़्रांस आदि तो इस बिजली के दोहन के लिए संगठित भी हो चुके हैं । उनकी संस्था का नाम है ‘इंटरनेशनल कमीशन आन एटमास्फारिक इलैक्ट्रिसिटी’। दुर्भाग्य से भारत इस संगठन का सदस्य नहीं है। अलबत्ता यह बात दूसरी है कि भारत के वैदिक शास्त्रों में इस आकाशीय बिजली को नियंत्रित करने का उल्लेख आता है। देवताओं के राजा इंद्र को इसकी महारत हासिल है। सुनने में यह विचार अटपटा लगेगा। ठीक वैसे ही जैसे आज से सौ वर्ष पहले अगर कोई कहता कि मैं लोहे के जहाज में बैठकर उड़ जाउंगा! तो दुनिया उसका मजाक उड़ाती।

पृथ्वी की सतह से 80 किमी. उपर तक तो हमारा वायुमंडल है। उसके उपर 220 किमी. का एक अदृश्य गोला पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। जिसे ‘आईनों स्फियर’ कहते हैं। जो ‘आयन्स’ से बना हुआ है। इस आयनो स्फियर के कण बिजली से चार्ज होते हैं। उनके और पृथ्वी की सतह के बीच लगातार आकाशीय बिजली का आदान प्रदान होता रहता है। इस तरह एक ग्लोबल सर्किट काम करता है। जो आंखों से दिखाई नहीं देता लेकिन इतनी बिजली का आदान प्रदान होता है कि पूरी दुनिया की 700 करोड़ आबादी की बिजली की जरूरत बिना खर्च किये पूरी हो सकती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था का यही उद्देश्य है कि कैसे इस बिजली को मानव की आवश्यक्ता के लिए प्रयोग किया जाये।

जब आकाश में बिजली चमकती है, तो ये प्रायः पहले पहाड़ों की चोटियों पर लगातार गिरती हैं। डा. कपूर बताते हैं कि इस बिजली से 30000 डिग्री सेंटीग्रेड का तापमान पैदा होता है। जिससे पहाड़ की चोटी खंडित हो जाती है। उपरोक्त अंर्तराष्ट्रीय संस्था ने अभी तक मात्र इतनी सफलता प्राप्त की है कि इस बिजली से वे पहाड़ों के शिखरों को तोड़कर समतल बनाने का काम करने लगे हैं। जो काम अभी तक डायनामाईट करता था। ऋग्वेद के अनुसार देवराज इंद्र ने शंभर राक्षस के 99 किले इसी बिजली से ध्वस्त किये थे। ऋग्वेद में इंद्र की प्रशंक्ति में 300 सूक्त हैं। जिनमें इस बिजली के प्रयोग की विधियां बताई गई है।

वेदों के अनुसार इस बिजली को साधारण विज्ञान की मदद से ग्रिड में डालकर उपयोग में लाया जा सकता है। न्यूयार्क की मशहूर इमारत इंम्पायर स्टेट बिल्डिंग के शिखर पर जो तड़िचालक लगा है
, उस पर पूरे वर्ष में औसतन 300 बार बिजली गिरती है। जिसे लाइट्निंग कंडक्टर के माध्यम से धरती के अंदर पहुंचा दिया जाता है। भारत में भी आपने अनेक भवनों के उपर ऐसे तड़िचालक देखे होंगे, जो भवनों को आकाशीय बिजली के गिरने से होने वाले नुकसान से बचाते हैं। अगर इस बिजली को जमीन के अंदर न ले जाकर एडाप्टर लगाकर, उसके पैरामीटर्स बदलकर, उसको ग्रिड में दे दिया जाये तो इसका वितरण मानवीय आवश्यक्ता के लिए किया जा सकता है।

मेघालय प्रांत जैसा नाम से ही स्पष्ट है, बादलों का घर है। जहां दुनिया में सबसे ज्यादा बारिश होती है और सबसे ज्यादा बिजली गिरती है। इन बादलों को वेदों में पर्जन्य बादल कहा जाता है और विज्ञान की भाषा में ‘कुमुलोनिम्बस क्लाउड’ कहा जाता है। किसी हवाई जहाज को इस बादल के बीच जाने की अनुमति नहीं होती। क्योंकि ऐसा करने पर पूरा जहाज अग्नि की भेंट चढ़ सकता है। बादल फटना जो कि एक भारी प्राकृतिक आपदा है, जैसी उत्तराखंड में हुई, उसे भी इस विधि से रोका जा सकता है। अगर हिमालय की चोटियों पर ‘इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट’ लगा दिये जाए और इस तरह पर्जन्य बादलों से प्राप्त बिजली को ग्रिड को दे दिया जाए तो उत्तर भारत की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो जायेगी और बादल फटने की समस्या से भी छुटकरा मिल जायेगा।

धरती की सतह से 50000 किमी. ऊपर धरती का चुम्बकीय आवर्त (मैग्नेटो स्फियर) समाप्त हो जाता है। इस स्तर पर सूर्य से आने वाली सौर्य हवाओं के विद्युत आवर्त कण (आयन्स) उत्तरी और दक्षिणी धु्रव से पृथ्वी में प्रवेश करते हैं, जिन्हें अरोरा लाईट्स के नाम से जाना जाता है। इनमें इतनी उर्जा होती है कि अगर उसको भी एक वेव गाइड के माध्यम से इलैट्रिकल कनवर्जन युनिट लगाकर ग्रिड में दिया जाये तो पूरी दुनिया की बिजली की आवश्यक्ता पूरी हो सकती है। डा. कपूर सवाल करते हैं कि भारत सरकार का विज्ञान व तकनीकी मंत्रालय क्यों सोया हुआ है ? जबकि हमारे वैदिक ज्ञान का लाभ उठाकर दुनियों के विकसित देश आकाशीय बिजली के प्रयोग करने की तैयारी करने में जुटे हैं।

Monday, March 20, 2017

योगी बदलेंगे यूपी का चेहरा

जैसे ही योगी आदित्यनाथ जी के नाम की घोषणा हुई, टीवी चैनलों पर बैठे कुछ टिप्प्णीकाओं ने इस समाचार पर असंतोष जताया। उनका कहना था कि योगी समाज में विघटन की राजनीति करेंगे और प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजेंडा को दरकिनार कर देंगे। यह सोच सरासर गलत है। विकास का ऐंजेंडा हो या कुशल प्रशासन, उसकी पहली शर्त है कि राजनेता चरित्रवान होना चाहिए। आजकल राजनीति में सबसे बड़ा संकंट चरित्र का हो गया है। चरित्रवान राजनेता ढू़ढ़े से नहीं मिलते। 21 वर्ष की अल्पायु में समाज और धर्म के लिए घर त्यागने वाला कोई युवा कुछ मजबूत इरादे लेकर ही निकलता है। योगी आदित्यनाथ ने अपने शुद्ध सात्विक आचरण और नैष्टिक ब्रह्मचर्य से अपने चरित्रवान होने का समुचित प्रमाण दे दिया है। पांच बार लोकसभा जीतकर उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता को भी स्थापित कर दिया है। गोरखनाथ पंथ की इस गद्दी का इतिहास रहा है कि इस पर बैठने वाले संत चरित्रवान, निष्ठावान और देशभक्त रहें हैं। इतनी बड़ी गद्दी के महंत होकर भी योगी जी पर कभी कोई आरोप नहीं लगे।

आज राजीनिति की दूसरी समस्या है बढ़ता परिवारवाद। कोई दल इससे अछूता नहीं है। दावे कोई कितने ही कर ले, पर हर दल का नेता अपने परिवार को बढ़ाने में ही लगा रहता है और जनता की उपेक्षा कर देता है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी जैसे विरले ही होते हैं, जो राजनीति के सर्वाेच्च स्तर पर पहुंच कर भी परिवार के लिए कुछ नहीं करते। क्योंकि वे परिवार को पहले ही बहुत पीछे छोड़ आये हैं। उनके लिए समाज, राष्ट्र और धर्म यही प्राथमिकता होती है। उ.प्र को दशाब्दियों बाद एक ऐसा नेतृत्व मिला है, जो चरित्रवान है, विचारवान है, आस्थावान है और जिसके परिवारवाद में फंसने की कोई गुंजाइश नही है। इसलिए ये कहना कि योगी जी के आने से विकास का ऐजेंडा पीछे चला जायेगा, सरासर गलत है।
ये सही है कि उ.प्र. के प्रशासन में चाहे वो पुलिस हो, सामान्य प्रशासन हो या न्यायपालिका तीनों में ही भारी भ्रष्टावार व्याप्त है। बिना आमूल-चूल परिवर्तन किये हालात बदलने वाले नहीं है। यही सबसे बड़ी चुनौती है, योगीजी के समने। उन्हें  औपनिवेशिक मानसिकता वाली प्रशासनिक व्यवस्था को तोड़ना होगा और राजऋषी की भूमिका में आना होगा। चाणक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश के राजा महलों में रहते हैं, उनकी प्रजा झोपड़ियों में रहती है और जिसके राजा झोंपड़ियों में रहते है उसकी प्रजा महलों में रहती है। योगी जी ने पहले ही इसके संकेत दिये है कि वे स्वयं और अपने मंत्री मंडल को राजा की तरह नहीं बल्कि प्रजा के सेवक के रूप में देखना चाहेंगे। जहां तक सवाल है प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने का उसके लिए कड़े इरादे की जरूरत होती है। योगी जी का इतिहास रहा है कि ‘प्राण जाये पर वचन न जाई’ वे अपने वचन पर अटल रहते हैं। जो ठान लिया सो करके रहेंगे। फिर न तो उन्हें बिकाऊ मीडिया की परवाह होती है और न ही छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों की।

रही बात अल्पसंख्यको की तो ये शब्द ही विघटनकारी है। जब संविधान में सबको समान हक मिला हुआ है, तो कौन बहुसंख्यक और कौन अल्पसंख्यक! उन्हें ऐसे निर्णय लेने होंगे, जिनसे समाज में समरसता आये और ये अल्पसंख्यकवाद की नौटंकी बंद हो। जो बहुसंख्यक मुसलमान अपने कारोबार में जुटे हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नही पड़ेगा। क्योंकि वे तो पहले से ही राष्ट्र की मुख्यधारा में हैं। लेकिन जो मुसलमान आतंकवाद की टोपी पहनकर गऊ हत्या, देह व्यापार, तस्करी और नशीली दवाओं के व्यापार में लिप्त हैं, उनकी नकेल जरूर कसी जायेगी। अब उनके लिए बेहतर यही होगा कि वे उ.प्र. छोड़कर भाग जायें।

उ.प्र. को संतुलित और सही विकास की जरूरत है। इसके लिए गहरी समझ, गंभीर सोच, क्रंतिकारी विचारों और ठोस नेतृत्व की आवश्यक्ता है। आवश्यक नहीं की राजा सर्वगुण संपन्न हो। उसकी योग्यता तो इस बात में हैं कि वह एक जौहरी की तरह हो, गुणग्राही हो और उस मेधा को पहचानने की क्षमता रखता हो, जिनसे वह वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति करवा सके। योगी जी ने अगर ऐसा रास्ता पकड़ा और सही लोगों को अपनी टीम में शामिल करके उ.प्र के विकास का मार्ग तैयार किया, तो निःसंदेह प्रधानमंत्री मोदी के विकास के ऐंजंडा को बहुत आगे ले जायेंगे। 

उ.प्र. कीे समस्याओं की सूची बहुत लंबी है। जिन्हें एक लेख में समाहित नहीं किया जा सकता। आने वाले सप्ताहों में हम इन मुद्दों पर अपने अनुभव और समझ के अनुसार प्रकाश डालेंगें और उम्मीद करेंगे कि हमारी बात योगीजी तक पहुंचे। 

लगे हाथ पंजाब की भी चर्चा कर लेनी चाहिए। अकाली दल के वंशवाद से त्रस्त होकर पंजाब की जनता ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को गद्दी सौंप दी और राजनीति के बहरूपिया अरविंद केजरीवाल को रिजेक्ट कर दिया। इस काॅलम में हम पिछले पांच वर्ष से बराबर लिखते आये हैं कि अरविंद केजरीवाल की राजीनीति केवल आत्मकेंद्रित है। ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’ पर इसका मतलब ये नहीं कि कैप्टन साहब को मनमानी हुकुमत चलाने का पट्टा मिल गया हो। वे भी देख रहें है कि देश में राजनीति की दशा और दिशा दोंनो बदल रही है। ऐसे में अगर उन्होंने जनता को सामने रखकर पारदर्शिता से ठोस काम नहीं किया तो अगले लोकसभा चुनाव में उनके दल को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी की आंधी  के बीच वे अपना दीया इस तरह जलाकर रखेंगे, जिससे पंजाब कि मतदाता को निराशा न हो।

Monday, March 13, 2017

चन्द्रगुप्त मौर्य बनेंगे नरेन्द्र मोदी

उ.प्र. के चुनाव परिणामों ने मोदी के राष्ट्रवाद पर मोहर लगा दी है। जो इस उम्मीद में थे कि नोटबंदी मोदी को ले डूबेगी, उन्हें अब बगले झांकनी पड़ रही है। हमने नोटबंदी के उन्माद के दौर में भी लिखा था कि तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा की तरह मोदी सब विरोधों को झेलते हुए अपना लक्ष्य हासिल कर लेंगे। उनके सेनापति अमित शाह ने एक बड़ा और महत्वपूर्ण प्रांत जीतकर मोदी की ताकत को कई गुना बढ़ा दिया है। दरअसल उ.प्र. की जनता को मोदी का प्रखर राष्ट्रवाद अपील कर गया। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति ने देश का सही विकास नहीं होने दिया। इससे न हिंदुओं का लाभ हुआ और न मुसलमानों को।

मगर यह भी सही है कि भाजपा ने उप्र को जीतकर अपनी जिम्मेदारियां और बढ़ा ली हैं। क्षेत्रीय दलों को केंद्र में रखकर देखें तो यह चैंकाने वाली बात है कि उप्र में दोनों प्रमुख दल यानी सपा और बसपा लगभग हाशिए पर चले गए हैं। यह बात देश की राजनीति में क्षेत्रीय राजनीति के अवसान का संकेत दे रही है।

यह सर्वस्वीकार्य बात है कि भाजपा का उप्र में अपना वजूद कोई बहुत ज्यादा नहीं था। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह की अपनी हैसियत ने ही सारा काम किया। इसलिए यह जीत भी उन्ही की ही साबित होती है। इसलिए चाय बेचने से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक पहुचने का मोदी का सफर चंद्रगुपता मौर्य की तरह संघर्षों से भरा रहा है। इसलिए यह विश्वास होता  है कि मोदी भी मौर्य शासक की तरह भारत  को सुदृढ़ बनाने का काम करेंगे।

अगर ऐसा है तो उप्र की जनता की उम्मीदें भाजपा से नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ही होंगी। और इसमें भी कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री होने के कारण उनकी हैसियत भी बहुत कुछ करने की है।

यहां याद दिलाने की बात यह है कि उप्र में प्रचार के दौरान मोदी ने उप्र के विकास में बाधाओं की बात कही थी। उन बाधाओं में एक थी कि केंद्र की भेजी मदद को उप्र खर्च नहीं कर पाया। यानी उप्र में सरकारी खर्च बढ़ाया जाना पहला काम होगा जो सरकार बनते ही दिखना चाहिए। किसानों की कर्ज माफी दूसरा बड़ा काम है। लेकिन इसके लिए उप्र सरकार कितना क्या कर पाएगी यह अभी देखना होगा लेकिन पूरे देश के लिहाज से भी यह काम असंभव नहीं है। हो सकता है कि उप्र के बहाने पूरे देश को किसानों को यह राहत मिल जाए।

उप्र में प्रचार के दौरान अखिलेश सरकार ने अपने विकास कार्यों को मुख्य मुददा बनाने की कोशिश जरूर की थी लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि यह मुददा बन नहीं पाया। बल्कि भाजपा ने प्रदेश में सड़कें, पुल, सिंचाई, नए कारखाने, रोजगार की कमी बताते हुए अखिलेश सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश्श की थी। सो अब बिल्कुल तय है कि इन मोर्चों पर नई सरकार को कुछ करते हुए दिखना पड़ेगा। लेकिन इन कामों को पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर होते हुए दिखाना आसान काम नहीं है। इसीलिए नई सरकार को इस मामले में सतर्क रहना पड़ेगा कि पहले से जो हो रहा था उसकी अनदेखी न हो जाए।

लगे हाथ इस बात की चर्चा कर लेनी चाहिए कि क्या उप्र का चुनाव वाकई 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले एक सेमीफायनल था। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री को ही आगे रखकर चुनाव लड़ा गया। लेकिन इतने भर से उप्र का चुनाव सेमीफायनल जैसा नहीं बन जाता। खासतौर पर इसलिए क्योंकि 2019 के पहले कुछ और बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। उन चुनावों के दौरान भी भाजपा को प्रधानमंत्री का चेहरा दाव पर लगाना पड़ेगा। हालांकि उन ज्यादातर प्रदेशों में भाजपा की ही सरकार है। सो यह तय है कि उप्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद शुरू हुए नए कामों का जिक्र किया जाएगा। इस लिहाज से भाजपा को उप्र में अपना ही विकास मंच सजाने की जरूरत पड़ेगी। तभी वह 2019 के पहले होने वाले विधान सभा चुनावों में सिर उठा कर प्रचार कर पाएगी। इस तरह  साबित होता है कि सेमीफाइनल उप्र नहीं था बल्कि अभी होना है।

उप्र में भाजपा को जीत ऐसे मुश्किल समय में मिली है जब केंद्र में मोदी सरकार के तीन साल गुजर चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अपनी उपलब्धियों को भौतिक रूप से कैसे दिखाए। अब तक जिन प्रदेशों में उसकी सरकार बनी है वे सारे बीमारू राज्य के रूप में प्रचारित किए जाते थे। अपनी सत्ता आने के पहले यह प्रचार खुद भाजपा ही करती आ रही थी। सो स्वाभाविक था उन राज्यों की हालत सुधार देने का दावा उसे लगातार करना ही पड़ा। लेकिन वे छोटे राज्य थे। अब जिम्मेदारी उप्र जैसे भारीभरकम राज्य में कर दिखाने की आई है।

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, February 20, 2017

बिना ठोस वायदों का चुनाव

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार कई नई नई बातें दिख रही हैं। मसलन चुनाव को कमखर्चे वाला बनाने की कोशिशों को देखें तो  दिखने में तो धूमधाम जरूर कम हो गई लेकिन प्रशिक्षित चुनाव प्रबंधन एजंसियों पर खर्चा इतना बढ़ गया कि इस मामलेे में हालत पहले से ज्यादा खराब है। होर्डिंग बैनर आौर गली गली में लाउडस्पीकर से प्रचार इस बार कम नजर आता है। लेकिन चुनाव प्रबंधकों के नियुक्त मानव संसाधनों की भरमार दिखने लगी है। कुछ राजनीतिक दलों के वास्तविक कार्यकर्ताओं में तो इसी बात को लेकर बेचैनी है। ये कार्यकर्ता वर्षो और महीनों से पार्टी के प्रचार वे इसीलिए लगे रहते हैं कि चुनाव के दौरान उन्हें काम मिलेगा। अब उन्हें सिर्फ चुनाव सभाओं में भीड़ जमा करने का काम मिलता है और वो भी अपनी पार्टी के नेताओं की तरफ से नहीं बल्कि चुनाव प्रबंधन कंपनियों के मैनेजरों के जरिए।

चुनावी खर्चे के बाद दूसरी नई बात यह है कि मतदाताओं का उत्साह घट गया। मतदाता अब उतना मुखर नहीं है। देखने में जरूर लगता है कि छोटे छोटे कस्बों में टीवी चैनल उम्मीदवारों या उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को कहने के लिए मंच मुहैया करवाने लगे हैं। इन कार्यक्रमों में जनता को भी बैठाया जाता है। लेकिन ये मुखर कार्यकर्ता पहली नजर में ही प्रायोजित मतदाता जैसे लगते हैं। यानी इन कार्यक्रमों से हम बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लगा पाते कि इस चुनाव में मतदातों का रूझान किस तरफ है।

चुनाव सर्वेक्षण एजंसियों ने तो इस बार हद ही कर दी है। किसी एक दल को खींचकर जीतता हुआ दिखाने के चक्कर में उन पर कोई यकीन ही नहीं कर पा रहा है। पहले यह हुआ करता था कि किसी के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई एजंसियों में भी आपसी समझ हुआ करती थी। लेकिन इस बार लगता है कि जैसे ये एजंसियां चुनाव प्रचार का हिस्सा ही बनती जा रही हैं। पांचों राज्यों के चुनाव का आकार देखें तो अब तक मतदान का दो तिहाई काम निपट गया है। लेकिन कहीं से भी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा जिसके आधार पर विश्वसनीय अनुमान लगाया जा सके।

अगर तीनों बातों से कोई निष्कर्ष निकालें तो एक सकारात्कक बात भी निकलती है। गुप्त मतदान चुनावी लोकतंत्र की बड़ी खासियत है। इससे निष्पक्ष मतदान का लक्ष्य भी सधता है। इस लिहाज से मतगणना के पहले अनुमान नहीं लग पाना हर मायने में अच्छी बात ही कही जाएगी। लेकिन ऐसा किन कारणों से हो रहा है यह जरूर चिता की बात है। मसलन यह ऐसा पहला चुनाव है जिसमें चुनावी वायदे या चुनाव घोषणा पत्रों की बड़ी बेकदरी दिख रही है। हो सकता है कि यह इसलिए हो गया हो क्योंकि पिछले अनुभव से साबित हो गया है कि चुनावी वायदे महज वायदे ही रह जाते हैं। सब कुछ हो भी इतनी जल्दी जल्दी रहा है कि जनता वायदे भूल भी नहीं पा रही। बहुत संभव है कि चुनाव प्रबंध विशेषज्ञों ने यह बात समझ ली हो कि अब दिशा दृष्टि, दूरगामी लक्ष्य की बातें हवा हवाई समझी जाएंगी। सो उन्होंने छोटे मोटे तात्कालिक लाभों का वायदा ही कारगर समझा हो।

इस चुनाव के पहले तक हमेशा बिजली पानी सड़क खास मुददे रहा करते थे और वाकई जनता की बुनियादी जरूरत इन कामों से कुछ हद तक पूरी भी होती थी। लेकिन 130 करोड़ आबादी वाली अपनी उभर रही अर्थव्यवस्था में इन कामों को सुनिश्चित करने की बात तो कोई सोच भी नही सकता। हां सपने दिखाने के लिए बोलते रहें ये अलग बात है। क्योंकि पिछले दो दशकों से इसे खूब चलाते रहे सो अब इस पर यकीन करने को कोई तैयार नहीं है।

सबको साफ पानी, सबको पक्का मकान, सबको गुजारे लायक नौकरी या कामधंधा, साफ सफाई, खेती के काम में लागत निकालने की समस्या, शिक्षा, स्वास्थ्य सारे ऐसे काम है कि बिना पैसे के नहीं हो सकते। कहने को कोई खूब कहता रहे कि अपनी अक्ल और हुनर लगाकर बिना पैसे के ये काम कर देगा लेकिन पिछले सत्तर साल में तय हो चुका है कि हमारी जितनी माली हैसियत है उसके मुताबिक ज्यादा बड़ी बात करना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। क्योंकि आगे चलकर बड़ी जवाबदेही बन जाती है। बहुत संभव है कि इसीलिए इस बार के चुनावों में मतदाताओं को छोटे मोटे तोहफे देने का वायदा ही दिख रहा है।

कुछ भी हो इन चुनावों ने इतना तो साबित कर दिया है कि हमारा चुनावी लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसका सबूत यह है कि इस बार किसानों की बात सबने की है। खासतौर पर बदहाल किसानों के कर्ज माफ करने पर आम सहमति बन गई है। यह मुददा देखने में भले ही दूसरे तीसरे पायदान पर हो लेकिन उप्र के अधिसंख्यक मतदाताओं से इसका सीधा सरोकार है। हालांकि पूरी कहानी में यह बात अभी भी गायब है कि इस कर्जमाफी में सरकार पर बोझ कितना पड़ेगा। ये पैसे आएंगे कहां से? और अगर कहीं से इंतजाम कर भी लिया गया तो जहां से इंतजाम कियाा जाएगा वह क्षेत्र हाहाकार कर उठेगा। यानी लब्बोलुआब यह है कि देश को या किसी भी राज्य को पैसे चाहिए यानी आमदनी चाहिए। आमदनी बढ़ाने के लिए उत्पादन चाहिए यानी उत्पादक रोजगार के मौके चाहिए। सबसे बड़ी हैरत की बात यही है कि इन चुनावों में खासतौर पर उप्र के चुनाव में उत्पादक रोजगार बढ़ाने का वायदा प्राथमिकता सूची में उपर दिखाई ही नहीं देता।