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Monday, October 17, 2022

‘नेता जी’ के राजकीय सम्मान में अव्यवस्था क्यों?



समाजवादी पार्टी के संस्थापक, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री व देश के पूर्व रक्षा मंत्री ‘धरतीपुत्र’ मुलायम सिंह यादव के स्वर्गवास पर देश भर से आए शोक संदेशों से सोशल मीडिया भरा रहा। उनका अंतिम सरकार उनके गाँव सैफ़ई (इटावा) में योगी सरकार द्वारा पूर्ण राजकीय सम्मान से होना घोषित किया गया। इसी क्रम में उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन दिन का राजकीय शोक भी घोषित किया। बीते मंगलवार को सैफ़ई में उनका अंतिम संस्कार हुआ। देश भर से अनेकों मुख्यमंत्रियों, नेताओं व केंद्रीय मन्त्रियों के सैफ़ई आने की सूचना भी समय से आने लगी। इनमें उत्तर प्रदेश सरकार के कई मंत्री, फ़िल्म व उद्योग जगत की बड़ी हस्तियाँ भी शामिल थीं। परंतु इन सभी को जिस अव्यवस्था का सामना करना पड़ा वो योगी सरकार की व प्रशासन की मंशा पर कई सवाल उठाती है। यहाँ तक कि केंद्र सरकार में मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति की तो धक्कामुक्की में हाथ की हड्डी ही टूट गई। 


दरअसल ‘नेता जी’ की मृत्यु का समाचार मिलते ही जिस तत्पर्ता से राष्ट्रपति व प्रधान मंत्री ने संवेदना व्यक्त की गृहमंत्री अमित शाह समेत कई बड़े नेताओं ने गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में जा कर या अखिलेश यादव से फ़ोन पर श्रद्धांजली अर्पित की। वैसी ही तत्पर्ता अगर उनके अंतिम संस्कार की तैयारी पर दिखाई होती और प्रशासन को उचित निर्देश दिए गये होते तो शायद ऐसी बदइंतज़ामी न होती जैसी सबको उस दिन झेलनी पड़ी। 



राजकीय सम्मान का ऐलान संबंधित राज्य का मुख्यमंत्री अपने वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगियों के परामर्श के बाद ही करता है। फैसला लेने के बाद इसे मुख्य सचिव व पुलिस महानिदेशक की मार्फ़त उस ज़िले के ज़िलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक सहित सभी अधिकारियों को सूचित किया जाता है। जिससे कि वे राजकीय अंतिम संस्कार के लिए सभी आवश्यक व्यवस्थाएँ कर सकें। 


राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि के दौरान पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा जाना, पूर्ण सैन्य सम्मान दिया जाना, मिलिट्री बैंड द्वारा ‘शोक संगीत’ बजाना और इसके बाद बंदूकों की सलामी देना आदि भी शामिल हैं। इसके साथ ही अंतिम संस्कार स्थल पर समुचित सुरक्षा, क़ानून व्यवस्था बनाना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है। अंत्येष्टि में भाग लेने वाले अतिविशिष्ट व्यक्तियों को भीड़ से अलग बैठने की व्यवस्था करना इस व्यवस्था का अंग होता है। जिसमें इन सभी अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए समुचित प्रोटोकॉल उपलब्ध करना भी शामिल होता है। इस पंडाल में बैठने वाले अतिविशिष्ट लोग दाह संस्कार पूरा होने तक वहीं बैठे रहते हैं। संस्कार की समाप्ति पर पहले इन अतिविशिष्ट व्यक्तियों को सुरक्षित मार्ग से, बिना व्यवधान के, बाहर पहुँचाया जाता है और तब तक आम जनता को रोके रखा जाता है।        


पहले राजकीय शोक व राजकीय सम्मान का ऐलान सिर्फ प्रधानमंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों (पूर्व या वर्तमान) के निधन पर ही किया जाता था। हालांकि, अब यह सम्मान उन सभी हस्तियों को दिया जाता है, जिन्होंने राष्ट्र के नाम को ऊंचा करने के लिए काम किया हो। अलग-अलग क्षेत्रों जैसे, राजनीति, कला, कानून, विज्ञान, साहित्य आदि में बड़ा योगदान देने वाले लोगों के सम्मान में राजकीय शोक घोषित किया जाता है। उनके कद और काम को देखते हुए राज्य सरकार यह फैसला लेती है। जैसा हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने स्वर साम्रग्गी लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार के समय किया था।  



‘नेता जी’ से मेरा बहुत पुराना सम्पर्क था। इसके चलते मंगलवार को मैं भी सैफ़ई गया और ‘नेता जी’ के परिवार को अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त की। परंतु सैफ़ई में जो हाल मैंने देखा वो काफ़ी विचलित करने वाला था। लाखों लोगों के लोकप्रिय ‘नेता जी’ के देहावसान पर उत्तर प्रदेश की सरकार ने सैफ़ई में ऐसा कुछ भी नहीं किया जो ‘नेता जी’ की गरिमा के अनुकूल होता। सारे देश से अनेक बड़े नेता, मुख्यमंत्री, उद्योग और फ़िल्म जगत की हस्तियाँ और लाखों लोग ‘नेता जी’ को श्र्द्धांजली अर्पित करने सैफ़ई पहुँचे। पर भारी अव्यवस्था के कारण बेहद परेशान हुए। धक्कामुक्की में तमाम नेता कुचल गए। अनेकों को चोटें भी लगी। खुद अखिलेश यादव तक अपने पिता के पार्थिव शरीर के पास सीधे खड़े नहीं रह पा रहे थे। उन्हें बार-बार भीड़ के धक्के लग रहे थे। 


पुलिस बड़ी संख्या में सारे सैफ़ई में मौजूद थी पर खड़ी तमाशा देखती रही। न तो यातायात की व्यवस्था सुचारु की और न ही अंतिम संस्कार स्थल पर भीड़ को निर्देशित और नियंत्रित करने का काम किया। प्रशासन केवल औपचारिकता निभा रहा था। आसपास के ज़िलों से बुलाए गए दर्जनों मजिस्ट्रेट व अन्य अधिकारी, जिनमें से कुछ को अतिविशिष्ट व्यक्तियों की अगवानी करनी थी, वे भी भ्रमित से नज़र आ रहे थे। जबकि ‘नेता जी’ का देहांत हुए 24 घंटे हो चुके थे। इतना समय काफ़ी होता है प्रशासन के लिए व्यवहारिक योजना बनाना और उसे क्रियान्वित करना। ऐसा इंतेजाम हर प्रशासनिक अधिकारी को अपने कार्यकाल में कई बार करना पड़ता है। इसलिए इसे अनुभवहीनता कह कर बचा नहीं जा सकता। प्रशासन की ऐसी लापरवाही के कारण लाखों लोग बदहवास हो कर वहाँ धक्के खा रहे थे। अपने घोर दुश्मन रावण की मृत्यु पर भगवान श्री राम ने उसका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करवाया और लक्ष्मण जी को यह ज्ञान दिया कि मरने के बाद सारा वैर समाप्त हो जाता है। इसलिए मानना चाहिए कि इस अव्यवस्था के पीछे कोई वैर की भावना नहीं रही होगी। इसलिए योगी जी को पूरे मामले की जाँच करवानी चाहिए और दोषी अधिकारियों को सज़ा देनी चाहिए। 


यहाँ मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इस अव्यवस्था के लिए समाजवादी दल के कार्यकर्ता भी कम ज़िम्मेदार नहीं है। अनेक राजनैतिक दलों के समर्पित कार्यकर्ता ऐसे मौक़ों पर खुद अनुशासित रह कर अपने लाखों समर्थकों को भी अनुशासित रखने का प्रयास पूरी ज़िम्मेदारी से करते हैं। फिर वो चाहे शपथ ग्रहण समारोह हो या कोई अन्य अवसर। ‘नेता जी’ के जाने के बाद समाजवादी दल का सारा बोझ अखिलेश यादव के कंधों पर आ गया है। इसलिए दल के अनुभवी और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं, विशेषकर फ़ौज या पुलिस में नौकरी कर चुके कार्यकर्ताओं को बाक़ायदा शिविर लगा कर अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासित रहने का प्रशिक्षण देना चाहिए। जिससे भविष्य में ऐसी अव्यवस्था देखने को न मिले।  

Monday, October 10, 2022

मुलायम सिंह यादव के लिए उमड़ा जन सैलाब



पिछले कुछ दिनों से उत्तर भारत के समाजवादियों का गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में हुजूम उमड़ रहा है। ये सब समाजवादी पार्टी के नेता और राम मनोहर लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह यादव की गिरती सेहत से परेशान हैं। चूँकि अस्पताल में इस तरह की भीड़ को प्रवेश नहीं दिया जाता इसलिए ये सब चाहने वाले नई दिल्ली के पंडारा पार्क में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के घर के बाहर भीड़ लगाए हुए हैं। इस नाज़ुक मौक़े पर अखिलेश थके होने के बावजूद हर आनेवाले से मिल रहे हैं और उन्हें सांत्वना दे रहे हैं। सबसे ज़्यादा व्याकुल तो उत्तर प्रदेश के हज़ारों गावों के वो लोग हैं जो गुरुग्राम तक आ नहीं सकते इसलिए स्थानीय नेताओं के घर जमा हो कर उनसे बार-बार ‘नेताजी’ का हाल पूछ रहे हैं। ‘नेताजी’ की सेहत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। इससे उनके प्रेमियों में हताशा फैली है। जैसा आमतौर पर किसी मशहूर हस्ती के चाहने वाले ऐसे समय में करते हैं वैसे ही ‘नेताजी’ के प्रेमी भी अपने-अपने धर्म और आस्था के अनुसार स्वास्थ्य की कामना लेकर धार्मिक अनुष्ठान या प्रार्थना कर रहे हैं। 


जो कुछ मैंने अभी तक लिखा उसमें नया कुछ भी नहीं है। ये सब समाचारों के माध्यम से सबको पता है। जब भी देश का कोई बड़ा और लोकप्रिय नेता गम्भीर रूप से बीमार होता है या उसका देहावसान होता है तब-तब उसके चाहने वालों की ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है। फिर इस लेख को लिखने का उद्देश्य क्या है? दरअसल, आज राजनीति जिस दौर में पहुँच गई है उसमें ऐसी लोकप्रियता अब कुछ गिनें चुने नेताओं की ही बची है। वरना तो तमाम नेता ऐसे हैं कि जब वे दुनिया से जाते हैं तो लोगों की हमदर्दी का नहीं बल्कि टीका-टिप्पणी और आलोचना के शिकार बन जाते हैं। 



सब जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव ज़मीन से उठे नेता हैं। इसलिए अपने हर कार्यकर्ता से उनका सीधा जुड़ाव रहा है। उनके समर्थक, उनके उदार व्यवहार की प्रशंसा करते नहीं थकते। लाखों लोगों को ‘नेताजी’ ने अपने पैरों पर खड़ा करने में मदद की। जबकि आम तौर पर सत्ता मिलते ही नेताओं के तेवर बदल जाते हैं और वे अपने कार्यकर्ताओं से मुह मोड़ लेते हैं। चालीस बरस की पत्रकारिता में मैंने राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों बड़े नेताओं को बनते और बिगड़ते देखा है। ज़्यादातर की ऐसी दुर्गति होती है कि सत्ता से हटते ही मक्खी भी उनके घर नहीं फटकती। 


अलग-अलग अवसरों पर ‘नेताजी’ के साथ इन चार दशकों में बिताए अनेक लम्हे मुझे याद हैं जो उनके व्यक्तित्व का परिचय देते हैं। 1990 की बात है मैं कालचक्र विडीयो मैगज़ीन के लिए एक टीवी रिपोर्ट तैयार कर रहा था। जिसका शीर्षक था ‘अंग्रेज़ी बिना भी क्या जीना’। इस रिपोर्ट में हमारी कैमरा टीम, समाज के विभिन्न वर्गों से अंग्रेज़ी के पक्ष और विपक्ष में विचार रिकोर्ड कर रही थी। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्री ‘नेताजी’ हिंदी भाषा अपनाने पर बहुत ज़ोर दे रहे थे। उनका तर्क था कि अंग्रेज़ी हमें ग़ुलाम बनाती है। इसलिए सभी सरकारी कामकाज आम आदमी की भाषा में होने चाहिए। इसलिए अपनी टीवी रिपोर्ट को और दमदार बनाने के लिए मैं मुलायम सिंह का साक्षात्कार लेने  लखनऊ गया। उन्होंने अपने कार्यालय में कैमरे के सामने बड़ी बेबाक़ी से अपनी बात रखी। ये मुलाक़ात यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी। पर उन्होंने मुझ से अपने घर ले चलकर भोजन करने का आग्रह किया। घर पहुँच कर किसी मेज़-कुर्सी पर नहीं बल्कि दो पलंगों पर ‘नेताजी’ और मैं आमने-सामने बैठ गए। तभी परिवार के किशोर बाल्टी, लोटा और तौलिया लेकर हाथ धुलने आए। ‘नेताजी’ ने उनसे कहा कि चाचा जी को प्रणाम करो और सब लड़कों ने अनुशासित बच्चों की तरह बेहिचक मेरे पैर छुए। दिल्ली के आधुनिक पत्रकारिता जगत में ये संस्कार कोई महत्व नहीं रखता। पर छोटे शहरों से आनेवाले हम सब लोग अपने बच्चों को ऐसे संस्कार देते हैं। क्योंकि हमारी सनातन संस्कृति में कहा गया है, ‘अतिथि देवो भव’। फिर पीतल की थालियों में कटोरी सज़ा कर पलंग पर ही सात्विक भोजन परोसा गया और फिर उसी तरह हाथ धुलवाए गए। ये सब कुछ इतना सहज भाव से हो रहा था फिर भी इसने मुझे बहुत प्रभावित किया। मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि यही संस्कार ‘नेताजी’ के सुपुत्र अखिलेश यादव ने उत्तराधिकार में पाए हैं। मेरा समाजवादी दल हो या कोई और राजनैतिक दल, किसी से भी सदस्यता का सम्बंध नहीं रहा। फिर भी अखिलेश यादव मेरा ही नहीं हर आनेवाले का ऐसा ही सम्मान करते हैं जैसा ‘नेताजी’ करते आए हैं। 2012-17 में जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मथुरा की भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने मुझ से कहा कि, अखिलेश बहुत अच्छे युवा हैं। मैं जो भी काम उनसे कहती हूँ वो फ़ौरन करवा देते हैं। जबकि आज तमाम नेता ऐसे हैं जो अपने विरोधी दलों के नेताओं को दुश्मन मानते हैं। 


‘नेताजी’ के साथ एक दूसरा संस्मरण और भी प्रेरक है। मेरे पिता 1988-91 में पूर्वांचल विश्वविद्यालय के कुलपति थे। जौनपुर में ‘नेताजी’ की एक विशाल जनसभा थी। ऊँचे मंच पर माइक के सामने ‘नेताजी’ के लिए केवल एक कुर्सी लगी थी। मेरे पिता नीचे बने वीआईपी घेरे में प्रथम पंक्ति में बैठे थे। ‘नेताजी’ हेलीकाप्टर से उतर कर सीधे मंच पर चढ़ गए। मालाएँ पहनते वक्त उन्होंने आयोजकों से पूछा कि कुलपति महोदय कहाँ हैं? ये आवाज़ माइक पर सुनाई दी। जब उन्हें पता चला कि मेरे पिता नीचे वीआईपी घेरे में बैठे हैं, तो उन्होंने आयोजकों को फटकारा कि, आपको शर्म नहीं आती। जनपद के सबसे बड़े शिक्षाविद को नीचे बिठा दिया। उन्हें ससम्मान ऊपर लाइए। पिताजी के मंच पर पहुँचने पर ‘नेताजी’ उन्हें माला पहनाई और अपने लिए लगी कुर्सी पर बिठा कर भाषण शुरू किया। यह देख कर सब गद-गद हो गए। 



तीसरा अनुभव तब हुआ जब भारत के मुख्य न्यायाधीश के ज़मीन घोटाले उजागर करने के बाद मैं भूमिगत था क्योंकि मुझ पर अदालत की अवमानना क़ानून का मुक़दमा चल रहा था। मैं देश के कई नेताओं से इस दौरान मिलकर न्यायिक सुधारों के लिए कुछ करने की माँग करता था। जब मैं ‘नेताजी’ से मिला तो वे बहुत विचलित हो गए और बोले, तुमने हवाला कांड से लेकर आजतक किसी को नहीं छोड़ा। सबको दुश्मन बना लिया है। अब ये सब छोड़ दो। मैं तुम्हें राजनैतिक रूप से स्थापित कर दूँगा। मैंने कहा, ‘घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? निर्भीक पत्रकारिता में तो ये होता ही है।’ 


एक अनुभव तो पाठकों को बहुत चौकाने वाला लगेगा। 1994 में लखनऊ के रविंद्रालय में पूरे उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं के संघ को सम्बोधित करने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो न्यायधीश, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल वोरा, मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव और मुझे आमंत्रित किया गया था। उस दिन अपने भाषण में मैंने ‘नेताजी’ के शासन पर कुछ तीखी टिप्पणियाँ की। जिस पर पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट हो गई। पर ‘नेताजी’ ने बिलकुल बुरा नहीं माना। आज जैसे नेता होते तो मुझ से ज़िंदगी में दोबारा बात नहीं करते या मुझे कोई हानि ज़रूर पहुँचाते। पर ‘नेताजी’ के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही आज सभी उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना कर रहे हैं।   

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, January 23, 2017

आरक्षण मसला ठेठ राजनीतिक हो जाना

उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है। शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।


बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।


भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है। यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है। इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।


नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है|


आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप् में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।


आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या ऐसा मानकर चलने में भी है।


आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।


 अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति  नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा करना पडे़गा।

Monday, May 27, 2013

अखिलेश यादव को गुस्सा क्यों आता है ?


पिछले दिनों उद्यमियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में चल रही लालफीताशाही के लि़ए आलाअफसरों को जिम्मेदार ठहराया। उन्हें नसीहत दी कि वे अपने अधिनस्थ बाबूओं के बहकावे में न आयें और बिना देरी के तेजी से निर्णय लें। यह पहली बार नही है जब युवा मुख्यमंत्री ने अपने अधिनस्थ आलाअफसरों को इस तरह नसीहत दी हो। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही मुख्यमंत्री व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी अफसरशाही के ढीलेपन पर बार- बार सार्वजनिक बयान देते रहे हैं। उनका यह गुस्सा जायज है क्योंकि बहन जी के शासनकाल में अफसरशाही बहन जी के सामने पत्त्त्ते की तरह कांपती थी। अखिलेश यादव की भलमनसाहत का बेजा मतलब निकाल कर अब उ. प्र. की अफसरशाही काफी मनमर्जी कर रही है, ऐसा बहुत से लोगों का कहना है। ऐसा नहीं है कि पूरे कुए में भांग पड़ गयी हो। काम करने वाले आज भी मुस्तैदी से जुटे हैं। अफसरों के मुखिया प्रदेश के मुख्य सचिव होते हैं। जो खुद काफी सक्षम और जिम्मेदार अफसर हैं। पर सरकार की छवि अगर गिर रही है तो मुख्यमंत्री इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। पर क्या सारा दोष अफसरशाही का ही है या राजनैतिक नेतृत्व की भी कुछ कमी है।

सुप्रसिद्ध आईसीएस रहे जे सी माथुर ने 30 वर्ष पहले एक लेखमाला में यह लिखा था कि जब तक में इस तंत्र में अफसर बनकर रहा, मेरी हैसियत एक ऐसे पुर्जे की थी जिसके न दिल था न दिमाग। हालात आज भी बदले नही हैं। लकीर पीटने की आदी अफसरशाही लालफीताशाही के लिए हमेशा से बदनाम रही हैं। अपना वेतन, भत्तें, पोस्टिंग, प्रमोशन और विदेश यात्राएं ही उनकी प्राथमिकता में रहता है। जिस काम के लिए उन्हें तैनात किया जाता है वह बरसों न हो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने कहा था कि अफसरशाही घोडे की तरह होती है जिसे चलाना सवार की क्षमता पर निर्भर करता है। अखिलेश यादव को चाहिए कि महत्वपूर्ण विभागों में ऐसे चुने हुए अफसर तैनात करें जिनकी निर्णय लेने की और काम करने की क्षमता के बारे में कोई संदेह न हो। उन्हें आश्वस्त करे कि वे जनहित में जो निर्णय लेंगे उस पर उन्हें मुख्यमंत्री का पूरा समर्थन मिलेगा। केवल फटकारने से या सार्वजनिक बयान देने से वे अपने अफसरों से काम नहीं ले पायेगें।

देश के कई प्रदेशों में तबादलों की स्पष्ट नीति न होने के कारण अफसरशाही का मनोबल काफी गिर जाता हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार का रिर्काड अभी तक प्रभावशाली नहीं रहा। जितनी तेजी से और जितने सारे तबादले उ. प्र. शासन ने बार-बार किये जाते हैं उससे कार्यक्षमता सुधरने की बजाय गिरती जाती हैं। जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, सीडीओ व विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्ष वे अधिकारी होते हैं जो उत्तर प्रदेश में जनता का हर वक्त सामना करते हैं। इन्हें अगर ताश के पत्तों की तरह फेंटा जाता रहेगा तो सरकार कुछ भी नहीं कर पायेगी और उससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा। इनकी कार्य अवधि निश्चित की जानी चाहिए और समय से पहले इनके तबादले नहीं होने चाहिए। चार दिन पहले जिसे मथुरा का जिलाधिकारी बनाया जाता है उसे चार दिन के भीतर ही गोरखपुर का जिलाधिकारी बनाकर भेज दिया जाता है। अगर उसे उसके निकम्मेपन के कारण हटाया गया तो फिर वह दूसरे जिले में काम करने के योग्य कैसे हो गया ? इससे पहले कि वह अपना जिला और उसकी समस्याएं समझ पाता, उसे रवाना कर दिया जाता है। यह कैसी नीति है ?

दूसरी तरफ ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं जो धडल्ले से यह कहते हैं कि हम अपने मंत्री को मोटा पैसा देकर यहां आये हैं तो हमे किसी की क्या परवाह। यह दुखद स्थिति है पर नई बात नहीं। पहले भी ऐसा होता आया है। जिसका निराकरण किया जाना चाहिए। अखिलेश अभी युवा हैं और उनका लम्बा राजनैतिक जीवन सामने है। अगर उन्होने स्थिति को नहीं संभाला तो उनके लिए भविष्य में चुनौतियां बढ सकती हैं। अखिलेश को चाहिए की कार्पोरेट जगत की तरह एक ‘पब्लिक रेस्पोंस‘ ईकाई की स्थापना अपने सचिवालय मे करें । जिसमे उत्तर प्रदेश के पूर्व अधिकारी रहे राकेश मित्तल (कबीर मिशन) जैसे अधिकारियों की सरपरस्ती में कर्मठ युवा अधिकारियों की एक टीम केवल सचिवालय की कार्यक्षमता और कार्य की गति बढाने की तरफ ध्यान दें और जनता और सरकार के बीच सेतु का कार्य करें। इस ईकाई को सभी विभागों पर अपने निर्णय प्रभावी करवाने की ताकत दी जाये। इससे सरकार की छवि में तेजी से सुधार आयेगा। केवल फटकारने से नहीं। अच्छा काम करने वालों को अगर बढावा दिया जायेगा और उनके काम की सार्वजनिक प्रशंसा की जायेगी तो अफसरों में अच्छा काम करने की स्पर्धा पैदा होगी।

Sunday, March 11, 2012

अखिलेश यादव की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरूप देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर 38 वर्ष के अखिलेश यादव की ताजपोशी हो रही है। जिस वक्त चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस वक्त एक अंग्रेजी टी वी चैनल पर पंजाब के मुख्यमंत्री के सुपुत्र सुखवीर सिंह बादल और अखिलेश यादव से बरखा दत्त साथ-साथ चर्चा कर रही थीं। सुखवीर ने अखिलेश को सलाह दी कि अगर उत्तर प्रदेश को तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे ले जाना है तो उन्हें भी विकास कार्यों को पंजाब की ही तरह ‘पीपीपी मोड’ में जाना होगा। अखिलेश के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण सलाह है। क्योंकि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। लोगों ने मत जात-पात पर नहीं, विकास के नाम पर दिया है। नौकरशाहों की लाल फीताशाही और निहित स्वार्थों की राजनैतिक दखलंदाजी विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
उत्तर प्रदेश के नगरों का आधारभूत ढांचा चरमरा गया है। अवैध निर्माण, उफनती नालियाँ, कूड़े के पहाड़ और विकास प्राधिकरणों की भू-माफियागिरी ने प्रदेश के नगरों को एक विद्रूप चेहरा दे दिया है। शहर के चुनिंदा पैसे वाले और नौकरशाहों को छोड़कर बाकी लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश के कई राज्यों में इस समस्या का हल जनता की भागीदारी और सक्षम निजी संस्थाओं के सहयोग से किया गया है। जिन मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य के स्वरूप को सजाने की इस पहल में निजी रूचि और उत्साह दिखाया है वे बार-बार जीत कर लौटे हैं।
उत्तर प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से आगरा, ब्रज, वाराणसी, सारनाथ आदि जैसे क्षेत्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था में तेजी से इजाफा कर सकते हैं। क्योंकि मौरिशिय्स, थाईलेंड, सिंगापुर, बाली जैसे तमाम देश केवल पर्यटन के सहारे अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं को मजबूत बनाये हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश में इस दिशा में सही समझ और ईमानदार कोशिश के अभाव में सारी योजनाऐं कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाती हैं। जिसमें अखिलेश को क्रान्तिकारी परिवर्तन करना होगा।
गुण्डाराज की बात हर मीडिया पर की जा रही है। मैंने कई चैनलों पर ये कहा है कि अगर अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव और चाचा जैसे मौहम्मद आजम गुण्डाराज को दस्तक देने से पहले ही रोकने में सफल नहीं होते तो 2014 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को मुँह की खानी पड़ सकती है। अखिलेश युवा हैं, उत्साही हैं, विनम्र हैं और कुछ करना चाहते हैं। पर प्रान्त के अराजक तत्वों को रोकने का काम भी अगर उनके कंधों पर डाल दिया जायेगा तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिये यह काम तो अखिलेश के पिता और इन चाचाओं को करना होगा। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को इसी तरह दोबारा सत्ता सौंपने में उत्तर प्रदेश की जनता को गुरेज नहीं होगा।
प्रदेश के शासन की रीढ़ होते हैं नौकरशाह। अगर जिले में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक मुख्यमंत्री के लिये धन उगाही के एजेंट बनाकर भेजे जाते हैं और जल्दी-जल्दी ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाते हैं तो अखिलेश यादव की सरकार जनता की नजरों में गिर जायेगी। अगर ये ही दो अधिकारी ईमानदार, कड़क लेकिन जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होंगे तो अखिलेश यादव की सरकार लोकप्रियता के झण्डे गाड़ देगी।
मुख्यमंत्री सचिवालय अकुशल और निकम्मे सचिवों का जमावड़ा न होकर अगर ऐसे अधिकारियों को तरजीह देगा जो रचनात्मकें, परिणाम लाने वाले, जोखिम उठाकर भी गैर-पारंपरिक निर्णय लेने वाले और लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध क्रियान्वन करने वाले हों तो पूरे उत्तर प्रदेश को दिशा और गति दोनों मिलेगी।
प्रदेश के देहातों में बेरोजगारी, बिजली-पानी सबसे बड़ी समस्या है। पर इनका निदान केवल राजनैतिक बयानबाजी के तौर पर किया जाता है। जबकि देश में कई ऐसे सफल माॅडल हैं जहाँ किसान-मजदूर को बिना ज्यादा बाहरी मदद के सुखी बनाने के सफल प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि ऐसे मॉडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं होती, इसलिये वे हुक्मरानों को पसंद नहीं आते। पर अब चुनाव का स्वरूप इतना बदल चुका है कि कोरे वायदों से आम मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। गाँव की समस्याओं के हल के लिये ठोस काम की जरूरत है। अखिलेश को लीक से हटकर देखना होगा।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व जब न तो ई-मेल, एस.एम.एस. थे और न ही फैक्स या फोन तब भी मगध का साम्राज्य चलाने वाले महान सम्राट अशोक मौर्य ने अफगानिस्तान से असम और कश्मीर से तमिलनाडु तक के भू-भाग को बड़ी संजीदगी से संचालित किया और यश कमाया। क्योंकि वे वेश बदल कर खुद और अपने दूतों को साम्राज्य के हर हिस्से में भेजकर अपने कामों के बारे में जनता की राय गोपनीय तरीके से मँगवाया करते थे। जहाँ से विरोध के स्वर सुनायी देते वहाँ समस्या का हल ढूँढ़ने में फुर्ती दिखाते थे। अखिलेश यादव को पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के अनुभव से यह सीखना चाहिये कि अपने चारों ओर चहेतों और सलाहकारों की दीवार मुख्यमंत्री को अन्धा और बहरा बना देती है। राहुल गाँधी ने मेहनत कम नहीं की पर अखिलेश का सहज सामान्य जन से संवाद उन्हें आज इस मुकाम तक ले आया। अपनी इस ताकत को खोना नहीं संजोना है।
भगवान कृष्ण के यदुवंश में जन्म लेने वाले अखिलेश यादव के कार्य काल में अगर ब्रज विश्व का सबसे सुन्दर तीर्थ क्षेत्र न बना तो अखिलेश का जन्म निरर्थक रहेगा। बसपा, संघ और इंका की विशाल सेनाओं के सामने अखिलेश यादव ने अपने युद्ध कौशल से इस महाभारत को जीतकर भगवान कृष्ण के वंशज होने का प्रमाण दिया है। अगर अखिलेश में सही सलाह को समझने और जीवन में उतारने की क्षमता होगी तो उत्तर प्रदेश को वे विकास और सुख-समृद्धि के रास्ते पर ले चलने में कामयाब हो पायेंगे।

Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।