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Monday, September 26, 2022

बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा?



मशहूर शायर नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ शेफ़्ता का शेर, ‘हम तालिब-ए-शोहरत हैं हमें नंग से क्या काम, बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा’ काफ़ी लोकप्रिय हुआ। इसका अर्थ है जिन्हें शोहरत की भूख होती है वो शोहरत पाने के लिए किसी भी हद तक जाने तैयार हो जाते हैं। ऐसा करने पर यदि उन्हें बदनामी भी मिले तो वे उसी में शोहरत के अवसर खोज लेते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मीडिया ऐंकरों को पड़ी फटकार का कुछ ऐसा ही अर्थ निकाला जा सकता है। 


दरअसल हेट स्पीच के एक मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने टीवी एंकरों को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा कि नफरती भाषा एक जहर की तरह है जो भारत के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा रही है। पिछले कुछ समय से चैनलों पर बहस बेलगाम हो गई है। देश के राजनैतिक दल इस सब में भी लाभ खोज रहे हैं। अदालत ने कहा कि ऐसी नफ़रत फैलाने वाले दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए। केंद्र सरकार से जवाब माँगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या इसको लेकर सरकार का कानून बनाने का इरादा है या नहीं? मौजूदा क़ानून ऐसे मामलों में निपटने के लिए अपर्याप्त है। न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और हृषिकेश रॉय की खंडपीठ ने कहा कि हेट स्पीच के मामलों में केंद्र को 'मूक दर्शक' नहीं बने रहना चाहिए। कोर्ट ने आगे कहा कि, पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस के बिना कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता है। एक मुक्त बहस होनी चाहिए। आपको यह भी पता होना चाहिए कि बहस की सीमा क्या है। बोलने की स्वतंत्रता वास्तव में श्रोता के लाभ के लिए है। एक बहस को सुनने के बाद श्रोता अपना मन बनाता है। लेकिन हेट स्पीच सुनने के बाद वह कैसे अपना मन बनाएगा।


आपको याद होगा कि जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐंकर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐंकर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।


आज की स्थिति में मैं मानने लगा हूं कि टेलीविजन समाचारों पर नियंत्रण जरूरी है। खबरों को फूहड़ और बिकाऊ बनाने के लिए टीआरपी को बहाना बनाया जाता है और खबरों के नाम पर ज्यादातर चैनल जो कुछ परोस रहे हैं उसे झेलना बेहद मुश्किल हो गया है। एक समय था जब रात में सिर्फ एक बार नौ बजे खबरें प्रसारित होती थीं। पहले रेडियो पर और फिर टीवी पर। उस समय खबरें सुनने या जानने में जो दिलचस्पी होती थी वह क्या अब किसी में रह गई है। तब खबरें नई होती थीं वाकई खबर होती थीं। पर अब दिन भर चलने वाली खबरों को जानने के लिए वो उत्सुकता नहीं रहती है। एक तो संचार के साधन बढ़ने और लगातार सस्ते होते जाने से लोगों तक सूचनाएं बहुत आसानी से और बहुत कम समय में पहुंचने लगी हैं। ऐसे में दर्शकों को खबरों से जोड़ने के लिए कुछ नया और अभिनव किए जाने की जरूरत है। पर ऐसा नहीं करके ज्यादातर चैनल फूहड़पन पर उतर आए हैं।


दूसरी ओर, नए और अपरिपक्व लोगों को समाचार संकलन और संप्रेषण जैसे काम में लगा दिए जाने का भी नुकसान है। किसी भी अधिकार के साथ जिम्मेदारी भी आती है। नए और युवा लोग अधिकार तो मांगते हैं पर जिम्मेदारी निभाने में चूक जाते हैं। उन्हें मीडिया की आजादी तो मालूम है पर इस आजादी के प्रभाव का अनुमान नहीं है। आपने देखा होगा कि दिन भर चलने वाले समाचार चैनल अपने प्रसारण में हिंसा और अपराध की खबरें खूब दिखाते हैं और कई-कई बार या काफी देर तक दिखाते रहते हैं। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए ये अपने हिसाब से अपराधी तय कर लेते हैं और अदालत में मुकदमा कायम होने से पहले ही किसी को भी अपराधी साबित कर दिया जाता है। बाद में अगर वह निर्दोष पाया जाए तो उसकी कोई खबर दिखाई बताई नहीं जाती है। ऐसी खबरों से आहत होकर लोगों के आत्म हत्या कर लेने के भी मामले सामने आए हैं पर टेलीविजन चैनल संयम बरत रहे हों, ऐसा नहीं लगता है। दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा की स्थिति में पीड़ितों से बेसिर-पैर के सवाल पूछे जाने के कई उदाहरण हैं। नए और गैरअनुभवी लोगों पर समाचारों के चयन और प्रसारण की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी डाल दिए जाने और टीआरपी की भूख से ऐसा हो रहा है। समय की मांग है समाचार चयन और चैनल का संचालन अनुभवी हाथों में हो और हम तक निष्पक्ष खबरें ही पहुंचें। 


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी।

Monday, April 4, 2022

डॉ अर्चना शर्मा की शहादत से सबक


दौसा (राजस्थान) की युवा डाक्टर अर्चना शर्मा की ख़ुदकुशी के लिए कौन ज़िम्मेदार है? महिला रोग विशेषज्ञ, स्वर्ण पदक विजेता, मेधावी और अपने कार्य में कुशल डॉ अर्चना शर्मा इतना क्यों डर गई कि उन्होंने मासूम बच्चों और डाक्टर पति के भविष्य का भी विचार नहीं किया और एक अख़बार की खबर पढ़ कर आत्महत्या कर ली। पत्रकार होने के नाते डॉ शर्मा की इस दुखद मृत्यु के लिए मैं उस संवाददाता को सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार मानता हूँ जिसने पुलिस की एफ़आईआर को ही आधार बनाकर अपनी खबर इस तरह छापी कि उसके कुछ घण्टों के भीतर ही डॉ अर्चना शर्मा फाँसी के फंदे पर लटक गई। लगता है कि इस संवाददाता ने खबर लिखने से पहले डॉ अर्चना से उनका पक्ष जानने की कोई कोशिश नहीं की। आज मीडिया में ये प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है जब संवाददाता एकतरफ़ा खबर छाप कर सनसनी पैदा करते हैं, किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की छवि धूमिल करते हैं। प्रायः ऐसा ब्लैकमेलिंग के इरादे से करते हैं जिससे सामने वाले को डराकर मोटी रक़म वसूली जा सके। ये बात दूसरी है कि ऐसी ज़्यादातर खबरें जाँच पढ़ताल के बाद निराधार पाई जाती हैं। पर तब तक उस व्यक्ति की तो ज़िंदगी बर्बाद हो ही
  जाती है। ये बहुत ख़तरनाक प्रवृत्ति है। 



प्रेस काउन्सिल औफ़ इंडिया, सर्वोच्च न्यायालय व पत्रकारों के संगठनों को इस विषय में गम्भीरता से विचार करके कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए। पिछले चार दशक की खोजी पत्रकारिता में मैंने देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरण का निडरता से खुलासा किया, जिससे उनकी नौकरियाँ भी गई। पर ऐसी कोई भी खबर लिखने या दिखने से पहले ये भरसक कोशिश रही कि उस व्यक्ति का स्पष्टीकरण ज़रूर लिया जाए और उसे अपनी खबर में समुचित स्थान दिया जाए। इस एक सावधानी का फ़ायदा यह भी होता है कि आपको कभी मानहानि का मुक़द्दमा नहीं झेलना पड़ता। 


डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए वो पुलिस अधिकारी पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं जिन्होंने एफ़आईआर में बिना किसी पड़ताल के डॉ शर्मा पर धारा 302 लगा दी। यानी उन्हें साज़िशन हत्या करने का दोषी करार कर दिया। पूरे देश की पुलिस में यह दुषप्रवृत्ति फैलती जा रही है। जब पुलिस बिना किसी तहक़ीक़ात के केवल शिकायतकर्ता के बयान पर एफ़आईआर में तमाम बेसर-पैर की धाराएँ लगा देती है। जिन्हें बाद में अदालत में सिद्ध नहीं कर पाती और उसके लिए न्यायाधीशों द्वारा फटकारी जाती है। पुलिस ऐसा तीन परिस्थितियों में करती है। पहला, जब उसे आरोपी को आतंकित करके मोटी रक़म वसूलनी होती है। दूसरा, जब उसे राजनैतिक आकाओं के इशारे पर सत्ताधीशों के विरोधियों, पत्रकारों या सामाजिक कार्यकर्ताओं का मुह बंद करने के लिए इन बेगुनाह लोगों को प्रताड़ित करने को कहा जाता है। तीसरा कारण होता है जब बड़े और शातिर अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों को झूठे मुक़द्दमें में फँसा कर गुनाहगार सिद्ध कर देती है। जैसा हाल ही में आई एक फ़िल्म ‘जय भीम’ में दिखाया गया है। 


ये इत्तेफ़ाक ही है कि 1977 में जब जनता सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया तो उसके अध्यक्ष और कई सदस्य मेरे परिचित थे। इसलिए दिल्ली के लोकनायक भवन में इस आयोग के साथ अपने अनुभव साझा करने का मुझे खूब अवसर मिला। तब से आजतक भारत की मौजूदा पुलिस व्यवस्था में सुधार की तमाम सिफ़ारिशें सरकार को दी जा चुकी हैं। पर केंद्र और राज्य की कोई भी सरकार इन सुधारों को लागू नहीं करना चाहती। चाहे वो किसी भी दल की क्यों न हो। 1860 में अंग्रेजों की हुकूमत के बनाए क़ानूनों के तहत हमारी पुलिस आजतक काम कर रही है। जिसका ख़ामियाज़ा भारत का आम आदमी हर रोज़ भुगत रहा है। देशभर के जागरूक नागरिकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, चिकित्सकों व वकीलों आदि को पुलिस व्यवस्था में सुधारों के लिए एक देश व्यापी अभियान लगातार चलाना चाहिए। जिससे सभी राजनैतिक दल मजबूर होकर पुलिस सुधारों को लागू करवाएँ। 


दरअसल आज़ादी के बाद राजनेताओं ने भी पुलिस को अंग्रेजों की ही तरह आम जनता को डराकर व धमकाकर नियंत्रित करने का शस्त्र बना रखा है। इसलिए वे अपनी इस नकारात्मक सत्ता को छोड़ने को तैयार नहीं होते। जिन दिनों मुझे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से प्रदत्त ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा मिली हुई थी उन दिनों मेरा अपने अंगरक्षकों से अक्सर पुलिस व्यवस्था को लेकर मुक्त संवाद होता था। चूँकि मेरी सुरक्षा में दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल के जवान भी तैनात रहते थे और देश में भ्रमण के दौरान उन प्रांतों की पुलिस फ़ोर्स भी मेरी सुरक्षा में तैनात होती थी, इसलिए सारे देश की पुलिस व्यवस्था की असलियत को बहुत निकटता से जानने का उन वर्षों में मौक़ा मिला। तब यह विश्वास दृढ़ हो गया कि पुलिस के हालात, बिना किसी अपवाद के सब जगह एक जैसी है और उसमें सुधार के बिना आम जनता को न्याय नहीं मिल सकता। 


इस मामले में डॉ अर्चना शर्मा की मौत के लिए जिन राजनेताओं का नाम सामने आया है उन्होंने जान बूझ कर इस मामले अकारण तूल दिया। जिसका उद्देश केवल डॉ अर्चना शर्मा को ब्लैकमेल करना था। स्वयं को जनसेवक बताने वाले राजनेताओं और उनके कार्यकर्ताओं में इस तरह विवादों को अनावश्यक तूल देकर स्थित को बिगाड़ना और उससे मोटी उगाही करना आम बात हो गयी है। कोई भी राजनैतिक दल इसका अपवाद नहीं है। मैं यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि डॉ अर्चना शर्मा के मामले प्रथमदृष्टया कोई कोताही या अनैतिक आचरण का प्रमाण सामने नहीं आया है। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि मानव सेवा के लिए बना यह सम्मानित व्यवसाय भी आज लालची अस्पताल मालिकों और लालची डाक्टरों की लूट और अनैतिक आचरण के कारण क्रमशः अपनी आदर्श स्थित से नीचे गिरता जा रहा है। जहां कुछ मामलों में तो इनका व्यवहार बूचड़खाने के कसाइयों से भी निकृष्ट होता है, जिसमें भी सुधार की बहुत ज़रूरत है। हालाँकि डॉ अर्चना शर्मा का मामला बिल्कुल अलग है और इसलिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत को स्वयं रुचि लेकर उस पत्रकार, पुलिस अधिकारी और उन नेताओं के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।    

Monday, October 4, 2021

देश में पारदर्शी सर्वेक्षण की ज़रूरत क्यों?


पिछले सात साल का आर्थिक लेखा-जोखा विवादों में है। जहां एक तरफ़ केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के दावे कर रहीं हैं और सैंकड़ों करोड़ रुपए के बड़े-बड़े विज्ञापन अख़बारों में छपवा रहीं हैं। वहीं विपक्षी दलों का लगातार यह आरोप है कि पिछले सात वर्षों में भारत की आर्थिक प्रगति होने के बजाए आर्थिक अवनति हुई है। वे भारत की ऋणात्मक वृद्धि दर का तर्क देकर अपनी बात कहते हैं। 



दूसरी तरफ़ भारत के लोग, जिनमें उच्च वर्ग के कुछ घरानों को छोड़ दें, तो शेष घराने, मध्यम वर्गीय परिवार, निम्न वर्गीय परिवार व ग़रीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवार क्या कहते हैं, ये जानना भी ज़रूरी है। इसका सबसे साधारण तरीक़ा यह है कि हर ज़िले के माध्यमिक व उच्च शिक्षा के संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने वाले अपने-अपने स्तर पर एक व्यापक सर्वेक्षण करें। जैसे ग्राम स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर, क़स्बा स्तर पर और नगर के स्तर पर सभी जागरूक शिक्षक व गम्भीर छात्र सार्वजनिक सर्वेक्षण समितियाँ बना लें। इन समितियों में किसी भी राजनैतिक दल के प्रति समर्पित लोग न रखे जाएं, न शिक्षक और न छात्र। तभी निष्पक्ष सर्वेक्षण हो पाएगा। 


ये समितियाँ अपनी-अपनी भाषा में सर्वेक्षण के लिए प्रश्न सूची तैयार कर लें। इन सर्वेक्षण सूचियों में हर वर्ग के, हर नागरिकों से प्रश्न पूछे जाएं। जैसे, किसान से पूछें कि पिछले सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या कितनी घटी? युवाओं से पूछें कि इन सात वर्षों में कितने युवाओं को रोज़गार मिला और कितने युवाओं के रोज़गार छूट गए? और वे फिर से बेरोज़गार हो गए? इसी तरह फुटपाथ पर सामान बेचने वालों से पूछें कि इन सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या घटी? इस वर्ग के सभी लोगों से यह भी पूछा जाए कि इन सात वर्षों में उन्हें मुफ़्त स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएँ मिली हैं या नहीं?

  

मंझले व्यापारियों और कारखानेदारों से भी पूछें कि उनकी 'बैलेन्स शीट’ यानी आय-व्यय का लेखा-जोखा देख कर बताएँ कि उसमें इन सात सालों में कितने फ़ीसद वृद्धि हुई? इसी वर्ग से यह भी पूछें कि उन्होंने इन सात वर्षों में कितने मूल्य की नई अचल सम्पत्ति ख़रीदी या बेची? उच्च वर्गीय लोगों से भी सवाल किए जाने चाहिए। अडानी और अम्बानी जैसे कुछ केंद्र सरकार के चहेते, जिनकी आमदनी इन सात वर्षों में 30-35 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ी है, उन्हें छोड़ दें, पर बाक़ी औद्योगिक घरानों की आर्थिक प्रगति कितने फ़ीसदी हुई या नहीं हुई है या कितने फ़ीसदी गिर गई है? 


ये सब इतनी सरल जानकारी है जो बिना ज़्यादा मेहनत के जुटाई जा सकती है। एक शिक्षा संस्थान उपरोक्त श्रेणियों में से हर श्रेणी के हर इलाक़े में, 100-100 लोगों का चयन कर ले और इस चयन के बाद उस वर्ग के लोगों से वैसे ही सवाल पूछे जो उस वर्ग से पूछने के लिए यहाँ दिए गए हैं। अगर कोई सर्वेक्षणकर्ता समूह अति-उत्साही हैं तो वह इस प्रश्नावली में अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार और भी सार्थक प्रश्न जोड़ सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग अपनी आर्थिक अवनति के लिए पिछले दो साल में फैले कोविड को ज़िम्मेदार ठहराएँ, इसीलिए गत सात वर्षों का सही आँकड़ा जानना ज़रूरी होगा। 


जब इस तरह का ग़ैर-सरकारी, निष्पक्ष और पारदर्शी सर्वेक्षण हो जाता है तो धरातल की सही तस्वीर अपने आप सामने आ जाएगी। क्योंकि सरकार किसी भी दल की क्यों न हो वोट पाने के लिए हमेशा इन आँकड़ों में भारी हेरा-फेरी करती है ताकि अपनी प्रगति के झूठे दावों को आधार दे सके। जबकि धरातलीय सच्चाई उन आँकड़ों के बिलकुल विपरीत होती है। हर वर्ग के 100-100 प्रतिनिधियों का सर्वेक्षण करने से उस गाँव, क़स्बे, नगर व ज़िले की आर्थिक स्थिति का बड़ी सरलता से पता लगाया जा सकता है। जिसका लाभ लेकर सत्ताएँ अपनी नीतियाँ और आचरण बदल सकते हैं। बशर्ते उनमें जनहित में काम करने की भावना और इच्छा हो। झूठे विज्ञापनों से सस्ता प्रचार तो हासिल किया जा सकता है पर इसके परिणाम समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। जैसे आम आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि ‘हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज़ में उड़ सकेगा।’ इसी उम्मीद में वो अपना मत ऐसा वायदा करने वाले नेता के पक्ष में डाल दे। परंतु जीतने के बाद उसे पता चले कि हवाई जहाज तो दूर वो भर पेट चैन से दो वक्त रोटी भी नहीं खा सकता क्योंकि जो उसका रोज़गार था वो नई नीतियों के कारण, बेरोज़गारी में बदल चुका है। ऐसे में हताशा उसे घेर लेगी और वो आत्महत्या तक कर सकता है, जैसा अक्सर होता भी है या फिर ऐसा व्यक्ति अपराध और हिंसा करने में भी कोई संकोच न करेगा।


सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, लोकतंत्र की यही खूबी है। पर हर नया आने वाला पिछली सरकार को भ्रष्ट बताता है और फिर मौक़ा मिलते ही खुद बड़े भ्रष्टाचार में डूब जाता है। इसलिए दलों के बदलने का इंतेज़ार न करें, बल्कि जहां जिसकी सत्ता हो उससे प्रश्न करें और पूछें कि उसकी आमदनी और रोज़गार कब और कैसे बढ़ेगा? उत्तर में आपको केवल कोरे आश्वासन मिलेंगे। अगर आप बेरोज़गारी, ग़रीबी, महंगाई, पुलिस बर्बरता और अन्याय के विरुद्ध ज़्यादा ज़ोर से सवाल पूछेंगे तो हो सकता है कि आपको देशद्रोही बता कर प्रताड़ित किया जाए। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से कुछ राज्यों में ये ख़तरनाक प्रवृत्ति तेज़ी से पनप रही है। इसलिए सावधानी से सर्वेक्षण करें और बिना राग-द्वेष के ज़मीनी हक़ीक़त को देश के सामने प्रस्तुत करें। जिससे समाज और राष्ट्र दोनों का भला हो सके।    

Monday, November 2, 2020

प्रधान मंत्री का पुतला जलाना ठीक नहीं


इस दशहरे पर देश के कई हिस्सों में आक्रोशित किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और उत्तेजित भीड़ ने रावण दहन के लिए बने पुतले पर प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी का चेहरा लगा कर रावण दहन किया और उत्तेजक नारे लगाए। किसी भी प्रधान मंत्री के साथ ऐसा दुर्व्यवहार आजाद भारत के इतिहास में पहली बार हुआ। इसका जितनी निंदा की जाए कम है। प्रधान मंत्री भारत सरकार का सर्वोच्च मुखिया होता है। उसका अपमान देश का अपमान है। इसलिए आजतक कभी आंदोलनकारियों ने या विपक्षी दलों ने ऐसा काम नहीं किया था। यह बड़ी चिंता की बात है और यह देश के लोकतंत्र के तेज़ी से पतनशील होने का बड़ा प्रमाण है। प्रधान मंत्री का पुतला जलाने वाले वास्तव में उनकी नीतियों से आहत थे या उन्हें किसी ने राजनैतिक मक़सद से उकसाया? जो भी हो इससे एक ग़लत परम्परा की शुरुआत हो गई जो और भी ज़्यादा चिंता की बात है।
 

दरअसल पिछले कुछ वर्षों में राजनीति का जो विमर्श बना है और जिस तरह की भाषा राजनैतिक कार्यकर्ता और उनके सहयोगी मीडिया कर्मी अपने विरोधियों के प्रति प्रयोग कर रहे हैं, उससे वो दिन दूर नहीं जब राजनीति में बातचीत से नहीं लाठी, गोली और डंडों से ही बात हुआ करेगी। फिर तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर न तो कोई विचारधारा बचेगी और न कोई सामाजिक सरोकार का मुद्दा। घोर अराजकता की स्थिति होगी। इस पतन की शुरुआत बहुत सीमित मात्रा में तीन दशक पहले हुई थी, जब राजनैतिक दलों ने अपराधियों को चुनावों में उम्मीदवार बनाना शुरू किया था। तब मैंने अपनी कालचक्र विडीओ मैगज़ीन में एक रिपोर्ट तैयार की थी ‘क्या भारत पर माफिया राज करेगा?’ पर तब हालत इतने बुरे नहीं थे जितने आज हो गए हैं। 



पिछले कुछ वर्षों से देश के स्तर से लेकर गाँव और क़स्बे तक राजनैतिक आक्रामकता बढ़ती जा रही है। कोई अपने विरोधी की बात न तो शांति से सुनने को तैयार है और न उस पर तर्क करने को। ज़रा सा विरोध भी किसी को बर्दाश्त नहीं है। बात बात पर अपने विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग करना, उन्हें धमकी देना या उन्हें देशद्रोही बताना आम बात हो गई है। इससे समाज में तनाव और असुरक्षा बढ़ रही है। यह भारत की सनातन संस्कृति नहीं हैं। ऐसा आचरण तो पश्चिम एशियाई देशों में देखने में आता है, जहां छोटी छोटी बातों पर मारकाट, गोली-बारी और सर कलम करने जैसे हादसे रोज़ होते रहते हैं। 


भारत की संस्कृति में तो राजा से भी एक आम नागरिक उसके दरबार में अपना विरोध प्रकट कर सकता था। पौराणिक गोवर्धन पर्वत की तलहटी में 500 वर्ष पहले एक प्रसिद्ध भजन गायक संत कुंभन दास जी रहते थे। बादशाह अकबर ने उनकी तारीफ़ सुनी तो उनका गायन सुनने के लिए सिपाही भेज कर उन्हें अपनी राजधानी फ़तेहपुर सीकरि बुलवा लिया। इससे कुंभन दास जी बहुत दुखी हुए। बादशाह के हुक्म पर उन्होंने दरबार में अपना प्रसिद्ध पद गाया, संत कू कहा सीकरी सों काम। आवत जात पनहैया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। बादशाह अकबर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो कुंभन दास जी बोले, आज के बाद अपना मनहूस चेहरा मुझे मत दिखाना, क्योंकि इसके चक्कर में आज मेरा भजन भंग हो गया। इस पर दरबारियों ने तलवारें खींच लीं, तो अकबर ने उन्हें रोका और कहा, ये सच्चे फ़क़ीर हैं, ये शहनशाहों के शहनशाह (भगवान श्री कृष्ण) के लिए गाते हैं, हमारे लिए नहीं। मतलब ये कि अगर शासक में अपनी आलोचना सुनने की उदारता होगी, तो जनता का आक्रोश इतना नहीं भड़केगा कि वो मर्यादा की सीमा लांघ जाए। 


आजकल थाईलैंड के राजतंत्र के ख़िलाफ़ भारी जन आक्रोश ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया है। जबकि थाईलैंड के क़ानून के अनुसार राजा की निंदा करना भी ग़ैर क़ानूनी है। ऐसा इसलिए हुआ कि पिछले राजा उदार थे और लोकप्रिय भी। जबकि वर्तमान राजा के आचरण और नीतियों से जनता त्रस्त है। वैसे सारी जनता को हर समय कोई भी शासक पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर सकता। कुछ न कुछ लोग तो हमेशा असंतुष्ट होंगे ही। पर अगर शासक वर्ग आम जनता के प्रति सम्वेदनशील है और जनता को भी लगता है कि उसकी नीतियों से जनता को लाभ मिल रहा है, तो स्थिति इतनी नहीं बिगड़ती। किंतु अगर जनता को लगे कि शासक वर्ग की नीतियाँ और आचरण आम जनता के हितों के विरोध में हैं और केवल कुलीन या सम्पन्न लोगों के हित में हैं तो उसका आक्रोश बढ़ जाता है। जिसकी परिणिति हिंसक आंदोलन का रूप भी ले सकती है। 


मध्य युग की छोड़ दें तो भी आधुनिक युग में और इसी सदी में दुनिया के जिन-जिन देशों में शासकों ने तानाशाहीपूर्ण रवैया अपनाया, विरोध के स्वरों को दबाया और जनसंचार के माध्यमों से अपना झूठा प्रचार करवाया उन-उन तानाशाहों को खूनी क्रांति का सामना करना पड़ा। इसलिए लोकतंत्र में जो चार स्तंभ बनाए गए हैं - विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया, चारों की स्वायत्तता समविधान में सुरक्षित की गई है। इन चारों स्तंभों को एक दूसरे के ऊपर निगरानी रखने का दायित्व भी लोकतांत्रिक परम्पराओं ने प्रदान किया है। जिससे समाज में संतुलन बना रहे। 


इसलिए यह हम सब का दायित्व है कि हम देश की लोकतांत्रिक परम्पराओं में तजी से आई इस गिरावट को रोकने का काम तुरंत करें। इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी स्वयं प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की है। वे सत्ता के सिरमौर हैं और एक नए भारत का सपना देख रहे हैं। उन्हें इस परीस्थिति का निष्पक्ष मूल्यांकन कर इस गिरावट को रोकने के लिए ठोस और प्रभावी कदम उठाने चाहिएँ। जिससे हमारा समाज भयमुक्त हो, अनुशासित हो और ज़िम्मेदारी से व्यवहार करे, ऐसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकत न करे।

Monday, October 15, 2018

सुब्रमनियन स्वामी: गिरगिटिया या हिंदुत्ववादी ?

हैदराबाद के ‘मदीना एजुकेशन सेंटर’ में 13 मार्च 1993 को भाषण देते हुए स्वनामधन्य डा. सुब्रमनियन स्वामी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराये जाने के लिए भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद् की कड़े शब्दों में भत्र्सना की। उन्होंने इन तीनों संगठनों को ‘आतंकवादी’ बताया और प्रधानमंत्री नरसिंह राव से इन तीनों संगठनों को प्रतिबंधित करने की मांग भी की थी।जबकि मैने 1990 में  जोखिम उठाकर अपनी कालचक्र वीडियो मैगज़ीन में 'अयोध्या नरसंहार'  पर सशक्त वीडियो फ़िल्म बनाकर प्रसारित की थी, जिसकी विहिप, संघ और भाजपा ने हज़ारों प्रतियां बनवाकर देशभर में दिखाई थीं। 1990 से मैँ अयोध्या, मथुरा और काशी में मंदिरों के समर्थन में लिखता और बोलता रहा हूँ। जबकि स्वामी जैसे अवसरवादी केवल निजी लाभ के लिए मौके के अनुसार उछलते रहते हैं।



आज वहीं डा. स्वामी अपना रंग और चोला बदलकर, पूरी दुनिया के हिंदुओं को मूर्ख बना रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे अयोध्या में राम मंदिर बनवाकर ही दम लेंगे। युवा पीढ़ी चाहे भारत में हो या अमरिका में रहने वाले अप्रवासी भारतीय, डा. स्वामी के लच्छेदार भाषणों के सम्मोहन में आकर, इन्हें हिंदू धर्म का सबसे बड़ा नेता मान रही है। क्योंकि उन्हें इनका अतीत पता नहीं है।



आजकल डा. स्वामी दावा करते हैं कि उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पूर्णं समर्थन प्राप्त है। अब ये स्पष्टीकरण तो आदरणीय मोहन भागवत जी को देश को देना चाहिए कि क्या डा. स्वामी का दावा सही है? जो व्यक्ति संघ और उससे जुड़े संगठनों को ‘‘आतंकवादी’’ करार देता आया हो, उसे संघ अपना नेता कैसे मान सकता है?



इतना ही नहीं दुनियाभर में ऐसे तमाम लोग हैं, जिन्हें डा. स्वामी ने यह झूठ बोलकर कि वे राम जन्मभूमि के लिए सर्वोच्च अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं, उनसे कई तरह की मदद ली है। कितना रूपया ऐंठा है, ये तो वे लोग ही बताऐंगे। पर हकीकत ये है कि डा. स्वामी का राम जन्मभूमि विवाद में कोई ‘लोकस’ ही नहीं है। पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने ये साफ कर दिया है कि राम जन्मभूमि विवाद में वह केवल उन्हीं लोगों की बात सुनेंगी, जो इस मामले में भूमि स्वामित्व के दावेदार हैं। यानि डा. स्वामी जैसे लोग अकारण ही बाहर उछल रहे हैं और तमाम तरह के झूठे दावे कर रहे हैं कि वे राम मंदिर बनवा देंगे। जबकि उनकी इस प्रक्रिया में कोई कानूनी भूमिका नहीं है।



एक आश्चर्य कि बात ये है कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद जिस भारतीय जनता पार्टी की मान्यता रद्द करने के लिए डा. स्वामी ने चुनाव आयोग से मांग की थी, उसी भाजपा ने किस दबाब में डा. स्वामी को ‘राज्यसभा’ में मनोनीत करवाया? राजनैतिक गलियारों में ये चर्चा आम है कि इन्हें संघ के दबाव में लेना पड़ा। वरना इनके गिरगिटिया स्वभाव के कारण कोई इन्हें लेने तैयार नहीं था। सुनते हैं कि डा. स्वामी ने प्रधानमंत्री मोदी को यह आश्वासन दिया कि वे ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओें को जेल भिजवा देंगे और ये दावा ये हर कुछ महीनों में दोहराते रहते हैं। जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि ‘नेशनल हेराल्ड’ केस में कोई दम ही नहीं है।



भारतीय जनता पार्टी के नेता अमित शाह को सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति के संबंध कुख्यात हथियार कारोबारी अदनान खशोगी, विजय मल्ल्या और दूसरे ऐसे लोगों से रहे हों, उसे भाजपा अपने दल में रखकर क्यों अपनी छवि खराब करवा रही है। इतना ही नहीं बिना किसी खतरे के बावजूद डा. स्वामी को ‘जेड’ श्रेणी की सुरक्षा दे रखी है। इस पर इस गरीब देश का लाखों रूपया महीना बर्बाद हो रहा है। मजे की बात तो ये है कि डा. स्वामी आऐ दिन अखबारों में बयान देकर मोदी सरकार के मंत्रियों और अन्य नेताओं पर हमला बोलते रहते हैं और उन्हें नाकारा और भ्रष्ट बताते रहते हैं। तो क्या ये माना जाऐ कि डा. स्वामी को उनकी धमकियों से डरकर राज्यसभा की सदस्यता और जेड श्रेणी की सुरक्षा दी गई है? पुरानी कहावत है कि ‘मूर्ख दोस्त से बुद्धिमान दुश्मन भला’। डा. स्वामी वो बला हैं, जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं। ऐसे अविश्वसनीय और बेलगाम व्यक्ति को राज्यसभा और भाजपा में रखकर पार्टी क्या संदेश देना चाहती है?



डा. स्वामी खुलेआम झूठ बोलते हैं और इतनी साफगोई से बोलते हैं कि सामने वाले शक भी न हो। एक रोचक उदाहरण है कि 80 के दशक में जब पंजाब में सिक्ख आतंकवाद अपने चरम पर था, तो डा. स्वामी ने भिंड्रावाला के खिलाफ आक्रामक टिप्पणी कर दी। जब इन्हें सिक्ख संगठनों से धमकी आई, तो ये भागकर अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में डेरा जमाए हुए भिंड्रावाला के पैरों में पड़ गऐ। अंदर का वातावरण छावनी जैसा था। हर ओर निहंग बंदूके और शस्त्र ताने हुए थे। यह सब खुलेआम देखकर भी डा. स्वामी की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत सरकार को अंदर की सच्चाई बता दें। डा. स्वामी ने भिड्रावाला से मिलने के बाद बाहर आकर झूठा बयान दिया कि,‘‘अंदर कोई हथियार नहीं हैं।’’




डा. स्वामी के डीएनए में दोष है। ये नाहक हर बात में टांग अड़ाते हैं और अपने ‘उच्च’ विचारों से देश के मीडिया को गुमराह करते रहते हैं। सारा मकसद अपनी ओर मीडिया का ध्यान आकर्षित करना होता है, देश, धर्म और समाज जाए गड्ढे में। ऐसे गिरिगिटिया, झूठे और ब्लेकमेलर स्वामी को संध नेतृत्व क्यों अपने कंधे पर ढो रहा है?

Monday, June 12, 2017

एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा

जिस दिन एनडीटीवी पर सीबीआई का छापा पड़ा, उसके अगले दिन एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान भाजपा के प्रवक्ता का दावा था कि सीबीआई स्वायत्त है। जो करती है, अपने विवेक से करती है। मैं भी उस पैनल पर था, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। सीबीआई कभी स्वायत्त नही रही या उसे रहने नहीं दिया गया। 1971 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन ले लिया था, तब से हर सरकार इसका इस्तेमाल करती आई है। 



रही बात एनडीटीवी के मालिक के यहां छापे की तो मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं कि डा. प्रणय रॉय एक अच्छे इंसान हैं। मेरा उनका 1986 से साथ है, जब वे दूरदर्शन पर ‘वल्र्ड दिस वीक’ एंकर करते थे और मैं ‘सच की परछाई’। तब देश में निजी चैनल नहीं थे। जैसा मैंने उस शो में बेबाकी से कहा कि 1989 में कालचक्र वीडियो मैग्जी़न के माध्यम से देश में पहली बार स्वतंत्र हिंदी टीवी पत्रकारिता की स्थापना करने के बावजूद, आज मेरा टीवी चैनल नहीं है। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता करनी नहीं आती या चैनल खड़़ा करने का मौका नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि चैनल खड़ा करने के लिए बहुत धन चाहिए। जो बिना सम्पादकीय समझौते किये, संभव नहीं था। मैं अपनी पत्रकारिता की स्वतंत्रता खोकर चैनल मालिक नहीं बनना चाहता था। इसलिए ऐसे सभी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। 



एनडीटीवी के कुछ एंकर बढ़-चढ़कर ये दावा कर रहे हैं कि उनकी स्वतंत्र पत्रकारिता पर हमला हो रहा है। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि ‘गोधरा कांड’ के बाद, जैसी रिपोर्टिंग उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की, क्या वैसे ही तेवर से उन्होंने कभी कांग्रेस के खिलाफ भी अभियान चलाया ? जब मैंने हवाला कांड में लगभग हर बड़े दल के अनेकों बड़े नेताओं को चार्जशीट करवाया, तब वे सब चैनलों पर जाकर अपनी सफाई में तमाम झूठे तर्क और स्पष्टीकरण देने लगे। उस समय मैंने उन सब चैनलों के मालिकों और एंकरों को इन मंत्रियों और नेताओं से कुछ तथ्यात्मक प्रश्न पूछने को कहा तो किसी ने नहीं पूछे। क्योंकि वे सब इन राजनेताओं को निकल भागने का रास्ता दे रहे थे। ऐसा करने वालों में एनडीटीवी भी शामिल था। ये कैसी स्वतंत्र पत्रकारिता है? जब आप किसी खास राजनैतिक दल के पक्ष में खड़े होंगे, उसके नेताओं के घोटालों को छिपायेंगे या लोकलाज के डर से उन्हें दिखायेंगे तो पर दबाकर दिखायेंगे। ऐसे में जाहिरन वो दल अगर सत्ता में हैं, तो आपको और आपके चैनल को हर तरह से मदद देकर मालामाल कर देगा। पर जिसके विरूद्ध आप इकतरफा अभियान चलायेंगे, वो भी जब सत्ता में आयेगा, तो बदला लेने से चूकेगा नहीं। तब इसे आप पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला नहीं कह सकते।



सोचने वाली बात ये है कि अगर कोई भी सरकार अपनी पर उतर आये और ये ठान ले कि उसे मीडियाकर्मियों के भ्रष्टाचार को उजागर करना है, तो क्या ये उसके लिए कोई मुश्किल काम होगा? क्योंकि काफी पत्रकारों की आर्थिक हैसियत पिछले दो दशकों में जिस अनुपात में बढ़ी है, वैसा केवल मेहनत के पैसे से होना संभव ही न था। जाहिर है कि बहुत कुछ ऐसा किया गया, जो अपराध या अनैतिकता की श्रेणी में आता है। पर उनके स्कूल के साथियों और गली-मौहल्ले के खिलाड़ी मित्रों को खूब पता होगा कि पत्रकार बनने से पहले उनकी माली हालत क्या थी और इतनी अकूत दौलत उनके पास कब से आई। ऐसे में अगर कभी कानून का फंदा उन्हें पकड़ ले तो वे इसेप्रेस की आजादी पर हमला’ कहकर शोर मचायेंगे। पर क्या इसे ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ माना जा सकता है?



अगर हमारी पत्रकार बिरादरी इस बात का हिसाब जोड़े कि उसने नेताओं, अफसरों या व्यवसायिक घरानों की कितनी शराब पी, कितनी दावतें उड़ाई, कितने मुर्गे शहीद किये, उनसे कितने मंहगे उपहार लिए, तो इसका भी हिसाब चैकाने वाला होगा। प्रश्न है कि हमें उन लोगों का आतिथ्य स्वीकार ही क्यों करना चाहिए, जिनके आचरण पर निगेबानी करना हमारा धर्म है। मैं पत्रकारिता को कभी एक व्यवसायिक पेशा नहीं मानता, बल्कि समाज को जगाने का और उसके हक के लिए लड़ने का हथियार मानता रहा हूं। प्रलोभनों को स्वीकार कर हम अपनी पत्रकारिता से स्वयं ही समझौता कर लेते हैं। फिर हम प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला कहकर शोर क्यों मचाते हैं



सत्ता के विरूद्ध अगर कोई संघर्ष कर रहा हो, तो उसे अपने दामन को साफ रखना होगा। तभी हमारी लड़ाई में नैतिक बल आयेगा। अन्यथा जहां हमारी नस कमजोर होगी, सत्ता उसे दबा देगी। पर ये बातें आज के दौर में खुलकर करना आत्मघाती होता है। मध्य युग के संत अब्दुल रहीम खानखाना कह गये हैं, ‘अब रहीम मुस्किल परी, बिगरे दोऊ काम। सांचे ते तौ जग नहीं, झूंठे मिले न राम’।। जो सच बोलूंगा, तो दुनिया मुझसे रूठेगी और झूंठ बोलूंगा तो भगवान रूठेंगे। फैसला मुझे करना है कि दुनिया को अपनाऊं या भगवान को। लोकतंत्र में प्रेस की आजादी पर सरकार का हमला एक निंदनीय कृत्य है। पर उसे प्रेस का हमला तभी माना जाना चाहिए जबकि हमले का शिकार मीडिया घराना वास्तव में निष्पक्ष सम्पादकीय नीति अपनाता हो और उसकी सफलता के पीछे कोई बड़ा अनैतिक कृत्य न छिपा हो।


Monday, July 29, 2013

देश में क्यों हो रही हैं इधर-उधर की बातें ?

टी.वी. चैनल हों या राजनैतिक बयानबाजी ऐसा लगता है कि देश में मुद्दों का अभाव हो गया है। जिधर देखो उधर इधर-उधर की बातें की जा रही हैं। दर्शक, श्रोता और पाठक हैरान हैं कि इन बातों से उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का क्या ताल्लुक ? ये किसकी बातें हो रही हैं ? किसके लिये हो रही हैं ? इनसे किसे लाभ हो रहा है? अगर आम जनता को नही तो ये बातें क्यों हो रही हैं ? या तो इन मुद्दों का चयन असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिये किया जा रहा है या मुद्दों का चयन करने वालों को सूझ ही नहीं रहा कि किन मुद्दों का उठायें।

गरीब आदमी का खाना 5 रुपये में होता है, 12 रुपये में या 20 रुपये में। जब देश के अर्थशास्त्रियों ने अपने सर्वेक्षणों और अध्ययनों से बार-बार यह सिद्ध कर दिया है कि देश के 70 प्रतिशत आदमी की रोजाना आमनदनी औसतन 20 रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से ज्यादा नहीं है। तो सोचने वाली बात यह है कि वो एक बार में कितना रुपया अपने भोजन पर खर्च करने की हालत में होगा। जो लोग दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता के बाजारों में जाकर खाने की थाली के दाम पूछकर इन बयानों का मजाक उड़ा रहे हैं, लगता है उन्होंने देश के देहाती इलाकों में जाकर असली आम आदमी की हालत का जायजा ही नहीं लिया। अगर लिया होता तो वे ये समझ पाते कि देश का 70 प्रतिशत गरीब आदमी एक वक्त में 5 रु. - 7 रु. से ज्यादा अपने भोजन पर खर्च नहीं कर पाता।

इसी तरह यह देखकर सिर धुनने को मन करता है कि चुनाव का अभी कोई अता-पता नहीं, पर चुनावी परिणामों पर बहसें चालू हो चुकी हैं। चुनाव छः महिने में होंगे या साल भर में इसकी कोई गारण्टी नहीं। राजनैतिक दलों ने न तो अपने घोषणा पत्र जारी किये हैं, न ही उम्मीदवारों की सूची। न देश में कोई हवा बनी है और न ही आम जनता को अभी से चुनाव के बारे में सोचने की फुरसत है। ऐसे में बहसें की जा रही हैं कि सरकार किसकी बनेगी। इससे ज्यादा बे-सिर पैर का मुद्दा बहस के लिये क्या हो सकता है ? ऐसे विषयों का चुनाव करने वालों को तो छोड़ें, पर इन विशेषज्ञों को क्या हो गया जो आकर इन मुद्दों पर अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करा रहे हैं? ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा’।

लगे हाथ अब बटला हाउस काण्ड को भी परख लें। जब सब कुछ तय हो चुका था। केवल अदालत का फैसला आना बाकी था। तो फिर इस काण्ड की शुरू से आखिर तक की कहानी दोहराने से क्या मकसद हासिल हो रहा था। पर ये कहानी दोहराई गई। एक-दो बार नहीं बल्कि बीसियों बार। जबकि अदालत का फैसला वही आया जो पुलिस के रिकॉर्ड में तथ्य दर्ज किये गये थे। फिर इस कहानी को बार-बार पेश करके क्या बताने की कोशिश की गई? अगर चर्चा ही करनी थी तो इस काण्ड के आरोपियों को मिलने वाली सजा और उसके कानूनी पेचों पर चर्चा की जा सकती थी। जैसी पिछले दिनों कसाब और अफजल गुरू की फांसी के दौरान चर्चायें की गईं। उससे इस तरह के अपराधों के कानूनी, सामाजिक और नैतिक पक्ष को समझने में दर्शकों और पाठकों को मदद मिलती।

पिछले दिनों बिहार में ‘मिड-डे मील’ में 23 बच्चों की मौत को लेकर एक बड़ा मुद्दा बना। बनना भी चाहिये था, आखिर गरीब के बच्चे जहरीला खाना खाने के लिये तो स्कूल भेजे नहीं जाते। अगर बिहार सरकार ने लापरवाही की तो उसे मीडिया में उछालना बिल्कुल वाज़िब बात थी। पर बात बिहार तक ही सीमित नहीं है। जब हमारा संवाददाता कैमरा या कलम लेकर देश के अलग-अलग प्रान्तों में मिड-डे मील कार्यक्रम की पड़ताल करने निकलता है, तो वह पाता है कि कमोबेश यही हाल पूरे देश के हर प्रान्त के मिड-डे मील का है। यानी बिहार को अकेला कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। जैसे ही इस बात का अंदाजा लगा, यह गम्भीर मुद्दा बहसों से गायब हो गया, क्यों? क्या इस मुद्दे पर बाकी प्रदेशों में गहरी पड़ताल कर शोर मचाने की जरूरत नहीं है?

बीच-बीच में कुछ मुद्दे बाढ़, भू-स्खलन व जमीन ध्ंसने जैसी प्रकृतिक आपदाओं के आते ही रहते हैं। उत्तराखण्ड की विपदा सामान्य आपदा से ज्यादा प्रलय जैसी घटना थी। इसलिये मीडिया को सक्रिय भी होना पड़ा और महीने भर तक उसका कवरेज भी करना पड़ा। क्योंकि इस प्रलय से देश के हर हिस्से का परिवार जुड़ा था और यह विजुअल्स की दृष्टि से दिल दहलाने वाला कवरेज था। जब यह मुद्दा उठा तो जाहिर है कि आपदा प्रबन्धन, प्रशासनिक अकुशलता व विनाशोन्मुख विकास के माॅडल पर चर्चा की जाती। की भी गई। पर इतनी बड़ी आपदा के बाद भी इस गम्भीर सवाल को हमारा मीडिया लम्बे समय तक टिकाये नहीं रख सका। इतना कि देश में इस पूरे प्रबंधन हीनता के खिलाफ एक माहौल बनता और देश भर से दबाव समूह सक्रिय होते, तो बदलाव की दिशा भी दिखने लगती। लगता है नये-नये मुद्दे तलाशने की हुलहुलाहट में हमने एक बड़ा मौका खो दिया।

Monday, July 8, 2013

उत्तराखंड का सबक: मीडिया अपना रवैया बदले

उत्तराखंड की तबाही और मानवीय त्रासदी पर देश के मीडिया ने बहुत शानदार रिर्पोटिंग की है। दुर्गम स्थितिओं में जाकर पड़ताल करना और दिल दहलाने वाली रिर्पोट निकालकर लाना कोई आसान काम नहीं था। जिसे टीवी और प्रिंट मीडिया के युवा कैमरामैनों व संवादाताओं ने पूरी निष्ठा से किया। जैसा कि ऐसी हर दुर्घटना के बाद होता है, अब उत्तराखंड से ध्यान धीरे-धीरे हटकर दूसरे मुद्दों पर जाने लगा है। जो एक स्वभाविक प्रक्रिया है। पर यहीं जरा ठहरकर सोचने की जरुरत है। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर टीवी मीडिया में, ऐसा कवरेज हो रहा है जिससे सनसनी तो फैलती है, उत्तेजना भी बढ़ती है, पर दर्शक कुछ सोचने को मजबूर नहीं होता। बहुत कम चैनल हैं जो मुद्दों की गहराई तक जाकर सोचने पर मजबूर करते हैं। इस मामले में आदर्श टीवी पत्रकारिता के मानदंडों पर बीबीसी जैसा चैनल काफी हद तक खरा उतरता है। जिन विषयों को वह उठाता है, जिस गहराई से उसके संवाददाता दुनिया के कोने-कोने में जाकर गहरी पड़ताल करते हैं, जिस संयत भाषा और भंगिमा का वे प्रयोग करते हैं, उसे देखकर हर दर्शक सोचने पर मजबूर होता है।
 
जबकि हमारे यहां अनेक संवाददाता और एंकरपर्सन खबरों पर ऐसे उछलते हैं मानो समुद्र में से पहली बार मोती निकाल कर लाये हैं। इस हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं दूसरा यश न ले ले। फिर भी वही सूचना और वाक्य कई-कई बार दोहराते हैं। इस हद तक कि बोरियत होने लगे। अनेक समाचार चैनल तो ऐसे हैं जिनकी खबरें सुनकर लगता हैं कि धरती फटने वाली हैं और दुनियां उसमें समाने वाली है। जबकि खबर ऐसी होती है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। इस देश में खबरों का टोटा नहीं है। पहले कहा जाता था कि अगर कहीं खबरें न मिले तो बिहार चले जाओ, खबरें ही खबरें मिलेंगी। अब तो पूरे देश की यह हालत है। हर जगह खबरों का अम्बार लगा है। उन्हें पकड़ने वाली निगाहें चाहिए।
 
हत्या, बलात्कार, चोरी और फसाद की खबरें तो थोक में मिलती भी हैं और छपती भी हैं। पर विकास के नाम पर देश में चल रहे विनाश के तांडव पर बहुत खबरें देखने को नहीं मिलती। फ्लाईओवर टूटकर गिर गया, तब तो हर चैनल कवरेज को भागेगा ही, पर कितने चैनल और अखबार हैं जो देश में बन रहे फ्लाईओवरों के निर्माण में बरती जा रही कोताही और बेईमानी को समय रहते उजागर करते हैं ? ऐसी कितनी खबरें टीवी चैनलों पर या अखबारों में आती हैं जिन्हें देख या पढ़कर ऐसे निर्माण अधर में रोक देना सरकार की मजबूरी बन जाये। सांप निकलने के बाद लकीर पर लठ्ठ बजाने से क्या लाभ ?
 
आज देश में विकास की जितनी योजनाएं सरकारी अफसर बनवाते हैं, उनमें से ज्यादातर गैर जरूरी, फिजूल खर्चे वाली, जनविरोधी और पर्यावरण के विपरीत होती है। जिससे देश के हर हिस्से में रात- दिन उत्तराखंड जैसा विनाशोन्मुख ‘विकास‘ हो रहा है। इन योजनाओं को बनाने वालों का एक ही मकसद होता है, कमीशनखोरी और घूसखोरी। इसलिए ऐसे कन्सलटेन्ट रखे जाते है जो अपनी प्रस्तावित फीस का 80 फीसदी तक काम देने वाले अफसर या नेता को घूस में दे देते हैं। बचे बीस फीसदी में वे अपने खर्चे निकालकर मुनाफा कमाते हैं, इसलिए काम देने वाले कि मर्जी से उटपटांग योजनाएं बनाकर दे देते हैं। इस तरह देश की गरीब जनता का अरबों-खरबों रुपया निरर्थक योजनाओं पर बर्बाद कर दिया जाता है। जिसका कोई लाभ जनता को नहीं मिलता। हां नेता, अफसर और ठेकेदारों के महल जरूर खड़े हो जाते हैं। देश में दर्जनों समाचार चैनल और सैकड़ों अखबार हैं। उनकी युवा टीमों को सतर्क रहकर ऐसी परियोजनाओं की असलियत समय रहते उजागर करनी चाहिए। पर यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि ऐसे मुद्दें आज के युवा संवाददाताओं को ग्लैमरस नहीं लगते। वे चटपटी, सनसनीखेज खबरों और विवादास्पद बयानों पर आधारित खबरें ही करना चाहते हैं। कहते है इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है। उन्हें लगता है कि जनता विकास और पर्यावरण के विषयों में रुचि नहीं लेगी।
 
जबकि हकीकत कुछ और है। अगर उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी पर पूरा देश सांस थामें पन्द्रह दिन तक टीवी के परदे के आगे बैठा रहता है, तो जरा सोचिए कि ऐसी त्रासदियों की याद दिलाकर देश की जनता और हुक्मरानों को उनकी विनाशकारी नीतियों और परियोजनाओं के विपरीत चेतावनी क्यों नहीं दी जा सकती ? जनता का ध्यान उनसे होने वाले नुकसान की तरफ क्यों नही आकृष्ट किया जा सकता ? जब जनता को ऐसी खबरें देखने को  मिलेंगी तो उसके मन में आक्रोश भी पैदा होगा और सही समाधान ढूंढने की ललक भी पैदा होगी। आज हम टीवी बहसों में या अखबार की खबरों में भ्रष्टाचार के आरोप-प्रत्यारोपों वाली बहसें तो खूब दिखाते हैं पर किसी परियोजना के नफे -नुकसान को उजागर करने वाले विषय छूते तक नहीं। पौराणिक कहावत है- कुछ लोग दूसरों की गलती देखकर सीख लेते हैं। कुछ लोग गलती करके सीखते हैं और कुछ गलती करके भी नहीं सीखते। मीडिया को हर क्षण ऐसा काम करना चाहिए कि लोग त्रासदियों के दौर में ही संवेदनशील न बनें बल्कि हर क्षण अपने परिवेश और पर्यावरण के विरुद्ध होने वाले किसी भी काम को, किसी भी हालत में होने न दें। तभी मीडिया लोकतंत्र का चैथा खम्बा कहलाने का हकदार बनेगा और तभी उत्तराखंड जैसी त्रासदियों को समय रहते टाला जा सकेगा। 

Sunday, November 6, 2011

ज़िम्मेदार बने देश का मीडिया

Rajasthan Patrika 6Nov2011
प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया के नये बने अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू के ताजा बयानों ने मीडिया जगत में हलचल मचा दी है। उनके तीखे हमलों से बौखलाए मीडियाकर्मी न्यायमूर्ति काटजू के विरूद्ध लामबंद हो रहे हैं। जरूरत श्री काटजू के बयान के निष्पक्ष मूल्यांकन की है। क्योंकि धुंआ वहीं उठता है, जहाँ आग होती है।

श्री काटजू का कहना है कि, ‘टी.वी. मीडिया क्रिकेट और फिल्म सितारों पर ज्यादा फोकस रखकर बुनियादी सवालों से जनता का ध्यान हटा रहा है। देश की समस्या गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार है। जिन पर मीडिया नाकाफी ध्यान देता है।’ श्री काटजू के इस आरोप में काफी दम है। आम दर्शक भी यह महसूस करने लगा है कि टी.वी. मीडिया गंभीर पत्रकारिता नहीं कर रहा है। पर यहाँ समस्या इस बात की है कि जो लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं, वे टी.वी. नहीं देखते। जो टी.वी. देखते हैं, उनकी इन सवालों में रूचि नहीं है। टी.वी. मीडिया महंगा माध्यम है। इसको चलाने के लिए जो रकम चाहिए, वह विज्ञापन से आती है। विज्ञापन देने वाले उन्हीं कार्यक्रमों के लिए विज्ञापन देते हैं, जो मनोरंजक हों और लोकप्रिय हों। इसलिए धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया पूरी तरह विज्ञापन दाताओं के शिकंजे में चला गया है। जो थोड़ी बहुत चर्चाऐं गंभीर मुद्दों पर की जाती हैं, उनकी प्रस्तुति का तरीका भी सूचनाप्रद कम और मनोरंजक ज्यादा होता है। इनमें शोर-शराबा और नौंक-झौंक ज्यादा होती है। इसलिए गंभीर लोग टी.वी. देखना पसन्द नहीं करते।

श्री काटजू का आरोप है कि टी.वी. मीडिया ज्योतिष और अंधविश्वास दिखाकर लोगों को दकियानूसी बना रहा है। जबकि भविष्य के परिवर्तन के लिए उसे तार्किक व वैज्ञानिक सोच को विस्तार देना चाहिए। ताकि समाज भविष्य के बदलाव के लिए तैयार हो सके। श्री काटजू का यह आरोप भी बेबुनियाद नहीं है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण कब-से पड़ रहे हैं, पर टी.वी. मीडिया को देखिए तो लगता है कि हर ग्रहण एक प्रलय लेकर आने वाला है। जबकि होता कुछ भी नहीं। आश्चर्य की बात है कि टी.वी. मीडिया के आत्मानुशासन के लिए बनी ‘न्यूज ब्राॅडकास्टिंग स्टैण्डडर््स आॅथोरिटी’ टेलीविजन के इस गिरते स्तर को रोक पाने में नाकाम रही है। इस कमेटी के अध्यक्ष जस्टिस जे.एस. वर्मा हैं।

श्री काटजू का आरोप है कि, ‘मीडियाकर्मी राजनीति, कानून, इतिहास, दर्शन, अन्र्तराष्ट्रीय सम्बन्ध जैसे गंभीर विषयों पर बिना जाने और बिना शोध किए रिपोर्ट लिख देते हैं। जिससे उनका हल्कापन नजर आता है।’ उनकी सलाह है कि पत्रकारों को गंभीर अध्ययन करना चाहिए। श्री काटजू को इस बात से भी शिकायत है कि मीडिया बम विस्फोट की खबरों को इस तरह से प्रकाशित करता है कि मानो हर मुसलमान आतंकवादी है। उनका मानना है कि हर धर्म में ज्यादा प्रतिशत अच्छे लोगों का है। इस तरह की रिपोर्टिंग से समाज में विघटन पैदा हो जाएगा। जबकि हमें समाज को जोड़ने का माहौल बनाना चाहिए। जस्टिस काटजू को इस बात से भी नाराजगी है कि मीडिया वाले बिना पूरी तहकीकात किए ही किसी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति को जरा देर में ध्वस्त कर देते हैं। जिससे समाज का बड़ा अहित हो रहा है। उनका मानना है कि उच्च पदों पर आसीन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ, चाहें वे न्यायाधीश ही क्यों न हों, मीडिया को लिखने का हक है, पर ईमानदार लोगों को नाहक बदनाम नहीं करना चाहिए। श्री काटजू चाहते हैं कि प्रिंट और टेलीविजन, दोनों माध्यमों को ‘प्रेस काउंसिल ऑफ इण्डिया’ के आधीन कर देना चाहिए और इसका नाम बदलकर ‘मीडिया काउंसिल ऑफ इण्डिया’ कर देना चाहिए। वे चाहते हैं कि उन्हें मीडिया को नियन्त्रित करने और सजा देने का अधिकार भी मिले।

उपरोक्त सभी मुद्दे कुछ हद तक सही हैं और कुछ हद तक विवादास्पद। विज्ञापन लेने की कितनी भी मजबूरी क्यों न हो, कार्यक्रमों और समाचारों का स्तर गंभीर बनाने की कोशिश होनी चाहिए। अन्यथा धीरे-धीरे टी.वी. मीडिया केवल सनसनी फैलाने का माध्यम बनकर रह जाऐगा। श्री काटजू को मीडिया के खिलाफ कड़े कानून बनाने का हक तो नहीं मिलना चाहिए, पर ऐसी व्यवस्था जरूर बननी चाहिए कि गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता करने वाले अखबारों, चैनलों और पत्रकारों को सही रास्ते पर लाया जा सके। प्रेस की आजादी के नाम पर मीडिया का एक वर्ग अपनी कारगुजारियों से पूरे मीडिया को बदनाम कर रहा है। मीडिया के लोग खबरों और मुद्दों को उठाने में पूरी पारदर्शिता नहीं बरतते और विशेष कारणों से किसी मुदद् को जरूरत से ज्यादा उछाल देते हैं और वहीं दूसरे मुद्दे को पूरी तरह दबा देते हैं, जबकि समाज के हित में दोनों का महत्व बराबर होता है।

इस सबके साथ यह भी कहने में काई संकोच नहीं होना चाहिए कि न्यायपालिका के सदस्य समाज के हर वर्ग पर तीखी टिप्पणी करने में संकोच नहीं करते। जबकि न्यायपालिका में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके कोई कदम नहीं उठ रहे। जस्टिस काटजू अगर मीडिया के साथ ही न्यायपालिका को भी इसी तेवर से लताड़ें तो उनकी बात अधिक गंभीरता से ली जाऐगी। ‘अदालत की अवमानना कानून’ का दुरूपयोग करके न्यायाधीश पत्रकारों का मुंह बन्द कर देते हैं। जबकि अगर किसी पत्रकार के पास न्यायाधीश के दुराचरण ठोस परिणाम हों, तो उन्हें प्रकाशित करना ‘अदालत की अवमानना’ कैसे माना जा सकता है? प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष के नाते व पूर्व न्यायाधीश होने के नाते श्री काटजू का फर्ज है कि वे ‘अदालत की अवमानना कानून’ में वांछित संशोधन करवाने की मुहिम भी चलवाऐं।