जून 2024 के चुनाव परिणामों के बाद राहुल गांधी का ग्राफ काफ़ी बढ़ गया है। बेशक इसके लिए उन्होंने लम्बा संघर्ष किया और भारत के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे लम्बी पदयात्रा की। जिसके दौरान उन्हें देशवासियों का हाल जानने और उन्हें समझने का अच्छा मौक़ा मिला। इस सबका परिणाम यह है कि वे संसद में आक्रामक तेवर अपनाए हुए हैं और तथ्यों के साथ सरकार को घेरते रहते हैं। किसी भी लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों का मज़बूत होना ज़रूरी होता है। इसी से सत्ता का संतुलन बना रहता है और सत्ताधीशों की जनता के प्रति जवाबदेही संभव होती है। अन्यथा किसी भी लोकतंत्र को अधिनायकवाद में बदलने में देर नहीं लगती।
आज राहुल गांधी विपक्ष के नेता भी हैं। जो कि भारतीय संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक अत्यंत महत्वपूर्ण पद है। जिसकी बात को सरकार हल्के में नहीं ले सकती। इंग्लैंड, जहां से हमने अपने मौजूदा लोकतंत्र का काफ़ी हिस्सा अपनाया है, वहाँ तो विपक्ष के नेता को ‘शैडो प्राइम मिनिस्टर’ के रूप में देखा जाता है। उसकी अपनी समानांतर कैबिनेट भी होती है, जो सरकार की नीतियों पर कड़ी नज़र रखती है। ये एक अच्छा मॉडल है जिसे अपने सहयोगी दलों के योग्य नेताओं को साथ लेकर राहुल गांधी को भी अपनाना चाहिए। आपसी सहयोग और समझदारी बढ़ाने के लिए, ये एक अच्छी पहल हो सकती है।
राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनाने में ‘इंडिया गठबंधन’ के सभी सहयोगी दलों, विशेषकर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की बहुत बड़ी भूमिका रही है। उत्तर प्रदेश से 37 लोक सभा सीट जीत कर अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को विपक्ष का नेता बनने का आधार प्रदान किया। आज समाजवादी पार्टी भारत की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। ऐसे में अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का ये नैतिक दायित्व है कि वे भी अखिलेश यादव जैसी उदारता दिखाएं जिसके कारण कांग्रेस को रायबरेली और अमेठी जैसी प्रतिष्ठा की सीटें जीतने का मौक़ा मिला। वरना उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन और जनाधार के मामले में बहुत पीछे जा चुकी थी। अब महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव हैं, जहां कांग्रेस सबसे बड़े दल की भूमिका में हैं। वहाँ उसे समाजवादी पार्टी को साथ लेकर चलना चाहिए और दोनों राज्यों के चुनावों में समाजवादी पार्टी को भी कुछ सीटों पर चुनाव लड़वाना चाहिए। महाराष्ट्र में तो समाजवादी पार्टी के दो विधायक अभी भी थे। हरियाणा में भी अगर कांग्रेस के सहयोग से उसके दो-तीन विधायक बन जाते हैं तो अखिलेश यादव को अपने दल को राष्ट्रीय दल बनाने का आधार मिलेगा। इससे दोनों के रिश्ते प्रगाढ़ होंगे और ‘इंडिया गठबंधन’ भी मज़बूत होंगे।
स्वाभाविक सी बात है कि कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को इस रिश्ते से तक़लीफ़ होगी। क्योंकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक एक सा है। ये नेता पुराने ढर्रे पर चलकर समाजवादी पार्टी के जनाधार पर निगाह गढ़ाएँगे। पर ऐसी हरकत से दोनों दलों के आपसी संबंध बिगड़ेंगे और बहुत दूर तक साथ चलना मुश्किल होगा। इसलिए ‘इंडिया गठबंधन’ के हर दल को ये ध्यान रखना होगा कि जिस राज्य में जिस दल का वर्चस्व है वो वहाँ नेतृत्व संभले पर, साथ ही अपने सहयोगी दलों को भी साथ खड़ा रखे। विशेषकर उन दलों को जिनका उन राज्यों में कुछ जनाधार है। इससे गठबंधन के हर सदस्य दल को लाभ होगा। राहुल गांधी को ये सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी दल ‘इंडिया गठबंधन’ में अपने को उपेक्षित महसूस न करें। इंडिया गठबंधन में राहुल गांधी के बाद सबसे बड़ा क़द अखिलेश यादव का है। अखिलेश की शालीनता और उदारता का उनके विरोधी दलों के नेता भी सम्मान करते हैं। ऐसे में अखिलेश यादव को पूरा महत्व देकर राहुल गांधी अपनी ही नींव मज़बूत करेंगे।
हालाँकि समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के पिछले कुछ अनुभव अच्छे नहीं रहे। इसलिए और भी सावधानी बरतनी होगी। क्योंकि अखिलेश यादव में इतना बड़प्पन है कि वे अपनी कटु आलोचक “बुआजी” बहन मायावती से भी संबंध सुधारने में सद्भावना से पहल कर रहे हैं। यही नीति ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार व लालू यादव आदि को भी अपनानी होगी। तभी ये सब दल भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत बना पायेंगे।
यही बात भाजपा पर भी लागू होती है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का नारा देकर भाजपा क्षेत्रीय दलों के साथ एनडीए गठबंधन चला रही है। पर भाजपा का पिछले दस वर्षों का ये इतिहास रहा है कि उसने प्रांतों की सरकार बनाने में जिन छोटे दलों का सहयोग लिया, कुछ समय बाद उन्हीं दलों को तोड़ने का काम भी किया। इससे उसकी नीयत पर इन दलों को संदेह बना रहता है। पिछले दो लोक सभा चुनावों में भाजपा अपने बूते पर केंद्र में सरकार बना पाई। पर 2024 के चुनाव परिणामों ने उसे मिलीजुली सरकार बनाने पर मजबूर कर दिया। पर अब फिर वही संकेत मिल रहे हैं कि भाजपा का नेतृत्व, तेलगुदेशम, जदयू व चिराग़ पासवान के दलों में सेंध लगाने की जुगत में हैं। अगर इस खबर में दम है तो ये भाजपा के हित में नहीं होगा। जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच एजेंसियों के तौर-तरीक़ों पर लगाम कसनी शुरू की है, उससे तो यही लगता है कि डरा-धमका कर सहयोग लेने के दिन लद गए। भाजपा को अगर केंद्र में सरकार चलानी है या आगामी चुनावों में भी वो राज्यों की सरकारें बनाना चाहती है तो उसे ईमानदारी से “सबका साथ-सबका विकास” की नीति पर चलना होगा।
हमारे लोकतंत्र का ये दुर्भाग्य है कि जीते हुए सांसद और विधायकों की प्रायः बोली लगाकर उन्हें ख़रीद लिया जाता है। इससे मतदाता ठगा हुआ महसूस करता है और लोकतंत्र की जड़ें भी कमज़ोर होती हैं। 1967 से हरियाणा में हुए दल-बदल के बाद से ‘आयाराम-गयाराम’ का नारा चर्चित हुआ था। अनेक राजनैतिक चिंतकों और समाज सुधारकों ने लगातार इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने की माँग की है। पर कोई भी दल इस पर रोक लगाने को तैयार नहीं है। जबकि होना यह चाहिए कि संविधान में परिवर्तन करके ऐसा क़ानून बनाया जाए कि जब कोई उम्मीदवार, लोक सभा या विधान सभा का चुनाव जीतता है तो उसे उस लोक सभा या विधान सभा के पूरे कार्यकाल तक उसी दल में बने रहना होगा जिसके चुनाव चिन्ह पर वो जीत के आया है। अगर वो दूसरे दल में जाता है तो उसे अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा देना होगा। तभी इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक लगेगी। सभी दलों को अपने हित में इस विधेयक को पारित कराने के लिए एकजुट होना होगा।