जब प्रधानमंत्री ने 22 मार्च को थाली या ताली बजाने का आवाह्न किया, तो मैंने सोशल मीडिया पर अपील जारी की कि ‘‘जिन घरों, मंदिरों, आश्रमों और संस्थाओं के पास शंख है वे 22 मार्च की शाम 5 बजे से, 5 मिनट तक, घर के बाहर आकर लगातार जोर से शंख ध्वनि करें। ऐसा वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शंख ध्वनि करने से वातावरण में उपस्थित नकरात्मक ऊर्जा और बैक्टीरिया का नाश होता है। इसीलिए वैदिक संस्कृति में हर घर में सुबह शाम, पवित्रता के साथ, शंख ध्वनि करने की व्यवस्था हजारों वर्षों से चली आ रही है। जिसका हम, अपने घर में, आज भी पालन करते हैं। अगर देश की कुछ मेडिकल रीसर्च यूनिट्स चाहें तो तय्यारी कर लें। इस प्रस्तावित शंख ध्वनि के पहले और बाद में ये संस्थान अपने क्षेत्र में ‘करोना’ वाइरस पर इस ध्वनि के प्रभाव का अध्ययन भी कर सकते हैं। जिस तरह विश्व समुदाय ने मोदी जी की अपील पर योग दिवस और नमस्ते को अपनाया है वैसे ही इस प्रयोग के सफल होने पर शायद विश्व समुदाय सनातन धर्म की इस दिव्य प्रथा को भी अपना ले। तब हर घर से हर दिन सुबह शाम शंख ध्वनि सुनायी देने लगेगी’’।
आज पूरी दुनिया में हर वक्त हाथ धोने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि वैदिक संस्कृति में ये नियम पहले से है कि जब कभी बाहर से घर पर आऐं, तो हाथ, मुँह और पैर अच्छी तरह धोऐं और अपने कपड़े धुलने डाल दें और घर के दूसरे वस्त्र पहनें। इसी तरह जन्म और मृत्यु के समय सूतक लगने की परंपरा है। जिस परिवार में ऐसा होता है, उसे अपवित्र माना जाता है और अगर बधाई देने या संवेदना प्रकट करने ऐसे घर में जाते हैं, तो उनके घर का पानी तक नहीं पीते और अपने घर आकर स्नान करके कपड़े धुलने डाल देते हैं। ऐसा इसीलिए किया जाता है, कि बाहर के वातावरण और ऐसे घरों में बीमारी के कीटाणुओं की बहुतायत रहती है। जिससे अपने बचाव के लिए यह व्यवस्था बनाई गई।
पश्चिमी देशों में हाथ धोने का कतई रिवाज नहीं है। चाहे वे जूते का फीता खोले या झाड़ू लगायें या बाहर से खरीदकर सामान घर पर लाऐं। वे लोग प्रायः हाथ नहीं धोते। उनके प्रभाव में हमारे देश में भी पढ़े-लिखे लोग इन बातों को दकियानुसी मानते हैं और इनका मजाक उड़ाते हैं। इतना ही नहीं अपनी संस्कृति में किसी का भी झूठा खाना वर्जित माना जाता है। प्रायः घरों में माता-पिता अपने अबोध बालकों का झूठा भले ही खाले लेकिन एक-दूसरे का झूठा कोई नहीं खाता। ठाकुरजी को भोग लगाने के पीछे भी यही विज्ञान है। जब आप ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तो स्वच्छ शरीर से ताजा भोजन पकाते हैं और उसमें औषधीय गुण वाला तुलसी का पत्ता डालकर भोग लगाते हैं। क्योंकि ठाकुरजी दोनों समय भोग लगता है, इसलिए घर में ताजा भोजन बनता है। जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। दूसरी तरफ पश्चिमी सभ्यता में झूठे और बासी का कोई विचार नहीं है। जोकि स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह बाहर के जूते-चप्पल पहनकर घर में घुसना हमारी संस्कृति में वर्जित है और हम इसका पालन करते हैं। जबकि आधुनिक लोग इसका मजाक उड़ाते हैं। बिना ये समझे कि सड़क पर फैले कीटाणुओं और बीमारियों का संग्रह करके लाते हैं, हमारे जूते-चप्पल।
1978 में जब मैं जेएनयू में पढ़ने आया, तो मेरे संस्कार ब्रजवासी संस्कृति के थे। क्योंकि उपरोक्त सभी बातों का हमारे परिवार में तब भी पालन होता था और आज भी हम उसी तरह पालन करते हैं। मुझे यूनिवर्सिटी में ये देखकर बहुत झटका लगा कि कोई भी साथी किसी भी मित्र का झूठा खाना, पानी, कोल्ड्रिंक या चाय बड़े आराम से चख लेते हैं। हमसे आज भी यह नहीं होता।
पिछले हफ्ते खबर छपी कि ‘करोना’ के भय से सुनसान पड़ी इटली के मशहूर शहर ‘वेनिस’ की लहरों में अचानक हजारों मछलियाँ यहाँ तक कि डॉल्फ़िन मस्ती से घूम रही है। नहरों के किनारे बसे इस ऐतिहासिक शहर में सारे साल दुनियाभर के पर्यटक आते हैं। जिनके कारण इन नहरों का पानी गंदला रहता था। आज वेनिसवासी नीला साफ पानी और रंग-बिरंगी मछलियाँ देखकर आल्हादित् हैं।
हजारों की तादात में उड़ने वाले हवाई जहाजों के कारण हर बड़े शहर के आकाश पर काली धुंध छाई रहती थी। मात्र दो हफ्ते में ये धुंध काफी छट गई है और नीला आकाश साफ दिखाई दे रहा है। अचानक सैंकड़ों किस्म के पक्षी शहरों की ओर लौट रहे है। जिनका कलरव सुना जा सकता है।
कुछ लोग सोशल मीडिया पर मजाक में लिख रहे हैं कि ‘करोना’ वाइरस नहीं है, बल्कि वैक्सीन (टीका) है। वायरस तो मानव जाति है, जिसने पृथ्वी के स्वास्थ्य को बीमार कर दिया है। हम जरा अपने गिरेबां में झांके, अंधाधुंध तेल-पैट्रोल का प्रयोग, कारखानों से उगलता धुंआ, नदियों में गिरते नाले, कभी न नष्ट होने वाले पैकेजिंग मैटीरियल के भंडार जो पृथ्वी की सांस घोंट रहे हैं। निर्माण के लिए पहाड़ों की बेर्दद तुड़ाई अैर वृक्षों का अंधाधुंध काटा जाना, खेती में रासायनिक उरर्वकों का अधिक प्रयोग और प्रकृति व मौसम के प्रतिकूल हमारी दिनचर्या इस सबने इस खूबसूरत धरती को बीमार कर दिया है। आज तो केवल ‘करोना’ ने अपना भयावह रूप दिखाया है। अभी ‘ग्लोबल वाॅर्मिंग’ के परिणाम जब सामने आऐंगे, तो दुनिया के हर समुद्र तटीय शहर में हाहाकार मच जाऐगा। भगवान श्रीकृष्ण की द्वारिका की तरह मालद्वीप जैसे देश कहां डूब जाऐंगे, पता भी नहीं चलेगा। साढ़े चार करोड़ वन्य जन्तु औस्ट्रेलिया के जंगलों की आग में जल गऐ। जापान का सुनामी और केदारनाथ की जल प्रलय को हम भूले नहीं है।
इसलिए ‘करोना’ ‘करूणावतार’ बनकर आया है। भगवान कृपा करें और इससे फैलने वाली महामारी पर नियंत्रण पाया जा सके। पर ये समय एकबार फिर अपनी जीवन दृष्टि पर चिंतन करने का है। जितना हम प्रकृति से दूर रहेंगे, उतना ही हमारा जीवन अप्रत्याशित खतरों से घिरा रहेगा। इसलिए ‘जब जागों तभी सवेरा’।