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Monday, July 31, 2023

महिलाऐं वीभत्स हिंसा की शिकार क्यों?


मणिपुर की घटना ने देश विदेश के सभ्य समाज को झँकझोड़ दिया है। दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनसे छेड़छाड़ करते हुए वहशी मर्दों की भीड़ ने जिस तरह उनकी परेड करवायी, उससे इस वीडियो को देखने वाले दहल गये। सामंती व्यवस्थाओं में और मध्य युग में ग़ुलामों महिलाओं के साथ जो व्यवहार होता था ये उसका एक ट्रेलर था। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने भी स्वीकारा कि ऐसी सौ से ज़्यादा घटनाएँ वहाँ पिछले दो महीनों में हुई हैं। राज्य और केंद्र की सरकार मूक दर्शक बनी तमाशा देखती रही।
 



एक तरफ़ देश के मर्दों की ये हरकतें हैं तो दूसरी तरफ़ इस देश के राजनैतिक दल महिलाओं को राजनीति में उनके प्रतिशत के अनुपात में आरक्षण देने को तैयार नहीं हैं। जबकि देश के हर हिस्से में महिलाओं के उपर पाश्विकता की हद तक कामुक तत्वों के हिंसक हमले बढ़ते जा रहे हैं। जब देश की राजदधानी दिल्ली में ही सड़क चलती लड़कियों को दिन-दहाड़े शोहदे उठाकर ले जाते हैं और बलात्कार व हत्या करके फैंक देते हैं, तो देश के दूरस्थ इलाकों में महिलाओं पर क्या बीत रही होगी, इसका अन्दाजा शायद राष्ट्रीय महिला आयोग को भी नहीं है। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राज्यों की मुख्यमंत्री महिलाऐं हैं, उन राज्यों की महिलाऐं भी सुरक्षित नहीं। इसकी क्या वजह है?



महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गुड़गाँव की अमीना शेरवानी का कहना है कि पूरे वैश्विक समाज में शुरू से महिलाओं को सम्पत्ति के रूप में देखा गया। उनका कन्यादान किया गया या मेहर की रकम बांधकर निकाहनामा कर लिया गया। कुछ जनजातिय समाज हैं जहाँ महिलाओं को बराबर या पुरूषों से ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं। माना जाता रहा है कि बचपन में महिला पिता के संरक्षण में रहेगी। विवाह के बाद पति के और वैधव्य के बाद पुत्र के। यानि उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा। यह बात दूसरी है कि आधुनिक महिलाऐं इन सभी मान्यताओं को तोड़ चुकी हैं या तोड़ती जा रही हैं। लेकिन उनकी तादाद पूरी आबादी की तुलना में नगण्य है।


बहुत से लोग मानते हैं कि जिस तरह की अभद्रता, अश्लीलता, कामुकता व हिंसा टी.वी. और सिनेमा के परदे पर दिखायी जा रही है, उससे समाज का तेजी से पतन हो रहा है। आज का युवावर्ग इनसे प्रेरणा लेकर सड़कों पर फिल्मी रोमांस के नुस्खे आजमाता है। जिसमें महिलाओं के साथ कामुक अत्याचार शामिल है। यह बात कुछ हद तक सही है कि दृश्य, श्रृव्य माध्यम का व्यक्ति के मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर ऐसा नहीं है कि जबसे मनोरंजन के यह माध्यम लोकप्रिय हुए हैं, तबसे ही महिलाऐं कामुक हमलों का शिकार होने लगी हों। पूरा मध्ययुगीन इतिहास इस बात का गवाह है कि अनवरत युद्धरत राजे-महाराजाओं और सामंतों ने महिला को लूट में मिले सामान की तरह देखा और भोगा। द्रौपदी के पाँच पति तो अपवाद हैं। जिसके पीछे आध्यात्मिक रहस्य भी छिपा है। पर ऐसे पुरूष तो लाखों हुए हैं, जिन्होंने एक से कहीं ज्यादा पत्नियों और स्त्रीयों को भोगा। युद्ध जीतने के बाद दूसरे राजा की पत्नियों और हरम की महिलाओं को अपने हरम में शामिल करना राजाओं या शहंशाहों के लिए गर्व की बात रही।



नारी मुक्ति के लिए अपने को प्रगतिशील मानने वाले पश्चिमी समाज की भी मानसिकता कुछ भिन्न नहीं। न्यू यॉर्क में रहने वाली मेरी एक महिला पत्रकार मित्र ने कुछ वर्ष पहले दुनिया भर के प्रमुख देशों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर एक शोधपूर्ण रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध के दौरान उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि नारी मुक्ति की घोर वकालत करने वाली यूरोप की महिलाऐं भाषण चाहें जितना दें, पर पति या पुरूष वर्ग के आगे घुटने टेकने में उन्हें कोई संकोच नहीं है। वे शिकायत करती हैं कि उनके पति उन्हें रसोईये, घर साफ करने वाली, बच्चों की आया, कपड़े धोने वाली और बिस्तर पर मनोरंजन देने वाली वस्तु के रूप में समझते और व्यवहार करते हैं। ये कहते हुए वे आँखें भर लाती हैं। पर जब उनसे पूछा गया कि आप इस बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र जीवन क्यों नहीं जीना चाहतीं? तो वे तपाक से उत्तर देती हैं कि हम जैसी भी हैं, सन्तुष्ट हैं, आप हमारे सुखी जीवन में खलल क्यों डालना चाहते हैं? ऐसे विरोधाभासी वक्तव्य से यह लगता है कि पढ़ी-लिखी महिलाऐं भी गुलामी की सदियों पुरानी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायी हैं। मतलब ये माना जा सकता है कि महिलाऐं खुद ही अपने स्वतंत्र और मजबूत अस्तित्व के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। उन्हें हमेशा सहारे और सुरक्षा की जरूरत होती है। तभी तो किसी शराबी, कबाबी और जुआरी पति को भी वे छोड़ना नहीं चाहतीं। चाहें कितना भी दुख क्यों न झेलना पड़े। फिर पुरूष अगर उन्हें उपभोग की वस्तु माने तो क्या सारा दोष पुरूष समाज पर ही डालना उचित होगा?



इस सबसे इतर एक भारत का सनातन सिद्धांत भी है। जो यह याद दिलाता है कि पति की सेवा, बच्चों का भरण-पोषण और शिक्षण इतने महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिन्हें एक महिला से बेहतर कोई नहीं कर सकता। जिस घर की महिला अपने पारिवारिक दायित्वों का कुशलता और खुले ह्रदय से वहन करती है, उसे न तो व्यवसाय करने की आवश्यकता है और न ही कहीं और भटकने की। ऐसी महिलाऐं घर पर रहकर तीन पीढ़ियों की परवरिश करती हैं। सब उनसे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। फिर क्या आवश्यकता है कि कोई महिला देहरी के बाहर पाँव रखे? जब घर के भीतर रहेगी तो अपने बच्चों का भविष्य बेहतर बनायेगी। क्योंकि उन्हें वह सब ज्ञान और अनुभव देगी जो उसने वर्षों के तप के बाद हासिल किया है।


आज जब देश में हर मुद्दे पर बहस छिड़ जाना आम बात हो गयी है। दर्जनों टी.वी. चैनल एक से ही सवाल पर घण्टों बहस करते हैं। तो क्यों न इस सवाल पर भी देश में एक बहस छेड़ी जाए कि महिलाऐं कामुक अपराधिक हिंसा का शिकार हैं या उसका कारण? इस प्रश्न का उत्तर समाधान की दिशा में सहायता करेगा। यह बहस इसलिए भी जरूरी है कि हम एक तरफ दुनिया के तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का दावा करते हैं और दूसरी ओर हमारी महिलाऐं मुध्ययुग से भी ज्यादा वीभत्स अपराधों और हवस का शिकार बन रही हैं।

Monday, September 20, 2021

अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को जो कड़े शब्द कहे वो उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली पर बहुत शर्मनाक टिप्पणी थी। दो साल पहले मैनपुरी में बलात्कार के बाद मार दी गई एक लड़की के मामले में आजतक उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो लापरवाही दिखाई उससे माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय सख़्त नाराज़ हुआ। पुलिस महानिदेशक का यह कहना कि उन्होंने इस केस की एफ़आईआर तक नहीं पढ़ी है, उत्तर प्रदेश सरकार के नम्बर वन होने के दावों पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है।
 



दरअसल छोटी लड़कियों या महिलाओं की स्थित दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया और अफ़्रीका के देशों में बहुत दयनीय है। ताज़ा उदाहरण अफगानिस्तान का ही लें। वहाँ के तालिबान शासकों ने महिलाओं पर जो फ़रमान जार किए हैं वो दिल हिला देने वाले हैं। महिलाएँ आठ साल की उम्र के बाद पढ़ाई नहीं कर सकेंगी। आठ साल तक वे केवल क़ुरान ही पढ़ेंगी। 12 साल से बड़ी सभी लड़कियों और विधवाओं को जबरन तालिबानी लड़ाकों से निकाह करना पड़ेगा। बिना बुर्के या बिना अपने मर्द के साथ घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं को गोली मार दी जाएगी। महिलाएँ कोई नौकरी नहीं करेंगी और शासन में भागीदारी नहीं करेंगी। दूसरे मर्द से रिश्ते बनाने वाली महिलाओं को कोड़ों से पीटा जाएगा। महिलाएँ अपने घर की बालकनी में भी बाहर नहीं झाँकेंगीं। इतने कठोर और अमानवीय क़ानून लागू हो जाने के बावजूद अफगानिस्तान की पढ़ी लिखी और जागरूक महिलाएँ बिना डरे सड़कों पर जगह-जगह प्रदर्शन कर रही हैं।


भारत में भी जब कुछ धर्म के ठेकेदार हिंसात्मक और आक्रामक तरीक़ों से महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं तो वे भी तालिबानी ही नज़र आते हैं। कोई क्या पहने, क्या खाए, किससे प्रेम करे और किससे शादी करे, ये फ़ैसले हर व्यक्ति या हर महिला का निजी मामला होता है। ये अदातें भी कह चुकीं हैं। इसमें दख़ल देना लोकतांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ है। रोचक बात यह है कि जो लोग ये नैतिक शिक्षा देने का दावा करते हैं उनमें से बहुत से लोग या उनके नेता महिलाओं के प्रति कितनी कुत्सित मानसिकता का परिचय देते आये हैं, ये तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है। इनके चरित्र का यह दोहरापन अब जगज़ाहिर हो चुका है। इनके विरुद्ध भारत की पढ़ी लिखी, कामकाजी और जागरूक महिलाएँ भी खुल कर लिखती और बोलती हैं। उन्हें सोशल मीडिया पर अभद्र शब्दों से गलियाने की एक नई ख़तरनाक प्रवृत्ति देश में विकसित हो चुकी है। 


हम दुनिया की महिलाओं को तीन वर्गों में बाँट सकते हैं। पहला वर्ग उन महिलाओं का है जो अपने पारम्परिक सांस्कृतिक परिवेश के अनुरूप जीवन जीती हैं। फिर वो चाहे भारत की महिला हो या अफ़्रीका की। बच्चों का लालन-पालन और परिवार की देखभाल ही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। अपवादों को छोड़ कर ज़्यादातर महिलाएँ अपनी पारम्परिक भूमिका में संतुष्ट रहती हैं । चाहे उन्हें जीवन में कुछ कष्ट भी क्यों न भोगने पड़ें। 


दूसरे वर्ग की महिलाएँ वे हैं जो घर और घर के बाहर, दोनों दुनिया सम्भालती हैं। वे पढ़ी लिखी और कामक़ाज़ी होती हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाढ़ती हैं। फिर वो चाहे प्रशासन हो, सैन्य बल हो, शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया, विज्ञान, व्यापार, प्रबंधन कोई क्षेत्र क्यों न हो वे किसी मामले में पुरुषों से पीछे नहीं रहती। सभ्य समाजों में इनका प्रतिशत क्रमशः लगातार बड़ता जा रहा है। फिर भी पूरे समाज के अनुपात में ये बहुत कम है। महिलाओं का यही वर्ग है जो दुनिया के हर देश में अपनी आवाज़ बुलंद करता है, लेकिन शालीनता की सीमाओं के भीतर रहकर। 


महिलाओं का तीसरा वर्ग, उन महिलाओं का है जो महिला मुक्ति के नाम पर हर मामले में अतिवादी रवैया अपनाती हैं। चाहे वो अपना अंग प्रदर्शन करना हो या मुक्त रूप से काम वासना को पूरा करना हो। ऐसी महिलाओं का प्रतिशत पश्चिमी देशों तक में नगण्य है। विकासशील देशों में तो ये और भी कम है। पर इनका ही उदाहरण देकर समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का ठेका लेने वाले धर्म के ठेकेदार पूरे महिला समाज को कठोर नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं। 


वैसे मानव सभ्यता के आरम्भ से आजतक पुरुषों का रवैया बहुत दक़ियानूसी रहा है। उन्हें हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। उनकी हैसियत समाज में केवल सम्पत्ति के रूप में होती है। उनकी भावनाओं की कोई कद्र नहीं की जाती। अनादिकाल से युद्ध जीतने के बाद विजेता चाहे राजा हो या उसकी सेना, हारे हुए राज्य की महिलाओं पर गिद्धों की तरह टूट पड़ते हैं। बलात्कार और हत्या आम बात है। वरना उन्हें ग़ुलाम बना कर अपने साथ ले जाते हैं और उनका हर तरह से शोषण करते हैं। शायद इसीलिए महिलाओं को अबला कह कर सम्बोधित किया जाता है। 


नेता, प्रशासक और राजनैतिक दल महिलाओं के हक़ पर बोलते समय अपने भाषणों में बड़े उच्च विचार व्यक्त करते हैं। किंतु आए दिन ऐसे नेताओं के विरुद्ध ही महिलाओं के साथ अश्लील या पाशविक व्यवहार करने के समाचार मिलते हैं। हाल के दशकों में दरअसल, पश्चिम से आई उपभोक्ता संस्कृति ने महिलाओं को भोग की वस्तु बनाने का बहुत निकृष्ट कृत्य किया है। ऐसे में समाज के समझदार व जागरूक पुरुषवर्ग को आगे आना चाहिए। महिलाओं को सम्मान देने के साथ ही उन पर होने वाले हमलों का सामूहिक रूप से प्रतिरोध करना चाहिए। संत विनोबा भावे कहते थे कि एक पुरुष सुधरेगा तो केवल स्वयं को सुधारेगा पर अगर एक महिला सुधरेगी तो तीन पीढ़ियों को सुधार देगी। भारत भूमि ने महिलाओं को दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में पूजा है। सृष्टि के रचैया ब्रह्मा जी के पश्चात इस भूतल पर मानव को वितरित करने वाली नारी का स्थान सर्वोपरि है। फिर भी यहाँ हज़ारों महिलाएँ हर रोज़ बलात्कार या हिंसा का शिकार होती हैं और समाज मूक दृष्टा बना देखता रहता है। जब तक हम जागरूक और सक्रिय हो कर महिलाओं का साथ नहीं देंगे, उनकी बुद्धि को कम आंकेंगे, उनका उपहास करेंगे, तो हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे।  

Monday, October 5, 2020

दामिनी के बाद कितनी और मनीषा दरिंदगी का शिकार बनेंगी ?

एक बार फिर भारत शर्मसार है। हाथरस पुलिस की लापरवाही और स्वर्णों की दरिंदगी की दास्तान आज सारे देश की ज़ुबान पर है। इस भयावय त्रासदी के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार देश का वो मीडिया है जो पिछले तीन महीने से सुशांत सिंह राजपूत और बॉलीवुड के ड्रग के मायाजाल से बाहर नहीं निकल पा रहा है। रिया चक्रवर्ती के पास कितने ग्राम ड्रग बरामद हुई, ये ढूँढने वाले खोजी पत्रकार आज डेढ़ साल बाद भी ये नहीं खोज पाए कि पुलवामा में 300 किलोग्राम आरडीएक्स कहाँ से और कैसे पहुँचा? जिसमें देश के 40 जाँबाज़ सिपाहियों के परखच्चे उड़ा दिए गए। क्या उनकी हत्या सुशांत सिंह राजपूत की तथाकथित हत्या से काम महत्वपूर्ण थी? अगर मीडिया ने निर्भया कांड की तरह हाथरस की मनीषा के सवाल को भी उसी तत्परता से उठाया होता तो शायद मनीषा की जान बच सकती थी।


जहां तक बलात्कार की समस्या का प्रश्न है तो कोई पुलिस या प्रशासन बलात्कार रोक नहीं सकता। क्योंकि इतने बड़े मुल्क में किस गांव, खेत, जंगल, कारखाने, मकान या सुनसान जगह बलात्कार होगा, इसका अन्दाजा कोई कैसे लगा सकता है? वैसे भी जब हमारे समाज में परिवारों के भीतर बहू-बेटियों के शारीरिक शोषण के अनेकों समाजशास्त्रीय अध्ययन उपलब्ध हैं, तो यह बात सोचने की है कि कहीं हम दोहरे मापदण्डों से जीवन तो नहीं जी रहे? उस स्थिति में पुरूषों के रवैये में बदलाव का प्रयास करना होगा। जो एक लम्बी व धीमी प्रक्रिया है। समाज में हो रही आर्थिक उथल-पुथल, शहरीकरण, देशी और विदेशी संस्कृति का घालमेल और मीडिया पर आने वाले कमोत्तेजक कार्यक्रमों ने अपसंस्कृति को बढ़ाया है। जहाँ तक पुलिसवालों के खराब व्यवहार का सवाल है, तो उसके भी कारणों को समझना जरूरी है। 1980 से राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट धूल खा रही है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली को सुधारने के व्यापक सुझाव दिए गए थे। पर किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने इस रिपोर्ट को प्रचारित करने और लागू करने के लिए जोर नहीं दिया। नतीजतन हम आज भी 200 साल पुरानी पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं। 


पुलिसवाले किन अमानवीय हालतों में काम करते हैं, इसकी जानकारी आम आदमी को नहीं होती। जिन लोगों को वी.आई.पी. बताकर पुलिसवालों से उनकी सुरक्षा करवायी जाती है, ऐसे वी.आई.पी. अक्सर कितने अनैतिक और भ्रष्ट कार्यों में लिप्त होते हैं, यह देखकर कोई पुलिसवाला कैसे अपना मानसिक संतुलन रख सकता है? समाज में भी प्रायः पैसे वाले कोई अनुकरणीय आचरण नहीं करते। पर पुलिस से सब सत्यवादी हरीशचंद्र होने की अपेक्षा रखते हैं। हममें से कितने लोगों ने पुलिस ट्रेनिंग कॉलेजों में जाकर पुलिस के प्रशिक्षणार्थियों के पाठ्यक्रम का अध्ययन किया है? इन्हें परेड और आपराधिक कानून के अलावा कुछ भी ऐसा नहीं पढ़ाया जाता जिससे ये समाज की सामाजिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को समझ सकें। ऐसे में हर बात के लिए पुलिस को दोष देने वाले नेताओं और मध्यमवर्गीय जागरूक समाज को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। 


इसी तरह बलात्कार की मानसिकता पर दुनियाभर में तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अध्ययन हुए हैं। कोई एक निश्चित फॉर्मूला नहीं है। आठ वर्ष पहले मुम्बई के एक अतिसम्पन्न मारवाड़ी युवा ने 65 वर्ष की महिला से बलात्कार किया तो सारा देश स्तब्ध रह गया। इस अनहोनी घटना पर तमाम सवाल खड़े किए गये। पिता द्वारा पुत्रियों के लगातार बलात्कार के सैंकड़ों मामले रोज देश के सामने आ रहे हैं। अभी दुनिया ऑस्ट्रिया  के गाटफ्राइट नाम के उस गोरे बाप को भूली नहीं है जिसने अपनी ही सबसे बड़ी बेटी को अपने घर के तहखाने में दो दशक तक कैद करके रखा और उससे दर्जन भर बच्चे पैदा किए। इस पूरे परिवार को कभी न तो धूप देखने को मिली और न ही सामान्य जीवन। घर की चार दीवारी में बन्द इस जघन्य काण्ड का खुलासा 2011 में तब हुआ जब गाटफ्राइट की एक बच्ची गंभीर रूप से बीमारी की हालत में अस्पताल लाई गयी। अब ऐसे काण्डों के लिए आप किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? पुलिस को या प्रशासन को ? यह एक मानसिक विकृति है। जिसका समाधान दो-चार लोगों को फाँसी देकर नहीं किया जा सकता। इसी तरह एक प्रमुख अंग्रेजी टीवी चैनल के एंकरपर्सन ने अतिउत्साह में बलात्कारियों को नपुंसक बनाने की मांग रखी। कुछ देशों में यह कानून है। पर इसके घातक परिणाम सामने आए हैं। इस तरह जबरन नपुंसक बना दिया गया पुरूष हिंसक हो जाता है और समाज के लिए खतरा बन जाता है। 


बलात्कार के मामलों में पुलिस तुरत-फुरत कार्यवाही करे और सभी अदालतें हर दिन सुनवाई कर 90 दिन के भीतर सजा सुना दें। सजा ऐसी कड़ी हो कि उसका बलात्कारियों के दिमाग पर वांछित असर पड़े और बाकी समाज भी ऐसा करने से पहले डरे। इसके लिए जरूरी है कि जागरूक नागरिक, केवल महिलाऐं ही नहीं पुरूष भी, सक्रिय पहल करें और सभी राजनैतिक दलों और संसद पर लगातार तब तक दबाव बनाऐ रखें जब तक ऐसे कानून नहीं बन जाते। कानून बनने के बाद भी उनके लागू करवाने में जागरूक नागरिकों को हमेशा सतर्क रहना होगा। वरना कानून बेअसर रहेंगे। अगर ऐसा हो पाता है तो धीरे धीरे बलात्कार की समस्या पर कुछ क़ाबू पाया जा सकता है।


सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हमारे देश की वो महिलाएँ जो राजनीति में सफल हैं, वो भी दामिनी या मनीषा जैसे कांडों पर अपने दल का रुख़ देख कर बयानबाज़ी करती हैं। जिस दल की सत्ता होती है उस दल की नेता, विधायक, सांसद या मंत्री ऐसे दर्दनाक कांडों पर भी चुप्पी साधे रखती हैं। केवल विपक्षी दलों की ही महिला नेता आवाज़ उठाती हैं। ज़ाहिर हैं कि इनमें अपनी ही जमात के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है। महिलाओं के प्रति ऐसी दुर्दांत घटनाओं के बावजूद उनके हक़ में एक जुट हो कर आवाज़ न उठाना और ऐसे समय में अपने राजनैतिक जोड़-घटा लगाना बेहद शर्मनाक है। इसीलिए समाज के हर वर्ग को इस समस्या से निपटने के लिए सक्रिय होना पड़ेगा वरना कोई बहु बेटी सुरक्षित नहीं रह पाएगी।   

Monday, May 15, 2017

उ.प्र. पुलिस की कायापलट

यूं तो बम्बईया फिल्मों में पुलिस को हमेशा से ‘लेट-लतीफ’ और ‘ढीला-ढाला’ ही दिखाया जाता है। आमतौर पर पुलिस की छवि होती भी ऐसी है कि वो घटनास्थल पर फुर्ती से नहीं पहुंचती और बाद में लकीर पीटती रहती है। तब तक अपराधी नौ-दो-ग्यारह हो जाते हैं। पुलिस के मामले में उ.प्र. पुलिस पर ढीलेपन के अलावा जातिवादी होने का भी आरोप लगता रहा है। कभी अल्पसंख्यक आरोप लगाते हैं कि ‘यूपी पुलिस’ साम्प्रदायिक है, कभी बहनजी के राज में आरोप लगता है कि यूपी पुलिस दलित उत्पीड़न के नाम पर अन्य जातियों को परेशान करती है। तो सपा के शासन में आरोप लगता है कि थाने से पुलिस अधीक्षक तक सब जगह यादव भर दिये जाते हैं। यूपी पुलिस का जो भी इतिहास रहा हो, अब उ.प्र. की पुलिस अपनी छवि बदलने को बैचेन है। इसमें सबसे बड़ा परिवर्तन ‘यूपी 100’ योजना शुरू होने से आया है। 

इस योजना के तहत आज उ.प्र. के किसी भी कोने से, कोई भी नागरिक, किसी भी समय अगर 100 नम्बर पर फोन करेगा और अपनी समस्या बतायेगा, तो 3 से 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ की गाड़ी में बैठे पुलिसकर्मी उसकी मदद को पहुंच जायेंगे। फिर वो चाहे किसी महिला से छेड़खानी का मामला हो, चोरी या डकैती हो, घरेलू मारपीट हो, सड़क दुर्घटना हो या अन्य कोई भी ऐसी समस्या, जिसे पुलिस हल कर सकती है। यह सरकारी दावा नहीं बल्कि हकीकत है। आप चाहें तो यूपी में इसे कभी भी 24 घंटे आजमाकर देख सकते हैं। पिछले साल नवम्बर में शुरू हुई, यह सेवा आज पूरी दुनिया और शेष भारत के लिए एक मिसाल बन गई है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि उ.प्र. के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अनिल अग्रवाल ने अपनी लगन से इसे मात्र एक साल में खड़ा करके दिखा दिया। जोकि लगभग एक असंभव घटना है। अनिल अग्रवाल ने जब यह प्रस्ताव शासन के सम्मुख रखा, तो उनके सहकर्मियों ने इसे मजाक समझा। मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत इस योजना को स्वीकार कर लिया और उस पर तेजी से काम करवाया।

आज इस सेवा में 3200 गाडियां है और 26000 पुलिसकर्मी और सूचना प्रौद्योगिकी के सैकड़ों विशेषज्ञ लगे हैं।
 
जैसे ही आप 100 नम्बर पर फोन करते हैं, आपकी काल सीधे लखनऊ मुख्यालय में सुनी जाती है। सुनने वाला पुलिसकर्मी नहीं बल्कि युवा महिलाऐं हैं। जो आपसे आपका नाम, वारदात की जगह और क्या वारदात हो रही है, यह पूछती है। फिर ये भी पूछती है कि आपके आस पास कोई महत्वर्पूण स्थान, मंदिर, मस्ज्जिद या भवन है और आप अपने निकट के थाने से कितना है दूर हैं। इस सब बातचीत में कुछ सेकंेड लगते हैं और आपका सारा डेटा और आपकी आवाज कम्प्यूटर में रिकार्ड हो जाती है। फिर यह रिकार्डिंग एक दूसरे विभाग को सेकेंडों में ट्रांस्फर हा जाती है। जहां बैठे पुलिसकर्मी फौरन ‘यूपी 100’ की उस गाड़ी को भेज देते हैं, जो उस समय आपके निकटस्थ होती है। क्योंकि उनके पास कम्प्यूटर के पर्दें पर हर गाड़ी की मौजूदगी का चित्र हर वक्त सामने आता रहता है। इस तरह केवल 3 मिनट से लेकर 20 मिनट के बीच ‘यूपी 100’ के पुलिकर्मी मौका-ए-वारदात पर पहंच जाते है। 

अब तक का अनुभव यह बताता है कि 80 फीसदी वारदात आपसी झगड़े की होती हैं। जिन्हें पुलिसकर्मी वहीं निपटा देते हैं या फिर उसे निकटस्थ थाने के सुपुर्द कर देते हैं।

ये सेवा इतनी तेजी से लोकप्रिय हो रही है कि अब उ.प्र. के लोग थाना जाने की बजाय सीधे 100 नम्बर पर फोन करते हैं। इसके तीन लाभ हो रहे हैं। एक तो अब कोई थाना ये बहाना नहीं कर सकता कि उसे सूचना नहीं मिली। क्योंकि पुलिस के हाथ में केस पहुंचने से पहले ही मामला लखनऊ मुख्यालय के एक कम्प्यूटर में दर्ज हो जाता है। दूसरा थानों पर काम का दबाव भी इससे बहुत कम हो गया है। तीसरा लाभ ये हुआ कि ‘यूपी 100’ जिला पुलिस अधीक्षक के अधीन न होकर सीधे प्रदेश के पुलिस महानिदेशक के अधीन है। इस तरह पुलिस फोर्स में ही एक दूसरे पर निगाह रखने की दो ईकाई हो गयी। एक जिला स्तर की पुलिस और एक राज्य स्तर की पुलिस। दोनों में से जो गडबड़ करेगा, वो अफसरों की निगाह में आ जायेगा। 

जब से ये सेवा शुरू हुई है, तब से सड़कों पर लूटपाट की घटनाओं में बहुत तेजी से कमी आई है। आठ महीने में ही 323 लोगों को मौके पर फौरन पहुंचकर आत्महत्या करने से रोका गया है। महिलाओं को छेड़ने वाले मजनुओं की भी इससे शामत आ गयी है। क्योंकि कोई भी लडकी 100 नम्बर पर फोन करके ऐसे मजनुओं के खिलाफ मिनटों में पुलिस बुला सकती है। इसके लिए जरूरत इस बात की है कि उ.प्र. का हर नागरिक अपने मोबाइल फोन पर ‘यूपी 100 एप्प’ को डाउनलोड कर ले और जैसे ही कोई समस्या में फंसे, उस एप्प का बटन दबाये और पुलिस आपकी सेवा में हाजिर हो जायेगी। विदेशी सैलानियों के लिए भी ये रामबाण है। जिन्हें अक्सर ये शिकायत रहती थी कि उ.प्र. की पुलिस उनके साथ जिम्मेदारी से व्यवहार नहीं करती है। इस पूरी व्यवस्था को खड़ी करने के लिए उ.प्र. पुलिस और उसके एडीजी अनिल अग्रवाल की जितनी तारीफ की जाए कम है। जरूरत है इस व्यवस्था को अन्य राज्यों में तेजी से अपनाने की।

Monday, December 2, 2013

तरूण तेजपाल कांड का संदेश

तहलका की संवाददाता के आरोपों पर पत्रिका के संस्थापक संपादक तरूण तेजपाल को बलात्कार के आरोप में गोवा की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। क्रांइम ब्रांच की जांच के बाद यह तय होगा कि आरोपों में कितना दम हैं। अगर आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो जाहिरन तरूण तेजपाल को अदालत से सजा मिलेगी।
इसलिए हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं पर यहां एक हादसे ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। जबसे महिला अत्याचार पर जागरूकता आई है और देश का महिला संगठन व मीडिया सक्रिय हुआ है तब से स्त्रियों को लेकर जो भी कानून बन रहे हैं उनसे समस्याओं का हल नहीं निकल रहा। अलबत्ता, शोर खूब मच रहा है। हमारा आशय यह बिलकुल नहीं है कि कानून न बने और महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। पर जिस भारत में नारी की पूजा होती रही हो, जहां नारियां शास्त्रार्थ किए हों, गणराज्य की राजनैतिक सभाओं में बराबरी का योगदान दिया हो और यहां तक कि कई बार देश में शासन भी किया हो, उस देश में नारी को अबला बताकर उसके शोषण की छूट कतई नहीं दी जा सकती। पर अगर कानून ही हर समस्या का हल होते तो अब तब यह समस्याएं समाप्त हो जानी चाहिए थी लेकिन असलियत कुछ और है।
देश में निर्भया कांड के बाद बलात्कार को लेकर जो कानून बना क्या उससे बलात्कार की दर में 1 फीसदी भी कमी आई है ? उत्तर है नहीं। इसी तरह दहेज उत्पीड़न के लिए बने दहेज कानून की भी दशा है। इस कानून के बनने के बावजूद न तो दहेज का मांगना और देना कम हुआ और ना ही दहेज के कारण बहुओं पर होने वाले अत्याचारों पर कोई कमी आई है। ठीक वैसे ही जैसे हम सब जानते हैं कि रिश्वत लेना और देना जुर्म है पर क्या इस कानून के कारण रिश्वत लेने और देने वालों की संख्या घटी है ?
जाहिर है सिर्फ कानून समस्या का हल नहीं हो सकते है। कानून का प्रभाव डराने या चेतावती देने तक सीमित होता है। किसी भी अपराध का कारण जाने बिना उसका समाधान कैसे हो सकता है ? यह तो वह बात हुई कि वायु में भारी प्रदूषण हो, लोग लगातार खांसते रहते हों और कानून बन जाए कि सार्वजनिक स्थलों पर खांसना बना है। कितनी हास्यादपद बात है।
ठीक ऐसे ही महिलाओं के प्रति जो अपराध होते हैं उनकी पृष्ठभूमि में है हमारी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, हमारी सांस्कृतिक विविधता और समाज में महिला सशक्तिकरण का अभाव। इन दृष्टिकोणों से समस्या को सुलझाए बिना आप महिलाओं के प्रति नित्य होने वाले करोडों अपराधों को नहीं रोक सकते, पर वह लंबी प्रक्रिया है। उसके लिए समाज को समर्पित सुधारक चाहिए। सार्थक शिक्षा चाहिए। आर्थिक प्रगति का उचित बटवारा चाहिए। पिछड़े समाजों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहिए। हर परिवार के कम से कम एक सदस्य को समुचित वेतन की रोजगार चाहिए, जिसमें उसका परिवार पल सके। बिना इन सब समाधानों को खोजे हुए केवल कानून अपने आप में कुछ खास नहीं कर सकता।
महिलाओं की रक्षा के लिए हाल के वर्षों में बने कानूनों से उनकी कितनी रक्षा हुई है, इसका तो अभी कोई अध्ययन चर्चा में नहीं आया। पर ऐसे कारण सैकड़ों हैं जब इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ महिलाओं ने अपने निर्दोष पति, उसके मित्र या उसके परिजनों को नाहक थानों और अदालतों में घसीटा हो। असली दुःख पाने वाली महिलाएं तो शायद थानों तक पहुंच भी नहीं पातीं। पर इन कानूनों का सहारा लेकर पुरूष समाज को ब्लैकमेल करने वाली महिलाएं भी अब काफी तेजी से दिखाई देने लगी हैं। ऐसी महिलाएं झूठे मुकद्दमों में फंसा कर बहुत से लोगों का जीवन बर्बाद कर रही हैं पर उनकी रोकथाम की अभी कोई व्यवस्था नहीं हैं। इससे असामाजिक तत्वों का हौसला बढ़ता जा रहा है।
इसलिए देश के कर्णधारों को चाहिए कि वे महिलाओं के पक्ष में बने कानूनों पर पुर्नविचार करें। केवल महिला संगठनों के आंदालनों, मीडिया और संसद के शोर से प्रभावित होकर जो कानून बन गए हैं उनको कसौटी पर परखने की जरूरत है और आवश्यकता अनुसार बदलने की भी जरूरत है।
हम जानते हैं कि ऐसा मुददा छेड़ने पर कुछ महिला संगठन आक्रामक बयानबाजी कर सकते हैं पर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि डंडे के जोर पर समाज नहीं बदला करते हैं। पीढ़ियां लग जाती हैं बदलाव लाने के लिए। बेहतर यह होगा कि वे इन सवालों पर बिना उत्तेजित हुए निष्पक्षता से पुर्नविचार करें। फिर खुद पहल करें और सरकार पर दबाव डाले जिससे इन कानूनों में सुधार हो सके। यह धीमी प्रक्रिया जरूर हैं पर इसके परिणाम दूरगामी और सार्थक होंगे।