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Monday, February 3, 2020

कुण्डों के जीर्णोंद्धार ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ कब तक ?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भारत के पेयजल संकट की गंभीरता को समझा और इसीलिए पिछले वर्ष ‘जलशक्ति अभियान‘ प्रारंभ किया। इसके लिए काफी मोटी रकम आवंटित की और अपने अतिविश्वासपात्र अधिकारियों को इस मुहिम पर तैनात किया है। पर सोचने वाली बात ये है कि जल संकट जैसी गंभीर समस्या को दूर करने के लिए हम स्वयं कितने तत्पर हैं?

दरअसल पर्यावरण के विनाश का सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ता है। जिसके कारण ही पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछले दो दशकों में भारत सरकार ने तीन बार यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। तीनों बार यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आ गऐ।

सरकार ने पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू की थी। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित रही। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व था कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनाएँ। यह आसान काम नहीं है। एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए इसलिए तत्कालीन भारत सरकार की यह योजना विफल रही।

तब सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। हालत ये हो गई है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनमें कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। फिर ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी। पर इसमें भी राज्य सरकारें विफल रही। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनमें जल संचय हुआ। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर जहाँ नौकरी ही जीवन का लक्ष्य है, वहाँ बेगार टाली जाती है। 

पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर सवा लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। सरकार और लोग, दोनों बराबर जिम्मेदार हैं। सरकार की नियत साफ नहीं होती और लोग समस्या का कारण बनते हैं, समाधान नहीं। हम विषम चक्र में फंस चुके हैं। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब बहुत देर हो चुकी होगी।

पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बढ़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा। अन्यथा जापान के सुनामी, आस्ट्रेलिया के जंगलों में भीषण आग, केदारनाथ में बादलों का फटना इस बात के उदाहरण हैं कि हम कभी भी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

उ. प्र. के मथुरा जिले में विरक्त संत श्री रमेश बाबा की प्रेरणा ‘द ब्रज फाउंडेशन’ नाम की स्वयंसेवी संस्था में 2002 से मथुरा जिले के पौराणिक कुण्डों के जीर्णोंद्धार का एक व्यापक अभियान चलाया। जिसके कारण न केवल भूजल स्तर बढ़ा बल्कि यहां विकसित की गई जनसुविधाओं से स्थानीय समुदाय को एक बेहतर जीवन मिला, जो उन्हें आजादी के बाद आज तक नहीं मिल पाया था। इसका प्रमाण गोवर्धन परिक्रमा पर स्थित गाॅव जतीपुरा, आन्योर व मथुरा के जैंत, चैमुंहा, अकबरपुर, चिकसौली, बाद, सुनरख व कोईले अलीपुर आदि हैं। जहां द ब्रज फाउंडेशन ने फलदार बड़े-बडे हजारों वृक्ष लगाये और यह सब कार्य सर्वोच्च न्यायालय के ‘हिंचलाल तिवारी आदेश’ के अनुरूप हुआ। जिसमें मथुरा प्रशासन और अन्य ब्रजवासियों ने सक्रिय सकारात्मक भूमिका निभाई। कुण्डों के जीर्णोंद्धार के मामले में प्रशासन की उपर्लिब्धयां उल्लेखनीय नहीं रही है, ऐसा स्वयं अधिकारी मानते हैं। इस दिशा में ‘पाॅलिसी पैरालिसिस’ को दूर करने के लिए 2009 से द ब्रज फाउंडेशन उ. प्र. सरकार से लिखित अनुरोध करती रही, कि कुण्डों के जीर्णोंद्धार की और इनके रखरखाव की स्पष्ट नीति निधार्रित करे, जिससे जल संचय के अभियान में स्वयंसेवी संस्थाओं की भागीदारी और योगदान बढ़ सके। पर आज तक यह नीति नहीं बनी। ग्रामीण जल संचय के मामले में द ब्रज फाउंडेशन ‘यूनेस्को’ समर्थित 6 राष्ट्रीय अवाॅर्ड जीत चुकी है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी, नीति आयोग के सीईओ श्री अभिताभ कांत, अनेक केंद्रीय मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री व भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी द ब्रज फाउंडेशन के द्वारा विकसित की गई इन परियोजना को देखने के बाद उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। बावजूद इसके कुछ स्वार्थीतत्वों ने द ब्रज फाउंडेशन पर मनगढं़त आरोप लगाकर ‘एनजीटी’ से उस पर दो वर्ष से हमला बोल रखा है। चिंता की बात ये है कि तमाम प्रमाण मौजूद होने के बावजूद एनजीटी तथ्यों से मुंह मोड़कर ऐसे आदेश पारित कर रही है, जिससे पर्यावरण और संस्कृति का तो विनाश हो ही रहा है, आम ब्रजवासी, संतगण और द ब्रज फाउंडेशन की समर्पित स्वयंसेवी टीम भी हतोत्साहित हो रही है और ये सब हो रहा है, तब जबकि मोदी जी ने जल संचयन के अभियान में हर नागरिक और स्वयंसेवी संस्था से आगे आकर सक्रिय योगदान देने का आवाह्न किया है। 

Monday, December 3, 2018

प्रकृति से खिलवाड़ कब रूकेगा?


दिल्ली का दम घुट रहा है। दिल्ली के कारखानों और गाड़ियों का धुंआ पहले ही कम न था, अब हरियाणा से पराली जालाने का धुंआ भी उड़कर दिल्ली आ जाता है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार इस प्रदुषण के कारण दिल्लीवासियों की औसतन आयु 5 वर्ष घट गई है। हल्ला तो बहुत मचता है, पर ठोस कुछ नहीं किया जाता। देश के तमाम दूसरे शहरों में भी प्रदुषण का यही हाल है। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकुलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पेप्सीसाइट, धरती और आकाश पर गाड़ियां और हवाईजहाज और कलकारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं। प्रदुषण के लिए कोई अकेला भारत जिम्मेदार नहीं है। दुनिया के हर देश में प्रकृति से खिलवाड़ हो रहा है। जबकि प्रकृति का संतुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। स्वार्थ के लिए पेड़-पेड़ों की अँधा-धुंध कटाई से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या बढ़ती जा रही है।

पर्यावरण के विनाश से सबसे ज्यादा असर जल की आपूर्ति पर पड़ रहा है। इससे पेयजल का संकट गहराता जा रहा है। पिछली सरकारों ने यह लक्ष्य निर्धारित किया था कि हर घर को पेयजल मिलेगा। लेकिन यह लक्ष्य पूरा न हो सका। इतना ही नहीं, जिन गाँवों को पहले पेयजल की आपूर्ति के मामले में आत्मनिर्भर माना गया था, उनमें से भी काफी बड़ी तादाद में गाँवों फिसलकर ‘पेयजल संकट’ वाली श्रेणी में आते जा रहे हैं। सरकार द्वारा पेयजल आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए ‘राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना’ शुरू गई है। जो कई राज्यों में केवल कागजों में सीमित है। इस योजना के तहत राज्यों के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का दायित्व है कि वे हर गाँवों में जल आपूर्ति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करें। उनकी समिति गठित करें और उन्हें आत्मनिर्भर बनायें। यह आसान काम नहीं है।

एक जिले के अधिकारी के अधीन औसतन 500 से अधिक गाँव रहते हैं। जिनमें विभिन्न जातियों के समूह अपने-अपने खेमों में बंटे हैं। इन विषम परिस्थिति में एक अधिकारी कितने गाँवों को प्रेरित कर सकता है? मुठ्ठीभर भी नहीं। इसलिए सरकार की योजना विफल हो रही है। आज से सैंतीस बरस पहले सरकार ने हैडपम्प लगाने का लक्ष्य रखा था। फिर चैकडैम की योजना शुरू की गयी और पानी की टंकियाँ बनायी गयीं। पर तेजी से गिरते भूजल स्तर ने इन योजनाओं को विफल कर दिया। आज हालत यह है कि अनेक राज्यों के अनेक गाँवों में कुंए सूख गये हैं। कई सौ फुट गहरा बोर करने के बावजूद पानी नहीं मिलता। पोखर और तालाब तो पहले ही उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं। उनके कैचमेंट ऐरिया पर अंधाधुन्ध निर्माण हो गया और उनमें गाँव की गन्दी नालियाँ और कूड़ा डालने का काम खुलेआम किया जाने लगा। अब ‘महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोजगार योजना’ के तहत कुण्डों और पोखरों के दोबारा जीर्णोद्धार की योजना लागू की गयी है। पर अब तक इसमें राज्य सरकारें विफल रही हैं। बहुत कम क्षेत्र है जहाँ नरेगा के अन्र्तगत कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ है और उनमें जल संचय हुआ है। वह भी पीने के योग्य नहीं।

दूसरी तरफ पेयजल की योजना हो या कुण्डों के जीर्णोद्धार की, दोनों ही क्षेत्रों में देश के अनेक हिस्सों में अनेक स्वंयसेवी संस्थाओं ने प्रभावशाली सफलता प्राप्त की है। कारण स्पष्ट है। जहाँ सेवा और त्याग की भावना है, वहाँ सफलता मिलती ही है, चाहे समय भले ही लग जाए। पर्यावरण के विषय में देश में चर्चा और उत्सुकता तो बड़ी है। पर उसका असर हमारे आचरण में दिखायी नहीं देता। शायद अभी हम इसकी भयावहता को समझे नहीं। शायद हमें लगता है कि पर्यावरण के प्रति हमारे दुराचरण से इतने बड़े देश में क्या असर पड़ेगा? इसलिए हम कुंए, कुण्डों और नदियों को जहरीला बनाते हैं। वायु में जहरीला धुंआ छोड़ते हैं। वृक्षों को बेदर्दी से काट डालते हैं। अपने मकान, भवन, सड़कें और प्रतिष्ठान बनाने के लिए पर्वतों को डायनामाईट से तोड़ डालते हैं और अपराधबोध तक पैदा नहीं होता। जब प्रकृति अपना रौद्ररूप दिखाती है, तब हम कुछ समय के लिए विचलित हो जाते हैं। संकट टल जाने के बाद हम फिर वही विनाश शुरू कर देते हैं। हमारे पर्यावरण की रक्षा करने कोई पड़ोसी देश कभी नहीं आयेगा। यह पहल तो हमें ही करनी होगी। हम जहाँ भी, जिस रूप में भी कर सकें, हमें प्रकृति के पंचतत्वों का शोधन करना चाहिए। पर्यावरण को फिर आस्था से जोड़ना चाहिए। तब कहीं यह विनाश रूक पायेगा।

देश की आर्थिक प्रगति के हम कितने ही दावे क्यों न करें, पर्यावरण मंत्रालय पर्यावरण की रक्षा के लिए सतर्क रहने का कितना ही दावा क्यों न करे, पर सच्चाई तो यह है कि जमीन, हवा, वनस्पति जैसे तत्वों की रक्षा तो बाद की बात है, पानी जैसे मूलभूत आवश्यक तत्व को भी हम बचा नहीं पा रहे हैं। दुख की बात तो यह है कि देश में पानी की आपूर्ति की कोई कमी नहीं है, वर्षाकाल में जितना जल इन्द्र देव इस धरती को देते हैं, वह भारत के 125 करोड़ लोगों और अरबों पशु-पक्षियों व वनस्पतियों को तृप्त करने के लिए काफी है। पर अरबों रूपया बड़े बांधों व नहरों पर खर्च करने के बावजूद हम वर्षा के जल का संचयन तक नहीं कर पाते हैं। नतीजतन बाढ़ की त्रासदी तो भोगते ही हैं, वर्षा का मीठा जल नदी-नालों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। हम घर आयी सौगात को संभालकर भी नहीं रख पाते।

पर्वतों पर खनन, वृक्षों का भारी मात्रा में कटान, औद्योगिक प्रतिष्ठानों से होने वाला जहरीला उत्सर्जन और अविवेकपूर्ण तरीके से जल के प्रयोग की हमारी आदत ने हमारे सामने पेयजल यानि ‘जीवनदायिनी शक्ति’ की उपलब्धता का संकट खड़ा कर दिया है।

आजादी के बाद से आज तक हम पेयजल और सेनिटेशन के मद पर एक लाख करोड़ रूपया खर्च कर चुके हैं। बावजूद इसके हम पेयजल की आपूर्ति नहीं कर पा रहे। खेतों में अंधाधुंध रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग भूजल में फ्लोराइड और आर्सेनिक की मात्रा खतरनाक स्तर तक बढ़ा चुका है। जिसका मानवीय स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। सबको सबकुछ मालूम है। पर कोई कुछ ठोस नहीं करता। जिस देश में नदियों, पर्वतों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, सूर्य व चंद्रमा की हजारों साल से पूजा होती आयी हो, वहाँ पर्यावरण का इतना विनाश समझ में न आने वाली बात है। पर्यावरण बचाने के लिए एक देशव्यापी क्रांति की आवश्यकता है। वरना हम अंधे होकर आत्मघाती सुरंग में फिसलते जा रहे हैं। जब जागेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और जापान के सुनामी की तरह हम भी कभी प्रकृति के रौद्र रूप का शिकार हो सकते हैं।

Monday, April 17, 2017

वैदिक मार्गदर्शन से बचेंगे जल प्रलय से

सूर्य नारायण अपने पूरे तेवर दिखा रहे हैं। ये तो आगाज है 10 साल पहले ही जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञों द्वारा चेतावनी दे दी गई थी कि 2035 तक पूरी धरती के जलमग्न हो जायेगी। ये चेतावनी देने वाले दो वैज्ञानिकों को, राजेन्द्र पचैरी व भूतपूर्व अमेरिकन उप. राष्ट्रपति अलगौर को ग्लोबल पुरस्कार से नवाजा गया था। इस विषय पर एक डाक्यूमेंट्री ‘द इन्कवीनियेंट टू्रथ’ को भी जनता के लिए जारी किया गया था। विश्व के 3000 भूगर्भशास्त्रियों ने एक स्वर में ये कहा कि अगर जीवाष्म ईंधन यानि कोयला, डीजल, पेट्रोल का उपभोग कम नहीं किया गया, तो वायुमंडल में कार्बनडाई आक्साइड व ग्रीन हाऊस गैस की वायुमंडल में इतनी मोटी धुंध हो जायेगी कि सूर्य की किरणें उसमें में से प्रवेश करके धरती की सतह पर जमा हो जायेंगी और बाहर नहीं निकल पायेंगी। जिससे धरती का तापमान 2 डिग्री से बढ़कर 15-17 डिग्री तक जा पहुंचेगा। जिसके फलस्वरूप उत्तरी, दक्षिणी ध्रुव और हिमालय की ग्लेशियर की बर्फ पिघलकर समुद्र में जाकर जल स्तर बढ़ा देगी। जिससे विश्व के सारे द्वीप- इंडोनेशिया, जापान, फिलीपींस, फिजी आईलैंड, कैरिबियन आईलैंड आदि जलमग्न हो जायेंगे और समुद्र का पानी ठांठे मारता समुद्र के किनारे बसे हुए शहरों को जलमग्न करके, धरती के भू-भाग तक विनाशलीला करता हुआ आ पहुंचेगा। उदाहरण के तौर पर भारतीय संदर्भ में देखा जाए, तो बंगाल की खाड़ी का पानी विशाखापट्टनम, चेन्नई, कोलकाता जैसे शहरों को डुबोता हुआ दिल्ली तक आ पहुंचेगा।


ठससे घबराकर पूरे विश्व ने ‘सस्टेनेबल ग्रोथ’ नारा देना शुरू किया। मतलब कि हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए, जिससे कि लेने के देने पड़ जाए। पर अब हालात ऐसे हो गये हैं कि चूहों की मीटिंग में बिल्ली के गलें में घंटी बांधने की युक्ति तो सब चूहों ने सुझा दी। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी बांधने के लिए कोई चूहा साहस करके आगे नहीं बढ़ा। अमेरिका जैसा विकसित ‘देश कोयले, पैट्रोल और डीजल का उपभोग कम करने के लिए तैयार नहीं हो सका। उसने सरेआम  ‘क्योटो प्रोटोकोल’ की धज्जियां उड़ा दी। दुनिया की हालत ये हो गई है कि ‘एक तरफ कुंआ, दूसरी तरफ खाई, दोनों ओर मुसीबत आई’। ऐसे मुसीबत के वक्त भारतीय वैदिक वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर ने भूगर्भ वैज्ञानिकों से प्रश्न पूछा कि धरती का तापमान 15 डिग्री सें किस स्रोत से है? तो वैज्ञानिकों ने जबाव दिया कि 15 डिग्री से तापमान का अकेला स्रोत सूर्य की धूप है। तो अथर्ववेद के ब्रह्मचारी सूक्त के मंत्र संख्या 10 और 11 में ब्रह्मा जी ने स्पष्ट लिखा है कि धरती के तापमान के दो स्रोत है- एक ’जीओेथर्मल एनर्जी’ भूतापीय उर्जा और दूसरा सूर्य की धूप। याद रहे कि विश्व में 550 सक्रिय ज्वालामुखियों के मुंह से निकलने वाला 1200 डिग्री सें0 तापमान का लावा और धरती पर फैले हुए 1 लाख से ज्यादा गर्म पानी के चश्मों के मुंह से निकलता हुआ गर्म पानी, भाप और पूरी सूखी धरती से निकलने वाली ‘ग्लोबल हीट फ्लो’ ही धरती के 15 डिग्री सें तापमान में अपना महत्वपूर्णं योगदान देती हैं। कुल मिलाकर सूर्य की धूप के योगदान से थोड़ा सा ज्यादा योगदान, इस भूतापीय उर्जा का भी है। यूं माना जाए कि 8 डिग्री तापमान भूतापीय उर्जा और 7 डिग्री सें तापमान का योगदान सूर्य की धूप का है। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के किसी मैदान में एक वर्ग मि. जगह के अंदर से 85 मिलीवाट ग्लोबल हीट फ्लो निकलकर आकाश में जाती है, जो कि धरती के वायुमंडल को गर्म करने में सहयोग देती है। इस तरह विश्व की एक महत्वपूर्णं बुनियादी मान्यता को वेद के मार्ग दर्शन से गलत सिद्ध किया जा सका।

इस सबका एक समाधान है कि सभी सक्रिय ज्वालामुखियों के मुख के ऊपर ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर 1200 डिग्री तापमान की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए और उसका योगदान वायुमंडल को गर्म करने से रोकने में किया जाए। इसी प्रकार गर्म पानी के चश्मों के मुंह पर भी ‘जीओथर्मल पावर प्लांट’ लगाकर भूतापीय उर्जा को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए। इसके अलावा सभी समुद्री तटों पर और द्वीपों पर पवन चक्कियां लगाकर वायुमंडल की गर्मी को बिजली में परिवर्तित कर दिया जाए, तो इससे ग्लोबल कूलिंग हो जायेगी और धरती जलप्रलय से बच जायेगी।
भारत के हुक्मरानों के लिए यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए कि जब हमारे वेदों में प्रकृति के गहनतम रहस्यों के समाधान निहित हैं, तो हम टैक्नोलोजी के चक्कर में सारी दुनिया में कटोरा लेकर क्यों घूमते रहते हैं? पर्यावरण हो, कृषि हो, जल संसाधन हो, स्वास्थ हो, शिक्षा हो या रोजगार का सवाल हो, जब तक हम अपने गरिमामय अतीत को महत्व नहीं देंगे, तब तक किसी भी समस्या का हल निकलने वाला नहीं है।

Monday, November 7, 2016

जहरीली धुंध का चैंबर बन गया एनसीआर

राष्टीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। केंद्र और दिल्ली सरकार किम कर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। सत्रह साल पहले ऐसी ही हालत दिखी थी।  तब  क्या सोचा गया था? और अब क्या सोचा जाना है? इसकी जरूरत आन पड़ी है।

पर्यावरण विशेषज्ञ और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर पिछले 48 घंटों से सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोचविचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन जब सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश हो रही है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम दो तीन साल से सुनते आ रहे थे। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि पूरा का पूरा यह कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा चारा क्या बचता होगा। इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है? इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।

सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में अचानक 17 साल का रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दसियों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।

इस आपात बैठक के सोच विचार का बड़ा रोचक नतीजा निकला है। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि पांच दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर आड ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल का अनुभव है कि यह कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के ससोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकताा था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।

बहरहाल व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और जहरीलरी धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठाया जा रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी। और आगे भी करती रहेंगी।

वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब खामियां जानने से बचेंगे तो समाधान ढूंढेंगे कैसे?

Monday, September 19, 2016

वाराणसी के घाटों को बचाने की मुहिम

    कभी-कभी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता दिखाने वाले अतिउत्साह में कुछ ऐसे कदम उठा लेते हैं, जिससे लाभ की जगह नुकसान हो जाता है। वाराणसी में गंगा के किनारे दर्जनों ऐतिहासिक घाट हैं, जिन्हें कई सदियों पूर्व देश के विभिन्न अंचलों के राजा-महाराजाओं ने बनवाया था। इन घाटों की शोभा देखते ही बनती है, ये वाराणसी की पहचान हैं। दुनियाभर से पर्यटक 12 महीने वाराणसी आते हैं और इन घाटों को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। दुनिया का कोई देश या नगर ऐसा नहीं, जहां किसी नदी के किनारे इतने भव्य, महलनुमा घाट बने हों। काल के प्रभाव से अब इन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। जिसके लिए एक तो उच्च न्यायालय का स्थगन आदेश और एक ‘कछुआ सेंचुरी’ जिम्मेदार है। 

    प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गंगा के 87 घाट हैं। पिछले कई वर्षों से उच्च न्यायालय के आदेश के तहत इनका जीर्णोद्धार रूका हुआ है। इन ऐतिहासिक घाटों को खरीदकर उन्हें होटल बनाने या उन पर भवन निर्माण करने की होड़ से चिंतित कुछ पर्यावरणविद्ों ने जनहित याचिका के माध्यम से ये रोक लगवाई। किंतु इससे उन घाटों के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है, जिनकी संरचना काफी कमजोर पड़ चुकी है। अगर इनकी मरम्मत नहीं की गई, तो ये चरमराकर गिर सकते हैं। जो धरोहरों की दृष्टि से एक भारी क्षति होगी। जबसे नरेंद्र भाई मोदी ने वाराणसी को अपनाया, तबसे अनेक औद्योगिक घराने, सार्वजनिक उपक्रम व केंद्र सरकार के मंत्रालय वाराणसी को सजाने की मुहिम में जुट गए हैं। इसी क्रम में केंद्रीय सरकार के कुछ मंत्रालयों ने मिलकर उच्च न्यायालय से सीमित जीर्णोद्धार की अनुमति मांगी, जो सशर्त उन्हें मिल गई। अब कुछ घाटों पर जीर्णोद्धार का कार्य चालू है।

    ये वास्तव में चिंता की बात है कि कुछ निजी उद्यमियों ने इनमें से कुछ घाटों को औने-पौने दामों में खरीदकर इन्हें हैरिटेज होटल के रूप में बदलना शुरू कर दिया है। ये होटल मालिक पुरातत्व महत्व के इन भवनों में बदलाव करने से भी नहीं चूकते। होटल की सीवर लाइन चुपचाप गंगा में खोल देते हैं। इससे घाटों पर विपरीत असर पड़ रहा है। पर इसके साथ ही जो दूसरी बड़ी समस्या है, वह है गंगा के उस पार बनाई गई ‘कछुआ सेंचुरी’। कछुओं को अभयदान देने की दृष्टि से गंगा के उस पार बालू के खनन पर लंबे समय से रोक लगी है। इसका उद्देश्य था कि इस क्षेत्र में कछुओं का जीवन सुरक्षित रहे और उनके कुनबे में वृद्धि हो, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गंगा का प्रदूषण हो या कोई अन्य कारण, ‘कछुआ सेंचुरी’ में कछुए दिखाई नहीं देते। बालू का खनन रोकने का नुकसान ये हुआ है कि गंगा के उस पार रेत के पहाड़ बनते जा रहे हैं, क्योंकि गंगा इस इलाके से वक्राकार स्थिति में आगे बढ़ती है। इसलिए उसके जलप्रवाह के साथ निरंतर आने वाली बालू यहां जमा होती जाती है।

    रेत के इन पहाड़ों के कारण उस पार का गंगातल ऊंचा हो गया है। नतीजतन, जल का सारा प्रवाह घाटों की तरफ मुड़ गया है। सब जानते हैं कि जल की ताकत के सामने बड़ी-बड़ी इमारतें भी खड़ी नहीं रह पातीं। जापान और भारत के सुनामी इसके गवाह हैं। वाराणसी में गंगा के इस तरह बहने से बड़े वेग से आने वाला गंगाजल घाटों की नींव को काट रहा है। नतीजतन उनका आधार दरकता जा रहा है। काशीवासियों को चिंता है कि अगर इसका समाधान तुरंत नहीं खोजा गया, तो कभी भी भारी आपदा आ सकती है। केदारनाथ की जलप्रलय की तरह यहां भी गंगा इन ऐतिहासिक घाटों को लील सकती है। इस विषय में पुरातत्वविद्ों और नगर के जागरूक नागरिकों ने अनेक बार सरकार का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है। पर अभी तक कोई सुनवाई नहीं हुई। 

    पिछले 3 महीनों से गंगा में हर साल की तरह भारी बाढ़ आई हुई है। घाटों की सीढ़ियां लगभग 2 महीने से पूरी तरह जलमग्न हैं। यह गंगा का वार्षिक चरित्र है। ऐसे में इन घाटों के लिए खतरा और भी बढ़ जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार साझे रूप में कुछ निर्णय ले। जिनमें पहले तो ‘कछुआ सेंचुरी’ को समाप्त किया जाए और वहां बालू के खनन की अनुमति दी जाए। जिससे जल का दबाव घाटों की तरफ से घटकर गंगा के उस पार चला जाए। दूसरा इन घाटों के संरक्षण के लिए एक सुस्पष्ट नीति घोषित की जाए। जिसके तहत घाटों का मूलरूप सुरक्षित रखते हुए जीर्णोद्धार करने की अनुमति हो, लेकिन इनके व्यवसायिक दुरूपयोग पर पूरी रोक लगा दी जाए। तीसरा हर घाट को किसी औद्योगिक घराने या सार्वजनिक उपक्रम के जिम्मे सौंप दिया जाए, जो इसकी देखरेख करे और वहां जनसुविधाओं का व्यवस्थित संचालन करे। ऐसा करने से इन घाटों की रक्षा भी हो सकेगी और वाराणसी की यह दिव्य धरोहरें आने वाली सदियों में भी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को सुख प्रदान करती रहेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस विषय में कुछ पहल करेगा और काशीवासियों को इस संकट से उबारेगा।


Monday, March 14, 2016

अदालतें निर्णय लटकाती क्यों हैं ?

श्री श्री रविशंकर का विश्व सांस्कृतिक महोत्सव होना था, हो गया। प्रधानमंत्री ने भी आकर आयोजकों की पीठ थपथपाई। सुना है कि दुनियाभर के कलाकारों ने सामूहिक प्रस्तुति देकर इंद्रधनुषीय छटा बिखेरी। पर, इसको लेकर जो विवाद हुआ, उसे टाला जा सकता था। अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को आपत्ति थी, तो जब इस कार्यक्रम के विरोध में जनहित याचिका दायर हुई थी, तभी निर्णय दे देना था। इतने महीने तक इसे लटकाया क्यों गया ? जब आयोजकों का करोड़ों रूपया इसके आयोजन में लग चुका, तब उनकी गर्दन पर तलवार लटकाकर, जो तनाव पैदा किया गया, उससे किसका लाभ हुआ? क्या पर्यावरण संबंधी चिंता का निराकरण हो गया ? क्या श्री श्री रविशंकर को आगे से ऐसा प्रयास न करने का सबक मिल गया ? क्या इससे यह तय हो गया कि भविष्य में अब कभी इस तरह के आयोजन पर्यावरण की उपेक्षा करके कहीं नहीं होंगे ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
दुर्भाग्य की बात है कि इस देश में न्यायपालिका का रवैया अनेक मुद्दों पर विवाद से परे नहीं रहता। जिसका बहुत गलत संदेश लोगों के बीच जाता है। दोनों पक्षों की सुनवाई हो जाने के बाद भी विभिन्न अदालतों में अक्सर सुना जाता है कि माननीय न्यायाधीश ने फैसला सुरक्षित कर दिया। सांप्रदायिक विवाद या ऐसे किसी मुद्दे को लेकर, जहां समाज में दंगा, उपद्रव या हिंसा होने की संभावना हो, फैसले को कुछ समय के लिए टाला जा सकता है, जब तक कि स्थिति सामान्य न हो जाए। पर ज्यादातर मामले जिनमें फैसले लटकाए जाते हैं, उनमें ऐसी कोई स्थिति नहीं होती। मसलन, बड़े औद्योगिक घरानों के विरूद्ध कर वसूली के मामले में सुनवाई होने के बाद फैसला तुरंत क्यों नहीं दिया जाता ?
भारत के मुख्य न्यायाधीश तक सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार कर चुके हैं कि भारत की अदालतों में नीचे से ऊपर तक कुछ न कुछ भ्रष्टाचार व्याप्त है और मौजूदा कानून भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे उच्च न्यायालय व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षम है। केवल एक रास्ता है कि संसद में महाभियोग चलाकर ही ऐसे न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। अक्सर सुनने में आता है कि विभिन्न अदालतों में भ्रष्ट न्यायाधीशों के दलाल काफी खुलेआम सौदे करते पाए जाते हैं। यहां तक कि अदालत के पुस्तकालयों के चपरासी तक ये बता देते हैं कि किस न्यायाधीश से फैसला लेने के लिए कौन-सा वकील करना फायदे में रहेगा। ऐसा सब न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता। पर जिन पर यह आरोप लागू होता है, उनका आजतक क्या बिगड़ा है ? आजादी के बाद भ्रष्टाचार के आरोप में कितने न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग चलाया गया है ? उत्तर होगा नगण्य। ऐसे में फैसले लटकाने की प्रवृत्ति के पीछे अगर कोई निहित स्वार्थ हो, तो क्या इस संभावना को नकारा जा सकता है ? इस तरह के न्यायाधीश अक्सर ऐसे फैसले जिनमें एक पक्ष को भारी आर्थिक लाभ होने वाला हो, अपने सेवाकाल की समाप्ति के अंतिम दो-तीन सप्ताहों में ही करते हैं। यह प्रवृत्ति अपने आपमें संशय पैदा करने वाली होती है।
श्री श्री रविशंकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। विभिन्न देशों व धर्मों की सरकारें उनका स्वागत अभिनंदन करती रही हैं। उनके शिष्यों का भी विस्तार पूरी दुनिया में है। जब ऐसे व्यक्ति को भी अदालत के कारण आखिरी समय तक सांसत में जान डालकर रहना पड़ा हो, तो इस देश के आमआदमी की क्या हालत होती होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। विपक्ष का आरोप है कि श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन के लिए सरकार ने अपनी ताकत का दुरूपयोग किया। फौज, का इस्तेमाल कार्यक्रम की तैयारी के लिए करवाया। जनता के दुख-दर्दों पर ध्यान न देकर सरकार फिजूल खर्ची करवा रही है।
तो विपक्ष से भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि कांग्रेस के शासनकाल में जम्मू कश्मीर के ऊधमपुर जिले में पटनीटाॅप के पहाड़ी क्षेत्र पर धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने योग के नाम पर कैसे विशाल साम्राज्य खड़ा कर लिया था ? जबकि इन सारे भवनों का निर्माण फौज राज्य और वन विभाग के सभी कानूनों का उल्लंघन करके किया गया था। भारी सैन्यबल से सज्जित इस क्षेत्र में धीरेंद्र ब्रह्मचारी ने हवाई अड्डे से लेकर पांच सितारा होटल और प्रतिबंधित वन क्षेत्र में लंबी-लंबी सड़कें तक कैसे बनवाईं, किसी ने कोई सवाल क्यों नहीं किया ? प्रधानमंत्री राजीव गांधी व सोनिया गांधी ने इस अवैध निर्माण का आतिथ्य लेने में क्यों संकोच नहीं किया ? इसी तरह राजीव गांधी के समय में उत्सवों की एक बड़ी श्रृंखला देश-विदेशों में चली, जिसमें उनके मित्र राजीव सेठी जैसे लोगों ने खूब चांदी काटी। तब किसी ने यह प्रश्न नहीं किया कि इन उत्सवों से आमआदमी को क्या लाभ मिल रहा है ? दरअसल हर दौर में ऐसा होता आया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसमें नया क्या है ?
इसलिए किसी ऐसे विवाद को लेकर चाहे अदालत की भूमिका हो या विपक्ष की, विरोध अगर सैद्धांतिक होगा और व्यापक जनहित में होगा, तो उसका हर कोई सम्मान करेगा। पर अगर विरोध के पीछे राजनैतिक या कोई अन्य स्वार्थ छिपे हों, तो वह केवल अखबार की सुर्खियों तक सीमित रहेगा, उससे कोई स्थाई परिवर्तन या सुधार कभी नहीं होगा।

Monday, December 7, 2015

भयावह होता जल संकट

चेन्नई अतिवृष्टि से जूझ रहा है और हरियाणा के एक बड़े क्षेत्र में भूजल स्तर दो हजार फीट से भी नीचे चला गया है। भारत का अन्नदाता कहे जाने वाला पंजाब भी जल संकट से अछूता नहीं रहा। यहां भी भूजल स्तर 6-700 फीट नीचे जा चुका है। यह तो हम जानते ही है कि देश में 80 फीसदी बीमारियां पेयजल के प्रदूषित होने के कारण हो रही हैं। फिर भी हमारे नीति निर्धारकों को अक्ल नहीं आ रही।
 
अरबों-खरबों रूपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। उसके बावजूद हालत ये है कि भारत के सर्वाधिक वर्षा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है।
 
दरअसल, ये सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीकि अपनाने के कारण हुआ है। वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे। हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है। जिसमें वर्षा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानि 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए कि आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है। जिसके अनेकों नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है। इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है। लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बनकर खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ इस बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेजी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था। आज सैकड़ों-हजारों फीट नीचे पानी चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रूपए का बिकेगा। क्योंकि रोका न गया, तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेजी से गिरता चला जाएगा।
 
आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ ये दावा करते हैं कि केंद्रीयकृत टंकियों से पाइपों के जरिये भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है। पर यह दावा अपने आपमें जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं। जबकि वर्षा का जल जब कुंडों, कुंओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो वह सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। साथ ही इन सबके भर जाने से भूजल स्तर ऊंचा बना रहता था। जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्चकोटि के पैदा होते थे। पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पाश्विक दोहन ने यह सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दी। पोखर और कुंड सूख गए, क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए है। वृक्ष काट दिए गए। जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक व रासायनिक कचरा व सीवर लाइन का गंदा पानी बिना रोकटोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है। जिससे ये नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जलसंकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा जल से भरा है। पर इसका 97.3 फीसदी जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसदी है। जिसमें से केवल 22.5 फीसदी जमीन पर है, शेष धु्रवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसदी खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानि दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसदी मीठे जल का भी केवल एक फीसदी हमारे लिए उपलब्ध है और उसका भी संचय और प्रबंधन अक्ल से न करके हम उसका भारी दोहन, दुरूपयोग कर रहे हैं और उसे प्रदूषित कर रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय और संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास माॅडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा। वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
 
जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देखकर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी के संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षों में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।

Monday, March 23, 2015

कैसे आए नदियों में साफ जल

    पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।

    यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।

    यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।

शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।

सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।

Monday, June 23, 2014

उतावलेपन से नहीं शुद्ध होंगी गंगा-यमुना

    पर्यावरणप्रेमियों व धर्मावलम्बियों के लिए सुखद अनुभूति है कि 30 वर्ष बाद देश के प्रधानमंत्री ने मां गंगा की सेवा का संकल्प लिया है। 30 वर्ष पहले राजीव गांधी ने भी यही प्रयास किया था। अरबों रूपये खर्च होने के बाद भी गंगा में गिरने वाला प्रदूषण रोका नहीं जा सका। पर यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि नदियों को बचाने की मुहिम में अभी जो सारा ध्यान गंगा पर है, उससे समस्या का हल नहीं निकलेगा। क्योंकि गंगा अपनी सहायक नदियों से ही गंगा है। गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी है यमुना।
    यमुना का भी पौराणिक महात्म्य है। गंगा भगवान के श्रीचरणों से निकली है और भोले शंकर की जटाओं में समा गई। जबकि यमुना यमराज की बहिन है। इसलिए यम के फंदे से बचाती है। भगवान कृष्ण की पटरानी हैं, इसलिए भक्तों की भक्ति बढ़ाती है। ब्रज के देवालयों में अभिषेक के लिए और गुजरात के वल्लभ कुल भक्तों के लिए तो यमुना का महत्व गंगा से भी ज्यादा है। अगर उपयोगिता के लिहाज से देखें तो यमुना का आर्थिक महत्व भी उतना ही है, जितना गंगा का।
    पिछले दो दशकों में गंगा की देखरेख की बात तो हुई, लेकिन कर कोई कुछ खास नहीं पाया। यह बात अलग है कि इतना बड़ा अभियान शुरू करने से पहले जिस तरह के सोच-विचार और शोध की जरूरत पड़ती है, उसे तो कभी किया ही नहीं जा सका। विज्ञान और टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जितनी ज्यादा चर्चा होती रही, उसे ऐसे काम में बड़ी आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता था। जबकि जो कुछ भी हुआ, वो ऊपरी तौर पर और फौरीतौर पर हुआ। नारेबाजी ज्यादा हुई और काम कम हुआ।
    इससे यह पता चलता है कि देश की धमनियां मानी जाने वाली गंगा-यमुना जैसे जीवनदायक संसाधनों की हम किस हद तक उपेक्षा कर रहे हैं। इससे हमारे नजरिये का भी पता चलता है। आज यह बात करना इसलिए जरूरी है कि गंगा शुद्धि अभियान की केंद्रीय मंत्री उमा भारती हों, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या गंगा-यमुना के तटों पर बसे भक्त, संत व आम लोग हों। सब इस परियोजना को लेकर न केवल उत्साहित हैं, बल्कि गंभीर भी हैं। इसलिए चेतावनी के बिंदु रेखांकित करना और भी जरूरी हो जाता है।
    यहां यह दर्ज कराना महत्वपूर्ण होगा कि यमुना का पुनरोद्धार करने का मतलब ही होगा लगभग गंगा का पुनरोद्धार करना। क्योंकि अंततोगत्वाः प्रयाग पहुंचकर यमुना का जल गंगा में ही तो गिरने वाला है। इसलिए अगर हम अपना लक्ष्य ऐसा बनाए, जो सुसाध्य हो, तो बड़ी आसनी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यमुना शुद्धीकरण को ही गंगा शुद्धि अभियान का प्रस्थान बिंदु माना जाए। यहां से होने वाली शुरूआत देश के जल संसाधनों के पुनर्नियोजन में बड़ी भूमिका निभा सकती है। अब देश के सामने समस्या यह है कि एक हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी यमुना के शुद्धीकरण के लिए कोई व्यवस्थित योजना हमारे सामने नहीं है। यह बात अलग है कि नई सरकार के ऊपर इस मामले में जल्दी से जल्दी सफलता हासिल करने का जो दवाब है, वो भी सरकारी अमले को उतावला करने को मजबूर कर देता है। जबकि ऐसा उतावलापन कभी भी लाभ नहीं देता। उल्टा संसाधनों की बर्बादी और हताशा को जन्म देता है। मतलब साफ है कि यमुना के लिए हमें गंभीरता से सोच विचार के बाद एक विश्वसनीय योजना चाहिए। ऐसी योजना बनाने के लिए मंत्रालयों के अधिकारियों को गंगा और यमुना को प्रदूषित करने वाले कारणों और उनके निदान के अनुभवजन्य समाधानों का ज्ञान होना चाहिए। ज्ञान की छोड़ो कम से कम तथ्यों की जानकारी तो होनी चाहिए। हैरत की बात है कि यमुना के जल अधिकरण क्षेत्र को ही हम विवाद में डाले हुए हैं। हरियाणा कुछ कह रहा है, उत्तर प्रदेश कुछ कह रहा है और अपनी जीवनरक्षक जरूरतों के दवाब में आकर दिल्ली कुछ और दावा करता है। उधर राजस्थान और हिमाचल भले ही आज इस लड़ाई में शामिल न हों, पर आने वाले वक्त में वे भी यमुना के जल को लेकर लड़ाई में कूदेंगे। तब उनका दवाब अलग से पड़ने वाला है। कुल मिलाकर यमुना के सवाल को लेकर विवादों का ढ़ेर खड़ा है। यह भारत सरकार के लिए आज तक बड़ी चुनौती है। समस्या जटिल तो है ही लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर दे दें। अगर यह दावा किया जा रहा है कि आज हमारे पास संसाधनों का इतना टोटा नहीं है कि हम अपने न्यूनतम कार्यक्रम के लिए संसाधनों का प्रबंध न कर सकें, तो यमुना के पुनरोद्धार के लिए किसी भी अड़चन का बहाना नहीं बनाया जा सकता।
अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण यमुना की एक विशेषता यह है कि उसे हम कई स्वतंत्र भागों में भी बांट सकते हैं। मसलन, अपने उद्गमस्थल से लेकर ताजेवाला, ताजेवाला से लेकर ओखला और ओखला से लेकर मथुरा। फिर मथुरा के बाद कुछ ही दूर चंबल के इसमें गिरने के बाद यमुना की समस्याएं उतनी नहीं दिखतीं, फिर भी मथुरा से लेकर इलाहबाद तक हम एक भाग और मान सकते हैं। यहां पर अगर हमें यमुना शुद्धीकरण के लिए चरणबद्ध तरीके से कुछ करना हो, तो असली समस्या ओखला से लेकर मथुरा तक की दिखती है। इसी भाग में मारामारी है, प्रदूषण है और यमुना के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा है।
इसलिए 400 किलोमीटर के इस खंड में अगर पिछले अनुभवों का इस्तेमाल करते हुए कोई योजना बनायी जाए, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि यमुना के पुनरोद्धार का कार्य तो होगा ही हम गंगा की सहायक नदी के माध्यम से गंगा का भी पुनरोद्धार कर रहे होंगे। इससे भी बड़ी बात यह होगी कि यमुना के माध्यम से देश के जल संसाधनों के प्रबंध के लिए हम एक मॉडल भी तैयार कर रहे होंगे।

Monday, March 4, 2013

यूं नहीं आयेगा यमुना में जल

पिछले डेढ़ वर्ष से ब्रज में यमुना में यमुना जल लाने की एक मुहिम उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में चलायी जा रही है। यमुना रक्षक दल नाम से बना संगठन इस मुहिम को भारतीय किसान यूनियन के एक टूटे हुए हिस्से के सहयोग से चला रहा है। इनकी मांग है कि यमुना में यमुना जल लाया जाये। जिसके लिए ये दिल्ली के हथिनी कुण्ड बैराज को हटाकर यमुना की अविरल धारा बहाने की मांग कर रहे हैं। यह मांग कानूनी और भावनात्मक दोनों ही रूप में उचित है कि यमुना में यमुना जल बहे। जबकि आज उसमें दिल्ली वालों का सीवर और प्रदूषित जल ही बह रहा है। मथुरा के हजारों देवालयों में श्रीविग्रह के अभिषेक के लिए हर प्रातः यही जल भरकर ले जाया जाता है। जिससे भक्तों और संतों को भारी पीड़ा होती है। यमुना स्नान करने वाले भी जल के प्रदूषित होने के कारण अनेक रोगों के शिकार हो जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यमुना का जल उसकी सहनशीलता से एक करोड़ गुना अधिक प्रदूषित है। यमुना एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। वैसे भी देवी भागवत नाम के पौराणिक ग्रंथ में यह उल्लेख मिलता है कि कलियुग में गंगा और यमुना दोनों अदृश्य हो जायेंगी। इसलिए पूरा ब्रज क्षेत्र इस मांग का भावना से समर्थन करता है। पर प्रश्न यह है कि क्या हथिनी कुण्ड बांध को हटाये जाने की मांग ही यमुना के जीर्णोद्धार का मात्र और सही विकल्प है?

 
हमने इसी कॉलम में कई वर्ष पहले उल्लेख किया था कि यमुना को पुनः जागृत करने के लिए अनेक कदम उठाने होंगे। हथिनी कुण्ड से जल प्रवाहित करना एक भावुक मांग अवश्य हो सकती है, पर यह इस समस्या का समाधान कदापि नहीं। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? दिल्ली तक पैदल मार्च करना ठीक उसी तरह है कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकॉल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?
 
ब्रज यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।
 
दूसरी तरफ गंगोत्री के बाद विकास के नाम पर हिमालय का जिस तरह नृशंस विनाश हुआ है, जिस तरह वृक्षों को काटकर पर्वतों को नंगा किया गया है, जिस तरह डाइनामाइट लगाकर पर्वतों को तोड़ा गया है और बड़े-बड़े निर्माण किये गये हैं, उससे यमुना का जल संग्रहण क्षेत्र लगातार संकुचित होता गया। इसलिए स्रोत से ही यमुना जल की भारी कमी हो चुकी है। यमुना में जल की मांग करने से पहले हमें हिमालय को फिर से हराभरा बनाना होगा। दूसरी तरफ मैदान में आते ही यमुना कई राज्यों के शहरीकरण की चपेट में आ जाती है। जो इसके जल को बेदर्दी से प्रयोग ही नहीं करते, बल्कि भारी कू्ररता से इसमें पूरे नगर का रासायनिक व सीवर जल प्रवाहित करते हैं। इस सबके बावजूद यमुना इन राज्यों को इनके नैतिक और कानूनी अधिकार से अधिक जल प्रदान कर उन्हें जीवनदान कर रही है। पर दिल्ली तक आते-आते उसकी कमर टूट जाती है। यमुना में प्रदूषण का सत्तर फीसदी प्रदूषण केवल दिल्ली वासियों की देन है। जब तक यमुना जल के प्रयोग में कंजूसी नहीं बरती जायेगी और जब तक उसमें गिरने वाली गन्दगी को रोका नहीं जायेगा, तब तक यमुना में जल प्रवाहित नहीं होगा। हथिनी कुण्ड बैराज खोल दिया जाये या तोड़ दिया जाये, दोनों ही स्थितियों में यमुना में यमुना जल निरंतर बहने वाला नहीं है। यह एक भावातिरेक में उठाया गया मूर्खतापूर्ण कदम होगा। यमुना रक्षक दल के इस आव्हान से भावनात्मक रूप से जुड़ने वाले ब्रज के संतों और ब्रजवासियों को भी इस बात का अहसास है कि इस आन्दोलन ने मुद्दा तो सही उठाया पर समस्या का समाधान देने की इसके नेतृत्व के पास क्षमता नहीं है। इसलिए लोगों को यह आशंका है कि इतनी ऊर्जा और धन इस यमुना आन्दोलन में झौंकने के बाद चंद लोगों की राजनैतिक महत्वाकांक्षा भले ही पूरी हो जाये पर कोई सार्थक हल नहीं निकलेगा। ईश्वर करे कि उनकी यह आशंका निमूल साबित हो और यमुना में यमुना जल बहे। बाकी समय बतायेगा। 

Tuesday, March 22, 2011

ऐसे साफ़ नहीं होगी यमुना

Amar Ujala 22March11
यमुना शुद्धि की माँग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाऐं प्रबल होती जा रही हैं। इसमें महत्वपूर्ण भूमिका मीडिया ने निभायी है। जिसने यमुना शुद्धि का माहौल बनाना शुरू कर दिया है। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र इतने से हम यमुना शुद्ध कर पायेंगे? इस पर गहरायी से सोचने की जरूरत है। अखबार में फोटो छपवाने या टी.वी. पर बयान देने के लिए यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की एक लम्बी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं जिनके पास यमुना की गन्दगी के कारणों का सम्पूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और साॅलिड वेस्ट के आकार, प्रकार, सृजन व उत्सृजन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की यह गन्दगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है तो इन शहरों में उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढाँचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं? हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गन्दे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें तो यह केवल नाटक बनकर रह जायेगा। ठीक उसी तरह जिस तरह कि यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले पर उन्हीं के आश्रम में भण्डारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्माकाॅल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। रोकने के लिए जरूरी होगा मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े धोकर और डिटर्जेंट से बर्तन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या में और अपनी जीवनशैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?

राधारानी ब्रज 84 कोस यात्रा के दौरान हमने अनेक बार यमुना को पैदल पार किया है और यह देखकर कलेजा मुँह को आ गया कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पाॅलीथिन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बाॅक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाला हर आदमी कर रहा है। जितना बड़ा आदमी या जितना बड़ा आश्रम या जितना बड़ा गैस्ट हाउस या जितना बड़ा कारखाना, उतना ही यमुना में ज्यादा उत्सर्जन।

नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मण्डल के सदस्यों से बात की और जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किये जाने योग्य एक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आई.आई.टी.यों को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो अब इसकी डी.पी.आर. तैयार करेगा और फिर उस डी.पी.आर. को लेकर हम भारत सरकार के मंत्रालय के पास जायेंगे और दबाब डालकर उसको लागू करवायेंगे। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद और शेखचिल्ली वाली है। भारत सरकार के मंत्रालय गत् 63 वर्षों से ऐसी समस्याओं के हल के लिए अरबों रूपया वेतन में ले चुके हैं और खरबों रूपया जमीन पर खर्च कर चुके हैं। फिर वो चाहे शहरों का प्रबन्धन हो या नदियों का। नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता से एक करोड़गुना ज्यादा प्रदूषित होकर एक मृत नदी घोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माँ सदृश्य है, पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है। इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पायेगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैंकड़ों करोड़ रूपया खर्च किया ही था, पर नतीजा रहा वही ढाक के तीन पात।

इसलिए यमुना शुद्धि की पहल तो लोगों को करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में ब्राह्मण बुद्धि वाले कुछ लोग साथ बैठकर अपने शहर की गन्दगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किये जाने योग्य माॅडल विकसित करें। उसी शहर के क्षत्रिय बुद्धि वाले लोग युवाशक्ति को जोड़कर इस माॅडल को लागू करने में अपने बाहुबल का प्रयोग करें। वैश्य वृत्ति के लोग इस माॅडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनान्दोलन के माध्यम से चेतना फैलाने का काम करें।

भगवान ने जो चारों वर्णों की सृष्टि की, वो जन्म आधारित नहीं, कर्म आधारित है। इसलिए यमुना शुद्धि के लिए भी चारों वर्णों का सहयोग अपेक्षित है। कोई किसी से कम नहीं। चाहे वह शूद्र स्तर का कार्य ही क्यों न हो। पर साथ ही हमें यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यमुना को लेकर जो प्रयास अभी किये जा रहे हैं, वह ब्राह्मण स्तर के नहीं। इसलिए इनके सफल होने में संदेह है।

दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गये। जहाँ बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी। तो मैंने चैंककर पूछा कि क्या यहाँ कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल से बहती नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा- अरे ये तो आपकी यमुना जी हैं। यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले का था। यानि दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गन्दे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गन्दगी केवल दिल्ली वालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति का आन्दोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मज़बूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन ढर्रा बदलें तथा अपनी गन्दगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें। रोज़ाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृन्दावन आते हैं। यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और पर्चे लेकर खड़े रहें और इनसे सवाल पूछें कि तुम बाँकेबिहारी का आशीर्वाद लेने तो आये हो पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से दिल्ली में हर काॅलोनी तक सन्देश जायेगा और एक फिज़ा बनेगी। ठाकुरजी ने चाहा, संत सही दिशा में लोगों को जीवन ढर्रा बदलने के लिए पे्ररित कर सके तो जनभावनाओं का सैलाब यमुना को शुद्ध करा लेगा। वरना यह एक और शिगूफा बनकर रह जायेगा।