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Monday, March 20, 2017

योगी बदलेंगे यूपी का चेहरा

जैसे ही योगी आदित्यनाथ जी के नाम की घोषणा हुई, टीवी चैनलों पर बैठे कुछ टिप्प्णीकाओं ने इस समाचार पर असंतोष जताया। उनका कहना था कि योगी समाज में विघटन की राजनीति करेंगे और प्रधानमंत्री मोदी के विकास के एजेंडा को दरकिनार कर देंगे। यह सोच सरासर गलत है। विकास का ऐंजेंडा हो या कुशल प्रशासन, उसकी पहली शर्त है कि राजनेता चरित्रवान होना चाहिए। आजकल राजनीति में सबसे बड़ा संकंट चरित्र का हो गया है। चरित्रवान राजनेता ढू़ढ़े से नहीं मिलते। 21 वर्ष की अल्पायु में समाज और धर्म के लिए घर त्यागने वाला कोई युवा कुछ मजबूत इरादे लेकर ही निकलता है। योगी आदित्यनाथ ने अपने शुद्ध सात्विक आचरण और नैष्टिक ब्रह्मचर्य से अपने चरित्रवान होने का समुचित प्रमाण दे दिया है। पांच बार लोकसभा जीतकर उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता को भी स्थापित कर दिया है। गोरखनाथ पंथ की इस गद्दी का इतिहास रहा है कि इस पर बैठने वाले संत चरित्रवान, निष्ठावान और देशभक्त रहें हैं। इतनी बड़ी गद्दी के महंत होकर भी योगी जी पर कभी कोई आरोप नहीं लगे।

आज राजीनिति की दूसरी समस्या है बढ़ता परिवारवाद। कोई दल इससे अछूता नहीं है। दावे कोई कितने ही कर ले, पर हर दल का नेता अपने परिवार को बढ़ाने में ही लगा रहता है और जनता की उपेक्षा कर देता है। प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी जैसे विरले ही होते हैं, जो राजनीति के सर्वाेच्च स्तर पर पहुंच कर भी परिवार के लिए कुछ नहीं करते। क्योंकि वे परिवार को पहले ही बहुत पीछे छोड़ आये हैं। उनके लिए समाज, राष्ट्र और धर्म यही प्राथमिकता होती है। उ.प्र को दशाब्दियों बाद एक ऐसा नेतृत्व मिला है, जो चरित्रवान है, विचारवान है, आस्थावान है और जिसके परिवारवाद में फंसने की कोई गुंजाइश नही है। इसलिए ये कहना कि योगी जी के आने से विकास का ऐजेंडा पीछे चला जायेगा, सरासर गलत है।
ये सही है कि उ.प्र. के प्रशासन में चाहे वो पुलिस हो, सामान्य प्रशासन हो या न्यायपालिका तीनों में ही भारी भ्रष्टावार व्याप्त है। बिना आमूल-चूल परिवर्तन किये हालात बदलने वाले नहीं है। यही सबसे बड़ी चुनौती है, योगीजी के समने। उन्हें  औपनिवेशिक मानसिकता वाली प्रशासनिक व्यवस्था को तोड़ना होगा और राजऋषी की भूमिका में आना होगा। चाणक्य पंडित ने कहा है कि जिस देश के राजा महलों में रहते हैं, उनकी प्रजा झोपड़ियों में रहती है और जिसके राजा झोंपड़ियों में रहते है उसकी प्रजा महलों में रहती है। योगी जी ने पहले ही इसके संकेत दिये है कि वे स्वयं और अपने मंत्री मंडल को राजा की तरह नहीं बल्कि प्रजा के सेवक के रूप में देखना चाहेंगे। जहां तक सवाल है प्रशासनिक व्यवस्था को बदलने का उसके लिए कड़े इरादे की जरूरत होती है। योगी जी का इतिहास रहा है कि ‘प्राण जाये पर वचन न जाई’ वे अपने वचन पर अटल रहते हैं। जो ठान लिया सो करके रहेंगे। फिर न तो उन्हें बिकाऊ मीडिया की परवाह होती है और न ही छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों की।

रही बात अल्पसंख्यको की तो ये शब्द ही विघटनकारी है। जब संविधान में सबको समान हक मिला हुआ है, तो कौन बहुसंख्यक और कौन अल्पसंख्यक! उन्हें ऐसे निर्णय लेने होंगे, जिनसे समाज में समरसता आये और ये अल्पसंख्यकवाद की नौटंकी बंद हो। जो बहुसंख्यक मुसलमान अपने कारोबार में जुटे हैं, उन्हें इससे कोई फर्क नही पड़ेगा। क्योंकि वे तो पहले से ही राष्ट्र की मुख्यधारा में हैं। लेकिन जो मुसलमान आतंकवाद की टोपी पहनकर गऊ हत्या, देह व्यापार, तस्करी और नशीली दवाओं के व्यापार में लिप्त हैं, उनकी नकेल जरूर कसी जायेगी। अब उनके लिए बेहतर यही होगा कि वे उ.प्र. छोड़कर भाग जायें।

उ.प्र. को संतुलित और सही विकास की जरूरत है। इसके लिए गहरी समझ, गंभीर सोच, क्रंतिकारी विचारों और ठोस नेतृत्व की आवश्यक्ता है। आवश्यक नहीं की राजा सर्वगुण संपन्न हो। उसकी योग्यता तो इस बात में हैं कि वह एक जौहरी की तरह हो, गुणग्राही हो और उस मेधा को पहचानने की क्षमता रखता हो, जिनसे वह वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति करवा सके। योगी जी ने अगर ऐसा रास्ता पकड़ा और सही लोगों को अपनी टीम में शामिल करके उ.प्र के विकास का मार्ग तैयार किया, तो निःसंदेह प्रधानमंत्री मोदी के विकास के ऐंजंडा को बहुत आगे ले जायेंगे। 

उ.प्र. कीे समस्याओं की सूची बहुत लंबी है। जिन्हें एक लेख में समाहित नहीं किया जा सकता। आने वाले सप्ताहों में हम इन मुद्दों पर अपने अनुभव और समझ के अनुसार प्रकाश डालेंगें और उम्मीद करेंगे कि हमारी बात योगीजी तक पहुंचे। 

लगे हाथ पंजाब की भी चर्चा कर लेनी चाहिए। अकाली दल के वंशवाद से त्रस्त होकर पंजाब की जनता ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को गद्दी सौंप दी और राजनीति के बहरूपिया अरविंद केजरीवाल को रिजेक्ट कर दिया। इस काॅलम में हम पिछले पांच वर्ष से बराबर लिखते आये हैं कि अरविंद केजरीवाल की राजीनीति केवल आत्मकेंद्रित है। ‘हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और’ पर इसका मतलब ये नहीं कि कैप्टन साहब को मनमानी हुकुमत चलाने का पट्टा मिल गया हो। वे भी देख रहें है कि देश में राजनीति की दशा और दिशा दोंनो बदल रही है। ऐसे में अगर उन्होंने जनता को सामने रखकर पारदर्शिता से ठोस काम नहीं किया तो अगले लोकसभा चुनाव में उनके दल को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी की आंधी  के बीच वे अपना दीया इस तरह जलाकर रखेंगे, जिससे पंजाब कि मतदाता को निराशा न हो।

Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, January 23, 2017

आरक्षण मसला ठेठ राजनीतिक हो जाना

उ.प्र. चुनाव के पहले आरक्षण की बात उठाए जाने का मतलब क्या है| वैसे अब इस पर ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि इस मुददे को अभी भी संवेदनशील समझा जा रहा है। कौन नहीं जानता कि आरक्षण जैसा मुददा बार-बार उठा कर सामान्य श्रेणी के लोगों को लुभाने की कोशिश हमेशा से होती रही है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि ऐसे मुददों के बार-बार इस्तेमाल होने से उनकी धार कुंद पड़ जाती है। शायद इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद इस बार आरक्षण की बात ने उतना तूल नहीं पकड़ा जितना यह मुद्दा तुल पक़ता था फिर भी जब बात उठी ही है तो आज के परिप्रेक्ष्य में इसे एक बार फिर देख लेने में हर्ज नहीं है।


बिहार चुनाव के पहले भी ऐसी ही बातें उठी थीं। लेकिन इस मुद्दे का इस्तेमाल करने वालों के हाथ कुछ नहीं आया था। बल्कि यह विश्लेषण किया गया था कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को इससे नुकसान हुआ। हालांकि राजनीति में यह हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता है कि किस बात से कितना नुकसान हुआ या कितना फायदा हुआ। लिहाजा अब उ.प्र. चुनाव के पहले इसके नफे नुकसान का अनुमान लगाया जाने लगा है।


भले ही कुछ वर्षों से आरक्षण को लेकर खुलेआम राजनीति होने लगी हो लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि यह मुददा राजनीति की बजाए सामाजिक ही ज्यादा है। यानी इसपर सोचविचार भी सामाजिक व्यवस्था के गुणदोष लिहाज से होना चाहिए। लेकिन यहां दुर्भाग्य यह है कि सामाजिक मुददों पर विचार विमर्श होना बंद हो चला है। इसीलिए ऐसे मुददों पर बात तभी उठती है जब राजनीतिक जरूरत पड़ती है। सो पहले बिहार और अब उ.प्र. के चुनाव के पहले की बात उठी है। चालिए राजनीति के बहाने ही सही अगर इस पर सोचने का मौका पैदा हुआ है तो इस मौके का फायदा उठाया जाना चाहिए।


नौकरियों में और शिक्षा में आरक्षण अगर एक संवैधानिक व्यवस्था है तो हमें यह क्यों नहीं मान लेना चाहिए कि इस पर खूब सोचविचार के बाद ही इसे स्वीकार किया गया होगा। हर बार इकन्ना एक से गिनती गिनना हमारी नीयत पर शक पैदा करने लगेगा। जाहिर है कि मौजूदा परिस्थिति को सामने रखकर और आगे की बात सोचते हुए इस पर बात होनी चाहिए। इस दृष्टि से देखें तो इस समय आरक्षण के औचित्य पर चर्चा करना एक ही बात को बार-बार दोहराना ही होगा। हां आरक्षण की व्यवस्था से होने वाले लाभ हाानि की समीक्षा होते रहने के औचित्य को कोई नहीं नकारेगा। इस संवैधानिक व्यवस्था को कब तक बनाए रखना है इस पर भी शुरू में ही सोच लिया गया था। इस तरह से हम कह सकते हैं आज हमें सिर्फ इतना भर देखने की इजाजत है कि क्या आरक्षण की व्यवस्था ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है|


आरक्षण की व्यवस्था का लक्ष्य हासिल हो चुका है या नहीं इसकी नापतौल जरा मुश्किल काम है। जब तक इसकी नापतौल का इंतजाम नहीं हो जाता तब तक कोई निर्णायक बात हो ही नहीं सकती। यानी आज अगर आगे की बात करना हो तो सबसे पहले यह बात करना होगी कि आजादी के बाद से आज तक हम सामाजिक रूप् से वंचित वर्ग को समानता के स्तर पर लाने के लिए कितना कर पाये। जब यह हिसाब लगाने बैठेंगे तो पूरे देश को एक समाज के रूप् में सामने रखकर हिसाब लगाना पडे़गा।


आज जब जाति और धर्म या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों को अलग अलग करके देखना शुरू करते हैं तो भेदभाव देखने और मिटाने की बात तो पीछे छूट जाती है और राजनीतिक लालच आना स्वाभाविक हो जाता है। राजनीति में यह ऐसी कालजयी कुप्रवृत्ति है जिससे बचकर रहना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल दिख रहा है। वैसे भी जब राजनीति तात्कालिक लाभ तक सीमित हो गई हो तब तो और भी ज्यादा मुश्किल है। इसीलिए विद्वान लोग सुझाव देते हैं कि आरक्षण जैसे मुददे को सामाजिक विषय मानकर चलना चाहिए। लेकिन समस्या ऐसा मानकर चलने में भी है।


आरक्षण को सामाजिक विषय मानकर चलते हैं तो यह पता चलता है कि सामाजिक भेद भाव की जड़ आर्थिक है। खासतौर पर भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक भेदभाव की शुरूआत आर्थिक आधार पर ही होती रही है। यहीं पर राजनीति के बीच में कूद पड़ने के मौके बन जाते है। आखिर हर राजनीतिक प्रणाली का एक यही तो ध्येय होता है कि उसके हर शासित की न्यूनतम आवश्यकताएं सुनिश्चित हों। इसीलिए हर राजनीतिक प्रणाली समवितरण करने का वायदा करती है। इस तरह से यह सिद्ध होता है कि आरक्षण जैसे सामाजिक मुददे का राजनीतिकरण होना अपरिहार्य है।


 अगर यह राजनीतिक मुददा बनता ही है तो अब हमें बस यह देखना है कि न्याय संगत क्या है। वैसे भी राजनीति  नीतियां तय करने का उपक्रम है। लेकिन हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नीतियां नैतिकता को घ्यान में रखकर बनाई जाती हैं। इसीलिए हमने सभी को समान अवसर देने की बात करते समय इस बात पर सबसे ज्यादा गौर किया था कि अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जाति के आधार पर जिन लोगों का हजारों साल से शोषण होता रहा है और समान विकास से वंचित किए गए है उन्हें कुछ विशेष सुविधाएं देकर समान स्तर पर लाने का प्रबंध करें। अब बस यह हिसाब लगाना है कि क्या हजारों साल से वंचित रखे गए सामाजिक वर्ग इन पांच छह दशकों में बराबरी का स्तर हासिल कर चुके हैं। अगर कर चुके हैं तो हमें आजादी से लेकर अब तक भारतवर्ष के अपने पूर्व नेताओं की भूरि-भूरि प्रशंसा करनी पड़ेगी और उनका नमन करना पड़ेगा कि उन्होंने कुद दशकों में इतनी बड़ी ऐतिहासिक उपलब्धि प्राप्त कर ली। परंतु यदि यह काम पूरा नहीं हुआ है तो वंचित वर्ग को और ज्यादा आरक्षण देकर इस नैतिक कार्य को जल्द ही पूरा करना पडे़गा।

Monday, March 3, 2014

फिर गठबंधन की मजबूरियों पर टिकी राजनीति

यानी गठबंधन की राजनीती से अभी भी छुटकारा मिलता नही दिखता | गठजोड़ की मजबूरियां पिछले दो दशकों से जतायी जा रही हैं | पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लगता था कि दो ध्रुवीय राजनीति फिर से शक्ल ले लेगी | लेकिन खास तौर पर अभी सिर्फ दो महीने पहले ऐसा दीखता था कि छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है | मगर उदित राज और पासवान के दलों से भाजपा ने जिस तरह का समझौता किया उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा महत्वपूर्ण समझी जा रही है |

यहाँ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि भाजपा को आखिर इसकी इतनी ज़रूरत क्यों पड़ी | भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी का माहौल इतना ज़बरदस्त था तो इन गठबंधनों से उसने अपनी कमजोरी उजागर क्यों की | कहते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी चीज़ है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता | दो तीन महीने के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा के सामने यह सवाल उठाया जाता रहा है कि अकेले वह 272 का आंकड़ा लाएगी कहाँ से | अबतक जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से ज्यादा से ज्यादा 230 हद से हद 240 को पार करने की बात किसी ने नहीं बताई | यानी बिना दूसरे दलों के समर्थन के बगैर बहुमत के जादूई आंकड़े को छूने की कोई स्तिथि बनती दीखती ही नहीं थी | ऐसे में अगर भाजपा ने गठबंदन के लिए कोशिशें जारी रखीं तो यह स्वाभाविक ही है | यह बात अलग है कि पिछले दो तीन महीने के चुनावी प्रचार में भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा कि देश में मोदी कि लहर है | ऐसा माहौल बनाये रखना भारतीय लोकतंत्र की चुनावी परंपरा में हमेशा होता आया है | सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं | बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चला और मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उसे हवा दी | लेकिन इन छोटे छोटे दलों से गठबंधन के काम ने उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाया है | हालांकि भाजपा को नुक्सान की बात कहना उतना सही भी नहीं होगा | क्योंकि बात यहाँ लहर या माहौल के नुक्सान की तो हो सकती है पर वास्तविक स्तिथि को देखें तो इससे कितना ही कम सही लेकिन कुछ न कुछ फायदा ज़रूर होगा |

क्योंकि भाजपा को घेरने वाले लोग हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी | और वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी | इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते रहते हैं कि आज की परिस्तिथी में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे | इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे | यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्तिथियों के हिसाब से बताई जाती है लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे छोटे दल मसलन पासवान या उदित राज भाजपा की ओर पहले ही चले आये | अब स्तिथी यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है | उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं |

कुलमिलाकर छोटे छोटे क्षेत्रीय दलों का भाजपा की ओर ध्रुविकरण की शुरुआत हो गयी है | एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी | बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं | ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं ? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता | अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ | महीनों से चल रही उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है | जबतक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता | इसीलिए हफ्ते – दोहफ्ते भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती |

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश येही स्तिथि है | मसलन लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस को अपना हिसाब भेज दिया है | लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया रुकी सी पड़ी है | खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है | हफ्ते-दोहफ्ते में चुनावी रंग जमेगा | 

Sunday, March 11, 2012

अखिलेश यादव की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरूप देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर 38 वर्ष के अखिलेश यादव की ताजपोशी हो रही है। जिस वक्त चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस वक्त एक अंग्रेजी टी वी चैनल पर पंजाब के मुख्यमंत्री के सुपुत्र सुखवीर सिंह बादल और अखिलेश यादव से बरखा दत्त साथ-साथ चर्चा कर रही थीं। सुखवीर ने अखिलेश को सलाह दी कि अगर उत्तर प्रदेश को तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे ले जाना है तो उन्हें भी विकास कार्यों को पंजाब की ही तरह ‘पीपीपी मोड’ में जाना होगा। अखिलेश के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण सलाह है। क्योंकि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। लोगों ने मत जात-पात पर नहीं, विकास के नाम पर दिया है। नौकरशाहों की लाल फीताशाही और निहित स्वार्थों की राजनैतिक दखलंदाजी विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
उत्तर प्रदेश के नगरों का आधारभूत ढांचा चरमरा गया है। अवैध निर्माण, उफनती नालियाँ, कूड़े के पहाड़ और विकास प्राधिकरणों की भू-माफियागिरी ने प्रदेश के नगरों को एक विद्रूप चेहरा दे दिया है। शहर के चुनिंदा पैसे वाले और नौकरशाहों को छोड़कर बाकी लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश के कई राज्यों में इस समस्या का हल जनता की भागीदारी और सक्षम निजी संस्थाओं के सहयोग से किया गया है। जिन मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य के स्वरूप को सजाने की इस पहल में निजी रूचि और उत्साह दिखाया है वे बार-बार जीत कर लौटे हैं।
उत्तर प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से आगरा, ब्रज, वाराणसी, सारनाथ आदि जैसे क्षेत्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था में तेजी से इजाफा कर सकते हैं। क्योंकि मौरिशिय्स, थाईलेंड, सिंगापुर, बाली जैसे तमाम देश केवल पर्यटन के सहारे अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं को मजबूत बनाये हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश में इस दिशा में सही समझ और ईमानदार कोशिश के अभाव में सारी योजनाऐं कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाती हैं। जिसमें अखिलेश को क्रान्तिकारी परिवर्तन करना होगा।
गुण्डाराज की बात हर मीडिया पर की जा रही है। मैंने कई चैनलों पर ये कहा है कि अगर अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव और चाचा जैसे मौहम्मद आजम गुण्डाराज को दस्तक देने से पहले ही रोकने में सफल नहीं होते तो 2014 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को मुँह की खानी पड़ सकती है। अखिलेश युवा हैं, उत्साही हैं, विनम्र हैं और कुछ करना चाहते हैं। पर प्रान्त के अराजक तत्वों को रोकने का काम भी अगर उनके कंधों पर डाल दिया जायेगा तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिये यह काम तो अखिलेश के पिता और इन चाचाओं को करना होगा। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को इसी तरह दोबारा सत्ता सौंपने में उत्तर प्रदेश की जनता को गुरेज नहीं होगा।
प्रदेश के शासन की रीढ़ होते हैं नौकरशाह। अगर जिले में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक मुख्यमंत्री के लिये धन उगाही के एजेंट बनाकर भेजे जाते हैं और जल्दी-जल्दी ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाते हैं तो अखिलेश यादव की सरकार जनता की नजरों में गिर जायेगी। अगर ये ही दो अधिकारी ईमानदार, कड़क लेकिन जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होंगे तो अखिलेश यादव की सरकार लोकप्रियता के झण्डे गाड़ देगी।
मुख्यमंत्री सचिवालय अकुशल और निकम्मे सचिवों का जमावड़ा न होकर अगर ऐसे अधिकारियों को तरजीह देगा जो रचनात्मकें, परिणाम लाने वाले, जोखिम उठाकर भी गैर-पारंपरिक निर्णय लेने वाले और लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध क्रियान्वन करने वाले हों तो पूरे उत्तर प्रदेश को दिशा और गति दोनों मिलेगी।
प्रदेश के देहातों में बेरोजगारी, बिजली-पानी सबसे बड़ी समस्या है। पर इनका निदान केवल राजनैतिक बयानबाजी के तौर पर किया जाता है। जबकि देश में कई ऐसे सफल माॅडल हैं जहाँ किसान-मजदूर को बिना ज्यादा बाहरी मदद के सुखी बनाने के सफल प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि ऐसे मॉडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं होती, इसलिये वे हुक्मरानों को पसंद नहीं आते। पर अब चुनाव का स्वरूप इतना बदल चुका है कि कोरे वायदों से आम मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। गाँव की समस्याओं के हल के लिये ठोस काम की जरूरत है। अखिलेश को लीक से हटकर देखना होगा।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व जब न तो ई-मेल, एस.एम.एस. थे और न ही फैक्स या फोन तब भी मगध का साम्राज्य चलाने वाले महान सम्राट अशोक मौर्य ने अफगानिस्तान से असम और कश्मीर से तमिलनाडु तक के भू-भाग को बड़ी संजीदगी से संचालित किया और यश कमाया। क्योंकि वे वेश बदल कर खुद और अपने दूतों को साम्राज्य के हर हिस्से में भेजकर अपने कामों के बारे में जनता की राय गोपनीय तरीके से मँगवाया करते थे। जहाँ से विरोध के स्वर सुनायी देते वहाँ समस्या का हल ढूँढ़ने में फुर्ती दिखाते थे। अखिलेश यादव को पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के अनुभव से यह सीखना चाहिये कि अपने चारों ओर चहेतों और सलाहकारों की दीवार मुख्यमंत्री को अन्धा और बहरा बना देती है। राहुल गाँधी ने मेहनत कम नहीं की पर अखिलेश का सहज सामान्य जन से संवाद उन्हें आज इस मुकाम तक ले आया। अपनी इस ताकत को खोना नहीं संजोना है।
भगवान कृष्ण के यदुवंश में जन्म लेने वाले अखिलेश यादव के कार्य काल में अगर ब्रज विश्व का सबसे सुन्दर तीर्थ क्षेत्र न बना तो अखिलेश का जन्म निरर्थक रहेगा। बसपा, संघ और इंका की विशाल सेनाओं के सामने अखिलेश यादव ने अपने युद्ध कौशल से इस महाभारत को जीतकर भगवान कृष्ण के वंशज होने का प्रमाण दिया है। अगर अखिलेश में सही सलाह को समझने और जीवन में उतारने की क्षमता होगी तो उत्तर प्रदेश को वे विकास और सुख-समृद्धि के रास्ते पर ले चलने में कामयाब हो पायेंगे।

Sunday, March 4, 2012

उत्तर प्रदेश में एक अपूर्व असमंजस

ऐसा पहली बार हुआ है कि पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर राजनैतिक पण्डित अटकल तक नहीं लगा पा रहे हैं। यह बात अलग है कि इससे पहले जब-जब इन पण्डितों ने अपनी अटकलें लगायीं, वे कभी ठीक नहीं निकलीं। हाँ पहले यह जरूर हुआ करता था कि अलग-अलग चुनाव विश्लेषक मतदान से पहले अपने-अपने ओपिनियन पोल के जरिये किसी पार्टी विशेष के लिये माहौल बनाने का काम किया करते थे और उसका असर भी पड़ जाया करता था। लेकिन इस बार चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल पर लगायी गयी पाबन्दी से यह रोग नहीं दिखा और अनापेक्षित स्थिति बन नही पायी।
पिछले चार महीनों में विभिन्न राष्ट्रीय दलों और प्रादेशिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों में भी कोई नयी बात नजर नहीं आयी। सिर्फ यह जरूर दिखा कि पाँच राज्यों में जिस तरह से शान्तिपूर्ण ढंग से चुनाव निपटे हैं, उसमें चुनाव आयोग की मुस्तैदी में नयापन था। इस दौरान हिंसा नहीं हुई और मतदान के दौरान गड़बड़ियों की घटनायें भी नगण्य रहीं।
मणिपुर, पंजाब और उत्तराखण्ड में मतदान पहले ही निपट चुके हैं और उनके बारे में अटकलें और विश्लेषण भी मीडिया में खूब आ चुके हैं। आखिर में उत्तर प्रदेश और गोवा में मतदान हुआ है। अपने आकार के कारण उत्तर प्रदेश को लेकर लोगों में कौतुहल कुछ ज्यादा ही रहा।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार को लेकर एक रोचक तथ्य यह रहा कि मतदान के एक हफ्ते पहले तक मीडिया ने चार प्रमुख दलों - बसपा, सपा, भाजपा और काँग्रेस को नम्बरवार लगाने की कोशिश की। आम तौर पर मध्यस्थता में व्यस्त रहने वाले मीडिया ने सबसे पहला काम यह किया कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों - काँग्रेस और भाजपा के बीच तीसरे और चैथे नम्बर के लिये लड़ाई की बात प्रचारित करनी शुरू की। यह प्रचार इतनी तीव्रता के साथ किया गया कि माहौल बसपा और सपा के बीच लड़ाई तक सिमट गया। और जब काँग्रेस के लिये राहुल गाँधी के व्यवस्थित चुनाव प्रचार ने असर दिखान शुरू किया तो उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के मतदान के बाद से ही यह बात सामने आने लगी कि सीटों के लिहाज से स्थिति कुछ भी रहे, लेकिन मत प्रतिशत के लिहाज से काँग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी।
उधर दो प्रमुख प्रादेशिक दलों - बसपा और सपा की लड़ाई में यह माहौल बनाया गया कि बसपा के खिलाफ सत्तारूढ़ दल के विरोध में होने वाला स्वाभाविक विरोध काम कर रहा है। ऐसे ही प्रचार से सपा के पक्ष में एक माहौल बनना शुरू हुआ।
रही बात उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दों की - तो उत्तर प्रदेश की जनता की ओर से विकास की बातें ज्यादा की गयीं। इससे ऐसा माहौल बना कि लोग धर्म और जाति के दायरे से बाहर आ कर सोचना शुरू कर रहे हैं। पर यह ज्यादा दिन चला नहीं। आखिर, आखिर में मुस्लिम वोट बैंक को लेकर मीडिया ने माहौल बना ही दिया। हालांकि कुछ यह भी था, कि उत्तर प्रदेश में छठे और सातवें दौर के चुनाव में आबादी के लिहाज से मुस्लिम मतदाता अपेक्षाकृत ज्यादा थे। लेकिन मुस्लिम ध्रुवीकरण की स्थिति बनती नहीं दिखी और यह संकेत आये कि बिखराव के कारण धर्म-आधारित कारक काम नहीं करेगा।
यानि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में पर्याप्त तथ्यों का अभाव है। राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों से भी कुछ नहीं भाँपा जा सकता। इस स्थिति में अगर सामान्य निरीक्षण की पद्धति अपनायी जाये तो लोग यह कहते पाये जा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। दूसरी बात यह कि सबसे बड़े दल के रूप में बसपा और सपा में से कोई होगा। तीसरी बात यह कि सपा और बसपा कुल 403 सीटों में कोई 70 फीसदी सीटें ले जायेंगे। काँग्रेस और भाजपा के पास कुल सीटों की 25 फीसदी सीटें आने की अटकल है।
यदि ऐसा होता है तो सरकार बनाने के लिये गठबंधन की कवायद शुरू हो जायेगी। इस सिलसिले में अगर चुनाव प्रचार के दौरान कही गयी बातों पर गौर करें तो काँग्रेस के कुछ नेताओं के बयान महत्वपूर्ण हो जायेंगे। यानि एक स्थिति यह बनती है कि नयी सरकार में काँग्रेस का समर्थन अपरिहार्य हो जायेगा। काँग्रेस का वह बयान महत्वपूर्ण हो जायेगा कि अगर जीते तो वे खुद ही सरकार बनायेंगे वरना किसी को समर्थन नहीं देना चाहेंगे। यानि तब विकल्प किसी की भी सरकार नहीं बन पाने यानि राष्ट्रपति शासन का होगा। तब यह देखना होगा कि काँग्रेस के अलावा दूसरे दल क्या रूख अख्तियार करते हैं और कितना समझौता करते हैं।
लेकिन अगर-मगर के साथ ये सारी बातें तब फिजूल हो जायेंगी जब पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश के मतदता ने भी ये सारे अगर-मगर देख लिये थे। यानि जनता के सामूहिक निर्णय की प्रतिभा को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि चुनाव नतीजों के बाद हमें मतदाता के मन का विश्लेषण करने का भी मौका मिलेगा। यह पहले भी होता आया है। नब्बे के दशक में क्षेत्रीय दलों के उद्भव के बाद खण्डित जनादेश की स्थितियाँ कई बार बनी हैं। धीरे-धीरे गठबंधन की राजनीति को स्वीकार भी किया जा चुका है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे गठबंधन की राजनीति का कोई बिल्कुल नया आयाम पेश कर सकते हैं।

Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।