Sunday, May 20, 2012

भारतीय पुलिस सेवा में सीधी भर्ती क्यों करना चाहते हैं चिदंबरम?

पिछले कुछ समय से देश के गृह मंत्री भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की आपूर्ति में कमी को लेकर परेशान हैं। विभिन्न राज्यों की निरन्तर बढ़ती पुलिस बल की मांग और आतंकवाद व नक्सलवाद से जूझने के लिए नए संगठनों की संरचना आदि के लिए श्री चिदंबरम को मौजूदा कोटे से ज्यादा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की जरूरत महसूस हो रही है। जिसके लिए वे ‘शॉर्ट सर्विस कमीशन’ जैसी व्यवस्था बनाकर भा.पु.से. में सीधे भर्ती करना चाहते हैं, जिससे नियुक्ति करने के लिए गृहमंत्री को संघ लोक सेवा आयोग की एक लम्बी चयन प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। उनके इस प्रयास से भा.पु.से. कैडर में बहुत बैचेनी है। देशभर में फैले भा.पु.से. के अधिकारियों को डर है कि इस तरह की व्यवस्था से भा.पु.से. का चरित्र बिगड़ जाऐगा और उससे पूरे काडर का मनोबल टूट जाऐगा। क्योंकि इन नई भर्तियों से भा.पु.से. में ऐसे अधिकारी आ जाऐंगे, जिन्हें एक लम्बी और जटिल चयन प्रक्रिया से नहीं गुजारा गया है।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भा.पु.से. की चयन नियमावली के अनुसार 1954 में नियम-7 (2) के तहत भारत सरकार ने यह साफ घोषणा कर दी थी कि भा.पु.से. का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से ही किया जाऐगा। हालांकि सेवा निवृत्त भा.पु.से. अधिकारी श्री कमल कुमार ने भा.पु.से. भर्ती योजना (2009-2020) की अपनी अन्तिम सरकारी रिपोर्ट में इन भर्तियों के लिए तीन विकल्प सुझाऐं हैं (1) सिविल सेवा परीक्षा में अगले कुछ वर्षों के लिए भा.पु.से. की सीटों की संख्या बढ़ाना (2) 45 वर्ष से कम आयु के व न्यूनतम 5 वर्ष के अनुभव के राज्यों के उप पुलिस अधीक्षकों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा से चयन करके भा.पु.से. का दर्जा देना। (3) सूचना प्रोद्योगिकी, संचार, वित्त एवं मानव संसाधन प्रबन्धन आदि के विशेषज्ञों को कुछ समय के लिए पुलिस व्यवस्था में डेपुटेशन पर लेना, ताकि इन विशिष्ट क्षेत्रों में लगे पुलिस अधिकारियों को फील्ड के काम में लगाया जा सके।
2009 की उपरोक्त रिपोर्ट के बाद 2010 में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की अगले 10 वर्षों की भर्ती योजना पर अपनी सरकारी रिपोर्ट देते हुए प्रो. आर. के. पारीख ने इस बात पर जोर दिया कि सिविल सेवा परीक्षा में सीटों का बढ़ाना ही एक मात्र विकल्प है और उन्होंने जोरदार शब्दों में डी.ओ.पी.टी. (कार्मिक विभाग) के इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज किया कि सीमित परीक्षा के माध्यम से सीधी भर्ती की जा सकती है।
उल्लेखनीय है कि 2010 में भारत सरकार के गृह सचिव ने संघ लोक सेवा आयोग व विभिन्न राज्यों को पत्र लिखकर भा.पु.से. में सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भर्ती पर उनकी प्रतिक्रिया मांगी थी। जिस पर संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने जोरदार शब्दों में कहा कि, ‘‘अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र उसकी जटिल चयन प्रक्रिया और प्रशिक्षण व्यवस्था पर निर्भर करता है। इससे इतर कोई भी व्यवस्था इस प्रक्रिया की बराबरी नहीं कर सकती। इस बात का कोई कारण नहीं है कि भा.पु.से. के प्रत्याशियों की संख्या मौजूदा सिविल सेवा परीक्षा में ही अगले 6-7 वर्षों के लिए ही, रिक्तियां बढ़ाकर, पूरी क्यों नहीं की जा सकती? जो कि मौजूदा स्थिति में लगभग 70 है।
इसी जबाव में संघ लोक सेवा आयोग के सचिव ने यह भी कहा कि इस नई प्रक्रिया से भा.पु.से. के अधिकारियो का मनोबल गिरेगा और कई तरह के कानूनी विवाद खड़े हो जाएंगे। जिनमें वरिष्ठता के क्रम का भी झगड़ा पड़ेगा। उन्होंने यह कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया उस चयन प्रक्रिया से भिन्न है, जिसे आमतौर पर प्रांतों की सरकारों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए उस प्रक्रिया से चुने व प्रशिक्षित अधिकारियों को इसमें समायोजित करना उचित नहीं होगा। इसलिए उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में ही भा.पु.से. की सीट 200 तक बढ़ाने की सिफारिश की।
अनेक प्रांतों की सरकारों ने भी इस कदम का विरोध किया है। इसी तरह देश के अनेक पुलिस संगठनों के महानिदेशकों ने भी इस कदम का विरोध किया है। उल्लेखनीय है कि 1970 के दशक में जब गृहमंत्रालय ने पूर्व सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से  भा.पु.से. में चुना था, तो उस निर्णय को 1975 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया था। उसके बाद से आज तक ऐसा चयन कभी नहीं किया गया। इसी तरह भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस के महानिदेशक ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए लिखा कि जिलों की पुलिस आवश्यकताऐं और सेना की प्रशिक्षण व्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसलिए सैन्य अधिकारियों को सीमित प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से भा.पु.से. में नहीं लिया जा सकता।
इसके अलावा भारत सरकार के कानून मंत्रालय ने भी इस प्रस्ताव का विरोध किया। उसका कहना है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 320 (3) के अनुसार ‘सिविल सेवाओं में नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग की सहमति सभी मामलों में लेना अनिवार्य होगा।’ इसलिए कानून मंत्रालय ने भी मौजूदा चयन प्रणाली में रिक्तियां बढ़ाने का अनुमोदन किया।
इन सब विरोधों के बावजूद केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने 11 मई, 2010 के अपने पत्र में कार्मिक मंत्रालय के मंत्री को पत्र लिखकर कहा कि संघ लोक सेवा आयोग की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए, वे सीमित प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें। आश्चर्य की बात है कि गृह मंत्रालय ने 19 अगस्त 2011 को भा.पु.से. (भर्ती) नियम 1954 में संशोधन करके सीमित प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था कायम कर दी और इसके लिए 3 सितंबर, 2011 को भारत सरकार के गजट में सूचना भी प्रकाशित करवा दी। अब यह परीक्षा 20 मई, 2012 को होनी है। देखना यह है कि इस मामले में क्या गृहमंत्री अपनी बात पर अड़े रहते हैं, या उनकी इस जिद से उत्तेजित पुलिस अधिकारी किसी जनहित याचिका के माध्यम से इस चयन प्रक्रिया को रोकने में सफल होते हैं? मैं समझता हूँ कि यह गम्भीर मुद्दा है और दोनों पक्षों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाकर, आपसी सहमति से जो न्यायोचित और व्यवहारिक हो, वही करना चाहिए। मूल मकसद है कि देश की कानून व्यवस्था सुधरे। हर प्रयास इसी ओर किया जाना चाहिए। 

Monday, April 30, 2012

सचिन बने सांसद! हंगामा क्यों है बरपा?

सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में लाकर कांग्रेस आलाकमान ने राजनैतिक हलकों में हड़कम्प मचा दिया। किसी को उम्मीद न थी कि क्रिकेट के अपने कैरियर के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोत्तम दौर में सचिन इस तरह रातों-रात सांसद बन जाऐंगे। वो भी तब जब उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। जहाँ कांग्रेस के लोगों के बीच में इस बात को लेकर उत्साह है कि सचिन कांग्रेस के लिए युवाओं के मन में जगह बनाएंगें, वहीं कांग्रेस के आलोचक मानते हैं कि इन शगूफों से कांग्रेस की छवि बदलने वाली नहीं। अगर ऐसा है तो क्यों आलोचक सचिन के सांसद बनने पर इतने बौखलाऐं हुए हैं? एक टी.वी. चर्चा में तो सचिन को ‘डेमोगोग’ तक बता दिया गया। जबकि ‘डेमोगोग’ वो होता है जो समाज के एक असंतुष्ट वर्ग की भावनाऐं भड़काकर व्यवस्था ध्वस्त करने की अवैध कोशिश करता है। ‘डेमोगोग’ की इससे भी तीखी परिभाषा मशहूर दार्शनिक अरस्तू ने दी थी। जिसने समाज में ऐसी तथाकथित क्रांति करने वाले को अवैध नेता करार दिया था। इस परिभाषा से सचिन तेंदुल्कर ‘डेमोगोग’ दूर-दूर तक नजर नहीं आते। एक सीधा-साधा क्रिकेट खिलाड़ी अपनी योग्यता और मेहनत के बल पर अन्तर्राष्ट्रीय खेल जगत का सितारा बन गया, उससे जनता को भड़काने या व्यवस्था के खिलाफ क्रांति करवाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पर आलोचकों का सचिन तेंदुलकर पर इस तरह हमला करना यह जरूर दर्शाता है कि उन्हें डर है कि कहीं कांग्रेस 2014 के चुनाव में सचिन से फायदा न उठा ले। इधर कांग्रेस में इस बात की पूरी तैयारी की जा रही है कि धीरे-धीरे ऐसे कई कदम उठाए जाऐं, जिनसे कांग्रेस की छवि चुनाव तक सुधरती चली जाए।
पर सवाल उठता है कि राज्यसभा में किसी को मनोनीत कर भेजे जाने का क्या उद्देश्य होता है? संविधान निर्माताओं ने यह प्रावधान समाज के उन विशिष्ट लोगों के लिए रखा था, जो अपने कार्यकलापों से राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा योगदान करते हैं, किंतु किसी राजनैतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाते। ऐसे लोगों के अनुभव और ज्ञान का उपयोग कानून के निर्माण की प्रक्रिया में किया जा सके। इसलिए उनके मनोनयन की व्यवस्थ की गई है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो सचिन का व्यक्तित्व और रूचि दूर-दूर तक कानून की प्रक्रिया में नहीं है। ऐसी भी संभावना है कि पूर्ववर्ती सितारे सांसदों की तरह सचिन भी या तो संसद में आयें ही न और या उनका योगदान शून्य रहे। ऐसा होता है तो यह मनोनयन निरर्थक रहेगा।
दरअसल आजादी के बाद से हर सत्तारूढ़ दल ने मनोनयन के इस प्रावधान का ठीक उपयोग नहीं किया। अपने चाटुकारों या अपने अनुग्रह पात्रों को राज्यसभा में भेजकर इस प्रावधान का मखौल उड़ाया है। कोई दल इसमें अपवाद नहीं। पत्रकारिता के क्षेत्र को ही लें तो कभी ऐसे पत्रकार का राष्ट्रपति द्वारा मनोनयन नहीं हुआ जिसकी निष्पक्षता, ईमानदारी और समाज के प्रति योगदान की राष्ट्रीय ख्याति हो। ऐसे पत्रकार और संपादक जो अपनी नौकरी के दौरान दलविशेष की छवि बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं, उन्हें ही वह राजनैतिक दल सत्ता में आने के बाद राज्यसभा में भेजता है। एक लम्बी सूची है ऐसे नामों की, जो चाहे फिल्म क्षेत्र से हों, साहित्य से हों, संस्कृति से हों, कला से हों, शिक्षा से हों या किसी अन्य कार्यक्षेत्र से हों, उन्हें जब राज्यसभा में भेजा गया, तो उनका योगदान नगण्य रहा। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि या तो इस प्रावधान को समाप्त किया जाए और या मनोनयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाए। कहने को तो हमारे देश में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। पर दल के कार्यकर्ताओं को चुनाव में टिकट देने से लेकर किसी भी स्तर पर भेजना हो तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्वाहन कभी भी नहीं किया जाता। ऐसे फैसले दल के नेता द्वारा अपने रागद्वेष और राजनैतिक लाभ के मकसद से लिए जाते हैं। यही कारण है कि हमारी संसद में बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। बहस का स्तर ही नहीं गिर रहा, सांसदों का आचरण भी कई बार देश की जनता को उद्वेलित कर देता है। 
सारे विवाद को एकतरफ रखकर अगर कांग्रेस आलाकमान के इस फैसले का भावना के स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो यह कहना गलत न होगा कि टैस्ट और वनडे में मिलकर सौ शतक बनाने वाले सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में भेजकर कांगे्रेस आलाकमान ने देश के करोड़ों क्रिकेटप्रेमी युवाओं के हृदय को जीत लिया है। इतना ही नहीं इससे देश के श्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान भी हुआ है। जिसके वे सर्वथा सुपात्र हैं। बहुत दिनों बाद ऐसा लगा कि राजनैतिक हानि-लाभ से हटकर कांग्रेस आलाकमान ने एक पारदर्शी फैसला लिया है। जिसके लिए उन्हें बधाई दी जा सकती है।

Sunday, April 22, 2012

सियाचिन में अमरीकी कूटनीति

अरूणाचल से लेकर कश्मीर तक की सीमाओं पर भारत को पाकिस्तान और चीन के मार्फत घेरने की अमरीका की कूटनीति का परिणाम है, पाकिस्तान के सेना प्रमुख अशफाक परवेज कयानी का ताजा बयान। देखने में यह बड़ा मनभावन लगता है। भारत के रक्षा राज्य मंत्री ने भी कूटनीतिक भाषा में इसका समर्थन किया है। 7 अप्रेल को सियाचीन में आए बर्फीले तूफान में पाकिस्तानी सेना ने अनेक सिपाही मारे गए। वहीं राहत कार्य देखने गए जनरल कयानी ने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों को सियाचिन ग्लेशियर से फौजी जमावाड़ा हटा देना चाहिए। जिससे दुनिया के इस सबसे ऊँचे और जोखिम भरे रणक्षेत्र पर हो रहा खर्चा विकास कार्यों पर लग सके। दिल्ली ने भी इस बयान का स्वागत किया है। जबकि पाकिस्तान के अखबारों ने इस पर मिश्रित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। सवाल है कि भारत और पाक के सम्बन्धों में मधुरता लाने के जो भी प्रयास अब तक दोनों देशों के चुने हुए नेताओं ने किए हैं, उनमें पलीता लगाने का काम पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व करता आया है। पाठकों को याद होगा कि जब भारत के गृहमंत्री पी0 चिदांबरम पाकिस्तान गए थे, तो हमने इसी कॉलम में लिखा था, ‘कयानी बिना वार्ता बेमानी’। कारण राजनैतिक निर्णयों को पाकिस्तान में तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक उन्हें वहाँ की फौज और आई0एस0आई0 की स्वीकृति न मिले। फिर आज अचानक ऐसा क्या हो गया कि पाकिस्तान के जनरल की भाषा बदल गयी और वे मधुर सम्बन्धों और विकास की बात करने लगे?
दरअसल सियाचीन पर पाकिस्तान का कोई हक नहीं है। वहाँ घुसने की जबरदस्ती में पाकिस्तान लगातार मुँह की खाता रहा है। 20 हजार फुट ऊँचे बर्फ से ढके इन पर्वतों पर 1984, 1990, 95, 96, 99 में बार-बार पाकिस्तान की फौज ने कब्जा करने की कोशिश की और हर बार भारत की सेनाओं से मुँह की खाई। आज सियाचीन के ऊपरी हिस्सों पर भारत का आधिपत्य है। जबकि निचले हिस्सों पर पाकिस्तान की सेना तैनात है। सियाचीन में इस फौजी जमावड़े के कारण अब तक दोनों ओर के 2 हजार सैनिक खराब मौसम और छुटपुट युद्धों में मारे जा चुके हैं। उल्लेखनीय है कि दोनों देश अपनी-अपनी तरफ से इन संवेदनशील पहाड़ों पर देश और विदेशों के पर्वतारोही दलों को पर्वतारोहण की अनुमति देकर अपने आधिपत्य को प्रमाणित करने का अप्रत्यक्ष प्रयास करते रहे हैं। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम अपनी-अपनी तरफ से इन पहाड़ों का दौरा कर चुके हैं। जिसे विपरीत मौसम की परिस्थितियों के कारण उनका बहुत साहसभरा कदम माना गया।
भारत की पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी सीमाऐं पाकिस्तान, चीन, नेपाल, वर्मा व बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं। सामरिक दृष्टि से यह सीमाऐं काफी महत्व की हैं। खासकर अमरीका के लिए। क्योंकि यहाँ उसकी दखल से उसे दोहरा लाभ है। एक तरफ तो वह चीन की सीमाओं पर अपना दबाव बनाये रख सकता है और दूसरी तरफ यहीं से रूस के खिलाफ अपनी पकड़ बनाए रख सकता है। इसलिए अमरीकी कूटनीतिज्ञ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इन सीमा विवादों में भारी रूचि रखते हैं और इन विवादों का फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं। अगर यह कहा जाए कि इन विवादों के पीछे अमरीका के अन्तर्राष्ट्रीय निहित स्वार्थ हैं, तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए कयानी के ताजा बयान को बहुत महत्व देने की आवश्यकता नहीं है। अगर वास्तव में पाकिस्तान के सेना प्रमुख का हृदय परिवर्तन हो गया है, तो उन्हें भारत की पश्चिमी सीमाओं पर चले आ रहे अनावश्यक तनाव को कम करने की भी पहल करनी चाहिए। जिससे दोनों देशों के बीच नागरिक और व्यापारिक आदान-प्रदान सुगम हो सके। इसके साथ ही आई0एस0आई0 को नियन्त्रित करते हुए पाकिस्तान की भूमि पर पनप रहे आतंकवाद के अड्डों का सफाया करने की भी जोरदार पहल करनी चाहिए। पर ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा। इसलिए कयानी के बयान का कोई गहरा मतलब निकालने की जरूरत नहीं है।
भारतीय उपमहाद्वीप के नागरिकों के लिए यह भारी दुख का विषय रहा है कि ब्रिटानी हुकूमत यहाँ से जाते-जाते मुल्क के दो टुकड़े करा गई। आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले हिन्दू और मुसलमानों के बीच हमेशा के लिए नफरत का जहर बो गई। जिसका खामियाजा दोनों देशों के आवाम और अर्थव्यवस्था को आज तक भुगतना पड़ा रहा है। दोनों देशों के बीच तनाव और सैनिक प्रतिस्पर्धा को बनाये रखना और बढ़ाते रहना विकसित देशों के हथियारों के सौदागरों के लिए भारी मुनाफे का सौदा है। सब जानते हैं कि अमरीका जैसे लोकतांत्रिक देश की भी विदेश नीति ऐसे ही निहित स्वार्थ नियन्त्रित करते हैं। इसीलिए लोकतंत्र की आड़ में अमरीकी सरकार और उसकी सी0आई0ए0 जैसी एजेंसी पूरे वैश्विक पटल पर शतरंज के खेल खेला करती है और दुनिया के देशों को मोहरों की तरह भिड़ाया करती है। कयानी के बयान को इसी परिपेक्ष्य में देखने की जरूरत है। 

Sunday, April 15, 2012

तिरूपति में धरोहरों का विध्वंस

दुनिया का सबसे लोकप्रिय और धनी हिन्दू मन्दिर तिरूपति बालाजी गंभीर विवादों में घिरा है। सारी दुनिया से करोड़ों भक्त आन्ध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति बालाजी के दर्शन करने पूरे वर्ष आते हैं। लगभग 6 सौ करोड़ रूपये का यहाँ वर्षभर में चढ़ावा चढ़ता है। मन्दिर की कुल सम्पदा लगभग एक  लाख करोड़ रूपये है। दुनिया के इस सबसे धनी मन्दिर का प्रबन्धन आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एक न्यास ‘तिरूपति तिरूमला देवस्थानम्’ (टी.टी.डी.) द्वारा किया जाता है। ट्रस्ट द्वारा यात्रियों की सुविधा के लिए और मन्दिर के रख-रखाव के लिए जो व्यवस्थाऐं की गयीं हैं, उनकी प्रशंसा यहाँ आने वाला हर व्यक्ति करता रहा है। खासकर जब वे इन व्यवस्थाओं की तुलना देश के बाकी हिन्दू मन्दिरों से करते हैं, तो निश्चय ही इस मन्दिर की श्रेष्ठता सिद्ध होती है।
आज कल लगभग सवा लाख यात्री औसतन यहाँ प्रतिदिन आते हैं। यानि सालभर में तीन चार करोड़। अगले कुछ वर्षों में यह संख्या तेजी से दोगुनी हो जाऐगी। पर इस बढ़ते जनसैलाब को संभालने की टी.टी.डी. की कोई तैयारी दिखाई नहीं देती। आज भी बाहर से आने वाले आम यात्रियों को सिर मुंडवाने से लेकर दर्शन की टिकट, ठहरने के कमरे की बुकिंग आदि के लिए टी.टी.डी. के कर्मचारियों को दोगुनी रिश्वत देनी पड़ती है। इसके बाद भी गारण्टी इस बात की नहीं कि आधा सैकण्ड का भी दर्शन मिल सके। आश्चर्य की बात यह है कि ऊपर से नीचे तक व्याप्त इस भ्रष्टाचार को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। भ्रष्टाचार में पकड़े गए कर्मचारी और अधिकारी कुछ दिन बाद उसी जगह फिर तैनात हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस मन्दिर के बोर्ड का अध्यक्ष एक शराब माफिया बना दिया गया था। भ्रष्टाचार के इस युग में भगवान का दरबार उससे अछूता नहीं है, यह बात तो मान भी ली जाए, पर पैसा कमाने की हवस में टी.टी.डी. के अधिकारी लगातार इस मन्दिर की परपंराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं व भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे भक्त और संत बहुत दुखी हैं। सबसे ताजा उदाहरण यह है कि मन्दिर के सामने बने एक हजार खम्बों के ऐतिहासिक मण्डप को ध्वस्त करके पहाड़ के पीछे नाले में फैंक दिया गया। विजय नगर साम्राज्य के राजा द्वारा सन् 1454 ई0 में बनाए गए इस मण्डप में वैकुण्ठ एकादशी के दस दिन पहले और दस दिन बाद भारी उत्सव मनता था। इस मण्डप के टूट जाने से यह सुन्दर परंपरा नष्ट हो गयी।
यह बात दूसरी है कि इस विध्वंस के लिए जिम्मेदार रहे पी0वी0आर0के0 प्रसाद आज अपना अपराध कबूल करते हैं। पर यह तो एक उदाहरण है। मन्दिर के पास स्थित पौराणिक पुष्कर्णी भी नष्ट कर दी गई। इसी तरह तिरूमला पर्वत पर चढ़कर आने वाले यात्री जिस पौराणिक द्वार से प्रवेश करते थे और जिसका गहरा आध्यात्मिक महत्व था, उस द्वार को भी नष्ट कर दिया गया। तिरूमला पर्वत पर पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार हजारों तीर्थस्थल हैं। पर आधुनिकीकरण की आड़ में टी.टी.डी. के बुद्धिहीन अधिकारी धीरे-धीरे इन सभी धरोहरों को नष्ट करते जा रहे हैं। उनका हर काम भगवान बालाजी को नोट छापने की मशीन मानकर होता है
सब जानते हैं कि सगुण उपासना में मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पत्थर की साधारण मूर्ति नहीं माना जा सकता। उन्हें साक्षात जीवधारी की तरह जागृत भगवान माना जाता है। इसलिए उनके प्रातः उठने से लेकर रात्रि शयन तक की व्यवस्था एक महाराजाधिराज की तरह की जाती है। जिसमें अभिषेक, श्रृंगार, आरती और अनेक बार अनेक तरह के भोग, दोपहर का विश्राम और रात्रि का शयन तक शामिल होता है। देशभर के मन्दिरों में यही व्यवस्था है। पर संत समाज और भक्त समाज को इस बात की बहुत पीड़ा है कि धनलोलुप टी.टी.डी. ने वैंक्टेश्वर बालाजी के शयन का समय भी समाप्त कर दिया है। उन्हें रात्रि में ढेड़-दो बजे तक जगाए रखा जाता है और सुबह ढाई-तीन बजे से फिर जगा दिया जाता है। जबकि इसकी बेहतर और वैकल्पिक व्यवस्थाऐं की जा सकती हैं।
चूंकि टी.टी.डी. विशिष्ट व्यक्तियों जिनमें राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपति ही नहीं, फिल्म, मीडिया और खेल के सितारे भी शामिल हैं, उनको वी.आई.पी. व्यवस्था में दर्शन करवाता है। इसलिए कोई इसके खिलाफ आवाज उठाना नहीं चाहता। पर सच्चे संत अपनी परंपराओं और भक्तों की भावनाओं से हो रहे इस खिलवाड़ से मूक दृष्टा बने नहीं रह सकते। आन्ध्र प्रदेश के ऐसे ही एक उच्च कोटि के विद्वान, समाजसेवी किन्तु क्रंातिकारी युवा संत श्री श्री श्री त्रिदण्डी चिन्ना श्रीमन्नारायण रामानुज जीयार स्वामी जी ने टी.टी.डी. की विध्वंसकारी नीतियों के विरूद्ध आवाज बुलन्द करने का संकल्प लिया। सबसे पहले तो उन्होंने अधिकारियों से वार्ता कर उन्हें सद्बुद्धि देने का प्रयास किया। जब उनकी नहीं सुनी गई, तो अपने प्रिय शिष्य डा. रामेश्वर राव जैसे अन्य सहायकों की मदद से स्वामी जी ने नाले में पड़े उन ऐतिहासिक एक हजार खम्बों को बाहर निकलवाया और उन्हें उचित स्थान पर पहुँचाया ताकि भविष्य में इस मण्डप का पुर्ननिर्माण हो सके।
पूरे आन्ध्र प्रदेश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे जीयार स्वामी जी ने एक लाख आन्दोलनकारी भक्तों के साथ तिरूमला पहाड़ पर चढ़ने की चेतावनी दे दी, तो प्रशासन में हड़कम्प मच गया। उन्हें समझा-बुझाकर रोका गया। पर स्वामी जी चुप बैठने वाले नहीं है। वे आन्ध्र प्रदेश के गांव-गांव मे जाकर अलख जगा रहे हैं ताकि तिरूपति मन्दिर में हो रही लूट को रोका जा सके और विध्वंसक नीतियों को बन्द किया जा सके। इस आन्दोलन को आन्ध्र प्रदेश में भारी समर्थन मिलने लगा है। पर भारत का कोई तीर्थ ऐसा नहीं, जिसके उपासक उसी प्रांत में रहने वाले हों। सारे भारत से भक्त तिरूपति जाते हैं। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि जब इन अव्यवस्थाओं और बेईमानियों का समाचार देश के अन्य हिस्सों में पहुँचेगा तो पूरे देश का भक्त समाज टी.टी.डी. की नीतियों के विरोध में उठ खड़ा होगा।

Monday, April 9, 2012

बाबा रामदेव हर कदम सोच - विचार कर उठाएं

ऐसा लगता है कि बाबा रामदेव को मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने में मजा आता है। अभी कांग्रेस से उनकी पंगेबाजी चल ही रही है कि उन्होंने आयुर्वेद की दवाओं के निर्माताओं से भी पंगा ले लिया। जिससे देश की नामी आयुर्वेद कम्पनियों के निर्माता उनसे खासे नाराज हैं। योग सिखाते-सिखाते बाबा ने आयुर्वेद का कारोबार खड़ा कर डाला। अब तक वे इसे अपने केन्द्रों और अनुयायियों तक सीमित रखे हुए थे। पर अब वे उतर पड़े हैं खुले बाजार में और ताल ठोककर आयुर्वेद की दवाओं और प्रसाधनों के देशी और विदेशी निर्माताओं को चुनौती दे रहे हैं। बाबा अपने टी0वी0 पर सीधे प्रसारण में खुलेआम इन कम्पनियों के उत्पादनों की मूल्य सूची पर सवाल खड़े कर रहे हैं और जनता को बता रहे हैं कि ये कम्पनियां किस तरह से आयुर्वेद के नाम पर जनता को उल्टे उस्तरे से मूढ़ रही हैं। साथ ही वे अपने उत्पादनों की सूची जारी करके मूल्यों का तुलनात्मक मूल्यांकन कर रहे हैं।
क्या बाबा के इस नये शगूफे को विशुद्ध मार्केटिंग की रणनीति माना जाए? लगता तो ऐसे ही है कि आचार्य बालकृष्ण और बाबा रामदेव दोनों ने मिलकर आयुर्वेद के बाजार पर कब्जा करने का इरादा कर लिया है। वर्ना इस तरह योग गुरू को अपने उत्पादनों के लिए देश के विभिन्न नगरों में जाकर प्रचार करने की क्या जरूरत थी? पर आश्चर्य की बात यह है कि उनके दर्शक और श्रोता ऐसा नहीं मानते। बाबा के दूसरे अभियानों की तरह वे इसे भी जनचेतना का एक अभियान ही मान रहे हैं। उनका कहना है कि बाबा के रहस्योद्घाटन ने उनकी आँखे खोल दी हैं। वे अब तक लुटते रहे और उन्हें पता ही नहीं चला। उदाहरण के तौर पर जब दुनियाभर में ऐलोवेरा जैल बाजार में लाया गया तो विदेशी कम्पनियों ने इसे सेहत का रामबाण बताकर खूब महंगा बेचा। 1200 रूपये लीटर तक बिका। मुझे याद है कि सन् 2000 में अपने अमरीकी प्रवास के दौरान मैंने ऐलोवेरा का खूब शोर सुना। जिसे देखो इसकी बात करता था। मैं भी स्टोर में उत्सुकतावश ऐलोवेरा देखने पहुँचा। तब पता चला कि बचपन से घर के बगीचे में जिस ग्वारपाठा को देखा था, जिसके गूदे से माँ हलुवा और रोटी बनवाती थी, उसकी एक पत्ती चार डॉलर की बिक रही थी।
पिछले दिनों बाबा रामदेव के संस्थान ने ऐलोवेरा जैल को चैथाई कीमत पर जब बाजार में उतारा तो बड़ी-बड़ी कम्पनियों को अपने दाम घटाने पड़े। बाबा के सहयोगी आचार्य बालकृष्णन इसे अपनी नैतिक जीत बताते हैं। उनका दावा है कि हम आयुर्वेद का बाजार कब्जा करने नहीं जा रहे। इतना बड़ा देश है, हम ऐसा कर ही नहीं सकते। पर गुणवत्ता के उत्पादनों को ‘वाजिब दाम’ में बाजार में लाकर हम देशी और विदेशी कम्पनियों को चुनौती दे रहे हैं। उन्हें दाम कम करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इसलिए वे मानते हैं कि बाबा रामदेव का इन उत्पादनों के समर्थन में जनता को सम्बोधित करना एक आम मार्केटिंग का शगूफा नहीं है, बल्कि उनके राष्ट्र निर्माण अभियान का एक और कदम है। वे यह भी दावा करते हैं कि अगर देशभर में फैले छोटे निर्माता उनसे तकनीकि सीखकर इन औषधियों और प्रसाधनों का उत्पादन करना चाहें, तो वे इसे सहर्ष बांटने के लिए तैयार हैं।
यह बात दूसरी है कि बाबा के आलोचक बाबा के इस पूरे कार्यक्रम को धर्म की आड़ में चल रहे व्यापार की संज्ञा देते हैं। सीपीएम नेता वृंदा करात और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के बाबा पर होने वाले हमलों को छोड़ भी दें तो भी देश के अनेक धर्माचार्य रामदेव बाबा को धंधेबाज बताते हैं। जबकि रामदेव बाबा का कहना है कि वे भारत के सनातन ज्ञान को मार्केटिंग का पैकेज बनाकर इस लिए चल रहे हैं ताकि राष्ट्र निर्माण के उनके अभियान में उन्हें साधनों के लिए पूंजीपतियों या राजनैतिक दलों के आगे हाथ न फैलाना पड़े। उनका मानना है कि इन लोगों पर अपनी आर्थिक निर्भरता सौंपने के कारण ही हमारी राजनीति इतनी कलुषित हो गई है। जिनके मतों से राजनेता चुने जाते हैं, उनसे ज्यादा उन्हें उन लोगों की चिंता होती है, जिनकी आर्थिक मदद से वे चुनाव लड़ते हैं। इसलिए वे आर्थिक आत्मनिर्भरता के साथ राष्ट्रनिर्माण का आन्दोलन चलाना चाहते हैं। वे उदाहरण देते हैं महात्मा गांधी के स्वराज कोष का, जो गांधी जी ने राष्ट्रीय राजनीति में कूदते ही स्थापित किया था। पर बाबा के आलोचक इससे सहमत नहीं हैं। वे आरोप लगाते हैं कि गांधी जी की तरह बाबा इस कारोबार के संचालन से अनासक्त नहीं हैं। इसलिए उन्होंने अपने मुठ्ठीभर चहेतों के हाथ में सारा कारोबार सौंप रखा है। यह रवैया गैर लोकतांत्रिक है और अधिनायकवादी है। अपनी सफाई में बाबा इस आरोप से भी पल्ला झाड़ लेते हैं। उनका कहना है कि दूसरों के अनुभव से सीखकर वे नहीं चाहते कि उनकी योजनाओं को भी निहित स्वार्थ घुसपैठिया बनकर धराशायी कर दें। जिसके हाथ में तिजोरी की चाबी होती है, ताकत भी उसी के पास होती है। इसलिए बाबा अपने आर्थिक और योग के साम्राज्य को अपनी मुठ्ठी में बन्द रखना चाहते हैं।
जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि बाबा रामदेव ने गत् चार-पांच वर्षों से हिन्दुस्तान की राजनीति में तूफान मचा दिया है। उन पर जितना सरकारी हमला तेज होता है, उतना ही वे और भड़कते हैं और बार-बार अपने अनुयायियों से एक बड़े आन्दोलन के लिए तैयार रहने को कहते हैं। जो उनकी घोषणा के अनुसार जल्द ही देश में शुरू होने वाला है। सोचने वाली बात यह है कि तमाम विरोधाभासों के बावजूद क्या बाबा रामदेव को सिर्फ इसलिए दरकिनार किया जा सकता है कि वे केसरिया कपड़े पहनते हैं? या वे योग और आयुर्वेद को एक कॉरपोरशन की तरह चलाते हैं? या फिर उनके उत्साह और ऊर्जा का भी मूल्यांकन किया जाए, जो वे अपने अभियान के लिए लगातार जनता के बीच में झोंके हुए हैं? बाबा रामदेव के जीवन का लक्ष्य सत्ता हासिल करना हो या राष्ट्र का निर्माण, वो पूरे जीवट से जुटे हैं और यही उनके व्यक्तित्व के आकर्षक या विवादास्पद होने का कारण है। बाबा रामदेव जैसे व्यक्तित्वों का सही मूल्यांकन शायद राजनीतिक जमात या मीडिया नहीं कर सकता। यह काम तो शायद जनता करेगी। जिनपर उनका प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए बाबा को भी हर कदम खूब सोच-विचार कर उठाना चाहिए।

Monday, April 2, 2012

उत्तर प्रदेश में नई बयार

पाँच साल से एक किस्म के अघोषित आतंक में जी रही उत्तर प्रदेश की नौकरशाही बदले परिवेश में ज्यादा काम करने को उत्साहित है। विवादों में फंसने से बचने के लिए नाम न छापने की शर्त के साथ उत्तर प्रदेश के अनेक वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव राग-द्वेष से मुक्त होकर, अधिकारियों की क्षमता और गुणों के अनुसार, जिम्मेदारियाँ सौंप रहे हैं। बहिन जी के शासनकाल में जिन अधिकारियों ने भी अच्छा काम किया था, उन्हें अपने पदों पर रहने दिया गया है या ज्यादा जिम्मेदारी देकर उनका कद बढ़ाया है। मतलब यह कि अगर आप काम से कार्य रखते हैं तो आप मौजूदा मुख्यमंत्री के पसन्दीदा व्यक्ति हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप उनकी पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के चहेते थे या नहीं। हाल ही में प्रदेश के पुलिस अधिकारियों की सूची जारी हुई। उत्तर प्रदेश में प्रायः जिलों के स्तर पर कुछ ऐसे पुलिस अधिकारियों को तैनात किया जाता रहा है, जो मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र हों और उनके राजनैतिक एजेण्डा को आगे बढ़ाऐं। जबकि इस बार अखिलेश यादव का प्रयास शायद उस माहौल को बनाने का है, जिसमें आम जनता का विश्वास पुलिस पर व अपने थानों पर फिर से कायम हो।
लखनऊ में मुख्यमंत्री आवास कालीदास मार्ग पर स्थित है। इस मार्ग पर गत् 5 वर्षों से सामान्यजन और यातायात की आवाजाही प्रतिबन्धित थी। अखिलेश ने उसे सर्वसाधारण के लिए खोल दिया है। 4-5 चहेते अधिकारियों के अलावा बहिन जी किसी को भी अपने आवास में आने नहीं देती थीं। मीडिया और जनता की तो और भी हालत खराब थी। पर अब मुख्यमंत्री के घर मिलने वाले आम लोगों की लम्बी कतारें लगी हैं। जिससे प्रदेश की जनता में एक नई आशा जगी है। उल्लेखनीय है कि बसपा की हार के लिए एक कारण बहिन जी का एकांतवास भी बताया जा रहा है। वे किसी से मिलना पसन्द नहीं करती थीं।
अखिलेश यादव के सहज व मिलनसार स्वभाव को राजनैतिक विश्लेषक उनके व्यक्तित्व की कमजोरी या अनुभवहीनता बता रहे हैं। जबकि अखिलेश का यही गुण उनकी विजय का कारण बना। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर भी अखिलेश हर आने वाले से गर्मजोशी से मिल रहे हैं। जिसका बहुत अच्छा सन्देश प्रदेश में जा रहा है। दूसरी तरफ अखिलेश यादव के कुछ राजनैतिक निर्णयों की एक वर्ग द्वारा आलोचना भी की गई है। पर साथ ही ऐसा मानने वालांे की कमी नहीं कि बहुमत में होने के बावजूद अखिलेश सारे निर्णय स्वंय लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। राजनैतिक दबाव के कारण उन्हें कई निर्णय अपने मन के विरूद्ध भी लेने पड़े हैं।
देश-विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अखिलेश यादव की समझ काफी विकसित हुई है। वे हर प्रस्ताव और मुद्दे को वैज्ञानिक दृष्टि और तर्कों के आधार पर समझने का प्रयास करते हैं। 
बेरोजगारी भत्ता देने की अखिलेश की योजना को उनके आलोचक एक जल्दी में लिया गया अव्यवहारिक कदम बता रहे हैं। जबकि देश में फैली भारी बेरोजगारी का हल ढूंढे बिना युवाओं को अपने हाल पर छोड़ देने से अराजकता बढ़ रही है। बेरोजगारी भत्ता उन्हें उम्र के इस नाजुक मोड़ पर टॉनिक का काम करेगा। देश की अर्थव्यवस्था को देखते हुए, इन विपरीत परिस्थितियों में, अखिलेश यादव का यह कदम साहसी माना जाऐगा। केवल यह ध्यान रखना होगा कि इस योजना का दुरूपयोग करने की मंशा रखने वाले सफल न हों।
प्रदेश की कमजोर माली हालत को उबारने के लिए भी कुछ साहसिक कदम उठाने पड़ेंगे। विशेषज्ञों का मानना है कि विकास प्राधिकरणों से लेकर ऐसे 26 विभाग हैं, जो प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भार बने हुए हैं। इन विभागों से जनता को लाभ कम और तकलीफ ज्यादा है। विकास के नाम पर इन्होंने नगरों का विनाश करने का काम किया है। अगर इन विभागों को बन्द कर दिया जाए तो उत्तर प्रदेश सरकार को कई हजार करोड़ का सालाना फायदा होगा। वैसे भी ये विभाग लालफीताशाही और भ्रष्टाचार के अड्डे बने हुए हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि जहाँ एक तरफ युवा मुख्यमंत्री के मन में कुछ कर गुजरने का अदम्य उत्साह है, वहीं प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, और प्रशासनिक व्यवस्था उन्हें नाकाम करने में तब तक जुटी रहेगी, जब तक मुख्यमंत्री इन लोगों को इनकी सही जगह नहीं दिखा देते। उत्तर प्रदेश ने लम्बे समय से कोई विकास नहीं देखा। प्रदेश की जनता अब प्रदेश का विकास तेजी से होते हुए देखना चाहती है। अखिलेश यादव को नीतिश कुमार, शीला दीक्षित व नरेन्द्र मोदी के कुछ सफल प्रयोगों को अपनाने में गुरेज नहीं करना चाहिए। क्योंकि इनकी कार्यशैली ने इन्हें दो-तीन बार लगातार मुख्यमंत्री बनाया है। इसके लिए सबसे बड़ी बात यह है कि विचारों और सलाह लेने का काम नौकरशाही के साथ ही विशेषज्ञों और अनुभवी लोगों से लिया जाए। 

Sunday, March 25, 2012

ये कैसा रामराज्य ?

पिछले पूरे वर्ष तारसप्तक में सरकार के खिलाफ अलाप लेने वाली भाजपा का सुर बिगड़ गया है। गुजरात और कर्नाटक में उसके विधायक विधानसभा सत्र के बीच पोर्नोग्राफी (अश्लील फिल्में) देखते पाए गये। लोगों को यह जानने की उत्सुकता है कि क्या यह विधायक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के प्रशिक्षित कार्यकर्ता रहे हैं या नहीं?
तमाम विवादों के बावजूद बमुश्किल मुख्यमंत्री के पद से हटाए गए येदुरप्पा लगातार अपने दल के राष्ट्रीय नेतृत्व को धमका रहे हैं कि उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया जाऐ वर्ना भाजपा का दक्षिण भारत में एक मात्र किला भी ढहा देंगे। कर्नाटक के उपचुनाव में भाजपा का लोकसभा उम्मीदवार हार गया है और जीत हुई है कांगे्रस के प्रत्याशी की। इसी तरह नरेन्द्र मोदी के गढ़ में भी कांग्रेस के उम्मीदवार का विधानसभा चुनाव में जीतना भाजपा के लिए खतरे की घण्टी बजा रहा है। उधर अप्रवासी भारतीय अंशुमान मिश्रा की झारखण्ड से राज्यसभा की उम्मीदवारी रद्द होना भाजपा को भारी पड़ गया है। एक तरफ तो यशवंत सिन्हा जैसे नेताओं का भारी विरोध और दूसरी तरफ अंशुमान मिश्रा का भाजपा नेताओं पर सीधा हमला, इस स्वघोषित राष्ट्रवादी दल की पूरी दुनिया में किरकिरी कर रहा है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा को काफी उम्मीद थी कि उसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या में प्रभावशाली वृद्धि होगी और वे बहिन मायावती के साथ सरकार बनाने में सफल होंगे। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के चुनाव में भाजपा ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया। उमा भारती जैसी तेज-तर्रार नेता को भी मैदान में उतारा। बाबा रामदेव का भी दामन पकड़ा। अन्ना हजारे के आन्दोलन को भी भुनाने की कोशिश की। पर इन दोनों ही राज्यों में उसे भारी पराजय का मुँह देखना पड़ा। मतलब यह कि मतदाता टीम अन्ना या भाजपा से प्रभावित नहीं हुए।
उधर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी के बीच तनातनी जगजाहिर है। नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी संजय जोशी को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी के उत्तर भारत में लॉन्च होने पर रोक लगा दी। मोदी अपने दल के स्टार कैम्पेनर होने के बावजूद उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रचार करने नहीं आए।
लोकपाल विधेयक और भ्रष्टाचार के मामले में भी भाजपा का रवैया दोहरा रहा। टीम अन्ना और बाबा रामदेव को भाजपा लगातार यह संकेत देती रही कि वह उनके साथ है। पर संसद के पटल पर उसकी भूमिका उलझाऊ ज्यादा, समाधान की तरफ कम थी।
पिछले हफ्ते भी भाजपा के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो गई। डा. राम मनोहर लोहिया के जन्मदिवस पर आयोजित विषाल रैली में सपा के राश्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जब मध्यावधि चुनाव की सम्भावना व्यक्त की तो भाजपा ने अपना पारम्परिक उत्साह बिल्कुल नहीं दिखाया। पिछले दिनों के हालात अगर इतने विपरीत न होते तो अब तक भाजपा ने एन.डी.ए. का तानाबाना बुनने का काम शुरू कर दिया होता।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को प्रभावशाली परिणाम न मिलने के बाद भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने एन.डी.ए. के घटकों की बैठक शुरू कर दी थी। पर उनके ही सहयोगी दलों ने मध्यावधि चुनाव की मांग का विरोध कर इस विषय को उठने से पहले ही समाप्त कर दिया। अब इन हालातों में भाजपा कैसे मध्यावधि चुनावों की सोच सकती है जबकि उसे पता है कि दिल्ली की गद्दी मिलना उसके लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है? ऐसे में मध्यावधि चुनाव का जोखिम उठाकर वह अपनी रही-सही ताकत भी कम नहीं करना चाहती।
सवाल उठता है कि भाजपा की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है? हमने पिछले हफ्ते भी कांग्रेस के सम्बन्ध में भी इसी तरह के सवाल उठाए थे। वही सवाल आज भाजपा के संदर्भ में भी सार्थक हैं। दलों के बीच आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव में और सही स्थानीय नेतृत्व को लगातार दबाने के कारण भाजपा की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी की तरह भाजपा भी अपने बूढ़े हो चुके नेतृत्व को सेवामुक्त करने को तैयार नहीं है। इससे उसके युवा कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश है। इसी कारण भाजपा के हर नेता की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी है कि वहाँ हर आदमी प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहा है। भाजपा जरूर यह सफाई देती है कि यह उसके दल की विशेषता है कि उसके पास प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के लिए कई लोग तैयार हैं, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं है। पर असलियत यह है कि भाजपा के यह नेता प्रधानमंत्री बनने के योग्य हों न हों, उस पद के दावेदार जरूर बन गए हैं। इसलिए इस दल में नेतृत्व और अनुशासन दोनों कमजोर पड़ चुके हैं।
देश और विदेश में रहने वाले अनेक हिन्दूवादी भारतीय चाहते रहे हैं कि भाजपा आगे बढ़े और देश और संस्कृति की रक्षा करे। पर असलियत यह है कि भजपा के नेताओं को संस्कृति की रक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण दूसरे कई काम हैं। जिनमें वे उलझे रहते हैं। ऐसे माहौल में श्री श्री रविशंकर हों या बाबा रामदेव, सब नए राजनैतिक संगठनों को खड़ा कर राजनीति में दखलअंदाजी करना चाहते हैं। इससे यह साफ है कि एक स्वस्थ्य विपक्ष होने की जो भूमिका भाजपा निभा सकती थी, उसे निभाने की भी शक्ति अब उसमें नहीं बची है। ऐसे में यह सोचना असम्भव नहीं कि 2014 तक केन्द्रीय सरकार इसी तरह चलती रहेगा और भाजपा अपने अन्दरूनी झगड़ों में उलझती जाऐगी।

Sunday, March 18, 2012

समय बरबाद कर रहे हैं नेतृत्व और चिंतक

संसद और टी.वी. की बहस को देखकर क्या आपको लगता है कि हमारा राजनैतिक नेतृत्व और बुद्धिजीवी देश की समस्याओं के समाधान की तरफ आगे बढ़ रहे हैं या हम फिजूल की नोंक-झोंक में कीमती समय बरबाद कर रहे हैं ? देश में पैदा हो रहे इन हालातों के लिये पक्ष और विपक्ष दोनों ही समान रूप से जिम्मेदार हैं। जहाँ काँग्रेस नेतृत्व अपने लम्बे अनुभव के बावजूद विपक्ष और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पा रहा, वहीं विपक्ष और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के खिलाफ हर मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा शोर मचाकर लोगों में हताशा पैदा कर रहा है।
सात फीसदी की आर्थिक विकास दर को हासिल करने का लक्ष्य लेकर प्रणव मुखर्जी ने जो बजट प्रस्तुत किया, वह ‘हैण्डस अप बजट’ था। यानि सरकार ने यह तय कर लिया कि मौजूदा राजनैतिक, आर्थिक हालात में वह कोई दखलंदाजी नहीं करेगी। क्योंकि ऐसा करने पर विपक्ष के भड़कने का पूरा खतरा था। दूसरी तरफ कड़े कदम से मतदाताओं के बीच आक्रोश पैदा हो सकता था। जो 2014 के लोकसभा चुनावों के लिये घातक होता। वैसे इस सरकार के पास बजट प्रस्तुत करने का एक मौका फिर 2013 में आयेगा, लेकिन उसने अभी से हथियार डाल दिये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मंदी की आहट को ध्यान में रखकर कुछ कदम भले ही उठाये गये हों, पर इस बजट को कामचलाऊ बजट से ज्यादा कुछ नहीं का जा सकता।
काँग्रेस अपनी इस हालत के लिये कहाँ तक जिम्मेदार है ? उत्तरांचल को लीजिये। हरीश रावत को मुख्यमंत्री न बनाने के पीछे किसका दिमाग काम कर रहा है ? जिस आदमी ने उत्तरांचल में काँग्रेस को खड़ा किया उसे तो 2002 में ही मुख्यमंत्री बना देना चाहिये था। पर ऐसा नहीं हुआ। अबकी बार फिर रावत के साथ धोखा हुआ। पंजाब और उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की आशा के विपरीत परिणाम  आने के बाद उत्तरांचल ने कुछ आंसू पोंछे थे। पर इस नाटक ने वहाँ भी काँग्रेस की छवि खराब करने का काम किया हैं।  नेतृत्व को सोचना होगा कि पुराने रवैये से अब महत्वाकांक्षी जनता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें तो मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि राहुल गांधी फेल हो गये। आखिर 11 फीसदी मत कांग्रेस को मिला है। उस राज्य में जहां गांव कस्बे और जिले स्तर पर कांग्रेस के नेताओं का चेहरा गायब हो चुका था। संगठन के नाम पर कुछ भी नहीं है। कार्यकर्ता जैसी कोई चीज वहां नहीं हैं प्रदेश का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में नहीं है जो आम आदमी व खासकर युवाओं को आश्वस्त कर सकें। जिसके पास सोच, क्षमता और आत्मविश्वास है। सब कुछ इतना लचर पचर था, फिर क्यों नेतृत्व ने इसे संजीदगी से सुधारा नहीं ? सुल्तानपुर रायबरेली के चुनाव परिणामों ने यह जता दिया कि केवल चुनावी उत्सवों पर दर्शन देने से जनता नेताओं को स्वीकार नहीं करेगी। अब जनता को अपने बीच में से उठने वाले नेता चाहियें। जिनसे उनका सम्वाद बना रहे। क्या श्रीमती सोनिया गांधी ने या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कुछ संकेत दिये हैं, जिनसे यह पता चले कि उनके दरबार में गंभीर और अनुभवी लोगों के सद्विचार सुनने का रास्ता खुला है ? 8-10 चुने हुए सम्पादकों से बात करना और समर्पित बुद्धजीवियों के विचार जानना सम्वाद नहीं कहा जा सकता। छोटे-छोटे लाभ के लालच में सत्ता के इर्द-गिर्द मंडराने वाले लोग न तो जनता की नब्ज पर उंगली रख पाते हैं और न ही नेतृत्व को सही राय दे पाते हैं। पर दुर्भाग्य से आज दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में यही संस्कृति प्रचलित हो गयी है। इसलिये दोनों क्षेत्रीय स्तर पर पिट रहे है। ंनतीजन नीतिश कुमार, प्रकाश सिंह बादल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी व जयललिता जैसे नेता सफलता के नये झण्डे गाड़ रहे हैं। इसलिये इन दोनों ही दलों को अपनी कार्यशैली में भारी बदलाव लाना होगा।
आज अगर भाजपा सशक्त और आश्वस्त होती तो मध्यावधि चुनाव करवा सकती थी। पर उसे पता है कि उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी ही है। इसलिये सरकार के विरूद्ध शोर चाहें जितना भी मचाये, सरकार गिराने का कोई इरादा नहीं है। इसलिये मध्यावधि चुनाव की कोई संभावना दिखायी नहीं देती। क्षेत्रीय दलों के सांसद भी समय से पहले चुनावों के खिलाफ हैं। हां यह जरूर है कि क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से केन्द्र सरकार कमजोर हुई है। कभी ममता बनर्जी, कभी करूणानिधि, कभी मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अब सरकार को अपनी शर्तों पर झुकाते रहेंगे और इनकी शर्तें मानना सरकार की मजबूरी होगी।
पर विपरीत परिस्थिति में जो अपना रास्ता बना ले उसे ही नेता कहा जाता है। देश के इस राजनैतिक माहौल में हर उस नेता को और उनसे जुड़े बुद्धजीवियों को आत्मचिंतन करना चाहिये कि हम समस्या का पोस्टमार्टम करते रहेंगे या मरीज का इलाज भी करेंगे। जरूरत इस बात की है कि हम समस्या का कारण न बनें, समाधान बनें। क्योंकि हमारा देश आज भी काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के शिकंजे से बचा हुआ है। इसलिये हमारे उठ खड़े होने की संभावना उन देशों से ज्यादा है जिनका नेतृत्व और अर्थव्यवस्थायें बाहरी शक्तियों के आगे समर्पित हैं। युवाओं की बढ़ती तादाद और महत्वाकांक्षा किसी भी दल या नेता के साथ हमेशा खड़ी रहने वाली नहीं हैं। चांहे वो अखिलेश यादव हों या सुखविन्दर सिंह बादल। इन्हें कुछ मिलेगा तो ये साथ खड़े रहेंगे। नहीं मिलेगा तो ये विरोध में ही नहीं जायेंगे बल्कि सड़कों पर भी उतर आयेंगे। वह भयावह स्थिति होगी। जिससे हमें बचना है और मजबूती और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ना है।

Sunday, March 11, 2012

अखिलेश यादव की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरूप देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर 38 वर्ष के अखिलेश यादव की ताजपोशी हो रही है। जिस वक्त चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस वक्त एक अंग्रेजी टी वी चैनल पर पंजाब के मुख्यमंत्री के सुपुत्र सुखवीर सिंह बादल और अखिलेश यादव से बरखा दत्त साथ-साथ चर्चा कर रही थीं। सुखवीर ने अखिलेश को सलाह दी कि अगर उत्तर प्रदेश को तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे ले जाना है तो उन्हें भी विकास कार्यों को पंजाब की ही तरह ‘पीपीपी मोड’ में जाना होगा। अखिलेश के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण सलाह है। क्योंकि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। लोगों ने मत जात-पात पर नहीं, विकास के नाम पर दिया है। नौकरशाहों की लाल फीताशाही और निहित स्वार्थों की राजनैतिक दखलंदाजी विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
उत्तर प्रदेश के नगरों का आधारभूत ढांचा चरमरा गया है। अवैध निर्माण, उफनती नालियाँ, कूड़े के पहाड़ और विकास प्राधिकरणों की भू-माफियागिरी ने प्रदेश के नगरों को एक विद्रूप चेहरा दे दिया है। शहर के चुनिंदा पैसे वाले और नौकरशाहों को छोड़कर बाकी लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश के कई राज्यों में इस समस्या का हल जनता की भागीदारी और सक्षम निजी संस्थाओं के सहयोग से किया गया है। जिन मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य के स्वरूप को सजाने की इस पहल में निजी रूचि और उत्साह दिखाया है वे बार-बार जीत कर लौटे हैं।
उत्तर प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से आगरा, ब्रज, वाराणसी, सारनाथ आदि जैसे क्षेत्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था में तेजी से इजाफा कर सकते हैं। क्योंकि मौरिशिय्स, थाईलेंड, सिंगापुर, बाली जैसे तमाम देश केवल पर्यटन के सहारे अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं को मजबूत बनाये हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश में इस दिशा में सही समझ और ईमानदार कोशिश के अभाव में सारी योजनाऐं कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाती हैं। जिसमें अखिलेश को क्रान्तिकारी परिवर्तन करना होगा।
गुण्डाराज की बात हर मीडिया पर की जा रही है। मैंने कई चैनलों पर ये कहा है कि अगर अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव और चाचा जैसे मौहम्मद आजम गुण्डाराज को दस्तक देने से पहले ही रोकने में सफल नहीं होते तो 2014 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को मुँह की खानी पड़ सकती है। अखिलेश युवा हैं, उत्साही हैं, विनम्र हैं और कुछ करना चाहते हैं। पर प्रान्त के अराजक तत्वों को रोकने का काम भी अगर उनके कंधों पर डाल दिया जायेगा तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिये यह काम तो अखिलेश के पिता और इन चाचाओं को करना होगा। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को इसी तरह दोबारा सत्ता सौंपने में उत्तर प्रदेश की जनता को गुरेज नहीं होगा।
प्रदेश के शासन की रीढ़ होते हैं नौकरशाह। अगर जिले में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक मुख्यमंत्री के लिये धन उगाही के एजेंट बनाकर भेजे जाते हैं और जल्दी-जल्दी ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाते हैं तो अखिलेश यादव की सरकार जनता की नजरों में गिर जायेगी। अगर ये ही दो अधिकारी ईमानदार, कड़क लेकिन जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होंगे तो अखिलेश यादव की सरकार लोकप्रियता के झण्डे गाड़ देगी।
मुख्यमंत्री सचिवालय अकुशल और निकम्मे सचिवों का जमावड़ा न होकर अगर ऐसे अधिकारियों को तरजीह देगा जो रचनात्मकें, परिणाम लाने वाले, जोखिम उठाकर भी गैर-पारंपरिक निर्णय लेने वाले और लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध क्रियान्वन करने वाले हों तो पूरे उत्तर प्रदेश को दिशा और गति दोनों मिलेगी।
प्रदेश के देहातों में बेरोजगारी, बिजली-पानी सबसे बड़ी समस्या है। पर इनका निदान केवल राजनैतिक बयानबाजी के तौर पर किया जाता है। जबकि देश में कई ऐसे सफल माॅडल हैं जहाँ किसान-मजदूर को बिना ज्यादा बाहरी मदद के सुखी बनाने के सफल प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि ऐसे मॉडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं होती, इसलिये वे हुक्मरानों को पसंद नहीं आते। पर अब चुनाव का स्वरूप इतना बदल चुका है कि कोरे वायदों से आम मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। गाँव की समस्याओं के हल के लिये ठोस काम की जरूरत है। अखिलेश को लीक से हटकर देखना होगा।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व जब न तो ई-मेल, एस.एम.एस. थे और न ही फैक्स या फोन तब भी मगध का साम्राज्य चलाने वाले महान सम्राट अशोक मौर्य ने अफगानिस्तान से असम और कश्मीर से तमिलनाडु तक के भू-भाग को बड़ी संजीदगी से संचालित किया और यश कमाया। क्योंकि वे वेश बदल कर खुद और अपने दूतों को साम्राज्य के हर हिस्से में भेजकर अपने कामों के बारे में जनता की राय गोपनीय तरीके से मँगवाया करते थे। जहाँ से विरोध के स्वर सुनायी देते वहाँ समस्या का हल ढूँढ़ने में फुर्ती दिखाते थे। अखिलेश यादव को पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के अनुभव से यह सीखना चाहिये कि अपने चारों ओर चहेतों और सलाहकारों की दीवार मुख्यमंत्री को अन्धा और बहरा बना देती है। राहुल गाँधी ने मेहनत कम नहीं की पर अखिलेश का सहज सामान्य जन से संवाद उन्हें आज इस मुकाम तक ले आया। अपनी इस ताकत को खोना नहीं संजोना है।
भगवान कृष्ण के यदुवंश में जन्म लेने वाले अखिलेश यादव के कार्य काल में अगर ब्रज विश्व का सबसे सुन्दर तीर्थ क्षेत्र न बना तो अखिलेश का जन्म निरर्थक रहेगा। बसपा, संघ और इंका की विशाल सेनाओं के सामने अखिलेश यादव ने अपने युद्ध कौशल से इस महाभारत को जीतकर भगवान कृष्ण के वंशज होने का प्रमाण दिया है। अगर अखिलेश में सही सलाह को समझने और जीवन में उतारने की क्षमता होगी तो उत्तर प्रदेश को वे विकास और सुख-समृद्धि के रास्ते पर ले चलने में कामयाब हो पायेंगे।

Sunday, March 4, 2012

उत्तर प्रदेश में एक अपूर्व असमंजस

ऐसा पहली बार हुआ है कि पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों को लेकर राजनैतिक पण्डित अटकल तक नहीं लगा पा रहे हैं। यह बात अलग है कि इससे पहले जब-जब इन पण्डितों ने अपनी अटकलें लगायीं, वे कभी ठीक नहीं निकलीं। हाँ पहले यह जरूर हुआ करता था कि अलग-अलग चुनाव विश्लेषक मतदान से पहले अपने-अपने ओपिनियन पोल के जरिये किसी पार्टी विशेष के लिये माहौल बनाने का काम किया करते थे और उसका असर भी पड़ जाया करता था। लेकिन इस बार चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन पोल पर लगायी गयी पाबन्दी से यह रोग नहीं दिखा और अनापेक्षित स्थिति बन नही पायी।
पिछले चार महीनों में विभिन्न राष्ट्रीय दलों और प्रादेशिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों में भी कोई नयी बात नजर नहीं आयी। सिर्फ यह जरूर दिखा कि पाँच राज्यों में जिस तरह से शान्तिपूर्ण ढंग से चुनाव निपटे हैं, उसमें चुनाव आयोग की मुस्तैदी में नयापन था। इस दौरान हिंसा नहीं हुई और मतदान के दौरान गड़बड़ियों की घटनायें भी नगण्य रहीं।
मणिपुर, पंजाब और उत्तराखण्ड में मतदान पहले ही निपट चुके हैं और उनके बारे में अटकलें और विश्लेषण भी मीडिया में खूब आ चुके हैं। आखिर में उत्तर प्रदेश और गोवा में मतदान हुआ है। अपने आकार के कारण उत्तर प्रदेश को लेकर लोगों में कौतुहल कुछ ज्यादा ही रहा।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार को लेकर एक रोचक तथ्य यह रहा कि मतदान के एक हफ्ते पहले तक मीडिया ने चार प्रमुख दलों - बसपा, सपा, भाजपा और काँग्रेस को नम्बरवार लगाने की कोशिश की। आम तौर पर मध्यस्थता में व्यस्त रहने वाले मीडिया ने सबसे पहला काम यह किया कि दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों - काँग्रेस और भाजपा के बीच तीसरे और चैथे नम्बर के लिये लड़ाई की बात प्रचारित करनी शुरू की। यह प्रचार इतनी तीव्रता के साथ किया गया कि माहौल बसपा और सपा के बीच लड़ाई तक सिमट गया। और जब काँग्रेस के लिये राहुल गाँधी के व्यवस्थित चुनाव प्रचार ने असर दिखान शुरू किया तो उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के मतदान के बाद से ही यह बात सामने आने लगी कि सीटों के लिहाज से स्थिति कुछ भी रहे, लेकिन मत प्रतिशत के लिहाज से काँग्रेस अच्छा प्रदर्शन करेगी।
उधर दो प्रमुख प्रादेशिक दलों - बसपा और सपा की लड़ाई में यह माहौल बनाया गया कि बसपा के खिलाफ सत्तारूढ़ दल के विरोध में होने वाला स्वाभाविक विरोध काम कर रहा है। ऐसे ही प्रचार से सपा के पक्ष में एक माहौल बनना शुरू हुआ।
रही बात उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान मुद्दों की - तो उत्तर प्रदेश की जनता की ओर से विकास की बातें ज्यादा की गयीं। इससे ऐसा माहौल बना कि लोग धर्म और जाति के दायरे से बाहर आ कर सोचना शुरू कर रहे हैं। पर यह ज्यादा दिन चला नहीं। आखिर, आखिर में मुस्लिम वोट बैंक को लेकर मीडिया ने माहौल बना ही दिया। हालांकि कुछ यह भी था, कि उत्तर प्रदेश में छठे और सातवें दौर के चुनाव में आबादी के लिहाज से मुस्लिम मतदाता अपेक्षाकृत ज्यादा थे। लेकिन मुस्लिम ध्रुवीकरण की स्थिति बनती नहीं दिखी और यह संकेत आये कि बिखराव के कारण धर्म-आधारित कारक काम नहीं करेगा।
यानि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में पर्याप्त तथ्यों का अभाव है। राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार अभियानों से भी कुछ नहीं भाँपा जा सकता। इस स्थिति में अगर सामान्य निरीक्षण की पद्धति अपनायी जाये तो लोग यह कहते पाये जा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। दूसरी बात यह कि सबसे बड़े दल के रूप में बसपा और सपा में से कोई होगा। तीसरी बात यह कि सपा और बसपा कुल 403 सीटों में कोई 70 फीसदी सीटें ले जायेंगे। काँग्रेस और भाजपा के पास कुल सीटों की 25 फीसदी सीटें आने की अटकल है।
यदि ऐसा होता है तो सरकार बनाने के लिये गठबंधन की कवायद शुरू हो जायेगी। इस सिलसिले में अगर चुनाव प्रचार के दौरान कही गयी बातों पर गौर करें तो काँग्रेस के कुछ नेताओं के बयान महत्वपूर्ण हो जायेंगे। यानि एक स्थिति यह बनती है कि नयी सरकार में काँग्रेस का समर्थन अपरिहार्य हो जायेगा। काँग्रेस का वह बयान महत्वपूर्ण हो जायेगा कि अगर जीते तो वे खुद ही सरकार बनायेंगे वरना किसी को समर्थन नहीं देना चाहेंगे। यानि तब विकल्प किसी की भी सरकार नहीं बन पाने यानि राष्ट्रपति शासन का होगा। तब यह देखना होगा कि काँग्रेस के अलावा दूसरे दल क्या रूख अख्तियार करते हैं और कितना समझौता करते हैं।
लेकिन अगर-मगर के साथ ये सारी बातें तब फिजूल हो जायेंगी जब पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश के मतदता ने भी ये सारे अगर-मगर देख लिये थे। यानि जनता के सामूहिक निर्णय की प्रतिभा को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि चुनाव नतीजों के बाद हमें मतदाता के मन का विश्लेषण करने का भी मौका मिलेगा। यह पहले भी होता आया है। नब्बे के दशक में क्षेत्रीय दलों के उद्भव के बाद खण्डित जनादेश की स्थितियाँ कई बार बनी हैं। धीरे-धीरे गठबंधन की राजनीति को स्वीकार भी किया जा चुका है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे गठबंधन की राजनीति का कोई बिल्कुल नया आयाम पेश कर सकते हैं।

Tuesday, February 28, 2012

रामलीला मैदान से सबक

4/5 जून 2010 की रात को दिल्ली के रामलीला ग्राउण्ड में सो रहे बाबा रामदेव के भक्तों पर दिल्ली पुलिस के बर्बरतापूर्ण हमले की सर्वोच्च अदालत ने भत्र्सना की है। अदालत ने निहत्थे लोगों पर इस तरह से जुल्म ढाने के लिये दिल्ली पुलिस पर जुर्माना भी किया है। पर साथ ही बाबा रामदेव पर भी इस हादसे के लिये 25 फीसदी जुर्माना देने का आदेश दिया है। अदालत के इस फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। सबसे पहली बात तो यह है कि अब केन्द्र और प्रान्तों की पुलिस सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को कानून बताकर जन-आन्दोलनों को हतोत्साहित करने का काम करेगी। अब पुलिस तर्क देगी कि अगर हमने आपको धरने या प्रदर्शन की अनुमति दे दी तो किसी अप्रिय घटना के हो जाने पर हमारी फोर्स को सजा भुगतनी पड़ सकती है। इसलिये हम ऐसे हालात पैदा ही नहीं होने देंगे वर्ना हमें जुर्माना भी भरना पड़ सकता है। पर राजनैतिक कार्यकर्ताओं  का विश्वास है कि इस फैसले के बावजूद किसी भी प्रान्त या केन्द्र की सरकार जन-आन्दोलनों को रोक नहीं पायेंगी। क्योंकि लोकतंत्र में जनता की सत्ता सर्वोपरि होती है। दूसरी तरफ पुलिस के आला हाकिमों का यह कहना है कि बाबा रामदेव ने सारी शर्तों का उल्लंघन किया और योग शिविर को राजनैतिक रैली में बदल दिया। जिससे स्थिति बेकाबू हो रही थी। सुबह तक रूकते तो इससे भी ज्यादा खूनखराबा होता है। इसलिये उसने सावधानी बरती और यह कदम उठाया।

राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर बाबा रामदेव में सत्ता का चरित्र समझने की क्षमता होती, जन-आन्दोलनों का अनुभव होता और उनके अनुयायी मात्र योग के विद्यार्थी न होकर सामाजिक आन्दोलनों से जुड़े हुए होते तो बाबा के धरने की इतनी दुर्दशा नहीं होती। इसीलिये अदालत ने बाबा को भी दोषी ठहराया है। इस फैसले से अब यह भी स्पष्ट हो गया कि भविष्य में अराजकता या हिंसा के लिये जन-आन्दोलन करने वालों को भी जिम्मेदार माना जायेगा।

विपक्ष इस पूरे मामले को वोटों के लिये भुनाने को तत्पर है। इसलिये लगातार यह आरोप लगा रहा है कि इतना बड़ा हादसा भारत सरकार के गृहमंत्री के निर्देश के बिना हो ही नहीं सकता। इसलिये गृहमंत्री पी. चिदम्बरम को इस्तीफा देना चाहिये। पर विपक्ष की इस माँग में एक पेच है। अगर गृहमंत्री के आदेश पर दिल्ली पुलिस ने यह काम किया है तो यह भी मानना पड़ेगा कि गुजरात के दंगों में पुलिसिया जुल्म भी नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर हुए, पश्चिमी बंगाल में नक्सलवादियों पर पुलिस का जो जुल्म होता रहा वो सीपीएम सरकार के निर्देश पर हुआ और ब्रज के पर्वतों की रक्षा के लिये भरतपुर के बोलखेड़ा पहाड़ पर धरने पर बैठे साधु-संतों पर जो राजस्थान पुलिस की लाठी-गोली चलीं वो भाजपा सरकार के निर्देश पर हुआ या अयोध्या में कारसेवकों पर पुलिसिया जुल्म मुलायम सिंह यादव ने करवाया।

 मतलब है या तो हम यह मान लें कि राजनीतिक दल सत्ता में आकर अपने अधीन पुलिस का दुरूपयोग करते हैं और अपने विरोध को कुचलते हैं। फिर तो हर पुलिसिया जुल्म के लिये सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिये। ऐसे में सिर्फ अकेले चिदम्बरम ही इस्तीफा क्यों दें ? अब तक देश भर में हुए पुलिसिया जुल्म के लिये दोषी सभी मुख्यमंत्रियों पर कार्यवाही होनी चाहिये। अगर ऐसा नहीं है और पुलिस अपनी समझ के अनुसार निर्णय लेती है तो फिर केवल एक रामलीला ग्राउण्ड की घटना को ही इतना तूल क्यों दिया जाये ? जबकि हकीकत यह है कि भारत की पुलिस चाहें केन्द्र में हो या राज्यों में, आज भी अपने औपनिवेशिक स्वरूप को बदल नहीं पायी है। तकलीफ की बात तो यह है कि पुलिसिया जुल्म पर तो हम शोर मचाते हैं पर पुलिस के सुधार की कोई कोशिश नहीं करना चाहते। 1977 में केन्द्र में बनी पहली गैर-काँग्रेसी सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था। जिसकी सिफारिशें तीन दशकों से धूल खा रही हैं। उन्हें लागू करने की माँग कोई नहीं उठाता। अगर पुलिस आयोग की सिफारिशें लागू हो जायें तो न सिर्फ पुलिस के काम-काज में सुधार आयेगा, बल्कि देश की करोड़ों जनता को पुलिस मित्र जैसी दिखायी देगी, दुश्मन नहीं। 

उधर बाबा रामदेव को भी अपनी रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। वे भ्रष्टाचार और काले धन के विरूद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलाने की बात तो कहते हैं पर राजनीति में उनका व्यवहार निष्पक्ष दिखायी नहीं देता। जबकि आम जनता मानती है कि भ्रष्टाचार के मामले में कोई भी राजनैतिक दल किसी से कम नहीं है। जिसका, जहाँ, जब, जैसा दाँव लगता है, वहीं मलाई खाता है। तो फिर बाबा रामदेव लगातार केवल एक दल के विरूद्ध बोलकर क्या यह सिद्ध करना चाहते हैं कि बाकी के दल सत्यवादी महाराजा हरिश्चन्द्र के पदचिन्हों पर चलते हैं ? क्यूँकि ऐसा नहीं है इसलिये बाबा रामदेव के आन्दोलन की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। बाबा को यदि वास्तव में देश की चिन्ता है तो उन्हें अपनी मान्यतायें और रणनीति दोनों बदलनी होंगी। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का गहरा मतलब है।

Monday, February 20, 2012

राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीति

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधक केन्द्र को लेकर राजनीतिक हलचल शुरू हो गयी है। इस विशेष केन्द्र के जरिये राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित विभिन्न एजेंसियों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गयी है। इन सूचनाओं के जरिये आतंकवाद सम्बन्धी जोखिम के विश्लेषण का काम शुरू होना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह काम हर हफ्ते के सातों दिन, चैबीसों घण्टे, पल-पल होता रहेगा।

मसला यह है कि आतंकवाद से संबन्धित गतिविधियों पर पल-पल की जानकारियां जमा करने की व्यवस्था के खिलाफ देश के कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकजुट होना शुरू हो गये हैं। इस विरोध में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हो गयी हैं।

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधी केन्द्र के विरोध का तर्क इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर दिया है कि आतंकवाद प्रतिरोधी इस केन्द्र के काम-काज से राज्यों के अधिकारों को हड़प लिया जायेगा। उधर केन्द्र सरकार ने ऐसे विरोध को खारिज करते हुए आतंकवादी प्रतिरोधी केन्द्र की स्थापना के लिये प्रतिबद्धता जता दी है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने शनिवार को एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये केन्द्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।

बहरहाल यहाँ यह जानना भी अति आवश्यक है कि एनसीटीसी नाम से इस केन्द्र को बनाने का यह फैसला नया नहीं है। इंटेलीजेंस रिफॉर्म एण्ड टैररिज्म प्रिवेन्शन एक्ट के तहत इसकी स्थापना के लिये प्रेजीडेन्शियल एक्जीक्यूशन ऑर्डर संख्या 13354, अगस्त 2004 में ही जारी हो गया था। इस एक्ट में यह तय किया गया था कि आतंकवाद के खिलाफ साझा योजनायें बनाने व खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिये यह केन्द्र बनेगा और इस केन्द्र के स्टाफ में विभिन्न एजेंसियों के अधिकारी एवं कर्मचारी रखे जायेंगे। पिछले 8 साल से लगातार इस पर काम हो रहा था और अब 500 लोगों के टीम के साथ आगामी 1 मार्च से यह केन्द्र औपचारिक तौर पर अपना काम-काज शुरू करने जा रहा है।

फिर भी मीडिया के लिये यह मामला नया-नया सा दिख रहा है। नया इस लिहाज से, कि पिछले 4-6 दिनों से गैर काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह मीडिया की सुर्खियों में आया है। अलबत्ता शुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता का विषय होने के कारण मीडिया के पास इस बारे में तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। यानि मीडिया के पास गैर-काँग्रसी मुख्यमंत्रियों के एकजुट होने की हलचल के कारण ही यह मुद्दा खबरों में है।

रही बात केन्द्र के स्थापना की उपादेयता की, तो यह तय ही है कि किसी भी समस्या से निपटने (समस्या बनने से पहले और समस्या खड़ी होने के बाद) के लिये तथ्यों/सूचनाओं को जमा करने की और समस्या के उत्तरदायी तथ्यों का अध्ययन करने की जरूरत पड़ती है। समाधान के लिये कारगर योजनायें तब ही बन पाती हैं। यह केन्द्र भी ऐसे ही अपने सीमित उद्देश्यों के साथ बना है। इसका काम आतंकवाद के जोखिम का विश्लेषण करना है और आतंकवाद संबन्धी जानकारियों का देश की विभिन्न सुरक्षा/खुफिया एजेंसियों के बीच आदान-प्रदान हो सके, इसका प्रबन्ध करना है। यानि उपादेयता के लिहाज से ऐसा केन्द्र सुरक्षा तन्त्र में व्यावसायिक कौशल तो बढ़ायेगा ही। मगर फिलहाल यहाँ सवाल इस मुद्दे का तो है ही नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह बना हुआ है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्धों या राज्यों के अधिकार के अतिक्रमण के तर्क के आधार पर 8 गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्री एक साथ आते दिख रहे हैं।

यानि एनसीटीसी को लेकर बहस विशुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता के मुद्दे और राजनीतिक मुद्दे के बीच सीमित हो जायेगी। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अपराध शास्त्रीय विशेषज्ञता के पहलू पर बोलने वालों ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के अलावा कोई बोलता नहीं दिखता। यानि यह बहस केन्द्र सरकार बनाम कुछ राज्य सरकारों के बीच सिमट जायेगी। खास तौर पर जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हों, तब ऐसे मुद्दे सिर्फ राजनीति के ही मुद्दे क्यूँ नहीं बनेंगे ?

अब जो लोग ऐसे विषयों की गंभीरता को समझते हों, उनके दखल की भी दरकार है। लेकिन अफसोस यह है कि किसी भी समस्या से संबन्धित विशेषज्ञों का भी टोटा पड़ा हुआ है। हद यहाँ तक है कि शनिवार को केन्द्रीय गृह सचिव को ही बोलते सुना गया। उनके बयान में भी यही बात थी कि आतंकवाद प्रतिरोधी व्यवस्था के लिये देश की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल की जरूरत है और इसीलिये ऐसे केन्द्र का गठन हुआ है। उनके बयान में यह कहीं नहीं आया कि ऐसे केन्द्र के काम-काज को सुचारू रूप से करने के लिये राज्य सरकारों के प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिये। खैर अभी तो बात शुरू हुई है। होते-होते यह बात भी शुरू होने ही लगेगी कि आतंकवाद की घटनायें होती कहाँ हैं ? कहाँ का मतलब भौगोलिक तौर पर कहाँ होती हैं। बड़ा आसान सा जवाब है कि देश में ऐसा कोई भी भूखण्ड नहीं है जो किसी न किसी राज्य के भूभाग में न हो। यानि घटना किसी न किसी राज्य में ही होती है और उसके तथ्य या सूचना का प्रस्थान बिन्दु वही होता है। जाहिर है कि प्रशासनिक तौर पर राज्यों की भागीदारी के बगैर यह काम हो नहीं सकता।

Sunday, February 12, 2012

हमारी उत्पादकता कैसे बढ़े ?

Rajasthan Patrika 12 Feb 2012
राष्ट्रीय उत्पादकता की जब बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुडा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ जापान जैसा भी देश है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात कर दिया है। सूनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पायेगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहाँ के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिये बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि अगर जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गये। इससे उत्पादन भी नहीं रूका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुँच गयी।

जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आये हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बन्द कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पेंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिये हमारे यहाँ समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिये। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आयें तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारथ है। इसलिये सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमान्त प्रांतों में तस्करी करना हो या अपने गाँब-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फक्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबाँ में नहीं झाँकते।

देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कर्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कर्तव्य भी प्रिय होने चाहियें। वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से करले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिये बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिये पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिये जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाये। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रूपये खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पायेंगे। वैसे भी इस देश की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार की रही है। लोगों की माँग पूरी करने के लिये आज भी देश में संसाधनों की कमी नहीं है। पर किसी की हवस पूरी करने के लिये कभी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। इसलिये रूहानियत या आध्यात्म का, व्यक्ति के तन, मन और जीवन से गहरा नाता है। देश में अन्धविश्वास या बाजारीकरण की जगह अगर आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना होगी तो हम सुखी भी होंगे और सम्पन्न भी।

संत कबीर कह गये हैं ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में, जो सुख पाऊँ राम भजन में वो सुख नाहिं अमीरी में’। बाजार की शक्तियाँ, भारत की इस निहित आध्यात्मिक चेतना को नष्ट करने पर तुली हैं। काल्पनिक माँग का सृजन किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ खींचा जा रहा है। कहा ये जाता है कि माँग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आर्थिक सम्पन्नता आयेगी। पर हो रहा है उल्टा। जितने लोग हैं, उन्हें पश्चिमी देशों जैसी आर्थिक प्रगति करवाने लायक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और ना ही वैसी प्रगति की जरूरत है। इसलिये अपेक्षा और उपलब्धि में खाई बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि हताशा, अराजकता, हिंसा या आत्महत्यायें बढ़ रही हैं। यह कोई तरक्की का लक्षण नहीं। उत्पादकता बढ़े मगर लोगों के बीच आनन्द और संतोष भी बढ़े, तभी इसकी सार्थकता है।

Sunday, February 5, 2012

अब सूरत बदलनी चाहिए

ट्रायल कोर्ट ने डा. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका निरस्त कर दी। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को बड़ी राहत मिली। पर क्या सर्वोंच्च न्यायालय के फैसले के बाद यूपीए सरकार के दामन से टू जी घोटाले का दाग मिट गया ? इस पर दो मत हैं। विपक्ष सरकार की इस दलील से सहमत नहीं कि इस घोटाले के लिये प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल जिम्मेदार नहीं है। जबकि संचार मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को दोषी नहीं माना। केवल आवंटन की नीति को गलत माना है जो राजग ने बनाई थी और ए राजा के तौर-तरीकों को गलत माना है। इसलिए प्रधानमंत्री की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। श्री सिब्बल का यह भी कहना है कि यह फैसले आने के बावजूद सेंसेक्स गिरने की बजाय बढ़ गया। यानि उद्योग जगत को इस फैसले से कोई झटका नहीं लगा। काँग्रेस ने यह भी दावा किया है कि इस फैसले से गठबन्धन की सरकार में आने वाली दिक्कतों से बचने का रास्ता प्रधानमंत्री के लिये साफ हो गया है। उधर डा. स्वामी चुप बैठने वाले नहीं है। वे उच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगे। वहाँ से भी राहत न मिली तो सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे। इस फैसले से निराश हुई भाजपा अब इसे चुनाव प्रचार में ज्यादा नहीं भुना पायेगी।
पर यहीं मेरा विरोध है। कब तक राजनैतिक दल एक-दूसरे पर इसी तरह भ्रष्टाचार के मामलों में हल्ला बोल कर देश को उलझाये रखेंगे। आज यूपीए पर हमला है, कल एनडीए पर ऐसा ही होगा। गठबन्धन की सरकार में शामिल होने वाले क्षेत्रीय दल जिस तरह मंत्रिमंडल में अपने दल के नेताओं को मंत्री बनावाते हैं और उनके लिये महत्वपूर्ण मंत्रालयों की माँग करते हैं, उससे गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है। ए राजा जैसे मंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्देशों की उपेक्षा करते हैं और करूणानिधि से निर्देश लेते हैं। पर विपक्ष इस भेद को अनदेखा कर सीधा प्रधानमंत्री पर तोप दागता है। जो कि स्वाभाविक है। पर क्या तोप दागने से कुछ हासिल होता है ? क्या भ्रष्टाचार रूकता है ? क्या आरोपियों को सजा मिल पाती है ? बोफोर्स, हवाला घोटाला, स्टाम्प ड्यूटी घोटाला, बैंक घोटाला, चारा घोटाला, तहलका काण्ड जैसे कितने ही घोटाले जोर-शोर से सामने आये। पर अन्त में क्या हुआ ? किसी को सजा नहीं मिली।
राजनीति का मकसद है आम आदमी की सम्पन्नता और खुशहाली बढ़ाना। पहले ‘सकल घरेलू उत्पाद‘ (जीडीपी) की बात होती थी, अब जी एन एच(ग्रास नैचुरल हैप्पीनेस) की बात हो रही है यानि लोगों की खुशहाली बढ़ायी जाये। अब खुशहाली बढ़ाने के लिये सरकार कोई निर्णय लेना चाहती हो और गठबन्धन के सहयोगी दल सहमत न हों  तो सरकार क्या करेगी ? अगर गठबन्धन के सहयोगी दल भ्रष्ट आचरण करें और रोकने पर सरकार गिराने की धमकी दें तो प्रधानमंत्री क्या करे ? आँखें मींचे, जैसा टू जी में हुआ या नैतिकता की दुहाई देकर सरकार गिर जाने दे। अगर ऐसे सरकारें गिरेंगी तो इटली की तरह एक-एक साल में कई-कई प्रधानमंत्री शपथ लेंगे। देश की प्रगति रूक जायेगी। निवेशकों का विश्वास हिल जायेगा। देश में अराजकता बढ़ेगी।
समय आ गया है कि सरकारों के घोटालों से आजिज आ रहे देशवासियों को राहत मिले। सभी दलों और जागरूक लोगों को मिल कर कुछ ठोस फैसले लेने होंगे। जैसे गठबंधन की शर्तें क्या हों ? सहयोगी दलों को ब्लैकमेल करने से कैसे रोका जाये ? सरकारें अपने संसाधनों का आवंटन किस तरह करें कि पारदर्शिता भी बनी रहे और देश को लाभ भी हो ? यानि घोटालों की गुंजाइश खत्म की जाये।
दुख की बात यह है कि घोटाले सामने आने पर शोर तो खूब मचता है। पर इस बात पर कभी सहमति नहीं होती कि घोटालों को रोकने के लिये व्यवस्था को पारदर्शी और जिम्मेदार कैसे बनाया जाये ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्तता देने की बात हो या ठेके, आवंटन और लीज में पारदर्शिता लाने की बात हो। ये सब मामले ऐसे हैं जिन्हें ठोस और क्रान्तिकारी परिवर्तनों के बिना सुलझाया नहीं जा सकता। घोटाले का उबाल उतरते ही मीडिया भी ढीला पड़ जाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि घोटालों के कारणों को दूर करने के काम में भी मीडिया, विशेषकर टी वी मीडिया वैसी ही उत्तेजना और तत्परता दिखाये, जैसी घोटालों के उजागर होने के कुछ दिन बात तक दिखाता है। अगर परिवर्तत के तमाम बिन्दुओं पर गंभीर और लंबी बहसें चलेंगी तो जनता भी शिक्षित होगी और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। पिछले वर्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध चले लम्बे आन्दोलन के बावजूद समाधान के बिन्दुओं पर कोई गहरी चर्चायें नहीं हुईं। बस एक ही बात उठती रही कि ‘आप लोकपाल के साथ है या खिलाफ‘ नतीजन सब ठंडा पड़ गया। अगर सुधार लाने का यह प्रयास राजनैतिक जमात, न्यायविद्, मीडिया व सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर प्राथमिकता से नहीं करते हैं तो रोज नये घोटाले होते रहेंगे। न तो आरोपियों को सजा मिलेगी और न भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’, जैसी भावना दिवगंत कवि दुष्यंत ने अभिव्यक्त की थी वैसा ही जज्बा आज हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व के मन में उठना चाहिये।

Monday, January 30, 2012

इन चुनावों में असली मुद्दे गायब

पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों में अलग-अलग राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में अपने कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। हमेशा की तरह सपने दिखाये जा रहे हैं। कोई विजन की बात कर रहा है तो कोई मन्दिर बनाने की। हकीकत यह है कि अब किसी भी राजनैतिक दल में कोई गहरा वैचारिक मतभेद नहीं बचा है। यूँ दिखाने को नारे, झण्डे और प्रतीक भले ही अलग-अलग हैं पर सब की कार्यशैली लगभग एक सी है। मतदाता जानता है कि इन वायदों में गंभीरता नाम मात्र की होती है। इसलिये चुनावी घोषणापत्र मतदाता को उत्साहित नहीं करते। जो उसके मुद्दे हैं उनकी बात कोई नहीं करता। यही कारण है कि आधे मतदाता तो मतदान केन्द्र तक भी नहीं जाते। हालांकि उन्हें जाना चाहिये, तभी तो राजनैतिक दलों के नेतृत्व पर उनका दबाव बनेगा।

अगर असली मुद्दों की बात करें तो पंजाब में इस वक्त किसानों की हालत खराब है। जो पंजाब कभी हरित क्रान्ति का नेतृत्व कर रहा था, वहाँ के किसान आज कर्ज के बोझ तले दबे हैं। फसल अब मुनाफे का सौदा नही रही। चार रूपये किलो की उत्पादन लागत वाला आलू एक रूपये किलो बिका। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग ने पंजाब की कृषि भूमि की उत्पादकता इतनी घटा दी कि अब  खेती करना घाटे का सौदा हो गया है। पंजाब के किसानों ने सबमर्सिबिल पम्प लगाकर जमीन के नीचे के पानी को इस बुरी तरह बहाया कि आज पाँच नदियों के लिये मशहूर पंजाब की जमीन के नीचे का भूजल स्तर तेजी से घट रहा है। पंजाब की सत्ता के लिये दावेदार प्रमुख दलों ने इस समस्या के हल के लिये क्या रणनीति बनायी है ? बैंक के कर्जे माफ करना, सस्ती दर पर ऋण देना या खाद और कीटनाशकों पर सब्सिडी देना, इस समस्या का हल नहीं है। हल तो पहले से मौजूद था। पर पश्चिम की नकल और जल्दी ज्यादा पैदा करने की हविश ने हमारी पारंपरिक खेती को खत्म कर दिया। अब समाधान उस तरफ लौट कर ही होगा। गाय के गोबर में ही वह क्षमता है कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ा सके। पर जिस देश में इस वैज्ञानिक ज्ञान को भी अन्धविश्वास बता कर उपेक्षा की गयी हो और गायों के कत्लखाने खोलकर गौवंश की लगातार नृशंस हत्या की जा रही हो, उस देश में कृषि और किसानों की दुर्दशा को कोई राहत नहीं दूर कर सकती। पर कोई भी राजनैतिक दल ऐसे बुनियादी समाधानों को बढ़ावा नहीं देता। क्योंकि अगर लोगों को यह बता दिया जाये कि गाय-बैल पालकर तुम अपनी खेती को धीरे-धीरे फिर से बढ़िया बना सकते हो, तो फिर रासायनिक खाद के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में जो अरबों रूप्ये का कमीशन खाया जाता है, उसकी गुंजायश कहाँ बचेगी ?

पिछला पूरा साल देश का शहरी नागरिक भ्रष्टाचार के सवाल पर सक्रिय रहा। ऐसा लगा कि कुछ हल निकाला जायेगा। पर सभी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे। किसी ने भी समाधान की तरफ कोई ठोस पहल नहीं की। नतीजा यह कि अब बढ़-चढ़ कर यह दावा किया जा रहा है कि इन चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। बेशक जिस तरह राजनेता एक-दूसरे के भ्रष्टाचार पर हंगामा खड़ा करते रहे हैं, वैसे हंगामे में मतदाता की कोई रूचि नहीं। उसे तो यह बात काटती है कि सरकारी विभागों के कर्मचारियों से साधारण सी सेवाओं के लिये भी उसे रोज जूझना पड़ता है। क्या किसी भी घोषणापत्र में इसका समाधान बताया गया है ?

हर शहर में कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे हैं। जेएनआरयूएम जैसे अरबों रूपये के पैकेज लेने वाले शहर भी अपने नागरिकों को नारकीय स्थिति में जीने पर मजबूर कर रहे हैं। क्या किसी घोषणापत्र में इस बात की चिन्ता व्यक्त की गयी है कि हुक्मरानों के बंगलों जैसे ठाठ-बाट न भी हों, तो भी कम से कम साफ और स्वस्थ वातावरण में नागरिकों को जीने का हक तो मिलना चाहिये ? ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं के समाधान संभव नही हैं। समाधान हैं पर राजनैतिक इच्छा शक्ति नहीं है।

नौजवानों को तकनीकी और प्रबन्धकीय शिक्षा देने के नाम पर हर शहर में इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमैंट कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कुकुरमुत्ते की तरह फसल उग आयी है। रोजगार की तलाश में भटकने वाले लाखों निम्न मध्यमवर्गीय नौजवान अपने माता-पिता की खून-पसीने की कमाई को देकर इन संस्थानों से डिग्रियाँ हासिल कर रहे हैं। पर पेट काट कर, लाखों रूपया फीस देकर भी इन संस्थानों से निकलने वाले युवा न तो कुछ खास सीख पाते हैं और न ही नौकरी के बाजार में सफल होते हैं। कारण इन शिक्षा संस्थानों को चलाने वालों ने इन्हें नोट छापने का कारखाना बना दिया है। न तो फैकल्टी में गुणवत्ता है और न ही संस्थान के पास समुचित पुस्तकालय और अन्य साधन। एमबीए की डिग्री लेने वाले साड़ी की दुकान में सेल्समैन की नौकरी कर रहे हैं। इन संस्थानों के पीछे छुपा है एक बड़ा शिक्षा माफिया। जिसे राजनैतिक बाहुबलियों का संरक्षण प्राप्त है। नौजवानों को रोजगार की गारण्टी का लुभावना वायदा देने की बजाय अगर उन्हें ऊँचे दर्जे की किन्तु सस्ती और सुलभ शिक्षा उपलब्ध करवायी जाये तो वे खुद अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। पर यह सोच किसी राजनैतिक दल की नहीं है।

ऐसे तमाम बुनियादी सवाल हैं जिन पर ईमानदारी से कदम बढ़ाने की जरूरत है। अगर ऐसा हो तो उन लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध हो जिन्हें चुनावी मौसम में भेड़-बकरी समझ कर वायदों का चारा फैंका जाता है। काश ऐसा हो पाता।

Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।

Monday, January 16, 2012

बिग बॉस में नया बवाल

पोर्नोग्राफी या अश्लील साहित्य या वास्तविक सैक्स पर आधारित कामोत्तोजक फिल्मों के कारोबार से जुड़ी दुनिया भर में मशहूर भारतीय-कनाडाई मूल की कामोत्तोजक सिने कलाकार सुश्री सनी लिओन ने भारतीय टेलीविजन के विवादास्पद शो ‘बिग बॉस’ में आकर एक नया बवाल पैदा कर दिया है। जिस तरह इस महिला को इस शो में लाकर महिमा मण्डित किया गया उससे उसकी कामोत्तोजक वेबसाइट की सैक्स बाजार में माँग अचानक कई लाख गुना बढ़ गयी। इससे उत्साहित सनी लिओन का शो में दावा था कि अब वे इस शो की आमदनी से भी कई सौ गुना ज्यादा कमा रही हैं। ऐसा सनी लिओन ने तब कहा जबकि शो के भागीदारों ने सनी लिओन के अतीत को अनदेखा करने की विनम्र पेशकश की। इस पर सनी लिओन का मुँहफट जवाब था कि मुझे अपने अतीत की चर्चा पर कोई चिन्ता नहीं है और मैं यह काम भविष्य में भी गर्व के साथ करती रहूँगी। मुझे अपने आलोचकों की कोई परवाह नहीं है।

‘ब्रॉडकास्टिंग कन्टैन्ट कम्प्लैन्ट काउंसिल’ में जब बिग बॉस दिखाने वाले चैनल के विरूद्ध सनी लिओन की मार्फत पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देने की शिकायत की गयी तो भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति माकण्र्डेय काटजू सनी लिओन की रक्षा में खड़े हो गये। उनका कहना था कि जनता को सनी लिओन के अतीत को लेकर इतना उत्तेजित नहीं होना चाहिये। जबकि हमारा इतिहास गवाह है कि आम्रपाली जैसी वैश्या भगवान बुद्ध के सम्पर्क में आकर बौद्ध भिक्षुणी बन गयी थी। उधर मैेरी मैग्डालेन नामकी वैश्या भी ईसा मसीह के सम्पर्क में आकर उनकी आध्यात्मिक शिष्या बन गयी थी। यह तुलना सही नहीं है। आम्रपाली और मैरी को जब सत्संग मिला तो उनका हृदय परिवर्तन हो गया। हरि को भजे सो हरि का होये। जब कोई भक्त बन ही गया और आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़ा तो उसके अतीत की कोई सार्थकता नहीं रह जाती है। ऋषि वाल्मीकि को संसार उनके आध्यात्मिक जीवन और उनके द्वारा रचित संस्कृत रामायण के माध्यम से जानता है न कि उनके उस अतीत से जब वे डाकू थे। जबकि सनी लिओन ने न तो आध्यात्मिक शिष्य बनना स्वीकार किया है और न ही वे वाल्मीकि ऋषि की तरह संत बनी हैं। वे तो डंके की चोट पर अपने सैक्स कारोबार की दुनिया भर में बढ़-चढ़ कर मार्केटिंग कर रही हैं । समझ में नहीं आता कि ऐसी महिला के बारे में हुई शिकायत पर न्यायमूर्ति काटजू इतने उखड़ क्यों गये ? क्यूँ वे बढ़-‘चढ़ कर सनी लिओन की रक्षा में उतरे ?

जबकि अभिव्यक्ति की आजादी और मीडिया के आचरण को लेकर लगातार उनके पास हजारों ऐसी शिकायतें आती हैं, जो इससे कहीं ज्यादा संवेदनशील मुद्दों को उठाती हैं। ऐसी शिकायतों का प्रेस काउंसिल में भण्डार लगा पड़ा है। उनको खंगालने में और उन पर कार्यवाही करने की जहमत क्यों नहीं उठायी जाती ? जबकि इन शिकायतों का सरोकार समाज के एक बड़े वर्ग से होता है। इस मामले में तो श्री काटजू के पास कोई शिकायत भी नहीं आयी थी। फिर वे क्यों इतने उत्तेजित हो गये कि उन्होंने सनी लिओन को सार्वजनिक रूप से बचाने का जिम्मा ले लिया। इससे वे क्या संदेश देना चाहते हैं ?

दरअसल ‘बिग बॉस’ जैसा फूहड़ टी वी शो मनोरंजन के नाम पर एक ऐसी संस्कृति परोस रहा है, जिससे समाज का अहित हो रहा है। एक घर में विभिन्न पृष्ठ भूमि के 12 लोगों को कैद करके रखना और उनके निजी व्यवहार को सार्वजनिक रूप से दिखाना बड़ी बेतुकी सी बात लगती है। एक करोड़ रूपया जीतने के लालच में ये लोग कुटिलता का आचरण करते हैं और एक दूसरे के साथ ऐसा भौंडा व्यवहार करते हैं, जो सभ्य समाज का हिस्सा नहीं है। यह एक काल्पनिक परिस्थिति है। ऐसा कब होता है जब इस तरह के लोगों को  मजबूरन शेष समाज से काटकर एक दड़बे में बन्द कर दिया जाये ? मसलन कोई हवाई दुर्घटना में बचे हुए यात्री किसी जंगल में फँस जाये या पानी का जहाज डूबने से उसके यात्री समुद्र में किसी निर्जन टापू पर अलग-थलग पड़ जायें। ऐसी विषम परिस्थिति में भी लोग ऐसा आचरण नहीं करते, जैसा बिग बॉस में दिखाया जाता है।

आपको याद होगा कि तीन दशक पहले अर्जेन्टीना की बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर दुर्घटनाग्रस्त हुए हवाई जहाज के 35 यात्री 28 दिनों तक बर्फ में फँसे रहे थे। ठंड और भूख से बेहाल इन यात्रियों ने अनुकरणनीय मानवीय व्यवहार का प्रदर्शन किया था। जब परिस्थिति इतनी विकट हो गयी कि कोई विकल्प ही नहीं बचा तब इन्हें जहाज के मलबे में पड़ी लाशों को मजबूरन काट कर खाना पड़ा। इससे इनके मन में इतनी आत्म-ग्लानि पैदा हुई कि वे डिप्रेशन और मनोवैज्ञानिक बीमारियों का शिकार बन गये ।तब वेटिकन से पोप ने इनको इस कृत्य के लिये आम माफी देकर इन्हें दया का पात्र बताया था। कारगिल की बर्फ से ढकी पहाड़ियों पर तैनात हमारे फौजी हों या ओ एन जी सी के तेल निकालने के कूँए पर समुद्र में तैनात इंजीनियर या उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर जाने वाले खोजी दल, नितांत अकेले रहकर भी यह समूह मानवीय व्यवहार खोते नहीं बल्कि अपने श्रेष्ठ गुणों का प्रदर्शन करते हैं। बिग बाॅस के घर में रहने वालों की तरह फूहड़ प्रदर्शन नहीं करते।

कितने आश्चर्य और दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश में टेलीविजन का आगमन लोगों की शिक्षा, स्वस्थ मनोरंजन और आर्थिक विकास के लिये माहौल तैयार करने के उद्देश्य से किया गया था, वहाँ आज ‘बिग बाॅस’ जैसे कार्यक्रम समाज को पतन की ओर ले जा रहे हैं। उधर न्यायमूर्ति काटजू ने पदभार सँभालते ही पत्रकारों की योग्यता और विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किये थे। जिस पर मीडिया की तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। पर हमने अपने इसी कॉलम में उनके कुछ विचारों का समर्थन किया था। पर सनी लिओन के मामले में अकारण कूद कर न्यायमूर्ति काटजू ने प्रेस परिषद के अध्यक्ष के नाते अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर जो टिप्पणी की है, उसका कोई अच्छा संदेश नहीं गया।

Monday, January 9, 2012

प्रवासी दिवस : न खुदा ही मिला न विसाले सनम

एक और प्रवासी दिवस सम्पन्न हो रहा है। इण्डिया शाइनिंग के दौर में राजग की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव डाली थी। उद्देश्य था बाहर बसे भारतीयों को देश में निवेश के लिये प्रोत्साहित करना। आकड़े बताते हैं कि इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय हासिल नहीं हुआ। यह दूसरी बात है कि प्रवासी भारतीयों के निवेश को आकर्षित करने के लिये भारत के सभी प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री इस कार्यक्रम में अपनी दुकान सजाने जरूर आते हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा सक्र्रिय रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री। पर क्या वे उल्लेखनीय निवेश आकर्षित कर पाये ? उत्तर है नहीं। दूसरी तरफ देश में अजय पीरामल जैसे उद्योगपति हैं जो लगभग 22 हजार करोड़ रूपया दो वर्षों से बैंक में रखे बैठे हैं। क्योंकि उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश करने का हौसला नहीं पैदा हो रहा। वे देश के माहौल को देखकर सोचते हैं कि क्यों न यह निवेश चीन जैसे किसी देश में किया जाये।

श्री पीरामल अकेले नहीं हैं। उनके जैसे दूसरे तमाम उद्योगपति हैं जो बाहर निवेश करने में होड़ लगाये हुए हैं। दूसरी तरफ देश में ही मध्यमवर्गीय निवेशक भी लाखों की तादाद में हैं, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में लघु या मध्यमवर्गीय उद्योग लगा रहे हैं। व्यापारी तो वहीं जायेगा न जहाँ उसे लाभ दिखायी देगा। उसकी निष्ठा किसी देश की सीमाओं से ज्यादा अपने मुनाफे में होती है। इसलिये इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।

पर सवाल उठता है कि अगर भारत में ही इतने सारे निवेशक मौजूद हैं तो हमें प्रवासी भारतीयों के पीछे दौड़ने की क्या जरूरत है ? पिछले 12 वर्षों से हम प्रवासी दिवस पर करोडों रूपया खर्च करते आ रहे हैं। न तो इससे भारत में निवेश बढा और न ही भारत की साख।  जरूरत इस पर विचार करने की है। दरअसल देश के आधारभूत ढांचे में अभी बहुत कमी है। सड़कें, बिजली की आपूर्ति, कानून और व्यवस्था की स्थिति और नौकरशाही का थका देने वाला रवैया किसी बाहरी निवेशक को यहाँ आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिये प्रवासी दिवस में दुकान लगाने की बजाय प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को अपने प्रांतों में आधारभूत संरचना को सुधारने का काम प्राथमिकता से करना चाहिये। अगर ऐसा होगा तो निवेशक स्वयं ही दौड़े चले आयेंगे। फिर वे चाहें देशी हों या प्रवासी। फिर वो चाहें राजस्थान हो या बिहार।

तकलीफ की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर तो बहुत मचता रहता है, पर उस शोर से अभी तक सरकारों पर इतना असर नहीं पड़ा कि वे अपने तौर-तरीके में बदलाव लायें। नतीजतन हम सारी संभावनाओं के होते हुए भी आर्थिक प्रगति की दौड़ में चीन से पिछड़ते जा रहे हैं। चीन हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होता जा रहा है। हम डर व्यक्त करते हैं। अपनी सरकारों को कोसतेे भी हैं। पर अपने हालात सुधारने के लिये आगे नहीं आते। आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिये आजादी के बाद से आज तक अरबों रूपया खर्च हो चुका है, पर खर्चे के मुकाबले में हमारी उपलब्धि नगण्य रही है। निवेश नहीं होता तो रोजगार का सृजन भी नहीं होता। जिससे युवाओं में भारी हताशा फैलती है और वे हिंसक प्रतिरोध के लिये सड़कों पर उतर आते हैं। कभी वे नक्सलवादी बनते हैं, कभी माक्र्स लेनिन वादी और कभी तालिबान बनते हैं तो कभी अपराधी। यह खतरनाक प्रवृत्ति है।

प्रवासी दिवस में आने वाले भारतीय भी निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते। वे तो आते हैं यहाँ छुट्टी मनाने और मनोरंजन करने। इस बहाने वे अपने गाँव का दौरा कर लेते हैं और कुछ मौज-मस्ती व सैर-सपाटा भी। हैदराबाद के प्रवासी दिवस में मैं भी 3 दिन रहा था। मुझे प्रवासी भारतीयों से बात करके यही लगा कि वे केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के सब्जबागों से प्रभावित नहीं थे। बल्कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार के आयोजन की खामियों से नाराज ज्यादा थे। ऐसे में भारत सरकार के ओवरसीज मंत्रालय के विषय में यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस मंत्रालय को इस पूरी कवायद की उपयोगिता पर एक निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिये और इसके प्रारूप में समयानुकूल परिवर्तन कर इसकी लागत घटानी चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कुछ नये प्रयास करने चाहिये।

Monday, January 2, 2012

लोकपाल बिल-जन आंदोलन का भविष्य

Rajasthan Patrika 2Jan2012
आज देशवासियों के मन में एक बार फिर हताशा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो माहौल देश में बना था, वह टीम अन्ना के अनुभवहीन महत्वाकांक्षी नेतृत्व और राजनैतिक दलों के रवैये के कारण ठंडा पड़ गया। संसद के विशेष सत्र के बाद यह साफ हो गया है कि कोई भी राजनैतिक दल भ्रष्टाचार के विरूद्ध कठोर कानून बनाने को तैयार नहीं है। इसलिये सारी ऊर्जा मामले को उलझाने में खर्च की गयी। उल्लेखनीय है कि लोकपाल की सारी बहस के बाद बात सी बी आई की स्वायत्तता के ऊपर आ कर अटक गयी। बार-बार संसद में व मीडिया में सर्वोच्च न्यायालय के 1997 के ‘‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार‘‘ फैसले का उल्लेख किया गया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सी बी आई की स्वायत्तता के व्यापक निर्देश जारी किये थे। जिनकी अवहेलना करके एन डी ए सरकार ने 2003 में एक लुंज-पुंज सी वी सी एक्ट बना दिया। अगर इस फैसले को ठीक से लागू किया जाता तो न तो इस आन्दोलन की जरूरत पड़ती और न ही लोकपाल कानून विधेयक पेश करने की। विडम्बना यह है कि इतनी बहस के बावजूद किसी भी दल ने इस फैसले को लागू करने की बात नहीं की।
 दरअसल सरकार के जिस लोकपाल विधेयक को कमजोर बताकर दरकिनार किया जा रहा है, उस बिल में अनेक ऐसे प्रभावी प्रावधान किये गये हैं जिनसे भ्रष्टाचार को रोकने में कुछ सीमा तक मदद मिलेगी और बाकी का सुधार आने वाले वर्षों में अनुभव के आधार पर किया जा सकता है।
लेकिन विपक्ष इसका राजनैतिक लाभ लेना चाहता है। विशेषकर भाजपा। जिसने सिविल सोसायटी के मंचों पर तो लोकायुक्त की माँग का समर्थन किया था और संसद में इसका विरोध। सी बी आई की स्वायत्तता को लेकर जितना हल्ला भाजपा मचा रही है, उसके पर कतरने का काम उन्हीं की एन डी ए सरकार ने 2003 में सीवीसी एक्ट के माध्यम से किया था। इसलिये भाजपा के पास इस बिल पर हमला करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। दूसरी तरफ यूपीए सरकार ने भी भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन को निपटाने का काम बिना संजीदगी के किया। जिससे उसके इरादों पर शक पैदा होने लगा। अन्ना के पहले धरने से लेकर और संसद में फ्लोर मैनेजमेंट तक ऐसा नहीं लगा कि काॅग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो। ऐसे में अब दो ही रास्ते बचते हैं, एक तो यह कि बजट सत्र में यूपीए सरकार संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इस बिल को फिर से पेश कर सकती है, जैसा कि वो कह भी रही है। दूसरा यह कि वह सीबीआई की स्वायत्तता केा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार स्थापित कर दे। जिससे जन लोकपाल बिल के काफी प्रावधानों की जरूरत ही नहीं बचेगी और न ही राजनैतिक दलों को इस बिल के ऊपर ज्यादा विरोध करने की। इससे प्रमुख दलों की यह माँग भी पूरी हो जायेगी कि सरकार सी बी आई को अपने शिकंजे से मुक्त करे।
जहाँ तक जन आन्दोलन का प्रश्न है, श्री हजारे का मुम्बई और दिल्ली का उपवास उनकी अपेक्षा के विपरीत विफल रहा और वह धैर्य खो बैठे। इससे यह स्पष्ट हो गया कि जनता का विश्वास टीम अन्ना के नेतृत्व से हट गया हैं। जनता उनसे भ्रष्टाचार के मुददे पर जुड़ी थी पर टीम अन्ना ने उसे राजनैतिक रंग दे दिया है। यह जानते हुए भी कि लोकपाल विधेयक को पारित करने में कोई भी दल गंभीर नहीं है, टीम अन्ना एक ही दल के विरोध में खड़ी दिखायी दे रही है। इससे उसकी साख काफी गिरी है। लोगों को समझ में आ गया है कि भ्रष्टाचार के विरोध के झण्डे के पीछे व्यक्तिगत राजनैतिक महत्वाकांक्षा छिपी है।

पहले बाबा रामदेव और फिर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असफल होने से भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को गहरा आघात लगा है। जनता बदलाव चाहती है, इसलिये यह लड़ाई तो कभी धीमी और कभी तेज चलती रहेगी, पर व्यावहारिक ज्ञान, सही दृष्टि और अनुभव से युक्त नेतृत्व ही इस संघर्ष को सही दिशा दे पायेगा। अन्यथा टीम अन्ना तो अपना रूख साफ कर चुकी है कि वह आगामी चुनावों में काॅग्रेस का विरोध करेगी और जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। भाजपा टीम अन्ना के सदस्यों को मालायें पहनाकर एवं जिन्दा शहीद घोषित कर अपने मंचों पर ले जायेगी और उनसे अपना चुनावी प्रचार करवा लेगी। पर इससे टीम अन्ना की रही सही साख भी समाप्त हो जायेगी। इसलिये देश के चिन्तनशील और अनुभवी लोगों के जाग्रत होने की जरूरत है। आवश्यकता इस बात की है कि देश के समझदार और संघर्षशील लोग खुले दिल व दिमाग से, इकट्ठा होकर एक मंच पर आयें। उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस मुहिम को और आगे ले जाना चाहिये। इससे धीरे-धीरे देश की परिस्थितियाँ सुधरेंगी एवं भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम को सही दिशा व गति मिलेगी।
टीम अन्ना केवल लोकपाल बनाने की माँग पर अड़ी रही है। जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में कोई भी अपराध कानून बनाने से मात्र 5 फीसदी तक कम होता है। भ्रष्टाचार के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। इसके अलावा अन्य मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक उपाय भी करने पड़ते हैं जिनका कि कोई जिक्र टीम अन्ना ने अपने आंदोलन में नहीं किया। उनका दुराग्रह देश के लोगों को अच्छा नहीं लगा। भविष्य में जन-आंदोलनों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि वे सामाजिक सारोकार के मुद्दों को राजनैतिक जामा न पहनायंे। तभी बात आगे बढेगी वरना देश में फिर हताशा फैल जायेगी।