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Monday, August 3, 2020

भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ बने रहेंगे

64 वर्ष की आयु में अमर सिंह का सिंगापुर में देहांत हो गया। अमर सिंह जैसे बहुत लोग भारतीय राजनीति में हैं पर उनकी खासियत यह थी कि वे खुद को राष्ट्रीय प्रसारण में भी दलाल घोषित करने में नहीं हिचकते थे। सिंधिया परिवार, भरतिया परिवार, अम्बानी परिवार, बच्चन परिवार या यादव परिवार में फूट डलवाने का श्रेय अमर सिंह को दिया जा सकता है। उन पर आरोप था कि वे इन सम्पन्न, मशहूर व ताकतवर परिवारों में कूटनीति से फूट डलवाते थे और एक भाई का दामन थाम कर दूसरे का काम करवाते थे। शायद इसमें अपना फ़ायदा भी उठाते हों। 


बड़ी तादाद में फ़िल्मी हिरोइनों को राजनीति में या राजनैतिक दायरों में महत्व दिलवाने का काम भी अमर सिंह बखूबी करते थे। इसको लेकर अनेक विवाद उठे और सर्वोच्च न्यायालय तक गए। उनकी महारथ इतनी थी कि केंद्र में भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपयी तक अपने दल के नेताओं से ज़्यादा अमर सिंह को तरजीह देते थे। यह उस समय भाजपा के नेताओं में चिंता और चर्चा का विषय रहता था और इसी कॉलम में मैंने तब इस पर टिप्पणी भी की थी। 


सरकारें गिरने व बचाने में सांसदों व विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करवाने में भी अमर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। पाठकों को अरुण जेटली के घर अमर सिंह की देर रात हुई वो गोपनीय बैठक याद होगी जो मीडिया की सक्रियता से चर्चा में आ गई थी। क्योंकि उस समय के राजनैतिक माहौल में दो विरोधी दलों के नेताओं का इस तरह मिलना बड़े विवाद का कारण बना था। 


पत्रकारिता में रहते हुए हम लोगों का हर क़िस्म के राजनेता से सम्पर्क हो ही जाता है। खबरों को जानने की उत्सुकता में ऐसे सम्पर्क महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं। इस नाते अमर सिंह से मेरा भी ठीक-ठाक सम्पर्क था। पर 1995 में एक घटना ऐसी हुई जिसके बाद अमर सिंह ने मुझ से सम्बंध तो सौहार्दपूर्ण रखे पर यह समझ लिया कि मैं उनके मतलब का व्यक्ति नहीं हूँ। हालांकि यह भी उन्हीं की विशेषता थी। ‘जैन हवाला कांड’ में सर्वोच्च न्यायालय की सख़्ती के बाद सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय सक्रिय हुआ और अनेक दलों के बड़े राजनेताओं में हड़कम्प मच गया, तो अमर सिंह भी दूसरों की तरह करोड़ों रुपए की रिश्वत का प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए ताकि मैं इस मुद्दे को छोड़ दूँ। मेरे रूखे और कड़े रवैए से वे हताश हो गए और बाद में जगह जगह कहते फिरे कि विनीत नारायण .…… (मूर्ख) हैं, 100 करोड़ रुपए मिलते और केंद्र में मंत्रिपद


जिन दिनों उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी तब वे ‘उत्तर प्रदेश विकास परिषद’ के अध्यक्ष थे। उस नाते मैंने उन्हें वृंदावन आने का न्योता दिया। क्योंकि तब मैं ब्रज सेवा में जुट गया था। सरकार व प्रशासन की मदद के बिना बड़े स्तर का कोई भी विकास कार्य आसानी से पूरा नहीं होता, उसमें बहुत बाधाएँ आती हैं, इसलिए मुझे लगा कि अमर सिंह को बुलाने से इन सेवा कार्यों में मदद मिलेगी। 


इस आयोजन के बाद मैं अमर सिंह से मिलने दिल्ली गया और कहा कि ब्रज (मथुरा) के विकास को लेकर मैंने कुछ ठोस योजनाएँ तैयार की हैं, उसमें आप मेरी मदद करें। अमर सिंह ने सत्कार तो पूरा किया पर टका सा जवाब दे दिया। आप अमिताभ बच्चन की तरह मेरी घनिष्ठ मित्र तो हैं नहीं। ‘हवाला कांड’ में मैं एक प्रस्ताव ले कर आपके पास आया था, पर आपने तो मुझे बैरंग लौटा दिया। तो अब आप मुझसे किसी मदद की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैं समझता हूं कि अमर सिंह जैसी स्थिति में शायद ही कोई साफ-साफ ऐसे कहने की हिम्मत करेगा। यह खासियत उनमें ही थी। 


अमर सिंह की एक फ़ितरत थी वो पैसे वाले लोगों के या अपने मित्रों के बड़े से बड़े काम चुटकियों करवा देते थे। इसकी वो पहले कोई क़ीमत तय नहीं करते थे। जैसा कि प्रायः इस तरह की दलाली करने वाले लोग किया करते हैं। उनका सिद्धांत था कि ज़रूरत पर मदद करो और सामने वाले से ये अपेक्षा रखो कि इस मदद के बाद वो हमेशा हर तरह की मदद करने को तत्पर रहेगा। अगर कोई इसमें कोताही कर दे तो उसे सबक़ सिखाना भी अमर सिंह को आता था। इस कारण उनके कई मित्रों से विवाद भी बहुत गम्भीर हुए। पर वह अलग मामला है।  


अब यह राजनीति की स्तर है कि जो व्यक्ति सरेआम अपने को दलाल कहता था उसकी हर राजनैतिक दल को कभी न कभी ज़रूरत पड़ी। उत्तर प्रदेश के पिछले विधान सभा चुनाव में शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच जो सार्वजनिक लड़ाई हुई उसमें भी माना जाता है कि अमर सिंह ने यह सब भाजपा के इशारे पर किया। इस तरह वो पिछले तीन दशकों में भारतीय राजनीति में एक चर्चित चेहरा बने रहे। यह साधारण नहीं है कि सबकुछ सबको पता था फिर भी वे अपने काम या लक्ष्य में कामयाब थे। स्पष्ट है कि ईमानदारी के, पारदर्शिता के, जनता के प्रति जवाबदेही के दावे चाहे कोई भी दल करे पर सबको हर स्तर पर एक ‘अमर सिंह’की ज़रूरत होती है। ऐसे ‘अमर सिंह’ कांग्रेस के राज में भी खूब पनपे, जनता दल के राज में भी सफल रहे और भाजपा शासन में भी इनकी कमीं नहीं है। हां दलाली करने के स्वरूप और तरीक़ों में भले ही अंतर हो। सांसद और विधायक पहले भी ख़रीदे जाते थे और आज भी ख़रीदे जा रहे हैं। सरकारी ठेकों में पहले भी दलालों की भूमिका रहती थी और आज भी। 


ऐसे दलाल न तो जनता के हित में कभी कुछ करते हैं न तो देश के हित में कुछ करते हैं। वो जो कुछ भी करते हैं वो अपने या अपने दोस्तों के फ़ायदे के लिए ही करते हैं। फिर भी इन्हें राजनैतिक दल संसदीय लोकतंत्र के सर्वोच्च स्तर पर राज्य सभा का सदस्य बनवा देते हैं। उस राज्य सभा का जिसमें समाज के प्रतिष्ठित, अनुभवी, ज्ञानी और समर्पित लोगों को बैठ कर बहुजन हिताय गम्भीर चिंतन करना चाहिए। जबकि ऐसे लोगों को वहाँ अपना धंधा चलाने का अच्छा मौक़ा मिलता है। इसलिए जब तक हमारी राजनीति छलावे, झूठे वायदों, दोहरे चरित्र और जोड़-तोड़ से चलती रहेगी तब तक भारतीय राजनीति में ‘अमर सिंह’ कभी नहीं मरेंगे। उन्हें श्रद्धांजलि। 

Monday, January 23, 2012

यु पी में उलझा चुनावी गणित

यह पहली बार है कि जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में यह तय नहीं हो पा रहा कि चार प्रमुख दलों की स्थिति क्या होगी। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले माना जा रहा था कि पहले स्थान पर बसपा, दूसरे पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चौथे पर इंका रहेगी। पर अब चुनावी दौर का जो माहौल है, उसमें यह बात आश्चर्यजनक लग रही है कि चौथे नम्बर के हाशिये पर खड़ी कर दी गयी इंका पर ही बाकी के तीनों दलों का ध्यान केन्द्रित है। बहन मायावती हों या अखिलेश यादव और या फिर उमा भारती, पिछले कई दिनों से अपनी जनसभाओं में और बयानों में राहुल गाँधी और इंका को लक्ष्य बना कर हमला कर रही हैं। जबकि यह हमला इन दलों को एक दूसरे के खिलाफ करना चाहिये था। अजीब बात यह है कि राजनैतिक विश्लेषक हों या चुनाव विश्लेषक, दोनों ही उत्तर प्रदेष की सही स्थिति का मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग असमंजस में हैं, क्योंकि जमीनी हकीकत की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैं। उधर आलोचकों का भी मानना है कि राहुल गाँधी ने हद से ज्यादा मेहनत कर उत्तर प्रदेश की जनता से एक संवाद का रिशता कायम किया है। जिसमें दिग्विजय सिंह की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जाहिर है कि राहुल गाँधी का आक्रामक तेवर और देश के आम मतदाता पर केंद्रित भाषण शैली ने अपना असर तो दिखाया है। यही वजह है कि सपा के इतिहास में पहली बार मुलायम सिंह यादव, शिवपाल यादव, अमर सिंह व रामगोपाल यादव जैसे बड़े नेताओं को छोड़कर अखिलेश यादव के युवा चेहरे को जनता के सामने पेश किया है। पिछले कई महीनों से अखिलेश ने भी उत्तर प्रदेश में काफी मेहनत की है। इसका खासा लाभ उन्हें मिलने जा रहा है, ऐसा लगता है।

उधर उमा भारती को मध्य प्रदेश से लाना यह सिद्ध करता है कि भाजपा के पास प्रदेश स्तर का एक भी नेता नहीं । यह सही है कि उमा भारती की जड़ें बुंदेलखण्ड में हैं और राम मन्दिर निर्माण के आन्दोलन के समय से वे एक जाना-पहचाना चेहरा रही हैं पर जिन हालातों में उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाया गया और उसके बाद वे जिस तरह पार्टी छोड़ कर गयीं और अपनी पार्टी बनाकर मध्य प्रदेश में बुरी तरह से विफल हुईं, इससे उन्हें अब भाजपा में वह स्थिति नहीं मिल सकती जो कभी उनका नैसर्गिक अधिकार हुआ करती थी। ऐसे में उमा भारती के नेतृत्व में, भाजपा के लिये उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को आश्वस्त करना संरल नहीं होगा।

एक हल्के लहजे में यह बात कही जा सकती है कि इंका नेता सोनिया गाँधी के खिलाफ शुरू से जहर उगलने वाली भाजपा अब अपना रवैया बदल रही है। तभी तो उमा भारती ने खुद को राहुल गाँधी की बुआ बताया। यानि सोनिया गाँधी को उन्होंने अपनी भाभी स्वीकार कर लिया। जहाँ तक राहुल गाँधी के चुनाव प्रचार का प्रशन् है तो उनसे पहला सवाल तो यही पूछा जाता है कि लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही इंका के बावजूद उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सका। जिसका जवाब राहुल यह कहकर देते हैं कि वे अपना पूरा ध्यान उत्तर प्रदेश पर केंद्रित करेंगे और वे इसे विकसित करके रहेंगे। वे क्या कर पाते हैं और कितना सरकार को प्रभावित कर पाते हैं बषर्ते कि उनकी या उनके सहयोग से सरकार बने।

यहाँ एक बात बड़ी महत्वपूर्ण है कि जब प्रदेष में एक विधायक ज्यादा होने से झारखंड राज्य में मुख्यमंत्री बन सकता है तो यह भी माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में जो दल 50-60 सीट भी पा लेता है उसकी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका हो सकती है। जहाँ तक आम आदमी की फिलहाल समझ का मुद्दा है तो उससे साफ जाहिर है कि उत्तर प्रदेश के आम आदमी को भाजपा के मुहावरे आकर्षित नहीं कर रहे हैं। बहनजी के शासन में उसे गुण्डा राज से तो राहत मिली लेकिन थानों की भूमिका ने उसे नाराज कर दिया। आम आदमी की शिकायत है कि क्षेत्र का विकास करना तो दूर विकास की सारी योजनाओं को एक विशेष वर्ग की सेवा में झोंक दिया गया। बाकी वर्गों के लाभ की बहुत सी योजनाओं की घोषणा तो की गयी लेकिन उनका क्रियान्वन उस तत्परता से नहीं हुआ जैसा दलित समाज से सम्बन्धित स्मारकेां का किया गया। इससे सवर्ण समाज को संतुष्ट नहीं किया जा सका। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजे चैंकाने वाले होंगे।