Showing posts with label economy. Show all posts
Showing posts with label economy. Show all posts

Monday, June 9, 2025

बैंकिंग प्रणाली ग्राहक केंद्रित बने

भारतीय बैंकिंग प्रणाली, जो देश की आर्थिक रीढ़ मानी जाती है, समय-समय पर ग्राहकों के साथ अनुचित व्यवहार के लिए आलोचना का विषय रही है। हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की नई दिशानिर्देशों का ऐलान किया गया जिससे देश भर के बैंकों में नए सेवा शुल्कों और लेनदेन की सीमाओं को लेकर काफ़ी असमंजस की स्थिति फैली हुई है। ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन के पूर्व महासचिव, थॉमस फ्रैंको ने हाल ही में बैंकों द्वारा ग्राहकों से अनुचित शुल्क वसूलने और आरबीआई की नीतियों के प्रभावों पर गंभीर सवाल उठाए हैं।


थॉमस फ्रैंको ने बैंकों की उन प्रथाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके माध्यम से ग्राहक अनजाने में अतिरिक्त शुल्क और चार्जेस का बोझ उठाते हैं। उनके अनुसार, बैंक न केवल अपनी सेवाओं के लिए मनमाने ढंग से शुल्क बढ़ाते हैं, बल्कि ग्राहकों को अनुचित नियमों और शर्तों के जाल में फंसाते हैं। उदाहरण के लिए, एटीएम लेनदेन पर लगने वाले शुल्क, न्यूनतम बैलेंस की आवश्यकता और तीसरे पक्ष के उत्पादों (जैसे बीमा) की गलत बिक्री (मिस-सेलिंग) आम ग्राहकों के लिए परेशानी का कारण बन रही है। 



आरबीआई के दिशानिर्देशों के बावजूद, बैंक ग्राहकों के साथ पारदर्शिता और निष्पक्षता बरतने में विफल रहे हैं। वे बताते हैं कि बैंकों द्वारा लगाए गए कई शुल्क, जैसे एटीएम से नकदी निकासी पर चार्ज या न्यूनतम बैलेंस न रखने की सजा, ग्राहकों के लिए अनुचित और बोझिल हैं। विशेष रूप से, छोटे बचत खाताधारकों और ग्रामीण क्षेत्रों के ग्राहकों पर इसका सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है।


आरबीआई ने हाल ही में एटीएम संचालन, लेनदेन सीमा और शुल्क से संबंधित नए दिशानिर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के अनुसार, ग्राहकों को अपने बैंक के एटीएम पर सीमित मुफ्त लेनदेन की सुविधा दी जाती है और अन्य बैंकों के एटीएम पर भी मुफ्त लेनदेन की संख्या निर्धारित की गई है। इन सीमाओं को पार करने पर ग्राहकों से शुल्क वसूला जाता है। फ्रैंको का तर्क है कि ये दिशानिर्देश बैंकों को ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क वसूलने की छूट देते हैं, जिससे आम आदमी पर बोझ बढ़ता है।



उदाहरण के लिए, यदि कोई ग्राहक अपने बैंक के एटीएम से पांच मुफ्त लेनदेन के बाद अतिरिक्त निकासी करता है, तो उसे प्रति लेनदेन 20 रुपये तक का शुल्क देना पड़ सकता है। इसी तरह, अन्य बैंकों के एटीएम पर तीन मुफ्त लेनदेन के बाद शुल्क लागू होता है। फ्रैंको के अनुसार, यह व्यवस्था ग्राहकों को उनकी ही बचत का उपयोग करने के लिए दंडित करती है।



इसके अलावा, आरबीआई ने डिजिटल बैंकिंग और साइबर सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए भी दिशानिर्देश जारी किए हैं, जैसे मल्टी-फैक्टर ऑथेंटिकेशन और अनधिकृत लेनदेन की स्थिति में ग्राहकों की शून्य देयता। हालांकि, फ्रैंको का कहना है कि इन नियमों का कार्यान्वयन अपर्याप्त है। बैंकों द्वारा ग्राहकों को सूचित करने और शिकायत निवारण की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी बनी रहती है।


थॉमस फ्रैंको ने बैंकों द्वारा तीसरे पक्ष के उत्पादों, विशेष रूप से बीमा और म्यूचुअल फंड, की मिस-सेलिंग पर विशेष ध्यान दिया है। उनके अनुसार, बैंक कर्मचारी अक्सर ग्राहकों, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों, को भ्रामक जानकारी देकर ऐसे उत्पाद बेचते हैं जो उनकी वित्तीय जरूरतों के लिए उपयुक्त नहीं होते। उदाहरण के लिए, सिंगल प्रीमियम बीमा पॉलिसियों की बिक्री में ग्राहकों को जोखिमों की पूरी जानकारी नहीं दी जाती, जिसके परिणामस्वरूप कई लोग अपनी बचत खो देते हैं।


अक्सर देखा गया है कि बैंकों द्वारा ग्राहकों को अनुचित शर्तों वाले ऋण समझौतों में फंसाया जाता है। उदाहरण के लिए, फ्लोटिंग रेट होम लोन लेने वाले ग्राहकों को ब्याज दरों में कमी का लाभ स्वचालित रूप से नहीं दिया जाता और इसके लिए अतिरिक्त शुल्क वसूला जाता है। यह न केवल अनुचित है, बल्कि आरबीआई की ग्राहक अधिकार चार्टर का भी उल्लंघन करता है, जिसमें निष्पक्ष व्यवहार और पारदर्शिता की बात कही गई है।


आरबीआई ने 2014 में ग्राहक अधिकार चार्टर जारी किया था, जिसमें पांच मूलभूत अधिकारों की बात की गई थी। निष्पक्ष व्यवहार, पारदर्शिता, उपयुक्तता, गोपनीयता और शिकायत निवारण। हालांकि, फ्रैंको और अन्य उपभोक्ता कार्यकर्ताओं का कहना है कि आरबीआई ने इन अधिकारों को लागू करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। उदाहरण के लिए, शिकायत निवारण के लिए समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है और बैंकिंग लोकपाल अक्सर बैंकों के पक्ष में ही फैसले सुनाता है। आरबीआई को बैंकों पर सख्ती बरतनी चाहिए और अनुचित शुल्क वसूली, मिस-सेलिंग और एकतरफा समझौतों पर रोक लगानी चाहिए। उनके अनुसार, आरबीआई की निष्क्रियता बैंकों को ग्राहकों का शोषण करने की खुली छूट देती है।


बैंकों की इन प्रथाओं का सबसे अधिक प्रभाव मध्यम वर्ग, छोटे बचतकर्ताओं और ग्रामीण क्षेत्रों के ग्राहकों पर पड़ता है। न्यूनतम बैलेंस न रख पाने वाले खाताधारकों से भारी जुर्माना वसूला जाता है, जो उनकी बचत को और कम करता है। इसके अलावा, डिजिटल बैंकिंग के बढ़ते उपयोग के साथ, साइबर धोखाधड़ी के मामले भी बढ़े हैं और ग्राहकों को नुकसान की भरपाई के लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।


ऐसे में कुछ समाधान पर आरबीआई को गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। टेलीकॉम सेक्टर की तरह, बैंक खातों की पोर्टेबिलिटी को आसान करना चाहिए, ताकि ग्राहक आसानी से बैंक बदल सकें। बैंकों को सभी शुल्क और चार्जेस की जानकारी स्पष्ट और सरल भाषा में देनी चाहिए। तीसरे पक्ष के उत्पादों की बिक्री के लिए सख्त नियम और ग्राहक सहमति अनिवार्य होनी चाहिए। आरबीआई को शिकायत निवारण के लिए समयसीमा निर्धारित करनी चाहिए और बैंकों पर दंड लगाना चाहिए। छोटे लेनदेन और ग्रामीण क्षेत्रों में एटीएम शुल्क को पूरी तरह खत्म करना चाहिए।


थॉमस फ्रैंको के विचार और आरबीआई के दिशानिर्देशों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। बैंकों द्वारा ग्राहकों से अनुचित शुल्क वसूलने और मिस-सेलिंग की प्रथाएं आम आदमी के लिए वित्तीय बोझ बढ़ा रही हैं। आरबीआई को अपनी नियामक भूमिका को और सख्ती से निभाना होगा और ग्राहक अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। फ्रैंको का यह संदेश कि ग्राहकों का सशक्तिकरण धन संरक्षण का सबसे सुरक्षित तरीका है, हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि बैंकिंग प्रणाली को पारदर्शी, निष्पक्ष और ग्राहक-केंद्रित बनाने की जरूरत है। 

Monday, April 21, 2025

अमेरिकी टैरिफ नीतियों का भारत और विश्व पर प्रभाव

वैश्विक व्यापार में संरक्षणवाद का दौर एक बार फिर से उभर रहा है। अप्रैल 2025 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा घोषित पारस्परिक टैरिफ (रेसीप्रोकल टैरिफ) नीति ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला दिया है। इस नीति के तहत, भारत पर 27% का टैरिफ लगाया गया है, जबकि अन्य देशों जैसे चीन (34%), वियतनाम (46%), और यूरोपीय संघ (20%) पर भी भारी टैरिफ थोपे गए हैं। यह नीति अमेरिका के व्यापार घाटे को कम करने और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लागू की गई है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम भारत और विश्व की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ रहे हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री  प्रो. अरुण कुमार इस इस नीति के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए बताते है कि अमेरिका ने अपनी टैरिफ नीति को पारस्परिक करार देते हुए कहा है कि यह अन्य देशों द्वारा अमेरिकी वस्तुओं पर लगाए गए टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं (जैसे मुद्रा हेरफेर और नियामक अंतर) के जवाब में उठाया गया कड़ा कदम है। 



ट्रम्प प्रशासन का दावा है कि भारत अमेरिकी वस्तुओं पर 52% का प्रभावी टैरिफ लगाता है, जिसके जवाब में भारत से आयात पर 27% का टैरिफ लगाया गया है। हालांकि, इस गणना की सटीकता पर सवाल उठाए गए हैं। मिंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका ने व्यापार घाटे और आयात मूल्य के आधार पर टैरिफ दरें तय कीं, जो कि विश्व व्यापार संगठन के डेटा से मेल नहीं खाती। भारत का अमेरिकी वस्तुओं पर औसत टैरिफ दर 2023 में केवल 9.6% था, जो अमेरिकी दावों से काफी कम है।


इस नीति में दो स्तर के टैरिफ शामिल हैं: 5 अप्रैल से सभी देशों पर 10% का आधारभूत टैरिफ और 9 अप्रैल से देश-विशिष्ट टैरिफ। कुछ वस्तुओं जैसे फार्मास्यूटिकल्स, अर्धचालक और ऊर्जा उत्पादों को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे भारत के कुछ क्षेत्रों को राहत मिली है। भारत, जो अमेरिका का एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार है, 2024 में $80.7 बिलियन का माल अमेरिका को निर्यात करता था। 27% टैरिफ से भारत के कई क्षेत्र प्रभावित होंगे, लेकिन कुछ क्षेत्रों को प्रतिस्पर्धात्मक लाभ भी मिल सकता है। प्रो. अरुण कुमार के अनुसार, इस नीति का प्रभाव अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों रूपों में देखा जाएगा।



उल्लेखनीय है कि भारत के 14 बिलियन डॉलर के इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात और 9 बिलियन डॉलर के रत्न-आभूषण निर्यात पर टैरिफ का भारी असर पड़ेगा। ये क्षेत्र अमेरिकी बाजार पर निर्भर हैं और लागत में वृद्धि से उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता कम हो सकती है। इसके साथ ही मछली, झींगा और प्रसंस्कृत समुद्री खाद्य उद्योग जो कि 2.58 बिलियन डॉलर का है इन पर 27.83% का टैरिफ अंतर भारत की प्रतिस्पर्धा को कम करेगा, खासकर जब पहले से ही अमेरिका में एंटी-डंपिंग शुल्क लागू हैं। 


उधर भारतीय वस्त्र उद्योग को मिश्रित प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। हालांकि भारत पर टैरिफ वियतनाम (46%) और बांग्लादेश (37%) की तुलना में कम है, फिर भी बाजार और मुनाफे में कमी का जोखिम बना रहेगा। वहीं भारत के 9 बिलियन डॉलर के फार्मास्यूटिकल निर्यात को टैरिफ से छूट दी गई है, जिससे इस क्षेत्र को राहत मिली है। भारतीय फार्मा कंपनियों के शेयरों में 5% की वृद्धि देखी गई। हालांकि सॉफ्टवेयर सेवाएं प्रत्यक्ष रूप से टैरिफ से प्रभावित नहीं हैं, लेकिन वीजा प्रतिबंध और व्यापार तनाव भारतीय आईटी कंपनियों जैसे टीसीएस और इन्फोसिस के लिए चुनौतियां पैदा कर सकते हैं। प्रो. कुमार का मानना है कि भारत को कुछ क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिल सकता है, क्योंकि चीन और वियतनाम जैसे प्रतिस्पर्धी देशों पर अधिक टैरिफ लगाए गए हैं। उदाहरण के लिए परिधान और जूते जैसे क्षेत्रों में भारत अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है।



टैरिफ के कारण भारत के निर्यात में 30-33 बिलियन डॉलर की कमी आ सकती है। अर्थशास्त्रियों ने भारत की 2025-26 की विकास दर को 20-40 आधार पर कम करके 6.1% कर दिया है। हालांकि, भारत सरकार का दावा है कि यदि तेल की कीमतें 70 डॉलर प्रति बैरल से नीचे रहती हैं, तो 6.3-6.8% की विकास दर हासिल की जा सकती है।


अमेरिकी टैरिफ नीति का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। प्रो. कुमार के अनुसार, यह नीति वैश्विक व्यापार प्रणाली में 1930 के स्मूट-हॉले टैरिफ एक्ट के समान व्यवधान पैदा कर सकती है। टैरिफ से वैश्विक व्यापार की गति धीमी होगी, जिससे आर्थिक विकास प्रभावित होगा। जेपी मॉर्गन ने चेतावनी दी है कि यदि यही टैरिफ नीति लागू रहती है, तो अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी में आ सकती है। इससे आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी, जिससे अमेरिका में मुद्रास्फीति बढ़ सकती है। बोस्टन फेडरल रिजर्व बैंक का अनुमान है कि टैरिफ से कोर पीसीई मुद्रास्फीति में 0.5-2.2% की वृद्धि हो सकती है। वैश्विक शेयर बाजारों में गिरावट और मुद्रा अस्थिरता पहले ही देखी जा चुकी है।


चीन, यूरोपीय संघ और अन्य देशों ने अमेरिकी वस्तुओं पर जवाबी टैरिफ की घोषणा की है, जिससे वैश्विक व्यापार युद्ध की आशंका बढ़ गई है। इससे आपूर्ति श्रृंखलाएं बाधित होंगी और व्यवसायों को लागत बढ़ने का सामना करना पड़ेगा। कम प्रति व्यक्ति आय वाले देश जैसे कंबोडिया (50% टैरिफ) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। इससे अमेरिका की विकासशील देशों में साख को नुकसान हो सकता है।


प्रो. कुमार का सुझाव है कि भारत को इस संकट को अवसर में बदलने के लिए रणनीतिक कदम उठाने चाहिए।भारत को अमेरिका के साथ व्यापार समझौते पर तेजी से काम करना चाहिए। 23 बिलियन डॉलर के अमेरिकी आयात पर टैरिफ कम करना एक शुरुआत हो सकती है। यूरोपीय संघ, आसियान और मध्य पूर्व जैसे वैकल्पिक बाजारों पर ध्यान देना चाहिए। भारत-ईयू मुक्त व्यापार समझौते को तेज करना महत्वपूर्ण होगा। आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया जैसी पहलों को मजबूत करके घरेलू उत्पादन और खपत को बढ़ावा देना चाहिए। छोटे और मध्यम उद्यमों के लिए सब्सिडी, कर राहत और निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं को लागू करना चाहिए।


अमेरिकी टैरिफ नीति ने वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता का माहौल पैदा किया है। भारत के लिए यह एक चुनौती होने के साथ-साथ अवसर भी है। प्रो. कुमार का मानना है कि यदि भारत रणनीतिक रूप से कार्य करे, तो वह न केवल इन टैरिफों के नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकता है, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में अपनी स्थिति को भी मजबूत कर सकता है। दीर्घकालिक दृष्टिकोण और सुधारों के साथ, भारत इस संकट को एक नए आर्थिक युग की शुरुआत में बदल सकता है। 

Monday, March 7, 2022

रूस-यूक्रेन युद्ध के भारत पर परिणाम

पूरी दुनिया यूक्रेन रूस के युद्ध को लेकर बेचैन है। भारत की बड़ी चिंता उन विद्यार्थियों को लेकर है जो यूक्रेन में अभी फँसे हुए हैं। जो विद्यार्थी जोखिम उठा कर, तकलीफ़ सहकर, भूखे प्यासे रह कर यूक्रेन की सीमाओं को पार कर पा रहे हैं, उन्हें ही भारत लाने का काम भारत सरकार कर रही है। पर जो युद्धग्रस्त यूक्रेन के शहरों में फँसे हैं, ख़ासकर वो जो सीमा से कई सौ किलोमीटर दूर हैं, उनकी हालात बहुत नाज़ुक है। वे बार-बार सरकार से गुहार लगा रहे हैं कि उन्हें जल्दी से जल्दी वहाँ से सुरक्षित निकाला जाए अन्यथा वे ज़िंदा नहीं बचेंगे। चूँकि इस युद्ध में भारत रूस के साथ खड़ा है, इसलिए यूक्रेन की सेना और नागरिक भारतीयों से नाराज़ है और मदद करना तो दूर छात्रों को यातनाएँ दे रहे हैं। ऐसा उन विद्यार्थियों के वायरल होते विडीयो में देखा जा रहा है। इसके साथ ही इस युद्ध से जो दूसरी बड़ी चुनौती है उसके भी दीर्घगामी परिणाम हम भारतवासियों को भुगतने पड़ सकते हैं। 



सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो॰ अरुण कुमार ने भारत की अर्थव्यवस्था पर इस युद्ध के परिणामों को लेकर अध्ययन किया है। प्रो॰ कुमार के अनुसार वैश्वीकरण के कारण किसी भी जंग का दुनिया के हर हिस्से पर असर पड़ता है। फिर वह युद्ध चाहे खाड़ी के देशों में हो या अफ्रीका में। परंतु रूस और यूक्रेन की जंग इन सबसे अलग है। यह युद्ध नहीं बल्कि विश्व की दो महाशक्तियों के बीच टकराव है। इस युद्ध में एक ओर रूस की सेना है, जबकि दूसरी ओर अमेरिका व नाटो द्वारा परोक्ष रूप से समर्थित यूक्रेन की सेना। दो ख़ेमे बन चुके हैं, जिनकी तनातनी भारत पर भी असर छोड़ सकती है।


यूक्रेन और रूस के बीच होने वाला यह युद्ध तात्कालिक तौर पर वैश्विक कारोबार, पूंजी प्रवाह, वित्तीय बाजार और तकनीकी पहुंच को भी प्रभावित करेगा। इस युद्ध में भले ही रूस ने हमला बोला है, लेकिन उस पर प्रतिबंध भी लागू हो गया है। आमतौर पर जिस देश पर प्रतिबंध लगाया जाता है, उसके साथ होने वाले व्यापार को रोकने की कोशिश भी होती है। फिलहाल, दुनिया भर में रूस गैस और तेल का बहुत बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अभी इन उत्पादों के कारोबार भले ही प्रतिबंधित नहीं किए गए हैं, लेकिन मुमकिन है कि जल्द ही इनके व्यापार पर भी रोक लगाई जा सकती है। जाहिर है, इसके बाद इनके दाम बढ़ सकते हैं। 


दूसरी ओर, यूक्रेन गेहूं और खाद्य तेलों के बड़े निर्यातकों में से एक है। भारत भी वहां से लगभग 1.5 बिलियन डॉलर का सूरजमुखी तेल हर साल मंगाता है। ऐसे में, भारत में इन वस्तुओं के आयात प्रभावित होने से खाद्य उत्पादों पर भी असर पड़ेगा। यानी, यह युद्ध ऊर्जा, धातु और खाद्य उत्पादों के वैश्विक कारोबार को काफ़ी हद तक प्रभावित कर सकता है।



प्रो॰ कुमार के अनुसार, रूस पर प्रतिबंध लगने से वहाँ की पूंजी का प्रवाह भी बाधित होगा। यह वित्तीय बाजारों को प्रभावित करेगा। जब बाजार में अनिश्चितता का दौर आता है, तो बिक्री शुरू हो जाती है। विदेशी निवेशक अपनी पूंजी वापस निकालने लगते हैं। इससे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई और विदेशी संस्थागत निवेश यानी एफआईआई का आना भी कम हो जाता है। जंग के हालात में सभी देश अपने-अपने निवेशकों को अपने-अपने मुल्क में ही निवेश करने की सलाह देते हैं। ऐसा इसलिए होता है जिससे उनकी अर्थव्यवस्था मजबूत बनी रहे। इस बार भी ऐसा हो सकता है। तकनीक भी इन सबसे अछूती नहीं रह जाती है। चूंकि युद्ध में आधुनिक तकनीक की जरूरत बढ़ जाती है, इसलिए बाकी क्षेत्रों के लिए उसकी उपलब्धता कम हो जाती है। एक क्षेत्र ऐसा है जहां युद्ध फ़ायदा कराता है और वो है  सैन्य साजो-सामान से जुड़े उद्योग। युद्ध के समय उनकी खरीद-बिक्री व उत्पादन में बढ़ोतरी तो होती ही है।


सोचने वाली बात यह है कि यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि यूक्रेन और रूस का युद्ध कितने समय तक चलता है। विशेषज्ञों का अनुमान यही है कि यह जंग लंबी नहीं चलने वाली। रूस 1979-89 में हुई अफगानिस्तान वाली गलती को शायद ही दोहराना पसंद करेगा। इसलिए दोनों देशों के बीच बातचीत की मेज सजने की भी खबर भी आ रही है। मगर इतना तो तय है कि हाल-फिलहाल में जंग भले ही खत्म हो जाए परंतु युद्ध उपरांत शीतयुद्ध थमने वाला नहीं। इस बार 1950 के दशक जैसा दृश्य नहीं होगा। उस समय सोवियत संघ (वामपंथ) और पश्चिम (पूंजीवाद) की वैचारिक लड़ाई थी। अब तो रूस और चीन जैसे देश भी पूंजीवादी व्यवस्था अपना चुके हैं। इसलिए यह वैचारिक लड़ाई नहीं, वर्चस्व की लड़ाई है। इससे दुनिया दो हिस्सों में बंट सकती है, जिनमें आपस में ही कारोबार करने की परंपरा जोर पकड़ सकती है।


अगर ऐसा होता है तो आपस में पूंजी प्रवाह बढ़ेगा और वैश्विक आपूर्ति शृंखला भी प्रभावित होगी। इसी कारण हमें भारत में महंगाई का सामना भी करना पड़ सकता है। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि इस युद्ध से दुनिया भर में मंदी और महंगाई बढ़ सकती है। रूस की कंपनियों पर प्रतिबंध लग जाने से वैश्विक कारोबार प्रभावित होगा। हालांकि, पश्चिमी देश इस कोशिश में हैं कि वे पेट्रो उत्पादों का अपना उत्पादन बढ़ा दें और ओपेक देशों से भी ऐसा करने की गुजारिश की जा सकती है। फिर भी, पेट्रो उत्पादों की घरेलू कीमतें बढ़ना तय है। इनकी क़ीमत बढ़ते ही अन्य चीजों के दामों में भी तेज़ी आएगी।


अभी चूंकि बाजार में बहुत ज्यादा पूंजी नहीं है, इसलिए माना जा रहा है कि पहले की तुलना में महंगाई ज्यादा असर डाल सकती है। आयात बढ़ने और निर्यात कम होने से भी भुगतान-संतुलन बिगड़ जाएगा। इस अनिश्चितता के दौर में सोने की मांग भी बढ़ सकती है, जिससे इसका आयात भी बढ़ सकता है। इन सबसे रुपया कमजोर होगा और स्थानीय बाजार में इसकी कीमत बढ़ सकती है। यानी, दो-तीन रास्तों से महंगाई हमारे सामने आने वाली है।


प्रो॰ कुमार का मानना है कि यूक्रेन-रूस युद्ध दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर कुछ अन्य असर भी हो सकते है। जैसे, दुनिया भर के देशों का बजट बिगड़ सकता है। सभी देश अपनी सेना पर ज्यादा खर्च करने लगेंगे। इससे वास्तविक विकास तुलनात्मक रूप से कम हो जाएगा और राजस्व में भी भारी कमी आएगी। महंगाई से कर वसूली बढ़ती जरूर है, लेकिन इनसे राजस्व घाटा बढ़ता जाता है, जिसके बाद सरकारें सामाजिक क्षेत्रों से अपने हाथ खींचने लगती हैं। इससे स्वाभाविक तौर पर देश की गरीब जनता प्रभावित होती है। भारत शायद ही इसका अपवाद होगा। मुमकिन है कि वैश्वीकरण की अवधारणा से भी अब सरकारें पीछे हटने लगें, जिसका नुकसान विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों को होगा।  

Monday, February 7, 2022

बजट इतना फीका क्यों?


आपको याद होगा कि आठ साल पहले तक जब आम बजट पेश किया जाता था तो सारे देश में एक उत्सुकता का माहौल होता था। देश के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट तो बजट के काफ़ी पहले आ जाती थी जिससे देश की आर्थिक सेहत का अंदाज़ा लग जाता था। फिर शुरू होता था उद्योगपतियों, व्यापारियों, व्यवसाइयों व अर्थशास्त्रियों का वित्त मंत्री से संभावित बजट को लेकर वार्ताओं का दौर।
 

जिस दिन वित्त मंत्री लोक सभा में बजट प्रस्तुत करते थे उस दिन शहरों में सामान्य गति थम सी जाती थी। उद्योगपतियों और व्यापारियों के अलावा कर सलाहकार टीवी के पर्दे से चिपके रहते थे। यहाँ तक कि मध्यमवर्गीय और नौकरी पेश लोग भी इस उम्मीद में वित्त मंत्री का बजट भाषण सुनते थे कि शायद उन्हें भी कुछ राहत मिल जाए। बजट प्रस्तुति के साथ ही मीडिया में कई दिनों तक बजट का विश्लेषण किया जाता था, जिसे गम्भीर विषय होते हुए भी लोगों को सुनने में रुचि होती थी। जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई है तब से बजट को लेकर देश भर में पहले जैसा न तो उत्साह दिखाई देता है और न उत्सुकता। इसका मूल कारण है संवाद हीनता। 



ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों में लोगों की हर माँग और सुझावों का उस वर्ष के बजट में समावेश होता हो। पर मौजूदा सरकार ने तो इस परम्परा को ही तिलांजलि दे दी है। नोटबंदी व कृषि क़ानून अचानक बिना संवाद के जिस तरह देश पर सौंपे गए उससे देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक सौहार्द का भारी नुक़सान हुआ। जिसका ख़ामियाज़ा देशवासी आज तक भुगत रहे हैं। नीतियों को बुलडोज़र की तरह थोपने और ‘डबल इंजन की सरकार’ जैसे दावे करने का कोई सकारात्मक परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है। हां इससे देश में अराजकता, तनाव व असुरक्षा ज़रूर बढ़ी है जो किसी सभ्य समाज और भारत जैसे सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए एक अच्छा लक्षण नहीं है। 


चूँकि आम बजट पर चर्चा करने की एक रस्म चली आ रही है तो हम भी यहाँ निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत बजट का विश्लेषण कर लेते हैं। इस बार के बजट को लेकर मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आई हैं। कुछ लोग इसे एक साधारण बजट कह रहे हैं वहीं कुछ लोग इसमें की गई घोषणाओं को चुनावों से पहले की राजनैतिक घोषणाएँ मान रहे हैं।   


मशहूर अर्थशास्त्री डॉ अरुण कुमार के एक विश्लेषण में दिए गए आँकड़ों की मानें तो वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में कुल 39.44 लाख करोड़ रुपये खर्च हुए, जबकि 2020-21 का संशोधित अनुमान के अनुसार यह 37.7 लाख करोड़ रुपये का था। इस आँकड़े से यह सिद्ध होता है कि जिस 5.5 फीसदी के हिसाब से महंगाई बढ़ी, उस हिसाब से खर्च नहीं बढ़ा। इसका मतलब यह है कि अगर खर्च वास्तविक अर्थ में नहीं बढ़ा, तो बाजार में मांग कैसे बढ़ी? अगर पूंजीगत व्यय की बात करें तो उस मद में भी इस साल का संशोधित अनुमान 6.3 लाख करोड़ रुपये था। परंतु आंकड़े बताते हैं कि नवंबर 2021 तक 2.5 लाख करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए। इसलिए, यह समझ नहीं आता कि नवंबर 2021 के बाद के चार महीने में बचे हुए करीब चार लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे? डॉ कुमार के अनुसार अगले साल 7.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात भी अतिशयोक्ति सी प्रतीत होती है। जबकि विकास की गति बरकरार रखने के लिए कुल खर्च को महंगाई के अनुपात में बढ़ाने की जरूरत थी।  


डॉ कुमार ने अपने विश्लेषण में यह भी कहा कि सरकार को ऐसे क्षेत्र में भी अपने खर्च बढ़ाने चाहिए थे, जहां से रोजगार पैदा होने की ज़्यादा उम्मीद होते। जैसे कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में खर्च बढ़ता तो बेहतर होता। सोचने वाली बात यह है कि इस बार के बजट में इस मद में अगले वर्ष लगभग  73 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की गई है, जबकि वर्तमान वर्ष में 98 हजार करोड़ खर्च किए जाएंगे। इसी तरह, सब्सिडी में भी कटौती की गई है। 2021-22 के संशोधित अनुमान में 1.40 लाख करोड़ रुपये खाद सब्सिडी देने की बात की गई थी। परंतु 2022-23 के बजट में इसे भी घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। वहीं खाद्य सब्सिडी को भी बजट में घटाकर 2.06 लाख करोड़ कर दिया गया है। डॉ कुमार इसे उचित नहीं मानते, क्योंकि देश के गरीबों के हाथ में अभी पैसा देना जरूरी है।


बजट के बाद से ही सोशल मीडिया में बजट को लेकर वित्त मंत्री का काफ़ी मज़ाक़ उड़ाया गया है।  असल में वित्त मंत्री द्वारा की गई घोषणाओं में काफ़ी बातें विरोधाभासी दिखाई दी। जैसे कि उन्होंने एक ओर पर्यावरण को बचाने के लिए घोषणा की वहीं शहरीकरण को बढ़ावा देने की भी बात कह डाली। बजट में सरकार ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक डिजिटल करेंसी शुरू करेगा। एक ओर सरकार ने क्रिप्टो करेंसी को हतोत्साहित करने का प्रावधान तो किया है, लेकिन उस पर प्रतिबंध नहीं लगाए हैं। 


बजट में आम आदमी की चिंता प्रत्यक्ष कर या अप्रत्यक्ष करों की दरों से जुड़ी रहती है। इस बार के बजट में तमाम आंकड़ों के बावजूद यह नहीं बताया गया कि इन करों में कोई बदलाव न करने से कर संग्रह पर क्या असर होगा? महंगाई और महामारी से जूझते हुए आम आदमी को इस उलझे हुए बजट में कुछ विशेष नज़र नहीं आया है। आम आदमी को यह उम्मीद थी कि पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरें में रखा जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जिस तरह हीरे पर कर में छूट दी गई है उससे तो यह लगता है कि उद्योगपतियों को सारी सुविधाएं हैं, लेकिन जनता को टैक्स की जंजीर में जकड़ दिया गया हैं। वहीं किसान नेताओं के अनुसार इस बजट में किसानों के लिये भी कुछ विशेष नहीं हैं। देश का व्यापारी वर्ग भी इस बजट से निराश हैं।


जिस तरह बड़ी योजनाओं के लिए इस बजट में पैसे बढ़ाए गए हैं और दावा किया जा रहा है कि इनका अनुमानित लाभ आने वाले 3 वर्ष में मिलेगा, उससे तो यह लगता है कि सरकार के इस बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किसी त्वरित वित्तीय प्रावधान नहीं है। उसी तरह 30 लाख नए रोजगार बनाने की बात कही गई है, लेकिन यह रोजगार कैसे बनेंगे? इसका कोई रोडमैप नहीं है। चुनावों से पहले इस बजट में जनता के लिए यह बजट मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा ही दिखाई दे रहा है। अब देखना यह है कि इस बजट का  चुनावों के परिणाम पर क्या असर होता है?

Monday, January 25, 2016

पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं ?

 जब से तेल निर्यातक देशों ने कच्चे तेल के प्रति बैरल दाम पिछले वर्ष के मुकाबले लगभग आधे कर दिए हैं, तब से दुनियाभर में पेट्रोल और डीजल के दाम में भारी गिरावट आयी है। पाकिस्तान में पेट्रोल 26 रूपये लीटर है। जबकि बांग्लादेश में 22 रूपये, क्यूबा में 19 रूपये, इटली में 14 रूपये, नेपाल में 34 रूपये, वर्मा में 30 रूपये, अफगानिस्तान में 26 रूपये, लंका में 34 रूपये और भारत में 68 रूपये लीटर है। यानि अपने पड़ोस के देशों से ढ़ाई गुने दाम पर भारतवासी पेट्रोल खरीदने पर मजबूर हैं। ये 68 रूपये का तोड़ इस तरह है कि इसमें से 1 लीटर पेट्रोल की लागत होती कुल 16.50 रूपये, जिस पर केंद्रीय कर हैं 11.80 फीसदी। उत्पादन शुल्क है 9.75 फीसदी। वैट है 4 फीसदी और बिक्री कर है 8 फीसदी। इस सब को जोड़ लें, तो भी 1 लीटर पेट्रोल की कीमत बनती है, मात्र 50.05 पैसे। फिर भारतवासियों से हर लीटर पर यह 18 रूपये अतिरिक्त क्यों वसूले जा रहे हैं? इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं है। इस तरह अरबों खरबों रूपया हर महीने केंद्र सरकार के खजाने में जा रहा है। 
 
पिछली सरकार को लेकर भ्रष्टाचार के जो बड़े-बड़े आरोप थे, उनमें अगर कुछ तथ्य था, तो यह माना जा सकता है कि यूपीए सरकार सरकारी खजाना खाली करके चली गई। अब मोदी सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं, सिवाय इसके कि वह पेट्रोल पर अतिरिक्त कर लगाकर अपनी आमदनी इकट्ठा करे। मोदी सरकार यह कह सकती है कि देश के विकास के लिए आधारभूत संरचनाएं, मसलन हाईवेज, फ्लाईओवर और दूसरी बुनियादी सेवाओं का विस्तार करना है, जो बिना अतिरिक्त आमदनी किए नहीं किया जा सकता। इसलिए पेट्रोल पर कर लगाकर सरकार अपनी विकास योजनाओं के लिए धन जुटा रही है। 
 
सरकार की मंशा ठीक हो सकती है। पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाईवे और माॅल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं। पर जिस गति से चीन का आधुनिकरण हुआ, उस गति से वहां की आमजनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। पिछले 6 महीने में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे, तो मुंह की खानी पड़ सकती है। 
 
एक तरफ तो हालत यह है कि आज हर गांव में बेरोजगारी बरकरार है या बढ़ी है। हमने ग्रामीण युवाओं को पारंपरिक व्यवसायों से दूर कर दिया। उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि न तो शहर के लायक रहे और न गांव के। मात्र 15 कुटीर उद्योग ऐसे हैं, जिन्हें अगर ग्रामीण स्तर पर उत्पादन के लिए आरक्षित कर दिया जाए और उन उत्पादनों का बढ़े कारखानों में निर्माण न हो, तो 2 साल में बेरोजगारी तेजी से खत्म हो सकती है। पर इसके लिए जैसी क्रांतिकारी सोच चाहिए, वो न तो एनडीए सरकार के पास है और न ही गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली यूपीए सरकार के पास थी। 
 
उधर रोजगार एवं प्रशिक्षण के महानिदेशक का कहना है कि भारतीय खाद्य निगम में अनाज की बोरी ढ़ोने वाले कर्मचारी को साढ़े चार लाख रूपया महीना पगार मिल रही है, जो कि भारत के राष्ट्रपति के वेतन से भी कई गुना ज्यादा है। 7वें वेतन आयोग में सरकार की ऐसी तमाम नीतियों की ओर संकेत किया है, जहां सरकार का सीधा हाथ नहीं जानता कि सरकार का बायां हाथ क्या कर रहा है। एक ही विभाग में मंत्रालय कहता है कि 2.10 लाख लोग तनख्वाह ले रहे हैं, जबकि वित्त मंत्रालय के अनुसार इस विभाग में मात्र 19 हजार कर्मचारी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है कि पिछली सरकार के समय से ही अरबों रूपये बेनामी कर्मचारियों के नाम से वर्षों से उड़ाए जा रहे हों और किसी को कानोंकान खबर भी न हो। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिक स्थिति इतनी बुरी नहीं कि आमआदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे। पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी नहीं आया है। जिसका खामियाजा आमजनता भुगत रही है। 

Monday, December 14, 2015

गोडसे ने नहीं की महात्मा गांधी की हत्या

 दुनिया यही मानती है कि नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की। पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि आत्मा अजर अमर है। इसे शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती। इस दृष्टि से महात्मा गांधी की आत्मा भी अजर अमर है। असली हत्या तो उनके विचारों की की गई और ये काम आजादी मिलते ही शुरू हो गया।
 
 जिस अखबार में आप यह लेख पढ़ रहे हैं, वो अखबार आपकी मात्र भाषा का है। अगर ये अंग्रेजी में होता तो क्या आप इसे पढ़ते ? भारत के कितने लोग अंग्रेजी लिख-पढ़ सकते हैं। पर विड़बना देखिए कि हमारी शिक्षा से लेकर न्याय पालिका तक, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक सब ओर अंग्रेजी का बोलबाला है। जबकि इस भाषा को समझने वाले देश में 2 फीसदी लोग भी नहीं हैं और यही 2 फीसदी लोग भारत के संसाधनों पर सबसे ज्यादा कब्जा जमाकर बैठे हैं, सबसे ज्यादा मौज भी इन्हीं को मिल रही है। शेष भारतवासियों का हक छीनकर ये पनप रहे हैं। पर आम भारतवासियों की आवाज इनके कानों तक नहीं पहुंचती। उनका दर्द इनके सीने में नहीं उठता। इन्हंे तो हर वक्त अपनी और अपने कुनबे की तरक्की की चिंता रहती है और हर तिगड़म लगाकर ये विकास का सारा फल हजम कर जाते हैं। इसका एक मात्र कारण यह है कि हमने गांधीजी के विचारों की हत्या कर दी। वे नहीं चाहते थे कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी एक दिन भी हिंदुस्तानियों पर हावी हो, क्योंकि वे इसे गुलाम बनाने की भाषा मानते थे।
 
 इस लेख में आगे कुछ और बताने से ज्यादा जरूरी होगा कि हम जानें कि मातृभाषा के लिए और अंग्रेजी के विरूद्ध गांधीजी के क्या विचार थे और फिर देखें कि क्या आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है ? अगर हां तो फिर उस गलती को दूर करने की तरफ सोचना होगा।
 
अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ गांधीजी ने कहा, ‘‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। ....अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बड़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’’ वे आगे कहते हैं कि “यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा देना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता।”
 
भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है ‘‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किये जा सकें। किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजी के जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’’
 
एक अवसर पर गांधीजी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा है ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती है। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते, जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
 
उन्होंने यह भी कहा कि, “मुझे लगता है कि जब हमारी संसद बनेगी तब हमें फौजदारी कानून में एक धारा जुड़वाने का आन्दोलन करना पड़ेगा। यदि दो व्यक्ति भारत की एक भाषा जानते हों और इस पर भी उनमें से कोई दूसरे को अंग्रेजी में पत्र लिखे या एक-दुसरे से अंग्रेजी में बोले तो उसे कम से कम छः महीने की सख्त सजा दी जायेगी।’’
 
साफ जाहिर है कि गांधीजी को भारत की असलियत की गहरी समझ थी। वे जानते थे कि अगर भारत में आर्थिक विकास और शिक्षा का काम गांवों की बहुसंख्यक आबादी को केंद्र में रखकर किया जाए, तभी भारत का सही विकास हो पाएगा। अन्यथा चंद लोग तो मजे करेंगे और बहुसंख्यक आबादी बर्बाद होगी। यही आज हो रहा है। असहिष्णुता हिंदू और मुसलमान के बीच में नहीं, बल्कि 2 फीसदी अंग्रेजीदां वर्ग और 98 फीसदी आम हिंदुस्तानी के बीच है। जिसे दूर करने के लिए अपनी भाषा नीति को बदलना होगा। क्या संसद इस पर विचार करेगी ?

Monday, September 28, 2015

बैंकों को न मिले देश लूटने की छूट

पिछले सप्ताह ‘बैंकों का मायाजाल’ पर इस काॅलम में लिखे गए लेख पर पूरे देश से पाठकों के बहुत सारे फोन आए हैं, जो इस विषय को विस्तार से जानना चाहते हैं। इसलिए इस विषय को फिर ले रहे हैं। आज से लगभग तीन सौ वर्ष पहले (1694 ई.) यानि ‘बैंक आॅफ इग्लैंड’ के गठन से पहले सरकारें मुद्रा का निर्माण करती थीं। चाहें वह सोने-चांदी में हो या अन्य किसी रूप में। इंग्लैंड की राजकुमारी मैरी से 1677 में शादी करके विलियम तृतीय 1689 में इंग्लैंड का राजा बन गया। कुछ दिनों बाद उसका फ्रांस से युद्ध हुआ, तो उसने मनी चेंजर्स से 12 लाख पाउंड उधार मांगे। उसे दो शर्तों के साथ ब्याज देना था, मूल वापिस नहीं करना था - (1) मनी चेंजर्स को इंग्लैंड के पैसे छापने के लिए एक केंद्रीय बैंक ‘बैंक आफ इंग्लैंड’ की स्थापना की अनुमति देनी होगी। (2) सरकार खुद पैसे नहीं छापेगी और बैंक सरकार को भी 8 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से कर्ज देगा। जिसे चुकाने के लिए सरकार जनता पर टैक्स लगाएगी। इस प्रणाली की स्थापना से पहले दुनिया के देशों में जनता पर लगने वाले कर की दरें बहुत कम होती थीं और लोग सुख-चैन से जीवन बसर करते थे। पर इस समझौते के लागू होने के बाद पूरी स्थिति बदल गई। अब मुद्रा का निर्माण सरकार के हाथों से छिनकर निजी लोगों के हाथ में चला गया यानि महाजनों (बैंकर) के हाथ में चला गया। जिनके दबाव में सरकार को लगातार करों की दरें बढ़ाते जाना पड़ा। जब भी सरकार को पैसे की जरूरत पड़ती थी, वे इन केंद्रीयकृत बैंकों के पास जाते और ये बैंक जरूरत के मुताबिक पैसे का निर्माण कर सरकार को सौंप देते थे। मजे की बात यह थी कि पैसा निर्माण करने के पीछे इनकी कोई लागत नहीं लगती थी। ये अपना जोखिम भी नहीं उठाते थे। बस मुद्रा बनायी और सरकार को सौंप दी। इन बैंकर्स ने इस तरह इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था को अपने शिकंजे में लेने के बाद अपने पांव अमेरिका की तरफ पसारने शुरू किए। 

उस समय अमेरिका के प्रांतों की सरकारें अपनी-अपनी मुद्राएं बनाती थीं। परंतु इन बैंकरों ने इंग्लैंड के राजा जार्ज द्वितीय पर दबाव डालकर इंग्लैंड के उपनिवेश अमेरिका पर दबाव डाला कि वहां की प्रांतीय सरकारें अपनी मुद्राएं न बनाएं और उन्हें जितना रूपया चाहिए, वे बैंकों से कर्ज के रूप में लें। इस शोषक व्यवस्था की स्थापना से अमेरिका में तरक्की की रास्ता रूक गया। प्रजा में अशांति हो गई और अमेरिका के लोगों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई छेड़ दी और 1776 में अमेरिका आजाद हो गया।

      आजादी के बावजूद इन बैंकरों ने हार नहीं मानीं और नए हथकंड़े अपनाकर अमेरिका में एक के बाद एक दो केंद्रीय बैंकों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली और अपनी मुद्रा छापकर उसे अमेरिका में वैध मुद्रा के रूप में स्थापित कर दिया। इस व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति एन्ड्रयू जैक्सन ने इस केंद्रीयकृत बैकिंग व्यवस्था को बंद करने की घोषणा कर दी और केंद्रीय बैंक बंद हो गया। लेकिन अपने जमा सोने के आधार पर प्रांतों के बैंक थोड़ा-थोड़ा पैसा जरूरत के हिसाब से बनाते रहे और अपने राज्यों में चलाते रहे। 1863 में जब अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ा, तो अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन को पैसे की जरूरत पड़ी और वो इन बैंकरों से पैसा मांगने गए, तो इन्होंने बहुत ज्यादा ब्याज दर की मांग की। जिसको देने पर अब्राहम लिंकन राजी नहीं थे। उन्होंने अपने सचिव के सुझाव पर स्वयं ही मुद्रा छापने का निर्णय लिया और युद्ध जीत लिया। उनकी इस कामयाबी से तिलमिलाये बैंकरों ने 1865 में अब्राहम लिंकन की हत्या करवा दी। कुछ वर्षों तक अशांति रही और इस मामले में कोई स्पष्ट नीति नहीं आयी। पर 1907 तक इन बैंकरों ने एक अफवाह फैलाकर अमेरिका के छोटे बैंकों को असफल करवा दिया और समाधान के रूप में एक केंद्रीय बैंक की स्थापना की मांग की, जो 1913 में ‘फेडरल रिजर्व‘ के नाम से स्थापित हो गया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका पर कब्जा कर लेने के बाद इन लोगों ने पिछले 100 वर्ष में धीरे-धीरे दुनिया के सभी देशों में इसी तरह के केंद्रीय रिजर्व बैंक की स्थापना करवा दी और उनकी अर्थव्यवस्थाओं पर परोक्ष रूप से अपना कब्जा जमा लिया। 

इसी क्रम में 1934 में इन्होंने ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना करवाई। शुरू में भारत का रिजर्व बैंक निजी हाथों में था, पर 1949 में इसका राष्ट्रीयकरण हो गया। 1947 में भारत को राजनैतिक आजादी तो मिल गई, लेकिन आर्थिक गुलामी इन्हीं बैंकरों के हाथ में रही। क्योंकि इन बैंकरों ने ‘बैंक आॅफ इंटरनेशनल सैटलमेंट’ बनाकर सारी दुनिया के केंद्रीय बैंकों पर कब्जा कर रखा हैं और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था वहीं से नियंत्रित कर रहे हैं। रिजर्व बैंक बनने के बावजूद देश का 95 फीसदी पैसा आज भी निजी बैंक बनाते हैं। वो इस तरह कि जब भी कोई सरकार, व्यक्ति, जनता या उद्योगपति उनसे कर्ज लेने जाता है, तो वे कोई नोटों की गड्डियां या सोने की अशर्फियां नहीं देते, बल्कि कर्जदार के खाते में कर्ज की मात्रा लिख देते हैं। इस तरह इन्होंने हम सबके खातों में कर्जे की रकमें लिखकर पूरी देश की जनता को और सरकार को टोपी पहना रखी है। इस काल्पनिक पैसे से भारी मांग पैदा हो गई है। जबकि उसकी आपूर्ति के लिए न तो इन बैंकों के पास सोना है, न ही संपत्ति और न ही कागज के छपे नोट। क्योंकि नोट छापने का काम रिजर्व बैंक करता है और वो भी केवल 5 फीसदी तक नोट छापता है, यानि सारा कारोबार छलावे पर चल रहा है। 

इस खूनी व्यवस्था का दुष्परिणाम यह है कि रात-दिन खेतों, कारखानों में मजदूरी करने वाले किसान-मजदूर हों, अन्य व्यवसायों में लगे लोग या व्यापारी और उद्योगपति। सब इस मकड़जाल में फंसकर रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। उत्पादन कर रहे हैं और उस पैसे का ब्याज दे रहे हैं, जो पैसा इन बैंकों के पास कभी था ही नहीं। यानि हमारे राष्ट्रीय उत्पादन को एक झूठे वायदे के आधार पर ये बैंकर अपनी तिजोरियों में भर रहे हैं और देश की जनता और केंद्र व राज्य सरकारें कंगाल हो रहे हैं। सरकारें कर्जें पर डूब रही हैं। गरीब आत्महत्या कर रहा है। महंगाई बढ़ रही है और विकास की गति धीमी पड़ी है। हमें गलतफहमी यह है कि भारत का रिजर्व बैंक भारत सरकार के नियंत्रण में है। 

Monday, September 21, 2015

महंगाई और मंदी के लिए बैंक जिम्मेदार

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जॉन.एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति,  ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पंेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।

Sunday, February 12, 2012

हमारी उत्पादकता कैसे बढ़े ?

Rajasthan Patrika 12 Feb 2012
राष्ट्रीय उत्पादकता की जब बात होती है तो आम आदमी समझता है कि यह मामला उद्योग, कृषि, व्यापार व जनसेवाओं से जुडा है। हर व्यक्ति उत्पादकता बढ़ाने के लिये सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार मानता है। दूसरी तरफ जापान जैसा भी देश है, जिसने अपने इतने छोटे आकार के बावजूद आर्थिक वृद्धि के क्षेत्र में दुनिया को मात कर दिया है। सूनामी के बाद हुई तबाही को देखकर दुनिया को लगता था कि जापान अब कई वर्षों तक खड़ा नहीं हो पायेगा। पर देशभक्त जापानियों ने न सिर्फ बाहरी मदद लेने से मना कर दिया, बल्कि कुछ महीनों में ही देश फिर उठ खड़ा हो गया। वहाँ के मजदूर अगर अपने मालिक की नीतियों से नाखुश होते हैं तो काम-चोरी, निकम्मापन या हड़ताल नहीं करते। अपनी नाराजगी का प्रदर्शन, औसत से भी ज्यादा उत्पादन करके करते हैं। मसलन जूता फैक्ट्री के मजदूरों ने तय किया कि वे हड़ताल करेंगे, पर इसके लिये बैनर लगाकर धरने पर नहीं बैठे। पहले की तरह लगन से काम करते रहे। फर्क इतना था कि अगर जोड़ी जूता बनाने की बजाय एक ही पैर का जूता बनाते चले गये। इससे उत्पादन भी नहीं रूका और मालिक तक उनकी नाराजगी भी पहुँच गयी।

जबकि हमारे देश में हर नागरिक समझता है कि कामचोरी और निकम्मापन उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। दफ्तर में आये हो तो समय बर्बाद करो। कारखाने में हो तो बात-बात पर काम बन्द कर दो। सरकारी विभागों में हो तो तनख्वाह को पेंशन मान लो। मतलब यह कि काम करने के प्रति लगन का सर्वथा अभाव है। इसीलिये हमारे यहाँ समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है। एक छोटा सा उदाहरण अपने इर्द-गिर्द की सफाई का ही ले लीजिये। अगर नगर पालिका के सफाई कर्मचारी काम पर न आयें तो एक ही दिन में शहर नर्क बन जाता है। हमें शहर की छोड़ अपने घर के सामने की भी सफाई की चिन्ता नहीं होती। बिजली और पानी का अगर पैसा न देना हो तो उसे खुले दिल से बर्बाद किया जाता है। सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तो दूर उसे बर्बाद करने या चुराने में हमें महारथ है। इसलिये सार्वजनिक स्थलों पर लगे खम्बे, बैंच, कूड़ेदान, बल्ब आदि लगते ही गायब हो जाते हैं। सीमान्त प्रांतों में तस्करी करना हो या अपने गाँब-कस्बे, शहर में कालाबाजारी, अवैध धन कमाने में हमें फक्र महसूस होता है। पर सार्वजनिक जीवन में हम केवल सरकार को भ्रष्ट बताते हैं। अपने गिरेबाँ में नहीं झाँकते।

देश की उत्पादकता बढ़ती है उसके हर नागरिक की कार्यकुशलता से। पर अफसोस की बात यह है कि हम भारतीय होने का गर्व तो करते हैं, पर देश के प्रति अपने कर्तव्यों से निगाहें चुराते हैं। जितने अधिकार हमें प्रिय हैं, उतने ही कर्तव्य भी प्रिय होने चाहियें। वैसे उत्पादकता का अर्थ केवल वस्तुओं और सेवा का उत्पादन ही नहीं, बल्कि उस आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें हर नागरिक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सहजता से करले और उसके मन में संतोष और हर्ष का भाव हो। पुरानी कहावत है कि इस दुनिया में सबके लिये बहुत कुछ उपलब्ध है। पर लालची व्यक्ति के लिये पूरी दुनिया का साम्राज्य भी उसे संतोष नहीं दे सकता। व्यक्ति की उत्पादकता बढ़े, इसके लिये जरूरी है कि हर इंसान को जीने का तरीका सिखाया जाये। कम भौतिक संसाधनों में भी हमारे नागरिक सुखी और स्वस्थ हो सकते हैं। जबकि अरबों रूपये खर्च करके मिली सुविधाओं के बावजूद हमारे महानगरों के नागरिक हमेशा तनाव, असुरक्षा और अवसाद में डूबे रहते हैं। वे दौड़ते हैं उस दौड़ में, जिसमें कभी जीत नहीं पायेंगे। वैसे भी इस देश की सनातन संस्कृति सादा जीवन और उच्च विचार की रही है। लोगों की माँग पूरी करने के लिये आज भी देश में संसाधनों की कमी नहीं है। पर किसी की हवस पूरी करने के लिये कभी पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हो सकते। इसलिये रूहानियत या आध्यात्म का, व्यक्ति के तन, मन और जीवन से गहरा नाता है। देश में अन्धविश्वास या बाजारीकरण की जगह अगर आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना होगी तो हम सुखी भी होंगे और सम्पन्न भी।

संत कबीर कह गये हैं ‘मन लागो मेरो यार फकीरी में, जो सुख पाऊँ राम भजन में वो सुख नाहिं अमीरी में’। बाजार की शक्तियाँ, भारत की इस निहित आध्यात्मिक चेतना को नष्ट करने पर तुली हैं। काल्पनिक माँग का सृजन किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापन दिखाकर लोगों को जबरदस्ती बाजार की तरफ खींचा जा रहा है। कहा ये जाता है कि माँग बढ़ेगी तो उत्पादन बढ़ेगा, उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेगा तो आर्थिक सम्पन्नता आयेगी। पर हो रहा है उल्टा। जितने लोग हैं, उन्हें पश्चिमी देशों जैसी आर्थिक प्रगति करवाने लायक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं और ना ही वैसी प्रगति की जरूरत है। इसलिये अपेक्षा और उपलब्धि में खाई बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि हताशा, अराजकता, हिंसा या आत्महत्यायें बढ़ रही हैं। यह कोई तरक्की का लक्षण नहीं। उत्पादकता बढ़े मगर लोगों के बीच आनन्द और संतोष भी बढ़े, तभी इसकी सार्थकता है।

Sunday, December 18, 2011

विकास के साथ राजनीति

राजस्थान पत्रिका 18 Dec
यूरोप व अमेरीका की मंदी के बाद पूरी दुनिया की निगाहें भारत और चीन पर टिकी हैं। पर अब कहा जा रहा है कि मंदी भारत के दरवाजे पर भी दस्तक दे रही है। खाद्य पदार्थों की कीमत में आई गिरावट और ऑटोमोबाइल बाजार की मांग में गिरावट को इसका संकेत माना जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब महंगाई बढ़ती है तो विपक्ष और मीडिया इस कदर तूफान मचाता है कि मानो आसमान टूट पड़ा हो। वह यह भूल जाता है कि जहां मुद्रास्फिति डकैत होती हैं वहीं मुद्रविस्फिति हत्यारी होती है। लूटा हुआ आदमी तो फिर से खड़ा हो सकता है पर जिसकी हत्या हो जाए वह क्या करेगा ? इसलिए महंगाई को विकास का द्योतक माना जाता है। इसीलिए पिछले दिनों जब महंगाई बढ़ी और विपक्ष एवं मीडिया ने आसमान सिर पर उठा लिया तो सरकार ने चेतावनी दी थी कि महंगाई कम करने के चक्कर में मंदी आने का डर है।
विपक्ष के पास भी अर्थशास्त्रियों की कमी नहीं है। वह जानता था कि सरकार की बात में दम है पर महंगाई के विरोध में शोर मचाना हर विपक्षी दल की राजनैतिक मजबूरी होती है। मजबूरन सरकार ने कुछ मौद्रिक उपाए किए जैसे बैंकों की ब्याज दर बढ़ाई। ब्याज दर बढ़ने से लोग उधार कम लेते हैं जिससे मांग में कमी आती है और कीमतें गिरने लगती है। सरकार की मौद्रिक नीति के अपेक्षित परिणाम सामने आए,पर यह हमारी अर्थ व्यवस्था के लिए ठीक नहीं रहा।
 पिछले दिनों भारत पूरी दुनिया में अपनी आर्थिक मजबूती का दावा करता रहा है। विदेशी मुद्रा के भण्डार भी भरे हैं। वैश्विक मंदी के पिछले वर्षों के झटकें को भी भारत आराम से झेल गया था। ये बात विदेशी ताकतों को गवारा नहीं होती इसलिए वे भी मीडिया में ऐसी हवा बनाते हैं कि सरकार रक्षात्मक हो जाए। कुल मिलाकर यह मानना चाहिए कि अगर मंदी की आहट जैसी कोई चीज है तो उसके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं जिन्होंने महंगाई पर शोर मचाकर विकास की प्रक्रिया को पटरी से उतारने का काम किया है। उदाहारण के तौर पर खाद्यान्न की महंगाई से किसको परेशान होना चाहिए था ? देश के गरीब आदमी को ? पर इस देश की 68 फीसदी आबादी जो गांव में रहती है, खाद्यान्न की महंगाई से उत्साहित थी क्योंकि उसे पहली बार लगा कि उसकी कड़ी मेहनत और पसीने की कमाई का कुछ वाजिब दाम मिलना शुरू हुआ। क्योंकि यह आबादी खाद्यान्न के मामले में अपने गांवों की व्यवस्था पर निर्भर है। शोर मचा शहरों में। शहरों के भी उस वर्ग से जो किसान और उपभोक्ता के बीच बिचैलिए का काम कर भारी मुनाफाखोरी करता है। उस शोर का आज नतीजा यह है कि आलू और प्याज 1 रूपया किलों भी नहीं बिक रहा है। किसानों को अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ी रही है। भारत मंदी के झटके झेल सकता है, अगर हम आर्थिक नीतियों को राजनैतिक विवाद में घसीटे बिना देश के हित में समझने और समझाने का प्रयास करें तो।
 वैसे भी मंदी तब मानी जाए जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो। पर देश का सम्पन्न वर्ग, जिसकी तादाद कम नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर से भी ऊंचा जीवन-यापन कर रहा है। जरूरत है साधन और अवसरों के बटवारें की। उसके दो ही तरीके हैं। एक तो साम्यवादी और दूसरा बाजार की शक्तियों का आगे बढ़ना। इससे पहले कि मंदी का हत्यारा खंजर लेकर भारतीय अर्थ व्यवस्था के सामने आ खड़ा हो, देश के अर्थशास्त्रियों को उन समाधानों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे हमारी अर्थ व्यवस्था मजबूत बने। वे एक सामुहिक खुला पत्र जारी कर सभी राजनैतिक दलों से अपील कर सकते हैं कि आर्थिक विकास की कीमत पर राजनीति न की जाए।

Sunday, November 20, 2011

भारत में अभी काफी दम है


जहाँ एक तरफ धनी देश एक के बाद एक, आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं, वहीं राहत की बात यह है कि एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाऐं और यूरोप के पड़ौसी देशों में आर्थिक प्रगति की दर काफी उत्साहजनक रही है। टर्की का सकल घरेलू उत्पाद 2010 में नौ फीसदी सालाना रहा। जो कि चीन की विकास दर के करीब था। इसी तरह 27 देशों के यूरोपीय संघ में से पौलेंड की आर्थिक प्रगति भी ठीक रही। पर जिस तरह का आर्थिक संकट यूनान व इटली में सामने आया, उससे यूरोपीय संघ के नेतृत्व के नीचे से जमीन सरक गई है। भारी घाटे की वित्तीय व्यवस्था से चलती यूरोप के कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने बैंकों का विश्वास डिगा दिया है। इन अर्थव्यवस्थाओं को उबारने के लिए जिस तरह के राहत पैकेज पेश किए गए, वे नाकाफी रहे हैं। यूरोपीय बैंकों पर दबाब है कि वे बाहर के देशों में ऋण न देकर, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था को उबारने में मदद करें। यहाँ तक कि जर्मनी के दूसरे सबसे बड़े बैंक ‘कॉमर्स बैंक’ ने कहा है कि वह अपने देश के बाहर कोई ऋण नहीं देगा। अगर बैंक यह नीति अपनाते हैं, तो पहले से खाई में सरकती यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाऐं और भी गहरे संकट में फंस जाएंगी। 

यूरोपीय देशों के इस पतन का कारण वहाँ का, अब तक का, आर्थिक मॉडल और जीवनशैली रही है। इन देशों ने पहले तो पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का सहारा लेकर, उपनिवेशों का शोषण किया और उनके आर्थिक संसाधनों का दोहन किया तथा अपनी अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत बनाया। उपनिवेशवाद के बाद इन्होंने तकनीकि की श्रेष्ठता के आधार पर, दुनिया के व्यापार में अपना फायदा कमाया। 

पर जबसे एशियाई देशों की आर्थिक प्रगति ने जोर पकड़ा है, तबसे उत्पादक और उपभोक्ता, दोनों ही इन देशों  में पनपे हैं। जिससे यूरोप की श्रेष्ठता बेमानी हो गई है। अब न तो यूरोप का तकनीकि ज्ञान चाहिए और न ही उनके बाजार से कोई ज्यादा उम्मीद है। इसलिए यूरोप के देश विश्व अर्थव्यवस्था में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। एक तरफ यह आर्थिक मार और दूसरी तरफ यूरोप वासियों का वैभवपूर्ण जीवन जीने का पुराना रवैया, दोनों में विरोधाभास है। ‘आमदनी अठन्नी और खर्चा रूपया’, इसलिए वहाँ बज रहा है हर घर का बाजा। जनता में भारी हताशा और असुरक्षा घर कर गई है। मौज-मस्ती और सैर-सपाटों में लगे रहने वाले यूरोपवासी अब आए दिन सड़कों पर धरने, प्रदर्शन और घेराव कर रहे हैं। इस सबके बावजूद यूरोप के राजनेताओं और नौकरशाहों ने अपना विलासितापूर्ण खर्चीला व्यवहार पूरी तरह बदला नहीं है। हालांकि उसमें पहले के मुकाबले काफी गिरावट आयी है। फिर भी यूरोपीय देशों में सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्था वाले जर्मनी की चांसलर को यह कहना पड़ा कि इन देशों की सरकारों को आर्थिक अनुशासन के मामले में कड़ाई बरतनी पड़ेगी। 

दूसरी तरफ भारत की आर्थिक प्रगति ने दुनियाभर अपने झण्डे गाढ़े हैं। जो बात पश्चिम को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है, वह है भारत का लोकतंत्र के साथ उदारीकरण को अपनाना। जबकि चीन की आर्थिक प्रगति के पीछे वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही है। भारतीय मॉडल की अपनी सीमाऐं हैं और अपने खतरे भी हैं। मसलन भारी भ्रष्टाचार, आधारभूत ढांचे की बेहद कमी और व्यापक गरीबी। जो कभी भी इस प्रक्रिया को पटरी से उतार सकती है। जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है, दूरसंचार साधनों की प्रगति ने, जनता में भ्रष्टाचार के प्रति जागृति पैदा की है। जो धीरे-धीरे जनान्दोलनों का स्वरूप लेती जा रही है। आधारभूत ढांचे की कमी से निपटने के लिए भारत के उद्योगपति अपनी ही व्यवस्थाऐं खड़ी कर लेते हैं। गरीबी से निपटना बहुत बड़ी चुनौती है और जब तक आर्थिक विकास के साथ आर्थिक बंटवारा भी समानान्तर रूप से साथ नहीं चलेगा, तब तक अनिश्चितता बनी रहेगी। 

इस सबके बावजूद भारतीय औद्योगिक घरानों ने जिस तरह दुनियाभर में अपने पंख फैलाए हैं, उससे पश्चिमी देश सकते में आ गए हैं। टाटा का रॉल्स रॉयस व जगुआर जैसी कम्पनियाँ खरीदना, लक्ष्मी मित्तल का स्टील साम्राज्य, इन्फोसिस का आई.टी. उद्योग में छा जाना, महेन्द्रा और हिन्दुजा जैसे घरानों का दुनियाभर में कारोबार फैलाना, कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारत का उद्यमी अब दुनिया में कहीं भी बड़े-बड़े विनियोग करने में सक्षम है। इतने महंगे दामों पर भारतीयों द्वारा विदेशी कम्पनियों को खरीदा गया है कि दुनिया के पैसे वाले और बड़े-बड़े बैंक हैरान रह गए हैं। 

भारत के उद्योगपतियों में तीन तरह की नेतृत्व क्षमता देखी गई है। एक तो वे समूह हैं, जिनके नेतृत्व ने जोखिम उठाना ठीक नहीं समझा और परिवार के नियन्त्रण में अपने पारंपरिक साम्राज्य को नियन्त्रित रखा। नए विकल्पों पर ध्यान नहीं दिया। ऐसे औद्योगिक घराने इस दौर में पीछे छूट गए। दूसरे वे हैं, जिन्होंने हवा के रूख को पहचाना और अपने साम्राज्य का विस्तार अनेक दिशाओं में किया, जैसे टाटा, महिन्द्रा आदि। तीसरे वे हैं, जो पिछले बीस सालों में अपने बलबूते पर उठे और दुनिया के नक्शे पर छा गए। जैसे इन्फोसिस, रिलायंस, अडानी, मित्तल आदि। इनमें भी दो तरह के समूह रहे हैं। एक वे, जिन्होंने व्यक्तिग योग्यता और सामूहिक प्रबन्धन को महत्व दिया और सही मायने में कॉरपोरेट संस्कृति को विकसित किया। दूसरे वे हैं, जिन्होंने इस देश की राजनैतिक व्यवस्था की कमजोर नब्ज पर अपनी उंगलियाँ रखीं और इस राजनैतिक व्यवस्था का पूरा इस्तेमाल अपनी प्रगति के लिए किया तथा आशातीत सफलता प्राप्त की। इस बात की परवाह किए बिना कि उनके तौर-तरीकों को लेकर देश में कई सवाल खड़े होते रहे हैं। 

कुल मिलाकर भारतीय उद्यमियों ने दुनिया को दिखा दिया कि उद्योग और व्यापार के मामले में हिन्दुस्तानी किसी से कम नहीं। अब तो दुनिया भी मानने लगी है कि भारत जिसे सोने की चिड़िया कहा जाता था और जिसे सैंकड़ों साल लूटा गया, वह एक बार फिर सोने की चिड़िया बनने की कगार पर है। भारत की इस नई बनती पहचान से हमें गर्व होना अस्वाभाविक बात नहीं। पर साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि इसी भारत माँ के 60 करोड़ बच्चे अभी भी बदहाली की जिन्दगी जी रहे हैं। अगर इनकी आर्थिक प्रगति साथ-साथ नहीं हुई, तो इनका संगठित आक्रोश भारत के जमे जमाए उद्योग को उसी तरह उखाड़ सकता है, जैसे बंगाल के आम लोगों ने नैनो कार के प्लांट को बनने से पहले ही उठाकर बाहर फैंक दिया। 

इसलिए हमें दोनों पैरों पर चलना है, एक पैर से औद्योगिक विकास व दूसरे पैर से कृषि तथा कुटीर उद्योग से आम लोगों की आर्थिक प्रगति। इसके साथ ही भ्रष्टाचार से मुक्ति और सरकारी फिजूलखर्ची पर कड़ा अनुशासन। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो निश्चय ही भारत अगले 10-15 वर्षों में, दुनिया की सबसे सशक्त अर्थव्यवस्था बन सकता है।