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Monday, January 1, 2024

ऑनलाइन शादी के ख़तरे


जब से सोशल मीडिया का नेटवर्क पूरी दुनिया में बढ़ा है तब से इसका प्रयोग करने वालों की संख्या भी करोड़ों में पहुँच गई है। इसका एक लाभ तो यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति दूसरे छोर पर बैठे व्यक्ति से 24 घंटे संपर्क में रह सकता है। फिर वो चाहे आपसी चित्रों का आदान-प्रदान हो, टेलीफोन वार्ता हो या कई लोगों की मिलकर ऑनलाइन मीटिंग हो। इसका एक लाभ उन लोगों को भी हुआ है जो जीवन साथी की तलाश में रहते हैं। फिर वो चाहे पुरुष हों या महिलाएँ। हम सबकी जानकारी में ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्होंने इस माध्यम का लाभ उठा कर अपना जीवन साथी चुना है और सुखी वैवाहिक जीवन बिता रहे हैं। पर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। अगर एक पहलू यह है तो दूसरा पहलू ये भी है जहां सोशल मीडिया का दुरुपयोग करके बहुत सारे लोगों को धोखा मिला है और आर्थिक व मानसिक यातना भी झेलनी पड़ी है। 



भारत में किसी अविवाहित महिला का जीवन जीना आसान नहीं होता। उस पर समाज और परिवार का भारी दबाव रहता है कि वो समय रहते शादी करे। चूँकि आजकल शहरों की लड़कियाँ काफ़ी पढ़-लिख रही हैं और अच्छी आमदनी वाली नौकरियाँ भी कर रही हैं इसलिए प्रायः ऐसी महिलाएँ केवल माता-पिता के सुझाव को मान कर पुराने ढर्रे पर शादी नहीं करना चाहती। वे अपने कार्य क्षेत्र में या फिर सोशल मीडिया पर अपनी पसंद का जीवन साथी ढूँढती रहती हैं। इसके साथ ही ऐसी महिलाओं की संख्या कम नहीं है जो कम उम्र में तलाकशुदा हो गईं या विधवा हो गईं। इन महिलाओं के पास भी अपने गुज़ारे के लिए आर्थिक सुरक्षा तो ज़रूर होती है परन्तु भावनात्मक असुरक्षा के कारण इन्हें भी फिर से जीवन साथी की तलाश रहती है। इन दोनों ही क़िस्म की महिलाओं को दुनिया भर में बैठे ठग अक्सर मूर्ख बना कर मोटी रक़म ऐंठ लेते हैं। बिना शादी किए ही इनकी ज़िंदगी बर्बाद कर देते हैं। ऐसी ही कुछ सत्य घटनाओं पर आधारित बीबीसी की एक वेब सीरीज ‘वेडिंग.कॉन’ इसी हफ़्ते ओटीटी प्लेटफार्म आमेजन प्राइम पर जारी हुई है। यह सीरीज इतनी प्रभावशाली है कि इसे हर उस महिला को देखना चाहिए जो सोशल मीडिया पर जीवन साथी की तलाश में जुटी हैं। बॉलीवुड की मशहूर निर्माता-निर्देशक तनुजा चंद्रा ने बड़े अनुभवी और योग्य फ़िल्मकारों की मदद से इसे बनाया है। 



इस सिरीज़ में जिन महिलाओं के साथ हुए हादसे दिखाए गए हैं उनमें से एक विधवा महिला तो अपनी मेहनत की कमाई का लगभग डेढ़ करोड़ रुपया उस व्यक्ति पर लुटा बैठी जिसे उसने कभी देखा तक न था। इसी तरह एक दूसरी महिला ने पचास लाख रुपये गवाए तो तीसरी महिला ने बाईस लाख रुपये। चिंता की बात यह है कि ये सभी महिलाएँ खूब पढ़ी-लिखी, संपन्न परिवारों से और प्रोफेशनल नौकरियों में जमी हुई थीं। शादी की चाहत में सोशल मीडिया पर ये ऐसे लोगों के जाल में फँस गईं जिन्होंने अपनी असलियत छिपा कर शादी की वेब साइटों पर नक़ली प्रोफाइल बना रखे थे। ये ठग इस हुनर में इतने माहिर थे कि उनकी भाषा और बातचीत से इन महिलाओं को रत्ती भर भी शक नहीं हुआ। वे बिना मिले ही उनके जाल में फँसती गईं और उनकी भावुक कहानियाँ सुन कर अपने खून-पसीने की कमाई उनके खातों में ट्रांसफ़र करती चली गई। इन महिलाओं को कभी यह लगा ही नहीं कि सामने वाला व्यक्ति कोई बहरूपिया या ठग है और वो बनावटी प्यार जता कर इन्हें अपने जाल में फँसा रहा है। इनमें से दो व्यक्ति तो ऐसे निकले जो तीस से लेकर पचास महिलाओं को धोखा दे चुके थे। तब कहीं जा कर पुलिस उन्हें पकड़ पाई। 


आश्चर्य की बात यह है कि सभ्रांत परिवार की यह पढ़ी-लिखी महिलाएँ इस तरह ठगों के झाँसे में आ गईं कि पूरी तरह लुट जाने के पहले उन्होंने कभी अपने माता-पिता तक से इस विषय में सलाह नहीं ली और न ही उन्हें अपने आर्थिक लेन-देन के बारे में कभी कुछ बताया।


जब इन्हें यह अहसास हुआ कि वे किसी आधुनिक ठग के जाल में फँस चुकी हैं तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इस अप्रत्याशित परिस्थिति ने उन्हें ऐसा सदमा दिया कि कुछ तो अपने होशोहवास ही गँवा बैठी। उनके माता-पिता को जो आघात लगा वो तो बयान ही नहीं किया जा सकता। फिर भी इनमें से कुछ महिलाओं ने हिम्मत जुटाई और पुलिस में शिकायत लिखवाने का साहस दिखाया। फिर भी ये ज़्यादातर ठगों को पकड़वा नहीं सकीं। साइबर क्राइम से जुड़े पुलिस के बड़े अधिकारी और साइबर क्राइम के विशेषज्ञ वकील ये कहते हैं कि मौजूदा क़ानून और संसाधन ऐसे ठगों से निपटने के लिए नाकाफ़ी हैं। इनमें से भी जो ठग विदेशों में रहते हैं उन तक पहुँचना तो नामुमकिन है। क्योंकि ऐसे ठगों का प्रत्यर्पण करवाने के लिए भारत की दूसरे देशों से द्विपक्षीय प्रत्यर्पण संधि नहीं है। देसी ठगों को भी पकड़ना इतना आसान नहीं होता क्योंकि वह फ़र्ज़ी पहचान, फ़र्ज़ी आधार कार्ड, फ़र्ज़ी पैन कार्ड, फ़र्ज़ी टेलीफोन नंबर का प्रयोग करते हैं और अपने मक़सद को हासिल करने के बाद इन सबको नष्ट कर देते हैं। 

इस सिरीज़ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह करोड़ों भारतीय महिलाओं को बहुत गहराई से ये समझाने में सफल रही है कि शादी के मामले में सोशल मीडिया की सूचनाओं को और इसके माध्यम से संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को तब तक सही न माने जब तक उनकी और उनके परिवार की पृष्ठभूमि की किसी समानांतर प्रक्रिया से जाँच न करवा लें। कोई कितना भी प्रेम क्यों न प्रदर्शित करे, अपने वैभव का कितना भी प्रदर्शन क्यों न करे उसे एक पैसा भी शादी से पहले किसी क़ीमत पर न दें। शादी के बाद भी अपने धन और बैंक अकाउंट को अपने ही नियंत्रण में रखें, उसे नये रिश्ते के व्यक्ति के हाथों में न सौंप दें वरना जीवन भर पछताना पड़ेगा। जिन महिलाओं के पास ओटीटी प्लेटफार्म की सुविधा नहीं है अपने मित्रों या रिश्तेदारों के घर जा कर इस सिरीज़ को अवश्य देखें और अपने साथियों को इसके बारे में बताएँ। ताकि भविष्य में कोई महिला इन ठगों के जाल में न फँसे।  

Monday, October 31, 2022

परदेस में कितने देसी नेता


क्या आप जानते हैं कि इंग्लैंड के अलावा भी कई देशों में भारतीय मूल के प्रधान मंत्री हैं? दीपावली के दिन जैसे ही ये खबर आई कि ऋषि सौनक निर्विरोध ब्रिटेन के प्रधान मंत्री चुन लिए गये हैं, तो विश्व भर के हिंदुओं में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी, विशेषकर भारत में। लोग बल्लियों उछलने लगा। मानो भारत ने इंग्लैंड को जीत लिया हो। औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे भारतीयों के लिए निश्चय ही ये एक गर्व का विषय है कि ऋषि सौनक उन गोरों के प्रधान मंत्री हैं जो कभी भारतीयों को शासन करने में नाकारा बताते थे। यह भी सही है की ऋषि सौनक के पूर्वजों की जड़ें पूर्वी पाकिस्तान और भारत से जुड़ी हैं और वे इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति के दामाद हैं। इससे भी ज़्यादा यह कि वे स्वयं को हिंदू घोषित कर चुके हैं और उन्होंने अपनी सांसदीय शपथ भी भगवद् गीता पर हाथ रख कर ली थी। इससे आगे ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिये भारत के कुछ लोग इतने उत्साहित हैं।


ऋषि सौनक को ये संस्कार श्रील ए॰सी॰ भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्थापित इस्कॉन ने दिए हैं, जो मानता है कि हम हिंदू नहीं, हमारी पहचान सनातन धर्मी के रूप में है। जबकि कुछ संगठन सभी सनातन शास्त्रों व मान्यताओं के विपरीत चलते हुए अपना ही बनाया ‘हिंदुत्व’ सब पर थोपते हैं। लंदन के इस्कॉन मन्दिर में ऋषि सौनक ने सपरिवार जा कर गौ माता का पूजन किया तो कुछ लोग इसे इंग्लैंड में भारतीय संस्कृति के प्रसार की संभावना मान कर अति उत्साहित हो गये। पर अगले ही दिन ऋषि सौनक ने ट्विटर पर लिखा कि मेरा संसदीय क्षेत्र गाय और बकरों के मांस का व्यापार करने वालों का है। ये एक बढ़िया उद्योग है। कोई क्या खाए, ये उसकी पसंद से तय होता है। इसलिए मैं इस उद्योग को पूरा बढ़ावा दूँगा- देश में भी और विदेश में भी। 



इसके बाद ही ऋषि सौनक के श्वसुर नारायणमूर्ति व सास सुधा नारायण मूर्ति के काफ़ी निकट के मित्र, प्रधान मंत्री मोदी जी व आरएसएस के नेताओं के भी ख़ास सहयोगी व सलाहकार, बेंगलुरु के मशहूर उद्योगपति मोहन दास पाई ने ट्वीटर पर लिखा कि ऋषि सौनक इंग्लैंड के नागरिक हैं और उनका समर्पण इंग्लैंड के प्रति है। वे यूके के हित के सामने भारत के लिए कुछ भी नहीं करने जा रहे। भारत उनसे कोई आशा न रखे। उन्होंने ये भी लिखा कि ऋषि सौनक का भारत के प्रति कड़ा तेवर रहने वाला है इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिये।  


पिछले हफ़्ते सोशल मीडिया पर छाये रहे इस पूरे प्रकरण से कुछ बातें समझनी चाहिए। पहली बात तो यह है कि भारतीय मूल के जो युवा विदेशों में पैदा हुए और पले बढ़े और वहीं के नागरिक हैं, उनका भारत के प्रति न तो वह भाव है और न ही वह आकर्षण, जो उनके माता-पिता या पूर्वजों का रहा है, जो भारत में जन्में थे और बाद में विदेशों में जा बसे। 


ऋषि सौनक भारतीय उपमहाद्वीप मूल के पहले युवा नहीं हैं जो इस ऊँचाई तक पहुँचे हैं। अमरीका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की ननिहाल तमिल नाडू में है। उन्हें दक्षिण भारतीय खाना पसंद है और वे अपने मौसी-मामाओं से जुड़ी रहती हैं। पर भारत के प्रति कमला हैरिस का रवैया वही है जो आम अमरीकी का है। मसलन वे कश्मीर को मानवाधिकार का विषय मानती हैं। जो भारतीय दृष्टिकोण के विरुद्ध है।


हम में से कितने लोग यह जानते हैं कि 2017-2020 तक आयरलैंड के प्रधान मंत्री रहे लिओ वराडकर के माता-पिता मुंबई के पास वसई के रहने वाले हैं। लिओ ने 2003 में मुंबई के केईएम अस्पताल से इण्टर्नशिप पूरी की थी। उनकी माँ आयरिश हैं और पिता भारतीय। लिओ वराडकर की इस प्रभावशाली सफलता का भारत में कोई ज़िक्र क्यों नहीं करता? क्या इसलिए कि वे ईसाई हैं? ये बहुत ओछि  मानसिकता का परिचायक है। 



इसी तरह पुर्तगाल के मौजूदा प्रधान मंत्री एंटोनियो कोस्टा भी भारतीय मूल के हैं। उनके माता-पिता का जन्म गोवा में हुआ था। ये दूसरी बार प्रधान मंत्री चुने गये हैं। विडंबना देखिए कि न तो भारत के मीडिया को इसकी खबर है और ना ही देश की जनता को। तो फिर भारत माँ के इन सपूतों की इस उपलब्धि पर जश्न कौन मनाएगा? जबकि एंटोनियो कोस्टा तो आज भी ओसीआई कार्ड के धारक हैं और लिओ वराडकर अक्सर अपने रिश्तेदारों से मिलने महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में आते रहते हैं। पर इसकी मीडिया में कहीं कोई चर्चा क्यों नहीं होती? ये प्रमाण हैं इस बात का कि देश का मीडिया कितना संकुचित और कुंद हो गया है। ये रवैया भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि और लोकतंत्र के लिए घातक है।


पिछले कुछ वर्षों से हिंदुत्व को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है उसे लेकर देश के करोड़ों सनातन धर्मियों के मन में अनेक प्रश्न खड़े हो रहे हैं, जिनका संतुष्टि पूर्ण उत्तर संघ परिवार के सर्वोच्च पदाधिकारियों को देना चाहिए। एक तरफ़ तो सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत जी ऐसे वक्तव्य देते हैं जिससे लगता है कि संघ अपने कट्टरपंथी चोले से बाहर आ रहा है। जैसे मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक है। अब मस्जिदों में और शिव लिंग खोजना बंद करें। दूसरी तरफ़ संघ प्रेरित सोशल मीडिया का दिन-रात हमला मुसलमानों के विरुद्ध भावनाएँ भड़काने के लिए होता रहता है। ये विरोधाभास क्यों? 


एक तरफ़ तो संघ परिवार हिंदुत्व की जमकर पैरवी करता है और दूसरी तरफ़ सनातन धर्म की परंपराओं, वैदिक शास्त्रों और शंकराचार्य जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के विरुद्ध आचरण भी करता है। ये विरोधाभास क्यों? ऐसे में हमारे जैसा एक आस्थावान सनातन धर्मी किस मार्ग का अनुसरण करे? ये भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही हमारे समाज और राष्ट्र के हित में होगा। वरना हम इसी तरह ऋषि सौनक की उपलब्धि पर तो बल्लियों उछलेंगे और एंटोनियो कोस्टा व लिओ वराडकर की उपलब्धियों से मूर्खों की तरह बेख़बर बने रहेंगे। भागवत जी के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो ये खाई अब पटनी चाहिए।  

Monday, August 8, 2022

अपनी नागरिकता छोड़ क्यों रहे हैं भारतीय?


कुछ हफ़्तों पहले गृह मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के उत्तर पे एक चौंका देने वाले आँकड़े बताए। आँकड़ों के अनुसार 2015 से 2021 के बीच 9 लाख 32 हजार 276 भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ी है। गृह मंत्रालय के अनुसार केवल साल 2021 में 163,370 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी। मंत्रालय के अनुसार इन भारतीयों नेनिजी वजहोंसे नागरिकता छोड़ने का फ़ैसला लिया। सवाल उठता है कि इतने बड़े पैमाने में भारतीय देश छोड़ कर क्यों जा रहे हैं?


गौरतलब है कि कोरोना काल में बहुत सारे बड़े उद्योगपति देश छोड़ कर कनाडा, अमेरिका, यूके, यूएई और  यूरोप आदि जैसे देशों में चले गए। इन धनकुबेरों के देश छोड़ने की एक बड़ी वजह कोरोना को बताया गया। हालांकि 2022 में भी इन उद्योगपतियों का देश छोड़ अन्य देश में बसने का सिलसिला जारी है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं। इसके साथ ही, अमीरों के देश से पलायन की मुख्य वजह टैक्स से जुड़े सख्त नियम बताये गये हैं। पिछले महीने एक ब्रिटिश कम्पनी की रिपोर्ट ने यह दावा किया था कि भारत से लगभग 8,000 करोड़पति 2022 में विदेशों में शिफ्ट हो सकते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि ये लोग उन देशों में जाना चाहते हैं जहां का पासपोर्ट ज्यादा ताकतवर माना जाता है।



जो भी लोग भारत छोड़ विदेशों में नौकरी के सिलसिले में जाते हैं उन्हें वहाँ पर मिलने वाली सुख-सुविधाएँ इतनी प्रभावित करती हैं कि वे लौट कर भारत नहीं आना चाहते। कुछ लोग तो वहाँ काम करते-करते अपना घर तक बसा लेते हैं। परिवार बढ़ने के बाद जब उन्हें वहाँ की नागरिकता मिल जाती है तो उसकी तुलना वे भारत में मिलने वाली सुविधाओं के साथ करते हैं। विदेशों में जा कर बसे भारतीय वहाँ पर काम करने के माहौल, बच्चों की पढ़ाई, रहने के ढंग आदि को काफ़ी सकारात्मक मान कर अपनी जन्मभूमि से नाता तोड़ने पर मजबूर होते हैं। यह पहली बार नहीं है जब भारतीय लोग देश छोड़ कर विदेशों में बसने लगे हैं। ऐसा चलन तो दशकों से चल रहा है। परंतु हाल ही के वर्षों में यह कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया है। भारतीयों को नागरिकता देने वाले देशों में अमेरिका ने सबसे ज्यादा नागरिकता दी है। आज़ादी के 75 वर्षों में अगर बड़े पैमाने पर भारतीय मूलभूत सुविधाओं की खोज में देश छोड़ कर जाने को मजबूर हो रहे हैं तो यह एक चिंता का विषय है। 


एक सर्वे के मुताबिक़ व्यापारी वर्ग का मानना है कि भारत में उन्हें अपने व्यापार या कारोबार की सुरक्षा की चिंता है। यह सुरक्षा देश में विभिन्न करों और नियमों में आए दिन होने वाले बदलावों के कारण भी है। इसी असुरक्षा के कारण इन उद्योगपतियों को देश छोड़ने का निर्णय लेना पड़ रहा है। यदि भारत में उद्योगपतियों को उनके व्यापार के प्रति सुरक्षा की गारंटी मिल जाए तो शायद यह पलायन इतनी बड़ी संख्या में हो। एक ओर तो व्यापारिक सुरक्षा कारण है तो वहीं दूसरी ओर देश का क़ानून भी कुछ लोगों को नागरिकता छोड़ने पर मजबूर कर देता है। फिर आप चाहे उनको भगोड़े कहें या हाईप्रोफ़ाइल अपराधी, मेहुल चोकसि, विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे सैंकड़ों उदाहरण मिल जाएँगे। 



शिक्षा के क्षेत्र में देश में मूलभूत ढाँचे का कमजोर होना भी देश से हो रहेब्रेन-ड्रेनका एक कारण है। देश का होनहार युवा तमाम कोशिशों के बावजूद, देश में आरक्षण और अन्य वजहों के चलते अपने हुनर को निखार नहीं पाता। किसान का पुत्र अगर पढ़ाई-लिखाई में तेज है तो वह खुद को अच्छी शिक्षा देने की होड़ में लग जाता है। ऐसे में उसका किसान पिता भी उसे रोकता नहीं है। बल्कि वो ज़रूरत पड़ने पर अपनी ज़मीन को गिरवी रख कर उसे पढ़ाता है। परंतु आरक्षण क़ानून के चलते जब उसे अच्छी नौकरी नहीं मिल पाती तो वह हताश हो जाता है। ऐसे में अगर देश का युवा विदेश में पढ़ाई के लिए जाता है और उसके हुनर की क़द्र करते हुए वहीं पर अच्छी नौकरी भी मिल जाती है तो वो वहीं बस जाता है। इस तरह के पलायन में भी काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। यदि हम देश के युवा को अपने ही देश में अच्छी शिक्षा और नौकरी देना सुनिश्चित कर लेते हैं तो विदेशों की बड़ी से बड़ी कम्पनी अच्छे हुनर की तलाश में भारत में ही अपना ऑफ़िस खोलेगी। विदेशी कम्पनियों द्वारा निवेश होने पर सिर्फ़ पढ़े-लिखे श्रेष्ठ युवाओं को, बल्कि हर वर्ग के लोगों को उस कम्पनी में नौकरी भी मिलेगी। 


भारत में अभी तक एकल नागरिकता का ही प्रावधान है। क़ानून के जानकारों के मुताबिक़ दोहरी नागरिकता का प्रावधान भी पलायन का एक कारण है। भारत छोड़ कर जाने वाले लोगों की प्राथमिकता उन देशों में जा कर बसने की भी है जिन देशों में ऐसा क़ानून है। यदि कोई भी भारतीय अपनी नागरिकता और पासपोर्ट छोड़ देता है तो उसे भारत दोहरी नागरिकता दे कर ओसीआई कार्ड जारी कर देती है। इस कार्ड से केवल उस व्यक्ति को भारत में आने के लिए वीज़ा नहीं लेना पड़ता। वो बेझिझक देश में सकता है। परंतु नागरिकता से जुड़े उसके कई अधिकार रद्द हो जाते हैं। दुनिया के कई देशों में अर्जेंटीना, इटली, पराग्वे आयरलैंड ऐसे देश हैं जहां पर दोहरी नागरिकता का प्रावधान है। भारत के नागरिकता छोड़ने के पीछे यह भी एक बड़ी वजह है।


कुल मिलाकर देखा जाए तो देश छोड़ने वालों ने निजी कारणों को ही देश छोड़ने की वजह बताई, लेकिन यदि इस पर गौर किया जाए तो मूलभूत सुविधाओं की कमी भी देश छोड़ने का एक महत्वपूर्ण कारण दिखाई देती है। आज़ादी के 75 वर्षों में कई सरकारें आईं और गईं लेकिन देश से पलायन करने की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही। इस बात को मौजूदा सरकार और आनेवाली सरकारों को गम्भीरता से लेना होगा नहीं तो देश से होनेवालेब्रेन-ड्रेनकी संख्या पर लगाम नहीं लग पाएगी। यदि ऐसा होता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश के लिए यह एक अच्छा संकेत नहीं है।