मसला यह है कि आतंकवाद से संबन्धित गतिविधियों पर पल-पल की जानकारियां जमा करने की व्यवस्था के खिलाफ देश के कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकजुट होना शुरू हो गये हैं। इस विरोध में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हो गयी हैं।
राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधी केन्द्र के विरोध का तर्क इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर दिया है कि आतंकवाद प्रतिरोधी इस केन्द्र के काम-काज से राज्यों के अधिकारों को हड़प लिया जायेगा। उधर केन्द्र सरकार ने ऐसे विरोध को खारिज करते हुए आतंकवादी प्रतिरोधी केन्द्र की स्थापना के लिये प्रतिबद्धता जता दी है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने शनिवार को एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये केन्द्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।
बहरहाल यहाँ यह जानना भी अति आवश्यक है कि एनसीटीसी नाम से इस केन्द्र को बनाने का यह फैसला नया नहीं है। इंटेलीजेंस रिफॉर्म एण्ड टैररिज्म प्रिवेन्शन एक्ट के तहत इसकी स्थापना के लिये प्रेजीडेन्शियल एक्जीक्यूशन ऑर्डर संख्या 13354, अगस्त 2004 में ही जारी हो गया था। इस एक्ट में यह तय किया गया था कि आतंकवाद के खिलाफ साझा योजनायें बनाने व खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिये यह केन्द्र बनेगा और इस केन्द्र के स्टाफ में विभिन्न एजेंसियों के अधिकारी एवं कर्मचारी रखे जायेंगे। पिछले 8 साल से लगातार इस पर काम हो रहा था और अब 500 लोगों के टीम के साथ आगामी 1 मार्च से यह केन्द्र औपचारिक तौर पर अपना काम-काज शुरू करने जा रहा है।
फिर भी मीडिया के लिये यह मामला नया-नया सा दिख रहा है। नया इस लिहाज से, कि पिछले 4-6 दिनों से गैर काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह मीडिया की सुर्खियों में आया है। अलबत्ता शुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता का विषय होने के कारण मीडिया के पास इस बारे में तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। यानि मीडिया के पास गैर-काँग्रसी मुख्यमंत्रियों के एकजुट होने की हलचल के कारण ही यह मुद्दा खबरों में है।
रही बात केन्द्र के स्थापना की उपादेयता की, तो यह तय ही है कि किसी भी समस्या से निपटने (समस्या बनने से पहले और समस्या खड़ी होने के बाद) के लिये तथ्यों/सूचनाओं को जमा करने की और समस्या के उत्तरदायी तथ्यों का अध्ययन करने की जरूरत पड़ती है। समाधान के लिये कारगर योजनायें तब ही बन पाती हैं। यह केन्द्र भी ऐसे ही अपने सीमित उद्देश्यों के साथ बना है। इसका काम आतंकवाद के जोखिम का विश्लेषण करना है और आतंकवाद संबन्धी जानकारियों का देश की विभिन्न सुरक्षा/खुफिया एजेंसियों के बीच आदान-प्रदान हो सके, इसका प्रबन्ध करना है। यानि उपादेयता के लिहाज से ऐसा केन्द्र सुरक्षा तन्त्र में व्यावसायिक कौशल तो बढ़ायेगा ही। मगर फिलहाल यहाँ सवाल इस मुद्दे का तो है ही नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह बना हुआ है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्धों या राज्यों के अधिकार के अतिक्रमण के तर्क के आधार पर 8 गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्री एक साथ आते दिख रहे हैं।
यानि एनसीटीसी को लेकर बहस विशुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता के मुद्दे और राजनीतिक मुद्दे के बीच सीमित हो जायेगी। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अपराध शास्त्रीय विशेषज्ञता के पहलू पर बोलने वालों ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के अलावा कोई बोलता नहीं दिखता। यानि यह बहस केन्द्र सरकार बनाम कुछ राज्य सरकारों के बीच सिमट जायेगी। खास तौर पर जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हों, तब ऐसे मुद्दे सिर्फ राजनीति के ही मुद्दे क्यूँ नहीं बनेंगे ?
अब जो लोग ऐसे विषयों की गंभीरता को समझते हों, उनके दखल की भी दरकार है। लेकिन अफसोस यह है कि किसी भी समस्या से संबन्धित विशेषज्ञों का भी टोटा पड़ा हुआ है। हद यहाँ तक है कि शनिवार को केन्द्रीय गृह सचिव को ही बोलते सुना गया। उनके बयान में भी यही बात थी कि आतंकवाद प्रतिरोधी व्यवस्था के लिये देश की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल की जरूरत है और इसीलिये ऐसे केन्द्र का गठन हुआ है। उनके बयान में यह कहीं नहीं आया कि ऐसे केन्द्र के काम-काज को सुचारू रूप से करने के लिये राज्य सरकारों के प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिये। खैर अभी तो बात शुरू हुई है। होते-होते यह बात भी शुरू होने ही लगेगी कि आतंकवाद की घटनायें होती कहाँ हैं ? कहाँ का मतलब भौगोलिक तौर पर कहाँ होती हैं। बड़ा आसान सा जवाब है कि देश में ऐसा कोई भी भूखण्ड नहीं है जो किसी न किसी राज्य के भूभाग में न हो। यानि घटना किसी न किसी राज्य में ही होती है और उसके तथ्य या सूचना का प्रस्थान बिन्दु वही होता है। जाहिर है कि प्रशासनिक तौर पर राज्यों की भागीदारी के बगैर यह काम हो नहीं सकता।
सारी दुनिया में विभिन्न सरकारें, सुरक्षा के नाम पर , नागरिकों कि मूलभूत स्वतंत्रता का हरण करने के नए नए बहाने ढूंढती ही हैं ,
ReplyDeleteजागरूक नागरिक संस्थाएं विरोध करती हैं ,
पर पता नहीं भारत में कोइ जागरूक संस्था के नाम पर कालचक्र के सिवा कोई है भी या नहीं