Monday, July 13, 2015

पूर्वोत्तर राज्यों का पर्यटन विकास क्यों नहीं हो पा रहा ?



आजकल मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर आया हुआ हूं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि स्विट्जरलैंड और कश्मीर को टक्कर देता पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के आगे क्यों नहीं परोसा जा रहा ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक लड़के-लड़कियां हमारे साथ थे। जिनकी शिकायत थी कि मैदानी इलाकों में रहने वाले हम लोग उनके राज्यों की परवाह नहीं करते, उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।

पाठकों को याद होगा कि नागालैंड हो या मिजोरम या फिर असम की ब्रह्मपुत्र घाटी सबने जनाक्रोश का एक लंबा दौर देखा हैं। केंद्रीय सरकार, सशस्त्र बलों और हमारी सेनाओं को इन राज्यों में शांति बनाए रखने के लिए और अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। तब यही लगता था कि सारा अपराध दिल्ली में बैठे हुक्मरानों का है, इसीलिए लोग नाराज़ हैं | यह कुछ हद तक ही सही था | लेकिन यहां आकर जमीनी हकीकत कुछ और ही पता चली। 

अब मेघालय को ही लीजिए। गरीबी का नामोनिशान यहां नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सभी संपन्न हैं। पर यह सही है कि बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान होने वाला परिवार आपको ढूढ़े नहीं मिलेगा। शिलांग जैसी राजधानी या मेघालय के गांव और दूसरे शहर में कहीं एक भी भिखारी नजर नहीं आया। जानकार लोग बताते हैं कि कोयले व चूने की खानों और अपार वन संपदा के चलते मेघालय राज्य में प्रति एक हजार व्यक्ति के ऊपर  जितने करोड़पति हैं, उतने पूरे भारत में कहीं दूसरी जगह नहीं। यह तथ्य आंख खोलने वाला है। एक और उदाहरण रोचक होगा कि मेघालय के कुछ नौजवान भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बावजूद केवल इसलिए नौकरी पर नहीं गए कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में नहीं रहना था। जाहिर है, उनकी आर्थिक सुरक्षा मजबूत रही होगी, तभी उन्होंने ऐसा जोखिम भरा फैसला लिया। 

मेघालय बेहद खूबसूरत राज्य है। पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं। इस इलाके की खासी, गारो व जैंतियां तीनों जनजातियां सांस्कृतिक रूप से भी काफी सम्पन्न हैं। दूसरी तरफ पिछले 68 सालों में सरकार ने यहां आधारभूत ढांचा विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बढि़या सड़कें, जनसुविधाएं, पानी-बिजली की आपूर्ति, यह सब इतना व्यवस्थित है कि अगर कोई चाहे तो मेघालय के हर गांव को 'इको टूरिज्म विलेज' बना सकता है। अगर आज ऐसा नहीं है, तो इसका एक बड़ा कारण मेघालय के नौजवानों की हिंसक वृत्ति है। जातिगत अभिमान के चलते वे बाहरी व्यक्ति को पर्यटक के रूप में तो बर्दाश्त कर लेते हैं। पर अपने इलाके में न तो उसे रहने देना चाहते हैं, न कारोबार करने देना चाहते हैं। इसलिए बाहर से कोई विनियोग करने यहाँ नहीं आता। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोगों को धमकाना, उन्हें चाकू या पिस्टल दिखाना और उनसे पैसा उगाही करना या किसी बात पर अगर झगड़ा हो जाए, तो उस व्यक्ति को मार-मारकर बेदम कर देना या मार ही डालना इन लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसकी इन्हें कोई सजा भी नहीं मिलती | इसलिए व्यापारिक बुद्धि का आदमी यहां आकर विनियोग करने से घबराता है। कुल मिलाकर नुकसान देश का तो है ही, मेघालयवासियों का भी कम नहीं। पर उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि प्रकृति ने खनिजों और वन संपदा के अपार भंडार इन्हें सौंप दिए हैं। इनके इलाकों में सरकार का कानून नहीं चलता, बल्कि इनके कबिलाई प्रमुख की हुकुमत चलती है। उसने अगर कह दिया कि कोयले की ये खान मेरी हुई, तो कोई सरकार उसे रोक नहीं सकती। नतीजतन, जब घर बैठे खान, खनिज, जमीन और वन संपदा आपको मोटी कमाई दे रहे हों, तो आपको इससे ज्यादा म्हणत करने की क्या जरूरत है। इसलिए ये लोग नहीं चाहते कि कोई बाहर से आए और बड़े कारोबार की स्थापना करे। 

एक तरह से तो यह अच्छा ही है | क्योंकि शहरीकरण हमारे नैसर्गिक सौंदर्य को दानवीयता की हद तक जाकर बर्बाद कर रहा है। कोई रोकटोक नहीं है। आज देश का हरित क्षेत्र 3 फीसदी से भी कम रह गया है। जबकि आदमी को स्वस्थ रहने के लिए भू-भाग के 33 फीसदी पर हरियाली होनी चाहिए। अगर यहां भारी विनियोग होगा, तो प्रकृति का विनाश भी तेजी से होगा। 

चलो बड़े विकास की बात छोड़ भी दें, तो भी अपार संभावनाएं हैं। हम पर्यटन की आवश्यकता को समझे और उसके अनुरूप स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करें। 


कमोबेश, यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। जहां नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। पर वहां भी स्थानीय जनता के ऐसे रवैये के कारण वांछित विकास नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वोत्तर राज्यों के जो युवा पढ़-लिखकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं, वे अपने-अपने प्रांतों में जाग्रति लाएं और जनता की तरफ से भी विकास की मांग उठनी चाहिए। हां यह जरूर है कि यह विकास पर्यावरण और जनजातिय सांस्कृतिक अवशेषों को क्षति पहुंचाए बिना हो।  इसी में सबका भला है |

Monday, July 6, 2015

हवाला की याद दिलाता ललित मोदी कांड

ललित मोदी कांड का बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है। संसद के मानसून सत्र में विपक्ष इस मामले को जोरदारी से उठाने के लिए कमर कसे है। हालांकि भाजपा ने अपनी तरफ से वसुंधरा राजे की बेगुनाही का हवाला देते हुए इस मामले को ठंडा कर दिया था और बात आई गई होने की हालत में पहुंच गई थी। लेकिन आडवाणी की छोटी सी टिप्पणी से इस कांड को जिंदा रहने के लिए कुछ सांसें और मिल गईं।
 आडवाणी ने इस कांड में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे का नाम लेकर कुछ नहीं कहा, लेकिन राजनेताओं की विश्वसनीयता बरकरार रखने की बात कहते हुए हवाला कांड ने अपने इस्तीफे की याद दिलाई है। उनका कहना है कि बिना मांगे ही उन्होंने हवाला कांड में इसलिए इस्तीफा दे दिया था, ताकि जनता के बीच एक राजनेता की विश्वसनीयता को कोई चोट न पहुंचे।
 जिन्हें हवाला कांड याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि देश की राजनीति में भूचाल लाने वाले उस कांड में बिना जांच हुए ही राजनेताओं को अदालत ने बरी करवा दिया था। हालांकि भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को लेते वक्त यह कहा था कि इस कांड में इतने सुबूत हैं कि अगर हम दोषियों को सजा न दिला पाए तो हमें देश की अदालतें बंद कर देनी चाहिए। यहां याद दिलाने की बात यह है कि जब आडवाणी और दूसरे दसियों नेता अपने-अपने इस्तीफे दे रहे थे, तब उनमें से किसी ने भी हवाला कांड की निष्पक्ष जांच करवाने की मांग नहीं की। आडवाणी ने भी हवाला कांड की जांच की मांग नहीं थी। जब वे सुबूतों को दबवाकर बरी हो गए, तो उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि हम तो निर्दोष थे, हमें जान-बूझकर फंसाया गया है। इस तरह इतने बड़े कांड को सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने की मेरी कोशिश पूरी तरह कामयाब नहीं रही। हां, इतना जरूर हुआ कि भारत के इतिहास में पहली बार 115 राजनेता और अफसर चार्जशीट हुए और उन्हें अपने पद छोड़ने पडे़।
 हवाला के अपने इस अनुभव के आधार पर ललित मोदी कांड की जांच की मांग उठायी जा सकती थी, लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि मीडिया जिस तरह खोजी पत्रकारिता कर रहा था, उसमें किसी को भी किसी भी क्षण नहीं लगा कि जांच-पड़ताल की बात उठा दे और अदालत के रास्ते पर चल पड़े। हो सकता है कि यह बात अब इसलिए न उठाई जाती हो कि न्यायालय के रास्ते ऐसे मामालों को सिल्टाने में यकीन कम होता जा रहा है। धारणा यह बन रही है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की स्थिति कमोवेश एक जैसी होती जा रही है और फिर बड़े नेताओं या बड़े अधिकारियों के मामले में न्याय को अंजाम न पहुंचाने में हमेशा ही मुश्किल आती रही है। अपराधशास्त्री तो इस मुश्किल का इतिहास पिछली कई सदियों से बताते हैं। अपराधशास्त्र पाठ्यक्रम में श्वेतपोश अपराध शीर्षक से पढ़ाए जाने वाले इस विषय को बड़ी बारीकि से समझा जाता है।
 ललित कांड में वसुंधरा का मामला देखें, तो बात यहां आकर गुम हो गई कि वसुंधरा और सुषमा स्वराज ने प्रत्यक्ष रूप से ऐसा क्या किया कि भाजपा उन्हें हटाने को मजबूर हो जाए। दो हफ्ते तक मीडिया में इन दोनों नेताओं और उनके परिवारों के व्यक्तिगत और व्यापार संबंधों को लेकर तथ्य सामने आए और इन दो नेताओं की पार्टी यानि भाजपा के प्रवक्ताओं को मीडिया के सामने मुस्तैदी से बैठे रहना पड़ा - उससे जो छवि मटियामेट होती है, वह तो हो ही गई। हालांकि छवि बिगड़ने से जितनी रोकी जा सकती थी, वह भी रोकी गई। आखिर यही तय हुआ होगा कि इतनी देर बाद अब इस्तीफों से या उन्हें हटाए जाने का क्या फायदा। फायदा यानि राजनीति नफा-नुकसान।
 कुल मिलाकर हवाला कांड में जिस तरह सभी संबंधित नेताओं को फिर से जनता के बीच स्थापित होने में कोई ज्यादा देर नहीं लगी यानि ज्यादातर नेता जनता की अदालत से जीतकर आ गए। उसी तरह ललित मोदी कांड में हम क्यों न मानकर चलें कि सारी बातें आयी गई हो जाएंगी और फिर वसुंधरा के मामले में तो यह बिल्कुल साफ ही है कि वे विपक्ष की नेता थीं। बच्चा-बच्चा ललित मोदी से उनके पारिवारिक मेलजोल के बारे में जानता था। वसुंधरा चुनाव जीती और फिर से पूरे धड़ल्ले से मुख्यमंत्री बन गईं। उन्हें यह मानने में न पहले कोई हिचक थी और न आज कोई हिचक है कि ललित मोदी से उनका बहुत पुराने समय से पारिवारिक मेलजोल है। यानि जनता के बीच यह धारणा बनाने में वसुंधरा सफल रहीं कि ललित मोदी कांड कोई सनसनीखेज या अपराध या घोटाले का बड़ा मामला नहीं और फिर भाजपा के प्रवक्ताओं ने और पार्टी के बड़े नेताओं ने घंटे-दर-घंटे टीवी चैनलों में बैठकर इस कांड को सामान्य घटना साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब ऐसे मुद्दे पर शोर मचाकर क्या हासिल किया जा सकता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा फैसला जनता का माना जाता है। अब अगर जनता ही वसुंधरा राजे को माफ कर देती हो और उन्हें दोबारा कुर्सी पर बैठने का अवसर देती है, तो फिर किसी को क्या गुरेज हो सकता है।

Monday, June 22, 2015

बहुसंख्यक मुसलमान आक्रामक क्यों हो जाते हैं

 धर्मांधता किसी की भी हो, हिंदू, सिक्ख, मुसलमान या ईसाई, मानवता के लिए खतरा होती है। जिस-जिस धर्म को राजसत्ता के साथ जोड़ा, वही धर्म जनविरोधी अत्याचारी और हिंसक बन गया। गत दो-तीन दशकों से इस्लाम धर्म के मानने वालों की हिंसक गतिविधियां पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा.पीटर हैमण्ड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टेररिज्म एण्ड इस्लाम - द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट’। इसके साथ ही द हज के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकलकर आए हैं, वह न सिर्फ चैंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।

 उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमेरिका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, ऑस्ट्रेलिया में 1.5 प्रतिशत, कनाडा में 1.9 प्रतिशत, चीन में 1.8 प्रतिशत, इटली में 1.5 प्रतिशत और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 प्रतिशत से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना धर्मप्रचार शुरु कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क में उनकी संख्या 2 प्रतिशत है, जर्मनी में 3.7 प्रतिशत, ब्रिटेन में 2.7 प्रतिशत, स्पेन मे 4 प्रतिशत और थाईलैण्ड में 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
 जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहाँ ‘हलाल’ का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं। इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है। जिन देशों में ऐसा हो चुका वह है, वे फ्रांस, फिलीपीन्स, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी ‘आर्थिक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फिर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 फीसदी), इजराइल (16 फीसदी), केन्या (11 फीसदी), रूस (15 फीसदी) में हो चुका है।
 जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखायें’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 फीसदी) और भारत (मुसलमान 22 फीसदी) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 फीसदी), चाड (मुसलमान 54.2 फीसदी)  और लेबनान (मुसलमान 59 फीसदी) में देखा गया है। शोधकर्ता और लेखक डॉ पीटर हैमण्ड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 फीसदी), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 फीसदी) में देखा गया है।
 किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 फीसदी हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बांग्लादेश (मुसलमान 83 फीसदी), मिस्त्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 फीसदी), ईरान (98 फीसदी), ईराक (97 फीसदी), जोर्डन (93 फीसदी), मोरक्को (98 फीसदी), पाकिस्तान (97 फीसदी), सीरिया (90 फीसदी) व संयुक्त अरब अमीरात (96 फीसदी) में देखा जा रहा है।
 ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बिना धर्मांधता के चश्मे के हर किसी को देखना और समझना चाहिए। चाहे वो मुसलमान ही क्यों न हों। अब फर्ज उन मुसलमानों का बनता है, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हैं, वे संगठित होकर आगे आएं और इस्लाम धर्म के साथ जुड़ने वाले इस विश्लेषणों से पैगंबर साहब के मानने वालों को मुक्त कराएं, अन्यथा न तो इस्लाम के मानने वालों का भला होगा और न ही बाकी दुनिया का।

Monday, June 8, 2015

मैगी पर बवाल-रसोई में उबाल

जब देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था, तब मैंने 1989 में देश की हिंदी टीवी समाचारों की पहली वीडियो मैगजीन कालचक्र जारी कर खोजी टीवी पत्रकारिता की भारत में शुरूआत की थी। उस समय हमारी इस वीडियो मैगजीन का उद्देश्य था कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले हर उस खाद्य या प्रसाधन, उत्पाद की जांच करना, जिसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापक प्रचार प्रसार करती हैं। इसी क्रम में हमने एक खोजी रिपोर्ट जारी की थी ‘मैगी खाने के खतरे’। तब देश में निजी टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल वीडियो लाइब्रेरी के जरिये लोग हमारी समाचार वीडियो कैसेट किराए पर लेकर अपने वीसीआर पर देखते थे। इसलिए हर व्यक्ति तक यह सूचना नहीं पहुंची। अगर तब से किसी टीवी चैनल ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता, तो हालात आज इतने बेकाबू न होते।
 
दरअसल, खाद्य और प्रसाधन के जितने उत्पादन आज बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेच रही हैं। लगभग ये सब जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इनके मूल्य, इनकी लागत से 50 गुना ज्यादा होते हैं। इनके जो गुण बताकर इन्हें बेचा जाता है, वे ज्यादातर फर्जी होते हैं। इनमें ऐसे तमाम रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और जिन्हें दुनिया के आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। एक तो भारत में ऐसे अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून नहीं हैं। दूसरा इन कानूनों को लागू करने वाले का आचरण पारदर्शी नहीं है। इसलिए मोटी रिश्वत लेकर हानिकारक पदार्थों को आसानी से बाजार में आने दिया जाता है। इस मामले में मोदी सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले पदार्थों के निर्माताओं और विक्रेताओं को पकड़े जाने पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो। फिर वह चाहें बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देशी कंपनियां।
 
इस मामले में हमारी अपनी कमी का भी उल्लेख करना जरूरी है। आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।
 
मैगी नूडल्स को लेकर मचा बवाल निराधार नहीं है। समय आ गया है कि हम जागें। हवा प्रदूषित हो चुकी है, जल प्रदूषित हो चुका है, खाद्यान कीटनाशक दवाओं और रसायनिक उर्वरकों से जहरीले होते जा रहे हैं। ऐसे में हमें अपने पारंपरिक खाने की ओर लौटना होगा। जिसमें संपूर्णता है, सदियों की अपनाई हुई प्रमाणिकता है और हमारे स्वास्थ्य को दुरूस्त रखने की क्षमता है। हमें अपनी परंपराओं के प्रति सम्मान पैदा करना होगा। जिससे हमारे बच्चे मैगी और पेप्सी जैसे हानिकारक पदार्थों की जगह पौष्टिक भोजन में फिर से रूचि लेने लगें, वरना यह विवाद भी कुछ दिनों की अखबारी सुर्खियां बटोर कर ठंडा पड़ जाएगा और हम फिर से मैगी खाने में फक्र का अनुभव करेंगे।

Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।

Monday, May 11, 2015

‘प्रो पूअर टूरिज्म’ के मायने

अखबारों में बड़ा शोर है कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश में गरीबों के हक में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हजार करोड़ रूपये देने जा रहा है। जिसमें 400 करोड़ रूपया केवल ब्रज (मथुरा) के लिए है। प्रश्न उठता है कि ‘प्रो पूअर’ यानि गरीब के हक में पर्यटन का क्या मतलब है ? क्या ये पर्यटन विकास ब्रज में रहने वाले गरीबों के लिए होगा या ब्रज आने वाले गरीब तीर्थयात्रियों के लिए ? विश्व बैंक को अब जो प्रस्ताव भेजे जाने की बात चल रही है, उनमें ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। मसलन, वृंदावन के वन चेतना केंद्र को आधुनिक वन बनाने के लिए 100 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि वृंदावन में तो पहले से ही सारी दुनिया से अपार धन आ रहा है और तमाम विकास कार्य हो रहे हैं और वृंदावन में ऐसे कोई निर्धन लोग नहीं रहते, जिन्हें वन चेतना केंद्र पर 100 करोड़ रूपया खर्च करके लाभान्वित किया जा सके।
वृंदावन पर अगर खर्च करना ही है, तो सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट होता कि वृंदावन आने वाले हजारों निम्नवर्गीय तीर्थयात्रियों के लिए बुनियादी सुविधाओं का व्यापक इंतजाम। इस परियोजना को मैं पिछले 10 वर्षों से संबंधित अधिकारियों से आगे बढ़ाने को कहता रहा हूं। आज जहां रूक्मिणी बिहार जैसी अट्टालिकाओं वाली कालोनी बन गईं, जिनके 90 फीसदी मकान खाली पड़े हैं और वृंदावन की प्राकृतिक शोभा भी नष्ट हो गई, उनकी जगह यहां विशाल क्षेत्र में सैकड़ों बसों के खड़े होने का, गरीब यात्रियों के भेजन पकाने, शौच जाने का और चबूतरों पर टीन के बरामडों में सोने का इंतजाम किया जाना चाहिए था। आज ये गरीब तीर्थयात्री सड़कों के किनारे खाना पकाने, शौच जाने और सोने को मजबूर हैं, क्योंकि किसी तरह जीवनभर की कमाई में से इतना पैसा तो बचा लिया कि अपने बूढ़े मां-बाप को बंगाल, बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे सुदूर राज्यों से बसों में बैठाकर ब्रज घुमाने ले आएं। पर इतना धन इनके पास नहीं होता कि यह होटल में ठहरें या खायें। पर अब तक की बातचीत में कहीं इस विचार को प्रोत्साहन नहीं दिया गया। अभी हाल ही में एक समाचार पढ़ा कि इस विचार पर अब एक छोटा-सा प्रोजेक्ट मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण शुरू करेगा। वृंदावन की लोकप्रियता और यहां आने वालों की निरंतर बढ़ती तादाद को देखकर इस छोटे से प्रोजेक्ट से किसी का भला होने वाला नहीं है। दूरदृष्टि और गहरी समझ की जरूरत है।
इसी तरह ब्रज हाट का एक प्रोजेक्ट ब्रज फाउण्डेशन ने कई वर्ष पहले बनाकर जिलाधिकारी की मार्फत लखनऊ भेजा था, उसका तो पता नहीं क्या हुआ। पर विकास प्रािधकरण ने ब्रज हाट का जो माॅडल बनाया, उसे देखकर किसी भी संवदेनशील व्यक्ति का सिर चकरा जाय। यह नक्शा नीले कांच लगी बहुमंजिलीय इमारत का था। जिसे देखकर दिल्ली के किसी माॅल की याद आती है। गनीमत है कि हमारे शोर मचाने पर यह विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और अब ब्रज के कारीगरों के लिए ब्रज हाट बनाने की बात की जा रही है। दरअसल, हाट की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। जहां न कोई दुकान होती है, न कोई पक्का ढांचा।  बहुत सारे छोटे-छोटे चबूतरे बनाए जाते हैं और हर चबूतरे से सटा छायाकार वृक्ष होता है। यह दृश्य भारत के किसी भी गांव में देखने को मिल जाएगा। यहां कारीगर कपड़े की चादर फैलाकर अपने हस्तशिल्प का सामान विक्रय के लिए सुबह आकर सजाते हैं और शाम को समेट कर ले जाते हैं। न किसी की कोई दुकान पक्की होती हैं और न किसी मिल्कीयत। इसी विचार को बरसाना, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन, मथुरा की परिधि में शहर और गांव के जोड़ पर स्थापित करने की जरूरत है। जिसकी लागत बहुत ही कम आएगी। हां उसमें कलात्मकता का ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए, जिससे ब्रज की संस्कृति पर वो भौड़े निर्माण हावी न हों।

इसी तरह ब्रज के गरीबों को अगर लाभ पहुंचाना है, तो ब्रज के ऐतिहासिक छह सौ से अधिक गांव में से सौ गांवों को प्राथमिकता पर चुनकर उनके वन, चारागाह, कुंड और वहां स्थित धरोहर का सुधार किया जाना चाहिए। जिससे वृंदावन व गोवर्धन में टूट पड़ने वाली भीड़ ब्रज के बाकी गांव में तीर्थाटन के लिए जाए, जहां भगवान की सभी बाललीलाएं हुई थीं। इन गांव में तीर्थयात्रियों के जाने से होगा गरीबों का आर्थिक लाभ।

पर आश्चर्य की बात है कि विश्व बैंक को भेजे जा रहे प्रस्ताव में एक प्रस्ताव श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सुधार का है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बिहारीजी का मंदिर, जिसकी जमापूंजी 70-80 करोड़ रूपये से कम नहीं होगी और जिसके दर्शनार्थियों के पास अकूत धन है। उस बिहारीजी के मंदिर की गलियों के लिए विश्व बैंक का पैसा खर्च करने की क्या तुक है ? इससे किस गरीब को लाभ होगा। यह कैसा ‘प्रो पुअर टूरिज्म’ है। बिहारीजी मंदिर तो अपने ही संसाधनों से यह सब करवा सकता है।

गनीमत है कि अभी कोई प्रस्ताव अंतिम रूप से तय नहीं हुआ। पर चिंता की बात यह है कि विश्व बैंक की टीम ने और उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने अब तक जिन महंगे सलाहकारों की सलाह से ब्रज के विकास की योजनाएं सोची हैं, उनका ब्रज से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इन सलाहकारों को ब्रज की वास्तविकता का अंश भी पता नहीं है। विश्व बैंक के अधिकारियों को कुछ वर्ष पहले ये सलाहकार मुझसे मिलाने मेरे दिल्ली कार्यालय लाए थे। उद्देश्य था कि मैं उन्हें ब्रज में पैसा लगाने के लिए प्रेरित करूं। अपनी संस्था के शोध एवं गहरी समझ के आधार पर मैंने यह कार्य सफलतापूर्वक कर दिया। उसके बाद किसी सरकारी विभाग में या विश्व बैंक ने इसकी जरूरत नहीं समझी कि हमसे आगे सलाह लेते। जब हमें अखबारों से ऐसी वाहियात योजनाओं का पता चला, तो हमने विश्व बैंक के सर्वोच्च अधिकारियों व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव व अन्य अधिकारियों से कई बैठकें करके अपना विरोध प्रकट किया। उन्हें यह बताने की कोशिश की कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश की जनता को कर्ज दे रहा हैं, अनुदान नहीं। फिर ऐसी वाहियात योजनाओं में पैसा क्यों बर्बाद किया जाए, जिससे न तो ब्रज में रहने वाले गरीबों का भला होगा और न ही ब्रज में आने वाले गरीबों का।

Monday, May 4, 2015

भारत क्यों चीन के मायाजाल में फंस रहा है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन जा रहे हैं। हो सकता है कुछ बड़े समझौते हों। जिनका जश्न मनाया जायगा। पर हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति और सामरिक विषयों के जानकारों का कहना है कि भारत धीरे-धीरे चीन के मायाजाल में फंसता जा रहा है। आज से 15 वर्ष पहले वांशिगटन के एक विचारक ने दक्षिण एशिया के भविष्य को लेकर तीन संभावनाएँ व्यक्त की थीं। पहली अपने गृह युद्धों के कारण पाकिस्तान का विघटन हो जाएगा और उसके पड़ोसी देश उसे बांट लेंगे। दूसरी भारत अपनी व्यवस्थाओं को इतना मजबूत कर लेगा कि चीन और भारत बराबर की ताकत बन कर अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्र बांट लेंगे। तीसरी चीन धीरे-धीरे चारों तरफ से भारत को घेर कर उसकी आंतरिक व्यवस्थाओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेगा और धीरे-धीरे भारत की अर्थव्यवस्था को सोख लेगा। 

आज यह तीसरी संभावना साकार होती दिख रही है। चीन का नेतृत्व एकजुट, केन्द्रीयकृत, विपक्षविहीन व दूर दृष्टि वाला है। उसने भारत को जकड़ने की दूरगामी योजना बना रखी है। अरूणाचल की जमीन पर 1962 से कब्जा जमाये रखने के बावजूद चीन को किसी भी मौके पर इस इलाके को भारत को वापिस करने में गुरेज नहीं होगा। उसने इसके लिए भारत में एक लाॅबी पाल रखी है। जो इस मुद्दे को गर्माए रहती है। ऐसा करके वह भारत के प्रधानमंत्री को खुश करने का एक बड़ा मौका देगा लेकिन उसके बदले में हमसे बहुत कुछ ले लेगा। ऐसा इसलिए कि उसे सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र में कोई रूचि नहीं है। यह कब्जा तो उसने सौदेबाजी के लिए कर रखा है। उसका असली खेल तो तिब्बत, पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान में है। जहाँ उसने रेल और हाइवे बनाकर अपनी सामरिक स्थिति भारत के विरूद्ध काफी मजबूत कर ली है। उसके लड़ाकू विमान हमारी सीमा से मात्र 50 किमी दूर तैनात है। युद्ध की स्थिति में सड़क और रेल से रसद पहुंचाना उसके लिए बांये हाथ का खेल होगा। जबकि ऐसी किसी भी व्यवस्था के अभाव में हम उसके सामने हल्के पड़ेंगे। 

पिछले 10 वर्षों में ऊर्जा, संचार और पैट्रोलियम जैसे संवेदनशील और अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र में चीन ने भारत में लगभग सारे अंतर्राष्ट्रीय ठेके जीते हैं। इससे हमारी धमनियों पर अब उसका शिकंजा कस चुका है। चीन से बने बनाएं टेलीफोन एंक्सचेन्ज भारत में लगाएं गये हैं। जिसकी देखभाल भी चीन रिमोट कन्ट्रोल से करता है। क्योंकि ठेके की यही शर्त थी। अब वो हमारी सारी बातचीत पर निगाह रख सकता है। यहां तक कि हमारी खुफिया जानकारी भी अब उससे बची नहीं है। वो जब चाहे हमारी संचार व्यवस्था ठप्प कर सकता है। जिस समय चीन ये ठेके लगातार जीत रहा था उस समय हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने लिखकर चिंता व्यक्त की थी। पर सरकार ने अनदेखी कर दी। 

सब जानते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मुनाफा देशभक्ति से बड़ा होता है। चीन ने अपने यहाँ आधारभूत सुविधाओं का लुभावना तंत्र खड़ा करके भारत के उद्योगपतियों को विनियोग के लिए खीचना शुरू कर दिया है। उत्पादन के क्षेत्र में तो वह पहले ही भारत के लघु उद्योगों को खा चुका है। उधर भारत का हर बाजार चीन के माल से पटा पड़ा है। जाहिरन इससे देश में भारी बेरोजगारी फैल रही है। जो भविष्य में भयावह रूप ले सकती है। प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान बहुत सामयिक और सार्थक है। उसके लिए प्रधानमंत्री दुनियाभर जा-जाकर मशक्कत भी खूब कर रहें हैं। पर जब तब देश की आंतरिक व्यवस्थाएँ, कार्य संस्कृति और आधारभूत ढ़ाचा नहीं सुधरता, तब तक ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान सफल नहीं होगा। इन क्षेत्रों में अभी सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। जिनपर प्रधानमंत्री को गंभीरता से ध्यान देना होगा। 


चीन भारत को चारों तरफ से घेर चुका है। नेपाल, वर्मा, दक्षिण पूर्व एशियाई देश, श्रीलंका और पाकिस्तान पर तो उसकी पकड़ पहले ही मजबूत हो चुकी थी। अब उसने मालदीव में भारत के जी.एम.आर. ग्रुप से हवाई अड्डा छीन लिया। इस तरह भारत पर चारों तरफ से हमला करने की उसने पूरी तैयारी कर ली है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमला करेगा, बल्कि इस तरह दबाव बना कर वो अपने फायदे के लिए भारत सरकार को ब्लैकमेल तो कर ही सकता है। 

इस पूरे परिदृश्य में केवल दो ही संभावनाएँ बची है। एक यह कि भारत आंतरिक दशा मजबूत करें और चीन के बढ़ते प्रभाव को रोके। दूसरा यह कि चीन में आंतरिक विस्फोट हो, जैसा कभी रूस में हुआ था और चीन की केन्द्रीयकृत सत्ता कमजोर पड़ जाएँ। ऐसे में फिर चीन भारत पर हावी नहीं हो पाएगा। जिसकी निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसे में चीन से किसी भी सहयोग या लाभ लेने की अपेक्षा रखना हमारे लिए बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूर दृष्टि वाले व्यक्ति हैं इसलिए आशा कि जानी चाहिए कि चीन से संबंध बनाने कि प्रक्रिया में वे इन गंभीर मुद्दों को अनदेखा नहीं करेंगे।

Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।

Monday, April 6, 2015

किसान और फसलों की तबाही

बेमौसम बारिश ने देश के बड़े भू-भाग में खड़ी फसल तबाह कर दी। आमतौर पर संकट में रहने वाले किसानों की गरीबी में आटा गीला हो गया। फसल बीमा का चलन अपने यहां अभी हो नहीं पाया है। अब तक इन किसानों के लिए मुआवजे या राहत का इंतजाम होता रहा है। लेकिन इस बार का संकट इतना गहरा है कि हालात उनकी अपनी-अपनी राज्य सरकारों के बूते के बाहर बताए जा रहे हैं।

कुछ राज्य सरकारों ने फौरी तौर पर दो-चार सौ करोड़ के मुआवजे का ऐलान तो किया है, लेकिन जहां ओलों और बेमौसम बारिश से चैतरफा तबाही हुई हो, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि दसियों हजार करोड़ रूपये भी कम पड़ेंगे। किसान किस कदर रो रहे हैं, इस बात का अंदाजा बुदेंलखंड और मथुरा में किसानों की आत्महत्याओं से लगाया जा सकता है। पिछले दो हफ्तों से हर रोज 8-10 परेशान किसानों की मौत की खबरें आ रही हैं। वहां कर्ज में डूबे किसानों ने जब अपनी फसलों का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा तबाह पाया तो कई किसानों तो सदमे से मर गए।

हैरत की बात तो यह है कि इस बार किसानों के हुए नुकसान का आंकलन करने का काम भी ठीक से नहीं हो पाया। आंकलन नहीं हो पाने के तरह-तरह के कारण भले ही बताए जाते हैं, पर यह कोई भी समझ सकता है कि प्रशासन वास्तविक स्थिति को बताकर खुद ही मुश्किल में क्यों पड़ना चाहेगा ? जहां चारों तरफ तबाही का मंजर हो, वहां जिला प्रशासन के हाथ-पैर तो वैसे ही फूल जाते हैं। तबाही वाले इलाकों में परगना अधिकारी दिन-रात किसानों के ज्ञापन लेते-लेते परेशान हैं। फसल की तबाही के आकलन में दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि चैतरफा तबाही का आंकलन नमूने लेकर नहीं किया जा सकता। लाखों हैक्टेयर फसल की तबाही के आंकलन के लिए प्रशासन का जितना बड़ा अमला चाहिए, वह किसी भी जगह मौजूद नहीं हैं। उधर सामाजिक संगठन हों या किसान नेता हों वे ऐसे तकनीकि काम में सक्षम नहीं हैं कि वास्तविक स्थिति का विश्वसनीय आंकलन कर सकें। उनके पास सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों के अलावा बोलने को ज्यादा कुछ नहीं है।

सन् 2015 की इस आसमानी आफत का दूरगामी असर भी हमें सोच लेना चाहिए। वैसे तात्कालिक समस्या के तौर पर देखा जाए तो अनाज की इस तबाही से फिलहाल कोई बड़ा संकट पैदा होता नहीं दिखता। क्योंकि पिछले दशकों में अनाज का भारी भरकम स्टाक रखने में हम सक्षम हो गए हैं। पिछले दशकों में अनाज के मामले में अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य हम हासिल कर चुके हैं। यह उपलब्धि प्राकृतिक विपदा के कारण अनाज के दाम बढ़ने को भी रोकती है। यानि किसान अपनी आमदनी कम होने की भरपाई दाम बढ़ाकर भी नहीं कर सकता। कुल मिलाकर किसान के पास बाजार के प्रचलित उपायों से भी दाम बढ़ाने का विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। उसके पास एक ही विकल्प बचता है कि अपने घाटे का या इस जोखिम का कोई विकल्प ढूढ़े। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक से एक बड़े औद्योगिक और विकसित देश खाद्यान उत्पादन में हमेशा सचेत रहते हैं। अपनी औद्योगिक प्रकृति और व्यापारिक विकास में वे इतनी गुंजाइश निकालकर रखते हैं कि खेती से किसान का मोहभंग न होने पाए। इस बात को हमें अपने सामने रखने की आज ज्यादा जरूरत है। खासतौर पर यह तब तो और भी ज्यादा जरूरी है, जब अपने लोकतांत्रिक देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है - भले ही वह मजबूरी में खेती पर निर्भर हो। लेकिन यह एक दार्शनिक तथ्य भी है कि मजबूरी की भी एक सीमा होती है। बेमौसम बारिश से हुई किसानी की भारी तबाही उस सीमा को छूती लग रही है।

ऐसा नहीं है कि बेमौसम बारिश या मौसम में बारिश नहीं होने की विपत्ति सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही है। वैज्ञानिकों का एक तबका जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले दो दशकों से बड़ी शिद्दत से आगाह कर रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय शोध अध्ययन हमें ऐसी आपदाओं के प्रति आगाह करते आए हैं। पिछले एक दशक में इन्हीं वैज्ञानिकों ने हमें बेकाबू औद्योगिक विकास में लगे रहने से रोका है। लगता है कि इस साल के मौसम विज्ञान संबंधी तथ्यों पर हमें और भी ज्यादा गंभीरता से गौर करना पड़ेगा। सरकारी तौर पर जो विमर्श होता है, वह तो है ही अब सामाजिक स्तर पर यानि स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर वैज्ञानिक सोच-विचार की जरूरत भी बढ़ गई है।

अपने विकास या समस्याओं के समाधान के लिए सरकारी विमर्श आमतौर पर एकांगी होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस कारण से उनमें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की प्रवृत्ति पनप ही जाती है। इसी कारण सामाजिक स्तर पर होने वाले विमर्शों से हम ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन पर्यावरण के मुद्दों पर और प्राकृतिक विपदाओं के बहुआयामी पहलुओं पर विमर्श के लिए ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक साथ बैठने की जरूरत है। तभी हम ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे कि किसानों को आश्वस्त कैसे रखा जाए ? प्राकृतिक विपदाओं के पूर्व की तैयारियां कैसे की जाएं ? अनाज और अनाज से इतर दूसरी वस्तुओं के उत्पादन में संतुलन कैसे बैठाया जाए ? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसानों को सक्षम बनाने के लिए उद्योग व्यापार के क्षेत्र से कितनी गुंजाइश निकाली जाए ?

Monday, March 23, 2015

कैसे आए नदियों में साफ जल

    पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।

    यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।

    यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।

शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।

सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।

Monday, March 16, 2015

विरासत बचाने की नई पहल

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के ऐतिहासिक नगरों की विरासत बचाने के लिए विशेष पहल की है, तब से ऐसे शहरों में नए-नए प्रोजेक्ट बनाने के लिए नौकरशाही अति उत्साहित हो गई है। जबकि हकीकत यह है कि इन ऐतिहासिक नगरों के पतन का कारण प्रशासनिक लापरवाही और नासमझी रही है। पूरे देश में यही देखने में आता है कि जो भी अधिकारी ऐसे शहरों में तैनात किया जाता है, वह बिना किसी सलाह के अपनी सीमित बुद्धि से विकास या सौंदर्यीकरण के कारण शुरू करा देता है। अक्सर देखने में आया है कि ये सब कार्य काफी निम्नस्तर के होते हैं। इनमें कलात्मकता का नितांत अभाव होता है। इनका अपने परिवेश से कोई सामंजस्य नहीं होता। अजीब किस्म का विद्रूप विकास देखने में आता है। चाहे फिर वह भवन निर्माण हो, बगीचों की बाउंड्रीवाॅल हो, बिजली के खंभे हों या साइनेंज हो, किसी में भी स्थानीय संस्कृति की झलक दिखाई नहीं देती। इससे कलाप्रेमियों को भारी चोट लगती है। उन्हें लगता है कि विकास के नाम पर गौरवशाली परंपराओं का विनाश किया जा रहा है। 

मुश्किल यह है कि कुर्सी पर बैठा आदमी अपनी बुद्धि को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ऐसे सलाहकार नियुक्त कर लेता है कि जिन्हें पीडब्लूडी के क्वाटर और विरासत के भवनों के बीच कोई अंतर ही नजर नहीं आता। न तो उनमें कलात्मकता का बोध होता है और न दुनिया में ऐसी विरासतों को देखने का अनुभव। लिहाजा, जो भी परियोजना वह बनाकर देते हैं, उससे विरासत का संरक्षण होने की बजाए विनाश हो जाता है। 

प्रधानमंत्री ने हृदय योजना की घोषणा की, तो प्रधानमंत्री की सोच यह है कि दकियानूसी दायरों से निकलकर नए तरीके से सोचा जाए और प्रमाणिक लोगों से योजनाएं बनवाई जाएं और काम करवाए जाएं। पर हो क्या रहा है कि वही नौकरशाही और वही सलाहकार देशभर में सक्रिय हो गए हैं, जो आज तक विरासत के विनाश के लिए जिम्मेदार रहे हैं। शहरी विकास मंत्रालय को सचेत रहकर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा, जिससे यह नई नीति पल्लवित हो सके। इसकी असमय मृत्यु न हो जाए। 

किसी भी विरासत को बचाने के लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की होती है कि उस विरासत का सांस्कृतिक इतिहास जाना जाए। उसकी वास्तुकला को समझा जाए। उसमें से अवैध कब्जे हटाए जाएं। उस पर हो रहे भौड़े नवनिर्माण खत्म किए जाएं। उसकी परिधि को साफ करके हरा-भरा बनाया जाए और ऐसे योग्य लोगों की सलाह ली जाए, जो उस विरासत को उसके मूलरूप में लाने की क्षमता रखते हों। इसके लिए गैरपारंपरिक रवैया अपनाना होगा। पुरानी टेंडर की प्रक्रिया और सरकारी शर्तों का मकड़जाल कभी भी गुणवत्ता वाला कार्य नहीं होने देगा। 

इसके साथ ही जरूरत इस बात की है कि देश में जितने भी आर्किटेक्चर के काॅलेज हैं, उनके शिक्षक और छात्र अपने परिवेश में बिखरी पड़ी सांस्कृतिक विरासतों को सूचीबद्ध करें और उनके विकास की योजनाएं बनाएं। इससे दो लाभ होंगे-एक तो भूमाािफयाओं की लालची निगाहों से विरासत को बचाया जा सकेगा, दूसरा जब उस विरासत पर गहन अध्ययन के बाद पूरी परियोजना तैयार होगी, तो जैसे ही साधन उपलब्ध हों, उसका संरक्षण करना आसान होगा। इसलिए बगैर इस बात का इंतजार किए कि संरक्षण का बजट कब मिलेगा, अध्ययन का काम तुरंत चालू हो जाना चाहिए। 

कोई कितना भी जीर्णोद्धार या संरक्षण कर ले, तब तक विरासत नहीं बच सकती, जब तक स्थानीय युवा और नागरिक यह तय न कर लें कि उन्हें अपनी विरासत सजानी है, संवारनी है। अगर वो विरासत को बचाने के लिए राजी हो जाते हैं, तो उनमें बचपन से ही विरासत के प्रति सम्मान पैदा होगा। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक विशाल विरासत सौंप पाएंगे। वरना सबकुछ धीरे-धीरे काल के गाल में समाता जा रहा है। 

अक्सर लोग कहते हैं कि सरकार के साथ काम करना मुश्किल होता है। पर ब्रज में जीर्णोद्धार के जो कार्य पिछले 10 वर्षों में हमने किए हैं, उसमें अनेक उत्साही युवा जिलाधिकारियों का हमें भरपूर सहयोग मिला है और इससे हमारी यह धारणा दृढ़ हुई है कि प्रशासन और निजी क्षेत्र यदि एक-सी दृष्टि अपना लें और एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक बन जाएं, तो इलाके की दिशा परिवर्तन तेजी से हो सकती है। विरासत बचाना मात्र इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें हमारा इतिहास छिपा है, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि विरासत को देखकर नई पीढ़ी बहुत सा ज्ञान अर्जित करती है। इसके साथ ही विरासत बचने से पर्यटन बढ़ता है और उसके साथ रोजगार बढ़ता है। इसलिए ये केवल कलाप्रेमियों का विषय नहीं, बल्कि आमजनता के लाभ का विषय है। 

Monday, March 2, 2015

किसके फायदे का बजट

देश का आमबजट बिना किसी सनसनी के निकल गया। पहली बार हुआ है कि बजट का विश्लेषण करते समय मीडिया भी अचकचाया सा दिखा। कोई भी ठोककर नहीं कह पाया कि यह बजट उद्योग जगत की ओर झुका हुआ दिखा या खेती किसानी की तरफ। नई सरकार के सहायक अर्थशास्त्री शायद अब इतने पटु हो गए हैं कि राजनीतिक आलोचनाओं से कैसे बचा जाता है, इसकी उन्हें खूब समझ है। पिछले 24 घंटों में इस बजट के विश्लेषण करने वालों पर गौर करें, तो कोई भी विश्लेषक साफतौर पर यह नहीं बता पाया कि बजट का असर किस पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। 

बजट आने के दो-चार दिन पहले सबसे ज्यादा कौतुहल जिस तबके में दिखाई देता है, वह आयकरदाता वाला तबका होता है। वे ही सीधे-सीधे अपने नफा-नुकसान का अंदाजा साफतौर पर लगा पाते हैं और बजट के बाद खुशी या गम का इजहार करते हैं, लेकिन इस बार जिस तरह से यथास्थिति बनाए रखी गई उससे उन्हें भी महसूस करने को कुछ नहीं मिला। वैसे सोचने की बात यह है कि अपने देश में टैक्स आधार यानि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या भी सिर्फ 3 फीसद है। लिहाजा, इनकम टैक्स को बजट के विश्लेषण का आधार मानना उतना महत्वपूर्ण है नहीं। और अगर टैक्स आधार को ही मुद्दा मान लें, तो यह सब जानते हैं कि बड़ी उम्मीद बंधाकर सत्ता में आयी कोई सरकार नए आयकरदाताओं का एक बड़ा तबका अपने साथ खड़ा नहीं करना चाहेगी। टैक्स आधार बढ़ाने का काम अब तक की कोई सरकार नहीं कर पायी, तो इस सरकार के पहले-पहले बजट में ऐसा कुछ किए जाने की उम्मीद या आशंका कैसे की जा सकती थी। अगर कोई दिलचस्प या उल्लेखनीय बात बजट में दिखाई दी तो वह मनरेगा को उसी आकार में चालू रखने की बात है। दरअसल, मनमोहन सरकार को इस विलक्षण योजना के खिलाफ उस समय के विपक्ष ने जिस तरह से विरोध करते हुए घेरा था और इसके अलावा नई सरकार के मिजाज से जैसा अंदाजा था, उससे लगने लगा था कि इस योजना को हतोत्साहित करके कोई नई योजना लायी जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। मनरेगा को उसी रूप और आकार में चालू रखा गया। ठीक भी है, क्योंकि लोकतंत्र में लोक का आकार बेशक महत्वपूर्ण होता है और यह इकलौती योजना, जो गांव की 15 फीसद जनसंख्या को राहत देती है। साथ ही देश के सबसे ज्यादा जरूरतमंद तबके के लिए है। 

नई सरकार के बजट में उद्योग व्यापार के लिए कुछ खास किए जाने का अंदाजा था, पर प्रत्यक्षतः वैसा ही दिख नहीं रहा है। अगर सांख्यिकीय नजरिये से देखें, तो वाकई इस बजट में आमदनी बढ़ाने का इंतजाम नहीं हो पाया। आमदनी धनवानों पर टैक्स बढ़ाकर ही बढ़ती। इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि उद्योग व्यापार पर ज्यादा दविश नहीं दी गई और उसी बात को उद्योग व्यापार को राहत दिया जाना मान लेना चाहिए। 

जब राजस्व बढ़ाने के उपाय की बात की गई, तो पर्यटन का जिक्र किया गया। अच्छी बात है, लेकिन ऐसा कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिखता, जिससे हम आश्वस्त होते हों कि आने वाले समय में पर्यटन को बढ़ा लेंगे। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि भारतवर्ष जैसे देश में पर्यटन के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन इन संभावनाओं का लाभ लेने के लिए जिस तरह के आधारभूत ढ़ांचे की जरूरत है, उस पर होने वाले खर्च का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल हो जाता है। जाहिर है कि इस बारे में हम सिर्फ आकांक्षा ही रख सकते हैं, मूर्तरूप में कोई प्रस्ताव देना बड़ा भारी काम है। कुछ भी हो, यह बात कही गई है, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि पर्यटन को प्रोत्साहित करने के लिए नई सरकार कुछ नीतिगत फैसले तो लेगी ही और यह भी सही है कि इस सरकार का यह पहला साल है। इस दौरान अगर हम चीजों को सिल-सिलेवार लगाने का काम ही कर लेते हैं, तो वह कम नहीं होगा। 


Monday, February 2, 2015

जयन्ती नटराजन ने किया कांग्रेस के 'डूबते जहाज़ में एक और छेद'

कांग्रेस के डूबते जहाज में जयन्ती नटराजन ने एक और छेद कर दिया। कांग्रेसी इसे नमक हरामी कहेंगे क्योंकि जयन्ती नटराजन बिना लोकसभा चुनाव लड़े आलाकमान की कृपा से राज्यसभा सांसद व मंत्री बनती रही है। इसलिए अब अचानक जागा उनका ये वैराग्य कांग्रेसियों की समझ से परे हैं। उन्हें भी दिख रहा है कि जयन्ती नटराजन ने यह कदम राहुल गांधी से अपने सैद्धांतिक मदभेद के कारण नहीं उठाया बल्कि तमिलनाडू की राजनीति को मद्देनजर रख कर उठाया है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभी के चुनाव होने हैं। कांग्रेस वहाँ अपना बचा खुचा जनाधार भी खो चुकी है। अब कहीं से राज्यसभा की सीट ले पाना कांग्रेस में रहते हुए जयन्ती नटराजन के लिए संभव नहीं है। उधर भाजपा तेजी से अपने पांव तमिलनाडू में बढ़ा रही है। जहाँ 2011 के तमिलनाडू के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी वहाँ इस बार अमित शाह तमिलनाडू में भाजपा के पांव जमाना चाहते हैं। द्रमुक और अन्ना द्रमुक के खेमों में बटी तमिलनाडू  की जनता को पकड़ने के लिए उनके पास कोई उल्लेखनीय नेता व कार्यकर्ता नहीं है। संघ का भी कोई बड़ा आधार तमिलनाडू में नहीं है। ऐसे में जाहिर है कि जयन्ती नटराजन जैसे हाशिए पर बैठे नेताओं को भाजपा में जाने से कोई आशा कि किरण नजर आ रही है। इसलिए ये आया राम गया राम का सिलसिला दोहराया जा रहा है।
   
रही बात जयन्ती नटराजन के पत्र में राहुल गांधी के खिलाफ लगाये गये आरोपों की, तो प्रश्न उठता है कि यह आत्मबोधि जयन्ती को तब क्यों हुई जब वे सत्ता से बाहर हो गई। जब वे राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार में  मंत्री थी, तब उनकी आत्मा ने उन्हें क्यों नहीं कचोटा। उनके पर्यावरण मंत्री रहते अगर वास्तव में राहुल गांधी उन्हें स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने दे रहे थे तो उन्होंने स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह अपना जनतांत्रिक विराध क्यों नहीं व्यक्त किया? क्यों वे राहुल गांधी के फरमान मानती रही? क्यों आज ही तरह तब प्रेस कांफ्रेस बुलाकर राहुल गांधी के कामों का खुलासा क्यों नहीं किया? जाहिर है तब उन्हें कुर्सी से चिपके रहने का लालच था। इसलिए खामोश रही। अब न तो कांग्रेस के झण्डे तले कुर्सी बची है और न निकट भविष्य में इसकी संभावना है। इसलिए जयन्ती नटराजन के उपर राहुल गांधी का यह गाना सटीक बैठेगा -

                                     रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह ।
                                         बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह ।।
                                         सौ रूप भरे जीने के लिए, बैठें है हजारों जहर पिये।
                                       ठोकर न लगाना हम खुद है गिरती हुयी दीवारों की तरह ।।

खैर राजनीति में इस तरह से दिल तोड़ने वाले काम अक्सर मौकापरस्त लोग किया करते हैं। यह भी सही है कि सिंद्धातहीन राजनीति के दौर में ऐसे ही लोग अक्सर पनपते भी हैं। तो जयन्ती नटराजन कोई अपवाद नहीं है।

रही बात पर्यावरण व आर्थिक विकास के मुद्दों की तो चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, दोनों की कुछ सीमाएँ हैं। दोनों चाहते हैं कि तेजी से आर्थिक विकास हो। औद्योगिकरण हो, राजगार बढ़े और निर्यात बढ़े। इसके लिए पर्यावरण की प्रथमिकताओं को दर किनार करना पड़ता है। फिर चाहे खनन हो या वृक्षों का कटान, जनजातीय जनता का विस्थापन हो या नदियों में औद्योगिक प्रदूषण, सब तरफ से आंखे मूंद ली जाती है। इससे उद्योगपति खुश होते हैं और राजनैतिक दलों को भरपूर चंदा देते हैं। मगर दूसरी तरफ आम जनता में आक्रोश फैलता है और उसके वोट खोने का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए यह दुधारी तलवार है। दोनों के बीच संतुलन लाने की जरूरत है। जिससे पर्यावरण भी बच सकें और औद्योगिक विकास भी हो सकें। अच्छा होगा कि प्रभुख राजनैतिक दल इस संवेदनशील सवाल पर आम सहमति पैदा कर लें। और विकास का ऐसा माॅडल तय कर लें कि सरकारें आएं और जाएं पर इस बुनियादी माॅडल में कोई भारी फेरबदल न हो। ऐसा तभी हो सकता है। जब सद्इच्छा हो, जिसकी राजनीति में बहुत कमी पाई जाती है। मौजूदा प्रधानमंत्री औद्योगिकरण, विदेशी निवेश  और आर्थिक विकास को लेकर बहुत उत्साहित है। उधर उनके गुजरात कार्यकाल के दौरान से ही सिविल सोसायटी वाले उनपर पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगाते रहे हैं। पर एक आध्यात्मिक चेतनावाला व्यक्तित्व वेदों की मान्यताओं के विपरीत जाकर प्रकृति का विनाश होते नहीं देख सकता। नरेन्द्र भाई को इस विषय में सामुहिक राय बनाकर धुंध साफ कर लेनी चाहिए।

जहाँ तक जयन्ती नटराजन के आरोपों का सवाल है, उनमें अगर तथ्य भी हो तो इसे कोई राजनैतिक बयानबाजी मानकर उनके अगले राजनैतिक कदम का इंतजार करना चाहिए। जब यह साफ हो जाएगा कि उनकी चिंता किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर थी।

Monday, January 19, 2015

किरण बेदी बनाम केजरीवाल



जिसका अंदाजा था वही हुआ | आखिर किरण बेदी भाजपा में शामिल हो ही गई | अब विरोधी हमला कर रहे हैं कि कल तक भाजपा पर आम आदमी पार्टी कि नेता बन कर भाजपा पर हमला बोलने वाली किरण बेदी ने उसी भाजपा का दामन क्यों थाम लिया ? यह हमला बेमानी है | अन्ना हजारे के आंदोलन के दौर से ही किरण बेदी भाजपा की तरफ अपना झुकाव दिखाती आ रही थी | नरेंद्र मोदी की प्रधानमन्त्री पद कि उम्मीदवारी की घोषणा के बाद तो किरण ने उनका खुल कर समर्थन किया | ज़रूरी नहीं कि पूरी जिंदगी एक व्यक्ति एक विचार और एक मूड को लेकर बैठा रहे | जिन शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेश मूल को लेकर पार्टी छोड़ी थी वे ही 10 बरस तक सोनिया गांधी के नेतृत्व में सप्रग की सरकार चलवाते रहे |

किरण बेदी के भाजपा में शामिल होते ही कई मीडिया कर्मियों ने मुझसे फोन पर इस घटना की प्रतिक्रिया पूछी | मेरा मानना है कि किरण बेदी जैसी कार्यकुशल अधिकारी की सक्रीय भूमिकाओं से दिल्ली की आम जनता हमेशा प्रभावित रही है | मुझे 1980 का वो दौर याद है जब किरण बेदी उत्तर पश्चिम दिल्ली की डीसीपी थी | तब मैंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए एक टीवी सीरीज ‘पुलिस और लोग’ प्रस्तुत की थी | उन दिनों किरण युवा महिला होने के बावजूद आधी रात को घोड़े पर गश्त करती थी | बाद में दिल्ली की ट्रैफिक पुलिस में रहते हुए उन्होंने वीआइपी गाड़ियों को गलत पार्किंग से उठवा कर ‘क्रेन बेदी’ होने का खिताब हासिल किया |

जिन दिनों 1993 – 96 में मैंने जैन हवाला काण्ड उजागर किया और भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण और मैं देश भर में जन सभाएं सम्भोदित कर रहे थे उन्ही दिनों 1996 में किरण बेदी, के जे एल्फोंज़ और जी आर खैरनार भी हमारे साथ जुड़े और हमने कई जनसभाएं साथ साथ संबोधित करी | तब किरण के साथी अधिकारी किरण से बहुत जलते थे | वे कहते थे कि किरण जैसे लोग अपने छोटे से काम का बहुत ढिंढोरा पीटते हैं | दूसरी तरफ ये लोग बहुत महत्वाकांक्षी हैं सरकारी नौकरी में रह कर राजनैतिक भविष्य तैयार कर रहे है | पर महत्वाकांक्षी होना कोई गलत बात नहीं है | अनेक उदाहरण हैं जब अनुभवी प्रशासनिक अधिकारी राजनीति में भी कुशल प्रशासक सिद्ध हुए हैं | दूसरी तरफ मुकाबले में केजरीवाल जैसा व्यक्ति है जिसकी कथनी कुछ और - करनी कुछ और | इसी कॉलम में पिछले 4 वर्षों में बेहत हैं केजरीवाल के झूठ, फरेब और राजनैतिक महत्वाकांक्षा पर मैंने दर्जनों लेख लिखे हैं | तब भी जब अन्ना और केजरीवाल का भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथाकथित जन आंदोलन अरबों रूपए की आर्थिक मदद से अपने शिखर पर था, मैंने राजघाट पर इनके खिलाफ खुले पर्चे तक बटवाए थे | क्योंकि मैं इनकी गद्दारी का धोखा खा चुका था और मुझे इन पर कटाई भरोसा नहीं था | किरण बेदी जाहिरान केजरीवाल से कई मामलों में बेहतर हैं | केजरीवाल तो हल्ला मचा कर, करोड़ों रुपया प्रचार में खर्च करके, एक मुद्दा उठाते हैं और फिर बड़ी बेहयाई से उसे छोड़ कर भाग जाते हैं | फिर वो चाहे बनारस का संसदीय क्षेत्र हो, जंतर मंतर का धरना, जनता दरबार या मुख्यमंत्री का पद | कहीं भी ठहर कर कोई भी काम नहीं किया | ऐसा ही मानना उनके टाटा स्टील व आयकर  विभाग के सहयोगियों का भी है | अब दिल्ली की जनता तय करेगी कि वो काम करने वाली किरण बेदी को चुनेगी या भगोड़े केजरीवाल को |

हो सकता है कि भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं में अमित भाई शाह के इस निर्णय को लेकर कुछ रोष हो | वे जाहिरान किरण बेदी को बाहरी उम्मीदवार मानते होंगे | पर उन्हें यह याद रखना चाहिए कि आज की भाजपा आडवानी जी की भाजपा से भिन्न है | आज नरेंद्र भाई मोदी एक मिशन लेकर देश बनाने निकले हैं | उन्हें हर उस कर्मठ व्यक्ति की ज़रूरत है जो उनके इस मिशन में सहयोग कर सके | अगर केवल संघ और भाजपा से जुड़ने का पुराना इतिहास मांगेगें तो वे देश के लाखों योग्य लोगों की सेवाएँ लेने से वंचित रह जायेंगे | उधर अमित भाई शाह उस नेपोलियन की तरह हैं जो फ़्रांस की सेना के सिपाही से उठ कर फ़्रांस का राजा बना | जिसके शब्दकोष में असंभव नाम का शब्द ही नहीं था | जो सोता भी घोड़े पर ही था | अमित भाई चुनाव के हर युद्ध को जीतने के लिए लड़ रहे हैं | वे श्रीराम के लक्ष्मण हैं जो अग्रज की सेवा में 14 वर्ष तक वनवास में खड़े रहे | अपना सुख त्यागा ताकि बड़े भईया को सुख दे सके | जब श्रीराम अवध के राजा बने तब भी लक्ष्मण उसी तरह से सेवा में जुटे रहे | अब नरेंद्र भाई को देश बनाने के लिए जो समय चाहिए वह तभी मिल पायेगा जब संगठन और चुनाव की समस्याओं से अमित भाई शाह उन्हें दूर रखें और खुद ही इनसे जूझते रहें | ऐसे में पार्टी कार्यकर्ताओं को अपने दल के नेता के निर्णय में पूर्ण विश्वास होना चाहिए, तभी लड़ाई जीती जायेगी |

Monday, January 12, 2015

चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या

आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।

यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।

फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।

शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
 
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।