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Monday, January 30, 2023

मिस्र की प्राचीन संस्कृति और कट्टरपंथी हमले के नुक़सान


हम भारतीय अपनी प्राचीन संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। बात-बात पर हम ये बताने कि कोशिश करते हैं कि जितनी महान हमारी संस्कृति है, उतनी महान दुनिया में कोई संस्कृति नहीं है। निःसंदेह भारत का जो दार्शनिक पक्ष है, जो वैदिक ज्ञान है वो हर दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से देखा जाए तो हम पायेंगे कि भारत से कहीं ज़्यादा उन्नत संस्कृति दुनिया के कुछ दूसरे देशों में पायी जाती है।
 

पिछले तीन दशकों में दुनिया के तमाम देशों में घूमने का मौक़ा मिला है। आजकल मैं मिस्र में हूँ। इससे पहले यूनान, इटली व अब मिस्र की प्राचीन धरोहरों को देखकर बहुत अचम्भा हुआ। जब हम जंगलों और गुफ़ाओं में रह रहे थे या हमारा जीवन प्रकृति पर आधारित था। उस वक्त इन देशों की सभ्यता हमसे बहुत ज्यादा विकसित थी। हम सबने बचपन में मिस्र के पिरामिडों के बारे में पढ़ा है।पहाड़ के गर्भ में छिपी तूतनख़ामन की मज़ार के बारे में सबने पढ़ा था। यहाँ के देवी-देवता और मंदिरों के बारे में भी पढ़ा। पर पढ़ना एक बात होती है और मौक़े पर जा कर उस जगह को समझना और गहराई से देखना दूसरी बात होती है।


अभी तक मिस्र में मैंने जो देखा है वो आँखें खोल देने वाला है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आज से 5,500 साल पहले, क़ुतुब मीनार से भी ऊँची इमारतें, वो भी पत्थर पर बारीक नक्काशी करके, मिस्र के रेगिस्तान में बनाई गयीं। उनमें देवी-देवताओं की विशाल मूर्तियाँ स्थापित की गईं। हमारे यहाँ मंदिरों में भगवान की मूर्ति का आकर अधिक से अधिक 4 से 10 फीट तक ऊँचा रहता है। लेकिन इनके मंदिरों में मूर्ति 30-40 फीट से भी ऊँची हैं। वो भी एक ही पत्थर से बनाई गयीं हैं। दीवारों पर तमाम तरह के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी उकेरी गई है। फिर वो चाहे आयुर्वेद की बात हो, महिला का प्रसव कैसे करवाया जाए, शल्य चिकित्सा कैसे हो, भोग के लिये तमाम व्यंजन कैसे बनाए जाएँ, फूलों से इत्र कैसे बनें, खेती कैसे की जाए, शिकार कैसे खेला जाए। हर चीज़ की जानकारी यहाँ दीवारों पर अंकित है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ इसे सीख सकें। इतना वैभवशाली इतिहास हैं मिस्र का कि इसे देख पूरी दुनिया आज भी अचंभित होती है। 


फ़्रांस, स्वीडन, अमरीका और इंग्लैंड के पुरातत्ववैत्ताओं व इतिहासकारों ने यहाँ आकर पहाड़ों में खुदाई करके ऐसी तमाम बेशुमार चीज़ों को इकट्ठा किया है।सोने के बने हुए कलात्मक फर्नीचर, सुंदर बर्तन, बढ़िया कपड़े, पेंटिंग और एक से एक नक्काशीदार भवन। अगर उस वक्त की तुलना भारत से की जाए तो भारत में हमारे पास अभी तक जो प्राप्त हुआ है वो सिर्फ़ हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति के अवशेष है। हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की संस्कृति में जो हमें मिला है वो केवल मिट्टी के कुछ बर्तन, कुछ सिक्के, कुछ मनके और ईंट से बनी कुछ नींवें, जो भवनों के होने का प्रमाण देती हैं। लेकिन वो तो केवल साधारण ईंट के बने भवन हैं। यहाँ तो विशालकाय पत्थरों पर नक़्क़ाशी करके और उन पर आजतक न मिटने वाली रंगीन चित्रकारी करके सजाया गया है। इनको यहाँ तक ढोकर कैसे लाया गया होगा, जबकि ऐसा पत्थर यहाँ पर नहीं होता था? कैसे उनको जोड़ा गया होगा? कैसे उनको इतना ऊँचा खड़ा किया गया होगा जबकि उस समय कोई क्रेन नहीं होती थी? ये बहुत ही अचंभित करने वाली बात है।

किंतु इस इतिहास का एक नकारात्मक पक्ष भी है। हर देश काल में सत्ताएँ आती-जाती रहती हैं और हर नई आने वाली सत्ता, पुरानी सत्ता के चिन्हों को मिटाना चाहती है। क्योंकि नई सत्ता अपना आधिपत्य जमा सके। यहाँ मिस्र में भी यही हुआ। जब मिस्र पर यूनान का हमला हुआ, रोम का हमला हुआ या जब अरब के मुसलमानों का हमला हुआ तो सभी ने यहाँ आ कर यहाँ के इन भव्य सांस्कृतिक अवशेषों का विध्वंस किया। उसके बावजूद भी इतनी बड़ी मात्रा में अवशेष बचे रह गए या दबे-छिपे रह गये, जो अब निकल रहे हैं। यही अवशेष मिस्र में आज विश्व पर्यटन का आकर्षण बने हुए हैं। दुनिया भर से पर्यटक बारह महीनों यहाँ इन्हें ही देखने आते हैं। इन्हें देख कर दांतों तले उँगली दबा लेते हैं। इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा आधार पर्यटन उद्योग ही है। 

परंतु जो धर्मांध या अतिवादी होते हैं, वो अक्सर अपनी मूर्खता के कारण अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेते हैं। आपको याद होगा कि 2001 में अफ़ग़ानिस्तान के बामियान क्षेत्र में गौतम बुद्ध की 120 फीट ऊँची मूर्ति को तालिबानियों ने तोप-गोले लगाकर ध्वस्त किया था। विश्व इतिहास में ये बहुत ही दुखद दिन था। आज अफ़ग़ानिस्तान भुखमरी से गुज़र रहा है। वहाँ रोज़गार नहीं है। खाने को आटा तक नहीं है। अगर वो उस मूर्ति को ध्वस्त न करते। उसके आस-पास पर्यटन की सुविधाएँ विकसित करते, तो जापान जैसे कितने ही बौद्ध मान्यताओं वाले देशों के व दूसरे करोड़ों पर्यटक वहाँ साल भर जाते और वहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते। 

जब अरब मिस्र में आए तो उन्होंने सभी मूर्तियों के चेहरों ध्वस्त करना चाहा। क्योंकि इस्लामिक देशों में बुतपरस्ती को बुरा माना जाता है। जहाँ-जहां वे ऐसा कर सकते थे उन्होंने छैनी हथौड़े से ऐसा किया। लेकिन आज उसी इस्लाम को मानने वाले मिस्र के मुसलमान नागरिक उन्हीं मूर्तियों को, उनके इतिहास को, उनके भगवानों को, उनकी पूजा पद्धति को दिखा-बता कर अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं। फिर वो चाहे लक्सर हो, आसवान हो, अलेक्ज़ेंडेरिया हो या क़ाहिरा हो, सबसे बड़ा उद्योग पर्यटन ही है। आज मिस्र के लोग उन्हीं पेंटिंग और मूर्तियों के हस्तशिल्प में नमूने बनाकर, किताबें छाप कर, उन्हीं चित्रों की अनुकृति वाले कपड़े बनाकर, उन्हीं की कहानी सुना-सुनाकर उससे कमाई कर  रहे हैं। 

अब मथुरा का ही उदाहरण ले लीजिए। मथुरा में काम कर रही संस्था द ब्रज फ़ाउंडेशन ने पिछले बीस वर्षों में पौराणिक व धार्मिक महत्व वाली दर्जनों श्रीकृष्ण लीला स्थलियों का जीर्णोद्धार और संरक्षण किया है। परंतु योगी सरकार ने आते ही द्वेष वश फाउंडेशन द्वारा सजाई गई दो लीलास्थलियों का तालिबानी विनाश करना शुरू कर दिया। ताज़ा उदाहरण तो मथुरा के जैंत ग्राम स्थित पौराणिक कालियामर्दन मंदिर, अजय वन व जय कुंड का है, जहां भाजपा के एक स्थानीय नेता ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से ग्राम सभा के फ़र्ज़ी प्रस्ताव पर एक सार्वजनिक कूड़ेदान का निर्माण करा रहा है। ग्राम सभा के 15 सदस्यों में से 14 निर्वाचित सदस्य मथुरा के ज़िलाधिकारी को व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लिखित शिकायत दे चुके हैं कि कूड़ेदान के लिए कोई उनकी सभा में कोई प्रस्ताव पास नहीं हुआ। जिस प्रस्ताव के आधार पर ये निर्माण हो रहा है वो फ़र्ज़ी है। इससे पवित्र तीर्थ पर गंदगी का अंबार लग जाएगा। सारा गाँव इसका घोर विरोध कर रहा है। पर अभी तक प्रशासन की तरफ़ से इसे रोकने की कोई कारवाई नहीं हुई। एक ओर तो योगी सरकार हिंदुत्व को बढ़ाने का दावा करती है। दूसरी तरफ़ उसी के राज में मथुरा में तीर्थ स्थलों का विनाश इसलिए किया जा रहा है क्योंकि वो राजनैतिक रूप से उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। शायद भाजपा और आरएसएस की मानसिकता यह है कि हिन्दू धर्म का जो भी काम होगा वो यही दो संगठन करेंगे। यदि कोई दूसरा करेगा तो उसका कोई महत्व नहीं और उसे नष्ट करने में किसी तरह की धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होगा। यह बहुत ही दुखद है।

इस लेख के माध्यम से मैं उन सभी लोगों तक ये संदेश भेजना चाहता हूँ कि धरोहर चाहे किसी भी देश, धर्म या समुदाय की हो, वो सबकी साझी धरोहर होती है। वो पूरे विश्व कि धरोहर होती है। सभ्यता का इतिहास इन धरोहरों को संरक्षित रख कर ही अलंकृत होता है। जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। चाहे किसी भी धर्म में हमारी आस्था हो हमें कभी भी किसी दूसरे धर्म की धरोहर का विनाश नहीं करना चाहिए। आज नहीं तो कल हम ये समझेंगे कि इन धरोहरों को बनाना और सँभालना कितना मुश्किल होता है और उनका विनाश करना कितना आसान। इसलिए ऐसे आत्मघाती कदमों से बचें और अपने इलाक़े, प्रांत और प्रदेश की सभी धरोहरों कि रक्षा करें। इसी में पूरे मानव समाज की भलाई है।    

Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।