Showing posts with label Northeast. Show all posts
Showing posts with label Northeast. Show all posts

Monday, July 20, 2015

ज्योतिर्लिंग भीमाशंकर महाराष्ट्र में नहीं, असम में है

कभी-कभी इतिहास गुमनामी के अंधेरे में खो जाता है और नई परंपराएं इस तरह स्थापित हो जाती हैं कि लोग सच्चाई भूल जाते हैं। कुछ ऐसा ही किस्सा है भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक का, जिन्हें हम भीमाशंकर जी के नाम से जानते हैं और उनकी उपस्थिति महाराष्ट्र के पुणे नगर में मानकर उनके दर्शन और आराधना करने जाते हैं। यूं तो कण-कण में व्याप्त भगवान एक ही समय अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं। उस तरह तो पुणे नगर के ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर मानने में कोई हर्ज नहीं है। पर ऐसी सभी मान्यताओं का आधार हमारे पुराण हैं। विदेशी या विधर्मी इन्हें एतिहासिक न मानें, मगर हर आस्थावान हिंदू पुराणों को सनातन धर्म का इतिहास मानता है। उस दृष्टि से हमें ज्योतिर्लिंगों की अधिकृत जानकारी के लिए श्री शिवपुराण का आश्रय लेना होगा।

पिछले हफ्ते जब मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर था, तो मेरे मेजबान मित्र ने भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के विषय में अद्भुत जानकारी दी। उन्होंने बताया कि पौराणिक भीमाशंकर जी महाराष्ट्र में नहीं, बल्कि असम की राजधानी गोवाहटी की पहाड़ियों के बीच विराजते हैं। असम के वैष्णव धर्म प्रचारक श्री शंकरदेव की वैष्णव भक्ति की आंधी में असम के सभी शिवभक्तों को या तो वैष्णव बना लिया गया था या वे स्वयं ही असम छोड़कर भाग गए थे। इसलिए भीमाशंकर जी पिछली कुछ सदियों से गुमनामी के अंधेरे में खो गए। वे मुझे भीमाशंकर के दर्शन कराने ले गए। उनके साथ उनकी सुरक्षा में लगा असम पुलिस का लंबा-चैड़ा लाव-लश्कर था। हम लंबी पैदल यात्रा और कामरूप के मनोहारी पर्वतों और वनों के बीच चलते हुए एक निर्जन घाटी में पहुंचे। जहां शहरीकरण से अछूता प्राकृतिक वातावरण था, जो दिल को मोहित करने वाला था। वहां कोई आधुनिकता का प्रवेश नहीं था। हां, कभी सदियों पूर्व वहां स्थापित हुए किसी भव्य मंदिर के कुछ भगनावेश अवश्य इधर-उधर छितरे हुए थे। फिलहाल तो वहां केवल वनों की लकड़ियों से बनी रैलिंग, बैंचे और लता-वृक्षों की छाया थी। भोलेनाथ अपने भव्य रूप में पहाड़ी नदी के बीच में इस तरह विराजे हैं कि 24 घंटे उनका वहां जल से अभिषेक होता रहता है। वर्षा ऋतु में तो वे पूरी तरह नदी में डुबकी लगा लेते हैं। उनकी सेवा में लगे पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं, बल्कि जनजातिय हैं। जो सैकड़ों वर्षों से भीमाशंकर महादेव की निष्ठा से चुपचाप पूजा-अर्चना करते रहते हैं। यहां काशी से लेकर देशभर से संत और शिवभक्त आकर साधना करते हैं। मगर अभी तक इस स्थान का कोई प्रचार प्रसार देश में नहीं हुआ है।

पुजारी जी ने बताया कि शिवपुराण के 20वें अध्याय में श्लोक संख्या 1 से 20 तक व 21वें अध्याय के श्लोक संख्या 1 से 54 तक भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा बताई गई है। जिसके अनुसार ये ज्योतिर्लिंग कामरूप राज्य के इन पर्वतों के बीच यहीं स्थापित हैं। असम का ही पुराना नाम कामरूप था। दर्शन और अभिषेक करने के बाद मैंने आकर शिवपुराण के ये दोनों अध्याय पढ़े, तो मैं हतप्रभ रह गया। जैसा पुजारीजी ने बताया था, बिल्कुल वही वर्णन शिवपुराण में मिला। इसमें कहीं भी भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के महाराष्ट्र में होने का कोई उल्लेख नहीं है। उदाहरण के तौर पर 20वें अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा गया है कि -
कामरूपाभिधे देशे शंकरो लोककाम्यया।
अवतीर्णः स्वयं साक्षात्कल्याणसुखभाजनम्।।
इसी क्रम में भोलेनाथ के अवतीर्ण होने की संपूर्ण कथा के बाद 53वें श्लोक में कहा गया है कि -
भीमशंकरनामा त्वं भविता सर्वसाधकः।
एतल्लिंगम् सदा पूज्यं सर्वपद्विनिवारकरम्।।

आश्चर्य की बात है कि इतनी बड़ी खोज देश के मीडिया और शिवभक्तों से कैसे छिपी रह गई। हालांकि इस लेख को लिखते समय मेरी कलम कांप रही है। कारण ये कि लाखों वर्षों से प्रकृति की मनोरम गोद में शांति से भोलेनाथ जिस तरह गोवाहाटी के पर्वतों की घाटी में विराजे हैं, वह शांति इस लेख के बाद भंग हो जाएगी। फिर दौड़ पड़ेंगे टीवी चैनल और शिवभक्त देशभर से असली भीमाशंकर जी के दर्शन करने के लिए। बात फिर वहीं नहीं रूकेगी। फिर कोई वहां भव्य मंदिर का निर्माण करवाएगा। यात्रियों की भीड़ को संभालने के लिए खानपान, आवास आदि की व्यवस्थाएं की जाएंगी और व्यवसायिक गतिविधियों की तीव्रता एकदम बढ़ जाएगी। जिससे यहां का नैसर्गिक सौंदर्य कुछ वर्षों में ही समाप्त हो जाएगा।

पर, एक पत्रकार के जीवन में ऐसी दुविधा के क्षण अनेक बार आते हैं, जब उसे यह तय करना पड़ता है कि वह सूचना दे या दबा दे। चूंकि द्वादश ज्योतिर्लिंग सनातनधर्मियों विशेषकर शिवभक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं, इसलिए श्रावण मास में शिवभक्तों को यह विनम्र भेंट इस आशा से सौंप रहा हूं कि गोवाहटी स्थित भीमाशंकर महादेव जी के दर्शन करने अवश्य जाएं। पर उस परिक्षेत्र का विकास करने से पूर्व उसके प्राकृतिक स्वरूप को किस तरह बचाया जा सके या उसका कम से कम विनाश हो, इसका ध्यान अवश्य रखा जाए।

Monday, July 13, 2015

पूर्वोत्तर राज्यों का पर्यटन विकास क्यों नहीं हो पा रहा ?



आजकल मैं पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे पर आया हुआ हूं। मुझे यह देखकर अचम्भा हो रहा है कि स्विट्जरलैंड और कश्मीर को टक्कर देता पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौंदर्य पर्यटन की दृष्टि से दुनिया के आगे क्यों नहीं परोसा जा रहा ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र जीवन के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों के अनेक लड़के-लड़कियां हमारे साथ थे। जिनकी शिकायत थी कि मैदानी इलाकों में रहने वाले हम लोग उनके राज्यों की परवाह नहीं करते, उनके साथ सौतेला व्यवहार करते हैं।

पाठकों को याद होगा कि नागालैंड हो या मिजोरम या फिर असम की ब्रह्मपुत्र घाटी सबने जनाक्रोश का एक लंबा दौर देखा हैं। केंद्रीय सरकार, सशस्त्र बलों और हमारी सेनाओं को इन राज्यों में शांति बनाए रखने के लिए और अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी है। तब यही लगता था कि सारा अपराध दिल्ली में बैठे हुक्मरानों का है, इसीलिए लोग नाराज़ हैं | यह कुछ हद तक ही सही था | लेकिन यहां आकर जमीनी हकीकत कुछ और ही पता चली। 

अब मेघालय को ही लीजिए। गरीबी का नामोनिशान यहां नहीं है। इसका मतलब ये नहीं कि सभी संपन्न हैं। पर यह सही है कि बुनियादी जरूरतों के लिए परेशान होने वाला परिवार आपको ढूढ़े नहीं मिलेगा। शिलांग जैसी राजधानी या मेघालय के गांव और दूसरे शहर में कहीं एक भी भिखारी नजर नहीं आया। जानकार लोग बताते हैं कि कोयले व चूने की खानों और अपार वन संपदा के चलते मेघालय राज्य में प्रति एक हजार व्यक्ति के ऊपर  जितने करोड़पति हैं, उतने पूरे भारत में कहीं दूसरी जगह नहीं। यह तथ्य आंख खोलने वाला है। एक और उदाहरण रोचक होगा कि मेघालय के कुछ नौजवान भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन होने के बावजूद केवल इसलिए नौकरी पर नहीं गए कि उन्हें अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्य में नहीं रहना था। जाहिर है, उनकी आर्थिक सुरक्षा मजबूत रही होगी, तभी उन्होंने ऐसा जोखिम भरा फैसला लिया। 

मेघालय बेहद खूबसूरत राज्य है। पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाएं हैं। इस इलाके की खासी, गारो व जैंतियां तीनों जनजातियां सांस्कृतिक रूप से भी काफी सम्पन्न हैं। दूसरी तरफ पिछले 68 सालों में सरकार ने यहां आधारभूत ढांचा विकसित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। बढि़या सड़कें, जनसुविधाएं, पानी-बिजली की आपूर्ति, यह सब इतना व्यवस्थित है कि अगर कोई चाहे तो मेघालय के हर गांव को 'इको टूरिज्म विलेज' बना सकता है। अगर आज ऐसा नहीं है, तो इसका एक बड़ा कारण मेघालय के नौजवानों की हिंसक वृत्ति है। जातिगत अभिमान के चलते वे बाहरी व्यक्ति को पर्यटक के रूप में तो बर्दाश्त कर लेते हैं। पर अपने इलाके में न तो उसे रहने देना चाहते हैं, न कारोबार करने देना चाहते हैं। इसलिए बाहर से कोई विनियोग करने यहाँ नहीं आता। दूसरा बड़ा कारण यह है कि लोगों को धमकाना, उन्हें चाकू या पिस्टल दिखाना और उनसे पैसा उगाही करना या किसी बात पर अगर झगड़ा हो जाए, तो उस व्यक्ति को मार-मारकर बेदम कर देना या मार ही डालना इन लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसकी इन्हें कोई सजा भी नहीं मिलती | इसलिए व्यापारिक बुद्धि का आदमी यहां आकर विनियोग करने से घबराता है। कुल मिलाकर नुकसान देश का तो है ही, मेघालयवासियों का भी कम नहीं। पर उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, क्योंकि प्रकृति ने खनिजों और वन संपदा के अपार भंडार इन्हें सौंप दिए हैं। इनके इलाकों में सरकार का कानून नहीं चलता, बल्कि इनके कबिलाई प्रमुख की हुकुमत चलती है। उसने अगर कह दिया कि कोयले की ये खान मेरी हुई, तो कोई सरकार उसे रोक नहीं सकती। नतीजतन, जब घर बैठे खान, खनिज, जमीन और वन संपदा आपको मोटी कमाई दे रहे हों, तो आपको इससे ज्यादा म्हणत करने की क्या जरूरत है। इसलिए ये लोग नहीं चाहते कि कोई बाहर से आए और बड़े कारोबार की स्थापना करे। 

एक तरह से तो यह अच्छा ही है | क्योंकि शहरीकरण हमारे नैसर्गिक सौंदर्य को दानवीयता की हद तक जाकर बर्बाद कर रहा है। कोई रोकटोक नहीं है। आज देश का हरित क्षेत्र 3 फीसदी से भी कम रह गया है। जबकि आदमी को स्वस्थ रहने के लिए भू-भाग के 33 फीसदी पर हरियाली होनी चाहिए। अगर यहां भारी विनियोग होगा, तो प्रकृति का विनाश भी तेजी से होगा। 

चलो बड़े विकास की बात छोड़ भी दें, तो भी अपार संभावनाएं हैं। हम पर्यटन की आवश्यकता को समझे और उसके अनुरूप स्थानीय स्तर पर सुविधाओं का विस्तार करें। 


कमोबेश, यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। जहां नैसर्गिक सौंदर्य बिखरा हुआ है। पर वहां भी स्थानीय जनता के ऐसे रवैये के कारण वांछित विकास नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि पूर्वोत्तर राज्यों के जो युवा पढ़-लिखकर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं, वे अपने-अपने प्रांतों में जाग्रति लाएं और जनता की तरफ से भी विकास की मांग उठनी चाहिए। हां यह जरूर है कि यह विकास पर्यावरण और जनजातिय सांस्कृतिक अवशेषों को क्षति पहुंचाए बिना हो।  इसी में सबका भला है |