आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।
यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।
फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।
शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।
दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।