पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।
यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।
यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।
शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।
सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।
यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।
यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।
शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।
सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।
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