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Monday, August 21, 2017

खाद्य पदार्थों में मिलावट पर रोक नहीं

हवा, पानी और भोजन आदमी की जिंदगी की बुनियादी जरूरत हैं। अगर इनमें ही मिलावट होगी, तो जनता कैसे जियेगी? खाद्यान में मिलावट के नियम कितने भी सख्त हों, जब तक उनको ठीक से लागू नहीं किया जायेगा, इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। आज मिलावट का कहर सबसे ज्यादा हमारी रोजमर्रा की जरूरत की चीजों पर ही पड़ रहा है। संपूर्ण देश में मिलावटी खाद्य-पदार्थों की भरमार हो गई है । आजकल नकली दूध, नकली घी, नकली तेल, नकली चायपत्ती आदि सब कुछ धड़ल्ले से बिक रहा है। अगर कोई इन्हें खाकर बीमार पड़ जाता है तो हालत और भी खराब है, क्योंकि जीवनरक्षक दवाइयाँ भी नकली ही बिक रही हैं ।
एक अनुमान के अनुसार बाजार में उपलब्ध लगभग 30 से 40 प्रतिशत समान में मिलावट होती है। खाद्य पदार्थों में मिलावट की वस्तुओं पर निगाह डालने पर पता चलता है कि मिलावटी सामानों का निर्माण करने वाले लोग कितनी चालाकी से लोगों की आँखों में धूल झोंक रहे हैं। इन मिलावटी वस्तुओं का प्रयोग करने से लोगों को कितनी कठिनाइयाँ उठानी पड़ रही हैं।
आजकल दूध भी स्वास्थ्यवर्धक द्रव्य न होकर मात्र मिलावटी तत्वों का नमूना होकर रह गया है, जिसके प्रयोग से लाभ कम हानि ज्यादा है। हालत यह है कि लोग दूध के नाम पर यूरिया, डिटर्जेंट, सोडा, पोस्टर कलर और रिफाइंड तेल पी रहे है।
बाजार में उपलब्ध खाद्य तेल और घी की भी हालत बेहद खराब है। सरसों के तेल में सत्यानाशी बीज यानी आर्जीमोन और सस्ता पॉम आयल मिलाया जा रहा है। देशी घी में वनस्पति घी और जानवरों की चर्बी की मिलावट, आम बात हो गई है। मिर्च पाउडर में ईंट का चूरा, सौंफ पर हरा रंग, हल्दी में लेड क्रोमेट व पीली मिट्टी, धनिया और मिर्च में गंधक, काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाए जा रहे हैं।
फल और सब्जी में चटक रंग के लिए रासायनिक इंजेक्शन, ताजा दिखने के लिए लेड और कॉपर सोल्युशन का छिड़काव व सफेदी के लिए फूलगोभी पर सिल्वर नाइट्रेट का प्रयोग किया जा रहा है। चना और अरहर की दाल में खेसारी दाल, बेसन में मक्का का आटा मिलाया जा रहा और दाल और चावल पर बनावटी रंगों से पालिश की जा रही है ।
ऐसा अर्से से होता आ रहा है। 50 वर्ष पहले, एक फिल्म में महमूद ने एक गाना गाया था, जो ऊपर लिखे गये सारे पदार्थों का इसी तरह वर्णन करता था। मतलब यह हुआ कि 50 वर्षों में कुछ भी नहीं सुधरा। इसके विपरीत अब तो दूध, फल और सब्जी तक जहरीले हो गये हैं। भारत की पूरी आबादी, इस जहर को खाकर जी रही है। हमारे बच्चे इन मिलावटी सामानों को खाकर बड़े हो रहे हैं। भारत की आने वाली युवा पीढ़ी कैसे ताकतवर बनेगी?
मोदी सरकार के आने के बाद, सबको उम्मीद थी कि खाने के पदार्थों में मिलावट करने वालों पर, सरकार सख्ती करेगी। स्वयं मोदी जी ने अपने भाषणों में इस समस्या की भयावहता को रेखांकित किया था। पर उनके अधीनस्थ अफसरों ने ऐसी नीति बनाई है कि खाद्य पदार्थों में मिलावट का धंधा, दिन-दूना और रात-चैगुना बढ़ गया है। ‘ईज़ आफ बिजनेस’ के नाम पर खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता परखने वाले विभागों को कहा गया है कि वे ऐसी किसी भी अर्जी पर, बिना देर किये, अनापत्ति पत्र जारी कर दिये जायें।
जरा सोचिए कि मलेशिया से ‘पाम आयल’ आया। आयातक ने अनापत्ति पत्र के लिए अर्जी दी। खाद्य नियंत्रण विभाग, अगर यह सुनिश्चित करना चाहे कि यह तेल, खाने योग्य है या नहीं, तो उसे परीक्षा के लिए प्रयोगशाला में भेजना होगा। जहां कैमिस्ट उसकी गुणवत्ता की जांच कर सकें। खाद्य विभाग को यह जांच रिर्पोट 7 दिन में चाहिए। प्रयोगशाला के पास इतने सारे सैंपल जांच के लिए आये हुए हैं कि वो तीन महीने में भी यह रिर्पोट नहीं दे सकती। ऐसे में दो ही विकल्प हैं। पहला कि बिना जांच के, फर्जी अनापत्ति पत्र दे दिये जायें, दूसरा जांच आने तक इंतजार किया जाए। ऐसी स्थिति में खाद्य नियंत्रण विभाग पर लाल फीता शाही और काम में ढीलेपन का आरोप लगाकर, उसके अधिकारियों को शासन द्वारा  प्रताड़ित किया जा सकता है। इसी डर से आज, यह विभाग बिना जांच करावाए ही, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने को मजबूर हैं। जबकि ऐसा करने से लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। पर आज हो यही रहा है। खद्यान के नमूनों की बिना जांच कराए ही मजबूरी में, अनापत्ति प्रमाण पत्र देने पड़ रहे हैं। नतीजतन पूरे देश के बाजार में, जहरीले रासायनिक और रंग मिलाकर धड़ल्ले से खाद्यान्न बेचे जा रहे हैं। जिससे हम सबका जीवन खतरे में पड़ रहा है। मोदी सरकार को, इस गंभीर समस्या की ओर ध्यान देना चाहिए और खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिए।

Monday, June 8, 2015

मैगी पर बवाल-रसोई में उबाल

जब देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था, तब मैंने 1989 में देश की हिंदी टीवी समाचारों की पहली वीडियो मैगजीन कालचक्र जारी कर खोजी टीवी पत्रकारिता की भारत में शुरूआत की थी। उस समय हमारी इस वीडियो मैगजीन का उद्देश्य था कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले हर उस खाद्य या प्रसाधन, उत्पाद की जांच करना, जिसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापक प्रचार प्रसार करती हैं। इसी क्रम में हमने एक खोजी रिपोर्ट जारी की थी ‘मैगी खाने के खतरे’। तब देश में निजी टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल वीडियो लाइब्रेरी के जरिये लोग हमारी समाचार वीडियो कैसेट किराए पर लेकर अपने वीसीआर पर देखते थे। इसलिए हर व्यक्ति तक यह सूचना नहीं पहुंची। अगर तब से किसी टीवी चैनल ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता, तो हालात आज इतने बेकाबू न होते।
 
दरअसल, खाद्य और प्रसाधन के जितने उत्पादन आज बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेच रही हैं। लगभग ये सब जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इनके मूल्य, इनकी लागत से 50 गुना ज्यादा होते हैं। इनके जो गुण बताकर इन्हें बेचा जाता है, वे ज्यादातर फर्जी होते हैं। इनमें ऐसे तमाम रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और जिन्हें दुनिया के आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। एक तो भारत में ऐसे अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून नहीं हैं। दूसरा इन कानूनों को लागू करने वाले का आचरण पारदर्शी नहीं है। इसलिए मोटी रिश्वत लेकर हानिकारक पदार्थों को आसानी से बाजार में आने दिया जाता है। इस मामले में मोदी सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले पदार्थों के निर्माताओं और विक्रेताओं को पकड़े जाने पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो। फिर वह चाहें बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देशी कंपनियां।
 
इस मामले में हमारी अपनी कमी का भी उल्लेख करना जरूरी है। आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।
 
मैगी नूडल्स को लेकर मचा बवाल निराधार नहीं है। समय आ गया है कि हम जागें। हवा प्रदूषित हो चुकी है, जल प्रदूषित हो चुका है, खाद्यान कीटनाशक दवाओं और रसायनिक उर्वरकों से जहरीले होते जा रहे हैं। ऐसे में हमें अपने पारंपरिक खाने की ओर लौटना होगा। जिसमें संपूर्णता है, सदियों की अपनाई हुई प्रमाणिकता है और हमारे स्वास्थ्य को दुरूस्त रखने की क्षमता है। हमें अपनी परंपराओं के प्रति सम्मान पैदा करना होगा। जिससे हमारे बच्चे मैगी और पेप्सी जैसे हानिकारक पदार्थों की जगह पौष्टिक भोजन में फिर से रूचि लेने लगें, वरना यह विवाद भी कुछ दिनों की अखबारी सुर्खियां बटोर कर ठंडा पड़ जाएगा और हम फिर से मैगी खाने में फक्र का अनुभव करेंगे।

Monday, April 4, 2011

रामभरोसे सेहत


Amar Ujala 4 Apr 2011
इस साल जमकर बारिश हुयी, कड़ाके की सर्दी पड़ी और उतनी ही भीषण गर्मी पड़ने की आशंका है। उधर जापान के परमाणु विकिरणों का भी भूमण्डल की जलवायु पर खतरनाक प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसी परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश वालों का स्वास्थ्य रामभरोसे है। उन्हें गम्भीर बीमारियों और तकलीफ भरे दिनों के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। क्योंकि भीषण गर्मी में ही बीमारी के बैक्टीरिया और कीटाणु तेजी से पनपते और फैलते हैं। वो चाहें हैजा हो, मलेरिया हो, डेंगू हो, चिकुनगुनिया हो या पीलिया हो। गर्मी की मार से आदमी बच सकता है, अगर उसका परिवेश स्वस्थ व साफ हो और उसे शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो। ये दोनों ही न होने की स्थिति में गर्मी की मार दोगुनी हो जाती है।

अब जरा उत्तर प्रदेश के नगरों और गाँवों की तरफ नजर डालिये। क्या ये आपको साफ-सुथरे और सजे-संवरे नजर आते हैं? या हर शहर, कस्बा और गाँव हर किस्म के विदू्रप कूड़े के अम्बारों से पटा पड़ा है? आप अपने चारों ओर नजर उठाकर देखिए तो आपको हफ्तों और महीनों से बेतरतीब पड़े कूड़े के ढेर ही ढेर नजर आयेंगे। जिनमें हर तरह की बीमारियाँ जन्म ले रही हैं और जो वायुमण्डल को 24 घण्टे प्रदूषित कर रहा है। इतना ही काफी न था। उत्तर प्रदेश के लगभग हर शहर की सीवर व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। नगरों के बढ़ते आकार की तुलना में न तो सीवर का जाल बढ़ा है और न ही उसकी चैड़ाई। सीवर के इन पाइपों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे ठोस अवयव के रूप में अटके पड़े हैं। नतीज़तन पानी रूक-रूककर आगे बढ़ता है। सीवरों के इस जाल को नियमित साफ रखने की भी कोई माकूल व्यवस्था नगर पालिकाओं के पास नहीं है। चाहें वह साधनों की कमी हो या व्यक्तियों की। नतीज़तन इन शहरों, कस्बों और गाँवों की नालियों में भीषण बदबूदार दूषित जल बुदबुदाता रहता है और उफनकर सड़कों पर बहता रहता है।

वर्तमान सीवरेज व्यवस्था हमें यूरोप से भेंट में मिली थी। वरना भारतीय संस्कृति में शहर की गंदगी को नदियों में डालने की प्रथा कभी न थी। यूरोप में सीवर का पानी नदी में डालने से पहले पूरी तरह साफ, यहाँ तक कि पीने योग्य बनाया जाता है। इसलिए उनके यहाँ यह व्यवस्था सफलतापूर्वक चल रही है। पर हमारे यहाँ सीवर का पानी ज्यों का त्यों नदियों में डाल दिया जाता है। इसका ट्रीटमेंट करने के जितने प्लांट, जिस भी जगह लगे हैं, वे या तो बन्द पड़े हैं या क्षमता से कहीं कम काम कर रहे हैं। ऐसे में प्रदेश की नदियाँ खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो चुकी हैं। इतना ही नहीं प्रदेश के रजवाहे और लघु सिंचाई योजना के तहत खोदी गई नालियाँ (माइनर) प्रदेश के प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड व जिम्मेदार अधिकारियों के भ्रष्टाचार के कारण औद्योगिक गन्दा पानी ढोने पर मजबूर हैं। जिससे किसान, खेती और पशु तीनों को भारी नुकसान हो रहा है। इस सबका सीधा असर हमारी पेयजल आपूर्ति पर पड़ रहा है।

प्रदेश का भूजल न सिर्फ प्रदूषित हो चुका है बल्कि अविवेकपूर्ण दोहन के कारण उसका स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। गर्मी शुरू होने दीजिए और फिर देखिए पेयजल के लिए कैसा हाहाकार मचता है। हमारे पर्यटन की नाक माने जाने वाली ताजमहल की नगरी आगरा तक पेयजल के भारी संकट से बेहाल हो जाती है। जब संकट सिर पर आ जाता है, तब प्रशासन के सामने प्रदर्शन करने, घड़े फोड़ने, धरने देने और बयान देने की बाढ़ आ जाती है। पर क्या इस सबसे समस्या हल हो जाती है? वर्षों से सरकारों की अविवेकपूर्ण नीतियों ने प्रदेश को किस खस्ता हालत में लाकर खड़ा कर दिया है। आप ये सब सह लेते अगर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत अच्छी होती। पर इनकी क्या हालत है और इनमें कैसा इलाज होता है, यह आप बखूबी जानते हैं। कुल मिलाकर इधर कुँआ तो उधर खाई। अब तो वही फिल्मी गाना याद आता है ‘तैयार हो जाओ वतन की आबरू (प्रदेश की सेहत) खतरे में है, तैयार हो जाओ तुम्हारे इम्तिहान का वक्त है’।

यह सब लिखने का उद्देश्य अपने प्रदेश की बदहाली पर आँसू बहाना नहीं है। मकसद है, ‘पीर पर्वत सी हो चुकी अब तो पिघलनी चाहिए। इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ कब तक बैठे रहेंगे सरकार के आसरे हम? कब तक नगर पालिकाओं के नकारापन का रोना रोते रहेंगे? हमारे आसपास की गन्दगी से खतरा हमें और हमारे बच्चों को है। तो फिर कबूतर की तरह आँख मंूद लें या फिर कुछ करें? समाजसेवा के नाम पर फोटो खिंचवाने वाले क्लब, किटी पार्टी में ताश के पत्तेे फैंटने वाली कुलीन महिलाऐं, स्कूल-काॅलेजों के शिक्षक व छात्र तथा हर बात पर बयान देने को आतुर छुटभैये नेता अगर गम्भीर हो जाये ंतो हम अपने शहर के कूड़े से निजात पा सकते हैं। यह सारे समूह अलग-अलग संगठनों के माध्यम से और सब संगठनों के एक सामूहिक मंच के माध्यम से यह फैसला करें कि अपने नगर को साफ रखना हमारी जिम्मेदारी है। तो दो काम करने होंगे। एक तो हमें यह तय करना होगा कि हम अपने घर से बाहर जो कूड़ा फैंकते हैं, उसका आकार तेजी से घटायें और उसके प्रकार में ऐसा परिवर्तन लायें कि वह कूड़ा हमारे पर्यावरण पर बोझ न बने। मसलन प्लास्टिक, थर्मोकोल, रासायनिक पदार्थ व पैंकिग मेटिरियल जैसा कचरा जब तक फैंकना बन्द नहीं करेंगे, इस समस्या से छुटकारा नहीं मिलेगा। यह अभ्यास करना मुश्किल जरूर है, असम्भव नहीं। मेरी पीढ़ी के लोगों को अपना बचपन याद होगा, तब इस तरह का कूड़ा न तो गाँवों में होता था और न ही शहरों में। नलों में चैबीस घण्टे पानी आता था। बिना आर. ओ. या बिसलरी के हम टोंटी से मुँह लगाकर पानी पीते थे। हमने सबमर्सिबल पम्प लगाकर पानी की ऐसी बर्बादी शुरू की कि आज पीने के पानी को प्रदेश तरस जाता है।

इन सामाजिक संगठनों और उनके सामूहिक मंच को दूसरा काम यह करना होगा कि शहर के कूड़े को उठाकर निर्धारित जगह डालने के लिए जिम्मेदार इकाईयों और प्रशासन पर तगड़ा दबाव बनाकर व उनके साथ सक्रिय सहयोग करके इस काम को युद्ध स्तर पर करना होगा। इन सब प्रयास के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था नगर और गाँवों के सम्पन्न लोगों को उदारता से करनी चाहिए। जैसाकि जर्मनी के चांसलर विली ब्रांट ने एक बार कहा था, ‘‘गरीबी कहीं भी हो, अमीरी के लिए हर जगह खतरा बन जाती है’’। इस सन्दर्भ में हमें कहना होगा, ‘‘गन्दगी कहीं भी हो, अमीरों के लिए भी खतरा है।’’ एक बार लखनऊ में उत्तर प्रदेश बाॅर एसोसिएशन के प्रांतीय सम्मेलन को मंच से सम्बोधित करते हुए मैंने अपने साथ बिराजे मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को बधाई दी कि आपका यह प्रदेश गाँधी जी के आत्मनिर्भरता के आदर्शों का पालन कर रहा है। बिजली, पानी और अपनी सुरक्षा के लिए आपने जनता को पूरी तरह आत्मनिर्भर बना दिया है। इस पर पूरे सम्मेलन में जोर का ठहाका लगा। मुलायम सिंह जी को बात बुरी लगी होगी। पर कमोबेश यही हाल देश के ज्यादातर शहरों का होता जा रहा है। इसलिए यह हंसी का नहीं चिंता का विषय है। पुरानी कहावत है, ‘आप काज-महाकाज’। फैसला आपको करना है।