देश का आमबजट बिना किसी सनसनी के निकल गया। पहली बार हुआ है कि बजट का विश्लेषण करते समय मीडिया भी अचकचाया सा दिखा। कोई भी ठोककर नहीं कह पाया कि यह बजट उद्योग जगत की ओर झुका हुआ दिखा या खेती किसानी की तरफ। नई सरकार के सहायक अर्थशास्त्री शायद अब इतने पटु हो गए हैं कि राजनीतिक आलोचनाओं से कैसे बचा जाता है, इसकी उन्हें खूब समझ है। पिछले 24 घंटों में इस बजट के विश्लेषण करने वालों पर गौर करें, तो कोई भी विश्लेषक साफतौर पर यह नहीं बता पाया कि बजट का असर किस पर सबसे ज्यादा पड़ेगा।
बजट आने के दो-चार दिन पहले सबसे ज्यादा कौतुहल जिस तबके में दिखाई देता है, वह आयकरदाता वाला तबका होता है। वे ही सीधे-सीधे अपने नफा-नुकसान का अंदाजा साफतौर पर लगा पाते हैं और बजट के बाद खुशी या गम का इजहार करते हैं, लेकिन इस बार जिस तरह से यथास्थिति बनाए रखी गई उससे उन्हें भी महसूस करने को कुछ नहीं मिला। वैसे सोचने की बात यह है कि अपने देश में टैक्स आधार यानि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या भी सिर्फ 3 फीसद है। लिहाजा, इनकम टैक्स को बजट के विश्लेषण का आधार मानना उतना महत्वपूर्ण है नहीं। और अगर टैक्स आधार को ही मुद्दा मान लें, तो यह सब जानते हैं कि बड़ी उम्मीद बंधाकर सत्ता में आयी कोई सरकार नए आयकरदाताओं का एक बड़ा तबका अपने साथ खड़ा नहीं करना चाहेगी। टैक्स आधार बढ़ाने का काम अब तक की कोई सरकार नहीं कर पायी, तो इस सरकार के पहले-पहले बजट में ऐसा कुछ किए जाने की उम्मीद या आशंका कैसे की जा सकती थी। अगर कोई दिलचस्प या उल्लेखनीय बात बजट में दिखाई दी तो वह मनरेगा को उसी आकार में चालू रखने की बात है। दरअसल, मनमोहन सरकार को इस विलक्षण योजना के खिलाफ उस समय के विपक्ष ने जिस तरह से विरोध करते हुए घेरा था और इसके अलावा नई सरकार के मिजाज से जैसा अंदाजा था, उससे लगने लगा था कि इस योजना को हतोत्साहित करके कोई नई योजना लायी जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। मनरेगा को उसी रूप और आकार में चालू रखा गया। ठीक भी है, क्योंकि लोकतंत्र में लोक का आकार बेशक महत्वपूर्ण होता है और यह इकलौती योजना, जो गांव की 15 फीसद जनसंख्या को राहत देती है। साथ ही देश के सबसे ज्यादा जरूरतमंद तबके के लिए है।
नई सरकार के बजट में उद्योग व्यापार के लिए कुछ खास किए जाने का अंदाजा था, पर प्रत्यक्षतः वैसा ही दिख नहीं रहा है। अगर सांख्यिकीय नजरिये से देखें, तो वाकई इस बजट में आमदनी बढ़ाने का इंतजाम नहीं हो पाया। आमदनी धनवानों पर टैक्स बढ़ाकर ही बढ़ती। इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि उद्योग व्यापार पर ज्यादा दविश नहीं दी गई और उसी बात को उद्योग व्यापार को राहत दिया जाना मान लेना चाहिए।
जब राजस्व बढ़ाने के उपाय की बात की गई, तो पर्यटन का जिक्र किया गया। अच्छी बात है, लेकिन ऐसा कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिखता, जिससे हम आश्वस्त होते हों कि आने वाले समय में पर्यटन को बढ़ा लेंगे। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि भारतवर्ष जैसे देश में पर्यटन के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन इन संभावनाओं का लाभ लेने के लिए जिस तरह के आधारभूत ढ़ांचे की जरूरत है, उस पर होने वाले खर्च का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल हो जाता है। जाहिर है कि इस बारे में हम सिर्फ आकांक्षा ही रख सकते हैं, मूर्तरूप में कोई प्रस्ताव देना बड़ा भारी काम है। कुछ भी हो, यह बात कही गई है, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि पर्यटन को प्रोत्साहित करने के लिए नई सरकार कुछ नीतिगत फैसले तो लेगी ही और यह भी सही है कि इस सरकार का यह पहला साल है। इस दौरान अगर हम चीजों को सिल-सिलेवार लगाने का काम ही कर लेते हैं, तो वह कम नहीं होगा।
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