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Monday, February 12, 2024

मंदिर-मस्जिद का झगड़ा कब तक चलेगा?


अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब हिदुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है। विपक्षी दल इस बात से चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिंदू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की ज़िद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। दूसरी तरफ़ धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिंदुओं को आकर्षित नहीं कर पाएँगे। इन धर्म निरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा। क्योंकि भावनाशील हिंदुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ़ जो आम जनता की ज़िंदगी से जुड़े ज़रूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोज़गारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएँ, इन पर ज़ोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएँगे। 



जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैंकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिंदुओं के मदिर तोड़ कर बनीं थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आजतक सनातन धर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए  संघर्षशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद से वृहद् हिंदू समाज में एक नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएँगी। उधर मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है। जो दोनों ही पक्षों के लिये घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीक़े से इसका हल निकाल लें। हालाँकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की ही है कि वे इन दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें। 



मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा यह शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता। क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातन धर्मियों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिंदू पूरे वर्ष इन तीर्थों के दर्शन करने जाते रहे हैं। जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहाँ खड़े भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहाँ देख कर हर बार हमारे ज़ख़्म हरे हो जाते हैं। ये बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षों से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूँ। जो धर्म निरपेक्ष दल ये तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा? आज हिंदू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की माँग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसे माँगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। एक तरफ़ तो मक्का मदीना है जहां ग़ैर मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ़ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मों का पालन करने की पूरी छूट है। पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस ख़ौफ़नाक मंजर की याद दिलाएँ जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था। 



दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को बहुत लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोज़गार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिंदुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बँटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिंदू समाज की उदारता का प्रमाण था। जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहाँ से निकाला गया, उसके बाद भी ये आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिंदुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।


भाजपा हिंदुओं के उस वर्ग प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहे हैं। दरअसल धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदर्शन यदि उत्सव के रूप में किया जाए, तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है। जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों। दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति व नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मों को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मों की शोभा यात्राएं निकालना, पंडाल लगाकर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए। किन्तु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाई अड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछाकर नमाज पढने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को ख़ुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौक़ा नहीं मिलेगा।  

Monday, January 15, 2024

अयोध्या: प्राण प्रतिष्ठा में विवाद क्यों?

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है। गोवर्धन पीठ (पुरी, उड़ीसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है कि, मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं - कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति प्रतिष्ठा?” प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मज़दूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाक़ी शंकराचार्यों ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण प्रतिष्ठा की माँग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहाँ चर्चा करेंगे। 



पहला पक्ष यह है कि ये चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातन धर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिक विषय पर अगर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आये हैं। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं। आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, अहम् ब्रह्मास्मिका तत्व ज्ञान देने के बावजूद विष्णु षट्पदी स्तोत्रकी रचना की और भज गोविन्दमगाया। इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का ये आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिंदू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसलिए हिंदुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है। 



उधर दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधान मंत्री श्री मोदी ने एक प्रबल इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने लक्ष्य-प्राप्ति के लिये साधते हुए, इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिंदू समाज को एक चिर प्रतीक्षित उपहार दिया है। इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए। इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्राब्दियों में भारत में जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन धर्म, सिख धर्म या इस्लाम तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसी तरह मुसलमान शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेज़ी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिंदुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रही है। इसलिए हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है। पर इसके साथ ही देश में ये विवाद भी चल रहा है कि हिंदुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है। जिसका उल्लेख हिंदू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक आरएसएस और हिंदू धर्ममें शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। 



जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिये हैं उससे स्पष्ट है कि हिंदुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिंदू राष्ट्रवाद। इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच ये वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। 



फिर भी हिंदुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इसलिए हिंदुओं का ये वर्ग मोदी जी को अपना हीरो मानता है। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं। जिन्होंने राज धर्मकी बात कही थी। पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। वो जो ठान लेते हैं, वो कर गुजरते हैं। फिर वे नियमों और आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। इसीलिए जहां नोटबंदी, बेरोज़गारी और महंगाई जैसे मुद्दों पर वे अपना घोषित लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाए, वहीं दूसरे कुछ मोर्चों पर उन्होंने अपनी सफलता के झंडे भी गाड़े हैं। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है। क्योंकि ये उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके इस कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। 


रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिंदू समाज ने इन सर्वोच्च धर्म गुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का कोई प्रयास नहीं किया। उधर पिछले सौ वर्षों में शंकराचार्यों की ओर से भी वृहद हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे। इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही उनकी क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज़्यादा धार्मिक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है। पर अगर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो वह शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। पर ऐसा नहीं है। हिंदुत्व की विचारधारा भारत के हज़ारों वर्षों से चले आ रहे सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह एक राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और अपने लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और सम्प्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और सम्प्रदायों ने सक्रिय होकर इस आन्दोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। यह दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने सामने खड़े हो गये हैं।


Monday, June 26, 2023

अलविदा प्रो. इम्तियाज़ अहमद साहिब


अगर किसी शिक्षक के छात्र उसकी शख़्सियत को पचास बरस बाद भी ऐसे याद करें जैसे कल की ही बात हो तो मानना पड़ेगा कि वो कितना महान रहा होगा। जी हाँ ऐसी ही नायाब शख़्सियत थी भारत के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री व मानव विज्ञानशास्त्री (एंथ्रोपोलॉजी) प्रो. इम्तियाज़ अहमद की। जिनके पढ़ाये कितने ही छात्र भारत सरकार के सचिव, विदेशों में राजदूत, प्रोफेसर, पत्रकार और न जाने कहाँ-कहाँ सर्वोच्च पदों पर पहुँचे, पर अपने इस शिक्षक को कभी नहीं भूले।
 


वो थे ही ऐसे कि हर दिल अज़ीज़ बन जाते थे। पिछले हफ़्ते उनका दिल्ली में इंतक़ाल हो गया। देश के तमाम बड़े राष्ट्रीय अंग्रेज़ी और भाषाई अख़बारों ने उन पर बड़े-बड़े लेख छापे। जब क़ब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्दे ख़ाक किया जा रहा था तो वहाँ के मौलाना ने रस्मी आवाज़ लगायी कि जो इनका वारिस हो वो पहले आगे बढ़कर मिट्टी डाले। पीछे खड़े दर्जनों लोग, जो दशकों पहले उनके छात्र रहे थे, एक स्वर में बोले हम हैं उनके वारिस। क्योंकि उनके दोनों बेटे उस वक्त देश में नहीं थे। सब ने एक साथ आगे बढ़कर मिट्टी डाली। इनमें से मुसलमान तो शायद ही कोई था। 


अहमद साहिब ने शिकागो विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद जेएनयू से लेकर अमरीका, फ़्रांस जैसे तमाम पश्चिमी देशों में पढ़ाया। उनका ज्ञान और अपने विषय की पकड़ इतनी गहरी थी कि जो छात्र नहीं भी होता वो भी उनको सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाता था। वे हमेशा छात्रों के दोस्त बनकर रहते थे। वे उनका हर तरह से मार्ग दर्शन करते थे। 


समाजशास्त्र में उनके योगदान को दुनियाँ भर के देशों में सराहा और पढ़ाया जाता है। ये बात दूसरी है कि उस दौर (1978-1995) में जेएनयू पर हावी वामपंथियों ने उनके साथ अच्छा सलूक नहीं किया। उन्हें काफ़ी मानसिक यातना दी गयी और उनकी तरक़्क़ी भी रोकी गयी। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी क़ाबिलियत के दम पर उन वामपंथियों को बहुत पीछे छोड़ दिया। 


दुनिया के विश्वविद्यालयों में ही नहीं मसूरी की आईएएस अकादमी में और देश भर की सार्वजनिक जन सभाओं में भी उनके रोचक संभाषणों के कारण उन्हें प्रायः बुलाया जाता था। 



वो मज़ाक़िया भी बहुत थे। पर उनका मज़ाक़ समझने में कुछ क्षण लगते थे। क्योंकि वो बड़ी मंद मुस्कान के साथ बात को घुमा कर कहते थे। एक बार 1996 में प्रो. अहमद, बीजेपी नेता शत्रुघ्न सिन्हा, गुजरात के मुख्य मंत्री केशु भाई पटेल और मैं खेड़ा ज़िले की एक विशाल किसान जन सभा को संबोधित करने मंच पर साथ-साथ बैठे थे। जब उनका बोलने का नंबर आये तो वे उठे और मेरे कान में फुसफुसाकर चले गये हम तो किराए के भांड हैं जो बुलाये वहीं चले जाते हैं। मैं मुस्कुराया तो पर सोचता रह गया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा? 


एक बार वो सुबह- सुबह एक दुकान पर अंडे ख़रीदने आये। मैं भी वहीं खड़ा था। वे बड़े संजीदा अन्दाज़ में दुकानदार से बोले, सुना है आप अंडे बहुत अच्छे देते हैं। ये सुनकर दुकानदार झल्ला गया और बोला आप ये क्या कह रहे हैं। पर वहाँ खड़े सब लोग उनके इस दोहरे अर्थ वाले वाक्य को सुनकर ठहाका लगाकर हंस पड़े। 



मुस्लिम समाज में प्रगाढ़ जातिवाद पर उन्होंने बेलाग़ लिखा। वे कहते थे कि जैसे हिंदुओं में वर्ण और जाति व्यवस्था है वैसे ही हिंदुस्तान के मुसलमानों में भी है। क्योंकि उनमें से अधिकतर तो पिछली सदियों में धर्म परिवर्तन से ही मुसलमान बने हैं। हालाँकि इस्लाम सबकी बराबरी का दावा करता है। पर असलियत ये है कि एक मुसलमान जुलाहा, तेली या लुहार से शादी नहीं करता। शिया सुन्नी का भेद तो जग ज़ाहिर है पर मुसलमानों में भी ऊँची और नीची जात होती हैं। सैय्यद, पठान, अंसारी जैसे तमाम जातिगत समूह हैं जो एक दूसरे से शादी का रिश्ता नहीं करते। प्रो. अहमद का एक ख़ास वक्तव्य था कि वो हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमान ज़रूर हैं। पर सैय्यद के मुक़ाबले जुलाहे ही हैं। यानि एक नहीं हैं। 


आज के जिस दौर में चारों तरफ़ समाज में इरादतन बढ़ चढ़ कर नफ़रत फैलायी जा रहे है प्रो. इम्तियाज़ अहमद एक नज़ीर थे। जब मैं जेएनयू में पढ़ता तो अक्सर उनके घर जाता था। ये देखकर बड़ा अच्छा लगता था कि वो जितना इस्लाम का सम्मान करते थे उतना ही अन्य धर्मों का भी। श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर अपने बेटों को विभिन्न धर्मों का सार सिखाने के लिये वे बड़े उत्साह से लड्डू गोपाल जी का झूला सजाते थे। उनके एक आध्यात्मिक गुरु वृंदावन में यमुना किनारे रहते थे। जिनसे सत्संग करने वो वृंदावन भी आते थे।



मेरा उनसे एक व्यक्तिगत रिश्ता भी था। वे मेरी मौसी के सहपाठी थे। दोनों ने लखनऊ विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग से साथ-साथ एमए किया था। इस नाते मैं उन्हें मामू कहता था। मौसी बताती हैं कि तब भी वे बड़े मस्तमौला थे। उनकी क्लास का एक अध्ययन ट्रिप पूर्वी उत्तर प्रदेश गया। वहाँ सबने अगले ही दिन से सर्वेक्षण का अपना काम शुरू कर दिया। पर इम्तियाज़ साहिब शिविर के निर्धारित दस में से आठ दिन यही सोचते रहे कि मैं बदरा जाऊँ या पिपरा जाऊँ। उन्हें इन दो गावों में से एक को सर्वेक्षण के लिए चुनना था। पर जब उन्होंने चुन लिया तो उनका शोध प्रबंध ही सर्वश्रेष्ठ माना गया। ये उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण था कि सबसे बाद में शुरू करके भी सबसे बढ़िया अध्ययन उन्होंने ही किया। 


हमने जब दिल्ली में खोजी खबरों की वीडियो मैगज़ीन ‘कालचक्र’ जारी करने के लिये ‘कालचक्र समाचार ट्रस्ट’ की स्थापना की तो उन्हें भी उसका ट्रस्टी बनाया था। बाक़ी ट्रस्टी अन्य व्यवसायों के नामी लोग थे। ट्रस्ट की मीटिंग की कार्यवाही पर जब दस्तख़त करने का उनका नंबर आता तो वह मज़ाक़ में कहते मैं एक दस्तख़त करने का पचास पैसे लेता हूँ। मज़ाक़ की बात अलग पर मुझे व्यक्तिगत रूप से उनसे बहुत सीखने को मिला। ऐसे इंसान दुनियाँ में बहुत कम होते हैं। अब तो उनकी यादें ही शेष हैं।

Monday, June 19, 2023

भाजपा, केसीआर और मुसलमान


महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने हाल ही में मुसलमानों को ‘औरंगज़ेब की औलाद’ कह कर संबोधित किया। इससे पहले उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में ‘रामज़ादे - हरामज़ादे’ या ‘शमशान - क़ब्रिस्तान’ जैसे भड़काऊ बयान दिये गये थे। दिल्ली चुनावों में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने
गोली मारो सालों को जैसे भड़काऊ बयान देकर मुसलमानों के प्रति अपनी घृणा अभिव्यक्त की थी। पिछले दिनों बालासोर की ट्रेन दुर्घटना में बिना तथ्यों की जाँच हुए ही ‘ट्रॉल आर्मी’ ने फ़ौरन प्रचारित कर दिया कि दुर्घटना स्थल से थोड़ी दूर एक मस्जिद में इस हादसे की साज़िश रची गई थी। जबकि जिसे मस्जिद बताया जा रहा था वो इस्कॉन संस्था का श्री राधा कृष्ण मंदिर है और जिस स्टेशन मास्टर को मुसलमान होने के नाते इस दुर्घटना का साज़िशकर्ता बताया जा रहा था वो दरअसल हिंदू निकला। 


देश में जब कोविड फैला तो दिल्ली के निज़ामुद्दीन स्थित एक इमारत में ठहरे हुए तबलिकी जमात के लोगों को इस बीमारी को फैलाने का ज़िम्मेदार बता कर मीडिया पर खूब शोर मचाया गया। हर वो हिंदू लड़की जो मुसलमान से ब्याह कर लेती है उसे ये कहकर डराया जाता है कि उसका पति भी उसे आफ़ताब की तरह टुकड़े-टुकड़े कर उसे काट देगा या वैश्यालय में बेच देगा। ऐसे ही दर्दनाक हादसे जब हिंदू लड़कियों के हिंदू प्रेमी या पति करते हैं तब ‘ट्रोल आर्मी’ और मीडिया ख़ामोश रहते हैं। 



हर चुनाव के पहले भाजपा के नेता ऐसा ही माहौल बनाने लगते हैं पर चुनाव के बाद उनकी भाषा बदल जाती है। ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्मों के माध्यम से और ‘ट्रॉल आर्मी’ के द्वारा फैलाई गई जानकारी ही अगर मुसलमानों से नफ़रत का आधार है तो संघ प्रमुख मोहन भागवत ये क्यों कहते हैं, मुस्लिमों के बिना हिंदुत्व नहीं, हम कहेंगे कि मुसलमान नहीं चाहिए तो हिंदुत्व भी नहीं बचेगा, हिंदुत्व में मुस्लिम पराये नहीं? गुजरात के मुख्य मंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने ‘सीधी बात’ टीवी कार्यक्रम में कहा था कि, जो हिंदू इस्लाम का विरोध करता है वह हिन्दू नहीं है। समझ में नहीं आता कि संघ और भाजपा की सोच क्या है? कहीं पर निगाहें - कहीं पर निशाना!



इसी हफ़्ते सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल करवाया गया जिसमें तेलंगाना के मुख्य मंत्री के चंद्रशेखर राव किसी भवन के मुहूर्त में श्रद्धा भाव से खड़े हैं और उनके बग़ल में मौलवी खड़े क़ुरआन ख्वानी (दुआ) पढ़ रहे हैं। भेजने वाले का ये कहना था कि अगर केसीआर फिर से तेलंगाना विधान सभा का चुनाव जीत गये तो इसी तरह मुसलमान हावी हो जाएँगे। जबकि हक़ीक़त इसके बिलकुल विपरीत है। जुलाई 2022 से पहले के वर्षों में मैं जब भी हैदराबाद जाता था तो वहाँ के भाजपा के नेता यही कहते थे कि केसीआर मुसलमान परस्त हैं और इनके शासन में सनातन धर्म की उपेक्षा हो रही है। जुलाई 2022 में एक सनातनी संत के संदर्भ से मेरा केसीआर से परिचय हुआ। तब से अब तक उन्होंने मुझे दर्जनों बार हैदराबाद आमंत्रित किया। जिस तीव्र गति से वे तेलंगाना को विकास के पथ पर ले आए हैं वह देखे बिना कल्पना करना असंभव है। सिंचाई से लेकर कृषि तक, आईटी से लेकर उद्योग तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और वंचित समाज से लेकर धार्मिक कार्यों तक, हर क्षेत्र में केसीआर का काम देखने वाला है जो किसी अन्य राज्य में आजकल दिखाई नहीं देता। इसलिए हर परियोजना का भव्य उद्घाटन करना केसीआर की प्राथमिकता होती है। 



अब तक हमने देश में हर स्तर के चुनावों के पहले बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के शिलान्यास होते देखे हैं। पर इनमें से ज़्यादातर परियोजनाएँ शिलान्यास तक ही सीमित रहती हैं आगे नहीं बढ़ती। पर केसीआर की कहानी इसके बिल्कुल उलट है। वे शिलान्यास नहीं परियोजनाओं के पूरा हो जाने पर उद्घाटन के बड़े भव्य आयोजित करते हैं। ऐसे अनेक उद्घाटनों में मैं वहाँ अतिथि के रूप में उपस्थित रहा हूँ। हर उद्घाटन में सर्व-धर्म प्रार्थना होती है और उन धर्मों के मौलवी या पादरी आ कर दुआ करते हैं। पर केसीआर की जो बात निराली है, वो ये कि वे बिना प्रचार के सनातन धर्म के सभी कर्म कांडों को योग्य पुरोहितों व ऋत्विकों द्वारा बड़े विधि विधान से शुभ मुहूर्त में श्रद्धा पूर्वक करवाते हैं। 



पिछले महीने जब उन्होंने बाबा साहेब अंबेडकर के नाम से नये बनाए भव्य सचिवालय का लोकार्पण किया तो मैं यह देख कर दंग रह गया कि न केवल मुख्य द्वार पर नारियल फोड़ कर वेद मंत्रों के बीच सचिवालय में प्रवेश किया गया, बल्कि छः मंज़िल के इस अति विशाल भवन में मुख्य मंत्री, मंत्री, सचिव व अन्य अधिकारियों के हर कक्ष में पुरोहितों द्वारों विधि-विधान से पूजन किया गया। दो घंटे चले इस वैदिक कार्यक्रम में ट्रॉल आर्मी को दुआ के हाथ उठाते तीन मौलवी ही दिखाई दिये। जिनके बग़ल में केसीआर श्रद्धा भाव से खड़े थे। ये है एक सच्चे सनातन धर्मी व धर्म निरपेक्ष भारतीय नेता का व्यक्तित्व। दूसरी ओर धर्म का झंडा लेकर घूमने वाले अपने आचरण से ये कभी सिद्ध नहीं कर पाते कि उनमें सनातन धर्म के प्रति कोई आस्था है। करें भी क्यों जब धर्म उनके लिए केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम है। फिर भी ‘ट्रॉल आर्मी’ यही प्रचारित करने में जुटी रहती है कि उसके नेता तो बड़े धार्मिक हैं, जबकि विपक्ष के नेता मुस्लिम परस्त हैं। यह सही नहीं है। 


चार दशकों के अपने पत्रकारिता जीवन में हर राजनीतिक दल के देश के सभी बड़े नेताओं से मेरे व्यक्तिगत संबंध रहे हैं, चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, जनता दल हो या समाजवादी दल, साम्यवादी दल हो या तृणमूल कांग्रेस, मैंने ये पाया है कि भाजपा के अलावा भी जितने भी दल हैं, वामपंथियों को छोड़ कर, उन सब के अधिकतर नेता आस्थावान हैं और अपने-अपने विश्वास के अनुरूप अपने आराध्य की निजी तौर पर उपासना करते हैं। अगर इनमें कुछ नेता नास्तिक हैं तो संघ और भाजपा के भी बहुत से नेता पूरी तरह से नास्तिक हैं। अन्तर इतना है कि स्वयं को धर्म निरपेक्ष बताने वाले नेता अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन और प्रचार नहीं करते। इसलिए मुसलमानों के सवाल पर देश में हर जगह एक खुला संवाद होना चाहिए कि आख़िर भाजपा व संघ की इस विषय पर सही राय क्या है? अभी तक इस मामले में उसका दोहरा स्वरूप ही सामने आया है जिससे उनके कार्यकर्ताओं और शेष समाज में भ्रम की स्थिति बनी हुई है।

Monday, February 20, 2023

स्वरा भास्कर की शादी पर इतना शोर क्यों?


अपने क्रान्तिकारी विचारों के लिये हमेशा चर्चा में रहने वाली सिने तारिका स्वरा भास्कर ने फहाद से शादी करके भक्तों और अभक्तों को बयानबाजी के लिये नया मसाला दे दिया है। जहाँ भक्त अपनी भड़ास निकालने के लिये सोशल मीडिया पर निहायत नीचे दर्जे की फब्तियां कस रहे है वहीं अभक्त स्वरा को इस साहसी कदम के लिये बधाई दे रहे है। पहले भक्तों की बात कर लें। हिन्दू, मुसलमान के बीच शादी कोई नयी या अनहोनी बात नहीं है। 

लव जिहाद का तूफान मचाने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व भाजपा के नेताओं के परिवारों में भी ऐसी बहुत शादियां हुई हैं। भाजपा के महासचिव रामलाल की भतीजी श्रिया गुप्ता की शादी हाल ही में लखनऊ में कांग्रेस नेता के बेटे फेजान करीम से हुई तो देश और प्रदेश के भाजपा व संघ के बड़े-बड़े नेता बधाई देने पहुँचे। प्रखर हिन्दूवादी नेता व भाजपा के सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी की बेटी सुहासिनी ने विदेश सचिव के बेटे नदीम हेदर से निकाह किया और वे सुखी जीवन जी रहे हैं। 1957 में जन्में भाजपा के केन्द्रीय मंत्री व उपाध्यक्ष रहे मुख्तार अब्बास नकवी ने हिन्दू महिला सीमा से शादी की और आजतक सुखी जीवन जी रहे है। इसी तरह भाजपा के ही नेता सैयद शाहनवाज हुसैन ने हिन्दू महिला रेनू से शादी की और आजतक सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे है। वर्तमान में केन्द्रिय मंत्री स्मृति मल्हरोत्रा अपनी सखी के पारसी पति से शादी करके स्मृति ईरानी बन गईं। बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की पत्नी जेसिस जॉर्ज ईसाई हैं। अटल जी की केबिनेट में मंत्री रहे सिकन्दर बख्त की पत्नी राज शर्मा थीं। 


ये कुछ उदाहरण काफी है ये बताने के लिये कि शादी दो इंसानों के बीच का मामला होता है। जो एक धर्म के भी हो सकते है और अलग-अलग धर्म के भी। इसलिए जो भक्त समुदाय स्वरा भास्कर को दहेज में फ्रिज ले जाने की सलाह देकर व्यंग कर रहा है उसे अपनी बुद्वि शुद्व कर लेनी चाहिये। अपनी पार्टनर श्रद्धा की हत्या करके उसके टुकड़े फ्रिज में रखने वाले अपराधी आफताब पूनावाला के इस जघन्य कृत्य पर देश में पिछले बरस मीडिया में खुब बवाल मचा। इसे मुसलमानों की लवजिहाद बताकर हिन्दू लड़कियों को मुसलमान लड़कों से दूर रहने की खूब सलाह दी गई। भक्तों का मानना है कि हर मुसलमान शौहर अपनी हिन्दू बीवी से ऐसा ही सलूक करता है। जबकि श्रद्धा की हत्या के बाद से भी दर्जनों मामले ऐसे सामने आ चुके है जब हिन्दू लड़के ने हिन्दू पत्नी की जघन्य हत्यायें की हैं। आश्चर्य है कि इसे न तो लव जिहाद कहा गया और न ही इस पर मीडिया उछला। पिछले हफ्ते ही साहिल गहलोत ने अपनी प्रेमिका निक्की यादव को काटकर फ्रिज में छुपा दिया। इसे भी कोई लव जिहाद नहीं कह रहा। साफ जाहिर है कि भक्तों के दिमाग में ही कचरा भरा है जो किसी अपराध को अपराध की तरह नही बल्कि लव जिहाद की तरह ही देखते है।


यह सही है कि भारतीय समाज अपनी परम्पराओं और धार्मिक अस्थाओं से बहुत गहरा जुड़ा है। इसलिए दो धर्मों के बीच के विवाह को समाज द्वारा जल्दी आम स्वीकृति नहीं मिलती। दूसरी तरफ ऐसा विवाह करने वाले युगल उगलियों पर गिने जा सकते है। स्वतंत्र और प्रगतिशील विचारों वाले ही ऐसा जोखिम उठाते है। रोचक बात ये है कि भाजपा व सघं के सबसे बड़े नेता सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते है कि हिन्दूओं और मुसलमानों का डी.एन.ए. एक ही है तो फिर स्वरा और फहाद की शादी पर संघ परिवार में इतनी बेचेनी क्यों? डॉ. भागवत तो यहां तक कहते है कि ‘‘मुसलमानों के बिना नहीं बचेगा हिन्दुत्व।’’ जब सरसंघचालक के ये विचार है तो स्वरा भास्कर ने क्या गलत कर दिया जो कि संघ परिवार इतना उत्तेजित हो रहा है।

अभक्त स्वरा और फहाद की शादी से इसलिये खुश है कि इस समाचार ने भक्तों का दिल जला दिया है। बात ये भी नहीं है। स्वरा ने भक्तों का दिल जलाने के लिये फहाद से शादी नहीं की। बल्कि उसे फहाद का व्यक्तित्व आकर्षक लगा पर उसने ये कदम उठा लिया। महत्पूर्ण बात ये है कि इस शादी के लिये स्वरा ने अपना धर्म परिवर्तन नही किया। दोनों ने मजिस्ट्रेट के सामने शादी का पंजीकरण अपने परिवारों की उपस्थिति में करवाया। इसलिये मुल्ला इस शादी को शरियत के कानून से वैध नहीं माना है। उनका कहना है कि जब तक शादी करने वाले अल्लाह को समर्पित नहीं होते तब तक ये शादी उन्हें कबूल नही। पर स्वरा और फहाद इस नियम को नहीं मानते। इसलिये उन्होंने भारत के कानून के अर्न्तगत वैध विवाह किया है। आशा की जानी चाहिये कि समविचारों वाले ये दोनों युवा सुखी वैवाहिक जीवन जीयेंगे और अपने विचारों के अनुसार समाज की भलाई के लिये काम करेंगे। 

भारतीय समाज और संविधान की यही विशेषता है कि वो हर बालिग नागरिक को उसकी इच्छा के अनुसार जीवन जीने की छूट देता है। स्वरा और फहाद ने इसी छूट का लाभ उठाकर अपने वैवाहिक जीवन का फैसला लिया है तो इस पर इतना विवाद क्यों? अगर ये शादी इतनी ही गलत है तो संघ और भाजपा के बड़े नेताओं की अन्तरधर्मीय शादियों पर संघ ने ऐसा बवाल क्यों नही मचाया था? जाहिर है कि पिछले आठ वर्षों से संघ और भाजपा हर मुद्दे पर इसी तरह दो मुखोटे लगाये नजर आते हैं। इसीलिये आज देश में गम्भीर मुद्दों को छोड़कर सारी ऊर्जा ऐसे ही निरर्थक विषयों को उछालने पर बर्वाद हो रही है। जिससे समाज में वैमन्स्य पैदा हो रहा है। जिसे स्वरा और फहाद ने कम करने की दिशा में ये कदम उठाया है। जिस के लिये हम उन्हें शुभकामनायें देते है। 

Monday, June 13, 2022

देश में आग किसने लगाई ?


जिस दिन से भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता रहीं नूपुर शर्मा के बयान पर विवाद खड़ा हुआ है उस दिन से देश में आग लग गई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यकीनन टीवी चैनल ही इस अराजकता फैलाने के गुनहगार है। जो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लालच में आये दिन इसी तरह के विवाद पैदा करते रहते है। जानबूझ कर ऐसे विषयों को लेते है जो विवादास्पद हों और ऐसे ही वक्ताओं को बुलाते है जो उत्तेजक बयानबाजी करते हों। टीवी ऐन्कर खुद सर्कस के जोकरों की तरह पर्दे पर उछल कूद करते है। जिस किसी ने बीबीसी के टीवी समाचार सुने होगें उन्हें इस बात का खूब अनुभव होगा कि चाहें विषय कितना भी विवादास्पद क्यों न हो, कितना ही गम्भीर क्यों न हो, बीबीसी के ऐन्कर संतुलन नहीं खोते। हर विषय पर गहरा शोध करके आते है और ऐसे प्रवक्ताओं को बुलाते है जो विषय के जानकार होते है। हर बहस शालीनता से होती है। जिन्हें देखकर दर्शकों को उत्तेजना नहीं होती बल्कि विषय को समझने का संतोष मिलता है।



भारत के कुछ टीवी, न्यूज चैनलों के ऐन्कर तो विषय के अनुसार परिधान भी बदल देते है। अगर चन्द्रयान चांद पर उतरने वाला था तो ये कार्टून एस्ट्रोनेट की ड्रेस पहनकर चांद की सतह के ब्लोअप फोटो के सामने ऐसी कलाकारी दिखाते हैं, मानो कुछ ही क्षणों में ये खुद चांद पर उतरने वाले है। जब चन्द्रयान उतरने में नाकाम रहता है तो ये मर्सिया गाने लगते है। जैसे मुर्दनी छा गई हो। जबकि पत्रकार को संत कबीर दास जी की ये वाणी याद रखनी चाहिये, ‘‘दास कबीर जतन से ओढी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।’’ बिना राग-द्वेष के हर विषय को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना, पैनल पर बैठे मेहमानों को अपनी बात कहने देना, नाहक विवाद को उठने से पहले रोक देना और कार्यक्रम का समापन, यदि सम्भव हो तो, समाधान के साथ करना। पर दुख की बात है कि आज भारत के अधिकतर टीवी चैनल इस आचार संहिता का पालन नहीं कर रहे। जिसके लिए काफी हदतक मौजूदा केन्द्र सरकार भी जिम्मेदार है। जो अपनी कमियां या आलोचना बर्दाश्त नहीं करती। नतीजन टीवी चैनलों के पास दो ही रास्ते बचते हैंः या तो सरकार का झूठा यशगान करें या इस तरह की उत्तेजक, बिना सिर पैर की बहस करवा कर टीआरपी बढ़ाएँ।


जब भारत में कोई प्राईवेट टीवी चैनल नहीं था तब 1989 में देश की पहली हिन्दी विडियो समाचार कैसेट ‘कालचक्र’ जारी करके मैंने टीवी पत्रकारिता के कुछ मानदंड स्थापित किये थे। बिना किसी औद्योगिक घराने या राजनैतिक दल की आर्थिक मदद के भी कालचक्र ने देश भर में तहलका मचा दिया था। हमने कालचक्र में जनहित के मुद्दों को गम्भीरता से उठाया और उन पर देश के मशहूर लोगों से बेबाक बहस करवाई। जिनकी चर्चा लगातार देश के हर अखबार में हुई। इसी तरह आज के साधन सम्पन्न टीवी चैनल अगर चाहें तो जनहित में अनेक गम्भीर मुद्दों पर बहस करवा सकते है। जैसे नौकरशाही या लालफीताशाही पर, शिक्षा व्यवस्था पर, न्याय व्यवस्था पर, पुलिस व्यवस्था पर, अर्थ व्यवस्था पर, पर्यावरण पर व स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे अनेक अन्य विषयों पर गम्भीर बहसें करवाई जा सकती हैं। जिनके करने से देश के जनमानस में मंथन होगा और उससे विचारों का जो नवनीत निकलेगा उससे समाज और राष्ट्र को लाभ होगा। आज की तरह देश में अराजकता, हिंसा और कुंठा नहीं फैलेगी। 


रही बात धर्म चर्चा की तो इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को दिया जाना चाहिये कि उन्होंने हजारों साल पुराने वैदिक सनातन धर्म को देश की मुख्य धारा के बीच चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया है। जबकि पिछली सरकारें ऐसा करने से बचती रही। जिसका परिणाम ये हुआ कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर  बहुसंख्यक हिन्दु समाज अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा। इसलिए आज वो अवसर मिलने पर इतना मुखर हो गया है कि धर्म के हर प्रश्न पर आक्रमकता के साथ सक्रिय हो जाता है। 


हम इस विवाद में नहीं पड़ेंगे कि नूपुर शर्मा ने जो कहा वो सही था या गलत। हम इस विवाद में भी नहीं पड़ेंगे  कि भारत के विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म को लेकर क्या गलत और क्या सही कहते है। पर ये तो साफ है कि धर्म के सवाल पर टीवी चैनलों में और आम जनता के बीच भी जिस स्तरहीनता की बहस आजकल हो रही है उससे न तो सनातन धर्म का लाभ हो रहा है और न ही भारत हिन्दु राष्ट्र बनने की तरफ बढ़ रहा है। इन बहसों से हिन्दु समाज का ही नही हर धर्म के मानने वालों का अहित हो रहा है। जो एक डरावने भविष्य की ओर संकेत कर रहा है। दुनिया के अनेक विशेषज्ञों ने तो भारत में भविष्य में गृहयुद्व की सम्भावनाओं की भविष्यवाणी करनी शुरू कर दी है। यह हम जैसे सभी गम्भीर नागरिकों और सनातन धर्मियों के लिए बहुत चिन्ता का विषय है। इसलिए सभी राजनैतिक दलों व संगठनों की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे टीवी चैनलों पर विषयों के जानकार और गम्भीर प्रवक्ताओं को ही भेजे। स्तरहीन डिबेट में अपने प्रतिनिधी भेजे ही नहीं, जो असंसदीय भाषा का प्रयोग करें। टीवी चैनलों को भी धर्म चर्चा में पोंगे पण्डितों, फर्जी धर्माचार्यों और कठमुल्लों को न बुलाएं।


धर्म के विषय पर अगर ये टीवी चैनल गम्भीरता से बहस करवाये तो समाज का बहुत लाभ हो सकता है। सदियों की उलझी हुई गुत्थियां सुलझ सकती है। भारत अपनी पारम्परिक सांस्कृतिक विरासत की पुनः स्थापना कर सकता है। बशर्ते इन बहसों में धर्म के धुरंधर और विद्वान शामिल हो। उन्हें अपनी बात कहने दी जाये। ऐन्कर भी पढ़े लिखे हो, मूर्ख नहीं हो, आत्ममुग्ध नहीं हो और विषय पर शोध करके आयें। इस तरह की बहसों से सरकार को भी कोई अपत्ति नहीं होगी। टीआरपी भी धीरे-धीरे बढ़ेगी और स्वास्थ्य समाज व राष्ट्र का निर्माण होगा। राष्ट्र निर्माण का दावा करने वाले संगठनों की सत्ता में भी अगर धर्म के विषयों पर ऐसी गम्भीर बहसें नहीं होंगी, तो फिर कब होंगी ? इसलिए इन संगठनों को भी सोचना होगा कि क्या वे वाकई राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है या आम लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके, केवल अपना राजनैतिक हित साधना चाहते है?

Monday, April 18, 2022

आस्था के कवच में कानफोड़ू शोर


पर्यावरण में प्रदूषण पर चिंता कुछ कम हो गयी दिखती है। पिछले दशक में जल, वायु, ध्वनि और भूमि प्रदूषण पर गहरी चिंता जतायी जा रही थी। अब ऐसा नहीं दीखता या तो हमने ठीक-ठाक कर लिया है या आँखें फेर ली हैं। नज़र डालने से पता लगता है कि हालात हम सुधार नहीं पाए। यानी कि हमने आँखे मूँद ली हैं। ऐसा
  क्यों करना पड़ा इसकी चर्चा आगे करेंगे लेकिन फिलहाल यह मुद्दा तात्कालिक तौर पर भले ही ज्यादा परेशान न करे लेकिन इसके असर प्राण घातक समस्याओं से कम नहीं हैं।


हाल ही मैं ध्वनि प्रदूषण को लेकर सामाजिक स्तर पर कुछ सक्रियता दिखी है। खास तौर पर धार्मिक स्थानों पर। लाउडस्पीकर से ध्वनि की तीव्रता बढ़ती जा रही है। मनोवैज्ञानिक और स्नायुतन्त्रिका विज्ञान के विशेषज्ञ प्रायोगिक तौर पर अध्ययन ज़रूर कर रहे हैं। लेकिन उनके शोध अध्ययन सामाजिक स्तर पर जागरूकता या राजनैतिक स्तर पर दबाव पैदा करने में बिलकुल ही बेअसर हैं। कुछ स्वयमसेवी संस्थाएं ज़रूर हैं जो गाहेबगाहे आवाज़ उठाती हैं । लेकिन पता नहीं क्यों उन्हें किसी क्षेत्र से समर्थन नहीं मिल पाता। हो सकता है ऐसा इसलिए हो क्योंकि ध्वनि प्रदूषण की समस्या प्रत्यक्ष तौर पर उतनी बड़ी नहीं समझी जाती और शायद इसलिए नहीं समझी जाती क्योंकि हमारे पास विलाप के कई बड़े मुद्दे जमा हो गए हैं।


80 और 90 के दशक में जब अंधाधुंध विकास के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश हुई थी तब उद्योगीकरण, बड़े बाँध, रासायनिक खाद और मिलावट जैसे मुद्दों पर बड़ी तीव्रता के साथ विरोध के स्वर उठे थे। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि प्रदूषण पर चिंता हलकी पड़ गयी। तब इस मुद्दे पर बहसों के बीच प्रदूषण विरोधियों को यह समझाया गया कि विकास के लिए प्रदूषण अपरिहार्य है। यानी निरापत विकास की कल्पना फिजूल की बात है। साथ ही जीवन की सुरक्षा के लिए विकास के अलावा और कोई विकल्प सूझता नहीं है। विकास के तर्क के सहारे आज भी हम नदियों के प्रदूषण और वायु प्रदूषण को सहने के लिए अभिशप्त हैं।


जब तक हमें कोई दूसरा उपाय ना सूझे तब तक आर्थिक विकास के लिए सब तरह के प्रदूषण सहने का तर्क माना जा सकता है। लेकिन धार्मिक स्थानों से हद से ज्यादा तीव्रता की आवाजें बढ़ती जाना और इस हद तक बढ़ती जाना कि वह ध्वनि प्रदूषण तक ही नहीं बल्कि सामुदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रदूषण भी पैदा करने लगे – यह स्वीकारना मुश्किल है।


क़ानून है कि 75 डेसिबल से ज्यादा तीव्रता की ध्वनि पैदा करना अपराध है लेकिन इस क़ानून का पालन कराने में सरकारी एजंसियां या पुलिस बिलकुल असहाय नज़र आती हैं। धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकरों की यह समस्या आस्था के कवच में बिलकुल बेखौफ बैठी हुई है और इसके बेख़ौफ़ हो पाने का एक पक्ष वह राजनीति भी है जो अपने वोट बैंक को संरक्षण देने के लिए कुछ भी करने की छूट देती है।


जहाँ तक सवाल आस्था या धार्मिक विश्वास का है तो समाज के जागरूक लोग और विद्वत समाज क्या द्रढता के साथ नहीं कह सकता कि धार्मिक स्थानों पर बड़े बड़े लाउडस्पीकर लगा कर दिन रात जब चाहे तब जितनी बार तेज आवाजें निकलना सही नहीं है। ये विद्वान क्या मजबूती के साथ यह नहीं कह सकते कि इसका आस्था या धर्म से कोई लेना देना नहीं है। आस्था बिलकुल निजी मामला है। धार्मिक विश्वास नितांत व्यक्तिगत बात है। उसके लिए दूसरों को भी वैसा करने को तैयार करना उन पर दबाव डालना या अपने ही वर्ग के लोगों को भयभीत करना बिलकुल ही नाजायज़ है।


चलिए जागरूक समाज हो विद्वत समाज हो या क़ानून पालन करने वाली संस्थाएं हों या फिर राजनितिक दल ये सब अपनी सीमाओं और दबावों का हवाला देकर मूक दर्शक बनीं रह सकती हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र की एक बड़ी खूबी है कि किसी भी तरह के अन्याय या अनदेखी के खिलाफ न्यायपालिका सजग रहती है। आस्था और धार्मिक विश्वासों के कारण पनपी जटिल समस्याओं के निदान के लिए न्यायपालिका ही आखरी उपाय दीखता है। यहाँ यह समझना भी ज़रूरी है कि अदालतों को भी साक्ष के तौर पर समाज के जागरूक लोगों, विद्वानों और विशेषज्ञों का सहयोग चाहिए। आस्था और धार्मिक क्षेत्र की जटिल समस्याओं के निवारण के लिए न्यायपालिका को दार्शनिकों की भी ज़रूरत पड़ सकती है।


ग़ौरतलब है कि दुनिया में कई देशों में लाउडस्पीकर द्वारा अजान की ध्वनि सीमाएं तय की गई हैं। इनमें यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रिया, निदरलैंड, स्वित्जरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे और बेल्जियम जैसे देश शामिल हैं। लाओस और नाइजीरिया जैसे देशों ने स्वघोषित रूप से भी लाउडस्पीकर द्वारा अजान की या तो सीमाएं तय की हैं या फिर मस्जिदों में लाउडस्पीकर को प्रतिबंधित किया है।


इसी परिप्रेक्ष्य में अगस्त 2014 में मैंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। जिसमें देश के सभी धर्म स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की माँग की थी। मेरे वकील विवेक नारायण शर्मा ने याचिका में साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास की सूची भी जोड़ दी थी जो इन लाउडस्पीकर्स के कारण देश में हुए थे। इस याचिका से सभी धर्मों के मानने वाले बहुत प्रसन्न हुए थे। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री एच एल दत्तु ने याचिका को कुछ सुनवाई के बाद ये कह कर लौटा दिया कि अदालत पहले ही ध्वनि प्रदूषण के स्तर की सीमा निर्धारित कर चुकी है। इसलिये शासन व पुलिसकर्मी से कहो कि वो उस आदेश को लागू करवाएँ। पर क्या धरातल पर ऐसा कभी होता है? नहीं होता। 


आज मस्जिदों में अजान के लाउडस्पीकर पर शोर को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है उसका जवाब पाँच बार हनुमान चालीसा पढ़ना या लाउडस्पीकर मंदिरों को बाँटना नहीं है। इससे तो शोर और बढ़ेगा, शांति भंग होगी और दंगे भी भड़केंगे। 


टीवी 18 के सवाँददाता सौरभ शर्मा, उनकी पत्नी अंकिता शर्मा और छह वर्षीय बच्चे को ‘माता के जागरण’ के नाम पर, अदालती आदेश के विरुद्ध, देर रात तक शोर मचाने वाले हुडदंगाइयों ने बुरी तरह अपमानित किया, उनकी पत्नी के कपड़े फाड़ने की धमकी देते हुए दूर तक दौड़ा दिया। 


उधर वृंदावन जो कि एक वैष्णव भक्ति का शहर है, जहां मुसलमान गिनती के रहते हैं, वहाँ भी ब्रह्ममुहूर्त में पूजा, ध्यान के समय लाउडस्पीकर द्वारा अजान के शोर से ख़लल पड़ता है। इसलिये लगता है मुझे अब दुबारा अपनी इस याचिका को सर्वोच्च अदालत में दाखिल करना पड़ेगा।