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Monday, June 8, 2015

मैगी पर बवाल-रसोई में उबाल

जब देश में कोई प्राइवेट टीवी चैनल नहीं था, तब मैंने 1989 में देश की हिंदी टीवी समाचारों की पहली वीडियो मैगजीन कालचक्र जारी कर खोजी टीवी पत्रकारिता की भारत में शुरूआत की थी। उस समय हमारी इस वीडियो मैगजीन का उद्देश्य था कि जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले हर उस खाद्य या प्रसाधन, उत्पाद की जांच करना, जिसका बहुराष्ट्रीय कंपनियां व्यापक प्रचार प्रसार करती हैं। इसी क्रम में हमने एक खोजी रिपोर्ट जारी की थी ‘मैगी खाने के खतरे’। तब देश में निजी टीवी चैनल नहीं आए थे। केवल वीडियो लाइब्रेरी के जरिये लोग हमारी समाचार वीडियो कैसेट किराए पर लेकर अपने वीसीआर पर देखते थे। इसलिए हर व्यक्ति तक यह सूचना नहीं पहुंची। अगर तब से किसी टीवी चैनल ने इस रिपोर्ट पर ध्यान दिया होता, तो हालात आज इतने बेकाबू न होते।
 
दरअसल, खाद्य और प्रसाधन के जितने उत्पादन आज बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेच रही हैं। लगभग ये सब जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा है। इनके मूल्य, इनकी लागत से 50 गुना ज्यादा होते हैं। इनके जो गुण बताकर इन्हें बेचा जाता है, वे ज्यादातर फर्जी होते हैं। इनमें ऐसे तमाम रासायनिक तत्व मिलाए जाते हैं, जो हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक हैं और जिन्हें दुनिया के आर्थिक रूप से संपन्न देशों ने प्रतिबंधित कर रखा है। एक तो भारत में ऐसे अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून नहीं हैं। दूसरा इन कानूनों को लागू करने वाले का आचरण पारदर्शी नहीं है। इसलिए मोटी रिश्वत लेकर हानिकारक पदार्थों को आसानी से बाजार में आने दिया जाता है। इस मामले में मोदी सरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले पदार्थों के निर्माताओं और विक्रेताओं को पकड़े जाने पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो। फिर वह चाहें बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देशी कंपनियां।
 
इस मामले में हमारी अपनी कमी का भी उल्लेख करना जरूरी है। आज हम विज्ञापन की चकाचैंध में इतने बह जाते हैं कि अपनी छोड़ अपने बच्चों की सेहत तक का हमें ख्याल नहीं रहता। पिछले दो दशक में देश की कितनी करोड़ माताओं ने बड़े उत्साह से अपने बच्चों को मैगी बनाकर खिलायी होगी। माताएं क्यों नौकरीपेशा नौजवान जो पराए शहर में बिन ब्याहे रहते हैं, अक्सर मैगी खाकर अपना रात्रि भोज पूरा कर लेते हैं। ऊपर से कोकाकोला या पेप्सीकोला जैसे हानिकारक पेय पीकर मस्त हो जाते हैं। हमें सोचना चाहिए कि भारत की गर्म जलवायु में जब घर का बना ताजा खाना सुबह से शाम तक में सड़ने लगता है, तो ये पैकेट बंद खाद्य कैसे सड़े बिना रह जाते हैं। जाहिर है कि इनमें ऐसे प्रिजरवेटिव और रसायन मिलाए जाते हैं, जो इन्हें हफ्तों और महीनों सड़ने नहीं देते। पर यही प्रिजरवेटिव और रसायन हमारी आंत में जाकर उसे जरूर सड़ा देते हैं, कैंसर जैसी बीमारियां पैदा कर देते हैं। पर इस जंक फूड को खाने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचते कि हम क्या खा रहे हैं ? क्यों खा रहे हैं ? इसका हमारे स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ेगा ? देखा जाए तो शहरों के ज्यादातर लोग आज फास्ट फूड के नाम पर जहर खा रहे हैं और सोच रहे हैं कि हम आधुनिक हो गए। जबकि हमारे गांव में रहने वाले परिवार दकियानूसी हैं, क्योंकि वहां आज भी चूल्हे पर ताजा दाल, सब्जी और रोटी पकाकर खायी जाती है। अगर पेयजल के प्रदूषण की समस्या को दूर कर लिया जाए, तो हमारे गांव में रहने वाले भाई-बहिन स्वास्थ्य के मामले में हर शहरी हिंदुस्तानी से 10 गुना बेहतर मिलेंगे। इस चुनौती को कहीं भी परखा जा सकता है। फिर हम क्यों जान-बूझकर मूर्खता कर रहे हैं ?
 
मजे की बात यह है कि जिन देशों में फास्ट फूड के नाम पर जंक फूड पनपा था, वहां आज सभ्य समाज ने इसका पूरी तरह बहिष्कार कर दिया है। पहले जब हम यूरोप या अमेरिका के डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में रसोई का सामान खरीदने जाते थे, तो हर चीज बंद डिब्बों में सजा-संवारकर बेची जाती थी। पर अब स्वास्थ्य की चिंता से उन देशों के लोगों ने खेतों से आयी ताजा सब्जी और अनाज खरीदना शुरू कर दिया है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के हर शहर की एक सब्जी मंडी होती है, जहां ताजा सब्जियों के ढ़ेर लगे होते हैं। इन देशों के महंगे डिपार्टमेंटल स्टोरर्स में भी सब्जियों के ढ़ेर उसी तरह लगे दिखाई देते हैं। यानि काल का पहिया जहां से चला, वहीं पहुंच गया।
 
मैगी नूडल्स को लेकर मचा बवाल निराधार नहीं है। समय आ गया है कि हम जागें। हवा प्रदूषित हो चुकी है, जल प्रदूषित हो चुका है, खाद्यान कीटनाशक दवाओं और रसायनिक उर्वरकों से जहरीले होते जा रहे हैं। ऐसे में हमें अपने पारंपरिक खाने की ओर लौटना होगा। जिसमें संपूर्णता है, सदियों की अपनाई हुई प्रमाणिकता है और हमारे स्वास्थ्य को दुरूस्त रखने की क्षमता है। हमें अपनी परंपराओं के प्रति सम्मान पैदा करना होगा। जिससे हमारे बच्चे मैगी और पेप्सी जैसे हानिकारक पदार्थों की जगह पौष्टिक भोजन में फिर से रूचि लेने लगें, वरना यह विवाद भी कुछ दिनों की अखबारी सुर्खियां बटोर कर ठंडा पड़ जाएगा और हम फिर से मैगी खाने में फक्र का अनुभव करेंगे।

Monday, June 1, 2015

सरस्वती नदी थी और आज भी है

वैदिक काल में उत्तर भारत की प्रमुख नदियों में से एक सरस्वती नदी विद्वानों के लिए यह हमेशा उत्सुकता का विषय बनी रही है। हाल के दिनों में हरियाणा में कुछ वैज्ञानिकों के प्रयास से सरस्वती नदी के विषय में पुनः उत्सुकता पैदा हो गई है जहां कई प्रमाण भी मिल रहे हैं। फिर भी बहुत से लोग मानते हैं कि सरस्वती केवल एक काल्पनिक नदी थी। इतिहासकार हर्ष महान कैरे अपने शोध के आधार पर बताते हैं कि वेदों में सरस्वती नदी के विषय में बहुत से संदर्भ आए हैं। जो इस तथ्य को स्थापित करते हैं कि सरस्वती भारत की एक प्रमुख नदी थी। इन संदर्भों में उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में भी स्पष्ट संकेत मिलते हैं। ऋगवेद के दूसरे मंडल के 41वें सूक्त की 16वीं ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती माताओं में सर्वोत्तम है, नदियों में सर्वोत्तम है और देवियों में सर्वोत्तम है। इससे स्पष्ट होता है कि सरस्वती देवी के अतिरिक्त एक नदी भी थी।
 
छठें मंडल के छठे सूक्त की 14वीं ऋचा में कहा गया है कि उत्तर भारत में सात बहिनों के रूप में सात नदियां हैं। उन सभी नदियों में सबसे ज्यादा विस्तार से सरस्वती नदी का ही वर्णन आता है, जो ‘सप्त सिंधु’ की एक प्रमुख अंग थी। सातवें मंडल के 36वें सूक्त की छठी ऋचा में कहा गया है कि सरस्वती सातवीं नदी है और वो अन्य सारी नदियों की माता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन सात नदियों के एक छोर पर सरस्वती नदी मौजूद थी, जो इस परिस्थति में पूर्व की ओर आखिरी नदी रही होगी। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ये अन्य नदियों से बड़ी थी, तभी तो इसे माता माना गया। सातवें मंडल के 95वें सूक्त की दूसरी ऋचा में लिखा हुआ है कि सरस्वती मुक्त एवं पवित्र नदी है, जो पहाड़ से सागर तक बहती है।
 
इन कुछ उद्धरणों से पता चलता है कि सरस्वती सप्त सिंधु का एक हिस्सा थी, जो सिंधु घाटी की सभ्यता का क्षेत्र है और भारत के पश्चिमी हिस्से तक सीमित था। गंगा-यमुना का दोआब इस ‘सप्त सिंधु’ का हिस्सा नहीं था, क्योंकि यह उस समय आर्यवर्त कहलाता था। इन उद्धरणों में यह भी कहा गया है कि सरस्वती सात बहिनों में से एक बहिन थी। जिसका अर्थ हुआ कि यह अन्य छह नदियों की तरह उसी दिशा में बहकर अरब सागर में गिरती थी जैसे व्यास, सतलज, झेलम, रावी, चिनाब आदि नदियां गिरती हैं। वह पर्वत से सागर तक अलग बहती थी, जिससे स्पष्ट होता है कि वो सिंधु नदी से नहीं मिलती थी। अगर इस इलाके के भूगोल को देखा जाए, तो यह स्पष्ट होगा कि इन मैदानी इलाकों के पूर्व में अरावली पर्वत श्रृंखला है। इसके हिसाब से सरस्वती नदी को अरावली के पश्चिम में और अन्य छह नदियों के पूर्व में होना पड़ेगा। इससे एक ही रास्ता सरस्वती नदी के लिए बचता है कि ये शिवालिक पर्वत श्रृंखला से निकलकर ‘रन आॅफ कच्छ’ में जाकर समुद्र से मिले।
 
सरस्वती नदी के लुप्त होने का रहस्य इन्हीं तथ्यों से समझना पड़ेगा। वेदों में संकेत है कि इस नदी का पानी धीरे-धीरे कम हुआ और उसके बाद ये नदी लुप्त हो गई। इतनी बड़ी नदी सूखती नहीं है। वह केवल अपना मार्ग बदलती है। यदि इस नदी का शिवालिक से मैदान में उतरने का स्थान खोजा जाए, तो इस विषय पर काफी प्रकाश पड़ेगा। उत्तर भारत के मैदानी इलाके को यदि एक सरसरी नजर से देखा जाय, तो पश्चिम से पूर्व तक यह एक-सा भौगोलिक समतल क्षेत्र लगता है, किंतु पानी के बहाव की दृष्टि से यह दो भागों में बंटा हुआ है। चंडीगढ़ से पूर्व में एक रेखा उत्तर से दक्षिण में शिवालिक तक जाती है, जो इसेे दो भागों में बांट देती है। इसके पश्चिम में जो पानी गिरेगा, वो दक्षिण-पश्चिम की ओर बहता हुआ अरब सागर में गिरेगा और जो उसके पूर्व में गिरेगा, वो पूर्व की ओर बहता हुआ बंगाल की खाड़ी में गिरेगा।
 
जिस स्थान पर सरस्वती पहाड़ों से उतरकर मैदानी क्षेत्रों में आती थी, वह इस बिंदु के बहुत करीब है। थोड़ा सा पश्चिम में बहने पर वह अरब सागर की ओर बहेगी और थोड़ा-सा पूर्व में बहने पर वह बंगाल की खाड़ी की ओर बहेगी। ऐसा प्रतीत होता है कि घघ्घर नदी के सूखे हुए मार्ग पर किसी समय सरस्वती दक्षिण पश्चिम की ओर बहती हुई ‘रन आॅफ कच्छ’ में गिरती थी। भौगोलिक इतिहास के किसी काल में शिवालिक के इन पर्वतों पर कोई बड़ी हलचल हुई होगी या किसी बड़े भूकंप के कारण या फिर भारी बाढ़ के कारण सरस्वती नदी की मुख्य धारा टूटकर एक दूसरे मार्ग पर बहने लगी होगी। ये जब मैदानी क्षेत्र में उतरी तो पूर्व की ओर बहने वाले मैदानी क्षेत्र में थी और ये धारा पूर्व की ओर बहने लगी। धीरे-धीरे यही नई धारा मुख्यधारा बन गई और सरस्वती नदी के मुख्य मार्ग पर कुछ समय तक तो  थोड़ा पानी जाता रहा और अंत में एक स्थिति ऐसी आ गई कि पश्चिम की तरफ जाने वाला सारा पानी रूक गया और सरस्वती नदी पूर्णतः पूर्व की ओर बहने लगी।
 
यह नई नदी यमुना के अतिरिक्त कोई दूसरी नदी नहीं हो सकती। क्योंकि ये मैदानी क्षेत्रों में उस स्थान के बहुत समीप है, जहां पर घघ्घर नदी उतरती थी। पुराणों में जो उल्लेख मिलता है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि यमुना एक नई नदी है। पुराणों में कहा गया है कि यमुना आरंभ में बहुत चंचल (वाइब्रेंट) थी और बाद में उसके भाई यमराज ने अपने हल से उसके लिए एक मार्ग बनाया, जिसके बाद वह एक निर्धारित मार्ग पर चलने लगी। आज भी प्रयागराज (इलाहबाद) में यही मान्यता है कि वहां दो नदियों का नहीं, बल्कि तीन नदियों का संगम है और यह तीसरी नदी सरस्वती भी वहीं आकर मिल रही है। इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि यमुना केवल अपना ही जल नहीं ला रही है, बल्कि सरस्वती का जल भी उसमें समाहित है।

Monday, May 11, 2015

‘प्रो पूअर टूरिज्म’ के मायने

अखबारों में बड़ा शोर है कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश में गरीबों के हक में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए हजार करोड़ रूपये देने जा रहा है। जिसमें 400 करोड़ रूपया केवल ब्रज (मथुरा) के लिए है। प्रश्न उठता है कि ‘प्रो पूअर’ यानि गरीब के हक में पर्यटन का क्या मतलब है ? क्या ये पर्यटन विकास ब्रज में रहने वाले गरीबों के लिए होगा या ब्रज आने वाले गरीब तीर्थयात्रियों के लिए ? विश्व बैंक को अब जो प्रस्ताव भेजे जाने की बात चल रही है, उनमें ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। मसलन, वृंदावन के वन चेतना केंद्र को आधुनिक वन बनाने के लिए 100 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। सोचने वाली बात यह है कि वृंदावन में तो पहले से ही सारी दुनिया से अपार धन आ रहा है और तमाम विकास कार्य हो रहे हैं और वृंदावन में ऐसे कोई निर्धन लोग नहीं रहते, जिन्हें वन चेतना केंद्र पर 100 करोड़ रूपया खर्च करके लाभान्वित किया जा सके।
वृंदावन पर अगर खर्च करना ही है, तो सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट होता कि वृंदावन आने वाले हजारों निम्नवर्गीय तीर्थयात्रियों के लिए बुनियादी सुविधाओं का व्यापक इंतजाम। इस परियोजना को मैं पिछले 10 वर्षों से संबंधित अधिकारियों से आगे बढ़ाने को कहता रहा हूं। आज जहां रूक्मिणी बिहार जैसी अट्टालिकाओं वाली कालोनी बन गईं, जिनके 90 फीसदी मकान खाली पड़े हैं और वृंदावन की प्राकृतिक शोभा भी नष्ट हो गई, उनकी जगह यहां विशाल क्षेत्र में सैकड़ों बसों के खड़े होने का, गरीब यात्रियों के भेजन पकाने, शौच जाने का और चबूतरों पर टीन के बरामडों में सोने का इंतजाम किया जाना चाहिए था। आज ये गरीब तीर्थयात्री सड़कों के किनारे खाना पकाने, शौच जाने और सोने को मजबूर हैं, क्योंकि किसी तरह जीवनभर की कमाई में से इतना पैसा तो बचा लिया कि अपने बूढ़े मां-बाप को बंगाल, बिहार, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे सुदूर राज्यों से बसों में बैठाकर ब्रज घुमाने ले आएं। पर इतना धन इनके पास नहीं होता कि यह होटल में ठहरें या खायें। पर अब तक की बातचीत में कहीं इस विचार को प्रोत्साहन नहीं दिया गया। अभी हाल ही में एक समाचार पढ़ा कि इस विचार पर अब एक छोटा-सा प्रोजेक्ट मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण शुरू करेगा। वृंदावन की लोकप्रियता और यहां आने वालों की निरंतर बढ़ती तादाद को देखकर इस छोटे से प्रोजेक्ट से किसी का भला होने वाला नहीं है। दूरदृष्टि और गहरी समझ की जरूरत है।
इसी तरह ब्रज हाट का एक प्रोजेक्ट ब्रज फाउण्डेशन ने कई वर्ष पहले बनाकर जिलाधिकारी की मार्फत लखनऊ भेजा था, उसका तो पता नहीं क्या हुआ। पर विकास प्रािधकरण ने ब्रज हाट का जो माॅडल बनाया, उसे देखकर किसी भी संवदेनशील व्यक्ति का सिर चकरा जाय। यह नक्शा नीले कांच लगी बहुमंजिलीय इमारत का था। जिसे देखकर दिल्ली के किसी माॅल की याद आती है। गनीमत है कि हमारे शोर मचाने पर यह विचार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और अब ब्रज के कारीगरों के लिए ब्रज हाट बनाने की बात की जा रही है। दरअसल, हाट की परंपरा हजारों वर्ष पुरानी है। जहां न कोई दुकान होती है, न कोई पक्का ढांचा।  बहुत सारे छोटे-छोटे चबूतरे बनाए जाते हैं और हर चबूतरे से सटा छायाकार वृक्ष होता है। यह दृश्य भारत के किसी भी गांव में देखने को मिल जाएगा। यहां कारीगर कपड़े की चादर फैलाकर अपने हस्तशिल्प का सामान विक्रय के लिए सुबह आकर सजाते हैं और शाम को समेट कर ले जाते हैं। न किसी की कोई दुकान पक्की होती हैं और न किसी मिल्कीयत। इसी विचार को बरसाना, नंदगांव, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन, मथुरा की परिधि में शहर और गांव के जोड़ पर स्थापित करने की जरूरत है। जिसकी लागत बहुत ही कम आएगी। हां उसमें कलात्मकता का ध्यान अवश्य दिया जाना चाहिए, जिससे ब्रज की संस्कृति पर वो भौड़े निर्माण हावी न हों।

इसी तरह ब्रज के गरीबों को अगर लाभ पहुंचाना है, तो ब्रज के ऐतिहासिक छह सौ से अधिक गांव में से सौ गांवों को प्राथमिकता पर चुनकर उनके वन, चारागाह, कुंड और वहां स्थित धरोहर का सुधार किया जाना चाहिए। जिससे वृंदावन व गोवर्धन में टूट पड़ने वाली भीड़ ब्रज के बाकी गांव में तीर्थाटन के लिए जाए, जहां भगवान की सभी बाललीलाएं हुई थीं। इन गांव में तीर्थयात्रियों के जाने से होगा गरीबों का आर्थिक लाभ।

पर आश्चर्य की बात है कि विश्व बैंक को भेजे जा रहे प्रस्ताव में एक प्रस्ताव श्रीबांकेबिहारी मंदिर की गलियों के सुधार का है। यह आश्चर्यजनक बात है कि बिहारीजी का मंदिर, जिसकी जमापूंजी 70-80 करोड़ रूपये से कम नहीं होगी और जिसके दर्शनार्थियों के पास अकूत धन है। उस बिहारीजी के मंदिर की गलियों के लिए विश्व बैंक का पैसा खर्च करने की क्या तुक है ? इससे किस गरीब को लाभ होगा। यह कैसा ‘प्रो पुअर टूरिज्म’ है। बिहारीजी मंदिर तो अपने ही संसाधनों से यह सब करवा सकता है।

गनीमत है कि अभी कोई प्रस्ताव अंतिम रूप से तय नहीं हुआ। पर चिंता की बात यह है कि विश्व बैंक की टीम ने और उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग ने अब तक जिन महंगे सलाहकारों की सलाह से ब्रज के विकास की योजनाएं सोची हैं, उनका ब्रज से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। इन सलाहकारों को ब्रज की वास्तविकता का अंश भी पता नहीं है। विश्व बैंक के अधिकारियों को कुछ वर्ष पहले ये सलाहकार मुझसे मिलाने मेरे दिल्ली कार्यालय लाए थे। उद्देश्य था कि मैं उन्हें ब्रज में पैसा लगाने के लिए प्रेरित करूं। अपनी संस्था के शोध एवं गहरी समझ के आधार पर मैंने यह कार्य सफलतापूर्वक कर दिया। उसके बाद किसी सरकारी विभाग में या विश्व बैंक ने इसकी जरूरत नहीं समझी कि हमसे आगे सलाह लेते। जब हमें अखबारों से ऐसी वाहियात योजनाओं का पता चला, तो हमने विश्व बैंक के सर्वोच्च अधिकारियों व उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव व अन्य अधिकारियों से कई बैठकें करके अपना विरोध प्रकट किया। उन्हें यह बताने की कोशिश की कि विश्व बैंक उत्तर प्रदेश की जनता को कर्ज दे रहा हैं, अनुदान नहीं। फिर ऐसी वाहियात योजनाओं में पैसा क्यों बर्बाद किया जाए, जिससे न तो ब्रज में रहने वाले गरीबों का भला होगा और न ही ब्रज में आने वाले गरीबों का।

Monday, May 4, 2015

भारत क्यों चीन के मायाजाल में फंस रहा है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन जा रहे हैं। हो सकता है कुछ बड़े समझौते हों। जिनका जश्न मनाया जायगा। पर हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति और सामरिक विषयों के जानकारों का कहना है कि भारत धीरे-धीरे चीन के मायाजाल में फंसता जा रहा है। आज से 15 वर्ष पहले वांशिगटन के एक विचारक ने दक्षिण एशिया के भविष्य को लेकर तीन संभावनाएँ व्यक्त की थीं। पहली अपने गृह युद्धों के कारण पाकिस्तान का विघटन हो जाएगा और उसके पड़ोसी देश उसे बांट लेंगे। दूसरी भारत अपनी व्यवस्थाओं को इतना मजबूत कर लेगा कि चीन और भारत बराबर की ताकत बन कर अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्र बांट लेंगे। तीसरी चीन धीरे-धीरे चारों तरफ से भारत को घेर कर उसकी आंतरिक व्यवस्थाओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेगा और धीरे-धीरे भारत की अर्थव्यवस्था को सोख लेगा। 

आज यह तीसरी संभावना साकार होती दिख रही है। चीन का नेतृत्व एकजुट, केन्द्रीयकृत, विपक्षविहीन व दूर दृष्टि वाला है। उसने भारत को जकड़ने की दूरगामी योजना बना रखी है। अरूणाचल की जमीन पर 1962 से कब्जा जमाये रखने के बावजूद चीन को किसी भी मौके पर इस इलाके को भारत को वापिस करने में गुरेज नहीं होगा। उसने इसके लिए भारत में एक लाॅबी पाल रखी है। जो इस मुद्दे को गर्माए रहती है। ऐसा करके वह भारत के प्रधानमंत्री को खुश करने का एक बड़ा मौका देगा लेकिन उसके बदले में हमसे बहुत कुछ ले लेगा। ऐसा इसलिए कि उसे सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र में कोई रूचि नहीं है। यह कब्जा तो उसने सौदेबाजी के लिए कर रखा है। उसका असली खेल तो तिब्बत, पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान में है। जहाँ उसने रेल और हाइवे बनाकर अपनी सामरिक स्थिति भारत के विरूद्ध काफी मजबूत कर ली है। उसके लड़ाकू विमान हमारी सीमा से मात्र 50 किमी दूर तैनात है। युद्ध की स्थिति में सड़क और रेल से रसद पहुंचाना उसके लिए बांये हाथ का खेल होगा। जबकि ऐसी किसी भी व्यवस्था के अभाव में हम उसके सामने हल्के पड़ेंगे। 

पिछले 10 वर्षों में ऊर्जा, संचार और पैट्रोलियम जैसे संवेदनशील और अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र में चीन ने भारत में लगभग सारे अंतर्राष्ट्रीय ठेके जीते हैं। इससे हमारी धमनियों पर अब उसका शिकंजा कस चुका है। चीन से बने बनाएं टेलीफोन एंक्सचेन्ज भारत में लगाएं गये हैं। जिसकी देखभाल भी चीन रिमोट कन्ट्रोल से करता है। क्योंकि ठेके की यही शर्त थी। अब वो हमारी सारी बातचीत पर निगाह रख सकता है। यहां तक कि हमारी खुफिया जानकारी भी अब उससे बची नहीं है। वो जब चाहे हमारी संचार व्यवस्था ठप्प कर सकता है। जिस समय चीन ये ठेके लगातार जीत रहा था उस समय हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने लिखकर चिंता व्यक्त की थी। पर सरकार ने अनदेखी कर दी। 

सब जानते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मुनाफा देशभक्ति से बड़ा होता है। चीन ने अपने यहाँ आधारभूत सुविधाओं का लुभावना तंत्र खड़ा करके भारत के उद्योगपतियों को विनियोग के लिए खीचना शुरू कर दिया है। उत्पादन के क्षेत्र में तो वह पहले ही भारत के लघु उद्योगों को खा चुका है। उधर भारत का हर बाजार चीन के माल से पटा पड़ा है। जाहिरन इससे देश में भारी बेरोजगारी फैल रही है। जो भविष्य में भयावह रूप ले सकती है। प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान बहुत सामयिक और सार्थक है। उसके लिए प्रधानमंत्री दुनियाभर जा-जाकर मशक्कत भी खूब कर रहें हैं। पर जब तब देश की आंतरिक व्यवस्थाएँ, कार्य संस्कृति और आधारभूत ढ़ाचा नहीं सुधरता, तब तक ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान सफल नहीं होगा। इन क्षेत्रों में अभी सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। जिनपर प्रधानमंत्री को गंभीरता से ध्यान देना होगा। 


चीन भारत को चारों तरफ से घेर चुका है। नेपाल, वर्मा, दक्षिण पूर्व एशियाई देश, श्रीलंका और पाकिस्तान पर तो उसकी पकड़ पहले ही मजबूत हो चुकी थी। अब उसने मालदीव में भारत के जी.एम.आर. ग्रुप से हवाई अड्डा छीन लिया। इस तरह भारत पर चारों तरफ से हमला करने की उसने पूरी तैयारी कर ली है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमला करेगा, बल्कि इस तरह दबाव बना कर वो अपने फायदे के लिए भारत सरकार को ब्लैकमेल तो कर ही सकता है। 

इस पूरे परिदृश्य में केवल दो ही संभावनाएँ बची है। एक यह कि भारत आंतरिक दशा मजबूत करें और चीन के बढ़ते प्रभाव को रोके। दूसरा यह कि चीन में आंतरिक विस्फोट हो, जैसा कभी रूस में हुआ था और चीन की केन्द्रीयकृत सत्ता कमजोर पड़ जाएँ। ऐसे में फिर चीन भारत पर हावी नहीं हो पाएगा। जिसकी निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसे में चीन से किसी भी सहयोग या लाभ लेने की अपेक्षा रखना हमारे लिए बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूर दृष्टि वाले व्यक्ति हैं इसलिए आशा कि जानी चाहिए कि चीन से संबंध बनाने कि प्रक्रिया में वे इन गंभीर मुद्दों को अनदेखा नहीं करेंगे।

Monday, March 23, 2015

कैसे आए नदियों में साफ जल

    पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।

    यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।

    यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।

शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।

सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।

Monday, January 12, 2015

चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या

आज से लगभग 15 वर्ष पहले अमेरिका की मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘टाइम’ ने दुनियाभर के व्यवसायों का सर्वेक्षण करके यह रिपोर्ट छापी थी कि दुनिया में सबसे तनावपूर्ण पेशा पत्रकारिता का है। फौजी या सिपाही जब लड़ता है, तो उसके पास हथियार होते हैं, नौकरी की गारंटी होती है और शहीद हो जाने पर उसके परिवार की परवरिश की भी जिम्मेदारी सरकारें लेती हैं। पर, एक पत्रकार जब सामाजिक कुरीतियों या समाज के दुश्मनों या खूंखार अपराधियों या भ्रष्ट शासनतंत्र के विरूद्ध अपनी कलम उठाता है, तो उसके सिर पर कफन बंध जाता है।

यह सही है कि अन्य पेशों की तरह पत्रकारिता के स्तर में भी गिरावट आयी है और निष्ठा और निष्पक्षता से पत्रकारिता करने वालों की संख्या घटी है, जो लोग ब्लैकमेलिंग की पत्रकारिता करते हैं, उनके साथ अगर कोई हादसा हो, तो यह कहकर पल्ला झाड़ा जा सकता है ‘जैसी करनी वैसी भरनी’। पर कोई निष्ठा के साथ ईमानदारी से अगर अपना पत्रकारिता धर्म निभाता है और उस पर कोई आंच आती है, तो जाहिर सी बात है कि न केवल पत्रकारिता जगत को, बल्कि पूरे समाज को ऐसे पत्रकार के संरक्षण के लिए उठ खड़े होना चाहिए।

फ्रांस की मैंगजीन चार्ली हेब्दो के पत्रकारों की हत्या ने पूरे दुनिया के पत्रकारिता जगत को हिला दिया है। फिर भी जैसा विरोध होना चाहिए था, वैसा अभी नहीं हुआ है। सवाल उठता है कि इस तरह किसी पत्रिका के कार्यालय में घुसकर पत्रकारों की हत्या करके आतंकवादी क्या पत्रकारिता का मुंह बंद कर सकते हैं ? वो भी तब जब कि आज सूचना क्रांति ने सूचनाओं को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाने में इतनी महारथ हासिल कर ली है और इतने विकल्प खड़े कर दिए हैं कि कोई पत्रिका न भी छपे, तो भी ई-मेल, एसएमएस, सोशल-मीडिया जैसे अनेक माध्यमों से सारी सूचनाएं मिनटों में दुनियाभर में पहुंचायी जा सकती हैं।

शायद, ये आतंकवादी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि जो भी कोई इस्लाम के खिलाफ या उसके बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करेगा, उसे इसी तरह मौत के घाट उतार दिया जाएगा। आतंकवादियों का तर्क हो सकता है कि उनका धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसमें कोई कमी नहीं। उनका यह भी तर्क हो सकता है कि दूसरे धर्म के अनुयायियों को, चाहें वे पत्रकार ही क्यों न हों, उनके धर्म के बारे में टिप्पणी करने का कोई हक नहीं है। पर सच्चाई यह है कि दुनिया का कोई धर्म और उसको मानने वाले इतने ठोस नहीं हैं कि उनमें कोई कमी ही न निकाली जा सके। हर धर्म में अनेक अच्छाइयां हैं, जो समाज को नैतिक मूल्यों के साथ जीवनयापन का संदेश देती हैं। दूसरी तरफ यह भी सही है कि हर धर्म में अनेकों बुराइयां हैं। ऐसे विचार स्थापित कर दिए गए हैं कि जिनका आध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे ही विचारों को मानने वाले लोग ज्यादा कट्टरपंथी होते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के मानने वाले क्यों न हों। इसलिए उस धर्म के अनुयायियों को इस बात का पूरा हक है कि वे अपने धर्मगुरूओं से सवाल करें और जहां संदेह हो, उसका निवारण करवा लें। उद्देश्य यह होना चाहिए कि उस धर्म के मानने वाले समाज से कुरीतियां दूर हों। ऐसी आलोचना को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पर कोई धर्म ऐसा नहीं है कि जिसके ताकतवर धर्मगुरू अपनी कार्यप्रणाली के आचरण पर कोई टिप्पणी सुनना बर्दाश्त करते हों। जो भी ऐसी कोशिश करता है, उसे चुप कर दिया जाता है और फिर भी नहीं मानता, तो उसे आतंकित किया जाता है और जब वह फिर भी नहीं मानता, तो उसकी हत्या तक करवा दी जाती है। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि जिन धर्मों में मान्यताओं और विचारों के निरंतर मूल्यांकन की छूट होती है, वे धर्म बिना किसी प्रचारकों की मदद के लंबे समय तक पल्लवित होते रहते हैं और समयानुकूल परिवर्तन भी करते रहते हैं। सनातन धर्म इसका सबसे ठोस उदाहरण है। जिसमें मूर्ति पूजा से लेकर निरीश्वरवाद व चार्वाक तक के सिद्धांतों का समायोजन है। इसलिए यह धर्म हजारों साल से बिना तलवार और प्रचारकों के जोर पर जीवित रहा है और पल्लवित हुआ है। जबकि प्रचारकों और तलवार के सहारे जो धर्म दुनिया में फैले, उसमें बार-बार बगावत और हिंसा की घटनाओं के तमाम हादसों से इतिहास भरा पड़ा है।
 
रही बात फ्रांस के पत्रकारों की, तो देखने में यह आया है कि यूरोप और अमेरिका के पत्रकार आमतौर पर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक पक्षों पर टिप्पणी करने में कोई कंजूसी नहीं बरतते। उन्हें जो ठीक लगता है, वह खुलकर हिम्मत से कहते हैं। ऐसे में यह मानने का कोई कारण नहीं कि फ्रांस के पत्रकारों ने सांप्रदायिक द्वेष की भावना से पत्रकारिता की है, क्योंकि यही पत्रकार अपने ही धर्म के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप तक का मखौल उड़ाने में नहीं चूके थे। इसलिए इनकी हत्या की भत्र्सना की जानी चाहिए और पूरी दुनिया के पत्रकारिता जगत को और निष्पक्ष सोच रखने वाले समाज को ऐसी घटनाओं के विरूद्ध एकजुट होकर खड़े होना चाहिए।

Monday, December 22, 2014

यूं नहीं खत्म होगा आतंकवाद


पेशावर में आर्मी स्कूल के बच्चों की हत्या ने बर्बरता की सारी हदें पार कर दी | आतंकवादियों ने इसे सेना के खिलाफ बदले की कार्रवाई बाते है | पूरी दुनिया इस हमले से स्तब्ध है | अब तक आतंक का जो रूप देखा जाता था उससे यह हमला बहुत अलग है | अब तक बेकसूरों और मासूमों और साधारण नागरिकों की हत्याओं से ही भय और सनसनी फैलाई जाती थी | और आतंकवादियों की वैसी हरकतों पर राजनितिक व्यवस्था का जवाब या प्रतिक्रिया यही रहती थी यह आतंकवादियों की कायराना हरकत है | हालांकि आतंकवाद के खिलाफ सरकारी युद्ध में सेना और सुरक्षा बलों के सिपाहियों की हत्याएं भी कम नहीं होती हैं | लेकिन उन्हें हम सैनिकों की शहादत कहते हैं और आतंकवाद के खिलाफ निरंतर युद्ध का माहौल बनाये रखते आये हैं | लेकिन इस हमले में सबसे ज्यादा सुविचारित काम यह हुआ है कि सेना कर्मियों के बच्चों को निशाना बनाया गया है |

पूरी दुनिया के मीडिया ने इस हमले को वीभत्स और बर्बर कहते हुए इसे अब तक की सबसे सनसनीखेज हरकत बतया है | और खास तौर पर ज्यादा अमानवीय इस कारण बताया है क्योंकि हत्याएं बच्चों की की गई | उधर हमले पर प्रतिक्रिया के बाद आतंकवादियों का रुख और भी ज्यादा कडा और सनसनीखेज़ है | उनकी धमकी है कि अब वे नेताओं के बच्चों को निशाना बनाएंगे | शनिवार को जिस तरह से मीडिया में आतंकवादियों के धमकी वाले वीडियो टेप जारी किये गए और उन्हें बार बार दिखाया गया उससे यह भी साफ़ ज़ाहिर है कि आतंकवाद और राजनितिक व्यवस्थाओं के बीच यह लड़ाई केद्रिकृत हो चली है |

अगर आतंकवाद पर राजनीतिकों की दबिश की समीक्षा करें तो यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि सरकारें अब तक आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर उपाय कर नहीं पायी है | राजनितिक तबका आतंकवाद को व्यवस्था के खिलाफ एक अलोकतांत्रिक यंत्र ही मानता रहा है | और बेगुनाह नागरिकों की हत्याओं के बाद येही कहता रहा है कि आतंकवाद को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा | होते होते कई दशक बीत जाने के बाद भी विश्व में आतंकवाद के कम होने या थमने का कोई लक्षण हमें देखने को नहीं मिलता |

बहरहाल आतंकवाद के नए रूप को देखें तो संकेत मिलता है कि नेताओं के बच्चों को निशाना बनाने की धमकी के बाद नेताओं के बच्चों की सुरक्षा का नया इन्तेजाम करना होगा | कुलमिलाकर सेना, पुलिस, सुरक्षाकर्मियों और राजनीतिकों के बच्चों व परिवारों की सुरक्षा को किस परिमाण में सुनिश्चित किया जा पाएगा यह हमारे सामने नई चुनौती है |

आज की तारीख तक आतंकवाद के कुछ और महत्वपूर्ण पहलुओं की समीक्षा करें तो यह भी कहा जा सकता है कि आतंकवाद अब और उग्र रूप में हमारे सामने है | यानी उसकी तीव्रता और बढ़ गयी | इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि वह बेख़ौफ़ हो कर खुलेआम राजनेताओं को चुनौती देने लगा है |

नए हालात में ज़रूरी हो गया है कि आतंकवाद के बदलते स्वरुप पर नए सिरे से समझना शुरू किया जाए | हो सकता है कि आतंकवाद से निपटने के लिए बल प्रयोग ही अकेला उपाए न हो | क्या उपाय हो सकते हैं उनके लिए हमें शोधपरख अध्ययनों की ज़रूरत पड़ेगी | अगर सिर्फ 70 के दशक से अब तक यानी पिछले 40 साल के अपने सोच विचार – अपनी कार्यपद्धति पर नज़र डालें तो हमें हमेशा तदर्थ उपायों से ही काम चलाना पड़ा है | इसका उदाहरण कंधार विमान अपहरण के समय का है जब विशेषज्ञों ने हाथ खड़े कर दिए थे कि आतंकवाद से निपटने के लिए हमारे पास कोई सुनियोजित व्यवस्था ही नहीं है |

सिर्फ भारतवर्ष ही नहीं बल्कि दूसरे देशों को भी देखें तो राजनितिक व्यवस्थाओं में जिस तरह बाहुबल और धनबल का दबदबा बढा है उससे येही लगता है कि हिंसा और शोषण को हम उतनी तीव्रता के साथ निंदनीय नहीं मानते | यदि वाकई ऐसा ही है तो राजनितिक व्यवस्था को चुनौती देने के लिए आतंकवाद सिर क्यों नहीं उठा लेगा | धर्म, जाति, धनबल और बाहुबल अगर राजनीति के प्रभावी यंत्र मने जाते हैं तो आतंकवाद के खिलाफ उपाय ढूँढने में हम कितने कारगर हो सकते हैं |

खैर जब तक हमें कुछ सूझता नहीं तब तक आतंकवाद के खिलाफ बल प्रयोग का उपाय करने के इलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है | लेकिन इसी बीच साथ-साथ अप्राध्शास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, समाजशास्त्रियों और दर्शनशास्त्रियों को इस काम के लिए सक्रीय किया जा सकता है | बहुत संभव है कि ऐसा करते हुए हम आतंकवाद के साथ भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, शोषण और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं का भी समाधान पा लें | इसके लिए विश्वभर के शीर्ष नेतृत्त्व को एकजुट हो कर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे तभी कुछ होने की उम्मीद है |

Monday, December 8, 2014

तर्क वितर्क में उलझा साध्वी का बयान

हफ्ते भर से देश की राजनीति साध्वी के जुगुप्सापूर्ण और घृणित बयान में उलझी है | भ्रष्टाचार, काला धन, मेहंगाई और बेरोज़गारी की बातें ज़रा देर के लिए पीछे हो गयी हैं | वैसे सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तकरार कालजई प्रकार की घटना है | यानी संसद के सत्र के दौरान व्यस्तता के लिए ऐसे मुद्दे से और ज्यादा सनसनीखेज़ बात मिल भी क्या सकती थी |

साध्वी ने खेद जता दिया है | प्रधानमंत्री ने सफाई भी दे दी है | सत्ताधारियों का तर्क है कि अब चर्चा बंद करो | विपक्ष का तर्क है कि यह मामला सिर्फ क्षमा मांग कर बारी हो जाने का नहीं है | बल्कि उसकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए कारगार प्रतिकार होना चाहिए | इसी तर्क वितर्क में मामला जिंदा है |

आइये देखें कि एक हफ्ते से चल रहे इस काण्ड के किस पहलु पर चर्चा नहीं हुई | सिर्फ यही देखना काफी नहीं होगा बल्कि पलट कर यह भी देखना पड़ेगा की विगत में जब जब ऐसा हुआ है उसके बाद तब क्या हुआ | मसलन चुनाव के दौरान या चुनाव के पहले सत्ता के लिए जिस तरह के बयानों को सुनने की हमारी आदत पड़ गयी है उस लिहाज़ से साध्वी का ऐसा कुरुचिपूर्ण और आपत्ति जनक बयान बहुत बड़ी बात नहीं लगती | और अपनी आदत के मुताबिक़ हम प्रतिकार किये बगैर आगे भी बड़ लेते हैं | लेकिन काण्ड के उस महत्वपूर्ण पहलु को देख लें तो हो सकता है कि भविष्य में ऐसे जुगुप्सापूर्ण, घृणित, अशालीन और सांस्कृतिक कुरुचिपूर्ण माहौल को बनने से रोकने का कोई उपाय ढूंढ पायें |

इस सिलसिले में यहाँ ये बात उठाई जा सकती है कि साध्वी के मुंह से ऐसी बात किस मकसद से निकली होगी ? और अगर कोई निश्चित मकसद नहीं था यानी अगर सिर्फ जीभ फिसल जाने का मामला था तो यह देख लेना पड़ेगा कि जीभ फिसलने के बाद प्रतिकार कब और कैसे किया जाता है| पहले मकसद के बारे में सोचें | तो सभी जानते हैं कि भारतीय राजनीति में धार्मिक भावनाओं के सत्ताई पदार्थीकारण के लिए क्या क्या किया जाता है और वह किस हद तक स्वीकार भी समझा जाता है | वैसे तो यह तथ्यात्मक पड़ताल के बाद ही पता चल सकता है फिर भी पिछले तीस साल की भारतीय राजनीति में साम्प्रदाईयरकता स्वीकारीय बनाई जाती दीखती है | यानी कुछ लोग इसे उतना बुरा नहीं मानते | फिर भी उसके रूप को लेकर और उसके माध्यम को लेकर वे लोग भी संकोच बरतते हैं | लेकिन इस काण्ड में यह संकोच नहीं बरता गया | इस मामले में यही कहा जा सकता है कि राजनितिक अभीष्ट के लिए घृणा और जुगुप्सा के इस्तेमाल का प्रयोग नाकाम हुआ दीखता है | यह निष्कर्ष इस आधार पर है क्योंकि ऐसी बातों के कट्टर पक्षधरों को भी साध्वी का बचाव करने में संकोच होने लगा है |

दूसरी बात रही जीभ के फिसलने की | अगर यह वैसी कोई घटना होती तो वक्ता को तत्काल उसको बोध हो जाता है | सामान्य जनव्हार में यहाँ तक है कि किसी आपत्तिजनक या गन्दी सी बात कहने से पहले क्षमा मांगते हुए ही वह बात कही जाती है | और अगर आदत या प्रवृत्तिवश निकल जाए तो फ़ौरन माफ़ी मांग ली जाती है | और इस तरह वक्ता अपनी प्रतिष्ठा – गरिमा को बचाए रखता है | लेकिन साध्वी फ़ौरन वैसा नहीं कर पाई | शायद उन्होंने प्रतिक्रिया का अध्यन करने के लिए पर्याप्त से ज्यादा समय लगा दिया | बहराल वे पहली बार सांसद बनी और तेज़तर्रारी के दम पर पहली बार में ही केन्द्रीय मंत्री बना दी गयी | पर अब साध्वी कुलमिलाकर मुश्किल में हैं | वे ही नहीं उनकी वजह से उनकी पार्टी यानी सत्ताधारी पार्टी फिलहाल ज़रा दब के चलती दिख रही है |

जो हुआ अब उसके नफे नुक्सान की बात है | अगर बयान के मकसद की पड़ताल करें तो इस बात से कौन इनकार करेगा कि राजनीति में ऐसी बातों से मकसद पूरा हो जाता है | और नुक्सान की बात करें तो तात्कालिक नुक्सान सिर्फ इतना हुआ है कि राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले नागरिकों के पास सन्देश पहुँचा है कि सत्ताधारी पार्टी इन बातों को पूरी तौर पर छोड़ नहीं पायी है | जबकि यह कई बार सिद्ध हो चुका है कि राजनितिक सफलता के लिए ऐसी बातें बहुत ज्याद उपयोगी नहीं होती| थोड़ी बहुत उपयोगिता को मानते हुए इस हद तक जाना कुलमिलाकर नुकसानदेह ही मालूम पड़ता है|

लेकिन जहाँ हमने राजनीति का विशेषण बनाने के लिए ‘राजनैतिक’ की बजाय ‘राजनितिक’ लिखना / कहना शुरू किया है | उससे बिलकुल साफ़ है कि हम ‘नैतिक’ की बजाय ‘नीतिक’ होते जा रहे हैं | इस बात से अपने उत्थान और पतन का आकलन करने के लिए हम निजी तौर पर मुक्त हैं – स्वतंत्र हैं |

Monday, December 1, 2014

यथार्थवादी हो भारत की पड़ौस नीति

बराक ओबामा गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि बनने आ रहे हैं | इसी से भारत में काफी उत्साह है | भावुक लोग यह मान बैठे हैं कि अमरीका ने अपनी विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन करके पाकिस्तान की तरफ से मुंह मोड़ लिया है | अब वो केवल भारत का हित साधेगा | लेकिन ऐसा सोचना भयंकर भूल है | अमरीका की विदेश नीति भावना से नहीं ज़मीनी हकीकत से तय होती है | वह अपनी पाकिस्तान और अफगनिस्तान नीति में जल्दबाजी में कोई परिवर्तन नहीं करने जा रहा |

यही बात जापान पर भी लागू होती है | भारत मान बैठा था कि जापान चीन के मुकाबले भारत का साथ देकर भारत को मजबूत करेगा | पर अचानक जापान ने अपना रवैया बदल दिया | जापान ने आजतक भारत के पूर्वोतर राज्यों, जिनमे अरुणाचल शामिल है, को विवादित क्षेत्र नहीं माना | इसीलिए उसने पूर्वोतर राज्यों में आधारभूत ढांचा जैसे सीमा के निकट सड़क, रेल, पाईप लाइन डालने जैसे काम करने का वायदा किया था | भारत खुश था कि इस तरह जापान भारत की मदद करके अपने दुश्मन चीन से परोक्ष रूप में युद्ध करेगा | पर ऐसा नहीं हुआ | जापान ने अचानक अरुणाचल को विवादित क्षेत्र मान लिया है और यह कह कर पल्ला झाड लिया कि विवादित क्षेत्र में वह कोई विकास कार्य नहीं करेगा | दरअसल जापान को समझ में आया कि वह दूसरों की लड़ाई में खुद के संसाधन क्यों झोंके | जबकि उसके पास टापुओं के स्वामित्व को लेकर पहले ही चीन से निपटने के कई विवादित मुद्दे हैं | इस तरह हमारी उम्मीदों पर पानी फिर गया |

जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी सीमाओं पर आधारभूत ढांचा खुद ही विकसित करते | जिससे हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता | उधर चीन ने यही किया | 1986-89 की अरुणाचल की घटना के बाद, जब हमारी फौजों ने 1962 में मैकमोहन लाइन के पास वाले छोड़ दिए गये क्षेत्रों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया तो चीन को एक झटका लगा | यह कब्ज़ा अधिकतर वायु सेना की भारी मदद से हुआ और आर्थिक दृष्टि से देश को काफी महंगा पड़ा | जिसका प्रभाव हमारी अर्थवयवस्था पर पड़ा और हमारी विदेशी मुद्रा के कोष कम हो गए | चीन नहीं चाहता था कि भारत ऐसी क्षमता का पुनः प्रदर्शन करे | इसलिए उसने तिब्बत में सीमा के किनारे आधारभूत ढाँचा तेज़ी से विकसित किया | पठारी क्षेत्र होने के कारण उसके लिए यह करना आसान था | जबकि अरुणाचल का पहाड़ कमज़ोर होने के कारण वहां लगातार भूस्खलन होते रहते हैं जिससे सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और वहां की भौगोलिक दशा भी हमारे जवानों के लिए बहुत आक्रामक हैं | जहां अरुणाचल की सीमा की दूसरी तरफ आधारभूत ढांचे के कारण चीनी सेना पूरे साल डटी रहते है वहीं हमारे जवानों को इस सीमा पर जाकर अपने को मौसम के अनुकूल ढालने की कवायत करनी होती है | जिससे हमारी प्रतिक्रिया धीमी पड़ जाती है | 

दरअसल हमारे राजनेता विदेश नीति को घरेलू राजनीति और मतदाता की भावनाओं से जोड़कर तय करते हैं, ज़मीनी हकीकत से नहीं | इसलिए हम बार-बार मात खा जाते हैं | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि वे जो भी कहें उसमे ज़मीनी सच्चाई और कूटनीति का संतुलित सम्मिश्रण हो |
अब सीमा पर आधारभूत ढांचे के विकास की ही बात को लें तो हमारे नेताओं के हाल में आये बयान इस बात को और स्पष्ट कर देंगे | जहां चीन ने यही काम करते समय दुनिया के किसी मंच पर कभी यह नहीं कहा कि वह ऐसा भारत के खिलाफ अपनी सीमा को सशक्त करने के लिए कर रहा है| उसने तो यही कहा कि वह अपने सीमान्त क्षेत्रों का आर्थिक विकास कर रहा है | जबकि भारत सरकार के हालिया बयानों में यही कहा गया कि सीमा पर रेल या सड़कों का जाल चीन से निपटने के लिए किया जा रहा है | यह भड़काऊ शैली है जिससे लाभ कम घाटा ज्यादा होता है | 

हकीकत यह है कि हमारी सेनाओं के पास लगभग 2 लाख करोड़ रूपए के संसाधनों की कमी है | जिसकी ख़बरें अख्बारों में छपती रहती हैं | अपनी इस कमजोरी के कारण हम अपने पड़ौसीयों पर दबाव नहीं रख पाते | जिसका फायदा उठा कर वे हमारे यहां अराजकता फैलाते रहते हैं | जरूरत इस बात की है कि हमारी विदेश नीति केवल नारों में ही आक्रामक न दिखाई दे बल्कि उसके पीछे सेनाओं की पूरी ताकत हो | तभी पड़ौसी कुछ करने से पहले दस बार सोचेंगे | विदेश नीति का पूरा मामला गहरी समझ और दूरदृष्टि का है, केवल उत्तेजक बयान देने का नहीं |

Monday, November 24, 2014

ज़रूरत नई रोजगार नीति की


बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। 

    जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है। 

    देश के औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। 

    पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए उमड़ पड़े। 

सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ? 

    यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?