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Monday, August 12, 2024

बांग्लादेश के संदेश को गंभीरता से लिया जाए


भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश में जो हुआ उसने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं। परंतु इन सब में एक अहम सवाल भारत और बांग्लादेश के संबंधों का है। पड़ोसी व मित्र होने के चलते जिस तरह भारत ने बांग्लादेश की पूर्व प्रधान मंत्री व अपदस्थ नेता शेख़ हसीना को दिल्ली में शरण दी है वह आने वाले समय में भारत और बांग्लादेश के संबंधों पर गहरा असर डाल सकता है। क्योंकि आम बांग्लादेशियों की नज़र में शेख़ हसीना और भारत एक दूसरे के पर्याय माने जाते हैं। ऐसे में अगले कुछ महीने दोनों देशों के रिश्तों के लिए तनाव भरे भी हो सकते हैं। बांग्लादेश में बनी मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार भारत के साथ किस तरह पेश आती है, ये अभी कहा नहीं जा सकता। ये हमारी चिंता का विषय रहेगा। 



कई देशों में भारत के राजदूत रहे पूर्व आईएफ़एस अधिकारी अनिल त्रिगुणायत के अनुसार यह एक ऐसा संकट है जो वाजिब संदेह से परे नहीं है। दुनिया में सबसे लंबे समय तक सत्तारूढ़ रहीं महिला प्रधान मंत्री और बांग्लादेश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली प्रधान मंत्री शेख़ हसीना का बांग्लादेश में हो रही घटनाओं के त्वरित क्रम में, अचानक इस्तीफा, निष्कासन और प्रस्थान अप्रत्याशित था। उनके कार्यकाल के दौरान, उनके प्रशासन ने बांग्लादेश को महत्वपूर्ण स्थायित्व प्रदान किया। इसके कारण उसकीआर्थिक प्रगति भी प्रभावशाली रही। पर साथ ही शेख़ हसीना के शासन में बढ़े भारी भ्रष्टाचार और उनके अहंकार के साथ-साथ उन पर चुनावों में गड़बड़ी करवाने के आरोपों ने उनकी विरासत को कलंकित किया। सरकारी नौकरियों में अपने ही दल के लोगों को स्वतंत्रता सेनानी बताकर लगातार सरकारी नौकरियों में तीस फ़ीसदी आरक्षण देना युवाओं में उनके भारी विरोध का मुद्दा बना। हालांकि जुलाई के तीसरे सप्ताह में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने इसे सुलटा दिया था। फिर भी ये विवाद का एक बड़ा मुद्दा बना रहा। इसी के चलते 300 से अधिक छात्रों और प्रदर्शनकारियों की मौत के साथ वहाँ स्थिति बिगड़ गई। वो एक महत्वपूर्ण मोड़ था जब सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। घटनाओं का यह क्रम श्रीलंका और मिस्र में देखे गए संकटों की प्रतिध्वनि है। 



इस बीच, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की नेता बेगम खालिदा जिया की नजरबंदी रद्द कर दी गई है। जो अब फिर से सक्रिय हो रही हैं। वे कट्टरपंथियों व पाकिस्तान के क़रीब मानी जाती हैं। ये हमारे लिए चिंता का कारण है। वहीं दूसरी तरफ़ शेख हसीना के बेटे सजीब वाजेद ने दावा किया है कि अब एक राजनैतिक गाथा खत्म हो गई है। क्योंकि उनका परिवार अब बांग्लादेश को अव्यवस्था की खाई में से निकालने या पाकिस्तान के जाल से बचाने और उग्रवाद के भँवर में फँसने से बचाने के लिए वापिस बांग्लादेश नहीं आएगा। क्योंकि शेख़ हसीना द्वारा प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ हाल में सेना के साथ सरकार बनाने की बातचीत करने वाली टीम का महत्वपूर्ण हिस्सा था। वाजेद ने यह भी कहा कि अब हसीना का राजनीति से नाता भी खत्म हो चुका है। आवामी लीग को एक नया कथानक और अपना नया स्वीकार्य नेता ढूंढना होगा। ये रुझान आने वाली परिस्थितियों के स्वरूप का संकेत देते हैं। 


उधर बांग्लादेश की सेना के लिए भी आने वाला समय आसान नहीं है। क्योंकि सेना प्रमुख ने जनता, विशेषकर छात्रों से, इतनी बड़ी संख्या में हुई मौतों के मामले में कार्रवाई और जांच का आश्वासन देते हुए सहयोग मांगा है। यदि ऐसा है तो क्या उग्र और अनियंत्रित भीड़ द्वारा शेख़ हसीना के कार्यालय, आवास और संसद में की गई तोड़फोड़ को नजरअंदाज किया जाएगा?


ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश के लोगों, खासकर युवाओं को लंबे समय तक चलने वाला सैन्य शासन पसंद नहीं है। इसलिए यदि एक समय सीमा के बाद सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण नहीं किया गया और उसे राजनेताओं को नहीं सौंपा गया तो सेना को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा, बड़ी संख्या में छात्र सेना द्वारा थोपी गई अंतरिम सरकार के विचार से भी खुश नहीं हैं।


दूसरी तरफ़ अंतरराष्ट्रीय मामलों के कुछ अन्य जानकर ऐसा भी मानते हैं कि बांग्लादेश में यदि आरक्षण ही मुद्दा होता तो शेख़ हसीना जनवरी 2024 में भारी बहुमत से चुनाव कैसे जीतीं? ऐसा क्या हुआ कि मात्र छह महीनों में ही उन्हें देश छोड़ कर जाने पर मजबूर होना पड़ा? उनका कहना है कि पाकिस्तान बांग्लादेश के अलग होने से बिलकुल भी खुश नहीं था। उसकी जासूस एजेंसी आईएसआई हमेशा से ही बांग्लादेश में सक्रिय रही है। जिसने इस तख़्त पलट की पटकथा लिखी है। क्योंकि शेख़ हसीना ने पिछले 15 वर्षों से भारत के साथ अच्छे संबंध रखे और वे भारतीय हितों को पोषित करने वाली मानीं जातीं थी। जिससे पाकिस्तान काफ़ी बेचैन था। ऐसे पड़ोसी मित्र का सत्ता से अचानक हटना अब भारत के लिए चिंता का सबब अवश्य है। 


प्रश्न है कि भारत जैसे मज़बूत देश और भारत का एक तेज़-तर्रार ख़ुफ़िया तंत्र होने के बावजूद ढाका में होने वाले राजनैतिक घटनाक्रम की भनक तक क्यों नहीं लगी? ये बात गले नहीं उतरती। क्या इसे भी पुलवामा की तरह ‘इंटेलिजेंस फेलियर’ माना जाए? उल्लेखनीय है कि 1975 में, जब भारत की इंटेलिजेंस एजेंसियों को बांग्लादेश में तख्तापलट होने जा रहा है, इसकी भनक लगी, तो तब भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने लगभग एक सप्ताह पहले ही अपने हेलीकॉप्टर भेज कर शेख़ मुजीबुर रहमान को भारत में शरण लेने की सलाह दी थी, परंतु वे नहीं माने। परिणाम स्वरूप उन्हें व उनके बेटों और परिवार के 17 सदस्यों को ढाका में उनके घर में ही मार दिया गया। यदि उसी तरह हमारी ख़ुफ़िया एजेंसियाँ ढाका में होने वाले ताज़ा घटनाक्रम की खबर समय रहते दे देतीं तो शायद प्रधानमंत्री मोदी जी बांग्लादेश को इस संकट से बचा भी सकते थे। वहीं दूसरी ओर यदि हमारे पास इस घटनाक्रम की जानकारी थी तो हमने बांग्लादेश के समर्थन में समय रहते कठोर कदम क्यों नहीं उठाए? 


विदेशी मामलों के ये जानकार यह भी कहते हैं कि भारत ने 2014 तक अपनी कूटनीति के चलते दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को अपने पाँव पसारने नहीं दिये। नेपाल, म्यांमार, श्री लंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और भारत सहित सात देशों के समूह ने भारत की पहल पर ही सार्क का गठन किया। जिसमें पाकिस्तान के अलावा भारत के सभी से अच्छे संबंध रहे। परंतु किन्हीं कारणों से हमारी विदेश नीति में कुछ ऐसे परिवर्तन हुए कि 2015 के बाद से सार्क देशों की एक भी बैठक नहीं हुई। सार्क के बिखरते ही चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के चलते पहले पाकिस्तान और फिर भारत के अन्य पड़ोसी देशों में भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिये। परंतु ये सब होते हुए हम चुपचाप बैठे देखते रहे। नतीजन आज भारत चारों और से चीन के प्रभाव वाले पड़ौसियों से घिर गया है। अब छोटे से देश भूटान को छोड़कर कोई हमारा मित्र नहीं है। ग़ौरतलब है कि चीन से पहले अमरीका भी श्रीलंका और बांग्लादेश पर अपनी नज़र बनाए हुए था। परंतु चीन ने श्री लंका पर भी अपनी पकड़ बना कर अमरीका का सपना तोड़ दिया। 


बांग्लादेश के साथ हमारा लाखों करोड़ का व्यापार चल रहा है। दोनों देशों के बीच काफ़ी लंबी सीमा भी लगती है। जो हमारी बड़ी चिंता का विषय है। इसलिए हमारे हक़ में होगा कि बांग्लादेश में जो भी सरकार चुनी जाए वह भारत के हित की ही बात करे। वरना जहां हमारी दो सीमाएँ पहले से ही नाज़ुक स्थित में हैं, कहीं हम चारों ओर से दुश्मनों से घिर न जाएँ। अब ये उत्सुकता से देखना होगा कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के बाद जो भी सरकार बने वह भारत के साथ कैसे संबंध रखती है। इसलिए ढाका में हुए घटनाक्रम को दिल्ली को बहुत गंभीरता से लेना होगा।  

Monday, December 1, 2014

यथार्थवादी हो भारत की पड़ौस नीति

बराक ओबामा गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि बनने आ रहे हैं | इसी से भारत में काफी उत्साह है | भावुक लोग यह मान बैठे हैं कि अमरीका ने अपनी विदेश नीति में आमूलचूल परिवर्तन करके पाकिस्तान की तरफ से मुंह मोड़ लिया है | अब वो केवल भारत का हित साधेगा | लेकिन ऐसा सोचना भयंकर भूल है | अमरीका की विदेश नीति भावना से नहीं ज़मीनी हकीकत से तय होती है | वह अपनी पाकिस्तान और अफगनिस्तान नीति में जल्दबाजी में कोई परिवर्तन नहीं करने जा रहा |

यही बात जापान पर भी लागू होती है | भारत मान बैठा था कि जापान चीन के मुकाबले भारत का साथ देकर भारत को मजबूत करेगा | पर अचानक जापान ने अपना रवैया बदल दिया | जापान ने आजतक भारत के पूर्वोतर राज्यों, जिनमे अरुणाचल शामिल है, को विवादित क्षेत्र नहीं माना | इसीलिए उसने पूर्वोतर राज्यों में आधारभूत ढांचा जैसे सीमा के निकट सड़क, रेल, पाईप लाइन डालने जैसे काम करने का वायदा किया था | भारत खुश था कि इस तरह जापान भारत की मदद करके अपने दुश्मन चीन से परोक्ष रूप में युद्ध करेगा | पर ऐसा नहीं हुआ | जापान ने अचानक अरुणाचल को विवादित क्षेत्र मान लिया है और यह कह कर पल्ला झाड लिया कि विवादित क्षेत्र में वह कोई विकास कार्य नहीं करेगा | दरअसल जापान को समझ में आया कि वह दूसरों की लड़ाई में खुद के संसाधन क्यों झोंके | जबकि उसके पास टापुओं के स्वामित्व को लेकर पहले ही चीन से निपटने के कई विवादित मुद्दे हैं | इस तरह हमारी उम्मीदों पर पानी फिर गया |

जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी सीमाओं पर आधारभूत ढांचा खुद ही विकसित करते | जिससे हमें दूसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता | उधर चीन ने यही किया | 1986-89 की अरुणाचल की घटना के बाद, जब हमारी फौजों ने 1962 में मैकमोहन लाइन के पास वाले छोड़ दिए गये क्षेत्रों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया तो चीन को एक झटका लगा | यह कब्ज़ा अधिकतर वायु सेना की भारी मदद से हुआ और आर्थिक दृष्टि से देश को काफी महंगा पड़ा | जिसका प्रभाव हमारी अर्थवयवस्था पर पड़ा और हमारी विदेशी मुद्रा के कोष कम हो गए | चीन नहीं चाहता था कि भारत ऐसी क्षमता का पुनः प्रदर्शन करे | इसलिए उसने तिब्बत में सीमा के किनारे आधारभूत ढाँचा तेज़ी से विकसित किया | पठारी क्षेत्र होने के कारण उसके लिए यह करना आसान था | जबकि अरुणाचल का पहाड़ कमज़ोर होने के कारण वहां लगातार भूस्खलन होते रहते हैं जिससे सड़क मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और वहां की भौगोलिक दशा भी हमारे जवानों के लिए बहुत आक्रामक हैं | जहां अरुणाचल की सीमा की दूसरी तरफ आधारभूत ढांचे के कारण चीनी सेना पूरे साल डटी रहते है वहीं हमारे जवानों को इस सीमा पर जाकर अपने को मौसम के अनुकूल ढालने की कवायत करनी होती है | जिससे हमारी प्रतिक्रिया धीमी पड़ जाती है | 

दरअसल हमारे राजनेता विदेश नीति को घरेलू राजनीति और मतदाता की भावनाओं से जोड़कर तय करते हैं, ज़मीनी हकीकत से नहीं | इसलिए हम बार-बार मात खा जाते हैं | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि वे जो भी कहें उसमे ज़मीनी सच्चाई और कूटनीति का संतुलित सम्मिश्रण हो |
अब सीमा पर आधारभूत ढांचे के विकास की ही बात को लें तो हमारे नेताओं के हाल में आये बयान इस बात को और स्पष्ट कर देंगे | जहां चीन ने यही काम करते समय दुनिया के किसी मंच पर कभी यह नहीं कहा कि वह ऐसा भारत के खिलाफ अपनी सीमा को सशक्त करने के लिए कर रहा है| उसने तो यही कहा कि वह अपने सीमान्त क्षेत्रों का आर्थिक विकास कर रहा है | जबकि भारत सरकार के हालिया बयानों में यही कहा गया कि सीमा पर रेल या सड़कों का जाल चीन से निपटने के लिए किया जा रहा है | यह भड़काऊ शैली है जिससे लाभ कम घाटा ज्यादा होता है | 

हकीकत यह है कि हमारी सेनाओं के पास लगभग 2 लाख करोड़ रूपए के संसाधनों की कमी है | जिसकी ख़बरें अख्बारों में छपती रहती हैं | अपनी इस कमजोरी के कारण हम अपने पड़ौसीयों पर दबाव नहीं रख पाते | जिसका फायदा उठा कर वे हमारे यहां अराजकता फैलाते रहते हैं | जरूरत इस बात की है कि हमारी विदेश नीति केवल नारों में ही आक्रामक न दिखाई दे बल्कि उसके पीछे सेनाओं की पूरी ताकत हो | तभी पड़ौसी कुछ करने से पहले दस बार सोचेंगे | विदेश नीति का पूरा मामला गहरी समझ और दूरदृष्टि का है, केवल उत्तेजक बयान देने का नहीं |