बेरोजगारों की भीड़ बढ़ती
दिख रही है। अपने देश के लिए वैसे तो यह समस्या शाश्वत प्रकार की है, लेकिन
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सनसनीखेज तथ्य यह है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों की
समस्या ज्यादा गंभीर है। अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं
है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई सरकार नहीं सुनना
चाहती। अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में
नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल
फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई
नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित
समस्याओं पर भारी पड़ती है।
जैसा पहले कहा गया है कि बेरोजगारी
का नया रूप पढ़े लिखे युवकों की बेरोजगारी का है और ज्यादा भयावह है। इसके
साथ यह बात बड़ी तीव्रता से जुड़ी है कि जिन युवकों या उनके माता-पिता ने इस
उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया कि उनका बच्चा
सब भरपाई कर देगा, उनके निवेश की बात पर गौर जरूरी है।
देश के
औसत जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में अनुमानित
हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि
प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास
भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस
कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में
न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और
अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की
दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय
के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े लिखे बेरोजगारों
की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ
पहलुओं पर चर्चा कर लें।
पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना
प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब
सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर
भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा
दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर
डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है ? हमारे सामने है। इस सदी
के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो,
जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्सों के लिए कालेज न खुल गए हों। इन
निजी संस्थानों में दाखिले के लिए जो भीड़ उमड़ी वह सिर्फ रोजगार की
सुनिश्चितता के लिए उमड़ी थी। परंपरागत रूप से बारहवीं के बाद, जिन्हें कुशल
बनने के लिए चार या पांच साल और लगाने थे, वे सर्टीफिकेट कोर्स या
डिप्लोमा करने लगे। और साल दो साल के भीतर मजबूरन बेरोजगारों की भीड़ में
खड़े होने लगे। स्नातक के बाद जिनके पास दफ्तरों मंे लिपिकीय काम पर लग जाने
की गुंजाइश थी, वे महंगे व्यवसायिक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेने के लिए
उमड़ पड़े।
सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को
अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने
प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और
दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा
हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले
यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे ?
यानी किन क्षेत्रों
में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यवसायिक मानव संसाधनों की
जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। अगर कहीं लगाया भी जाता हो तो
उसका अता पता नहीं चलता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे
रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन
विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन
विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यवसायिक स्नातकों की तो
उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता
है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह
काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं।
लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं
डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की
समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है। बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार
नीति को नए परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है?
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