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Monday, August 12, 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में अखिलेश यादव ने नया क्या किया?

देश का मीडिया, उ.प्र. के विपक्षी दल, आई.ए.एस. आफिसर्स एसोसिएशन के सदस्य और कुछ सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दुर्गा शक्ति नागपाल के निलम्बन को लेकर काफी उत्तेजित हैं और उ.प्र. के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयं दुर्गा शक्ति नागपाल ने कोई बयान न देकर अपनी परिपक्वता का परिचय दिया। पर इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस मामले में ऐसा कुछ नहीं किया जो आजाद भारत के इतिहास में अन्य प्रान्तों के मुख्यमंत्री आज तक न करते आये हों। दरअसल ऐसी दुर्घटनायें इस नौकरी में नये आये उन लोगों के साथ होती हैं जो इस नौकरी के मूल स्वभाव को नहीं समझ पाते। आई.ए.एस. का गठन न तो भारत के आम लोगों का विकास करने के लिये हुआ था और न ही शासन के शिंकजे से स्वतंत्र रहकर पूरी निष्पक्षता से प्रशासन करने के लिये। अंग्रेज शासन ने लोहे का ढ़ांचा मानी जाने वाली आई.ए.एस. का गठन आम जनता से राजस्व वसूलने और उसे दबाकर अपनी सत्ता कायम रखने के लिये किया था। आजादी के बाद इसके दायित्वों में तो भारी विस्तार हुआ पर अपनी इस औपनिवेशिक मानसिकता से यह नौकरी कभी बाहर नहीं निकल पाई। आज भी आई.ए.एस. के अधिकारी राजनैतिक आकाओं के एजेन्ट का काम करते हैं। जिले में तैनाती ही उनकी होती है जो प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का हित साधने का अलिखित आश्वासन देते हैं। ऐसा न करने वालों को प्रायः गैर चमकदार पदों पर भेज दिया जाता है। इसलिये आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी न तो स्वतंत्र चिन्तन करते हैं और न ही स्वतंत्र फैसले लेते हैं। उन्हें पता है कि ऐसा करने पर वे महत्वपूर्ण पद खो सकते हैं। बिरले ही होते हैं जो समाज की सेवा और अपने राजनैतिक आकाओं की सेवा के अपने दायित्वों के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। ज्यादातर अधिकारी अपनी नौकरी के कार्यकाल में किसी न किसी पक्ष की पूंछ पकड़ लेते हैं। इससे उन्हें कभी बहुत लाभ का और कभी सामान्य जीवन जीना पड़ता है।

यही कारण है कि आई.ए.एस. में काम करने वाले अधिकारी पूरी जिन्दगी लकीर पीटते रह जाते हैं। न तो कुछ उल्लेखनीय कर पाते हैं और न ही समाज को उसका हक दिला पाते हैं। इस नौकरी में आते ही यह बात प्रशिक्षण के दौरान दिमाग में बैठा दी जाती है कि तुम समाज की क्रीम हो। क्रीम तो दूध के ऊपर तैरती है, कभी भी नीचे के दूध के साथ घुलती-मिलती नहीं। इसके साथ ही इस नौकरी में यह बताया जाता है कि तुम्हारा काम अपने राजनैतिक आकाओं के इरादों के अनुसार व्यवहार करना है। जो युवा यह बात नौकरी के प्रारम्भ में समझ लेते हैं वे बिना किसी झंझट के अपना कार्यकाल पूरा कर लेते हैं। पर जो दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह यह गलतफहमी पाल लेते हैं कि उनका एक स्वतंत्र अस्तित्व है और वे अपनी इच्छानुसार व्यवहार कर सकते हैं वे अपनी नौकरी को शुरू के वर्षों में तो कभी-कभी मीडिया की चर्चाओं में आ जाते हैं। मध्यमवर्गीय समाज के हीरों बन जाते हैं। पर बाद के वर्षों में उनमें से ज्यादातर परिस्थिति को समझकर या तो मौन हो जाते हैं या समझौते कर बैठते हैं।

उधर प्रोफेसर रामगोपाल यादव व अखिलेश यादव का यह कहना कि केन्द्र चाहे तो आई.ए.एस. के अधिकारियों को उ.प्र. से वापिस बुला सकता है। उनकी सरकार बिना इन अधिकारियों के भी चल जायेगी, लोगों को बहुत नागवार गुजरा है। इस पर मीडिया में तीखे बयान और टिप्पणियाँ आये हैं। पर सपा नेताओं के बयान इतने गैर जिम्मेदाराना नहीं कि इन्हें मजाक में दरकिनार कर दिया जाये। हमारा अनुभव बताता है और अनेक आकादमिक अध्ययनों में बार-बार यह सिद्ध किया है कि आई.ए.एस. ने देश को काहिल और निकम्मा बनाने का काम किया है। अनावश्यक अहंकार, फिजूलखर्र्ची, श्रेष्ठ विचारों और सुझावों की उपेक्षा कर अपने गैर व्यावहारिक विचारों को थोपना और बिना जनता के प्रति उत्तरदायी बनें उसके संसाधनों की बर्बादी करना इस नौकरी से जुड़े लोगों का ट्रैक रिकार्ड रहा है। अपवाद यहाँ भी है पर इस बारे में कोई मुगालता नहीं कि अगर इस नौकरी से जुड़े लोग ईमानदारी, निष्पक्षता, मितव्यता, संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से आचरण करते तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन जाता। जनता राजनेताओं को हर बीमारी की जड़ बताकर कठघरे में खड़ा कर देती है, जबकि विद्वान लोगों का मानना है कि राजनेताओं को भी बिगाड़ने का काम भी इसी जमात ने किया है। इसलिये इस पूरी नौकरी के औचित्य, चयन और प्रशिक्षण पर देश में गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है।

Monday, July 8, 2013

उत्तराखंड का सबक: मीडिया अपना रवैया बदले

उत्तराखंड की तबाही और मानवीय त्रासदी पर देश के मीडिया ने बहुत शानदार रिर्पोटिंग की है। दुर्गम स्थितिओं में जाकर पड़ताल करना और दिल दहलाने वाली रिर्पोट निकालकर लाना कोई आसान काम नहीं था। जिसे टीवी और प्रिंट मीडिया के युवा कैमरामैनों व संवादाताओं ने पूरी निष्ठा से किया। जैसा कि ऐसी हर दुर्घटना के बाद होता है, अब उत्तराखंड से ध्यान धीरे-धीरे हटकर दूसरे मुद्दों पर जाने लगा है। जो एक स्वभाविक प्रक्रिया है। पर यहीं जरा ठहरकर सोचने की जरुरत है। पिछले कुछ वर्षों में, खासकर टीवी मीडिया में, ऐसा कवरेज हो रहा है जिससे सनसनी तो फैलती है, उत्तेजना भी बढ़ती है, पर दर्शक कुछ सोचने को मजबूर नहीं होता। बहुत कम चैनल हैं जो मुद्दों की गहराई तक जाकर सोचने पर मजबूर करते हैं। इस मामले में आदर्श टीवी पत्रकारिता के मानदंडों पर बीबीसी जैसा चैनल काफी हद तक खरा उतरता है। जिन विषयों को वह उठाता है, जिस गहराई से उसके संवाददाता दुनिया के कोने-कोने में जाकर गहरी पड़ताल करते हैं, जिस संयत भाषा और भंगिमा का वे प्रयोग करते हैं, उसे देखकर हर दर्शक सोचने पर मजबूर होता है।
 
जबकि हमारे यहां अनेक संवाददाता और एंकरपर्सन खबरों पर ऐसे उछलते हैं मानो समुद्र में से पहली बार मोती निकाल कर लाये हैं। इस हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं दूसरा यश न ले ले। फिर भी वही सूचना और वाक्य कई-कई बार दोहराते हैं। इस हद तक कि बोरियत होने लगे। अनेक समाचार चैनल तो ऐसे हैं जिनकी खबरें सुनकर लगता हैं कि धरती फटने वाली हैं और दुनियां उसमें समाने वाली है। जबकि खबर ऐसी होती है कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया। इस देश में खबरों का टोटा नहीं है। पहले कहा जाता था कि अगर कहीं खबरें न मिले तो बिहार चले जाओ, खबरें ही खबरें मिलेंगी। अब तो पूरे देश की यह हालत है। हर जगह खबरों का अम्बार लगा है। उन्हें पकड़ने वाली निगाहें चाहिए।
 
हत्या, बलात्कार, चोरी और फसाद की खबरें तो थोक में मिलती भी हैं और छपती भी हैं। पर विकास के नाम पर देश में चल रहे विनाश के तांडव पर बहुत खबरें देखने को नहीं मिलती। फ्लाईओवर टूटकर गिर गया, तब तो हर चैनल कवरेज को भागेगा ही, पर कितने चैनल और अखबार हैं जो देश में बन रहे फ्लाईओवरों के निर्माण में बरती जा रही कोताही और बेईमानी को समय रहते उजागर करते हैं ? ऐसी कितनी खबरें टीवी चैनलों पर या अखबारों में आती हैं जिन्हें देख या पढ़कर ऐसे निर्माण अधर में रोक देना सरकार की मजबूरी बन जाये। सांप निकलने के बाद लकीर पर लठ्ठ बजाने से क्या लाभ ?
 
आज देश में विकास की जितनी योजनाएं सरकारी अफसर बनवाते हैं, उनमें से ज्यादातर गैर जरूरी, फिजूल खर्चे वाली, जनविरोधी और पर्यावरण के विपरीत होती है। जिससे देश के हर हिस्से में रात- दिन उत्तराखंड जैसा विनाशोन्मुख ‘विकास‘ हो रहा है। इन योजनाओं को बनाने वालों का एक ही मकसद होता है, कमीशनखोरी और घूसखोरी। इसलिए ऐसे कन्सलटेन्ट रखे जाते है जो अपनी प्रस्तावित फीस का 80 फीसदी तक काम देने वाले अफसर या नेता को घूस में दे देते हैं। बचे बीस फीसदी में वे अपने खर्चे निकालकर मुनाफा कमाते हैं, इसलिए काम देने वाले कि मर्जी से उटपटांग योजनाएं बनाकर दे देते हैं। इस तरह देश की गरीब जनता का अरबों-खरबों रुपया निरर्थक योजनाओं पर बर्बाद कर दिया जाता है। जिसका कोई लाभ जनता को नहीं मिलता। हां नेता, अफसर और ठेकेदारों के महल जरूर खड़े हो जाते हैं। देश में दर्जनों समाचार चैनल और सैकड़ों अखबार हैं। उनकी युवा टीमों को सतर्क रहकर ऐसी परियोजनाओं की असलियत समय रहते उजागर करनी चाहिए। पर यह देख कर बहुत तकलीफ होती है कि ऐसे मुद्दें आज के युवा संवाददाताओं को ग्लैमरस नहीं लगते। वे चटपटी, सनसनीखेज खबरों और विवादास्पद बयानों पर आधारित खबरें ही करना चाहते हैं। कहते है इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है। उन्हें लगता है कि जनता विकास और पर्यावरण के विषयों में रुचि नहीं लेगी।
 
जबकि हकीकत कुछ और है। अगर उत्तराखंड की वर्तमान त्रासदी पर पूरा देश सांस थामें पन्द्रह दिन तक टीवी के परदे के आगे बैठा रहता है, तो जरा सोचिए कि ऐसी त्रासदियों की याद दिलाकर देश की जनता और हुक्मरानों को उनकी विनाशकारी नीतियों और परियोजनाओं के विपरीत चेतावनी क्यों नहीं दी जा सकती ? जनता का ध्यान उनसे होने वाले नुकसान की तरफ क्यों नही आकृष्ट किया जा सकता ? जब जनता को ऐसी खबरें देखने को  मिलेंगी तो उसके मन में आक्रोश भी पैदा होगा और सही समाधान ढूंढने की ललक भी पैदा होगी। आज हम टीवी बहसों में या अखबार की खबरों में भ्रष्टाचार के आरोप-प्रत्यारोपों वाली बहसें तो खूब दिखाते हैं पर किसी परियोजना के नफे -नुकसान को उजागर करने वाले विषय छूते तक नहीं। पौराणिक कहावत है- कुछ लोग दूसरों की गलती देखकर सीख लेते हैं। कुछ लोग गलती करके सीखते हैं और कुछ गलती करके भी नहीं सीखते। मीडिया को हर क्षण ऐसा काम करना चाहिए कि लोग त्रासदियों के दौर में ही संवेदनशील न बनें बल्कि हर क्षण अपने परिवेश और पर्यावरण के विरुद्ध होने वाले किसी भी काम को, किसी भी हालत में होने न दें। तभी मीडिया लोकतंत्र का चैथा खम्बा कहलाने का हकदार बनेगा और तभी उत्तराखंड जैसी त्रासदियों को समय रहते टाला जा सकेगा। 

Monday, July 1, 2013

प्राकृतिक आपदा के बहाने क्या-क्या ?

उत्तराखंड में बाढ़ की विभीषिका की खबरें आना जारी हैं। इस आपदा की तीव्रता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2 हफ्ते बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि विभीषिका में कितनी जानें गयी। लेकिन हद की बात यह है कि उत्तराखंड की इस आपदा को लेकर कुछ लोग राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
 
राजनीति के अलावा मीडिया का रुख और रवैया दूसरा पहलू है। तबाही के तीन दिन बाद से यानि 10 दिन से मीडिया भी उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा की करुण व्यथा के चित्र दिखा रहा है। इन वीभत्स और भयानक दृश्यों के जरिये कुल मिलाकर एक ही बात बतायी जाती है कि इस आपदा की विभीषिका के असर को कम करने में प्रशासन नाकाम रहा। शुरु में जिला स्तर के प्रशासन की लाचारी की बातें उठीं और बाद में प्रदेश स्तर पर शासन और प्रशासन की बेबसी की बातें होने लगीं। आज यानि 2 हफ्ते बाद भी उत्तराखंड में राजनीतिक विपक्ष और मीडिया सरकार को कटघरे में खडा कर रहा है। वैसे इस आपदा के विश्वसनीय आंकडे अभी तक किसी के पास नहीं है। सरकारी स्तर पर यानि दस्तावेजों की जानकारी के मुताबिक अब तक 1 हजार लोगों के मारे जाने का अनुमान है। उधर विपक्ष और मीडिया इससे 10 गुना ज्यादा लोगों की मौत का अंदाजा बता रहा है। इसके साथ ही 3 से 7 हजार लोगो की लापता होने की भी जानकारियां दी जा रहीं हैं। इस आपदा को लेकर टीवी चैनलों और अखबारों में खूब बहस और नोंक-झोंक हो रहीं हैं। क्या हमें इन बहसों के मकसद पर भी ध्यान नहीं देना चाहिए ? इस आपदा के बारे में सोचें तो तीन बातें सामने आतीं हैं। पहली ये कि हम इस प्रकृतिक आपदा से कुछ सबक ले सकें और भविष्य में आपदा से बचने के लिए कोई विश्वसनीय व्यवस्था कर सकें। यानि ऐसा कुछ कर पायें जो आपदा प्रबंधन व्यवस्था को सुनिश्चित कर सके। दूसरी बात यह है कि प्रशासन को कटघरे में लाकर उसे जबाबदेह बनाने का इंतजाम कर सकें। और तीसरी बात यह है कि शासन को घेरकर जनता को यह बताने की कोशिश करें कि आपदा के बाद की स्थिति से निपटने में आपकी सरकार नाकाम रही। लेकिन यहां सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या विगत में ऐसी आपदाओं से हमने कोई सबक नहीं लिया था? इस बारे में कहा जा सकता है कि आपदा प्रबंधन को लेकर पिछले 2 सालों से जिला स्तर तो क्या बल्कि तहसील स्तर पर भी जोर-शोर से कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं। लेकिन ये कोशिशें जागरूकता अभियान चलाने के आगे जाती नहीं दिखीं। अब सवाल यह है कि क्या देश के 600 जिलों के लिए हम 2 लाख करोड़ रुपये का अलग से इंतजाम करने की स्थिति में हैं ? उत्तराखंड की इस विभीषिका का पूर्वानुमान करते हुए क्या कोई आपदा प्रबंधन व्यवस्था बनाने में हम आर्थिक रुप से समर्थ हैं ? सवाल यहीं नहीं खत्म होते क्योंकि ऐसी प्राकृतिक आपदा के खतरे के दायरे में उत्तराखंड के अलावा 100 से ज्यादा इलाके आते हैं।
 
जलवायु विशेषज्ञांे को पता होता है कि विलक्षण जलवायु विविधता वाले भारत वर्ष में कैसी संभावनाएं और अंदेशे हैं। उन्हें यह भी पता होता है कि जलवायु संबधी अध्ययनों मे 75 साल के आंकडों के आधार पर ही हमें अपना नियोजन करना चाहिए। लेकिन देश भर में यह स्थिति है कि 25 साल के आंकडों के आधार पर ही नियोजन होने लगा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प के लिहाज से अंदेशों वाले इलाकों में नदियों के किनारे की जमीन पर निर्माण हो रहे हैं। तालाबों को पाटकर वहां बस्तियां बसायी जा रही हैं। यानि बारिश के पानी को वहीं रोककर रखने की पारम्परिक व्यवस्था भी टूट रही है। अगर इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता तो हमें ऐसी विपत्तियों से कौन बचा सकता है।
 
जब हम प्रकृति के स्वभाव को बदलने का कोई उपाय कर ही नहीं सकते तो हमारे पास एक ही उपाय बचता है कि हम अपने प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का प्रबंध और नियोजन प्रकृति की इच्छा के अनुरुप करना सीखें। हमें फौरन 75 या 100 साल के पिछले आंकडों के हिसाब से नियोजन करना होगा। नदियों के किनारे बनाए गये निर्माणों और वहां बसायी गयी बस्तियों पर फौरन गौर करना होगा। उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा से हमें यह साफ संदेश मिल रहा है, कि हम अपनी छोटी-बडी नदियों के पाटों का पुनःनिर्धारण कर लें। देश में उत्तराखंड की इस आपदा से हमें यह सबक भी मिल रहा है कि वर्षा के जल का स्थानीय तौर पर ही प्रबंधन करना बुद्धिमत्तापूर्ण है। इसके लिए यह सुझाव भी दिया जा सकता है, कि देश में पारम्परिक तौर पर मौजूद 10-12 लाख तालाबों की जलधारण क्षमता की बहाली करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। लगे हाथ यह भी याद दिलाया जा सकता है, कि टिहरी बाध की जलधारण क्षमता के कारण ही उत्तराखंड की विभीषिका के और ज्यादा भयानक हो जाने की स्थिति से हम बच गये हैं। इन सब बातों के मद्देनजर हमें अपनी नीतिओं और नियोजन के तरीके पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है।

Monday, May 27, 2013

अखिलेश यादव को गुस्सा क्यों आता है ?


पिछले दिनों उद्यमियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में चल रही लालफीताशाही के लि़ए आलाअफसरों को जिम्मेदार ठहराया। उन्हें नसीहत दी कि वे अपने अधिनस्थ बाबूओं के बहकावे में न आयें और बिना देरी के तेजी से निर्णय लें। यह पहली बार नही है जब युवा मुख्यमंत्री ने अपने अधिनस्थ आलाअफसरों को इस तरह नसीहत दी हो। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही मुख्यमंत्री व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी अफसरशाही के ढीलेपन पर बार- बार सार्वजनिक बयान देते रहे हैं। उनका यह गुस्सा जायज है क्योंकि बहन जी के शासनकाल में अफसरशाही बहन जी के सामने पत्त्त्ते की तरह कांपती थी। अखिलेश यादव की भलमनसाहत का बेजा मतलब निकाल कर अब उ. प्र. की अफसरशाही काफी मनमर्जी कर रही है, ऐसा बहुत से लोगों का कहना है। ऐसा नहीं है कि पूरे कुए में भांग पड़ गयी हो। काम करने वाले आज भी मुस्तैदी से जुटे हैं। अफसरों के मुखिया प्रदेश के मुख्य सचिव होते हैं। जो खुद काफी सक्षम और जिम्मेदार अफसर हैं। पर सरकार की छवि अगर गिर रही है तो मुख्यमंत्री इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। पर क्या सारा दोष अफसरशाही का ही है या राजनैतिक नेतृत्व की भी कुछ कमी है।

सुप्रसिद्ध आईसीएस रहे जे सी माथुर ने 30 वर्ष पहले एक लेखमाला में यह लिखा था कि जब तक में इस तंत्र में अफसर बनकर रहा, मेरी हैसियत एक ऐसे पुर्जे की थी जिसके न दिल था न दिमाग। हालात आज भी बदले नही हैं। लकीर पीटने की आदी अफसरशाही लालफीताशाही के लिए हमेशा से बदनाम रही हैं। अपना वेतन, भत्तें, पोस्टिंग, प्रमोशन और विदेश यात्राएं ही उनकी प्राथमिकता में रहता है। जिस काम के लिए उन्हें तैनात किया जाता है वह बरसों न हो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने कहा था कि अफसरशाही घोडे की तरह होती है जिसे चलाना सवार की क्षमता पर निर्भर करता है। अखिलेश यादव को चाहिए कि महत्वपूर्ण विभागों में ऐसे चुने हुए अफसर तैनात करें जिनकी निर्णय लेने की और काम करने की क्षमता के बारे में कोई संदेह न हो। उन्हें आश्वस्त करे कि वे जनहित में जो निर्णय लेंगे उस पर उन्हें मुख्यमंत्री का पूरा समर्थन मिलेगा। केवल फटकारने से या सार्वजनिक बयान देने से वे अपने अफसरों से काम नहीं ले पायेगें।

देश के कई प्रदेशों में तबादलों की स्पष्ट नीति न होने के कारण अफसरशाही का मनोबल काफी गिर जाता हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार का रिर्काड अभी तक प्रभावशाली नहीं रहा। जितनी तेजी से और जितने सारे तबादले उ. प्र. शासन ने बार-बार किये जाते हैं उससे कार्यक्षमता सुधरने की बजाय गिरती जाती हैं। जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, सीडीओ व विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्ष वे अधिकारी होते हैं जो उत्तर प्रदेश में जनता का हर वक्त सामना करते हैं। इन्हें अगर ताश के पत्तों की तरह फेंटा जाता रहेगा तो सरकार कुछ भी नहीं कर पायेगी और उससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा। इनकी कार्य अवधि निश्चित की जानी चाहिए और समय से पहले इनके तबादले नहीं होने चाहिए। चार दिन पहले जिसे मथुरा का जिलाधिकारी बनाया जाता है उसे चार दिन के भीतर ही गोरखपुर का जिलाधिकारी बनाकर भेज दिया जाता है। अगर उसे उसके निकम्मेपन के कारण हटाया गया तो फिर वह दूसरे जिले में काम करने के योग्य कैसे हो गया ? इससे पहले कि वह अपना जिला और उसकी समस्याएं समझ पाता, उसे रवाना कर दिया जाता है। यह कैसी नीति है ?

दूसरी तरफ ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं जो धडल्ले से यह कहते हैं कि हम अपने मंत्री को मोटा पैसा देकर यहां आये हैं तो हमे किसी की क्या परवाह। यह दुखद स्थिति है पर नई बात नहीं। पहले भी ऐसा होता आया है। जिसका निराकरण किया जाना चाहिए। अखिलेश अभी युवा हैं और उनका लम्बा राजनैतिक जीवन सामने है। अगर उन्होने स्थिति को नहीं संभाला तो उनके लिए भविष्य में चुनौतियां बढ सकती हैं। अखिलेश को चाहिए की कार्पोरेट जगत की तरह एक ‘पब्लिक रेस्पोंस‘ ईकाई की स्थापना अपने सचिवालय मे करें । जिसमे उत्तर प्रदेश के पूर्व अधिकारी रहे राकेश मित्तल (कबीर मिशन) जैसे अधिकारियों की सरपरस्ती में कर्मठ युवा अधिकारियों की एक टीम केवल सचिवालय की कार्यक्षमता और कार्य की गति बढाने की तरफ ध्यान दें और जनता और सरकार के बीच सेतु का कार्य करें। इस ईकाई को सभी विभागों पर अपने निर्णय प्रभावी करवाने की ताकत दी जाये। इससे सरकार की छवि में तेजी से सुधार आयेगा। केवल फटकारने से नहीं। अच्छा काम करने वालों को अगर बढावा दिया जायेगा और उनके काम की सार्वजनिक प्रशंसा की जायेगी तो अफसरों में अच्छा काम करने की स्पर्धा पैदा होगी।

Friday, May 3, 2013

Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures


May 3rd 2013
To
Hon’ble Chief Justice of India & his brother Judges
Supreme Court of India
New Delhi

Through
Registrar General
Supreme Court of India
New Delhi

Written Submissions in the matter titled
Manohar Lal Sharma Vs. The Principle Secretary & Others
Writ Petition (Criminal) 120 / 2012


Widening the role of CVC and insulating CBI from extraneous pressures

Your Lordships !

Your observations in the above matter regarding the functioning of CBI in reference to the 1997 judgement (Vineet Narain Vs. Union of India) of this Hon’ble Court has encouraged me to submit this written submission for your kind perusal and for consideration.

Your Lordships ! twenty years ago, when I petitioned in this Court, against the criminal negligence of CBI in a militancy and corruption related Jain Hawala Case, my expectation was that under the monitoring of the Apex Court, CBI, DRI and Income Tax agencies will do their duties to ensure proper investigations and will take the case to its logical conclusions. This was the time when there were no 24x7 TV channels, email and SMS facilities to mobilize public opinion on issue of corruption and militancy. Hence in 1993 it was a difficult fight against the 115 most powerful people of this country.

Due to the initiative of this Court, the matter did progress to some extent, but for various reasons, could not reach to its logical conclusions. For example 22 names mentioned in the Jain Diary have not been de-coded / deciphered, by the CBI till this date, when the author of the same is easily available to decode the same. Who knows that these payees could be hardened militants, narcotic operators or powerful people? Two affidavits filed by the petitioner (Vineet Narain Vs. Union of India case no. 340-43 of 1993) dated 08.04.1995 & 09.01.1996 were never answered by the CBI with the result the concerned file of the CBI was concealed from this Court. The evidence regarding the dilution of investigation and the manner in which the beneficiaries in the diary were saved is available in black & white but not a single delinquent official of the CBI responsible for inaction from June 1991 to March 1995 was even asked to explain his conduct which was adversely commented by the Apex Court in very strong words. In other words all the delinquents were saved rather rewarded. Inspite of intervention of this Hon’ble Court, the CBI, who kept the investigation in cold storage for more than 40 months ultimately succeeded in their original plan when all the accused persons were saved. However, the ‘famous’ judgement was pronounced, which gave the hope to the nation that things will change in future.

As Your Lordships have rightly observed that even after 15 years, nothing substantial has happened to make the investigating agencies free from the political interference. As pointed out above had the delinquents been punished, the misconduct could not have been repeated. In the absence of any deterrence the agency would continue to disregard the directions of the Apex Court with impunity. Inputs in the present Coalgate Case clearly establish that the law officers appearing for CBI tow the line of the investigating agency, forgetting that they are required to assist the Hon’ble Court in arriving at the truth. As pointed out above, the role of the law officers in the Hawala Case certainly helped the CBI in concealing the truth from the Apex Court. Therefore the appointment of law officers in the CBI also deserves to be reviewed.
The famous judgement has been sidelined by creating a toothless CVC. Hence, it is very important for the nation that Your Lordships’ review the situation and issue further guidelines to ensure effective implementation of the 1997 judgement. However, based on my experience of fighting corruption at the highest levels of governance, I would like to submit some suggestions and observations, which may assist this Hon’ble Court.
1.    The CVC Act should be amended providing for a 5/7 member Central Vigilance Commission which could broadly assume the role visualized for the Lokpal. The selection process of the CVC members could be made more broad based to prevent favorites or controversial persons from being appointed. Presently, three members are drawn from IAS, IPS and Banking services. However, it should include one retired judge of the Supreme Court appointed by the CJI in consultation with next four senior most judges. Since, legislative wing of our democracy is very important for the matters of governance, it would be worthwhile to include one Member of Parliament, selected from those, who have been the members of the either house for the longest duration. In addition to this two to three members should be of engineering expertise, to assess the scams like commonwealth games and one from the background of Chartered Accountancy to examine the financial scams. These selections should be made as transparent as possible. Co-opting a representative of Civil Societies will create unnecessary controversy because of their diverse backgrounds and agendas, hence, the role of Civil Society should be to generate awareness and act as a pressure group only.

2.    The CVC should constitute an Advisory Committee of at least 11 members drawn from the Criminologists and Forensic Science experts. This will augment the professional input in their functioning. Furthermore, to reduce the burden on CVC, it should be given the power to outsource any expert or professional to assist it in screening the loads of complaints.

3.    The jurisdiction of CVC, which presently covers all employees of the Central Govt. and the CPSUs, should remain unchanged. Already there is an administrative arrangement to delegate the vigilance administration over class II and lower formations to the ministries/departments concerned. However, if the lower formations are involved with the class I officers in a composite case, the CVC exercises a natural jurisdiction over all of them. To make this arrangement more effective, it would be important that the CVC exercises complete control over the selection, appointment and functioning of the CVOs.

4.    The CVC should have adequately experienced team to technically examine and assess the gravity of a complaint, which can then be assigned to CBI for investigation or can be investigated by this team. After assessing a complaint by this broad-based CVC, there should be no necessity to seek prior permission from the govt.

5.  In the cases assigned to it by the CVC, the CBI should be made functionally and financially independent of the controls of any Govt. Ministry/Department. The professional supervision over the investigations of CBI should rest only with the CVC and its nature should be decisively improved from what exists today.

6.    The methodology of appointment of the Director CBI should be similarly broad based as in the case of the CVC members, whereas the other inductions/appointments in the CBI should be brought under the overarching supervision of the CVC.

7.    For achieving better synergy between the Anti Corruption Laws and grievance handling, the laws relating to the whistleblowers and grievance redressal should be placed within the jurisdiction of the CVC.

8.  Effective administration of anti corruption laws at the grass roots level is the key to responsible governance. The state and their anti corruption agencies would therefore require to be equally insulated from the State Government’s interference on similar patterns.

Vineet Narain
Sr. Journalist and Petitioner in case titled WP340-43/93 in the Supreme Court of India
C-6/28, SDA, Hauz Khas, New Delhi – 110016

Monday, April 22, 2013

क्यों संवेदनाशून्य है हमारी पुलिस ?

5 साल की गुड़िया के साथ दरिन्दों ने पाश्विकता से भी ज्यादा बड़ा जघन्य अपराध किया पर दिल्ली पुलि
स के सहायक आयुक्त ने 2 हजार रुपये देकर गुड़िया के माँ-बाप को टरकाने की कोशिश की । जब जनआक्रोश सड़कों पर उतर आया तो प्रदर्शनकारी महिला को थप्पड़ मारने से भी गुरेज नहीं किया। इतनी संवेदनशून्य क्यों हो गयी है हमारी पुलिस ? जब जनता के रक्षक ऐसा अमानवीय व्यवहार करें तो जनता किसकी शरण मे जायें ?
आज देश बलत्कार के सवाल पर उत्तेजित है। चैनलों और अखबारों मे इस मुद्दों पर गर्मजोशी मे बहसें चल रही हैं । पर यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा कि बलात्कारी कौन हैं ? क्या ये सामान्य अपराधी हैं जो किसी आर्थिक लाभ की लालसा में कानून तोड़ रहे हैं या इनकी मानसिक स्थिति बिगड़ी हुई है। अपराध शास्त्र के अनुसार ये लोग मनोयौनिक अपराधी की श्रेणी में आते हैं। जिनकों ठीक करने  के लिए दो व्यवस्थायें हैं। पहली जब इन्हें अपराध करने के बाद जेल में सुधारा जाय और दूसरी इन्हें अपराध करने से पहले सुधारा जाय। आजादी के बाद हमने व्यवस्था बनाई थी कि हम अपराधी का उपचार करेगें। लेकिन गत 65 वर्षों में हम इसका भी कोई इतंजाम नही कर पाये। तमाम समितियों और आयोगों की सिफारिशें थी कि जेलों में दण्डशास्त्री हुआ करेगें। लेकिन आज तक इनकी नियुक्ति नहीं की गई। इनका काम भी जेलो मे रहने वाले पुलिसनुमा कर्मचारी ही कर रहे हैं । जब गिरफ्तार होकर जेल मे कैद होने वाले अपराधियों के उपचार की यह दशा है तो जेल के बाहर समाज मे रहने वाले ऐसे अपराधियों के सुधार का तो खुदा ही मालिक है। 1977 में जेलों से सजा पूरी करके छूटे लोगों का अध्ययन करने पर चैंकाने वाले तथ्य सामने आये हैं। जेलों मे रखकर अपराधियों के सुधार के जो दावे तब तक किये जा रहे थे, वे खोखलें सिद्ध हुए। इस स्थिति में आज तक कोई बदलाव नही आया है। ऐसा क्यों हुआ ? इसका एक ही जवाब मिलता है कि हमारे पास अपराधियों के उपचार (सुधार) में सक्षम व अनुभवी विशेषज्ञों का नितांत अभाव है। फिर कैसे घटेगी बलात्कार की घटनायें।
जब-जब देश में कानून व्यवस्था की हालत बिगड़ती हैं। तब-तब पुलिसवालें जनता के हमले का शिकार बनते हैं। सब ओर से एक ही मांग उठती है कि पुलिस नाकारा है, पर यह कोई नहीं पूछता कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ ? क्यों हम आज भी आपिनवेशिक पुलिस व्यवस्था को ढ़़ो रहे हैं ? 30 वर्ष पहले इस आयोग की एक अहम सिफारिश थी कि पुलिस के प्रशिक्षण को प्रोफेशनल बनाया जाये। उन्हें अपराध शास्त्र जैसे विषय प्रोफेशनलों से सिखाये जायें। जबकि आज पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों में जो लोग नवनियुक्त पुलिस अफसरों को ट्रेनिंग देते हैं, उन्हें खुद ही अपराध शास्त्र की जानकारी नहीं होती। अपराध के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष को जाने बिना हम समाधान नहीं दे सकते। इसलिए पुलिस प्रशिक्षण के संस्थानों मे जाने वाले नौजवान अधिकारी अपने प्रशिक्षण मे रुचि नहीं लेते। भारतीय पुलिस सेवा का प्रोबेशनर तो आई. पी. एस. मे पास होते ही अपने को कानूनविद् मानने लगते हैं । उसकी इन पाठयक्रमों में कोई जिज्ञासा नहीं होती। हो भी कैसे जब उसे प्रशिक्षण देने वाले खुद ही अपराध शास्त्र के विभिन्न पहलूओं को नहीं जानते तो वे अपने प्रशिक्षणार्थियों को क्या सिखायेंगे ?
देश में अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ थोक में नहीं मिलते। जो हैं उनकी कद्र नहीं की जाती। इंड़ियन इस्टीटयूट ऑफ क्रिमिनोलोजी एण्ड फोरेन्सिक साइंसिज दिल्ली में ऐसे विशेषज्ञों को एक व्याख्यान का मात्र एक हजार रुपया भुगतान किया जाता है। जबकि कार्पोरेट जगत में ऐसे विशेषज्ञों को लाखों रुपये का भुगतान मिलता है जो उनके अधिकारियों को ट्रेनिंग देते हैं। सी. बी. आई. ऐकेडमी का भी रिकार्ड भी कोई बहुत बेहतर नहीं है। जबकि अपराध शास्त्र एक इतना गंभीर विषय है कि अगर उसे ठीक से पढ़ाया जाये तो पुलिसकर्मी व अधिकारी अपना काम काफी संजीदगी से कर सकते हैं। वे एक ही अपराध के करने वालों की भिन्न-भिन्न मानसिकता की बारीकी तक समझ सकते हैं। वे अपराध से़ पीड़ित लोगों के साथ मानवीय व्यवहार करने को स्वतः पे्ररित हो सकते हैं। वे अपराधों की रोकथाम में प्रभावी हो सकते हैं । पर दुर्भाग्य से केन्द्र और राज्य सरकारों के गृह मंत्रायालयों ने इस तरफ आज तक ध्यान नहीं दिया। पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण के कार्यक्रम तो देश मे बहुत चलाये जाते हैं, बड़े अधिकारियों को लगातार विदेश भी सीखने के लिए भेजा जाता है, पर उनसे पुलिस वालों की मनोदशा व गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता।

Monday, January 14, 2013

सिर्फ नारों से नहीं बनेगा उत्तम प्रदेश

पिछले दिनों कई मंचों पर उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बार-बार दोहराया है कि वे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाना चाहते हैं। पर क्या ऐसा होना सिर्फ नारों से सम्भव है?
उत्तर प्रदेश का प्रशासनिक तंत्र पिछले दो दशकों में बुरी तरह चरमरा गया था। जिसे मायावती ने अपने डण्डे के जोर पर नियन्त्रित करने की कोशिश की। उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश की नौकरशाही बहनजी के आगे थरथर कांपती थी। इसका पूरा फायदा मायावती ने उठाया। अपनी महत्वकांक्षी योजनाओं को उन्होंने डण्डे के जोर पर समयबद्ध तरीके से पूरा करवा लिया। फिर चाहे वो अम्बेडकर पार्क हो, कांशीराम पार्क हों या उनकी अन्य वैचारिक योजनाऐं। लेकिन इसका अधिक लाभ आम जनता को नहीं मिला। क्योंकि नौकरशाही केवल उन्हीं कार्यक्रमों को प्राथमिकता देती थी, जिन पर बहनजी की नजर थी।
जबसे अखिलेश यादव ने सत्ता संभाली है, तब से स्थिति बदल गयी। नए विचारों के, ऊर्जावान और युवा अखिलेश ने प्रशासनिक तंत्र को शुरू से ही भयमुक्त कर दिया। उनका उद्देश्य रहा होगा कि ऐसा करने से सक्षम अधिकारी स्वतंत्रता से निर्णय ले सकेंगे। पर अभी तक इसके वांछित परिणाम सामने नहीं आये हैं। एक तो वैसे उत्तर प्रदेश में साधनों का अभाव है, दूसरा प्रशासन तंत्र अब हर तरह के नियन्त्रण और जबावदेही से मुक्त है। तीसरा उत्तर प्रदेश में सत्ता के चार केन्द्र बने हैं। नतीजतन नौकरशाही किसी एक केन्द्र की शरण लेकर बाकी को ठेंगा दिखा देती है। ऐसे में कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
संसाधनों की कमी को दूर करने के लिए दो तरीके हैं। एक तो मौजूदा संसाधनों का प्रभावी तरीके से प्रयोग हो और दूसरा बाहर से संसाधनों को आमंत्रित किया जाऐ। जहाँ तक उपलब्ध साधनों के इस्तेमाल की बात है, उत्तर प्रदेश की नौकरशाही संसाधनों का दुरूपयोग करने में किसी से कम नहीं। फिर वो चाहे मायावती का शासन रहा हो या अखिलेश यादव का। विकास की जितनी भी योजनाऐं बन रही हैं, उन्हंे बनाने वाली वह निचले स्तर की नौकरशाही है, जिसे न तो स्थानीय मुद्दों की समझ है, न उसके पास आधुनिक ज्ञान व दृष्टि है और न ही कुछ अच्छा करके दिखाने की इच्छा। होता यह है कि मुख्यमंत्री कोई घोषणा करते हैं तो मुख्य सचिव सचिवों की बैठक बुला लेते हैं। सचिवों को लक्ष्य दे दिए जाते हैं। वे अपने अधीनस्थों से योजनाऐं बनवा लाते हैं और अगली बैठक में उन योजनाओं को पास करवा लेते हैं। इन योजनाओं को बनाते वक्त न तो स्थानीय जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है और न ही इन सबसे होने वाले लाभ या नुकसान पर। एक लम्बी फेहरिस्त है जहाँ ऐसी सैंकड़ों करोड़ की योजनाऐं बन चुकी हैं और लागू भी हो चुकी हैं जिनमें सीमित साधनों की असीमित बर्बादी हो रही है। फिर वो चाहें पर्यटन विभाग की योजनाऐं हों, नगर विकास की हों, ग्रामीण विकास की हों या सड़क विभाग की। सबमें मूल भावना यही निहित रहती है कि इस योजना में कितना ज्यादा से ज्यादा माल उड़ाया जा सकता है।
जैसा हमने पहले कहा कि तमाम सख्ती के बावजूद मायावती की सरकार इस दुष्प्रवत्ति पर कोई अंकुश नहीं लगा पाई। इधर अखिलेश यादव की सरकार भी ऐसी मानसिकता से निपटने में अभी तक असफल रही है। स्वंय मुख्यमंत्री के अधीनस्थ विभागों में भी ऐसी योजनाओं पर धन आवण्टन हो रहा है, जिनसे कोई लाभ जनता को मिलने वाला नहीं है। पर बेचारे भोले-भाले मुख्यमंत्री शायद इस सबसे अनिभिज्ञ हैं या फिर उन्होंने अन्य सत्ता केन्द्रों के आगे हथियार डाल दिये हैं। दोनांे ही स्थिति में खामियाजा प्रदेश की जनता को भुगतना पड़ रहा है। देखते-देखते ऐसे ही पांच साल गुजर जाऐंगे और अगर यही हाल रहा तो तमाम बड़े दावों के बावजूद उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश नहीं बन पाऐगा।
साधनों की कमी दूर करने का दूसरा तरीका है बाहर से विनियोग आकर्षित करना। बाहर यानि देश के अन्य राज्यों से या विदेशों से। विदेशी निवेश तो उत्तर प्रदेश में आने से रहा। क्योंकि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनैतिक परिस्थितियां रास नहीं आतीं। देशी उद्योगपति भी उत्तर प्रदेश में विनिवेश करने से घबराते हैं। जबकि दूसरी तरफ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘वाइब्रेंट गुजरात’ का नारा देते हैं तो बड़े-बड़े निवेशकर्ता लाइन लगाकर भागे चले आते हैं। क्योंकि उन्हें नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक व्यवस्था पर भरोसा है। नरेन्द्र मोदी ने अपने प्रशासनिक तंत्र और अफसरशाही को यथासंभव पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाया है। अखिलेश यादव को भी उनका यह गुर सीखना होगा। ताकि वे अपने प्रशासन पर पकड़ मजबूत कर सकें और उसे जनता के प्रति जबावदेह बना सकें। ऐसा न कर पाने की स्थिति में देशी विनिवेशकर्ता भी उनके आव्हान को गंभीरता से नहीं लेंगे। फिर कैसे बनेगा उत्तम प्रदेश?
सारा दोष प्रशासन का ही नहीं, उत्तर प्रदेश की जनता का भी है। यहाँ की जनता जाति और धर्म के खेमों में बंटकर इतनी अदूरदृष्टि वाली हो गयी है कि उसे फौरी फायदा तो दिखाई देता है, पर दूरगामी फायदे या नुकसान को वह नहीं देख पाती। इसलिए अखिलेश यादव के सामने बड़ी चुनौतियां हैं। पर चुनाव प्रचार में जिस तरह उन्होंने युवाओं को उत्साहित किया, अगर इसी तरह अपने प्रशासनिक तंत्र को पारदर्शी और जनता के प्रति जबावदेह बनाते हैं, विकास योजनाओं को वास्तविकता के धरातल पर परखने के बाद ही लागू होने के लिए अनुमति देते हैं और प्रदेश के युवाओं को दलाली से बचकर शासन को जबावदेह बनाने के लिए सक्रिय करते हैं तो जरूर इस धारा को मोड़ा जा सकता है। पर उसके लिए प्रबल इच्छाशक्ति की आवश्यकता होगी। जिसके बिना नहीं बन सकेगा उत्तम प्रदेश।

Monday, December 24, 2012

मोदी की जीत से कॉंग्रेस को सबक

गुजरात के 47 फीसदी मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी के विकास के एजेण्डे पर स्वीकृति की मोहर लगा दी। मोदी के दावों के विरूद्ध काँग्रेस का प्रचार उसे मात्र 38 फीसदी वोट दिला पाया। मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में भी मोदी को मिले वोट ने यह सिद्ध कर दिया कि गुजरात का मतदाता जाति और धर्म के दायरों से बाहर निकलकर विकास के रास्ते पर बढ़ना चाहता है। मोदी ने मुसलमानों की प्रतीकात्मक टोपी भले ही न ओढ़ी हो, पर गुजरात की सड़कों पर अवैध रूप से बने मन्दिर और मस्जिद गिराकर यह संदेश साफतौर पर दे दिया था कि उनकी सरकार विकास के रास्ते में धर्मान्धता को प्राश्रय नहीं देगी। यह बात दूसरी है कि मोदी की इस पहल से विहिप और संघ दोनों मोदी से नाराज हो गऐ और उनके खिलाफ अन्दर ही अन्दर माहौल भी बनाने की कोशिश की। पर इस परिणाम ने उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया। संघ के नेतृत्व के लिए भी यह एक कड़ा संदेश है। अब तक संघ ने कभी भी मजबूत नेतृत्व को खड़ा नहीं होने दिया। जो उनके दरबार में हाजिरी दे, वही उनके लिए योग्य नेता होता है। चाहे फिर वो नितिन गडकरी ही क्यों न हो? कल्याण सिंह को विफल करने में संघ की यही मानसिकता जिम्मेदार रही।
रही बात मोदी के भविष्य की तो इस पर अनेक टी0वी0 चर्चा में चल ही रही है और अब 2014 तक चलेंगी भी। सबका यही मानना है कि मोदी को अपना तेवर और भाषा दोनों बदलनी पड़ेगी। फिर भी गारण्टी नहीं कि राजग के सहयोगी दल मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार मान लें। उससे पहले भाजपा के अन्दर भी संघर्ष कम नहीं होगा। पर अगर भाजपा मोदी के नेतृत्व का लाभ उठाना चाहती है, तो एक रास्ता है। वह अपने सहयोगी दलों से एक गुप्त समझौता कर ले। जिसका आधार यह हो कि भाजपा मोदी को अपना उम्मीदवार बनाकर आक्रामक प्रचार में जुटे और वो सहयोगी दल जो इससे सहमत न हों, अलग-अलग रहकर चुनाव लड़ें। जहाँ दोनों के बीच सीधा मुकाबला हो, वहाँ नूरा-कुश्ती लड़ ली जाए। मतलब जनता की निगाह में लड़ाई हो और वास्तव में मिलकर खेल खेला जाए। जैसे बड़े राजनेताओं के परिवारजनों को जिताने के लिए प्रायः विरोधी राजनैतिक दल भी कमजोर उम्मीदवार खड़ा करते हैं। इससे राजग के सभी दलों को अपनी ताकत अजमाने का मौका मिलेगा। लोकसभा चुनावों के परिणाम के बाद जिसके सांसद ज्यादा हों, वो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पेश कर सकता है। पर यह निर्णय इतने आसान नहीं होते। अनेक तरह के बाहरी दबाव दलों को और उनके नेताओं को झेलने पड़ते हैं। वैसे आज की तारीख में पूरा कॉरपोरेट जगत और व्यापारी समाज यह मानता है कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। जबकि देहात से जुड़ा तबका मोदी के इस स्वरूप से प्रभावित नहीं है।
इसका सीधा प्रमाण गुजरात के 49 फीसदी मतदाताओं ने दिया है। जिन्होंने मोदी के खिलाफ वोट दिया है। साफ जाहिर है कि विकास के दावों का भारी भरकम प्रचार और मोदी को मिला मीडिया का अतिउत्साही समर्थन भी गुजरात की 49 फीसदी मतदाताओं को आश्वस्त नहीं कर पाया। मतलब यह कि मोदी का विकास का दावा आम जनता ने नहीं स्वीकारा। यह बात दूसरी है कि अपने उसी टेंपो में मोदी ने जीत के बाद पहले हिंदी भाषण में पूरे देश के मतदाताओं को सम्बोधित किया और उन्हें रोजगार के लिए गुजरात आने का न्यौता दिया। यानि वे एक बार फिर इसी आक्रामक प्रचार शैली से देश के सामने अपनी नयी भूमिका के लिए खुद को प्रस्तुत करने वाले हैं।
काँग्रेस के लिए यह बड़ी चुनौती है। उस तरह नहीं, जिस तरह राजनैतिक विश्लेषक मीडिया पर बता रहे हैं। जो कि यह मान बैठे हैं कि मोदी का विकास का नारा चल गया। वे इस हकीकत को नजरअंदाज कर रहे हैं कि 49 फीसदी मतदाता मोदी के दावे से सहमत नहीं हैं। काँग्रेस इस बात का पूरा फायदा नहीं उठा पायी। अब उसके सामने चुनौती यह है कि वह देश के सामने इन तथ्यों को कैसे रखे कि जनता प्रचार के प्रभाव से बचकर निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके। बाकी देश की जनता गुजरातियों की तरह न तो उद्यमी है और न ही व्यापारी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात को छोड़कर पश्चिमी भारत से असम तक आम हिन्दुस्तानी अभी भी कृषि, छोटे कारोबार और सेवा सैक्टर से जुड़ा है। जिसके लिए न तो मोदी की भाषा और न तेवर का ही कोई महत्व है। मतदाताओं का यह वह विशाल वर्ग है जिसके लिए विकास का मतलब है छोटी-छोटी जरूरतों का पूरा होना। उसके जल, जंगल, जमीन का बचना। उसके लिए रोजगार का सृजन होना। ऐसे सभी कामों में तमाम आलोचनाओं के बावजूद काँगे्रस मोदी से पहले भी आगे थी और आज भी आगे है।
आम आदमी के हक में भाजपा के मुकाबले काँगे्रस ने हमेशा ही ज्यादा ठोस और जोखिम भरे फैसले लिए हैं। चाहें वो इन्दिरा गांधी के जमाने में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो या पंचायत राज या सीधे नकद सब्सिडी। काँग्रेस के सामने दो चुनौतियां हैं। एक तो यह कि वह अपनी इन योजनाओं को प्रभावी तरीके से लागू करने में जी-जान से जुट जाए। कोई कोताही न होने दे। अफसरशाही पर अपनी नकेल कसे। प्रशासन को जनोन्मुखी बनाऐ। दूसरी चुनौती यह है कि मोदी की तरह ही वह अपनी उपलब्धियों का आक्रामक तरीके से प्रचार करें।
ये चुनावी दंगल का वर्ष है। राजग और सप्रंग दोनों अपने खम्भ ठोकेंगे। कमजोरियों और उपलब्धियों में दोनों में से कोई किसी से कम नहीं है। जनता इस तमाशे को देखेगी और जिसका सन्देश उसके दिल में उतरेगा, उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठा देगी।

Monday, December 10, 2012

देश में हलचल क्यूँ मची हुई है

देश में हलचल मची है। खासतौर पर सरकारी नीतियों को लेकर मीडिया और विपक्ष सक्रिय हो उठा है। लेकिन मुद्दे जल्दी जल्दी आ और जा रहे हैं। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा मुख्य मुद्दा है क्या? ऐसे हालात में मीडिया की तरफ से एक शब्द आया है- पॉलिसी पैरालिसिस! इसकी हिन्दी करना भी मुश्किल हो रहा है। विशेषज्ञ बता रहे हैं कि पिछले तीन-चार महीनों में इस शब्द का चलन अचानक बढ़ गया है।
दरअसल इस शब्द का प्रयोग ज्यादातर कॉरपोरेट जगत कर रहा है। जिसका आरोप है कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में सोच और नीतियों को लेकर एकरूपता नहीं है। अवसरशाही नाहक निर्णयों को लम्बा खींच रही है। देश में विनियोग करने का वातावरण खत्म होता जा रहा है। मजबूरन भारत के बड़े औघोगिक घरानों को दूसरे देशों में विनियोग की संभावनाऐं तलाशनी पड़ रही हैं।
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि लोकतंत्र में सरकार की जबावदेही आमजनता के प्रति ज्यादा होती है। इसलिए कॉरपोरेट जगत की इस शिकायत को सही मानते हुए भी हमे देखना होगा कि क्या वाकई सरकार हर मामले में इतनी ढीली पड़ गयी है कि उसके लिए ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ का नामकरण किया जाऐ?
ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह कि ‘नीतिगत फॉलिश’ मारा जाना या ‘नीतिगत पक्षाघात’ से कोई अर्थचित्र नहीं बन पा रहा है। नीति में दोष तो हो सकता है, लेकिन नीति को ‘फॉलिश’ मारने की कोई स्थिति समझ में नहीं आती। जितने भी लोगों के बीच इस शब्द को लेकर अनौपचारिक बातचीत हो रही है, वे कहना तो यही चाह रहे हैं कि सरकार की नीतियाँ समझ में नहीं आ रही हैं। यदि उन्हें यही कहना है तो वे सरलता से कह सकते हैं कि नीतियों में ‘स्पष्टता’ नहीं है। लेकिन यह बात कही इसलिए नहीं जा सकती क्योंकि आजादी के बाद देश में पहली बार सरकार की नीतियों को लेकर इतनी तीव्रता और सघनता से बहस हो रही है और नीतियों का विरोध हो रहा है - इसलिए कोई नहीं कह सकता कि नीतियाँ समझ में नहीं आ रहीं। खासतौर पर सब्सिडी को सीधे लाभार्थी को दिए जाना और खुदरा में एफ.डी.आई. को शुरू किए जाना, ऐसी नीतियाँ या उपाय हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है। इन नीतियों के कार्यान्वयन में अब कानूनी तौर पर कोई अड़चन नहीं दिखती। बस वे अन्देशे दिखते हैं जिन्हें मीडिया और नीति विरोधी शक्तियाँ दिखा रही हैं। इसलिए इस पर विचार करने की जरूरत है।
गांवों तक सब्सिडी के रूप में हर जरूरतमंद को सीधे धन पहुँचाने की नीति को लेकर सबसे ज्यादा हलचल है। इसके विरोध में आमतौर पर एक तर्क यह दिया जा रहा है कि यह देश के बहुत बड़े तबके (आम मतदाता) को घूस देने की कोशिश है। विपक्ष के इस आरोप के जबाव में सरकारी विशेषज्ञों का कहना है कि आजादी के बाद से आज तक हर सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि अन्तिम व्यक्ति तक मदद कैसे पहुँचे? जितनी नीतियां और कार्यक्रम अन्तिम व्यक्ति के लिए बने, उन सबको नौकरशाही और बिचैलिए खा गए। यह पहली बार है कि अब इन सबकी कोई भूमिका नहीं रही। आम आदमी सीधे लाभ उठा सकेगा। इसी से विरोधियों में घबराहट है कि अगर ऐसा हो गया तो फिर इसकी टक्कर में उनके पास क्या बचा? इससे यह तो साफ है कि सरकार की नीति में कोई शैथिल्य नहीं है। वह जो चाह रही है, धड़ल्ले से कर रही है। हां, यह बात जरूर है कि जैसा दावा सरकार कर रही है, वैसा लाभ क्या वाकई आम आदमी को मिल पाऐगा? तो फिर यह तो क्रियान्वयन की संभावनाओं पर संशय वाली स्थिति हुई। इसमें नीतिगित शैथिल्य कहाँ से आया?
एफ.डी.आई. ऐसी दूसरी नीति है। संसद में लगातार चार दिन की बहस में इस नीति के लगभग हरेक पक्ष पर खूब बातचीत हुई है। कुल मिलाकर इसके विरोध में एक ही तर्क दिया गया कि किराना या खुदरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लगभग 20-25 करोड़ लोगों का क्या होगा? लेकिन यह बात किसी ने नहीं उठाई, सरकार ने भी नहीं, कि अगर यह प्रयोग सफल हो जाता है तो आज खुदरा व्यापार में शोषित हो रहे श्रमिकों और कर्मचारियों की दशा में कितना गुणात्मक सुधार आ जाऐगा? वैसे भी हैरत की बात यह है कि शुरूआत में यह सिर्फ 10 लाख से ज्यादा आबादी के 53 शहरों तक ही सीमित थी और बाद में राजनीतिक परिस्थितियों में निकलकर यह आया कि शुरूआती तौर पर इसका प्रयोग या क्रियान्वयन सिर्फ 15 शहरों में हो पाऐगा। यानि 15 शहरों से प्रायोगिक तौर पर शुरू की जा रही इस नीति का कार्यान्वयन होना है। जिसे लेकर कोई भी कह सकता है कि इसके नतीजों को देखकर ही इसके आगे जाने की सम्भावनाऐं बनेंगी। हाँ, यह तय हो गया है कि ये दोनों नीतियां जल्दी ही शुरू होनी हैं। बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि बगैर ज्यादा शोर मचे ये दोनों काम शुरू हो चुके हैं। यानि ‘नीतिगत शैथिल्य’ का प्रश्न अब प्रासंगिक हुआ नहीं दिखता।
जहाँ तक औघोगिक जगत का आरोप है, वहाँ वाकई सरकार की जबावदेही बनती है। पर केन्द्र की ही क्यों, राज्यों की सरकारें भी कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाई हैं। पिछले दशक में केवल तीन मुख्यमंत्री ऐसे रहे हैं, नरेन्द्र मोदी, शीला दीक्षित और मायावती जिन्होंने अपनी नौकरशाही पर पकड़ बनाई है। वर्ना राज्य हों या केन्द्र, नौकरशाही आज भी इतनी ताकतवर है कि वो जनता और नेता दोनों को मूर्ख बना रही है। नेता राजनैतिक निर्णय ले या भ्रष्ट आचरण करे तो माना जा सकता है कि यह चुनावी व्यवस्था की मजबूरी है, जहाँ उसका भविष्य अनिश्चित रहता है। पर सुरक्षित वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार का स्थायी अंग बनी नौकरशाही क्यों गलत होने देती है? क्यों सही का समर्थन नहीं करती? क्यों अपने से बेहतर विचारों ओैर कार्यक्रमों को स्वीकारने में उसके अहम को चोट लगती है? जब सबकुछ मिला है तो वो क्यों भ्रष्ट हो जाती है? आज देश में इस झंझट में से निकलकर प्रगति के रास्ते पर चलने का माहौल बनना चाहिए। जिसका एक बड़ा हिस्सा होगा कि जनता नौकरशाही की जबावदेही के लिए पूरा दबाव बनाऐ। फिर जनता में चाहें रतन टाटा हों या मध्यम वर्ग या आम इंसान।

Monday, October 8, 2012

क्या होगा रॉबर्ट वाड्रा के खुलासे का असर

पिछले दो सालों से एसएमएस और इंटरनेट पर यह संदेश बार-बार प्रसारित किये जा रहे थे कि रॉबर्ट वाड्रा ने डीएलएफ के मालिक, हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हूडा व अन्य भवन निर्माताओं से मिलकर दो लाख करोड़ रुपये की सम्पत्ति अर्जित कर ली है। पर जो खुलासा शुक्रवार को दिल्ली में किया गया उसमें मात्र 300 करोड़ रुपये की सम्पत्ति का ही प्रमाण प्रस्तुत किया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में बाकी की सम्पत्ति का भी खुलासा होगा। अगर नहीं होता है तो यह चिन्ता की बात है कि बिना प्रमाणों के आरोपों को इस तरह पूरी दुनिया में प्रचारित कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि अगर राबर्ट वाड्रा ने अपनी सास श्रीमती सोनिया गांधी के सम्बंधों का दुरुपयोग करके अवैध सम्पत्ति अर्जित की है तो उसकी जांच होनी चाहिए। पर यहां कुछ बुनियादी सवाल उठते हैं जिनपर ध्यान दिया जाना जरूरी है। पहली बात, पिछले दस सालों में हर शहर में प्रापर्टी डीलरों की हैसियत खाक से उठकर सैंकड़ों करोड की हो चुकी है। दूसरी बात यह है कि राजनेता ही नहीं हर नागरिक कर चोरी के लिए अपनी सम्पत्ति का पंजीकरण बाजार मूल्य से कहीं कम कीमत पर करवाता है। इस तरह सम्पत्ति के कारोबार में भारी मात्रा में कालेधन का प्रयोग हो रहा है। तीसरी बात रोबर्ट वाड्रा इस धंधे में अकेले नहीं। किसी भी राज्य के किसी भी राजनैतिक दल के नेता के परिवारजन प्रायः सम्पत्ति के कारोबार में पाये जायेंगे। अरबों रुपयों की अकूत दौलत नेता अफसर और पूँजीपति बनाकर बैठे हैं। सम्पत्ति का कारोबार कालेधन का सबसे बडा माध्यम बन गया है। इसलिए इसका राजनीति में दखल बढ़ गया है। इसलिए एक रॉबर्ट वाड्रा का खुलासा करके समस्या का कोई हल निकलने नहीं जा रहा।

दरअसल पिछले बीस वर्षों में भ्रष्टाचार के इतने काण्ड उजागर हुए हैं कि जनता में इससे भारी हताशा फैल गई है। इस हताशा की परिणिति अराजकता और सिविल वार के रूप में हो सकती है। क्योंकि सनसनी तो खूब फैलायी जा रही है पर समाधान की तरफ किसी का ध्यान नहीं। अन्ना के आन्दोलन ने समाधान की तरफ बढने का कुछ माहौल बनाया था। पर उनकी कोर टीम की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं ने सारे आन्दोलन को भटका दिया।

अरविन्द केजरीवाल जो अब कर रहे हैं वो एक राजनैतिक दल के रूप में शोहरत पाने का अच्छा नुस्खा है। पर इससे भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान नहीं होगा। बल्कि हताशा और भी बढ़ेगी। दरअसल अरविन्द केजरीवाल जो कर रहे हैं वो काम अब तक मीडिया का हुआ करता था। घोटाले उजागर करना और आगे बढ़ जाना। समाधान की तरफ कुछ नहीं करना। अब जब मीडिया टीआरपी के चक्कर में या औद्योगिक घरानों के दबाव में जोखिम भरे कदम उठाने से संकोच करता है तो उस खाई को पाटने का काम केजरीवाल जैसे लोग कर रहे हैं। मगर यहीं इस टीम का विरोधाभास सामने आ जाता है। अगर सनसनी फैलाना मकसद है तो समाज को क्या मिलेगा और अगर समाज को फायदा पहुंचाना है तो इस सनसनी के आगे का कदम क्या होगा घ् आप हर हफ्ते एक घोटाला उजागर कर दीजिए और भ्रष्टाचार के कारणों को समझे बिना जनलोकपाल बिल का ढिढ़ोरा पीटते रहिए। तो आप जाने अजनाने कुछ राजनैतिक दलों या लोगों को फायदा पहुंचाते रहेंगे। पर देश के हालात नहीं बदलेंगे। क्योंकि जिन्हें आप फायदा पहंुचायेंगे वे भी कोई बेहतर विकल्प नहीं दे पायेंगे।

तो ऐसे में क्या किया जाए ? भ्रष्टाचार कोई नया सवाल नहीं है। सैकड़ों सालों से यह सिलसिला चला आ रहा है। सोचा भी गया है प्रयोग भी किये गये हैं पर हल नहीं निकले। अब नये हालात में फिर से सोचने की ज़रूरत है और सोचे कौन यह भी तय करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार को नैतिकता का प्रश्न माना जाये या अपराध का। अगर हम नैतिकता का प्रश्न मानते हैं तो समाधान होगा सदाचार की या अध्यात्म की शिक्षा देना। व्यक्ति के सात्विक गुणों को प्रोत्साहित करना और तामसी गुणों को दबाना। अगर भ्रष्टाचार को हम अपराध मानते हैं तो उसका समाधान कौन देगा ? इतिहास बताता है कि अपराध के विरूद्ध जब-जब कोई व्यवस्था बनाई गई है तब-तब उसको बनाने वाला अपराधी से भी बडा खौफनाक तानाशाह सिद्ध हुआ है। दरअसल भ्रष्टाचार का मामला नैतिकता के और अपराध के बीच का है। इतिहास यह भी बताता है कि कोई एक जनलोकपाल या उससे भी कड़ा कानून इसका समाधान नहीं कर सकता। इसके लिए जरूरत है कि इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ बैठकर अध्ययन करें और समाधान खोजें। उदाहरण के तौर पर ऐसा कैसे होता है कि त्याग, बलिदान और सादगी की शिक्षा देने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता जब भाजपा में मंत्री बनते हैं तो नैतिकता के सारे पाठ भूल जाते हैं। इसी तरह महात्मा गांधी के आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का संकल्प लेकर कांग्रेस में घुसने वाले मंत्री पद पाकर गांधी की आत्मा को दुःख पहुंचाते हैं। मजदूरों के हक की लडाई लडने वाले साम्यवादी नेता चीन और रूस में सत्ता पाने के बाद भ्रष्टाचार करते हैं। इसलिए बिखरी टीम अन्ना मीडिया में छाये रहने के लिए हर हफ्ते जो नये शगूफे छोड़ रही है या छोड़ने वाली है उससे हंगामा तो बरपाये रखा जा सकता है पर भ्रष्टाचार का इलाज नहीं कर पायेंगे। नतीजतन रही-सही व्यवस्था भी ध्वस्त हो जायेगी। ऐसे विचारों को पढ़कर या टीवी चैनल पर सुनकर कुछ भावुक पाठक नाराज हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि मैं इन लोगों के प्रयासों का विरोध कर रहा हूं। जबकि हकीकत यह है कि शान्ति भूषण और प्रशान्त भूषण जैसे लोगों ने बीस वर्ष पहले भ्रष्टाचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लडाई में अगर गद्दारी न की होती तो शायद हालात आज इतने न बिगडते। इसलिए इनकी कमजोरियों को समझकर और यथार्थ को देखते हुए परिस्थितयों का मूल्यांकन करने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि भावना में बहकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार लें।

Monday, June 11, 2012

विकास का पैसा कहाँ जाता है ?

केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ’वाटरशेड’ कार्यक्रम की प्रान्त सरकारों की रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं। बन्जर भूमि, मरूभूमि व सूखे क्षेत्र को हराभरा बनाने के लिए केंन्द्र सरकार हजारों करोड़ रूपया प्रान्तीय सरकारों को देती आई है। जिले के अधिकारी और नेता मिली भगत से सारा पैसा डकार जाते हैं। झूठे आंकड़े प्रान्त सरकार के माध्यम से केन्द्र सरकार को भेज दिये जाते हैं पर आई.आई.टी. के पढे़ श्री रमेश को कागजी आंकड़ों से गुमराह नहीं किया जा सकता। उन्होंने उपग्रह कैमरे से हर राज्य की जमीन का चित्र देखा और पाया कि जहां-जहां सूखी जमीन को हरी करने के दावे किये गये थे, वो सब झूठे निकले। इसलिए प्रान्तीय ग्रामीण विकास मंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी खुली नाराजगी जाहिर की।
दरअसल यह कोई नई बात नहीं है। विकास योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रूपया इसी तरह वर्षों से प्रान्तीय सरकारों द्वारा पानी की तरह बहाया जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी का यह जुमला अब पुराना पड़ गया कि केन्द्र के भेजे एक रूपये मे से केवल 14 पैसे जनता तक पहुंचते हैं। सूचना का अधिकार कानून भी जनता को यह नहीं बता पायेगा कि उसके इर्द-गिर्द की एक गज जमीन पर, पिछले 60 वर्षों में कितने करोड़ रूपये का विकास किया जा चुका है। सड़क निर्माण हो या सीवर, वृक्षारोपण हो या कुण्डों की खुदाई, नलकूपों की योजना हो या बाढ़ नियन्त्रण, स्वास्थ सेवाऐं हों या शिक्षा का अभियान की अरबो-खरबों रूपया कागजों पर खर्च हो चुका है। पर देश के हालात कछुए की गति से भी नहीं सुधर रहे। जनता दो वख्त की रोटी के लिए जूझ रही है और नौकरशाही, नेता व माफिया हजारो गुना तरक्की कर चुके है। जो भी इस क्लब का सदस्य बनता है, कुछ अपवादों को छोड़कर, दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की करता है। केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, लोकपाल व अदालतें उसका बाल भी बाकां नहीं कर पाते।
जिले में योजना बनाने वाले सरकारी कर्मी योजना इस दृष्टि से बनाते हैं कि काम कम करना पड़े और कमीशन तगड़ा मिल जाये। इन्हें हर दल के स्थानीय विधायकों और सांसदों का संरक्षण मिलता है। इसलिए यह नेता आए दिन बड़ी-बड़ी योजनाओं की अखबारों में घोषणा करते रहते है। अगर इनकी घोषित योजनाओं की लागत और मौके पर हुए काम की जांच करवा ली जाये तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जायेगा। यह काम मीडिया को करना चाहिए था। पहले करता भी था। पर अब नेता पर कॉलम सेन्टीमीटर की दर पर छिपा भुगतान करके बड़े-बड़े दावों वाले अपने बयान स्थानीय अखबारों में प्रमुखता से छपवाते रहते है। जो लोग उसी इलाके में ठोस काम करते है, उनकी खबर खबर नहीं होती पर फर्जीवाडे़ के बयान लगातार धमाकेदार छपते है।
उधर जिले से लेकर प्रान्त तक और प्रान्त से लेकर केन्द्र तक प्रोफेशनल कन्सलटेन्ट का एक बड़ा तन्त्र खड़ा हो गया है। यह कन्सलटेन्ट सरकार से अपनी औकात से दस गुनी फीस वसूलते है और उसमें से 90 फीसदी तक काम देने वाले अफसरों और नेताओं को पीछे से कमीशन मे लौटा देते है। बिना क्षेत्र का सर्वेक्षण किये, बिना स्थानीय अपेक्षाओं को जाने, बिना प्रोजेक्ट की सफलता का मूल्यांकन किये केवल खानापूरी के लिए डीपीआर (विस्तृत कार्य योजना) बना देते है। फिर चाहे जे.एन.आर.यू.एम. हो या मनरेगा, पर्यटन विभाग की डीपीआर हो या ग्रामीण विकास की सबमें फर्जीवाडे़ का प्रतिशत काफी ऊॅचा रहता है। यही वजह है कि योजनाऐ खूब बनती है, पैसा भी खूब आता है, पर हालात नहीं सुधरते।
आज की सूचना क्रान्ति के दौर में ऐसी चोरी पकड़ना बायें हाथ का खेल है। उपग्रह सर्वेक्षणों से हर परियोजना के क्रियान्वयन पर पूरी नजर रखी जा सकती है और काफी हदतक चोरी पकड़ी जा सकती है। पर चोरी पकड़ने का काम  नौकरशाही का कोई सदस्य करेगा तो अनेक कारणों से सच्चाई छिपा देगा। निगरानी का यही काम देशभर में अगर प्रतिष्ठित स्वयंसेवी संगठनों या व्यक्तियों से करवाया जाये तो चोरी रोकने में पूरी नहीं तो काफी सफलता मिलेगी। जयराम रमेश ही नहीं हर मंत्री को तकनीकि क्रान्ति की मदद लेनी चाहिए। योजना बनाने में आपाधापी को रोकने के लिए सरल तरीका है कि जिलाधिकारी अपनी योजनाएँ वेबसाइट पर डाल दें और उनपर जिले की जनता से 15 दिन के भीतर आपत्ती और सुझाव दर्ज करने को कहें। जनता के सही सुझावों पर अमल किया जाये। केवल सार्थक, उपयोगी और ठोस योजनाऐं ही केन्द्र सरकार व राज्य को भेजी जाये। योजनाओं के क्रियान्वयन की साप्ताहिक प्रगति के चित्र भी वेबसाइट पर डाले जायें। जिससे उसकी कमियां जागरूक नागरिक उजागर कर सकें। इससे आम जनता के बीच इन योजनाओं पर हर स्तर पर नजर रखने में मदद मिलेगी और अपना लोकतन्त्र मजबूत होगा। फिर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसे लोगों को सरकारों के विरूद्व जनता को जगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आज हर सरकार की विश्वसनीयता, चाहें वो केन्द्र की हो या प्रान्तों की, जनता की निगाह में काफी गिर चुकी है और अगर यही हाल रहे तो हालत और भी बिगड़ जायेगी। देश और प्रान्त की सरकारों को अपनी पूरी सोच और समझ बदलनी पड़ेगी। देशभर में जिस भी अधिकारी, विशेषज्ञ, प्रोफेशनल या स्वयंसेवी संगठन ने जिस क्षेत्र में भी अनुकरणीय कार्य किया हो, उसकी सूचना जनता के बीच, सरकारी पहल पर, बार-बार, प्रसारित की जाये। इससे देश के बाकी हिस्सों को भी प्रेरणा और ज्ञान मिलेगा। फिर सात्विक शक्तियां बढेंगी और लुटेरे अपने बिलों में जा छुपेंगे। अगर राजनेताओं को जनता के बढ़ते आक्रोश को समय रहते शीतल करना है तो ऐसी पहल यथाशीघ्र करनी चाहिए। नहीं तो देश में अराजकता फैलने के आसार पैदा हो जायेंगे।

Monday, May 28, 2012

एयर इण्डिया की हड़ताल के पीछे का घोटाला

एयर इण्डिया के पायलटों की हड़ताल को लेकर मीडिया, यात्री व अदालत काफी सक्रिय हैं। वहीं इस हड़ताल के पीछे के खेल को बहुत कम लोग समझ पा रहे हैं। जबकि राजधानी की सत्ता के गलियारों में दबी जुबान से इस खेल पर टिप्पणीयाँ की जा रही हैं।
चर्चा है कि उ0प्र0 में राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन करने के बावजूद काँग्रेस को अपेक्षा के अनुरूप सफलता नहीं मिली, इसलिए काँग्रेस अब चैधरी अजीत सिंह से पल्ला झाड़ना चाहती है, क्योंकि अब उनकी काँग्रेस को कोई उपयोगिता दिखाई नहीं दे रही। इसलिए इस हड़ताल को राजनैतिक शै पर करवाकर ऐसा माहौल खड़ा किया जा रहा है कि चैधरी अजीत सिंह को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया जाए।
दूसरी तरफ हवाई सेवाओं के व्यापार से जुड़े अनुभवी लोगों का कहना है कि इस हड़ताल के पीछे ताकतवर लोगों की कमाई का धंधा अच्छा चल रहा है। गर्मियों की छुट्टी के समय विदेश जाने वाले यात्रियों की भारी भीड़ रहती है। ऐसे में एयर इण्डिया के पायलटों की हड़ताल से एयर इण्डिया की केवल अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानें ही रूकी हैं। इण्डियन एयरलाइंस की घरेलू उड़ानों पर कोई असर नहीं पड़ा है। जाहिर सी बात है कि जो यात्री एयर इण्डिया में सफर करते, वे अब निजी एयर लाइंस की तरफ भाग रहे हैं। निजी एयर लाइंस इस मौके का भरपूर फायदा उठा रही हैं। यात्रियों से मनमाने किराये वसूल कर रही हैं और आरोप है कि अपने मुनाफे को सत्ताधीशों के साथ गुपचुप रूप से बांट भी रही हैं। ऐसे दौर में जब हवाई सेवाऐं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मंदी के दौर से गुजर रही हैं, भारत में आॅपरेट करने वाली निजी एअरलाइंस इस हड़ताल से लाभान्वित हो रही हैं।
यह हड़ताल कोई इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण नहीं थी, जिसे राजनैतिक कुशलता से काबू नहीं किया जा सकता था। एयर इण्डिया के सामने इससे भी बड़े कई मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की फौरन जरूरत है। मसलन जेट एयरलाइंस जैसी मुनाफे में चलने वाली एयरलाइंस भी अपने खर्चों में कटौती कर रही है। उसने दिल्ली के टी-3 हवाई अड्डा से अपने विस्तार को कम किया है और देश-विदेश में अपने खर्चों में कटौती की है। वहीं एयर इण्डिया आज भी सफेद हाथी की तरह पूरी दुनिया में अपना गैर मुनाफे का कारोबार फैलाकर बैठी है। अनेक देशों में इसने महंगे किराये पर कार्यालयों के लिए सम्पत्तियाँ ले रखी हैं, जिन्हें काफी हद तक समेटा जा सकता है। इसके अलावा देश-विदेश में बहुत सारी सम्पत्तियाँ खरीद रखी हैं, जिन्हें बनाए रखने में नाहक फालतू खर्चा हो रहा है। अगर बुद्धिमानी से काम लिया जाए, तो इन सम्पत्तियों को बेचकर एयरलाइंस की आर्थिक दुर्दशा दूर की जा सकती है। इसी तरह एयर इण्डिया में हमेशा से कर्मचारियों की भारी फौज को लेकर सवाल उठते रहे हैं। आवश्यकता से कई गुना ज्यादा कर्मचारी एयर इण्डिया के पैरों में पत्थर की तरह बंधे बैठे हैं। जिनकी उत्पादकता नगण्य है और जिनके रहते घाटा दूर नहीं हो सकता। इसी तरह एयर इण्डिया उन सभी दोषों और अपराधों से भी मुक्त नहीं है, जो सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रमों के सम्बन्ध में जगजाहिर हैं। मसलन निर्णय व्यवसायिक न होकर, अवैध कमाई की दृष्टि से लिए जाते हैं। राजनैतिक आकाओं और आलाअफसरों को खुश करने के लिए इस एयरलाइंस का नृशंस दोहन किया जाता है। योग्यता और कुशलता की जगह भाई-भतीजावाद को प्राश्रय दिया जाता है। जरूरत इस बात की थी कि नागरिक उड्यन मंत्री, उनका मंत्रालय और सरकार इस मंदी के दौर में एयर इण्डिया की सेहत दुरूस्त करने की कोशिश करते। पर वह तो हो नहीं रहा, हड़ताल के जाल में एयरलाइंस को उलझाकर, उसकी कब्र खोदी जा रही है।
नागरिक उड्यन मंत्रालय से जुड़े स्रोतों के अनुसार सरकार बहुत समय से एयरइण्डिया से पिण्ड छुड़ाने का मन बना चुकी है। 1991 के बाद से खुला बाजार और खुली प्रतियोगिता के दौर में सरकारी वायु सेवाऐं चलाने का कोई औचित्य नहीं है। परन्तु अपने वामपंथी और समाजवादी सहयोगियों से दबाव में सरकार ऐसे कड़े निर्णय लेने से संकोच करती रही है। क्योंकि उसे डर है कि कर्मचारियों के भविष्य की दुहाई देकर ये सहयोगी दल उसके लिए आफत खड़ी कर सकते थे। सरकार यह समझ चुकी है कि एयरइण्डिया को अब फायदे की कम्पनी नहीं बनाया जा सकता। इसलिए इसे क्रमशः धीमी मौत मारा जा रहा है। जिसे ख्यह खुद-ब-खुद ऐसे हालात पैदा हो जाऐं कि इस कम्पनी को बन्द करने के अलावा कोई विकल्प ही न बचे। मौजूदा हड़ताल को इसी परिपेक्ष्य में देखा जा रहा है।
सोचने वाली बात यह है कि जिस आम जनता के खून-पसीने की कमाई पर यह सब सार्वजनिक उपक्रम खड़े किये गए थे, आज उसी जनता को सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्धकों के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। सार्वजनिक उपक्रमों से उम्मीद थी कि एक दिन ये देश के विकास का आधारभूत ढांचा खड़ा करेंगे। जिसके बाद आत्मप्रेरित आर्थिक विकास होने लगेगा। काफी सीमा तक सरकार इस उद्देश्य में सफल रही। सार्वजनिक क्षेत्र ने भारत के आर्थिक विकास के लिए जमीन तो तैयार की, पर पेड़ में फल लगने से पहले ही उसकी जड़ों में दीमक लग गई। एयर इण्डिया इससे अछूती नहीं है।
इसलिए जो लोग भी नागरिक उड्यन के क्षेत्र से किसी भी रूप में सम्बद्ध हैं, उन्हें अपनी आवाज और विवेक का इस्तेमाल कर पायलटों की इस हड़ताल का बहाना लेकर एयर इण्डिया के इस विनाश को रोकना चाहिए। उल्लेखनीय है कि नागरिक उड्यन सेवाओं से समाज का वह वर्ग जुड़ा है, जो आधुनिक है और अपनी आवाज सत्ताधीशों तक पहुँचा सकता है। इसलिए उन्हें सक्रिय होकर इस कम्पनी की समस्याओं का सार्थक समाधान खोजने की कोशिश करनी चाहिए।
 

Sunday, April 15, 2012

तिरूपति में धरोहरों का विध्वंस

दुनिया का सबसे लोकप्रिय और धनी हिन्दू मन्दिर तिरूपति बालाजी गंभीर विवादों में घिरा है। सारी दुनिया से करोड़ों भक्त आन्ध्र प्रदेश में स्थित तिरूपति बालाजी के दर्शन करने पूरे वर्ष आते हैं। लगभग 6 सौ करोड़ रूपये का यहाँ वर्षभर में चढ़ावा चढ़ता है। मन्दिर की कुल सम्पदा लगभग एक  लाख करोड़ रूपये है। दुनिया के इस सबसे धनी मन्दिर का प्रबन्धन आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एक न्यास ‘तिरूपति तिरूमला देवस्थानम्’ (टी.टी.डी.) द्वारा किया जाता है। ट्रस्ट द्वारा यात्रियों की सुविधा के लिए और मन्दिर के रख-रखाव के लिए जो व्यवस्थाऐं की गयीं हैं, उनकी प्रशंसा यहाँ आने वाला हर व्यक्ति करता रहा है। खासकर जब वे इन व्यवस्थाओं की तुलना देश के बाकी हिन्दू मन्दिरों से करते हैं, तो निश्चय ही इस मन्दिर की श्रेष्ठता सिद्ध होती है।
आज कल लगभग सवा लाख यात्री औसतन यहाँ प्रतिदिन आते हैं। यानि सालभर में तीन चार करोड़। अगले कुछ वर्षों में यह संख्या तेजी से दोगुनी हो जाऐगी। पर इस बढ़ते जनसैलाब को संभालने की टी.टी.डी. की कोई तैयारी दिखाई नहीं देती। आज भी बाहर से आने वाले आम यात्रियों को सिर मुंडवाने से लेकर दर्शन की टिकट, ठहरने के कमरे की बुकिंग आदि के लिए टी.टी.डी. के कर्मचारियों को दोगुनी रिश्वत देनी पड़ती है। इसके बाद भी गारण्टी इस बात की नहीं कि आधा सैकण्ड का भी दर्शन मिल सके। आश्चर्य की बात यह है कि ऊपर से नीचे तक व्याप्त इस भ्रष्टाचार को रोकने की कोई कोशिश नहीं की जा रही। भ्रष्टाचार में पकड़े गए कर्मचारी और अधिकारी कुछ दिन बाद उसी जगह फिर तैनात हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस मन्दिर के बोर्ड का अध्यक्ष एक शराब माफिया बना दिया गया था। भ्रष्टाचार के इस युग में भगवान का दरबार उससे अछूता नहीं है, यह बात तो मान भी ली जाए, पर पैसा कमाने की हवस में टी.टी.डी. के अधिकारी लगातार इस मन्दिर की परपंराओं, मान्यताओं, व्यवस्थाओं व भक्तों की भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। जिससे भक्त और संत बहुत दुखी हैं। सबसे ताजा उदाहरण यह है कि मन्दिर के सामने बने एक हजार खम्बों के ऐतिहासिक मण्डप को ध्वस्त करके पहाड़ के पीछे नाले में फैंक दिया गया। विजय नगर साम्राज्य के राजा द्वारा सन् 1454 ई0 में बनाए गए इस मण्डप में वैकुण्ठ एकादशी के दस दिन पहले और दस दिन बाद भारी उत्सव मनता था। इस मण्डप के टूट जाने से यह सुन्दर परंपरा नष्ट हो गयी।
यह बात दूसरी है कि इस विध्वंस के लिए जिम्मेदार रहे पी0वी0आर0के0 प्रसाद आज अपना अपराध कबूल करते हैं। पर यह तो एक उदाहरण है। मन्दिर के पास स्थित पौराणिक पुष्कर्णी भी नष्ट कर दी गई। इसी तरह तिरूमला पर्वत पर चढ़कर आने वाले यात्री जिस पौराणिक द्वार से प्रवेश करते थे और जिसका गहरा आध्यात्मिक महत्व था, उस द्वार को भी नष्ट कर दिया गया। तिरूमला पर्वत पर पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार हजारों तीर्थस्थल हैं। पर आधुनिकीकरण की आड़ में टी.टी.डी. के बुद्धिहीन अधिकारी धीरे-धीरे इन सभी धरोहरों को नष्ट करते जा रहे हैं। उनका हर काम भगवान बालाजी को नोट छापने की मशीन मानकर होता है
सब जानते हैं कि सगुण उपासना में मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठित विग्रह को पत्थर की साधारण मूर्ति नहीं माना जा सकता। उन्हें साक्षात जीवधारी की तरह जागृत भगवान माना जाता है। इसलिए उनके प्रातः उठने से लेकर रात्रि शयन तक की व्यवस्था एक महाराजाधिराज की तरह की जाती है। जिसमें अभिषेक, श्रृंगार, आरती और अनेक बार अनेक तरह के भोग, दोपहर का विश्राम और रात्रि का शयन तक शामिल होता है। देशभर के मन्दिरों में यही व्यवस्था है। पर संत समाज और भक्त समाज को इस बात की बहुत पीड़ा है कि धनलोलुप टी.टी.डी. ने वैंक्टेश्वर बालाजी के शयन का समय भी समाप्त कर दिया है। उन्हें रात्रि में ढेड़-दो बजे तक जगाए रखा जाता है और सुबह ढाई-तीन बजे से फिर जगा दिया जाता है। जबकि इसकी बेहतर और वैकल्पिक व्यवस्थाऐं की जा सकती हैं।
चूंकि टी.टी.डी. विशिष्ट व्यक्तियों जिनमें राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपति ही नहीं, फिल्म, मीडिया और खेल के सितारे भी शामिल हैं, उनको वी.आई.पी. व्यवस्था में दर्शन करवाता है। इसलिए कोई इसके खिलाफ आवाज उठाना नहीं चाहता। पर सच्चे संत अपनी परंपराओं और भक्तों की भावनाओं से हो रहे इस खिलवाड़ से मूक दृष्टा बने नहीं रह सकते। आन्ध्र प्रदेश के ऐसे ही एक उच्च कोटि के विद्वान, समाजसेवी किन्तु क्रंातिकारी युवा संत श्री श्री श्री त्रिदण्डी चिन्ना श्रीमन्नारायण रामानुज जीयार स्वामी जी ने टी.टी.डी. की विध्वंसकारी नीतियों के विरूद्ध आवाज बुलन्द करने का संकल्प लिया। सबसे पहले तो उन्होंने अधिकारियों से वार्ता कर उन्हें सद्बुद्धि देने का प्रयास किया। जब उनकी नहीं सुनी गई, तो अपने प्रिय शिष्य डा. रामेश्वर राव जैसे अन्य सहायकों की मदद से स्वामी जी ने नाले में पड़े उन ऐतिहासिक एक हजार खम्बों को बाहर निकलवाया और उन्हें उचित स्थान पर पहुँचाया ताकि भविष्य में इस मण्डप का पुर्ननिर्माण हो सके।
पूरे आन्ध्र प्रदेश के लोगों से भावनात्मक रूप से जुडे जीयार स्वामी जी ने एक लाख आन्दोलनकारी भक्तों के साथ तिरूमला पहाड़ पर चढ़ने की चेतावनी दे दी, तो प्रशासन में हड़कम्प मच गया। उन्हें समझा-बुझाकर रोका गया। पर स्वामी जी चुप बैठने वाले नहीं है। वे आन्ध्र प्रदेश के गांव-गांव मे जाकर अलख जगा रहे हैं ताकि तिरूपति मन्दिर में हो रही लूट को रोका जा सके और विध्वंसक नीतियों को बन्द किया जा सके। इस आन्दोलन को आन्ध्र प्रदेश में भारी समर्थन मिलने लगा है। पर भारत का कोई तीर्थ ऐसा नहीं, जिसके उपासक उसी प्रांत में रहने वाले हों। सारे भारत से भक्त तिरूपति जाते हैं। इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि जब इन अव्यवस्थाओं और बेईमानियों का समाचार देश के अन्य हिस्सों में पहुँचेगा तो पूरे देश का भक्त समाज टी.टी.डी. की नीतियों के विरोध में उठ खड़ा होगा।

Sunday, March 11, 2012

अखिलेश यादव की अग्नि परीक्षा

उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की अपेक्षा के अनुरूप देश के सबसे बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर 38 वर्ष के अखिलेश यादव की ताजपोशी हो रही है। जिस वक्त चुनाव परिणाम आ रहे थे, उस वक्त एक अंग्रेजी टी वी चैनल पर पंजाब के मुख्यमंत्री के सुपुत्र सुखवीर सिंह बादल और अखिलेश यादव से बरखा दत्त साथ-साथ चर्चा कर रही थीं। सुखवीर ने अखिलेश को सलाह दी कि अगर उत्तर प्रदेश को तरक्की के रास्ते पर तेजी से आगे ले जाना है तो उन्हें भी विकास कार्यों को पंजाब की ही तरह ‘पीपीपी मोड’ में जाना होगा। अखिलेश के लिये यह सबसे महत्वपूर्ण सलाह है। क्योंकि उत्तर प्रदेश विकास के मामले में बहुत पिछड़ा हुआ है। लोगों ने मत जात-पात पर नहीं, विकास के नाम पर दिया है। नौकरशाहों की लाल फीताशाही और निहित स्वार्थों की राजनैतिक दखलंदाजी विकास के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है।
उत्तर प्रदेश के नगरों का आधारभूत ढांचा चरमरा गया है। अवैध निर्माण, उफनती नालियाँ, कूड़े के पहाड़ और विकास प्राधिकरणों की भू-माफियागिरी ने प्रदेश के नगरों को एक विद्रूप चेहरा दे दिया है। शहर के चुनिंदा पैसे वाले और नौकरशाहों को छोड़कर बाकी लोग नारकीय जीवन जी रहे हैं। देश के कई राज्यों में इस समस्या का हल जनता की भागीदारी और सक्षम निजी संस्थाओं के सहयोग से किया गया है। जिन मुख्यमंत्रियों ने अपने राज्य के स्वरूप को सजाने की इस पहल में निजी रूचि और उत्साह दिखाया है वे बार-बार जीत कर लौटे हैं।
उत्तर प्रदेश में पर्यटन की दृष्टि से आगरा, ब्रज, वाराणसी, सारनाथ आदि जैसे क्षेत्र प्रदेश की अर्थव्यवस्था में तेजी से इजाफा कर सकते हैं। क्योंकि मौरिशिय्स, थाईलेंड, सिंगापुर, बाली जैसे तमाम देश केवल पर्यटन के सहारे अपनी अर्थ-व्यवस्थाओं को मजबूत बनाये हुए हैं। पर उत्तर प्रदेश में इस दिशा में सही समझ और ईमानदार कोशिश के अभाव में सारी योजनाऐं कागजी खानापूरी तक सीमित रह जाती हैं। जिसमें अखिलेश को क्रान्तिकारी परिवर्तन करना होगा।
गुण्डाराज की बात हर मीडिया पर की जा रही है। मैंने कई चैनलों पर ये कहा है कि अगर अखिलेश यादव, उनके पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव और चाचा जैसे मौहम्मद आजम गुण्डाराज को दस्तक देने से पहले ही रोकने में सफल नहीं होते तो 2014 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी को मुँह की खानी पड़ सकती है। अखिलेश युवा हैं, उत्साही हैं, विनम्र हैं और कुछ करना चाहते हैं। पर प्रान्त के अराजक तत्वों को रोकने का काम भी अगर उनके कंधों पर डाल दिया जायेगा तो संतुलन बिगड़ सकता है। इसलिये यह काम तो अखिलेश के पिता और इन चाचाओं को करना होगा। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो अगले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को इसी तरह दोबारा सत्ता सौंपने में उत्तर प्रदेश की जनता को गुरेज नहीं होगा।
प्रदेश के शासन की रीढ़ होते हैं नौकरशाह। अगर जिले में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक मुख्यमंत्री के लिये धन उगाही के एजेंट बनाकर भेजे जाते हैं और जल्दी-जल्दी ताश के पत्तों की तरह फेंटे जाते हैं तो अखिलेश यादव की सरकार जनता की नजरों में गिर जायेगी। अगर ये ही दो अधिकारी ईमानदार, कड़क लेकिन जनता की भावनाओं के प्रति संवेदनशील होंगे तो अखिलेश यादव की सरकार लोकप्रियता के झण्डे गाड़ देगी।
मुख्यमंत्री सचिवालय अकुशल और निकम्मे सचिवों का जमावड़ा न होकर अगर ऐसे अधिकारियों को तरजीह देगा जो रचनात्मकें, परिणाम लाने वाले, जोखिम उठाकर भी गैर-पारंपरिक निर्णय लेने वाले और लक्ष्य निर्धारित कर समयबद्ध क्रियान्वन करने वाले हों तो पूरे उत्तर प्रदेश को दिशा और गति दोनों मिलेगी।
प्रदेश के देहातों में बेरोजगारी, बिजली-पानी सबसे बड़ी समस्या है। पर इनका निदान केवल राजनैतिक बयानबाजी के तौर पर किया जाता है। जबकि देश में कई ऐसे सफल माॅडल हैं जहाँ किसान-मजदूर को बिना ज्यादा बाहरी मदद के सुखी बनाने के सफल प्रयोग किये गये हैं। क्योंकि ऐसे मॉडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं होती, इसलिये वे हुक्मरानों को पसंद नहीं आते। पर अब चुनाव का स्वरूप इतना बदल चुका है कि कोरे वायदों से आम मतदाता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता। गाँव की समस्याओं के हल के लिये ठोस काम की जरूरत है। अखिलेश को लीक से हटकर देखना होगा।
ईसा से 300 वर्ष पूर्व जब न तो ई-मेल, एस.एम.एस. थे और न ही फैक्स या फोन तब भी मगध का साम्राज्य चलाने वाले महान सम्राट अशोक मौर्य ने अफगानिस्तान से असम और कश्मीर से तमिलनाडु तक के भू-भाग को बड़ी संजीदगी से संचालित किया और यश कमाया। क्योंकि वे वेश बदल कर खुद और अपने दूतों को साम्राज्य के हर हिस्से में भेजकर अपने कामों के बारे में जनता की राय गोपनीय तरीके से मँगवाया करते थे। जहाँ से विरोध के स्वर सुनायी देते वहाँ समस्या का हल ढूँढ़ने में फुर्ती दिखाते थे। अखिलेश यादव को पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के अनुभव से यह सीखना चाहिये कि अपने चारों ओर चहेतों और सलाहकारों की दीवार मुख्यमंत्री को अन्धा और बहरा बना देती है। राहुल गाँधी ने मेहनत कम नहीं की पर अखिलेश का सहज सामान्य जन से संवाद उन्हें आज इस मुकाम तक ले आया। अपनी इस ताकत को खोना नहीं संजोना है।
भगवान कृष्ण के यदुवंश में जन्म लेने वाले अखिलेश यादव के कार्य काल में अगर ब्रज विश्व का सबसे सुन्दर तीर्थ क्षेत्र न बना तो अखिलेश का जन्म निरर्थक रहेगा। बसपा, संघ और इंका की विशाल सेनाओं के सामने अखिलेश यादव ने अपने युद्ध कौशल से इस महाभारत को जीतकर भगवान कृष्ण के वंशज होने का प्रमाण दिया है। अगर अखिलेश में सही सलाह को समझने और जीवन में उतारने की क्षमता होगी तो उत्तर प्रदेश को वे विकास और सुख-समृद्धि के रास्ते पर ले चलने में कामयाब हो पायेंगे।

Monday, February 20, 2012

राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी राजनीति

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधक केन्द्र को लेकर राजनीतिक हलचल शुरू हो गयी है। इस विशेष केन्द्र के जरिये राष्ट्रीय सुरक्षा से सम्बन्धित विभिन्न एजेंसियों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गयी है। इन सूचनाओं के जरिये आतंकवाद सम्बन्धी जोखिम के विश्लेषण का काम शुरू होना है। और सबसे बड़ी बात यह है कि यह काम हर हफ्ते के सातों दिन, चैबीसों घण्टे, पल-पल होता रहेगा।

मसला यह है कि आतंकवाद से संबन्धित गतिविधियों पर पल-पल की जानकारियां जमा करने की व्यवस्था के खिलाफ देश के कई प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकजुट होना शुरू हो गये हैं। इस विरोध में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी शामिल हो गयी हैं।

राष्ट्रीय आतंकवाद प्रतिरोधी केन्द्र के विरोध का तर्क इन मुख्यमंत्रियों ने यह कहकर दिया है कि आतंकवाद प्रतिरोधी इस केन्द्र के काम-काज से राज्यों के अधिकारों को हड़प लिया जायेगा। उधर केन्द्र सरकार ने ऐसे विरोध को खारिज करते हुए आतंकवादी प्रतिरोधी केन्द्र की स्थापना के लिये प्रतिबद्धता जता दी है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने शनिवार को एक कार्यक्रम में कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये केन्द्र और राज्यों की साझा जिम्मेदारी है।

बहरहाल यहाँ यह जानना भी अति आवश्यक है कि एनसीटीसी नाम से इस केन्द्र को बनाने का यह फैसला नया नहीं है। इंटेलीजेंस रिफॉर्म एण्ड टैररिज्म प्रिवेन्शन एक्ट के तहत इसकी स्थापना के लिये प्रेजीडेन्शियल एक्जीक्यूशन ऑर्डर संख्या 13354, अगस्त 2004 में ही जारी हो गया था। इस एक्ट में यह तय किया गया था कि आतंकवाद के खिलाफ साझा योजनायें बनाने व खुफिया जानकारियाँ साझा करने के लिये यह केन्द्र बनेगा और इस केन्द्र के स्टाफ में विभिन्न एजेंसियों के अधिकारी एवं कर्मचारी रखे जायेंगे। पिछले 8 साल से लगातार इस पर काम हो रहा था और अब 500 लोगों के टीम के साथ आगामी 1 मार्च से यह केन्द्र औपचारिक तौर पर अपना काम-काज शुरू करने जा रहा है।

फिर भी मीडिया के लिये यह मामला नया-नया सा दिख रहा है। नया इस लिहाज से, कि पिछले 4-6 दिनों से गैर काँग्रेसी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह मीडिया की सुर्खियों में आया है। अलबत्ता शुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता का विषय होने के कारण मीडिया के पास इस बारे में तथ्यों का टोटा पड़ा हुआ है। यानि मीडिया के पास गैर-काँग्रसी मुख्यमंत्रियों के एकजुट होने की हलचल के कारण ही यह मुद्दा खबरों में है।

रही बात केन्द्र के स्थापना की उपादेयता की, तो यह तय ही है कि किसी भी समस्या से निपटने (समस्या बनने से पहले और समस्या खड़ी होने के बाद) के लिये तथ्यों/सूचनाओं को जमा करने की और समस्या के उत्तरदायी तथ्यों का अध्ययन करने की जरूरत पड़ती है। समाधान के लिये कारगर योजनायें तब ही बन पाती हैं। यह केन्द्र भी ऐसे ही अपने सीमित उद्देश्यों के साथ बना है। इसका काम आतंकवाद के जोखिम का विश्लेषण करना है और आतंकवाद संबन्धी जानकारियों का देश की विभिन्न सुरक्षा/खुफिया एजेंसियों के बीच आदान-प्रदान हो सके, इसका प्रबन्ध करना है। यानि उपादेयता के लिहाज से ऐसा केन्द्र सुरक्षा तन्त्र में व्यावसायिक कौशल तो बढ़ायेगा ही। मगर फिलहाल यहाँ सवाल इस मुद्दे का तो है ही नहीं है। मुद्दा सिर्फ यह बना हुआ है कि केन्द्र-राज्य सम्बन्धों या राज्यों के अधिकार के अतिक्रमण के तर्क के आधार पर 8 गैर-काँग्रेसी मुख्यमंत्री एक साथ आते दिख रहे हैं।

यानि एनसीटीसी को लेकर बहस विशुद्ध रूप से अपराध शास़्त्रीय विशेषज्ञता के मुद्दे और राजनीतिक मुद्दे के बीच सीमित हो जायेगी। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि अपराध शास्त्रीय विशेषज्ञता के पहलू पर बोलने वालों ने केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के अलावा कोई बोलता नहीं दिखता। यानि यह बहस केन्द्र सरकार बनाम कुछ राज्य सरकारों के बीच सिमट जायेगी। खास तौर पर जब 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हों, तब ऐसे मुद्दे सिर्फ राजनीति के ही मुद्दे क्यूँ नहीं बनेंगे ?

अब जो लोग ऐसे विषयों की गंभीरता को समझते हों, उनके दखल की भी दरकार है। लेकिन अफसोस यह है कि किसी भी समस्या से संबन्धित विशेषज्ञों का भी टोटा पड़ा हुआ है। हद यहाँ तक है कि शनिवार को केन्द्रीय गृह सचिव को ही बोलते सुना गया। उनके बयान में भी यही बात थी कि आतंकवाद प्रतिरोधी व्यवस्था के लिये देश की विभिन्न एजेंसियों के बीच तालमेल की जरूरत है और इसीलिये ऐसे केन्द्र का गठन हुआ है। उनके बयान में यह कहीं नहीं आया कि ऐसे केन्द्र के काम-काज को सुचारू रूप से करने के लिये राज्य सरकारों के प्रशासन की क्या भूमिका होनी चाहिये। खैर अभी तो बात शुरू हुई है। होते-होते यह बात भी शुरू होने ही लगेगी कि आतंकवाद की घटनायें होती कहाँ हैं ? कहाँ का मतलब भौगोलिक तौर पर कहाँ होती हैं। बड़ा आसान सा जवाब है कि देश में ऐसा कोई भी भूखण्ड नहीं है जो किसी न किसी राज्य के भूभाग में न हो। यानि घटना किसी न किसी राज्य में ही होती है और उसके तथ्य या सूचना का प्रस्थान बिन्दु वही होता है। जाहिर है कि प्रशासनिक तौर पर राज्यों की भागीदारी के बगैर यह काम हो नहीं सकता।

Sunday, February 5, 2012

अब सूरत बदलनी चाहिए

ट्रायल कोर्ट ने डा. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका निरस्त कर दी। गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को बड़ी राहत मिली। पर क्या सर्वोंच्च न्यायालय के फैसले के बाद यूपीए सरकार के दामन से टू जी घोटाले का दाग मिट गया ? इस पर दो मत हैं। विपक्ष सरकार की इस दलील से सहमत नहीं कि इस घोटाले के लिये प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल जिम्मेदार नहीं है। जबकि संचार मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को दोषी नहीं माना। केवल आवंटन की नीति को गलत माना है जो राजग ने बनाई थी और ए राजा के तौर-तरीकों को गलत माना है। इसलिए प्रधानमंत्री की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है। श्री सिब्बल का यह भी कहना है कि यह फैसले आने के बावजूद सेंसेक्स गिरने की बजाय बढ़ गया। यानि उद्योग जगत को इस फैसले से कोई झटका नहीं लगा। काँग्रेस ने यह भी दावा किया है कि इस फैसले से गठबन्धन की सरकार में आने वाली दिक्कतों से बचने का रास्ता प्रधानमंत्री के लिये साफ हो गया है। उधर डा. स्वामी चुप बैठने वाले नहीं है। वे उच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगे। वहाँ से भी राहत न मिली तो सर्वोच्च न्यायालय जायेंगे। इस फैसले से निराश हुई भाजपा अब इसे चुनाव प्रचार में ज्यादा नहीं भुना पायेगी।
पर यहीं मेरा विरोध है। कब तक राजनैतिक दल एक-दूसरे पर इसी तरह भ्रष्टाचार के मामलों में हल्ला बोल कर देश को उलझाये रखेंगे। आज यूपीए पर हमला है, कल एनडीए पर ऐसा ही होगा। गठबन्धन की सरकार में शामिल होने वाले क्षेत्रीय दल जिस तरह मंत्रिमंडल में अपने दल के नेताओं को मंत्री बनावाते हैं और उनके लिये महत्वपूर्ण मंत्रालयों की माँग करते हैं, उससे गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है। ए राजा जैसे मंत्री डा. मनमोहन सिंह के निर्देशों की उपेक्षा करते हैं और करूणानिधि से निर्देश लेते हैं। पर विपक्ष इस भेद को अनदेखा कर सीधा प्रधानमंत्री पर तोप दागता है। जो कि स्वाभाविक है। पर क्या तोप दागने से कुछ हासिल होता है ? क्या भ्रष्टाचार रूकता है ? क्या आरोपियों को सजा मिल पाती है ? बोफोर्स, हवाला घोटाला, स्टाम्प ड्यूटी घोटाला, बैंक घोटाला, चारा घोटाला, तहलका काण्ड जैसे कितने ही घोटाले जोर-शोर से सामने आये। पर अन्त में क्या हुआ ? किसी को सजा नहीं मिली।
राजनीति का मकसद है आम आदमी की सम्पन्नता और खुशहाली बढ़ाना। पहले ‘सकल घरेलू उत्पाद‘ (जीडीपी) की बात होती थी, अब जी एन एच(ग्रास नैचुरल हैप्पीनेस) की बात हो रही है यानि लोगों की खुशहाली बढ़ायी जाये। अब खुशहाली बढ़ाने के लिये सरकार कोई निर्णय लेना चाहती हो और गठबन्धन के सहयोगी दल सहमत न हों  तो सरकार क्या करेगी ? अगर गठबन्धन के सहयोगी दल भ्रष्ट आचरण करें और रोकने पर सरकार गिराने की धमकी दें तो प्रधानमंत्री क्या करे ? आँखें मींचे, जैसा टू जी में हुआ या नैतिकता की दुहाई देकर सरकार गिर जाने दे। अगर ऐसे सरकारें गिरेंगी तो इटली की तरह एक-एक साल में कई-कई प्रधानमंत्री शपथ लेंगे। देश की प्रगति रूक जायेगी। निवेशकों का विश्वास हिल जायेगा। देश में अराजकता बढ़ेगी।
समय आ गया है कि सरकारों के घोटालों से आजिज आ रहे देशवासियों को राहत मिले। सभी दलों और जागरूक लोगों को मिल कर कुछ ठोस फैसले लेने होंगे। जैसे गठबंधन की शर्तें क्या हों ? सहयोगी दलों को ब्लैकमेल करने से कैसे रोका जाये ? सरकारें अपने संसाधनों का आवंटन किस तरह करें कि पारदर्शिता भी बनी रहे और देश को लाभ भी हो ? यानि घोटालों की गुंजाइश खत्म की जाये।
दुख की बात यह है कि घोटाले सामने आने पर शोर तो खूब मचता है। पर इस बात पर कभी सहमति नहीं होती कि घोटालों को रोकने के लिये व्यवस्था को पारदर्शी और जिम्मेदार कैसे बनाया जाये ? केन्द्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्तता देने की बात हो या ठेके, आवंटन और लीज में पारदर्शिता लाने की बात हो। ये सब मामले ऐसे हैं जिन्हें ठोस और क्रान्तिकारी परिवर्तनों के बिना सुलझाया नहीं जा सकता। घोटाले का उबाल उतरते ही मीडिया भी ढीला पड़ जाता है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि घोटालों के कारणों को दूर करने के काम में भी मीडिया, विशेषकर टी वी मीडिया वैसी ही उत्तेजना और तत्परता दिखाये, जैसी घोटालों के उजागर होने के कुछ दिन बात तक दिखाता है। अगर परिवर्तत के तमाम बिन्दुओं पर गंभीर और लंबी बहसें चलेंगी तो जनता भी शिक्षित होगी और व्यवस्था पर भी दवाब बनेगा। पिछले वर्ष भ्रष्टाचार के विरूद्ध चले लम्बे आन्दोलन के बावजूद समाधान के बिन्दुओं पर कोई गहरी चर्चायें नहीं हुईं। बस एक ही बात उठती रही कि ‘आप लोकपाल के साथ है या खिलाफ‘ नतीजन सब ठंडा पड़ गया। अगर सुधार लाने का यह प्रयास राजनैतिक जमात, न्यायविद्, मीडिया व सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर प्राथमिकता से नहीं करते हैं तो रोज नये घोटाले होते रहेंगे। न तो आरोपियों को सजा मिलेगी और न भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं’, जैसी भावना दिवगंत कवि दुष्यंत ने अभिव्यक्त की थी वैसा ही जज्बा आज हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व के मन में उठना चाहिये।

Sunday, November 27, 2011

जन आन्दोलन से उपजती हिंसा

Rajasthan Patrika 27Nov2011
प्रशांत भूषण की दफ्तर में पिटाई हो या केन्द्रीय कृषि मंत्री श्री शरद पवार के गाल पर पड़ा थप्पड़, दोनों खतरे की घण्टी बजा रहे हैं। अगर जनान्दोलन का नेतृत्व करने वाले जनता को भड़काने के बयान देते रहेंगे, तो स्थिति कभी भी बेकाबू हो सकती है। क्योंकि जिस भीड़ पर नियन्त्रण करने की नेतृत्व में क्षमता न हो, उसे इसे हद तक उकसाना नहीं चाहिए कि हालात बेकाबू हो जाऐं। महात्मा गाँधी जैसा राष्ट्रीय नेता, जिनकी एक आवाज पर पूरा देश सड़क पर उतर आता था, उन तक को यह विश्वास नहीं था कि वे जनता को हिंसक होने से रोक पाऐंगे। इसलिए जब आन्दोलनकारियों ने चैरा-चैरी थाने में आग लगाकर पुलिस कर्मियों को जला दिया, तो महात्मा गाँधी ने बड़े दुखी मन से फौरन ‘असहयोग आन्दोलन‘ को वापिस ले लिया। हालांकि उनकी कांग्रेस पार्टी के कुछ हिस्सों में भारी निन्दा हुई, पर गाँधी जी का कहना था कि अभी हमारा देश सत्याग्रह के लिए तैयार नहीं है। यह बात दूसरी है कि दोबारा आन्दोलन खड़ा करने में फिर कई वर्ष लग गए।

जब महात्मा गाँधी जैसी शख्सियत को भीड़ के आचरण पर भरोसा नहीं था, तो टीम अन्ना के सदस्य तो बापू के सामने बहुत छोटे कद के हैं। उनकी बात कौन सुनेगा? आज केन्द्रीय कृषि मंत्री के गाल पर थप्पड़ जड़ा है, कल राजनेताओं के समर्पित कार्यकर्ता या गुण्डे, टीम अन्ना के ऊपर वार कर सकते हैं। या फिर टीम अन्ना के समर्थक उन लोगों पर हमला कर सकते हैं, जो टीम अन्ना के तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते। इस तरह की हिंसा से प्रतिहिंसा पैदा होगी।

भारत जैसे विविधता के देश में, जहाँ भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक विषमता का भारी विस्तार है, वहाँ छोटी सी बात पर भीड़ का भड़कना और हिंसक हो जाना, या तोड़-फोड़ की गतिविधियों में लिप्त हो जाना, सामान्य बात होती है। ऐसी हालत में तीन परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो हुक्मरान एकजुट होकर जनान्दोलन को लाठी और गोली से कुचल देंगे, अगर वे ऐसा न कर पाए और जनता इतनी बेकाबू हो गई कि सत्ता के हथियार भौंथरे सिद्ध होने लगे, तो कोई वजह नहीं है कि भारतीय सेना अपनी बैरकों से बाहर न निकल पड़े। यह कहना कि भारत का लोकतंत्र इतना मजबूत है कि यहाँ कभी सैनिक तानाशाही आ ही नहीं सकती, दिन में सपने देखने जैसा है। यह सही है कि भारतीय सेना, पाकिस्तान की सेना की तरह सत्ता के लिए जीभ नहीं लपलपाती, पर इसका मतलब यह नहीं कि सीमा पर लड़ने वाले अपनी देशभक्ति को गिरबी रख चुके हैं। अगर सेना को लगेगा कि राजनेताओं और जनान्दोलनों के नेताओं के टकराव से समाज में उथल-पुथल और अराजकता हो रही है, तो वह सत्ता की बागडोर संभालने में संकोच नहीं करेगी। हम सभी जानते हैं कि सेना की तानाशाही स्थापित हो जाने के बाद, भ्रष्टाचार का मुद्दा तो दूर, व्यवस्था की आलोचना मात्र करने की भी छूट लोगों को नहीं होती। अभिव्यक्ति की आजादी कुचल दी जाती है। फिर जन्म लेता है अधिनायक वाद, जिसके भ्रष्टाचार की कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है। दुख और चिंता की बात है कि टीम अन्ना के सभी सदस्य, जिनमें अन्ना हजारे भी अपवाद नहीं, बिना इस हकीकत को समझे लोगों की भावनाऐं भड़का रहे हैं। इसलिए उन्हें आगाह करने की आज बहुत जरूरत है।

दरअसल मैंने तो 4 जून, 2011 को ही एक खुला पत्र छापकर दिल्ली में बंटबाया था। जिसमे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के विरूद्ध माहौल बनाने के लिए बधाई देते हुए कुछ सावधानी बरतने की भी सलाह दी थी। उस पत्र में मैंने और मेरे मित्र समाजकर्मी पुरूषोत्मन मुल्लोली ने लिखा था कि, ‘रामदेव जी आपकी लड़ाई का सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों में जमा धन है। आप कहते हैं कि चार सौ लाख करोड़ रूपया विदेशों में जमा है। एक जिम्मेदार और देशभक्त नागरिक होने के नाते आपका यह कर्तव्य बनता है कि ऐसा दावा करने से पहले उसके समर्थन में सभी तथ्यों को जनता के सामने प्रस्तुत करें। अगर आप इन तथ्यों को प्रकाशित नहीं करना चाहते तो कम से कम यह आश्वासन देश को जरूर दें कि इस दावे के समर्थन में आपके पास समस्त प्रमाण उपलब्ध हैं। अन्यथा यह बयान गैर जिम्मेदाराना माना जाएगा और देश की आम जनता के लिए बहुत घातक होगा, जिसे आपने सुनहरा सपना दिखा दिया है।

विदेशों में जमा धन देश में लाकर गरीबी दूर करने का बयान आप दे रहे हैं और सपने दिखा रहे हैं, वैसा तो होने वाला नहीं है। पहली बात यह धन आप नहीं सरकार लायेगी, चाहें वह किसी भी दल की हो और उसे खर्च भी वही सरकार करेगी। तो आप कैसे उस पैसे से गरीबी दूर करने का दावा करते हैं? आप कहते हैं कि विदेशों से यह धन लाकर आप देश में विकास कार्यों की रफ्तार तेज करेंगे। शायद आप जानते ही होंगे कि इस तरह के अंधाधुंध व जनविरोधी विकास कार्यों से ही ज्यादा भ्रष्टाचार पनपता रहा है। फिर आप देश की जमीनी हकीकत को अनदेखा क्यों करना चाहते हैं? रामदेव जी अनेक मुद्दों पर आपके अनेक बयान बिना गहरी समझ के, जाने-अनजाने भावनाऐं भड़का रहे हैं। इससे आम जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। कृपया इससे बचें।

अन्ना हजारे जी और रामदेव जी, हम आप दोनों को एक साथ मानते हैं और इसलिए आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि आतंकवादी ताकतें, माओवादी ताकतें और साम्प्रदायिक ताकतें विदेशी ताकतों के हाथ में खेलकर इस देश में ‘सिविल वाॅर’ की जमीन तैयार कर चुकी हैं। जरा सी अराजकता से चिंगारी भड़क सकती है। इन ताकतों से जुड़े कुछ लोग आपके खेमों में भी घुस रहे हैं। इसलिए आपको भारी सावधानी बरतनी होगी। कहीं ऐसा न हो कि आपकी असफलता जनता में हताशा और आक्रोश को भड़का दे और उसका फायदा ये देशद्रोही ताकतें उठा लें। इन परिणामों को ध्यान में रखकर ही अपनी रणनीति बनायें तो देश और समाज के लिए अच्छा रहेगा। यह हमारा पहला खुला पत्र है। आने वाले दिनों में हम आपसे यह संवाद जारी रखेंगे। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनमें बिना सोचे-समझे बयानबाजी करके आप दोनों गुटों ने देश के सामने विषम परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं। जिनके खतरनाक परिणाम सामने आने वाले हैं।’