Monday, May 27, 2013

अखिलेश यादव को गुस्सा क्यों आता है ?


पिछले दिनों उद्यमियों के एक सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में चल रही लालफीताशाही के लि़ए आलाअफसरों को जिम्मेदार ठहराया। उन्हें नसीहत दी कि वे अपने अधिनस्थ बाबूओं के बहकावे में न आयें और बिना देरी के तेजी से निर्णय लें। यह पहली बार नही है जब युवा मुख्यमंत्री ने अपने अधिनस्थ आलाअफसरों को इस तरह नसीहत दी हो। उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही मुख्यमंत्री व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव अपनी अफसरशाही के ढीलेपन पर बार- बार सार्वजनिक बयान देते रहे हैं। उनका यह गुस्सा जायज है क्योंकि बहन जी के शासनकाल में अफसरशाही बहन जी के सामने पत्त्त्ते की तरह कांपती थी। अखिलेश यादव की भलमनसाहत का बेजा मतलब निकाल कर अब उ. प्र. की अफसरशाही काफी मनमर्जी कर रही है, ऐसा बहुत से लोगों का कहना है। ऐसा नहीं है कि पूरे कुए में भांग पड़ गयी हो। काम करने वाले आज भी मुस्तैदी से जुटे हैं। अफसरों के मुखिया प्रदेश के मुख्य सचिव होते हैं। जो खुद काफी सक्षम और जिम्मेदार अफसर हैं। पर सरकार की छवि अगर गिर रही है तो मुख्यमंत्री इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। पर क्या सारा दोष अफसरशाही का ही है या राजनैतिक नेतृत्व की भी कुछ कमी है।

सुप्रसिद्ध आईसीएस रहे जे सी माथुर ने 30 वर्ष पहले एक लेखमाला में यह लिखा था कि जब तक में इस तंत्र में अफसर बनकर रहा, मेरी हैसियत एक ऐसे पुर्जे की थी जिसके न दिल था न दिमाग। हालात आज भी बदले नही हैं। लकीर पीटने की आदी अफसरशाही लालफीताशाही के लिए हमेशा से बदनाम रही हैं। अपना वेतन, भत्तें, पोस्टिंग, प्रमोशन और विदेश यात्राएं ही उनकी प्राथमिकता में रहता है। जिस काम के लिए उन्हें तैनात किया जाता है वह बरसों न हो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने कहा था कि अफसरशाही घोडे की तरह होती है जिसे चलाना सवार की क्षमता पर निर्भर करता है। अखिलेश यादव को चाहिए कि महत्वपूर्ण विभागों में ऐसे चुने हुए अफसर तैनात करें जिनकी निर्णय लेने की और काम करने की क्षमता के बारे में कोई संदेह न हो। उन्हें आश्वस्त करे कि वे जनहित में जो निर्णय लेंगे उस पर उन्हें मुख्यमंत्री का पूरा समर्थन मिलेगा। केवल फटकारने से या सार्वजनिक बयान देने से वे अपने अफसरों से काम नहीं ले पायेगें।

देश के कई प्रदेशों में तबादलों की स्पष्ट नीति न होने के कारण अफसरशाही का मनोबल काफी गिर जाता हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार का रिर्काड अभी तक प्रभावशाली नहीं रहा। जितनी तेजी से और जितने सारे तबादले उ. प्र. शासन ने बार-बार किये जाते हैं उससे कार्यक्षमता सुधरने की बजाय गिरती जाती हैं। जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, सीडीओ व विकास प्राधिकरणों के उपाध्यक्ष वे अधिकारी होते हैं जो उत्तर प्रदेश में जनता का हर वक्त सामना करते हैं। इन्हें अगर ताश के पत्तों की तरह फेंटा जाता रहेगा तो सरकार कुछ भी नहीं कर पायेगी और उससे जनता में आक्रोश बढ़ेगा। इनकी कार्य अवधि निश्चित की जानी चाहिए और समय से पहले इनके तबादले नहीं होने चाहिए। चार दिन पहले जिसे मथुरा का जिलाधिकारी बनाया जाता है उसे चार दिन के भीतर ही गोरखपुर का जिलाधिकारी बनाकर भेज दिया जाता है। अगर उसे उसके निकम्मेपन के कारण हटाया गया तो फिर वह दूसरे जिले में काम करने के योग्य कैसे हो गया ? इससे पहले कि वह अपना जिला और उसकी समस्याएं समझ पाता, उसे रवाना कर दिया जाता है। यह कैसी नीति है ?

दूसरी तरफ ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं जो धडल्ले से यह कहते हैं कि हम अपने मंत्री को मोटा पैसा देकर यहां आये हैं तो हमे किसी की क्या परवाह। यह दुखद स्थिति है पर नई बात नहीं। पहले भी ऐसा होता आया है। जिसका निराकरण किया जाना चाहिए। अखिलेश अभी युवा हैं और उनका लम्बा राजनैतिक जीवन सामने है। अगर उन्होने स्थिति को नहीं संभाला तो उनके लिए भविष्य में चुनौतियां बढ सकती हैं। अखिलेश को चाहिए की कार्पोरेट जगत की तरह एक ‘पब्लिक रेस्पोंस‘ ईकाई की स्थापना अपने सचिवालय मे करें । जिसमे उत्तर प्रदेश के पूर्व अधिकारी रहे राकेश मित्तल (कबीर मिशन) जैसे अधिकारियों की सरपरस्ती में कर्मठ युवा अधिकारियों की एक टीम केवल सचिवालय की कार्यक्षमता और कार्य की गति बढाने की तरफ ध्यान दें और जनता और सरकार के बीच सेतु का कार्य करें। इस ईकाई को सभी विभागों पर अपने निर्णय प्रभावी करवाने की ताकत दी जाये। इससे सरकार की छवि में तेजी से सुधार आयेगा। केवल फटकारने से नहीं। अच्छा काम करने वालों को अगर बढावा दिया जायेगा और उनके काम की सार्वजनिक प्रशंसा की जायेगी तो अफसरों में अच्छा काम करने की स्पर्धा पैदा होगी।

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