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Monday, December 18, 2023

नौजवानों में प्रदूषण से बढ़ता कैंसर का ख़तरा


पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाले हर व्यक्ति के फेंफड़ों में काले रंग के धब्बे मौजूद हैं। जैसे किसी सिगरेट पीने वाले के फेंफड़ों में होते हैं। आश्चर्य और चिंता की बात तो यह है कि दिल्ली में रहने वाले किशोरों में भी यह विकृति पाई जा रही है। यह चौकने वाला खुलासा किया है दिल्ली के मशहूर छाती रोग विशेषज्ञ (चेस्ट सर्जन) डॉ अरविंद कुमार ने। उनका कहना है कि, ‘वे तीन दशकों से अधिक समय से दिल्ली में चेस्ट सर्जरी कर रहे हैं। बीते कुछ वर्षों से उन्होंने ने दिल्ली के मरीज़ों के फेंफड़ों में एक बड़ा बदलाव देखा है। जहां 1988 में अधिकतर फेंफड़ों का रंग गुलाबी होता था वहीं बीते कुछ वर्षों में फेंफड़ों में कई जगह काले-काले धब्बे दिखाई दिये हैं। पहले ऐसे काले धब्बे केवल धूम्रपान करने वालों के फेंफड़ों में ही पाये जाते थे। किंतु अब हर उम्र के लोगों में, जिसमें अधिकतर किशोरों में, ऐसे काले धब्बे पाए जाने लगे हैं, यह बड़ी गंभीर स्थिति है। इन काले धब्बों का सीधा मतलब है कि जो लोग धूम्रपान नहीं करते उनके फेंफड़ों में यह धब्बे विषैला जमाव या ‘टॉक्सिक डिपोज़िट’ है।’ डॉ अरविंद कुमार का कहना है कि ‘फेंफड़ों में इन काले धब्बों के चलते निमोनिया, अस्थमा और फेंफड़ों के कैंसर के मामलों में भी तेज़ी आई है। पहले ऐसी बीमारियाँ अधिकतर 50-60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को होती थी। परंतु अब यह पैमाना घट कर 30-40 वर्ष की आयु वर्ग में होने लगा है। पहले के मुक़ाबले महिला रोगियों की तादाद भी बढ़ रही है। इतना ही नहीं महिला मरीज़ों की तादाद चालीस प्रतिशत तक है जिनमें से अधिकतर महिलाएँ धूम्रपान नहीं करतीं हैं। सबसे अहम बात यह है कि 1988 में ऐसे रोगियों में 90 प्रतिशत वह लोग होते थे जो धूम्रपान करते थे। परंतु अब यह आँकड़ा बराबरी का है।’ 



डॉ कुमार बताते हैं कि, ‘जो केमिकल सिगरेट में पाए जाते हैं वही केमिकल आज की हवा में भी हैं। यानी कैंसर के मुख्य कारक माने जाने वाले जो केमिकल सिगरेट के धुएँ में पाये जाते हैं यदि वही केमिकल हमें दूषित हवा में मिलने लगें तो हम धूम्रपान करें या ना करें हमारे फेंफड़ों के अंदर यह ज़हर ख़ुद-ब-ख़ुद प्रवेश कर ही रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि दूषित हवा से हमारे फेंफड़ों में कैंसर होने के आसार भी बढ़ गये हैं। कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी यह माना कि दूषित हवा भी कैंसर का कारण हो सकती है। एक महत्वपूर्ण तर्क देते हुए डॉ अरविंद कुमार ने यह भी बताया कि पहले जब फेंफड़ों के कैंसर के मरीज़ों में इस बीमारी को पकड़ा जाता था तब उनकी उम्र 50-60 के बीच होती थी क्योंकि कैंसर के केमिकल को फेंफड़ों को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए तक़रीबन बीस वर्ष लगते थे। परंतु आज जहां दिल्ली की दूषित हवा का ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है तो ऐसी दूषित हवा में जन्म लेने वाला हर वो बच्चा इन केमिकल का सेवन पहले ही दिन से कर रहा है, इस ख़तरे का शिकार बन रहा है। आम भाषा में कहा जाए तो दूषित हवा में साँस लेना 25 सिगरेट के धुएँ के बराबर है। तो यदि कोई बच्चा अपने जन्म के पहले ही दिन से ऐसा कर रहा है तो जब तक वो 25 वर्ष की आयु का होगा उसके फेंफड़ों में और धूम्रपान करने वाले के फेंफड़ों में कोई अंतर नहीं होगा। इसीलिए डॉ अरविंद कुमार को इस बात पर कोई अचंभा नहीं होता जब वे कम उम्र के मरीज़ों में फेंफड़ों के कैंसर के लक्षण देखते हैं। उल्लेखनीय है कि जहां दिल्ली में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 500 से अधिक है वहीं लंदन और न्यू यॉर्क में यह आँकड़ा 20 से भी कम है। यह बहुत भयावह स्थिति है चाहे-अनचाहे दिल्ली का हर निवासी इस ज़हरीले गैस चैम्बर में घुट-घुट कर जीने को मजबूर है। हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है।



लगातार चुनाव जीतने की राजनीति में जुटे रहने वाले दल प्रदूषण जैसे गंभीर मुद्दों पर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। इस समस्या के हल के लिए केंद्र या राज्य की सरकार कोई ठोस काम नहीं कर रही। पराली जलाने को लेकर इतना शोर मचता है कि ऐसा लगता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान ही दिल्ली के प्रदूषण के लिये ज़िम्मेदार हैं। जबकि असली कारण कुछ और है। दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है। 


दिल्ली में 1987 से यह कूड़ा जलाया जा रहा है जिसके लिए पहले डेनमार्क से तकनीकी का आयात किया गया था। पर यह मशीन एक हफ़्ते में ही असफल हो गई क्योंकि इसकी बुनियादी शर्त यह थी कि जलाने से पहले कूड़े को अलग किया जाए और उसमें मिले हुए ज़हरीले पदार्थों को न जलाया जाए। इतनी बड़ी आबादी का देश होने के बावजूद भारतीय प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही इस कदर है कि आजतक कूड़े को छाँट कर अलग करने का कोई इंतज़ाम नहीं हो पाया है। आज दिल्ली में प्रतिदिन 7000 टन मिश्रित कूड़ा ‘इनसिनिरेटर्स’ में जलाया जाता है। जिसे जल्दी ही 10000 टन करने की तैयारी है। इस मिश्रित कूड़े को जलाने से निकलने वाला ज़हरीला धुआँ ही दिल्ली के प्रदूषण का मुख्य कारण है। जबकि इसी मशीन से सिंगापुर में जब कूड़ा जलाया जाता है तो उसमें से ज़हरीला धुआँ नहीं निकलता क्योंकि वहाँ सभी सावधानियाँ बरती जाती हैं। वैसे केवल सरकार को दोष देने से हल नहीं निकलेगा। दिल्ली और देश के निवासियों को अपने दैनिक जीवन में तेज़ी से बढ़ रहे प्लास्टिक व अन्य क़िस्म के पैकेजिंग मैटीरियल को बहुत हद तक घटाना पड़ेगा जिससे ठोस कचरा इकट्ठा होना कम हो जाए। हम ऐसा करें ये हमारी ज़िम्मेदारी है ताकि हम अपने बच्चों के फेंफड़ों को घातक बीमारियों से बचा सकें। मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने क्या खूब कहा शोर यूँही न परिंदों ने मचाया होगा, कोई जंगल की तरफ़ शहर से आया होगा। पेड़ के काटने वालों को ये मालूम तो था, जिस्म जल जाएँगे जब सर पे न साया होगा ।।
 

Monday, September 4, 2023

पहाड़ों पर भारी भूस्खलन: ठेकेदारों के शिकंजे में सत्ताधीश


हिमाचल प्रदेश में पाँच सौ से ज़्यादा सड़कें भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई हैं। जो सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता नहीं दे पा रही उस पर 5000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ गया है। अरबों रुपये की निजी संपत्ति बाढ़ में बह गई है। सैंकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। ये सब हुआ हिमालय को बेदर्दी और बेअक्ली से काट-काट कर चार लेन के राजमार्ग बनाने के कारण। परवानु-सोलन राजमार्ग के धँसने की एवज़ में हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पर उच्च न्यायालय में 650 करोड़ का हर्जाना माँगा है। प्राधिकरण के निदेशक ने इस मामले में अपनी गलती स्वीकारी है और ये माना है कि पहाड़ों में सड़क बनाने का पूर्व अनुभव न होने के कारण प्राधिकरण से ये गलती हुई है। 



अदालत में गलती मान लेने से इस भयावह त्रासदी का समाधान नहीं निकलेगा। क्योंकि इसी तरह का दानवीय निर्माण उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा के मार्ग को ‘फोर लेन’ बनाने के लिए बदस्तूर जारी है। पर्यावरणविदों की चेतावनियों की उपेक्षा करके या उनका मज़ाक़ उड़ा कर या उन्हें विकास विरोधी बता कर सत्ताधीश, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, अपने खेल जारी रखते हैं। हिमाचल केडर के सेवानिवृत आईएएस व पर्यावरणविद अवय शुक्ला अपने अंग्रेज़ी लेख, ‘हिमाचल - प्लानिंग फॉर मोर डिजास्टर्स’ में लिखते हैं कि इस पूरे खेल में राजनेता, अफ़सर व ठेकेदारों की मिलीभगत है। वे लिखते हैं कि ऐसी त्रासदी से, इस गठजोड़ को दोहरा लाभ मिलता है। पहले इन सब निर्माण कार्यों में जम कर घोटाले होते हैं और फिर विनाश के बाद पुनर्निर्माण में। ख़ामियाजा तो भुगतना पड़ता है देश की आम जनता को जिसके खून पसीने की कमाई टैक्स के रूप में वसूल कर उसी के विनाश की नीतियाँ बनाई जाती हैं। वैसे वो लोग भी कम दोषी नहीं जो पर्यटन व्यवसाय या अपने लाभ के लिए पहाड़ों पर बड़े-बड़े भवन बनाते आ रहे हैं। जिसमें न तो पहाड़ की परिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता है और न पहाड़ों पर परम्परा से चली आ रही भवन निर्माण पद्दति का। पहाड़ों में कभी दुमंज़िले से ज़्यादा घर नहीं बनते थे। ये घर भी स्थानीय पत्थर से उन पहाड़ों पर बनाए जाते थे जिन्हें स्थानीय लोग पक्का पहाड़ कहते हैं। मतलब इन पहाड़ों पर कभी भूस्खलन नहीं होता। 



अब तो आप भारत के किसी भी पहाड़ी पर्यटन स्थल पर हज़ारों बहूमज़िली इमारतें, होटल व अपार्टमेंट देखते हैं जिनमें लिफ्ट लगी होती हैं। इनका निर्माण पहाड़ के सुरम्म्य वातावरण में एक बदनुमा दाग की तरह होता है। इनके निर्माण में लगने वाली सामग्री ट्रकों में भर कर मैदानों से पहाड़ों पर ले जाई जाती है। जिससे और भी प्रदूषण बढ़ता है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है। 



आज पूरे देश में अनावश्यक रूप से, बहुत तेज़ी से, बिजली की खपत दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है। इसलिए उसके उत्पादन को और बढ़ाने का काम जारी है। पर इंजीनियरों का विज्ञान यहाँ भी प्रकृति से मार खा जाता है। हिमाचल की ‘हरजी जल विद्युत योजना’ को जिस गोविंद सागर से जल की आपूर्ति मिलती है उसमें इन सड़कों के निर्माण में पैदा हुए मलबों से इतनी गाद जमा हो गई है कि अब हरजी प्लांट में कई महीनों के लिए बिजली का उत्पादन बंद कर दिया गया है। 



फिर भी हिमाचल की सरकार ने कोई सबक़ नहीं सीखा। वहाँ के उप-मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि पलचन (मनाली) से कुल्लू तक 30 किलोमीटर की नदी को बांधा जाएगा। जिसके लिये उन्होंने 1650 करोड़ की डीपीआर तैयार करवा ली है और केंद्र से इसके लिये आर्थिक सहायता माँगी है। अप-मुख्यमंत्री को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ब्यास नदी, लखनऊ की गोमती व अहमदाबाद की साबरमती की  तरह हल्के जल प्रवाह वाली शांत नदी नहीं है, जिसे तटबंधों से बांधा जा सके। ये तो पहाड़ों से निकलती हुई, चट्टानों से टकराती हुई, जल के रौद्र प्रवाह को सहती हुई बहती है। जिसमें पहाड़ों पर होने वाली अचानक तेज़ वर्षा के कारण भारी मात्र में जल आ जाता है। ऐसी नदी को तटबंधों से कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? ये तटबंध तो ब्यास नदी के एक दिन के आक्रोश में बह कर कहाँ-के-कहाँ जाएँगे कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। ये ठीक वैसी ही मूर्खता है जैसी हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की रेत में करोड़ों रुपया खर्च करके एक नहर खोदी जो पहली ही वर्षा में बह गई। या काशी की गंगा में रेत के टापू पर करोड़ों रुपये खर्च करके पर्यटकों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई। जिसके एक ही अंधड़ में परखच्चे उड़ गये।   


चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो माना जायेगा कि उनका हर दावा और हर वक्तव्य जनता को केवल मूर्ख बनाने के लिए है।  

Monday, July 3, 2023

हाथी मेरे साथी


बचपन से हम विशालकाय हाथियों को देख कर उत्साहित और आह्लादित होते रहे हैं। काज़ीरंगा, जिम कोर्बेट, पेरियार जैसे जंगलों में हाथी पर चढ़ कर हम सब वन्य जीवन देखने का लुत्फ़ उठाते आये
  हैं। जयपुर में आमेर का क़िला देखने भी लोग हाथी पर चढ़ कर जाते हैं। सर्कस में रिंग मास्टर के कोड़े पर आज्ञाकारी बच्चे की तरह बड़े-बड़े हाथियों के करतब करते देख बच्चे-बूढ़े दंग रह जाते हैं। धनी लोगों के बेटों की बारात में हाथियों को सजा-धजा कर निकाला जाता है। मध्य युग में हाथियों की  युद्ध में बड़ी भूमिका होती थी। देश के तमाम धर्म स्थलों में और कुछ शौक़ीन ज़मीदाराना लोगों के घरों में भी पालतू हाथी होते हैं। दक्षिण भारत के गुरुवयूर मंदिर में 60 हाथी हैं जो पूजा अर्चना में भाग लेते हैं। 


आजतक मैं भी सामान्य लोगों की तरह गजराज के इन विभिन्न रूपों और रंगों को देख कर प्रसन्न होता था। पर पिछले हफ़्ते मेरी यह प्रसन्नता दो घंटे में काफ़ूर हो गई जब मैं मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को देखने पहली बार गया। यहाँ लगभग 30 हाथी हैं, जिन्हें अमानवीय अत्याचारों से छुड़ा कर देश भर से यहाँ लाया गया है। ये भारत का अकेला ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ है, जहां जा कर हाथियों के विषय में ऐसी जानकारियाँ मिली जिनका आपको या हमें रत्तीभर अंदाज़ा नहीं है। ये जानकारियाँ हमें शिवम् ने दी, जो कि बीटेक, एमटेक करने के बाद, वन्य जीवन संरक्षण के काम में जुटे हैं। 



क्या कभी आपने सोचा कि जो गजराज अपनी सूँड़ से टनों वज़न उठा लेता है, जंगल का राजा कहलाए जाने वाला शेर भी उसके सामने ठहर नहीं पाता, जो एक धक्के में मकान तक गिरा सकता है, वो इतना कमज़ोर और आज्ञाकारी कैसे हो जाता है कि महावत के अंकुश की नोक के प्रहार से डर कर एक बालक की तरह कहना मानने लगता है? आप कहेंगे कि ये उसको दिये गये प्रशिक्षण का कमाल है। बस, यहीं असली पेंच है। शिवम् बताते हैं कि दरअसल ये प्रशिक्षण नहीं बल्कि यातना है जो गजराज के स्वाभिमान को इस सीमा तक तोड़ देती है कि वो अपने बल को भी भूल जाता है। 



उसके प्रशिक्षण के दौरान उसके पैरों में लोहे की कांटेदार मोटी-मोटी ज़ंजीरें बांधी जाती हैं कि वो अगर ज़रा भी हिले-डुले तो उसके पैरों में गहरे ज़ख़्म हो जाते हैं, जिनसे खून बहता है। इस ज़ंजीर का इतना भय हाथी के मन में बैठ जाता है कि भविष्य में अगर उसकी एक टांग को साधारण रस्सी से एक कच्चे पेड़ से भी बांध दिया जाए तो वह बंधन मुक्त होने की कोशिश भी नहीं करता और सारी ज़िंदगी इसी तरह मलिक के अहाते में बंधा रहता है। 


एक हाथी औसतन 250 किलो रोज़ खाता है। इसलिए वो दिन भर खाता रहता है। लेकिन उसका पाचन तंत्र इस तरह बना है कि वो जो खाता है उसका आधा ही पचा पता है। शेष आधा वो मल द्वार से निकाल देता है। हाथी के इस मल में तमाम तरह के बीज होते हैं। इसलिए जंगल में जहां-जहां हाथी अपना मल गिराता है, वहाँ-वहाँ स्वतः पेड़-पौधे उगने लगते हैं। इस तरह हाथी जंगल को हरा-भरा बनाने में भी मदद करता है, जिससे प्रकृति का संतुलन भी बना रहता है।


जब हाथी को लालची इंसान द्वारा पैसा कमाने के लिए पालतू बनाया जाता है तो उसे भूखा रख कर तड़पाया जाता है, जिससे बाद में वो भोजन के लालच में, मलिक के जा-बेज़ा सभी आदेशों का पालन करे। सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक समारोहों में जोते जाने वाले हाथियों को बंधुआ मज़दूर की तरह घंटों प्यासा रखा जाता है। उसे तपती धूप में, कंक्रीट या तारकोल की आग उगलती सड़कों पर घंटों चलाया जाता है। कई बार जानबूझकर अंकुश की नोक से उसकी आँखें फोड़ दी जाती हैं। इस तरह भूखे-प्यासे, घायल और अंधे हाथियों से मनमानी सेवाएँ ली जाती हैं। प्रायः इनका कोई इलाज भी नहीं कराया जाता। प्रशिक्षण के नाम पर इन यातना शिविरों में रहते हुए ये हाथी अपना भोजन तलाशने की स्वाभाविक क्षमता भूल जाते हैं और पूरी तरह अपने मलिक की दया पर निर्भर हो जाते हैं। अक्सर आपने हाथी को सजा-धजा कर साधु के वेश में भिक्षा माँगते हुए लोगों को देखा होगा। भिक्षा माँगने के लिए प्रशिक्षित ये सब हाथी प्रायः अंधे कर दिये जाते हैं। 


एशियाई प्रजाति के दुनिया भर में लगभग साठ हज़ार हाथी हैं, जिनमें से लगभग 22-23 हज़ार हाथी भारत के जंगलों में पाए जाते हैं। जबकि ग़ुलामी की ज़िंदगी जी रहे हाथियों की भारत में संख्या लगभग 1500 है। ये हाथी कभी भी अपना स्वाभाविक जीवन नहीं जी सकते क्योंकि इनका बचपन इनसे छीन लिया गया है। ऐसे सभी हाथियों को बंधन मुक्त करके अगर संरक्षण केंद्रों में रखा जाए तो एक हाथी पर लगभग डेढ़ लाख रुपये महीने खर्च होते हैं। मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ को दिल्ली में रह रहे एक दक्षिण भारतीय दंपत्ति ने 2009 में शुरू किया था। इस केंद्र को अब देश-विदेश के दान दाताओं से आर्थिक सहयोग मिलता है। वैसे 22-23 हज़ार हाथियों की संख्या सुन कर आप उत्साहित बिलकुल न हों, क्योंकि लालची इंसानों ने ‘हाथी दांत’ और आर्थिक लाभ के लिए भारत के हाथियों पर इतने ज़ुल्म ढाए हैं कि इनकी संख्या, पिछले सौ सालों में पाँच लाख से घट कर इतनी सी रह गई है। 


मथुरा के ‘हाथी संरक्षण केंद्र’ में मिली इस अभूतपूर्व जानकारी और हृदय विदारक अनुभव के बाद मैंने और मेरे परिवार की तीन पीढ़ियों ने यह संकल्प लिया कि अब हम कभी हाथी कि सवारी नहीं करेंगे। वहाँ से विदा होते समय शिवम् ने यही अपील हमसे की और कहा कि आप देशवासियों को और ख़ासकर बच्चों को ये बताने का प्रयास करें कि अगर हाथियों को मनोरंजन का साधन न मान कर जंगलों में स्वतंत्र रहने दिया जाए तो इससे देश में जंगलों को बचाने में भी मदद मिलेगी। जिसकी ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के इस दौर में बहुत ज़रूरत है। स्कूल के बच्चों को अगर हाथियों की दुर्दशा के बारे में उपरोक्त जानकारियाँ बचपन से ही दी जाएँ तो भविष्य में हाथी संरक्षण का बड़ा काम हो सकता है। यह विडंबना ही है जिन गजराज को आस्थावान हिंदू गणेश का स्वरूप मानते हैं उन पर वे व अन्य धर्मों के लोग, ऐसे अत्याचार क्यों करते हैं या क्यों होने देते हैं? 

Monday, March 13, 2023

भीषण गर्मी की आहट डरा रही है

पिछले कुछ हफ़्तों से, मौसम वैज्ञानिकों के हवाले से, ये खबर आ रही है कि इस साल भीषण गर्मी पड़ने वाली है। इसके संकेत तो पिछले महीने ही मिलने शुरू हो गये थे जब दशकों बाद फ़रवरी के महीने में तापमान काफ़ी ऊँचा चला गया। इस खबर से सबसे ज़्यादा चिंता कृषि वैज्ञानिकों और किसानों को है। ऐसी भविष्यवाणियाँ की जा रही हैं कि अभी से बढ़ती जा रही गर्मी आने वाले हफ़्तों में विकराल रूप ले लेगी। जिससे सूखे जैसे हालत पैदा हो सकते हैं। ख़रीब की फसल पर तो इसका बुरा असर पड़ेगा ही पर रवि की उपज पर भी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि इस बढ़ती गर्मी के कारण गेहूं का उत्पादन काफ़ी कम रहेगा। इसके साथ ही फल और सब्ज़ियों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। नतीजतन खाद्य पदार्थों के दामों में काफ़ी बढ़ौतरी कि संभावना है। कितना असर होगा ये तो अप्रैल के बाद ही पता चल पाएगा पर इतना तो साफ़ है कि कम पैदावार के चलते किसान बुवाई भी कम कर देंगे। जिसका उल्टा असर ग्रामीण रोज़गार पर पड़ेगा। दरअसल गर्मी बढ़ने का एक प्रमुख कारण सर्दियों में होने वाली बारिश का लगातार कम होते जाना है। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार दिसंबर, जनवरी और फ़रवरी में औसत तापमान से एक या दो डिग्री ज़्यादा दर्ज किया गया है। इतना सा तापमान बढ़ने से बारिश की मात्रा घट गई है। 


ये तो रही कृषि उत्पादनों की बात, लेकिन अगर शहरी जीवन को देखें तो ये समस्या और भी बड़ा विकराल रूप धारण करने जा रही है। हमारा अनुभव है कि गर्मियों में जब ताल-तलैये सूख जाते हैं और नदियों में भी जल की आवक घट जाती है तो सिंचाई के अलावा सामान्य जन-जीवन में भी पानी का संकट गहरा जाता है। नगर पालिकाएँ आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति नहीं कर पाती। इसलिए निर्बल वर्ग की बस्तियों में अक्सर सार्वजनिक नलों पर संग्राम छिड़ते हुए देखे जाते हैं। नलों में पानी बहुत कम देर के लिए आता है। मध्यम वर्गीय परिवारों को भी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप पानी एकत्र करने के लिए काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है। राजनेताओं, अधिकारियों और संपन्न लोगों को इन विपरीत परिस्थितियों में भी जल संकट का सामना नहीं करना पड़ता। क्योंकि ये लोग आवश्यकता से कई गुना ज़्यादा जल जमा कर लेते हैं। असली मार तो आम लोगों पर पड़ती है। 

भीषण गर्मी पड़ने के साथ अब लोग कूलर या एयर कंडीशनर की तरफ़ भागते हैं। इससे जल और विद्युत दोनों का संकट बड़ जाता है। हाइड्रो पावर प्लांट में जल आपूर्ति की मात्रा घटने से विद्युत उत्पादन गिरने लगता है। जैसे-जैसे समाज पारंपरिक तरीक़ों को छोड़ कर बिजली से चलने वाले उपकरणों की तरफ़ बढ़ रहा है वैसे-वैसे वातावरण और भी गर्म होता जा रहा है। एयर कंडीशनरों से निकलने वाली गैस भी वातावरण को प्रदूषित करने और गर्मी बढ़ाने का काम कर रही है। 1974-76 के बीच मैं एक स्वयंसेवक के रूप में मुरादाबाद के निकट अमरपुरकाशी गाँव में समाज सेवा की भावना से काफ़ी समय तक रहा। इस दौरान हर मौसम में गाँव के जीवन को जिया। मुझे याद है कि मई जून की तपती गर्मी और लू के बावजूद हम सब स्वयंसेवक दोपहर में खुले दालान पर नीम के पेड़ की छाया में सोया करते थे। तब वो छाया ही काफ़ी ठण्डी लगती थी। गर्म लू जब पसीना सुखाती थी तो शरीर में ठंडक महसूस होती थी। इसी तरह रात में छत पर पानी छिड़क कर सब सो जाते थे। रात के ग्यारह-बारह बजे तक तो गर्म हवा चलती थी, फिर धरती की तपिश ख़त्म होने के बाद ठण्डी हवा चलने लगती थी। सूर्योदय के समय की बयार तो इतनी स्फूर्तिदायक होती थी कि पूरा शरीर नई ऊर्जा से संचालित होता था। वहाँ न तो फ्रिज का ठण्डा पानी था, न कोई और इंतज़ाम। लेकिन हैंडपम्प का पानी या मिट्टी के घड़े का पानी शीतलता के साथ सौंधापन लिये शरीर के लिए भी गुणकारी होता था। जबकि आज आरओ के पानी ने हम सबको बीमार बना दिया है। क्योंकि आरओ की मशीन जल के सभी प्राकृतिक गुणों को नष्ट कर देती है। कुएँ से एक डोल पानी खींच कर सिर पर उड़ेलते ही सारे बदन में फुरफुरी आ जाती थी। जिस से दिन भर के श्रमदान की सारी थकावट क्षणों में काफ़ूर हो जाती थी। 


आजकल हर व्यक्ति, चाहे उसकी हैसियत हो या न हो शरीर को कृत्रिम तरीक़े से ठण्डा रखने के उपकरणों को ख़रीदने की चाहत रखता है। हम सब इसके शिकार बन चुके हैं और इसका ख़ामियाज़ा मौसम के बदले मिज़ास और बढ़ती गर्मी को झेल कर भुगत रहे हैं। इस आधुनिक दिनचर्या का बहुत बुरा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ रहा है। हर शहर में लगातार बढ़ते अस्पताल और दवा की दुकानें इस बात का प्रमाण हैं कि ‘सुजलाम् सुफलाम् मलय़जशीतलाम्, शस्यश्यामलाम्’ वाले देश के हम सब नागरिक बीमारियों से घिरते जा रहे हैं। न तो हमें अपने भविष्य की चिंता है, न ही सरकारों को। समस्याएँ दिन प्रतिदिन सुलझने के बजाए उलझती जा रही हैं।

दूसरी तरफ़ हर पर्यावरणविद् मानता है कि पारंपरिक जलाशयों को सुधार कर उनकी जल संचय क्षमता को बढ़ा कर और सघन वृक्षावली तैयार करके मौसम के मिज़ाज को कुछ हद तक बदला भी जा सकता है। प्रधान मंत्री मोदी का जल शक्ति अभियान और बरसों से चले आ रहे वृक्षारोपण के सरकारी अभियान अगर ईमानदारी से चलाए जाते तो देश के पर्यावरण की हालत आज इतनी दयनीय न होती। सभी जानते हैं कि सरकार द्वारा जहां एक ओर तो वृक्षारोपण व तालाब खोदने को बढ़ावा दिया जा रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कथनी और करनी में काफ़ी अंतर है। मिसाल के तौर पर जालौन क्षेत्र में 400 छोटे बांध बनाए गए थे। इनमें से आधे से ज्यादा तबाह हो चुके हैं। ललितपुर जिले में जल संरक्षण के लिए तीन करोड़ रुपये से चल रहा काम निरर्थक हो चुका है। इसी इलाके में बादहा और रसिन बांध के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन इनका भी नतीजा शून्य ही रहा। उधर मथुरा में 2019 दावा किया गया कि सरकार द्वारा 1086 कुंड गहरे खोद कर जल से लबालब भर दिए गए हैं जबकि जमीनी हकीकत इसके बिलकुल विपरीत पाई गई। 

Monday, January 16, 2023

पर्यावरण और विकास के बीच टकराव

उत्तराखंड में भगवान श्री बद्रीविशाल जी के शरद कालीन पूजा स्थल और आदि शंकराचार्य जी की तपस्थली ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) नगर में विगत एक महीने से बड़ी लंबी-लंबी दरारें आ गई थीं, जो निरंतर दिन प्रतिदिन और गहरी व लंबी होती जा रही हैं। वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और धार्मिक लोगों के अनुसार, बेतरतीब ढंग से हुए ‘विकास’ और हर वर्ष बढ़ते पर्यटकों के सैलाब को इसका कारण माना जा सकता है।

जोशीमठ नगर बद्रीनाथ धाम से 45 किलोमीटर पहले ही अलकनंदा नदी के किनारे वाले, ऊंचे तेज ढलान वाले पहाड़ पर स्थित है। यहां पर फौजी छावनी और नागरिक मिलाकर 50,000 के लगभग निवासी रहते हैं। साल के छ महीने की गर्मियों के दौरान ये संख्या पर्यटकों के कारण दुगनी हो जाती है। 

बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थी तो आते ही हैं। इसके साथ ही विश्व प्रसिद्ध औली जाने वाले पर्यटक भी यहीं आते हैं। जो कि  बद्रीनाथ से क़रीब 50 किलोमीटर दूर है। जोशीमठ से मात्र 4 किलोमीटर पैदल चढ़ कर औली पहुंचा जा सकता है। इसलिए औली जाने वाले ज़्यादातर पर्यटक भी रात्रि विश्राम जोशीमठ में ही करते हैं। 


यहां से बद्रीनाथ धाम जाने हेतु 12 किलोमीटर नीचे की ओर विष्णु गंगा और अलकनंदा के मिलन विष्णु प्रयाग तक उतरना पड़ता है। जहां पर विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना (जेपी ग्रुप) का निर्माण कार्य चल रहा है। जिसके कारण बिजली बनाने हेतु बड़ी-बड़ी सुरंगे कई वर्षों से बनाई जा रही हैं। जिनमे से अधिकतर बन चुकी हैं। जोशीमठ शहर के नीचे दरकने और दरारें आने की मुख्य वजह ये सुरंगें ही बताई जा रही हैं। क्योंकि बारूद से विस्फोट करके ही ये सुरंग बनाई जाती है। इस कारण इन पहाड़ में दरारें आना स्वभाविक है। 

ये कार्य विगत चार दशकों से पूरे हिमालय, विशेषकर गढ़वाल और कुमाऊं के हिमालय क्षेत्र में हो रहा है। इसलिये बिजली बनाने हेतु कई सौ परियोजनाएं यहां चल रही है। मैदानों को दी जाने वाली बिजली बनाने के लिए कई दशकों से यहाँ अंधाधुंध व बेतरतीब ढंग से देवात्मा हिमालय में सुरंगों, सड़कों और पुलों का निर्माण किया गया है। जिसके कारण यहां की वन संपदा भी आधी रह गई है। 

अयोध्या से जुड़े राम भक्त संदीप जी द्वारा साझी की गई जानकारी के अनुसार, उत्तराखंड स्थित बद्री, केदार, यमुनोत्री व गंगोत्री धामों के दर्शन करके इसी जन्म में मोक्ष पाने की सस्ती लालसा के पिपासुओं की भीड़ और नव धनाढ्यों की पहाड़ों में मौज मस्ती भी यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी पड़ी है। जिसके कारण समूचा गढ़वाल हिमालय क्षेत्र तेज़ी से नष्ट हो रहा है। 


जबकि ये देवात्मा हिमालय का सर्वाधिक पवित्र क्षेत्र माना जाता है। जिसकी भौगोलिक स्थिति का स्कंध पुराण में भी विस्तृत वर्णन मिलता है। यहां कदम-कदम पर व मोड़-मोड़ पर हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों के आश्रम और पौराणिक देवस्थान स्थित हैं। इन्हीं पर्वतों से गंगा व यमुना जैसी असंख्य पवित्र नदियां भी निकली हैं। 

ऐसे परम पवित्र पावन रमणीक हरे-भरे प्रदेश का, पर्यावरणविदों के लगातार विरोध के बावजूद, बिजली बनाने और पर्यटन हेतु वर्तमान बीजेपी सरकार सहित सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने खूब दोहन किया है। जिसके कारण केदारनाथ त्रासदी जैसी घटनाएं घटित हो चुकी हैं और आगे और भी अधिक भयावह विनाश की खबरें आएंगी। 

क्योंकि जब देवताओं की निवास स्थली देवभूमि हिमालय मी पर्यटन के नाम पर अंडा, मांस, मदिरा का व्यापक प्रयोग और ना जाने कैसे-कैसे अपराध मनुष्य करेगा तो देवता तो रूष्ट होंगे ही। 


हर वर्ष गर्मियों में उत्तराखंड दर्शन और सैर सपाटे हेतु घुमक्कड़ों की भीड़ यहां इस कदर होती है कि पहाड़ों में गाड़ियों का कई किलोमीटर तक लंबा-लंबा जाम लगता है। इन्ही पर्यटकों के कारण यहां का परिस्थिति तंत्र चरमरा जाता है। यहाँ के हर शहर और गाँव में बढ़ती भीड़ हेतु होटल और गेस्ट हाउसों की बाढ़ सी आई हुई है। 

इस कारण परम पवित्र गंगा, यमुना व अलकनंदा जैसी असंख्य पवित्र नदियों में पर्यटकों का सारा मल-मूत्र और कचरा बहाया जाता है। जिसके कारण गंगा निरंतर मैली और मैली होती जा रही है। प्रश्न है कि मैदानों की बिजली की मांग तो निरंतर बढ़ती जाएगी तो इसका खामियाजा पहाड़ क्यों भरे? इसके लिए सरकारों को और बहुत से विकल्पों को आगे तलाशना होगा। क्यों ना यहां भी बढ़ती भीड़ हेतु कश्मीर घाटी के पवित्र अमरनाथ धाम के दर्शन की ही तरह दर्शनार्थियों को सीमित मात्रा में परमिट देने का सिस्टम विकसित किया जाए? हर वर्ष गर्मियों उत्तराखंड जाने वालों के नाम पते ऋषिकेश में नोट करने से ही बात नहीं बनेगी। बल्कि सख्ती से और सात्विक भावना से देवात्मा हिमालय का ख्याल हम सबको और सरकार को मिलकर रखना होगा। 

इस विषय में सबसे खास बात ये है कि सरकार समूचे हिमालय क्षेत्र हेतु एक खास दीर्घकालीन योजना बनाए। जिसमें देश के जाने-माने पर्यावरणविदों, इंजीनियर और वैज्ञानिकों के अनुभवों और सलाहों को खास तवज्जो दी जाए। तभी हिमालय का परिस्थिति तंत्र संभलेगा नहीं तो केदारनाथ त्रासदी और अभी हाल की जोशीमठ जैसी घटनाएं निरंतर और विकराल रूप में आएंगी ही आएंगी। 


दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत प्रोफेसर एवं वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एमिरेट्स साइंटिस्ट, प्रोफ़ेसर धीरज मोहन बैनर्जी के अनुसार कई साल पहले भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने एक जांच की थी। वह रिपोर्ट भी बोलती है कि यह क्षेत्र कितना अस्थिर है। भले ही सरकार ने वैज्ञानिकों या शिक्षाविदों को गंभीरता से नहीं लिया, कम से कम उसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिए था। इस क्षेत्र में बेतरतीब ‘विकास’ के नाम पर हो रहे सभी निर्माण कार्यों पर रोक लगनी चाहिए।

चिंता की बात यह है कि सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की वो कभी पर्यावरणवादियों की सलाह को महत्व नहीं देती। पर्यावरण के नाम पर मंत्रालय, एनजीटी और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन सब काग़ज़ी ख़ानापूरी करने के लिए हैं। कॉर्पोरेट घरानों के प्रभाव में और उनकी हवस को पूरा करने के लिए सारे नियम और क़ानून ताक पर रख दिये जाते हैं। पहाड़ हों, जंगल हों, नदी हो या समुद्र का तटीय प्रदेश, हर ओर विनाश का ये तांडव जारी है। मोदी सरकार द्वारा शुरू किया गया, उत्तराखण्ड के चार धाम को जोड़ने वाली सड़कों का प्रस्तावित चौड़ीकरण भविष्य में इससे भी भयंकर त्रासदी लाएगा। पर क्या कोई सुनेगा?   

देवताओं के कोप से बचाने वाले खुद देवता ही हैं। वो हमारी साधना से खुश होकर हमें बहुत कुछ देते भी हैं और कुपित होकर बहुत कुछ ले भी लेते हैं। संदीप जी जैसे भक्तों, प्रोफ़ेसर बनर्जी जैसे वैज्ञानिकों, भौगोलिक विशेषज्ञों और सारे जोशीमठ वासियों की पीड़ा हम सबकी पीड़ा है। इसलिए ऐसे संकट में सभी को एकजुट हो कर इस समस्या का हल निकालना चाहिए। 

Monday, November 7, 2022

हर साल जहरीली धुंध से क्यों घिर जाता है एनसीआर?


हर साल दिवाली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसानों द्वारा पराली जलाने से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र जहरीली धुंध से घिर जाता है। हमेशा की तरह इस साल भी इस धुंध ने यहाँ के रहने वालों के होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा हुआ है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। सबसे ज़्यादा ख़तरा तों छोटे बच्चों के लिये हो गया है। केंद्र और दिल्ली सरकार किमकर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। कई साल पहले 1999 में ऐसी ही हालत दिखी थी। तब क्या सोचा गया था और अब क्या सोचना चाहिए? इसकी जरूरत एक बार फिर से आन पड़ी है।


पर्यावरण विशेषज्ञ, नेता और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर हर साल की तरह इस साल भी इस समस्या को लेकर सिर खपा रहे हैं।उन्होंने अब तक के अपने सोच विचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश क्यों हो रही है? 



दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम कई सालों से सुनते आ रहे हैं। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों को हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि यह पूरा का पूरा कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा और क्या चारा बचता होगा? इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।


हवा के माणकों में 0-50 के बीच एक्यूआई को ‘अच्छा’, 51-100 को ‘संतोषजनक’, 101-200 को ‘मध्यम’, 201-300 को ‘खराब’, 301-400 को ‘बहुत खराब’ और 401-500 को ‘गंभीर’ श्रेणी में माना जाता है। पिछले गुरुवार सुबह छह बजे ही दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 408 के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया।यानि भयावह स्तर का प्रदूषण था। इसी से इस समय की गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है।


सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना-अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई-नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दर्जनों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।



इस समस्या को लेकर होने वाली आपात बैठकें सोच विचार कर बड़ा रोचक नतीजा निकालती हैं। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि कुछ दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर ओड-ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी। लेकिन हाल का अनुभव है कि यह योजना कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के सोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकता था। लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।


बहरहाल अभी तक व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और ज़हरीली धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठ  रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी और आगे भी करती रहेंगी।ये शेख़चिल्ली के सपने जैसा है। 


वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल,जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है । अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब सरकारें खामियां जानने से बचेंगी तो समाधान कैसे ढूंढेंगे? 

Monday, January 24, 2022

पर्यावरण मंत्रालय द्वारा ‘राज्यों को प्रोत्साहन’ !


पिछले दिनों केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक विवादास्पद कदम में, "पर्यावरण मंजूरी देने में दक्षता और समय सीमा" के आधार पर राज्यों को रैंकिंग देकर "प्रोत्साहन" देने का फैसला किया है।


इस फ़ैसले के अनुसार, जो भी राज्य किसी भी परियोजना के लिए राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के से पर्यावरण मंजूरी जल्द से जलद लेगा उस राज्य को सर्वोत्तम स्थान दिया जाएगा। एसईआईएए कम से कम समय में परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देता है और इसके द्वारा दी गई मंज़ूरी उच्च मानकों द्वारा की जाती है।  



ईसी (पर्यावरण मंजूरी) के अनुदान में दक्षता और समयसीमा के आधार पर राज्यों को स्टार-रेटिंग प्रणाली के माध्यम से प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया गया है। मंत्रालय ने पिछले हफ़्ते जारी एक आदेश में कहा, यह मान्यता और प्रोत्साहन के साथ-साथ जहां आवश्यक हो, सुधार के लिए भी है।


यदि एक एसईआईएए को मंजूरी देने में औसतन 80 दिन से कम समय लगता है तो उसे 2 अंक मिलेंगे। यदि उसे मंजूरी देने में 105 दिन से कम समय लगता है तो 1 अंक। उसी तरह 105-120 दिनों के लिए 0.5; और 120 से अधिक दिनों के लिए 0 अंक मिलेंगे।


ग़ौरतलब है कि राज्य प्राधिकरण प्रस्तावित परियोजनाओं के लिए अधिकांश पर्यावरणीय प्रभाव आकलन करते हैं। जबकि प्रमुख 'श्रेणी ए' की परियोजनाओं को केंद्र द्वारा मंजूरी दी जाती है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़कर शेष, खनन, थर्मल प्लांट, नदी घाटी और बुनियादी परियोजनाओं सहित, राज्य निकायों के दायरे में ही आते हैं।


इसके साथ ही, 100 दिनों से अधिक समय से लंबित पर्यावरण संशोधन प्रस्तावों के निपटारे के लिए भी, एसईआईएए को अंक दिए जाएँगे। 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी के लिए 1 अंक मिलेगा; 80-90 प्रतिशत निकासी के लिए 0.5; और 80 प्रतिशत से कम के लिए शून्य अंक।


इस फ़ैसले में यह भी कहा गया है की एसईआईएए द्वारा मंजूरी देने के लिए कम पर्यावरणीय विवरण मांगने पर भी राज्य के अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाएगा। यदि ईडीएस (आवश्यक विवरण) मामलों का प्रतिशत 10 प्रतिशत से कम है, तो एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; अगर यह 20 प्रतिशत है, तो उन्हें 0.5 मिलेगा; और अगर यह 30 प्रतिशत से अधिक है, तो उन्हें 0 अंक मिलेगा। 


5 दिनों से कम समय में प्रस्ताव स्वीकार करने पर एसईआईएए को 1 अंक मिलेगा; 5-7 दिनों के लिए 0.5; और 7 दिनों से अधिक के लिए 0 अंक दिए जाएँगे। 


इस रेटिंग प्रणाली शिकायतों के निपटान को भी ध्यान में रखा गया है। इसके तहत यदि सभी शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 1 अंक; यदि 50% शिकायतों का निवारण किया जाता है तो 0.5; और 50%से कम के लिए 0 अंक।


इन मापदंडों के आधार पर, यदि कोई एसईआईएए 7 से अधिक अंक प्राप्त करता है, तो उसे 5-स्टार (उच्चतम रैंकिंग) के रूप में स्थान दिया जाएगा। राज्य के अधिकारियों को भी उनके संचयी स्कोर के आधार पर 5,4,3,2 और 1-स्टार के रूप में स्थान दिया जा सकता है। इसी तरह यदि कोई भी एसईआईएए जिसे कुल 3 से कम अंक प्राप्त होते हैं उसे कोई स्टार नहीं मिलेगा। 


दरअसल, मंत्रालय का यह निर्णय पिछले साल 13 नवंबर को कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में हुई एक बैठक की पृष्ठभूमि में लिया गया है। जिसमें विशेष रूप से "कारोबार करने में आसानी" को सक्षम करने के लिए की गई कार्रवाई का मुद्दा उठाया गया था। जिसके तहत मंजूरी के अनुसार लगने वाले समय के आधार पर राज्यों की ‘रैंकिंग’ की जाएगी।


पर्यावरणविदों ने, इस कदम की आलोचना करते हुए, चेतावनी दी है कि राज्य के अधिकारी, जिनका कार्य पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित करना है, अब राज्य की रैंकिंग बढ़ाने के लिए परियोजनाओं को बिना पर्यावरण की सुरक्षा सुनिश्चित किए हुए तेजी से पूरा करने के लिए "प्रतिस्पर्धा" करेंगे। एसईआईएए बुनियादी ढांचे, विकासात्मक और औद्योगिक परियोजनाओं के एक बड़े हिस्से के लिए पर्यावरणीय मंजूरी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण और लोगों पर प्रस्तावित परियोजना के प्रभाव का आकलन करना और इस प्रभाव को कम करने का प्रयास करना है। 


दिल्ली के पर्यावरण वकील ऋत्विक दत्ता के अख़बार को दिए बयान के अनुसार यह आदेश बिल्कुल बेतुका है। जिस गति से परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है, उसके अनुसार पर्यावरण की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार संस्था को आप कैसे ग्रेड दे सकते हैं? मंजूरी के लिए समय सीमा को वैसे भी 75 दिनों तक लाया गया था, जो चिंता का विषय था, और पर्यावरण की कीमत पर परियोजनाओं को मंजूरी देने के स्पष्ट उद्देश्य से किया गया था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में, सबसे बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा श्रेणी ए के तहत पर्यावरण मंजूरी दी जाती है। एसईआईएए, मुख्य रूप से निर्माण परियोजनाओं के लिए, देश भर में 90 प्रतिशत से अधिक मंजूरी देते हैं। विश्व बैंक ने खुद व्यापार करने में आसानी के सिद्धांत को खारिज कर दिया है, यह स्वीकार करते हुए कि यह काम नहीं करता है। यह आदेश किसी वन अधिकारी को यह बताने जैसा है कि वह जितना ज़्यादा जंगल में जाएगा, उसे उतने ही कम अंक मिलेंगे। यह पर्यावरण कानून के हर प्रावधान का उल्लंघन करता है। 


दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, जितनी जल्दी मंज़ूरी, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं। अब सोचना यह है कि पर्यावरण मंत्रालय के इस नए आदेश से राज्यों को प्रोत्साहन मिलेगा या पर्यावरण का विनाश होगा।

Monday, November 15, 2021

हिमालय पर ये आत्मघाती हमला बंद हो !


हाल के वर्षों में देश के विभिन्न हिस्सों में पर्वतों का स्खलन एक भयावह स्तर तक पहुँच चुका है। पहले ऐसी दुर्घटनाएँ केवल भारी वर्षा के बाद ही होती थीं। पर आश्चर्यजनक रूप से अब वे गर्मी में भी होने लग गई हैं। अभी पिछले हफ़्ते ही दक्षिण की ओर जा रही एक रेल गाड़ी के पाँच डिब्बे भूस्खलन के कारण पटरी से उतर गए। प्रभु कृपा से इस अप्रत्याशित दुर्घटना में कोई हताहत नहीं हुआ। पर हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में तो भूस्खलन से भीषण तबाही लगातार होती आ रही है। जून 2013 की केदारनाथ की महाप्रलय कोई आज तक भूला नहीं है। पर्वतों पर हुए भारी मात्रा में पेड़ों के कटान और बारूद लगाकर लगातार पहाड़ तोड़ने के कारण ये सब हो रहा है। फिर भी न तो हम जाग रहे हैं न हमारी सरकारें। महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्व की सभी पर्वत शृंखलाओं में हिमालय सबसे युवा पर्वत माला है। इसलिए सके प्रति और भी संवेदनशील रहने की ज़रूरत है।
    

बावजूद इन सब अनुभवों के उत्तराखंड में 899 किलोमीटर का प्रस्तावित चारधाम सड़क परियोजना का काम सरकार आगे बढ़ाना चाहती है। जबकि यह परियोजना काफ़ी समय से विवादों में है। पर्यावरण और विकास के बीच टकराव नया नहीं है। आज़ादी के बाद से सभी सरकारें हमेशा ‘विकास’ का हवाला देकर पर्यावरण के नुक़सान को अनदेखा करती आई है। इस परियोजना को लेकर देश की रक्षा ज़रूरतों और पर्यावरण संबंधी चिंताओं के बीच एक गम्भीर बहस पैदा हो गई है। सरकार का कहना है कि देश की सेना हर वक्त बॉर्डर पर तैनात रहती है। कठिन परिस्थितियों के चलते सेना द्वारा सीमाओं की सुरक्षा करना काफ़ी चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी के चलते उत्तराखंड में केंद्र सरकार द्वारा ‘ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट’ को 2016 में शुरू किया गया। बाद में इसका नाम बदल कर ‘चारधाम परियोजना’ किया गया। इस प्रोजेक्ट में सड़कें चौड़ी करने के लिए अनेक पहाड़ों और हज़ारों पेड़ों को काटना पड़ेगा। इसीलिए देश के पर्यावरणविद् इस प्रोजेक्ट का कड़ा विरोध कर रहे हैं। फिलहाल ये मामला 2018 से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। इस फैसले से यह साफ हो जाएगा कि सीमा सुरक्षा के लिए उत्तराखंड में सड़कों को चौड़ा करने की इजाज़त मिलेगी या नहीं। 


कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार की तरफ़ से अटॉर्नी जनरल ने यह भी बताया कि इस प्रोजेक्ट से युद्ध की स्थिति में, जरूरत पड़ने पर 42 फ़ीट लंबी ब्रह्मोस जैसी मिसाइल को भी सीमा तक ले जाया जा सकता है। सरकार की मानें तो चीन के साथ बढ़ते तनाव के बीच यह सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण परियोजना है। ऐसे में इस सड़क का 5 मीटर से 10 मीटर चौड़ा होना अनिवार्य है और यदि भूस्खलन होता भी है तो सेना उससे निपट सकती है। वहीं पर्यावरण के लिए काम करने वाले एक एनजीओ ‘सिटिजंस ऑफ़ ग्रीन दून’ ने कहा है कि इस प्रोजेक्ट की वजह से उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थियों को जबरदस्त नुकसान पहुंचेगा। जिससे भूस्खलन व बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाएगा और वन्य व जलीय जीवों को भी नुक़सान पहुंचेगा।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2018 में पर्यावरणविद रवि चोपड़ा के नेतृत्व में एक हाई पॉवर कमेटी बनाई थी। समिति के कुछ सदस्यों के बीच इस बात को लेकर मतभेद थे कि सड़कों को कितना मीटर चौड़ा किया जाए। जाँच के बाद जुलाई 2020 में इस कमेटी ने दो रिपोर्ट कोर्ट को सौंपी थी। एक में कहा गया कि सड़कों को 5.5 मीटर तक चौड़ा किया जा सकता है। जबकि दूसरी रिपोर्ट में 7 मीटर तक सड़कें चौड़ी करने की सलाह दी गई। पर्यावरणविदों की मानें तो सड़क जितनी भी चौड़ी होगी उसके लिए उतने ही पेड़ काटने, रास्ते खोदने, पहाड़ों में ब्लास्ट करने और मलबा फेंकने की ज़रूरत पड़ेगी। अब सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता से इस विषय में और सुझाव माँगे हैं जिसके बाद कोर्ट को ये तय करना है कि इस प्रोजेक्ट में सड़क की चौड़ाई बढ़ाई जा सकती है या नहीं। यदि बढ़ाई जा सकती है तो कितनी। दरअसल इस तरह के आत्मघाती विकास के पीछे बहुत सारे निहित स्वार्थ कार्य करते हैं जिनमें राजनेता, अफ़सर और निर्माण कम्पनियाँ प्रमुख हैं। क्योंकि इनके लिए आर्थिक मुनाफ़ा ही सर्वोच्च प्राथमिकता होता है। जितनी महंगी परियोजना, उतना ही ज़्यादा कमीशन। यह कोई नयी बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानी ‘नमक का दरोग़ा’ में इस तथ्य को 100 वर्ष पहले ही रेखांकित कर गए हैं। पर कुछ काम ऐसे होते हैं जिनमें आर्थिक लाभ की उपेक्षा कर व्यापक जनहित को महत्व देना होता है। पर्यावरण एक ऐसा ही मामला है जो देश की राजनैतिक सीमाओं के पार जाकर भी मानव समाज को प्रभावित करता है। इसीलिए आजकल ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को लेकर सभी देश चिंतित हैं।


अब देश की राजधानी को ही लें। पिछले हफ़्ते दिल्ली में प्रदूषण ख़तरनाक सीमा तक बढ़ गया। आपात काल जैसी स्थित हो गई। दूसरे देशों में ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 100 पहुँचते ही आपात काल की घोषणा कर दी जाती है। जबकि दिल्ली में पिछले शुक्रवार को ‘एयर क्वालिटी इंडेक्स’ 471 पहुँच गया। अस्पतालों में साँस के मरीज़ों की संख्या अचानक बढ़ने लगी। बच्चों और बुजुर्गों के लिए ख़तरा ज़्यादा हो गया। पिछले साल लॉकडाउन के 15 दिन बाद ही पूरी दुनिया में इस बात पर हर्ष, उत्सुकता और आश्चर्य व्यक्त किया गया था कि, अचानक महानगरों के आसमान साफ़ नीले दिखने लगे। दशकों बाद रात को तारे टिमटिमाते हुए दिखाई दिए। यमुना निर्मल जल से कल-कल बहने लगी। जालंधर से ही हिमालय की पर्वत शृंखला दिखने लगी। वायुमंडल इतना साफ़ हो गया कि साँस लेने में भी मज़ा आने लगा। अचानक शहरों में सैंकड़ों तरह के परिंदे मंडराने लगे। तब लगा कि हम पर्यावरण की तरफ़ से कितने लापरवाह हो गए थे जो कोविड ने हमें बताया। उम्मीद जगी थी कि अब भविष्य में दुनिया संभल कर चलेगी। पर जिस तरह चार धाम को जोड़ने वाली सड़क को लेकर सरकार का दुराग्रह है और जिस तरह हम सब अपने परिवेश के प्रति फिर से लापरवाह हो गए हैं, उससे तो नहीं लगता कि हमने कोविड के अनुभव से कोई सबक़ सीखा। 

  


Monday, November 8, 2021

हिंदू त्योहार और आतिशबाज़ी


इस साल दीपावली पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर लगे पूर्ण प्रतिबंध मिला-जुला असर दिखाई दिया। एक ओर जहां इस आदेश को लेकर पटाखा व्यवसाय से जुड़े हुए सभी व्यापारी परेशान रहे। वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का खुलेआम मज़ाक़ उड़ाते दिखाई दिए। वहीं ऐसे दृश्य भी सामने आए जहां प्रशासन द्वारा इस आदेश का पालन करते हुए लोगों के ख़िलाफ़ कार्यवाही भी हुई। आवश्यक्ता इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताज़ा आदेश के बाद भारत में पटाखों पर पूरी तरह से लगे प्रतिबंध का न सिर्फ़ सख़्ती से पालन किया हो बल्कि जनता में जागरूकता भी आए। देश में पहले से ही पर्यावरण प्रदूषण की वजह से बुरा हाल हो रहा है और पटाखों से निकलने वाली प्रदूषित गैस पर्यावरण को और अधिक नुकसान पहुंचाएगी।

हर साल की तरह दीपावली पर दिल्ली की ज़हरीली वायु से छुटकारा पाने के लिए हम अपने पूरे परिवार के साथ अपने वृंदावन के घर पर आए थे कि यहाँ पटाखों से कुछ निजात मिलेगी। परंतु हुआ इसके विपरीत। वृंदावन में रात दो बजे तक पटाखों के शोर ने जहां हमारी गायों को परेशान किया वहीं छोटे बच्चे भी परेशान रहे। कोई सो नहीं सका। वहीं दिल्ली के कई इलाक़ों में जागरूकता व पुलिस की सख़्ती की वजह से बहुत कम पटाखे चले। हम अपने बच्चों को कई दिन से समझा रहे थे कि पटाखों से निकलने वाले धुएँ से पर्यावरण का कितना नुक़सान होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर रोक लगा दी है। इसलिए केवल दियों से ही दीपावली मनाएँगे। परंतु सर्वोच्च न्यायालय की रोक का असर उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले में तो दिखाई नहीं दिया।  


वैसे सनातन धर्म के शब्दकोश में ‘आतिशबाजी’ जैसा कोई शब्द ही नहीं है। यह शब्द पश्चिम एशिया से आयातित है, क्योंकि ‘मध्ययुग’ में गोला-बारूद भी भारत में वहीं से आया था। इसलिए दीपावली पर पटाखों को प्रतिबंधित करके, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णंय लिया। हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण, स्वास्थ, सुरक्षा व सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर घोलते हैं। इनका निर्माण व प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले 30 वर्षों से बार-बार उठती रही है। इसी कॉलम में मैंने भी यह बात कई बार लिखी है। 

हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव व त्यौहार, आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता आया है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना, यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना, द्वार पर आम के पत्तों के तोरण बांधना, केले के स्तंभ लगाना, रंगोली बनाना, घर पर शुद्ध पकवान बनाना, मिल बैठकर मंगल गीत गाना, धर्म चर्चा करना, बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना, घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकार्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा-दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते आऐ हैं। जिनसे परिवार और समाज में नई ऊर्जा का संचार होता आया है।

गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पड़ा, जैसा शहरों पर पड़ा है। अन्यथा सब चौपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्यौहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दीखता है। वैसे यह स्थिति बदल रही है। जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना चाहिए।

बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वों को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना, अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इसमें से सामूहिकता, प्रेम-सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी। त्यौहार कोई भी हो, उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

मिट्टी के बने दिये, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की बनी गूजरी व हटरी आदि आज भी हमारे घरों में दीवाली की पूजा का अभिन्न अंग होते हैं, पर शहरीकरण की मार से बड़े शहरों में इनका उपयोग समाप्त होता जा रहा है। अगर हम अपनी इस रीति को जीवित रखें, तो हमारे कुम्हार भाईयों के पेट पर लात नहीं पड़ेगी।

हम अपने बच्चों का जन्मदिन (हैपी बर्थ डे) केक काटकर मनाते हैं। जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है। जबकि हमें उनका तिलक कर, आरती उतार कर व आर्शीवाद या मंगलाचरण गायन कर उनका जन्मदिन मनाना चाहिए। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे, परिवार में प्रेम को बढ़ाने वाली गतिविधियां हों, बच्चे बड़ों का सम्मान करें, तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य, जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा, चाहे कितने ही तूफान आये। 

पश्चिमी देशों में जाकर बस गए, भारतीय परिवारों से पूछिए, जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया, उनके परिवारों का क्या हाल है। और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया, वे कितने सधे हुए, सुखी और संगठित है। तनाव, बिखराव तलाक, टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ है। इनसे बचना और अपनी जड़ों से जुड़ना, यह भारत के सनातनधर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर आऐ दिन तीखी झड़पें होती रहती है। जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी सम्प्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता, केवल उत्तेजना बढ़ती है। जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं, जिनका यदि अनुपालन किया जाए, तो समाज में सुख, शांति और समरसता का विस्तार होगा। अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाऐं, तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को यह स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीड़ित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उनका उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया।इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी, जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। पटाखों की निरर्थकता को समझकर आने वाले वर्षों में दीपावली जैसे हिंदू त्योहारों को आतिशबाज़ी किए बिना सनातनी तरीक़ों से ही मनाएँ। इसमें ही सबका भला है।